अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के प्रथम सर्ग धरती माता का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध पढ़ चुके हैं। इन दोनों कड़ियों को ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग बदलने के साथ ही यादवचंद्र जी काव्य का रूप भी बदल देते हैं। यह इस के दूसरे सर्ग को पढ़ते हुए आप स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का दूसरा सर्ग "मनुष्य का विकास" प्रस्तुत है .........
परंपरा और विद्रोह
* यादवचंद्र *
* यादवचंद्र *
द्वितीय सर्ग
मनुष्य का विकास
रूढ़ियों की रीढ़ पर
देता मजूरा चोट-
धरती काँपती
आकाश डगमग
जब हुआ विस्फोट-
पलटा तम का,
ज्वाल से निर्मित चरण
आगे बढ़े
ऊषा लजाई
आग से पा ताप
कलियाँ मुस्कुराईँ
खुल गईँ
प्यासी भुजाएँ
वासना के स्लथ नयन
ऊपर उठे
पर, झुक गए
यह गरल का उन्माद
करिश्मे नए।
यह अति नवीन प्रयोग-
चिर झूठी सुधा है
गरल, गति, भूडोल है
भीषण क्षुधा है।
पूर्णता या चाँदनी या शान्ति ? -
मस्तिष्क का प्रमाद
सुधा की भ्रान्ति।
जब फूटा गगन में
रश्मियों का ढ़ेर
जागा कन्दरा में
एक भूखा शेर-
मांसल-पुष्ट-गर्वीली भुजाएँ
नत ललाट
और कुछ उभरी शिराएँ
देखता है
क्रुद्ध वह मुड़ कर दिशाएँ
किधर, कैसे, किस तरह
आगे बढ़ें
कुछ छीन लाएँ
फाड़ दामन सृष्टि के
वह सोचता है
किस तरह
इस पेट की ज्वाला बुझाएँ।
जीवन दीप की शत् शत् शिखाएँ
जल उठीं । दिनकर बढ़े
ज्वाला बढ़ी, बलधर कढ़े
यह भूख का विद्रोह
भागा सूर्य, धरती, सोम
लो भूचाल-फूटा व्योम,
सूकर देव ! वाराहावतार !
रोक लो तुम
विश्व मैं ले भागता
मैं स्वयं बन अवतार
अब हूँ योग अपना साधता
तब,
गिर गया दिनमान
फिरते जंगलों में श्वान
उस को मिल गए दो-एक
पौरुष का यही अभिमान
उस का जागता बन कर
वेद, सांख्य, पुराण।
बन्दर झाड़ियों का
तोड़ता पत्थर
पहुँचता ताम्र के ले खड्ग
लोहे के बने पथ पर
जमाने के
विकुण्ठित मुण्ड ले कर
खून से लथ-पथ
भयावह मानवीय स्वरूप
बन कर-
राम, कृष्ण, सीता
(व्यक्ति पूजा
सर्वोहँ)
रामायण, गीता
मुहम्मद, बुद्ध के
त्रिपिटक, क़ुरान ?
