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शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

आप ने कुत्ता पाला या नहीं?

हो सकता है आप ने भी कुत्ता पाल रखा हो, यह भी हो सकता है कि आप ने कुत्ते पाल रखे हों। लेकिन मैं ने कभी कुत्ता नहीं पाला। पर इस का ये मतलब कतई नहीं है कि मैं कुत्तों को नापसंद करता हूँ। वे मुझे अक्सर बुरे भी नहीं लगते। लेकिन मुझे उन्हें पालना कतई पसंद नहीं है। यहाँ तक कि मुझे उन्हें रोटी डालना या कुछ खिलाना भी पसंद नहीं है। होता यह है कि आप ने किसी कुत्ते को रोटी डाली नहीं कि वह रोज उसी वक्त आप के घर के बाहर आ कर पूंछ हिलाना शुरू कर देता है। अब उस दिन आप के यहाँ रोटी नहीं है तो आप का मन उदास हो जाएगा। बेचारा कुत्ता दुम हिला रहा है और आप के पास उस के लिए रोटी नहीं है। आप उसे भगाना चाहेंगे तो वह भागेगा नहीं, इधर उधर देखने लगेगा, कुछ देर बाद फिर से आप की और ताकेगा और दुम हिलाएगा।
मेरे नए घर में एक दिन मेरे कनिष्ट साथी आए, मैं छत पर था वे सीधे दफ्तर में घुस गए। मैं छत से नीचे उतर रहा था तो मेरी निगाह गेट की ओर गई तो देखा गेट खुला है और अंदर एक कुत्ता खड़ा है। मैं ने उसे बाहर निकाल कर गेट लगा  दिया। दो-तीन मिनट बाद ही गेट के बाहर से कुत्तों के भोंकने और एक दूसरे को गरियाने की आवाजें आने लगीं। मैं ने गेट खोला तो जो कुत्ता गेट के अंदर आया था वह गेट से चिपका खड़ा था और मुहल्ले के कुत्ते उस पर भोंक रहे थे। गेट के बाहर मुझे देखते ही सब चुप हो गए। मेरे कनिष्ट दौड़ कर आए और कहने लगे यह कुत्ता मेरे साथ आया है और दूसरे मुहल्ले का होने के कारण आप के मुहल्ले के कुत्ते इस पर भोंक रहे हैं। उस की यहाँ उपस्थिति उन्हें यहाँ बर्दाश्त नहीं हो रही है। मैं ने उस कुत्ते को अंदर ले कर गेट लगा दिया। मुहल्ले के कुत्ते चले गए। कुत्ता गेट के पास ही बैठ गया। मैं ने कनिष्ट से पूछा क्या आप ने पाल रखा है। उन का जवाब था, पाल तो नहीं रखा, लेकिन उसे रोज रोटी डालते हैं इस लिए हिल गया है। हमारे पीछे-पीछे चल देता है। मुहल्ले की सीमा आते ही हम उसे वापस भेज देते हैं। आज भूल गए जिस से साथ आ गया। यह हमारे गेट के बाहर बैठा रहता है। इस से घर की सुरक्षा रहती है।
निष्ठ जी और कुत्ते का रिश्ता बड़ा अजीब था। कुत्ते को रोटियाँ चाहिए थीं वे कनिष्ठ जी ने उस पर दया कर के डालना आरंभ किया था। फिर कुत्ते ने रोटियां चुकाने के लिए घर की पहलेदारी आरंभ कर दी। अब उन में अनन्य संबंध स्थापित हो चुका था। वैसे हमारे यहाँ रिवाज है कि पहली रोटी गाय को डाली जाती है और बची हुई कुत्ते को। लेकिन यदि आप ने कुत्ता पाल लिया तो उस के लिए रोटियाँ बनानी पड़ती हैं। अपनी पसंद का कोई खास कुत्ता पालना हो तो उस के नखरे भी उठाने पड़ते हैं। उस के लिए खास भोजन लाना पड़ता है, उसे नहलाना, टहलाना पड़ता है, और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है। अक्सर बड़े बड़े घरों, कोठियों और बंगलों में कुत्ते पाले जाते हैं, वहाँ लिखा होता है, कुत्तों से सावधान! आप ने जैसे ही बंगले की कॉलबेल बजाई नहीं कि कुत्ता भोंकना आरंभ कर देता है। जैसे घन्टी बजा कर आपने अपराध कर दिया हो। वैसे भी कॉलबेल का काम पूरा हो चुका होता है और आगे का कर्तव्य कुत्ता पूरा करता है। कुत्ते की आवाज सुन कर अक्सर कोई बंगले में दिखाई देने लगता है। अगर वह आप को जानता है तो कुत्ते को बांध देता है। यदि कुत्ता पहले से बंधा होता है तो कहता है आप बैखोफ अंदर आ जाइये, कुत्ता कुछ नहीं करेगा। मेरी धारणा है कि सब बड़े-बड़े लोग कुत्ते पालते हैं, कुत्तों के बिना उन का काम नहीं चल सकता। 
