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शनिवार, 3 अगस्त 2013

राजनीति के विकल्प का साहित्य रचना होगा।

  -अशोक कुमार पाण्डे

"प्रेमचन्द जयन्ती पर साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द पर परिचर्चा" 

 

'विकल्प' जन-सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा  प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर आयोजित परिचर्चा रविवार 28 जुलाई को दोपहर बाद प्रेसक्लब भवन में आयोजित की गई थी। प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजित समारोह सदैव ही बरसात से व्यवधानग्रस्त  हो जाते हैं।  इस परिचर्चा के दिन भी दिन भर बरसात होती रही। लेकिन बरसात के बावजूद भी परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओँ और श्रोताओं की संख्या अच्छी  खासी थी। उस दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि मुख्य अतिथि अशोक पाण्डे जी के वापस लौटने की ट्रेन निरस्त हो गई और उन्हें स्टेशन से वापस लौटना पड़ा। सुबह बस से ही उन की वापसी संभव हो सकी।  



इस परिचर्चा का विषय 'साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द' था। अतिथियों को स्वागत के बाद परिचर्चा का आरंभ करते हुए विकल्प के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य रचनाकारों-कलाकारों के बीच संवाद करते हुए शिक्षण और रचनाशीलता के लिए नई ऊर्जा का संचार करना तथा विचारहीनता के विरुद्ध मुहिम चलाते हुए समाज के अन्तर्विरोधों की समझदारी विकसित करना है। मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य और कला का एक मात्र स्रोत है। फिर भी साहित्य और कला में जीवन का प्रतिबिम्बित होना ही पर्याप्त नहीं है उसे वास्तविक जीवन से अधिक तीव्र, अधिक केंद्रित, विशिष्ठतापूर्ण, आदर्श के अधिक निकट और सांन्द्र होना चाहिए जिस से वह  पाठक और कला के भोक्ता को अधिक तीव्रता  के साथ प्रभावित कर सके। साहित्य और कलाएँ राजनीति से अछूते नहीं होते अपितु वे राजनीति के अधीन होते हैं, लेकिन वे राजनीति को प्रभावित भी करते हैं। वे जनता को जाग्रत करते हैं, उत्साह से भर देते हैं और वातावरण  को रूपान्तरित करने के लिए एकताबद्ध होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं।  कला और साहित्य को समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।   खुद प्रेमचन्द अक्सर कहते थे कि "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ।" वे कहते थे " साहित्य जीवन की आलोचना है।" "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिस में उच्च चिन्त हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे-सुलाए नहीं, क्यों कि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।" अपनी अर्धांगिनी शिवरानी देवी से उन्हों ने कहा कि "साहित्य, समाज और राजनीति तीनों एक ही माला के तीन अंग हैं, जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उस का समाज भी अच्छा होगा, समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। हमें आज की इस परिचर्चा में प्रेमचंद के साहित्य व जीवन के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज और राजनीति के अन्तर्सबंधों की छानबीन करनी है।

परिचर्चा का आरंभ करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि प्रेमचन्द समाज के चितेरे थे। हम आसपास के साधारण और विशिष्ठ चरित्रों के नजदीक रह कर भी जितना नहीं जान पाते उस से अधिक हमें प्रेमचन्द का साहित्य उन के बारे में बताता है। उन की रचनाएँ केवल यह नहीं बताते कि लोग कैसे हैं और कैसा व्यवहार करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं और ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। चरित्रों की वर्गीय और सामाजिक परिस्थितियाँ उन के जीवन और व्यवहार को निर्धारित करती हैं। प्रेमचन्द इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं और वे आज भी अपने साहित्य के उपभोक्ता को अन्य रचनाओं से अधिक दे रही हैं। आज का सामान्य व्यक्ति जब राजनीति को देखता, परखता है तो उस की प्रतिक्रिया होती है कि राजनीति दुनिया की सब से बुरी चीज है। सामान्य व्यक्ति का यह निष्कर्ष गलत नहीं हो सकता क्यों कि वह उस के जीवन के वास्तविक अनुभव पर आधारित सच्चा निष्कर्ष है।  सामान्य व्यक्ति जानता है कि राजनीति से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह नहीं सोच पाता कि यदि राजनीति सब से बुरी है तो फिर उस का विकल्प क्या है? लेकिन प्रेमचंद अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' में उस का विकल्प सुझाते हैं "गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खातमा हो जाता है" हम समझ सकते हैं कि प्रेमचन्द यहाँ समाज से वर्गों की समाप्ति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि राजनीति का विकल्प ऐसी नीति हो सकती है जिस से अंतत समाज से राज्य ही समाप्त हो जाए। 

