चाची जी
जब मैं पाँच बरस का था तो चाचा जी की शादी हुई। चाची जी घऱ में आ गईं। खिला हुआ गोरा रंग और सुंदर जैसे मंदिर में सजी हुई गौरी हों। उसी साल बी.ए. की परीक्षा दी थी उन्हों ने। तब लड़कियों का मेट्रिक पास करना भी बहुत बड़ा तीर मारना होता था। मैं अक्सर उन के आस पास ही बना रहता। मुझे सब सरदार ही कहा करते थे। स्कूल में नाम दिनेश लिखा गया था। लेकिन चाची जी मुझे हमेशा दिनेश जी कहती थीं। उन का मुझे नाम ले कर पुकारना और फिर पीछे जी लगाना बहुत अच्छा लगा। वे पहली थीं जिन ने मुझे इतनी इज्जत बख्शी थी। इस के बाद तो बहुत लोग जीवन में आए जिन्हों ने उम्र में बड़े होते हुए भी मुझे जी लगा कर पुकारा।
मैं वकालत करने कोटा आया तो यहाँ के अभिभाषकों में सब से वरिष्ठ थे पं. रामशरण जी शर्मा। उन की उम्र मेरे दादा जी के बराबर थी। वे केवल वकील ही नहीं थे। उन का इतर अध्ययन भी था और वे विद्वान थे। सभी उन के पैर छूते थे। उन के पास रहते हुए मुझे बहुत भय लगता था इस बात का कि कहीं ऐसा न हो कि मैं कोई ऐसी बात कह दूँ या कोई ऐसी हरकत कर दूँ जिस से उन्हें बुरा लग जाए। हालांकि इच्छा यह होती थी कि जब भी वे बोल रहे हों उन के आस पास बना रहूँ। उन की आवाज बहुत धीमी और मीठी थी। इतनी धीमी कि लोगों को कान और ध्यान दोनों लगा कर सुनना पड़ता था। अदालत में भी जब वे बहस करते तो भी उन का स्वर धीमा ही रहता था। जज उन की बात को बहुत ध्यान से सुनते थे। जब वे बोलते थे तो अदालत में सन्नाटा होता था। कहीं ऐसा न हो कि उन के बोलने में कोई व्यवधान पड़े।
एक दिन अचानक फोन की घंटी बजी। फोन पर बहुत महीन और मधुर स्वर उभरा - द्विवेदी जी, मैं पंडित रामशऱण अर्ज कर रहा हूँ।
मैं इस आवाज को सुनते ही हड़बड़ा उठा। मैं ने उन्हें प्रणाम किया। बाद में वे जो कुछ पूछना चाहते थे पूछते रहे मैं जवाब देता रहा। उन के इस विनम्र व्यवहार से मैं उन के प्रति अभिभूत हो उठा था। इस के बाद उन से निकटता बनी। एक दिन उन से खूब बातें हुई। उस दिन मैं ही बोलता रहा, वे अधिकांश सुनते रहे। उन्हों ने कोई टिप्पणी नहीं की। दो-चार दिन बाद उन्हों ने आगे से कहा -मुझे उस दिन तुम्हारी बातों से आश्चर्यजनक प्रसन्नता हुई कि वकीलों में अब भी ऐसे लोग आ रहे हैं जो वकालत की किताबों के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ते हैं। फिर उन के पौत्र वकालत में आए। वे अक्सर उन के बारे में मुझ से पूछते कि -हमारा नरेश कैसा वकील है? मुझे जो भी बन पड़ता जवाब देता।
मेरी आवाज बहुत ऊंची है। जब अदालत में बहस करता हूँ तो अदालत के बाहर तक सुना जा सकता है। लेकिन मुझे मेरी यही आवाज मुझे अच्छी लगती थी। लेकिन पंडित जी से मिलने के बाद बुरी लगने लगी। मुझे लगा कि मुझे धीमे बोलने की आदत डालना चाहिए जिस से लोग मुझे ध्यान से सुनें और उस पर गौर करें। मेरा व्यवहार छोटे से छोटे व्यक्ति के साथ भी मधुर, विनम्र और सम्मानपूर्ण होना चाहिए। मैं तभी से यह प्रयास करता रहा हूँ कि मैं ऐसा कर सकूँ। मैं अभी तक इस काम में सफल नहीं हो सका हूँ, लेकिन प्रयत्नशील अवश्य हूँ।