कुत्ते बड़े लोगों के बहुत काम सरकाते हैं। जैसे कोई बड़ा उद्योग लगाना हो तो पहले कुत्ता पालना पड़ता है। कोई भी बड़ा काम करना हो तो कुत्ता पालना जरूरी है, वर्ना वह भोंकने लगेगा और सब को पता लग जाता है आप क्या करने जा रहे हैं और क्यों करने जा रहे हैं। इस तरह कुत्ते पालना बड़े लोगों के लिए जरूरी कर्म है। कुत्ता पाल लिया तो वह आप की ओर से दूसरों पर भोंकता है, आप सुरक्षित रहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि एक बड़े आदमी ने पिछले दिनों कहा कि वह हवाई जहाज कंपनी चलाना चाहता था। लेकिन उस के लिए कुत्ते पालना जरूरी था और उसे कुत्ते पालना पसंद नहीं था। मुझे इस बयान पर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्यों कि मैं पहले से जानता हूँ कि कुत्ते पाले बिना कोई भी उद्योग लगाना और चलाना संभव नहीं है। मैं ही क्या यह बात तो सभी जानते हैं, यहाँ तक कि बच्चा-बच्चा जानता है। मुझे आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि वे दूसरे उद्योग कैसे चला रहे हैं?
ब भले ही यह बयान उन बड़े आदमी ने गलती से दिया हो, पर इस से बड़े आदमियों पर संकट आ गया। संकट कुत्तों पर और उन के मुखियाओं पर भी आया। आखिर यह बात दूसरे बड़े आदमी कैसे सहन करते? यह समझा जाने लगा कि सब बड़े लोग कुत्ते पाल कर ही कारोबार चलाते हैं। दूसरे ने तपाक से कहा कि किसी कुत्ते में हिम्मत नहीं कि रोटी के लिए मेरे सामने दुम हिलाए। एक संन्यासी भी मैदान में आ गए, कहने लगे कि कुछ कुत्ते उन से दुम हिलाते रोटियाँ मांगने आए थे लेकिन उन्हों ने उस की शिकायत उन के मुखिया से की तो मुखिया ने कहा कि कुत्तों को आप से रोटियाँ ऐसे नहीं मांगनी चाहिए थीं जिस से लगे कि वे अपने लिए मांग रहे हों। उन्हें रोटियाँ किसी आश्रम के लिए मांगनी चाहिए थीं। 
खैर, बात कुछ भी हो। यह बात तो सर्व सिद्ध है कि कुत्तों के बिना कारोबार नहीं चल सकता। कुछ खुले आम कुत्ते पालते हैं, कुछ चुपके-चुपके। कुछ पालते तो हैं पर सब के सामने मानते नहीं कि, पालते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि कुत्तों के बिना कारोबार एक कदम भी नहीं चल सकता। जो लोग बिना कुत्ते पाले कारोबार चलाने की बात करते हैं, वे या तो निरे बेवकूफ हैं और कारोबार डुबोने में लगे हैं; या फिर वे होशियार बनने की कोशिश करते हैं। गुपचुप तरीके से अंडरग्राउंड में कुत्ते पालते हैं और साफ मुकर जाते हैं कि वे कुत्ते पालते हैं या उन्हें रोटियाँ डाल कर हिलाते हैं। वे जानते हैं कि कुत्ते पालने की यह तकनीक कुछ लोग और सीख गए तो कम्पीटीशन बढ़ जाएगा, इसी लिए झूठ-मूट मना करते हैं। वैसे मैं भी एक निरा बेवकूफ आदमी हूँ। बड़ा होने का गुर जानते हुए भी कुत्ते नहीं पालता। शायद मैं बड़ा ही नहीं बनना चाहता। पर आप बताएँ कि आप का क्या इरादा है? कुत्ते पालने का? या मेरी तरह बने रहने का? 

