'हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन, ज़िंदगी के मेले,इंटरनेट से आमदनी, कल की दुनिया और कम्प्यूटर सुरक्षा'ब्लॉग वाले श्री बी.एस.पाबला जी की माता जी श्रीमती हरभजन कौर का कल 18 नवम्बर 2010 को अपरान्ह देहान्त हो गया है। कुछ दिन पहले ही उन का पुत्र गुरुप्रीत सिंह एक सड़क दुर्घटना में घायल हुआ था और अस्पताल में भर्ती था। अपने पौत्र के घायल होने का समाचार दादी बर्दाश्त नहीं कर सकीं और उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया। उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाया गया। चिकित्सकों के भरपूर प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका।
श्रीमती हरभजन कौर का अंतिम संस्कार आज 19 नवम्बर शुक्रवार को प्रातः 11 बजे भिलाई में रामनगर मुक्तिधाम में संपन्न होगा।
रात सोने के पहले तारीख बदल चुकी थी। सर्दी के लिहाज से हलका कंबल लिया था, एक चादर भी साथ रख लिया। केवल कंबल में भी गर्मी लगी तो उसे हटा कर चादर से काम चलाना पड़ा। सुबह पाँच के आसपास एक बार नींद खुली, यह लघुशंका के लिए थी। बाथरूम गया तो रास्ते में बालकनी गीली दिखाई दी। गौर किया तो पता लगा रात बारिश हुई है। सर्दी कम होने का कारण यही था। अभी रात शेष थी। दुबारा बिस्तर पर लेटा तो नींद फिर लग गई। इस बार उठा तो आठ बज चुके थे। निपटते-निपटाते साढ़े नौ बज गए। झटपट नाश्ता किया और चल दिया। मैं सोचता था कि डेढ़ नहीं तो दो घंटे में तो निश्चित स्थान पर पहुँच ही लूंगा। गंतव्य के लिए मुझे बदरपुर बॉर्डर से जिस बस को पकड़ना था उस का रूट नंबर मुझे अजय झा बता चुके थे। बॉर्डर तक कैसे पहुँचना है इतना जानना था। इस के लिए मकान मालिक ने मदद की और मैं पहुँचा सेक्टर तीन की पुलिया पर। दो-तीन मरियल से ठुकपिट कर शक्ल बिगाड़े रिक्शा आए लेकिन बॉर्डर के नाम से ही बिदक गए। फिर एक हरे रंग का नया सा मिला, उसने बिठा लिया और बदरपुर बॉर्डर उतारा। मोबाइल ग्यारह में आठ मिनट कम बता रहा था।
विचित्र नजारा था। मेट्रो के लिए चल रहे काम और शायद निर्माणाधीन फ्लाई ओवर के कारण बेहद अफरातफरी थी। यहाँ भी स्थाई-अस्थाई बाजार उगे थे। पता ही नहीं लग रहा था कि कहाँ से बस मिलेगी? मुझे कुछ पान की दुकानें दिखीं। पूरा एक दिन हो गया था, पान खाए। पास गया तो उन में गुटखे लटक रहे थे और भी बहुत कुछ था पर पान नहीं था। तलाश करने पर एक जगह पान भी दिखे दुकानदार उस की दीवार घड़ी दुरुस्त करने में जुटा था। मैं ने उसे पान बनाने को कहा तो उस ने बस एक नजर मेरी और देख वापस अपने काम में जुट गया। मैं ने एक मिनट उस का इंतजार किया और खुद को उपेक्षित पा कर वहाँ से चल दिया। रास्ते में कुछ लोग मोजे, रुमाल, बटुए आदि बेच रहे थे। मुझे याद आया मैं रुमाल लेना भूल गया हूँ। मैंने दस रुपए में एक रुमाल खरीदा और उसी से पूछा कि बस कहाँ मिलेगी? उस ने दूर खड़ी बसों की ओर इशारा किया। मैं तकरीबन पौन किलोमीटर चल कर बसों तक पहुँचा तो मेरे रूट की बस बिलकुल खाली थी, ड्राइवर-कंडक्टर अंदर बैठ कर अपना सुबह का टिफिन निपटा रहे थे। मैंने पूछा तो उन्हों ने आगे जाने का इशारा किया। आधा किलोमीटर और आगे चल कर मैं बस तक पहुँचा। सवारियाँ बैठ रही थीं। मैं चढ़ा और खुद को खुशकिस्मत पाया कि वहाँ एक सीट बैठने के लिए खाली मौजूद थी। कुछ देर बैठे रहने के बाद कंडक्टर को पूछा तो उस ने बताया कि बस 11: 38 पर चलेगी। मैं लेट हो चुका था। बचे समय के इस्तेमाल का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, लेकिन लोगों के पास था। एक बच्ची हाथ में कमंडल और उस में बिठाई तस्वीर ले कर मांगने के लिए बस में चढ़ गई। वह कुछ नहीं बोल