कल खुशदीप जी ने मुझे कहा कि मैं उन्हें खुशदीप कहूँ तो उन्हें खुशी होगी। उन का कहना ठीक है। शायद वे इसी तरह मुझ से अधिक आत्मीयता महसूस करते हों। लेकिन मैं जो कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहा हूँ उस में तो यह बाधा उत्पन्न करता ही है। यदि मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे? मुझे लगता है कि उन्हें इस से बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं सभी से ऐसा ही व्यवहार कर सकूँ। मैं तो कहता हूँ कि मेरे सभी पाठक यदि अपने से उम्र में छोटे-बड़े सभी लोगों से ऐसा व्यवहार कर के देखें। वे अपने बच्चों और पत्नी या पति को जिस भी नाम से पुकारते हैं उस के अंत में जी लगा कर संबोधित कर के देखें, और लगातार कुछ दिन तक करें। फिर बताएँ कि वे कैसा महसूस करते हैं।
31 टिप्पणियां:
दिनेश जी बहुत सुंदर बात कही आप ने, मुझे भी हर किसी के साथ जी लगा कर बात करने मै सुख मिलता है, अच्छा लगता है, चाहे वो मेरे से उम्र मै छोटा ही क्यो ना हो, मुझे बहुत अच्छा लगता है, ओर आशा करता हू खुश दीप जी बुरा नही मानेगे
मुझसे तो सीधा प्रशान्त कह कर बात करते हैं.. आगे से पल्लिज मुझे भी प्रशान्त जी कहियेगा.. पल्लिज.. :D
(मजाक कर रहा था जी :))
जी आदर का एक बेहतरीन शब्द है. पूरा का पूरा माहौल बदल देने में समर्थ भी
100 टके की बात.एकदम दुरुस्त बात कही है आपने....जी लगाने से आत्मियता भी बढ़ती है....कोशिश तो करता हूं पर क्या करुं दिल्लीवाली जुबान अब जनाब. जी की जगह तुम या इससे मिलते जुलते शब्द ही कहने पर आत्मियता महसूस करती है जैसे ..आप कहिए. आप कीजिए..आप बताइए..की जगह आप बोलो, आप करो आप बताओ.....कोई शब्द कहीं अच्छा लगता है कोई कहीं....
रही खुशदीप जी की बात..तो उन्हें मैं मना लूंगा आपकी तरफ से...
पढ़ रहे हैं जी। तीन तरह की टिप्पणियां आई दिमाग में। हमने सबसे कहा जाओ जी! बाद में आइयेगा। अभी बांच रहे हैं।
लो जी ये अच्छी कही आपने? हमको तो कोई ताऊजी नही कहता? सब ताऊ ही कहते हैं. तो हम क्यों किसी के आगे जी लगायें? इस बात को स्पष्ट किया जाये.:) या हमको भी ताऊजी कहा जाना चाहिये कि नही?
रामराम.
ताऊ जी झूठ कह रहे हैं..हम तो हमेशा ताऊ जी कहते हैं उन्हें. :)
बात सही कही आपने और विचारणीय एवं अनुकरणीय है.
मधुर बोलने मे व जी लगाने में आत्मीयता बढ़ जाती है । अनुकरणीय सलाह ।
भाई जी !
अपने हमउम्र, अग्रज और अजनबियों चाहें छोटे हों या बड़े को हमेशा जी लगाना पसंद करता हूँ मगर जिनसे मैं अपने आपको बेहद या बहुत प्यार करता हूँ उन्हें केवल पहले नाम से संबोधित करूंगा !
खुशदीप भाई उम्र में छोटे होने के बावजूद,उनके विचारों के कारण एक स्वाभाविक सम्मान मन में रहता है अतः खुशदीप जी कहना सम्मान के साथ साथ स्वाभाविक प्यार का परिचायक है ! अतः मुझे लगता है यह व्यक्तिगत निकटता और भावों के ऊपर अधिक निर्भर करता है !
सादर
लो ताऊ भी आ गया !
इसे तो कोई ताऊ साहब या जी नहीं कहता , पूरे दिन ताऊ से भेंट होने के बाद हर आदमी अपने को ठगा सा महसूस करता है ! एक बार जो वहां फंसा, तो गया काम से कोई न कोई दवा चेंप दी जायेगी ! सब कुछ जानते हुए भी ताऊ नोट बनाए जा रहा है और कोई मना नहीं करता द्विवेदी जी !
फिर भी , ताऊ प्यारा है
ब्लाग जगत में न्यारा है
द्विवेदी सर,
आपका हुक्म सिर माथे पर...आपको जो पसंद, वही मुझे पसंद...