प्रायश्चित कर्मों के गान
तो वर्ग का संघर्ष
करता आ रहा विस्फोट
औ, रूढ़ियों की रीढ़ पर
देता मजूरा चोट।
विकासोन्मुख, क्षुधित, बेकल
चलाती भावनाएँ हैं
जगत को प्रतिनिमिष, प्रतिपल
कि, जिसमें ताप का परिमाण
करता भिन्न रूप निर्माण
स्थिर चेतना औ प्राण
गति या तेज, पौरुष, ज्ञान
जग को दे गया आलोक
पल पल प्रगति-विद्युत नाम
प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'मनुष्य का विकास' नाम का द्वितीय सर्ग समाप्त
देता मजूरा चोट-
धरती काँपती
आकाश डगमग
जब हुआ विस्फोट-
पलटा तम का,
ज्वाल से निर्मित चरण
आगे बढ़े
ऊषा लजाई
आग से पा ताप
कलियाँ मुस्कुराईँ
खुल गईँ
प्यासी भुजाएँ
वासना के स्लथ नयन
ऊपर उठे
पर, झुक गए
यह गरल का उन्माद
करिश्मे नए।
यह अति नवीन प्रयोग-
चिर झूठी सुधा है
गरल, गति, भूडोल है
भीषण क्षुधा है।
पूर्णता या चाँदनी या शान्ति ? -
मस्तिष्क का प्रमाद
सुधा की भ्रान्ति।
जब फूटा गगन में
रश्मियों का ढ़ेर
जागा कन्दरा में
एक भूखा शेर-
मांसल-पुष्ट-गर्वीली भुजाएँ
नत ललाट
और कुछ उभरी शिराएँ
देखता है
क्रुद्ध वह मुड़ कर दिशाएँ
किधर, कैसे, किस तरह
आगे बढ़ें
कुछ छीन लाएँ
फाड़ दामन सृष्टि के
वह सोचता है
किस तरह
इस पेट की ज्वाला बुझाएँ।
जीवन दीप की शत् शत् शिखाएँ
जल उठीं । दिनकर बढ़े
ज्वाला बढ़ी, बलधर कढ़े
यह भूख का विद्रोह
भागा सूर्य, धरती, सोम
लो भूचाल-फूटा व्योम,
सूकर देव ! वाराहावतार !
रोक लो तुम
विश्व मैं ले भागता
मैं स्वयं बन अवतार
अब हूँ योग अपना साधता
तब,
गिर गया दिनमान
फिरते जंगलों में श्वान
उस को मिल गए दो-एक
पौरुष का यही अभिमान
उस का जागता बन कर
वेद, सांख्य, पुराण।
बन्दर झाड़ियों का
तोड़ता पत्थर
पहुँचता ताम्र के ले खड्ग
लोहे के बने पथ पर
जमाने के
विकुण्ठित मुण्ड ले कर
खून से लथ-पथ
भयावह मानवीय स्वरूप
बन कर-
राम, कृष्ण, सीता
(व्यक्ति पूजा
सर्वोहँ)
रामायण, गीता
मुहम्मद, बुद्ध के
त्रिपिटक, क़ुरान ?
प्रायश्चित कर्मों के गान
तो वर्ग का संघर्ष
करता आ रहा विस्फोट
औ, रूढ़ियों की रीढ़ पर
देता मजूरा चोट।
विकासोन्मुख, क्षुधित, बेकल
चलाती भावनाएँ हैं
जगत को प्रतिनिमिष, प्रतिपल
कि, जिसमें ताप का परिमाण
करता भिन्न रूप निर्माण
स्थिर चेतना औ प्राण
गति या तेज, पौरुष, ज्ञान
जग को दे गया आलोक
पल पल प्रगति-विद्युत नाम
प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'मनुष्य का विकास' नाम का द्वितीय सर्ग समाप्त
9 टिप्पणियां:
Is tarah ki kavita pahli baar padhne ko mileen.. aabhar aapka sir. chitra bhi achchhe dhoondhe aapne.
आभार इस अनुपम रचना को पढ़वाने का.
द्विवेदी सर,
कविता पढ़कर बायलोजी में पढ़ा पाठ मानव का विकास याद आ गया...छात्रों को जटिल पाठ पढ़ाने के लिए इस तरह की कविताएं अच्छा माध्यम बन सकती हैं...
जय हिंद...
पिछली की तरह यह भी सुन्दर ।
PAHALE BHAAGO KEE TARAH YAH BHEE ATI SUNDAR KAVITAA HAI |
DHANYAVAAD |
बहुत सुंदर लगी यह कविता.
धन्यवाद
यह अनायास नहीं है कि मुझे इस काव्य मे मुक्तिबोध की परम्परा का निर्वाह दिखाई दे रहा है । बहुत चम्त्कारिक बिम्ब है और भाषा का प्रवाह भी अद्भुत ।
विकासोन्मुख, क्षुधित, बेकल
चलाती भावनाएँ हैं ...
hmm...Impressive !
उल्लेखनीय काव्य है ! खूब ठहर-ठहर कर पढ़ता हूँ इस विकास-काव्य को !
आभार !
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