डॉ. प्रेम जैन ने कहा कि प्रेमचन्द गांधी जी और स्वतंत्रता आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित थे। लेकिन उन की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि वे स्वतंत्रता के रूप में सामन्ती और पूंजीवादी शोषण से मुक्त समाज चाहते थे। 
शून्य आकांक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का काल कृषक सभ्यता के ह्रास और औद्योगिक सभ्यता के उदय का काल था। उन्हों ने उस काल के सामाजिक यथार्थ और अन्तर्विरोधों को अत्यन्त स्पष्टता के साथ अपने साहित्य में उजागर किया। सर्वाधिक संप्रेषणीय भाषा का प्रयोग किया। जीवन का यथार्थ चित्रण किया जिस के कारण वे संपूर्ण भारत में सर्वग्राह्य बने। 

प्रो. हितेष व्यास ने कहा कि प्रेमचन्द कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज के साहित्य को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द ने साहित्य और भाषा के माध्यम से राजनीति की। उन्हों ने अपने राजनैतिक विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन की भाषा उन की राजनीति थी। उन की साहित्यिक यात्रा एक विकास यात्रा है उन्हों ने गांधीवाद से समाजवाद तक का सफर तय किया। 
मुख्य वक्ता अशोक कुमार पाण्डे ने कहा कि साहित्य, समाज और राजनीति तीनों नाभिनालबद्ध हैं। कोई चीज राजनीति से परे नहीं होती, निष्पक्षता का भी अपना पक्ष होता है, राजनीति विहीनता की भी अपनी राजनीति है जो सदैव यथास्थिति के पक्ष में जाती है। हम जब प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो देखें कि उन के पास क्या परम्परा थी? साहित्य के नाम पर ऐयारी का साहित्य था। भाषा के नाम पर उर्दू फारसी भाषा की परंपरा थी। उन्हें बुनियाद भी रखनी थी और मंजिलें भी खड़ी करनी थीं। हलकू पहली बार साहित्य में नायक बना तो का्य वह फारसी शब्दों से लबरेज उर्दू बोलता या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी हिन्दी बोलता? तब हलकू की बोलचाल की भाषा उन के साहित्य की भाषा बनी। उन के साहित्य के पात्र अपनी जैसी भाषा बोलते हैं। उन का पात्र यदि पण्डित है तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता है, मौलाना है तो अरबी फारसी के शब्द उस की बोली में आते हैं। जैसा पात्र है वैसी भाषा है। उन की आरंभिक कहानियों में 'मंत्र' जैसी कहानियाँ भी हैंऔर 'कफन' भी। उन का साहित्य संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उन के साहित्य में गांधी के आन्दोलन का प्रभाव आना स्वाभाविक था।उन के कुछ साहित्य में टाल्सटाय का प्रभाव है लेकिन वे इन सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते हैं और समाजवाद तक पहुँचकर कहते हैं कि मैं बोल्शेविक विचारों का कायल हो गया हूँ। 

