कल एक मई, मजदूर दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत में बहुत आलेख इस विषय पर या मजदूरों से संबंधित विषयों पर पढ़ने को मिले। अखबारों और पत्रिकाओँ की यह रवायत बन गई है कि किसी खास दिवस पर उस से संबंधित आलेख लिखें जाएँ और प्रकाशित किए जाएँ। टीवी चैनल भी उन का ही अनुसरण करते हैं और यही सब अब ब्लाग जगत में भी दिखाई दे रहा है। जैसे ही वह दिन निकल जाता है लोग उस विषय को विस्मृत कर देते हैं और फिर अगले खास दिन पर लिखने में जुट जाते हैं। इस दिवस पर लिखे गए अधिकांश आलेखों के साथ भी ऐसा ही था। सब जानते हैं कि मई दिवस क्यों मनाया जाता है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं।
डेढ़ सदी से अधिक समय हो चला है उस दिन से जब 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' जारी किया गया था जिसे पिछली सदी के महान दार्शनिकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगेल्स ने लिखा था। इस घोषणा पत्र में 'प्रोलेटेरियट' शब्द का प्रयोग किया गया था और उस का अर्थ स्पष्ट किया गया था, यह इस तरह था -
डेढ़ सदी से अधिक समय हो चला है उस दिन से जब 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' जारी किया गया था जिसे पिछली सदी के महान दार्शनिकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगेल्स ने लिखा था। इस घोषणा पत्र में 'प्रोलेटेरियट' शब्द का प्रयोग किया गया था और उस का अर्थ स्पष्ट किया गया था, यह इस तरह था -
By proletariat, the class of modern wage labourers who, having no means of production of their own, are reduced to selling their labour power in order to live. [Engels, 1888 English edition]
हिंदी में इसी प्रोलेटेरियट को सर्वहारा कहा गया। आज सर्वहारा शब्द को सब से विपन्न व्यक्ति का पर्याय मान लिया जाता है। जब कि मूल परिभाषा पर गौर किया जाए तो सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
हिंदी में इसी प्रोलेटेरियट को सर्वहारा कहा गया। आज सर्वहारा शब्द को सब से विपन्न व्यक्ति का पर्याय मान लिया जाता है। जब कि मूल परिभाषा पर गौर किया जाए तो सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
यहाँ जिस 'श्रमशक्ति' का तात्पर्य केवल मनुष्य की शारीरिक ताकत से ही नहीं है। काम के दौरान या शिक्षा के फलस्वरूप मनुष्य जो कुशलता प्राप्त करता है वह भी उसी श्रमशक्ति का एक हिस्सा है। इस तरह कोई व्यक्ति जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को मुद्रा या वस्तुओं के बदले बेचने को बाध्य है तो वह सर्वहारा ही है, उस से अलग नहीं।
यदि हम अब पुनः सर्वहारा की परिभाषा पर गौर करें तो पाएंगे कि बहुत से लोग इस दायरे में आते हैं। मसलन इंजिनियर, डाक्टर, वकील, तमाम वैज्ञानिक, प्रोफेशनल्स और दूसरी क्षमताओं वाले लोग जो कि किसी न किसी संस्थान के लिए काम करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं वे सभी उजरती मजदूर यानी सर्वहारा हैं। दुनिया में जो कुछ भी मानव द्वारा निर्मित है उन के द्वारा निर्मित हैं संचालित है। बस एक चीज है जो उन के पास नहीं है और वह यह कि उस का इन दुनिया नियंत्रण नहीं है। क्यों कि जो कुछ वे उत्पादित करते हैं वह पूंजी की शक्ल में रूपांतरित किया जा कर किसी और के द्वारा अपने अधिकार में कर लिया जाता है और फिर वे लोग पूंजी में रूपांतरित श्रम की ताकत पर दुनिया के सारे व्यापारों को नियंत्रित करते हैं। वे लोग जो दुनिया के मनु्ष्य समुदाय का कठिनाई से दस प्रतिशत होंगे इस तरह शेष नब्बे प्रतिशत लोगों पर नियंत्रण बनाए हुए हैं।
