श्री विष्णु बैरागी जी के ब्लाग एकोऽहम् पर कुछ दिन पहले एक पोस्ट थी 'वृद्धाश्रम: मकान या मानसिकता'। मैं ने इस पर टिप्पणी की थी "काका साहब बेटे बहू और पोते पोती के दोस्त क्यों नहीं बन जाते हैं? क्यों दादा ही बने रहना चाहते हैं? मेरे पिता जी के काका जी ने यही किया था। वे हमारे और पिताजी के दोस्त बन गए थे। कभी पूरी बात लिखूंगा। शायद जल्दी ही।" इस पोस्ट को पढ़ कर जो कुछ मेरे स्मरण में आया उसे ही आज दोहरा रहा हूँ।
वे मेरे सब से छोटे दादा जी थे। कुल पाँच में से मेरे दादा जी और उन के छोटे भाई एक से, दो एकसे, और एक एक से कुल मिला कर मेरे पाँचों दादा जी तीन दंपतियों की संतान थे। सब से छोटे दादा जी से मेरे दादा जी का संबंध तीन पीढ़ी पहले से था। पर दादा जी ने जिस तरह परिवार को एक रखा था हमें बहुत बाद में पता लगा कि पांचों दादा जी एक माता-पिता की संतान नहीं थे। छोटे दादा जी ने जीवन में बहुत पापड़ बेले। वे पहले एक दादा जी के साथ कोटा में व्यवसाय में थे, फिर अपना बिजली का काम करने लगे। जिन दादा जी के साथ वे थे वे लापता हो गए। तो सब भाइयों ने मिल कर उन की तीन बेटियों के ब्याह किए। छोटे दादा जी के खुद दो ब्याह हुए, एक बेटी भी हुई। पत्नियाँ कम उम्र में उन का साथ छोड़ गईं। वे अकेले रह गए तो कोटा छोड़ उज्जैन की एक कपड़ा मिल में नौकरी करने चले गए। बाद में वे बड़ी दादी को अपने साथ ले गए। छोटे दादा जी साल में एक-दो बार बारा आते हम बच्चों के लिए कुछ न कुछ ले कर आते। पिताजी और उन की खूब निभती थी। बारां में काका भतीजे दोनों चौबीसों घंटे साथ रहते।
जब मैं सात आठ वर्ष का था, पिता जी अम्माँ, मुझे और दो बहनों को ले कर उज्जैन गए। हम वहाँ कोई आठ-दस दिन रुके। रोज शाम दादा जी हमें टेकरी पर घुमाने ले जाते, कभी आइसक्रीम खिलाते कभी कुछ और। इस तरह पाँच दिन निकल गए। छठे दिन सुबह सुबह ही दादा जी मुझ से पूछने लगे -तुम्हें यहाँ आए कितने दिन हो गए? मैं ने बताया पाँच दिन। तो कहने लगे -तुम कैसे बेकार बच्चे हो? तुम्हें यहाँ उज्जैन आए पाँच दिन हो गए हैं और अभी तक तुमने सिनेमा देखने की जिद नहीं की? सिनेमा नहीं देखा तो नए जमाने को कैसे पहचानोगे? मुझे यह सब जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि वे हम से इस तरह बात कर सकते हैं। पिताजी तो सिनेमा के कट्टर विरोधी थे। हमारी कभी उन से सिनेमा जाने कहने की हिम्मत नहीं होती थी। जाते भी थे तो तब जब वे बाराँ में नहीं होते थे, वह भी छोटे काका के साथ। धीरे-धीरे हम समझ गए कि ये दादा जी हैं जिन से अपनी इच्छा खुल कर कही जा सकती है और बहुत सी बातें ऐसी भी की जा सकती हैं जो हम परिवार के किसी दूसरे बुजुर्ग के साथ नहीं कर सकते।
कोई पाँच सात बरस बाद परिवार की एक शादी में हम जोधपुर में थे। बाजार में निकले छोटे दादा जी ने वहाँ की मावा कचौरी और मिर्ची बड़े खिलवाए। छोटी बहिन कहने लगी मुझे चप्पलें लेनी हैं। हम सभी चप्पल की दुकान पर पहुँचे। बहिन ने पिता जी की उपस्थिति में सादी सी चप्पलें पसंद कीं, जिन्हें छोटे दादा जी ने रिजेक्ट कर दिया। कहने लगे -ये भी कोई चप्पलें हैं? बिलकुल आउट ऑफ फैशन। जरा ऊंची ऐड़ी वाली कुछ तड़क भड़क वाली खरीदो तो सहेलियाँ बार बार पूछें कि कहाँ से लाई है? कितने की लाई है? छोटे दादा जी ने उसे जबरन नवीनतम फैशन की चप्पलें पहनाईं। छोटे दादाजी हम सभी बच्चों के मित्र थे। वे हमारे मन को पढ़ सकते थे। इस का नतीजा था कि हम सब बच्चे उन का हमेशा ख्याल रखा करते। उन्हें क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है? केवल हम ही नहीं मेरी सब बुआएँ और उन के बच्चे उन के साथ रहना पसंद करते थे। मैं समझता हूँ कि मेरे छोटे दादा जी की ही तरह तमाम बुजुर्ग चाहें तो अपने बच्चों और उन के बच्चों के मित्र बन सकते हैं।
12 टिप्पणियां:
बहुत सही कहा दिनेश जी , ओर हमे अपने बचपन से भी बहुत कुछ सिखना चाहिये,आज अगर हम अपने बच्चो के पोते पोतियो के दोस्त नही बनेगे तो हम अकेले ही अपने आप को महसुस करेगे.धन्यवाद इस सुंदर पोस्ट के लिये
द्विवेदी साहब , बात में दम है और होना भी यही चाहिए, मगर कुछ दिक्कते भी है कि मानलो दादाजी तो समझदार है मगर अन्य सदस्य ... फिर कुछ नहीं हो सकता ! रोचक संस्मरण !
nice
बहुत ही रोचक वृतांत. अब आपके जैसे छोटे दादाजी सबको मिल ही जायें ये भी भाग्य की बात है. फ़िर भी आपकी सलाह काबिले गौर है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
पीढ़ियों में सामंजस्य दर्शाती पोस्ट ...अच्छी पोस्ट !
सुन्दर और उपयोगी पोस्ट। आपकी यह पोस्ट, आपके कहे अनुसार, मेरी पोस्टवाले दादाजी को पढवा रहा हूँ।
ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि अपेक्षित प्रभाव हो और तदनुसार परिणाम मिलें।
दादा, दादी, नाना, नानी,
आओ आओ सुनाओ कहानी ।
इसी दोस्ताना सामंजस्य की जरूरत है...
हमारे दादाजी ने भी दोस्त बनकर हमें बहुत कुछ सिखाया ।
लेकिन आजकल ऐसा नहीं होता । अब संयक्त परिवार भी कहाँ मिलते हैं।
अच्छा संस्मरण।
बहुत भावभीनी -अपने दादा जी याद आ गये -आँखे भर आयीं !
अनमोल अनुभूतियां साझा कीं आपने...
भाव भी है, रस भी है, संदेश भी है...
बेहतरीन पोस्ट
फिलवक्त आपके दादाजी जैसे ही दादाजी और नानाजी मेरे पिताजी बने जा रहे हैं.. :)
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