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! तुम बहुत, बहुत याद आओगी!


पिछली जनवरी में मेरा भिलाई जाना हुआ था। दो रात और तीन दिन पाबला जी के घर रहना हुआ। वहीं उन की पालतू डेज़ी से भेंट हुई। वह उन के परिवार की अभिन्न सदस्या थी। दीवाली पर पटाखों से उत्पन्न धूंएँ और ध्वनि के प्रदूषण ने उसे बुरी तरह प्रभावित किया और वह बीमार हो गई। इतनी बीमार कि चिकित्सा की भरपूर सहायता भी उसे जीवन दान न दे सकी। आज दोपहर डेजी नहीं रही। उन तीन दिनों के प्रवास में डे़ज़ी ने जिस अपनत्व का व्यवहार मुझे दिया मैं उसे जीवन भर नहीं भुला सकता हूँ। मेरी भिलाई यात्रा के विवरण में डेज़ी का उल्लेख अनायास ही हुआ था। जिस के अंत में मैं ने लिखा था ....'कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो'।
 लेकिन शिकायत करने वाली डेज़ी आज नहीं रही। जब से उस के प्राणत्याग की सूचना मिली है मैं उसे नहीं भुला पा रहा हूँ तो पाबला जी और उन के परिजनों की क्या स्थिति होगी? जिन के बीच वह चौबीसों घंटे रहती थी। मेरे बेटे वैभव ने शाम पाबला जी के पुत्र गुरुप्रीत से  फोन पर बात करनी चाही, लेकिन गुरुप्रीत बात नहीं कर सका उस का स्वर रुआँसा हो उठा।

अपनी भिलाई यात्रा के विवरण में से डेज़ी से सम्बंधित अंश यहाँ उस के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ......

पाबला जी की वैन से हम उन के घर के लिए रवाना हुए वेबताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला 'पहुँच गए'।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक-एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कुछ अभिनय किया। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी, पाबला जी ने बताया डेज़ी नाम है उस का।

.................आँख खुली तो डेज़ी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।



......... तीसरे दिन सुबह गुरप्रीत ने सोने जाने के पहले कॉफी पिलाई।  नींद पूरी न हो पाने के कारण मैं फिर चादर ओढ़ कर सो लिया।  दुबारा उठा तो डेज़ी चुपचाप मुझे तंग किए बिना मेरे पैरों को सहला रही थी।  मुझे उठता देख तुरंत दूर हट कर बैठ गई और मुझे देखने लगी।  हमारे  पास भैंस के अतिरिक्त कभी कोई भी पालतू नहीं रहा।  उन की मुझे आदत भी नहीं।  पास आने पर और स्वैच्छापूर्वक छूने पर अजीब सा लगता है।  डेज़ी को मेरे भरपूर स्नेह के बावजूद लगा होगा कि मैं शायद उस का छूना पसंद नहीं करता इस लिए वह पहले दिन के अलावा मुझ से कुछ दूरी बनाए रखती थी।  उस दिन मुझे वह उदास भी दिखाई दी।  जैसे ही पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया वह बाहर चल दी।  लेकिन उस के बाद मैं ने महसूस किया कि वह मेरा पीछा कर रही है। मैं जहाँ भी जाता हूँ मेरे पीछे जाती है और मुझे देखती रहती है।  मैं उसे देखता हूँ तो वह भी मुझे उदास निगाहों से देखती है।  मुझे लगा कि मेरे हाव भाव से उसे महसूस हो गया है कि मैं जाने वाला हूँ।  उस का यह व्यवहार सिर्फ मेरे प्रति था, वैभव के प्रति नहीं। शायद उसे यह भी अहसास था कि वैभव नहीं जा रहा है, केवल मैं ही जा रहा हूँ।