समस्या यहीं है, इस सर्वहारा के एक बड़े हिस्से को पूंजी पर आधिपत्य जमाए लोगों ने यह समझने पर बाध्य किया हुआ है कि वे वास्तव में सर्वहारा नहीं अपितु उस से कुछ श्रेष्ठ किस्म के लोग हैं, वे श्रमजीवी नहीं, अपितु बुद्धिजीवी हैं, और चाहें तो वे भी कुछ पूंजी पर अपना अधिकार जमा कर या दुनिया के नियंत्रण में भागीदारी निभा सकते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों के सामने यह जो चारा लटका हुआ है वे उस की चाह में उस की ओर दौड़ते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि यह चारा खुद उन के सर पर ही बांधा हुआ है जो उन के दौड़ने के साथ ही लगातार आगे खिसकता रहता है। इस बात से अनजान यह तबका लगातार चारे की चाह में दौड़ता रहता है। चारा लटके रहने का यह भ्रम जब तक बना हुआ है तब तक दुनिया की यह विशाल सर्वहारा बिरादरी चंद लोगों द्वारा हाँकी जाती रहेगी। जिस दिन यह भ्रम टूटा उस दिन उसे नहीं हाँका जा सकता। वह खुद हँकने को तैयार नहीं होगी।
22 टिप्पणियां:
मेरी कविता के इशारे को स्पष्ट करने के लिए धन्यवाद।
तथाकथित बुद्धिजीवियों के सामने यह जो चारा लटका हुआ है वे उस की चाह में उस की ओर दौड़ते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि यह चारा खुद उन के सर पर ही बांधा हुआ है जो उन के दौड़ने के साथ ही लगातार आगे खिसकता रहता है। इस बात से अनजान यह तबका लगातार चारे की चाह में दौड़ता रहता है। चारा लटके रहने का यह भ्रम जब तक बना हुआ है तब तक दुनिया की यह विशाल सर्वहारा बिरादरी चंद लोगों द्वारा हाँकी जाती रहेगी। nice
समसामयिक सारगर्भित चिन्तन दिनेश भाई। डेढ़ सदी में सचमुच बहुत परिभाषायें बदल गयीं हैं, पर सर्वहारा की यही कहानी है कि-
खाकर के सूखी रोटी लहू बूँद भर बना
फिर से लहू जला के रोटी जुटाते हैं
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
भ्रम हमेशा नहीं बने रहते, दुनिया के सभी भ्रम एक दिन टूटे हैं। यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा।
अवश्य ही टूटना है यही नियति है।
आभार
कल बहुतेरे आलेख और कवितायें देखीं ...विशेषकर टिप्पणियां पढ़ीं...लोग मजदूरों के लिये इस तरह से 'दुआयें' कर रहे थे गोया वे खुद मजदूर नहीं हैं और किसी 'ईश्वर' को मजदूरों के 'उद्धार' के लिए 'अवतार' लेना शेष है ...काफी दुखी था कि मित्रगण मुझे सर्वहारा मानने को तैयार ही नहीं ...भला क्यों ? ये तो वे ही जाने पर आपका आज का आलेख बेहद जरुरी था !
मौजूं इशारे किये है आपने।
सर्वहारा के मूल अंतर्निहितों को सबके सामने आना जरूरी है।
शुक्रिया।
ज़िन्दाबाद!
इन्तजार किया जाये। बर्लिन की दीवार टूटने का भी इन्तजार किया गया था!
मजदूरों के लिए लडते हुए जितना आप उनके दर्द उनकी समस्याओं को समझ पाए होंगे और कौन । सामयिक आलेख
अली भाई जिस दिन ग़ुलाम को ग़ुलामी आ एहसास हो जाये उस दिन के बाद उसे ग़ुलाम बनाये रख पाना असंभव हो जाता है। शासक वर्ग हमेशा चाहता है कि शोषित भी इसे अपनी ही व्यवस्था माने।
आप सबका मई दिवस पर क्रांतिकारी अभिनन्दन!