उन्हों ने कहा कि यह सही है की प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है। लेकिन यह जितनी उनकी सफलता है, उससे कहीं अधिक हमारे समाज की असफलता भी है। प्रेमचन्द के बाद देश को साम्राज्यवदी शासन से मुक्ति मिली। हम ने अपनी सार्वभौम सरकार की स्थापना की, एक तथाकथित दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र स्थापित कर लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला। गाँवों में अभी भी वही शोषण बरकरार है, गाँव का किसान उतना ही मजबूर है और नगर में मजदूर भी उतना ही मजबूर है। बल्कि शोषण का दायरा बढ़ा है। अमीरों की संख्या और अमीरी बढ़ी है तो गरीबों की संख्या और गरीबी भी बढ़ गई है। इंसान की जिन्दगी और अधिक दूभर हुई है। जनतंत्र में वोट के जरिए परिवर्तन का विकल्प सामने रखा जाता है लेकिन वोट के जरिए जिसे हटा कर जो लाया जा सकता है उस में कोई अन्तर आज दिखाई नहीं देता।  ऐसे में मौजूदा राजनीति का विकल्प जरूरी हो गया है। एक विकल्पहीनता की स्थिति दिखाई देती है। लेकिन समाज में कभी विकल्पहीनता नहीं होती। विकल्प हमेशा होता है। आज के समय में भी विकल्प है। हमें साहित्य में मौजूदा राजनीति के उसी विकल्प को उजागर करना होगा। हमें उसी  विकल्प का साहित्य रचना होगा। 

हाड़ौती के गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ ने कहा। प्रेमचन्द को समझना अलग बात है। मैं गाँव का हूँ और गाँव में सभी को प्रत्यक्ष देखा है। लेकिन गाँव का यथार्थ तब समझा जब प्रेमचन्द को पढ़ा। उन्हों ने समाज के यथार्थ को समझाया कि राजनीति उन के दुखों का कारण है। कर दबे, कुचले लोगों को एक होने संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हमें उन की इसी साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

अम्बिकादत्त ने कहा कि प्रेमचन्द और उन की परम्परा को समझने के लिए हमें उन के साहित्य को फिर से पढ़ना चाहिए। उन्हों ने हिन्दी के साहित्य को चन्द्रकान्ता के तिलिस्म से आगे बढ़ाया और समाज के बीच ले गए।  डा. रामविलास शर्मा कहते हैं कि प्रेमचन्द कबीर के बाद सब से प्रखर व्यंगकार हैं। उन से सीखते हुए लेखकों को भद्रलोक के घेरे से बाहर निकल कर जीवन की यथार्थ छवियाँ अंकित करनी चाहिए। 
परिचर्चा के अध्यक्ष बशीर अहमद 'मयूख' ने कहा कि प्रेमचन्द सही अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। यह विवाद बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल होनी चाहिए या वह राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं हो सकती। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और वह राजनीति को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे को मार्ग दिखाते हैं। 

परिचर्चा का संचालन करते हुए उर्दू शायर शकूर अनवर ने कहा कि प्रेमचन्द हिन्दी के ही नहीं उर्दू के भी उतने ही महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। भाषा की सरलता के सम्बन्ध में जो कुछ वे हिन्दी में करते और कहते हैं उन्हों ने ही सब से पहले उर्दू में भी भाषा की सरलता के बिन्दु पर जोर दिया। 