हमें दो बजे तक दुर्ग बार ऐसोसिएशन पहुँचना था।  मैं धीरे-धीरे तैयार हो रहा था।  पाबला जी की बिटिया के कॉलेज जाने के पहले उस से बातें कीं।  फिर कुछ देर बैठ कर पाबला जी के माँ-पिताजी के साथ बात की।  हर जगह डेज़ी मेरे साथ थी।  मैं ने पाबला जी को बताया कि डेज़ी अजीब व्यवहार कर रही है, शायद वह भाँप गई है कि मैं आज जाने वाला हूँ।  ........

मैं सवा बजे पाबला जी के घर से निकलने को तैयार था।  मैं ने अपना सभी सामान चैक किया।  कुल मिला कर एक सूटकेस और एक एयर बैग साथ था। मैं ने पैर छूकर स्नेहमयी माँ और पिता जी से विदा ली।  मैं नहीं जानता था कि उन से दुबारा कब मिल सकूँगा? या कभी नहीं मिलूँगा।  लेकिन यह जरूर था कि मैं उन्हें शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकूँ।

मैं सामान ले कर  दालान में आया तो देखा वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक आ रहे हैं और डेजी उन के आगे है।  मैं डेजी को देख रुक गया तो वह दो पैरों पर खड़ी हो गई  बिलकुल मौन।  मैं ने उसे कहा बेटे रहने दो। तो वापस चार पैरों पर आ गई।  गुरप्रीत पहले ही बाहर वैन के पास खड़ा था। उस ने मेरा सामान वैन के पीछे रख दिया।  मैं पाबला जी और वैभव हम वैन में बैठे सब से विदाई ली।  डेजी चुप चाप वैन के चक्कर लगा रही थी। शायद अवसर देख रही थी कि पाबला जी का इशारा हो और वह भी वैन में बैठ जाए।  पाबला जी ने उसे अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर हो गई और वहाँ से निहारने लगी।  हमारी वैन दुर्ग की ओर चल दी।  मैं ने डेजी जैसी पालतू अपने जीवन में पहली बार देखी जो दो दिन रुके मेहमान के प्रति इतना अनुराग कर बैठी थी।  मैं जानता था कि कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो।

इस पोस्ट का मकसद डेज़ी को स्मरण करना तो है ही साथ ही यह भी कि शायद हम अपने त्योहारों या अन्य किसी प्रकार की मौज-मस्ती के बीच उन्हें पहुँचाने वाले जानलेवा कष्टों को पहचान सकें और व्यवहार में कुछ सहिष्णु हो सकें। 

डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! 
तुम बहुत, बहुत याद आओगी!

