नगरों और स्थानों के बदलने की जो गधा-पचीसी चल रही है, उस की रौ में सब बहे चले जा रहे हैं। वे यह भी नहीं सोच रहे हैं कि वे क्या बदल रहे हैं, और क्यों बदल रहे हैं। बस एक भेड़ चाल है जो ऊपर से नीचे तक चली आई है। प्रधानजी सब से आगे वाली भेड़ हैं, उन के पीछे मुखियाजी चल रहे हैं। फिर पीछे जो रेवड़ है उस में एक एक भेड़ आप खुद पहचान सकते हैं। सब के सब आप को नजर आ जाएंगे।
अक्सर सभी नगरों का नाम उन्हें बसाने वाले विजेताओं के नाम पर रखा
जाता है। पर मेरे शहर का नाम विजेता राजा ने पराजित भील राजा के नाम पर रखा था। इस
तरह मेरे शहर के नाम में खोट है। मुझे तो अभी तक आश्चर्य होता है कि हमारे शहर की
किसी भेड़ को अब तक यह क्यों नहीं सूझा कि इस खोटे नाम को बदल दिया जाए। पर ऐसा भी
नहीं है कि मेरे शहर की भेडो़ं को नाम बदलने की हूक न जगी हो। कभी तो लगता है कि
नाम बदलना भी एनीमिया जैसी बीमारी है, जो खून में लोहे जैसे किसी तत्व के कारण
होती है। (इस पर शोध होना चाहिए) वे भी जब कुछ नहीं कर पाते तो उन के शरीर में भी
नाम बदलने की हूक जगती रहती है। पिछली बार
जब रेवड़ शहर में पड़ा तो वे दशहरा मैदान को प्रगति मैदान में बदलने चल पड़े। पूरे पाँच साल हो गए पर यह काम पूरा न हुआ।
बल्कि मैदान को छोटा कर दिया है। इस से शहर की एक प्रमुख भेड़ के बंगले के सामने
बहुत जगह निकल आई है जिस का वह अपने निजी और राजनैतिक इस्तेमाल में उपयोग कर सकती
है। यहाँ तक कि वहाँ छोटा मोटा भेड़ सम्मेलन भी आयोजित किया जा सकता है।
कुछ दिनों से सोचा जा रहा था कि जब
दशहरा मैदान को प्रगति मैदान नहीं कर सके तो कुछ और किया जाए। उन की निगाह इसी
मैदान के पास के चौराहे पर गयी। जिसे लोग
उसी चौराहे पर बनी पहली पहली बिल्डिंग के
नाम से बोलाते हैं। अब यह तो ठीक नहीं किसी बिल्डिंग के नाम पर किसी चौराहे का नाम
हो। उन्होंने तय किया कि चौराहे का नाम किसी भेड़ के नाम पर होना चाहिए। चौराहे के
ही एक कोने में एक पुराने एम्पी जी की मूर्ति लगी है। मौजूदा भेड़ संप्रदाय को उसे
देखने के बाद कोई और नाम तलाशने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। एम्पी जी उन के
पूर्वज थे। नाम बदल कर उन के नाम पर एम्पीजी चौराहा रख दियास गया।
सुबह खबर अखबार में बिल्डिंग चौराहे का
नाम बदल कर एम्पीजी चौराहा कर देने की खबर पढ़ी तो मेरी खोपड़ी ठनक गयी। वह बोल
रही थी कि इस चौराहे का नाम तो कोई पच्चीस बरस पहले वाला रेवड़ भी बदल चुका था। पर
जब वह बदला गया था तब एम्पीजी की मूरत चौराहे के कोने में नहीं लगी थी, बल्कि खुद
एम्पीजी नाम बदलने की उस पुरानी कवायद में शामिल खास भेड़ों में से एक थे। मैं बिल्डिंग
चौराहे का नाम बदले जाने का पुराना सबूत तलाशने लगा। मुझे याद आया कि पास की ही
इमारत में बैंक की शाखा है जिस में मेरा खाता है। मैंने बैंक की पासबुक निकाली और
देखी तो वहाँ उस चौराहे का नाम "तुलसीदास सर्किल" लिखा था। वही तुलसीदास
जिन्हों ने रामचरित मानस लिखी थी। अब भेड़ों को तुलसीदास और रामजी से क्या लेना
देना? वे कोई भेड़ थोड़े ही थे। वैसे
भेड़ों के नाम बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब बीस पच्चीस बरस पहले इस चौराहे का
नाम बदला गया था तब भी लोग इसे बिल्डिंग चौराहा ही कहते थे और आगे भी बिल्डिंग
चौराहा ही कहते रहेंगे। लोगों ने जो दिया था वही परमानेंट नाम है। भेड़ों के दिए
नाम तो टेम्परेरी होते हैं।