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

लेखक-पाठक के बीच की दूरी पाटने के लिए लेखकों को स्वयं सामूहिक प्रयास करने होंगे

उपन्यासकार अशोक जामनानी के साथ एक विचारोत्तेजक संगोष्ठी 


कुछ दिन पहले अचानक मुझे महेन्द्र 'नेह' ने बताया कि युवा उपन्यासकार श्री अशोक जमनानी केन्द्रीय साहित्य अकादमी की लेखक यात्रा योजना के अंतर्गत 17 फरवरी को कोटा आ रहे हैं और "विकल्प" अखिल भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मोर्चा की कोटा इकाई को उन के साथ "लेखक और पाठक के बीच दूरी को कौन पाटेगा" विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन करना है। उन्हों ने यह भी बताया कि उस दिन वे खुद और शकूर "अनवर" कोटा में नहीं होंगे। संगोष्ठी को आयोजित करने की दायित्व मुझे वहन करना है। यह सूचना मिलने के अगले दिन ही मुझे चार दिनों के लिए बाहर जाना था और 11 फरवरी को लौटना था। महेन्द्र ने मुझे आश्वासन दिया कि गोष्ठी के लिए आरंभिक तैयारी वे कर लेंगे और मुझे केवल एक दिन पहले उस काम में जुटना है। मैं 11 फरवरी रात को कोटा पहुंचा और यहाँ आते ही अपनी वकालत में व्यस्त हो गया। 15 फरवरी की शाम मुझे अचानक उक्त दायित्व का स्मरण हुआ तो मैं ने महेन्द्र 'नेह' को फोन किया। तो पता लगा वे मोर्चा के अखिल भारतीय सम्मेलन में जाने के लिए ट्रेन में बैठ चुके हैं और मोर्चा के अ.भा. सचिव होने के कारण उस की तैयारियों की व्यस्तता के कारण संगोष्ठी की तैयारी भी नहीं कर सके हैं, सब कुछ मुझे ही करना है।
अतिथि का स्वागत
मैं अपने व्यक्तिगत कारणों से विगत तीन-चार वर्षों से इस तरह के कार्यक्रम आयोजनों के दायित्व से दूर ही था। अब अचानक यह दायित्व आ गया जिसे निभाना था। खैर! मैं ने विकल्प के सक्रिय साथियों में से तथा अपने मित्रों से टेलीफोन से संपर्क किया। गोष्ठी के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ साथियों के सहयोग से कराईं। मुझे आशा थी कि इस आयोजन में लगो पर्याप्त संख्या में जुट जाएंगे। समय की कमी के कारण पहली गलती तो यह हुई कि गोष्ठी की सूचना किसी स्थानीय अखबार में प्रकाशित कराने की बात तब स्मरण हुई जब 17 फरवरी का अखबार लोगों के हाथों में पहुँच गया। जिस का सीधा नतीजा यह हुआ कि संगोष्ठी में उपस्थिति अपेक्षित से कम रही। संतोष की बात यह रही कि संगोष्ठी के विषय में रुचि रखने वाले लेखक और विद्वान पर्याप्त संख्या में उपस्थित थे। करीब ढाई घंटे चली यह संगोष्ठी बहुत उपयोगी रही। विषय पर विस्तार से चर्चा हुई और जो प्रश्न संगोष्ठी में रखा गया था उस पर एक सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचा जा सका।  
अशोक जमनानी
संगोष्ठी में अतिथि उपन्यासकार अशोक जमनानी ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि आज के लेखक अपने साहित्य के स्थान पर स्वयं को स्थापित करने में लगे हैं, जिस के कारण लेखक और पाठक के बीच दूरी बढ़ी है। प्रकाशकों की रुचि भी लेखक को ब्राण्ड बनाने में है। पुस्तकों के सस्ते संस्करण प्रकाशित कर के साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने में उस की रुचि नहीं है क्यों कि उसे इस तरह हजारों पुस्तकें बेच कर जो लाभ होता है उस से अधिक लाभ वह ब्रांड लेखक की पुस्तकों को सरकारी और सांस्थानिक पुस्तकालयों को महंगी पुस्तकें बेच कर कमा लेता है। इन पुस्तकालयों में पहुँच कर पुस्तकें पाठक की पहुँच से दूर हो जाती हैं। लेखक को ब्रांड बनाने में अकादमियों और पुरस्कारों का योगदान है वे कृतियों को नहीं लेखक को पुरस्कार सम्मान देते हैं। पाठक लेखक को तो जानता है पर यह नहीं जानता कि वह क्या लिख रहा है और कौन सा साहित्य महत्वपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी साहित्य पर जोर नहीं दिया जाता लेकिन लेखक के जीवन पर जोर दिया जाता है। 
ओम नागर