आप ने बिलकुल सही लिखा,्युरोप मै इस दिन पुरी छुट्टी होती है, ओर वेसे भी यहां मजदुर ओर मालिक मै फ़र्क नही रहा. इस लिये यहां अब नारे वाजी ओर आयोजन भी नही होते, बस सब मिल कर छुट्टी मनाते है, लेकिन अब भारत मै तो यह भ्रम सच मै टुटना ही चाहिये मजदुर कोई जानवर नही, कोई गुलाम नही, तभी हम सब तरक्की कर सकेगे
@भाई अजय कुमार झा
द्विवेदी जी नें समझाने की कोशिश की है कि वे भी सर्वहारा हैं फिर भी आप उन्हें दायरे से बाहर कर रहे हैं :)
@भाई अशोक कुमार पाण्डेय जी
अभिवादन !
@ द्विवेदी जी
ये तय हुआ कि कई ? टिप्पणीकार मित्रों नें आपका आलेख पढ़ा ही नहीं :)
@ Ali
धन्यवाद अली भाई,
मैं नहीं समझता कि टिप्पणीकारों ने मेरे आलेख को नहीं पढ़ा। कोई भी टिप्पणीकार ऐसा नहीं जो नियमित रूप से टिप्पणी करता हो। निश्चय ही उन्हों ने जो भी टिप्पणियाँ की हैं वे सभी आलेख को पढ़ कर ही की हैं। लेकिन मजदूर,सर्वहारा और पूंजीपति के बारे में हमारे संस्कारों में मौजूदा व्यवस्था ने जो चित्र स्थापित किए हुए हैं वे अधिक भारी पड़ते हैं। मुझे तो लगता है कि मेरी ही कोशिश में कुछ कमी रह गई है।
वैसे भी मजदूर और सर्वहारा का अर्थ समझना बड़ा मुश्किल है। यहाँ कोटा में कोई पचास बरस पहले जब मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित नौजवानों ने काम आरंभ किया तो नगर में जो सब से बड़ा सेठ था उसी को लक्ष्य बनाए हुए थे। वह मामूली व्यापारी था, उन की सारी कविताएँ और आंदोलन उसी को लक्ष्य लेकर होते थे। कुछ बरस बाद जब नगर में आरंभिक कारखाने स्थापित हुए तो उन्हें पता लगा कि पूंजीपति क्या है और मजदूर क्या है। सर्वहारा तो और भी दूर की बात है।
@गिरिजेश राव
आप की कविता तो एक दम क्लासिक है।
@ज्ञानदत्त पाण्डेय
इंतजार तो करना ही होगा, तब तक, जब तक कि पानी उबलने के नजदीक तक न पहुँच जाए।
सारे वादों को एक पंक्ति से नापता हूँ ।
परहित सरस धरम नहीं भाई ।
गरीबों की बात से रोटी सेंकने वाला लम्पट हो सकता है और धनाड्य भी गरीबों का मसीहा हो सकता है । कभी इन सिद्धान्तों को समझने में बुद्धि व्यर्थ नहीं की ।
द्विवेदी सर,
आज आपने आंखें खोल दीं कि हमारा शुमार भी सर्वहारा वर्ग में होता है...
प्रोलेटेरिेयेट को आसान शब्दों में समझाने के लिए आभार...
जय हिंद...
यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा-उसी दिन का इन्तजार है.
बर्लिन की दीवार भी टूटी और सोवियत संघ भी टूटा. बचे हुए भरम भी टूट ही रहे हैं, बन्दूक के दम पर भरम कितनी देर टिकेंगे भला?