बस एक शंका का निवारण कर दीजिए...क्या बेटे और बिटिया या अपने छोटे भाई के नाम के साथ भी आप जी लगाना पसंद करेंगे...
जय हिंद...
जी लगाना हमारी भारतीय परम्परा है। हम छोटे और बड़ों का आदर करते हैं। आपने कई बातों को अपनी बात में कह दिया। लेकिन आधुनिकता में तो केवल नाम ही रह गया है। मैं देखकर दंग रह जाती हूँ जब एक युवा कर्मचारी अपने से कई गुणा बड़े बॉस को भी नाम लेकर पुकारता है। लेकिन खुशदीप जी की बात भी सच्ची है, छोटों को नाम लेकर बुलाने से अपनत्व सा लगता है। लेकिन यह भी नजरिए का ही अन्तर है।
जी लगाने से भाषा में नजाकत तो आ ही जाती है।
राम राम सा
बहोत पहले की एक चिट्ठी में पतो लिख्योड़ो थो
पंडित जी रामनारायण जी शर्मा जी (रामपुरा वाले जी)नारनौल जी जिला महेन्द्र्गढ जी(पंजाब जी)
पहले पता म्हे भी इतणा जी लगा दिया करता।
पण अपणा टाबर नै कोई जीकारो लगाए के कोनी बोले। ओपरो लागे सा।
राम राम
सही कहा है आपने, कहीं जी का सबोधन अच्छा लगता है तो कहीं, वही संबोधन जी का जंजाल सा लगता है...आत्मीयता के आड़े आता हुआ.
ji tau ji
Smiles !
जी और आप ऐसे शब्द है जिन्हें बोलने और सुनने दोनों मे ही अच्छा लगता है।
मैं तो दिनेश जी कहना कभ्ही न छोडूं -और दिनेश जी भी मुझे अरविन्द जी ही कहें -बाकी का अरविन्द भी चलेगा मगर दिनेश जी के मुंह से नहीं !
केवल अरविन्द कहने वालों ने ही मुझे बड़े धोखे दिए हैं !
देखो पंचो बात ये सै की.... हमारे यहां तो दामाद को भी "जी" नहीं लगाया करते. दामाद आता है तब अगर कोई पुछे की कौन आया है? तो उसे बताया जाता है की छोरी का छोरा (दामाद) आया सै. तो भाई अपने से उम्मीद मत रखना.
रामराम.
@PD
सच कहा! अभी तक मैं भी अभ्यास में ही हूँ। हो सकता है जीवन भर इस अभ्यास में सफल न हो सकूँ। पर अभ्यासी बने रहने में कौन हानि है। मैं ने इसी पोस्ट में लिखा भी है....
मुझे लगा कि मुझे धीमे बोलने की आदत डालना चाहिए जिस से लोग मुझे ध्यान से सुनें और उस पर गौर करें। मेरा व्यवहार छोटे से छोटे व्यक्ति के साथ भी मधुर, विनम्र और सम्मानपूर्ण होना चाहिए। मैं तभी से यह प्रयास करता रहा हूँ कि मैं ऐसा कर सकूँ। मैं अभी तक इस काम में सफल नहीं हो सका हूँ, लेकिन प्रयत्नशील अवश्य हूँ।
@ताऊ रामपुरिया
ताऊ जी! बहुत भली कही आपने। आप ने तो अपनी छवि ऐसी बनाई है। आप किसी को जी कहेंगे तो लगेगा कि पत्थर फेंका है। वैसे भी हरियाणा और राजस्थान के ब्रज से लगे भागों में यही संस्कृति है। वहां सब तुम और तू ही बोलते हैं। उस का कारण है कि वहाँ आराध्य कृष्ण हैं वे भी बालक कृष्ण। जिन से सखा भाव है। सखा भाव आप कहने और जी लगाने बिगड़ जाता है।
आप ठहरे पक्के बनिए, अपना भाव थोड़े ही बिगाड़ेंगे।
@ खुशदीप सहगल
बेटे का नाम यूँ तो वैभव है पर उसे घर पर सब गोलू कहते हैं, बेटी का नाम पूर्वा। बेटे को गोलू जी बेटी पूर्वा को बेटे जी कहने में जो आनंद मिलता है वह कहीं और नहीं।
@ ललित शर्मा
भली कही जमाई जी,
राजस्थान में तो टाबराँ ने कंवरजी अर भंवरजी क्हेवे के न्हीं क्हेवे?