विषय प्रवर्तन के उपरान्त सब से पहले तकनीकी विश्वविद्यालय के व्याख्याता रंजन माहेश्वरी बोले। वे लेखक नहीं हैं लेकिन फिर भी संगीत और लेखन की दुनिया से जुड़े हैं। उन्हों ने कहा कि लेखक को आज इंटरनेट से जुड़ना होगा। जो इंटरनेट पर लिख रहे हैं वे केवल देश के ही नहीं दुनिया भर के पाठकों से सीधे जुड़ रहे हैं। जब अमिताभ जैसे लोकप्रिय अभिनेता अपने दर्शकों से सीधे जुड़ने के लिए ब्लाग लिख सकते हैं तो लेखक ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कथाकार राधेश्याम मेहर ने कहा कि अकादमियाँ निष्पक्ष नहीं हैं। वे अपने हिसाब से काम करती हैं। व्यंगकार हितेष व्यास ने कहा कि लेखक प्रकाशक के पास जाता है और प्रकाशक अपने लाभ के लिए उस का उपयोग करता है। अकादमियाँ भी साहित्यकारों और पाठकों के बीच पुल बनाने का काम नहीं करती। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जमनानी जी को कोटा भेजा लेकिन वे कोटा के साहित्यकारों से परिचित नहीं हैं यह अकादमी की कमजोरी है। स्पिक मैके के अशोक जैन ने कहा कि जैसे संगीत के क्षेत्र में लोग अच्छे कंठ-संगीत के स्थान पर किसी नयी नृत्यांगना का नृत्य देखना पसंद करते हैं वैसी ही स्थिति साहित्य में है, इसे तोड़ना होगा। कवि ओम नागर ने कहा कि आज साहित्य की शर्तें बाजार तय कर रहा है वह लेखक और पाठक को दूर कर रहा है। उसे इस से कोई सरोकार नहीं कि लेखक और पाठक के बीच कोई रिश्ता स्थापित हो।  
संचालक शू्न्य आकांक्षी
स अवसर पर जब मुझे बोलने के लिेए कहा गया तो मैं ने अपनी बात कही कि तुलसीदास के पहले भी रामकथा थी लेकिन तुलसीदास ने जनता तक उसे पहुँचाने के लिए सघर्ष किया और जान की बाजी तक लगा दी। प्रेमचंद ने जनता के लिखा तो उसे प्रकाशित करने के लिए खुद प्रेस चलाई और पत्रिकाएं निकाली। उन में जनता के हित का साहित्य पाठक तक पहुँचाने की जिद थी। जिद आज भी लेखक को अपने अंदर पैदा करनी होगी तभी लेखक पाठक से अपनी दूरी कम कर सकेगा। कवि अम्बिकादत्त ने कहा कि रचनाकार को पाठक तक पहुँचने का माध्यम भी तलाशना पड़ेगा। उसे अपने साहित्य की भाषा, विधा और शैली को पाठक के अनुरूप बनाना होगा। गोष्ठी के अध्यक्ष अपने विचार रखें इस के पूर्व अशोक जमनानी ने पुनः कहा कि गोष्ठी के अंत में उन्हों ने कहा कि इस दूरी को पाटने के लिए लेखक को अपना व्यक्तित्व हिमालय की तरह उच्च और साहित्य को उस से निकलने वाली गंगा जैसा बनाना होगा जो धरती पर आ कर उसे सींचती है और जन-जन तक पहुँच जाती है। प्रकाशकों ने समाज के साथ रिश्ता कायम करने वाली रचनाओं और रचनाकारों को पहले हाशिए पर डाला और फिर परिदृश्य से गायब कर दिया।  संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि निर्मल पाण्डेय ने कहा कि साहित्यकार जर्रे से बनता है लेकिन फिर उसे विस्मृत कर अपना नाम करने में जुट जाता है यह एक दुर्भावना है। लेखक को इस दुर्भावना से मुक्त हो कर पाठकों की संवेदना से जुड़ना होगा। संगोष्ठी का संचालन करते हुए कवि शून्याकांक्षी ने कहा कि कोटा में सर्वाधिक लेखन होने के बावजूद भी यहाँ अच्छे प्रकाशक का अभाव है। वर्ष में बीसियों पुस्तकें कोटा के लेखकों की प्रकाशित होती हैं और वे बाहर के प्रकाशक तलाशते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए लेखकों को अपने सामूहिक प्रकाशन का प्रयास करना चाहिए। एक सामूहिक प्रकाशन ही लेखकों को पाठकों से बेहतर जोड़ सकता है। गोष्ठी के अंत में विकल्प की और से वरिष्ठ ग़ज़लकार अखिलेश अंजुम ने सभी प्रतिभागियों का आभार व्यक्त किया।
मंच पर अध्यक्ष निर्मल पाण्डेय, अशोक जमनानी, दूसरे अध्यक्ष अम्बिकादत्त और संचालक शून्य आकांक्षी
संगोष्ठी के उपरान्त मेरी जमनानी जी से बात हुई तो वे संतुष्ट थे।  उनका कहना था कि संगोष्ठी में भले ही उपस्थिति कम रही हो पर यह एक उपयोगी और विचारोत्तेजक संगोष्ठी रही।  यह विचार सामने आया कि लेखक को पाठक से दूरी कम करने के लिए स्वयं सभी स्तरों पर प्रयास करने होंगे।  न केवल उस की संवेदना से जुड़ना होगा, उस के लिए अपने लेखक को उस तक संप्रेषणीय बनाना होगा। वे मेरे इस विचार से भी सहमत थे कि प्रकाशन को सस्ता बनाना होगा और इस के लिए अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन अत्यन्त जरूरी है।  अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन की आवश्यकता क्यों पड़ रही है यह भी एक प्रासंगिक विषय है इस पर भी विचार किया जाना चाहिए और इस पर भी इसे कैसे स्थापित किया जा सकता है।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