@स्मार्ट इंडियन
आप किस भ्रम की बात कर रहे हैं? कृत्रिम दीवारें तो सब टूटेंगी ही। वे चाहे बर्लिन की हों या कोई दूसरी। अभी तो उस भ्रम की बात की गई थी जो उजरती मजदूर होते हुए भी हम पालते हैं। सोवियत संघ एक वास्तविकता थी, भ्रम नहीं। वह टूटा जरूर है लेकिन उस की अपनी कमजोरियों और पथ विचलन के कारण। लेकिन वह तो पहला प्रयोग था। उस के बाद तो इंसानियत ने बहुत कुछ सीखा है और बहुत कुछ सीखना शेष है।
आदरणीय द्विवेदी जी,
मैं सभी भ्रमों के अंततः टूटने की (असतो मा सद्गमय की) बात कर रहा हूँ. खासकर उन सब्ज्बागी भ्रमों की जो साम्यवाद के नाम पर उन गरीब मजदूरों को दिखाए गए थे जिन्हें बाद में तानाशाहों ने कुत्तों की मौत मारा. कोई भी ऐसी व्यवस्था जो अपने से भिन्न विचारधारा को बर्दाश्त नहीं कर सकती है इंसानियत का भला नहीं कर सकती. अगर हर धर्मात्मा आपका दुश्मन है और पूंजी रखने वाला या उसे सही ठहराने वाला हर आदमी आपकी बन्दूक के निशाने पर है वहां समानता किसके लिए आयेगी - ज़ाहिर है टॉप पर बैठे हृदयहीन सामंती (I mean साम्यवादी) तानाशाह के लिए. वैसे भी अगर आप वकील या डॉक्टर को मजदूर कह भी देंगे तो उससे उनका या समाज का क्या भला होने वाला है खासकर उस समाजवाद/साम्यवाद में जहां हर विरोधी के लिए एक गोली तय है.
@स्मार्ट इंडियन जी
बहस बहुत लम्बी खिंच सकती है। यदि बहस के बिंदु स्पष्ट हों। किसी भी व्यवस्था में अच्छे बुरे लोग हो सकते हैं, मौका पड़ने पर महत्वपूर्ण लोग तानाशाह भी हो सकते हैं। लेकिन किसी भी व्यवस्था का मूल्यांकन लोगों के आधार पर नहीं किया जा सकता। जिस तरह सामंतवाद का अंत निश्चित था और पूंजीवाद का आगमन। उसी तरह पूंजीवाद भी हमेशा नहीं रहने वाला। एक नयी व्यवस्था ने जन्म तो लेना ही है। निश्चित रूप से सोवियत संघ की जब स्थापना हुई तो वहाँ सामंतवाद बड़ी मात्रा में मोजूद था। वे प्रवृत्तियाँ बहुत बाद तक बनी रहीं। मार्ग से विचलन भी हुआ। यह विचलन ही सोवियत संघ के पतन का कारण भी बना। चीन में तो सामंतवाद के विरुद्ध लड़ कर ही नई व्यवस्था कायम हुई। नई व्यवस्था पुरानी के गर्भ में ही जन्म लेती है। पुरानी व्यवस्था के कुछ संस्कार बने भी रहते हैं। सोवियत संघ और चीन की गलतियों से सीखा जा सकता है। लेकिन एक बेहतर व्यवस्था कायम करने के सपने को छोड़ा तो नहीं जा सकता। यह नई और बेहतर व्यवस्था बहुसंख्य जनता बना सकती है। यह बहुसंख्या उजरती मजदूरों की ही है।
मनुष्य की एक बेहतर व्यवस्था की खोज जारी रहेगी। उस का अंत संभव नहीं है। हमें उस के लिए आपसी विचार विमर्श और कोशिशें जारी रखना चाहिए। हमारे विचार एक दूसरे के एक दम विरोधी हो सकते हैं। लेकिन हमारा उद्देश्य यदि बेहतर मानवीय व्यवस्था स्थापित करना हो तो हम कभी न कभी एकमत भी हो लेंगे।
सर्वहारा की परिभाषा को बहुत सरल रूप मे आपने परिभाषित किया है अब इससे ज़्यादा परिभाषित और कोई क्या करेगा । समझने के लिये सिर्फ समझाने वाले की ही नहीं खुद समझने की भी ज़रूरत होती है ।
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