चैनसिंह कूँ चैनजी क्हेवे अर नंदलाल कूँ नंदजी।
जमाई सा.! अठे सासरा म्हाइनें आयाँ घणा दन होग्या दीखे।
तीसरा खम्बा के फॉण्ट कुछ गड़बड़ कर रहे हैं ! कृपया चेक करें !
यदि एक पीढ़ी का अंतर हो तो स्वयंमेव ही, नाम के साथ जी नहीं लगता ज़बान पर
लेकिन जब मतभेद या नाराज़गी होती है तो मामला उल्टा हो जाता है। उम्र में छोटों को संबोधित करते वक्त जी लगा देता हूँ और बड़ों के साथ जी हटा देता हूँ :-)
वैसे यह जी का जंजाल नहीं है
aapne udaharan achchhe diye sir, par badon ke dwara ji lagan to mujhe bhi akharta hai..
अरे दिनेश बिटवा ई पोस्ट बहुते बढिया लिखी. वैसे त हमार ताल्लुक नखलेऊ से है पर हम ई बुढौती मां तुम बच्चा लोगन को जी नाही सकत. पर हमें कोई अम्मा कहे त भी बहुते बढिया लगत है अऊर अगर कोई अम्माजी कहे तो भी बहुते आनंद आत है.
@ अरविंद मिश्र बिटवा तू बहुते भोला है..."केवल अरविन्द कहने वालों ने ही मुझे बड़े धोखे दिए हैं !
इसका दोषी भी तुम खुदे हो. अम्माजी ने तो बहुते पहले तुमको समझाया रहा कि ई टाईप कुलच्छनियों को मुंह मत लगाया करो. पर तुमने ही ऊ बख्त हमार बात नाही सुनी...खैर अब अम्माजी को अब तसल्ली हो गई कि तुमको अच्छे बुरे का ज्ञान हो गया अऊर तुम इन सब को समय रहते चीन्ह गये.
बच्चों तुम लोग ऐसे ही मजे मजे की पोस्ट लिखते रहो..हंसी मजाक करते रहो...पर किसी की मौज नाही लेना. अच्छा अब अम्माजी का भजन पूजन करबे का बख्त हुई गवा. हम चलती हैं.
अम्माजी
अम्मा जी कूँ पाय लागूँ।
अम्मा जी हमउँ समझ गया। जो जी में जी बैठा होय तो जुबान में जी हो के न हो फरक ना पड़ै।
आर आर एस ने जी लगा लगा कर ही अपना इतना बडा संगठन खडा कर लिया .
मारा दादीसा रा पापाजी रो नाम पण सागर ई हो। तो दादीसा म्हने कोइ ने पण सागर नीं खेवा देता। कहेता कि मारा भा को नांव कियां बिगाड़ौ हो!
बस उसके बाद तो पापाजी मम्मी जी और सब मुझे सागरजी या सागूड़ा कहने लगे। आज भी पापाजी या तो बेटाजी कहते हैं या सागर।
जब बड़े जी लगाते थे तो हमारी भी वही आदत बन गई अपने से छोटों को जी लगाकर बुलाने की। लेकिन देखा है कई बार लोग यह शिकायत करते हैं कि जी मत लगाया करो इससे आत्मीयता महसूस नहीं होती।
अभी मैने अपनी पुत्री को जी लगा कर बुलाया
वह घबड़ा गई! पूछने लगी-
हमसे क्या गलती हो गई पापा?
हा.. हा.. हा..
--यह तो हंसी की बात है।
हमें छोटे-बड़े सभी का आदर करना चाहिए।
किसी को पहचानना हो कि वह कैसा आदमी है तो सबसे सरल तरीका यही है
कि देखें वह अपने से कमजोर आदमी के साथ कैसा व्यवहार करता है।
--अच्छी पोस्ट के लिए आभार।
सही है ,हम तो पहले से ही इसी पदचिन्ह पर है जी.
आपकी पोसअ के निष्कर्ष से हर समझदार आदमी सहमत होगा। आत्मीयता दीजिए, आत्मीयता पाइए। सम्मान दीजिए, सम्मान पाइए।
मै जब उज्जैन मे पढ़ता था तो हमारे एक सर ड़ॉ.आर्य सभी छात्रो को जी कह कर ही सम्बोधित करते थे । हमे अच्छा तो लगता था लेकिन एक बार उन्होने बताया कि हमे बचपन से शाखा मे यह बताया गया है कि सभीको जी कहो । बस उस दिन से उनका यह जी बुरा लगने लगा ।
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