शनिवार, 15 जनवरी 2011

रघुराज सिंह के सम्मान में कवि बशीर अहमद मयूख ने बजाई बाँसुरी

रघुराज सिंह हाड़ा
र मकर-संक्रान्ति पर शकूर 'अनवर' के घर जा कर बहुत अच्छा लगता है। वहाँ हर साल विकल्प जन सास्कृतिक मंच सृजन सद्भावना समारोह का आयोजन करता है। आज नवाँ सद्भावना समारोह था। दिन के दो बजे से आरंभ होने वाले समारोह में मैं कुछ देरी से पहुँचा। वजह साफ थी। मैं एक किशोर को वहाँ ले जाना चाहता था। पत्नी की बहन का पुत्र योगेश, वह गाँव से दूर कोटा में अपनी बहिन के साथ अध्ययन की खातिर रहता है। पिछले सप्ताह उस से मिला तो उसे अपने घर आ कर पतंग उड़ाने का न्यौता दे दिया। घर आ कर डोर लपेटने वाली गरारियों की तलाश की तो वे नहीं मिलीं। शायद मैं घर बदलते समय उन्हें पडौस के किसी बच्चे को भेंट कर आया था। योगेश भी पढ़ाई के कारण नहीं आ सका। मैं ने उसे संक्रान्ति पर शकूर भाई के घर पतंग उड़ाने के लिए चलने को कहा, वह उस के लिए भी राजी था। दोनों बहन भाई एक बजे तक आने वाले थे, लेकिन दो बजे तक नहीं आए। फिर ढाई बजे उन का फोन मिला कि उन के पिता आ गए हैं। वे नहीं आ सकेंगे। मैं समारोह के लिए रवाना हो गया।
रघुराज सिंह हाड़ा को सृजन-सद्भावना सम्मान देते हुए अंबिका दत्त और कवि मयूख
मैं पहुँचा तब तक श्वेत कपोत अपनी उड़ान भर चुके थे और अतिथियों ने सद्भावना संदेश लिखी पतंगें हस्ताक्षर कर उड़ाईं और फिर छोड़ दीं, ताकि लूटने वालों को भी सद्भावना का संदेश मिले। आज समारोह में हाडौती के वरिष्ठतम कवि, गीतकार, लेखक आदरणीय रधुराज सिंह जी हाड़ा का सम्मान होना था। वह आरंभ होने वाला था। उन की उम्र 78 वर्ष की है। मेरे पिता जी होते तो उन से सिर्फ 4 वर्ष बड़े होते। मैं जिस वर्ष में पैदा हुआ था उस साल वे अध्यापक हो चुके थे। जिस विद्यालय में उन का पहला पदस्थापन हुआ वहाँ मेरे पिताजी पहले से अध्यापक थे। कस्बे में यह मान्यता थी कि छात्र यदि ट्यूशन न पढ़ेगा तो अवश्य ही फेल होगा या निम्न दर्जा प्राप्त करेगा। दोनों को इस मान्यता ने बहुत कचोटा। दोनों ने तय किया कि वे इस मान्यता को बदल डालेंगे। दोनों ने विद्यालय में होने वाली प्रार्थना सभा में घोषणा करना आरंभ कर दिया कि किसी को ट्यूशन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कोई भी बालक उन के यहाँ कभी भी पढ़ने आ सकता है। रघुराज जी उसे हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ाते और पिता जी गणित, भूगोल, सामाजिक विज्ञान  और विज्ञान। यह भी घोषणा वे करते कि किसी भी विद्यार्थी को कोई भी परेशानी हो वह हमें रास्ते में रोक कर भी पूछ सकता है। पहले उस की समस्या हल होगी, बाद में और काम। आखिर ट्यूशन का वह मिथक टूट गया।
शकूर अनवर पुस्तकें भेंट करते हुए