मंगलवार, 3 मार्च 2009

भिलाई में पाबला जी के घर यात्रा का आखिरी दिन और डेजी का व्यवहार

अगले दिन सुबह वही गुरप्रीत ने सोने के पहले कॉफी पिलाई।  नींद पूरी न हो पाने के कारण मैं फिर चादर ओढ़ कर सो लिया।  दुबारा उठा तो डेजी चुपचाप मुझे तंग किए बिना मेरे पैरों को सहला रही थी।  मुझे उठता देख तुरंत दूर हट कर बैठ गई और मुझे देखने लगी।  हमारे  पास भैंस के अतिरिक्त कभी कोई भी पालतू नहीं रहा।  उन की मुझे आदत भी नहीं।  पास आने पर और स्वैच्छापूर्वक छूने पर अजीब सा लगता है।  डेजी को मेरे भरपूर स्नेह के बावजूद लगा होगा कि मैं शायद उस का छूना पसंद नहीं करता इस लिए वह पहले दिन के अलावा मुझ से कुछ दूरी बनाए रखती थी।  उस दिन मुझे वह उदास भी दिखाई दी।  जैसे ही पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया वह बाहर चल दी।  लेकिन उस के बाद मैं ने महसूस किया कि वह मेरा पीछा कर रही है। मैं जहाँ भी जाता हूँ मेरे पीछे जाती है और मुझे देखती रहती है।  मैं उसे देखता हूँ तो वह भी मुझे उदास निगाहों से देखती है।  मुझे लगा कि मेरे हाव भाव से उसे महसूस हो गया है कि मैं जाने वाला हूँ।  उस का यह व्यवहार सिर्फ मेरे प्रति था, वैभव के प्रति नहीं। शायद उसे यह भी अहसास था कि वैभव नहीं जा रहा है, केवल मैं ही जा रहा हूँ।
हमें दो बजे तक दुर्ग बार ऐसोसिएशन पहुँचना था।  मैं धीरे-धीरे तैयार हो रहा था।  पाबला जी की बिटिया के कॉलेज जाने के पहले उस से बातें कीं।  फिर कुछ देर बैठ कर पाबला जी के माँ-पिताजी के साथ बात की।  हर जगह डेजी मेरे साथ थी।  मैं ने पाबला जी को बताया कि डेजी अजीब व्यवहार कर रही है, शायद वह भाँप गई है कि मैं आज जाने वाला हूँ। 

इस बीच अवनींद्र का फोन आ गया।  मैं ने उसे बताया कि 5 बजे मुझे छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़नी है दुर्ग से। उस से पहले दो बजे दुर्ग बार एसोसिएशन जाना है।  तो वह कहने लगा कि वहाँ से वापस आकर निकलेंगे तो ट्रेन पकड़ने में परेशानी होगी।  मैं ने उसे बताया कि मैं अपना सामान ले कर उधर से ही निकल लूंगा।  हम नहीं मिल पाएँगे।  उस ने कहा वैसे उस की कुछ मीटिंग्स हैं। यदि वह उन से फुरसत पा सका तो दुर्ग स्टेशन पहुँचेगा।   कुछ देर में दुर्ग बार से शकील अहमद जी का फोन आ गया उन की भी यही हिदायत थी कि हम दो बजे के पहले ही पहुँच लें। वहाँ एक डेढ. घंटा लग सकता है, फिर लंच में भी घंटा भर लगेगा तो मैं सामान साथ ही ले लूँ।  थोड़ी ही देर में संजीव तिवारी का भी फोन आ गया।  मैं सवा बजे पाबला जी के घर से निकलने को तैयार था।  मैं ने अपना सभी सामान चैक किया।  कुल मिला कर एक सूटकेस और एक एयर बैग साथ था। मैं ने पैर छूकर स्नेहमयी माँ और पिता जी से विदा ली।  मैं नहीं जानता था कि उन से दुबारा कब मिल सकूँगा? या कभी नहीं मिलूँगा।  लेकिन यह जरूर था कि मैं उन्हें शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकूँ।

मैं सामान ले कर  दालान में आया तो देखा वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक आ रहे हैं और डेजी उन के आगे है।  मैं डेजी को देख रुक गया तो वह दो पैरों पर खड़ी हो गई  बिलकुल मौन।  मैं ने उसे कहा बेटे रहने दो। तो वापस चार पैरों पर आ गई।  गुरप्रीत पहले ही बाहर वैन के पास खड़ा था। उस ने मेरा सामान वैन के पीछे रख दिया।  मैं पाबला जी और वैभव हम वैन में बैठे सब से विदाई ली।  डेजी चुप चाप वैन के चक्कर लगा रही थी। शायद अवसर देख रही थी कि पाबला जी का इशारा हो और वह भी वैन में बैठ जाए।  पाबला जी ने उसे अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर हो गई और वहाँ से निहारने लगी।  हमारी वैन दुर्ग की ओर चल दी।  मैं ने डेजी जैसी पालतू अपने जीवन में पहली बार देखी जो दो दिन रुके मेहमान के प्रति इतना अनुराग कर बैठी थी।  मैं जानता था कि कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो।

 
 

चित्र---
1-2.  डेजी,  3.  डेजी और गुरप्रीत, 4. अवनीन्द्र और ज्योति, 5.  अवनीन्द्र, ज्योति और उन के दोनों पुत्र