घुराज जी का रचना कर्म विद्यार्थी जीवन में ही आरंभ हो चुका था। वे हाडौती और हिन्दी के मीठे गीतकार हैं। उन की रचनाओं को जहाँ हाड़ौती के जनमानस ने गाया है वहीं अगली पीढ़ी के रचनाकारों को मार्ग भी दिखाया। अभी तक उन की बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और उन की रचनाएँ विद्यालयी पुस्तकों में पढ़ाई जाती हैं। कुछ विद्यार्थी उन के रचनाकर्म पर शोध कर डिग्रियाँ हासिल कर चुके हैं। आज उन का सम्मान कर के वस्तुतः विकल्प परिवार ने स्वयं को सम्मानित महसूस किया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बशीर अहमद मयूख थे। आज कवि मयूख का एक और नया रूप देखने को मिला जब उन्हों ने रघुराज जी के सम्मान में स्वयं बाँसुरी वादन कर सभी उपस्थित जनों को चकित कर दिया। समारोह में नगर के हिन्दी, उर्दू, हाडौती कवि उपस्थित थे। बाद में देर शाम तक काव्य गोष्ठी चलती रही।
ह अद्भुत समारोह कोटा नगर की अमूल्य थाती बन चुका है, जिस में उपस्थित होना नगर के साहित्यकार अपना गौरव समझते हैं। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि ऊपर की छत से जहाँ अंधेरा घिर आने तक सद्भावना संदेश लिए पतंगें अनवरत उड़ाई जाती रहें, उसी छत के नीचे एक समारोह चलता रहे जिस में सृजनकारों के साथ शकूर के परिवार जन और मुहल्ले के लोग दर्शक-श्रोता बने आनंद लेते रहें। बीच-बीच में घर की महिलाएँ सब के लिए तिल के लड्डू और अन्य व्यंजनों के साथ चाय की व्यवस्था करें। यह समारोह एक अलग ही तरह का आनंदोत्सव हो जाता है।
काव्य गोष्ठी
मारोह ने मुझे आज अपने पिता के एक आरंभिक साथी के साथ कुछ घंटे बिताने का अवसर दिया। समारोह के उपरांत रघुराज जी को अपने गृहनगर झालावाड़ जाना था। मैं ने उन्हें बस तक छोड़ने का अवसर तुरंत लपका। जिस से मैं अपने पिता के साथी के साथ कुछ समय और बिता सकूँ। आज के समारोह में मुझे कई रत्न मिले जिन्हें मैं समय-समय पर आप के साथ साझा करूँगा। इन में दिवंगत कवि-रंगकर्मी शिवराम पर लिखी एक कविता, रघुराज सिंह जी का एक काव्य संग्रह, शकूर अनवर की कुछ ग़ज़लें  और समारोह में रघुराज सिंह जी के सम्मान में बशीर अहमद 'मयूख' द्वारा किया गया बाँसुरी वादन शामिल हैं।