रही थी। हर सवारी के आगे कुछ देर खड़ी होती, कुछ मिलता तो ठीक नहीं तो आगे बढ़ जाती। ऐसे ही बच्चे, महिलाएँ कोटा अदालत में खूब आते हैं, सब के सब पक्के प्रोफेशनल। मेरे एक साथी उन्हें कई बार नसीहतें दे चुके हैं। उन से काम कराने के बदले मजदूरी देने का प्रस्ताव भी करते हैं। पर कौन स्थाय़ी रोजगार छोड़ अस्थाई की और झाँकता है। बच्ची बस से उतरी तो एक युवक नारियल की फांके लिए बेचने चढ़ा, कुछ लोगों ने उस का स्वागत किया। उस के बाद एक पैंसिल बेचने वाला चढ़ा। मेरे पास की सीट पर बेटी के साथ बैठे सज्जन ने पैंसिलें खरीदीं। तभी बस ने हॉर्न दिया। पैंसिल बेचने वाला उतर गया, बस चल दी।
जिस तरह बस चल रही थी लग रहा था कि कम से कम एक डेढ़ घंटा जरूर लेगी। मैंने कंडक्टर को अपना गंतव्य बताया। उसने मुझे आश्वस्त किया कि वह मुझे सही स्थान पर उतार देगा। एक स्टॉप पहले ही उस ने मुझे आगे के दरवाजे पर बुलाया और मेरे स्टॉप पर उतार दिया। बाद में पता लगा कि उस ने मुझे एक स्टॉप पहले ही उतार दिया था। अपने राम पैदल चल पड़े। मेट्रो स्टेशन के पास पहुँच कर मैं ने मोबाइल से अजय से संपर्क करना चाहा पर वहाँ सिग्नल गायब थे। मैं एक और चल दिया और सिग्नल मिलने तक चलता रहा। अजय से बात हुई तो वे मुझे लेने आ गए। हम मिलन स्थल पहुँच गए। पाबला जी तो वहाँ पहले से ही थे श्रीमती संजू तनेजा, राजीव तनेजा, कार्टूनिस्ट इरफान, और खुशदीप सहगल भी पहुँचे हुए थे। बातों के साथ नाश्ता चल रहा था। सभी बहुत आत्मीयता के साथ मिले। मैं बैठा ही था कि अचानक पीछे रोशनी चमकी। मुड़ कर देखा तो टेबल पर रखा पाबला जी का कैमरा हमें कैद कर रहा था।
पिछली जनवरी में मेरा भिलाई जाना हुआ था। दो रात और तीन दिन पाबला जी के घर रहना हुआ। वहीं उन की पालतू डेज़ी से भेंट हुई। वह उन के परिवार की अभिन्न सदस्या थी। दीवाली पर पटाखों से उत्पन्न धूंएँ और ध्वनि के प्रदूषण ने उसे बुरी तरह प्रभावित किया और वह बीमार हो गई। इतनी बीमार कि चिकित्सा की भरपूर सहायता भी उसे जीवन दान न दे सकी। आज दोपहर डेजी नहीं रही। उन तीन दिनों के प्रवास में डे़ज़ी ने जिस अपनत्व का व्यवहार मुझे दिया मैं उसे जीवन भर नहीं भुला सकता हूँ। मेरी भिलाई यात्रा के विवरण में डेज़ी का उल्लेख अनायास ही हुआ था। जिस के अंत में मैं ने लिखा था ....'कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो'।
लेकिन शिकायत करने वाली डेज़ी आज नहीं रही। जब से उस के प्राणत्याग की सूचना मिली है मैं उसे नहीं भुला पा रहा हूँ तो पाबला जी और उन के परिजनों की क्या स्थिति होगी? जिन के बीच वह चौबीसों घंटे रहती थी। मेरे बेटे वैभव ने शाम पाबला जी के पुत्र गुरुप्रीत से फोन पर बात करनी चाही, लेकिन गुरुप्रीत बात नहीं कर सका उस का स्वर रुआँसा हो उठा।
अपनी भिलाई यात्रा के विवरण में से डेज़ी से सम्बंधित अंश यहाँ उस के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ......
पाबला जी की वैन से हम उन के घर के लिए रवाना हुए वेबताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है। मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों। एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया। बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला 'पहुँच गए'। पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके। इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक-एक बैग उठाए। पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया। अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी। उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले। उस ने एक बार मुड़ कर पाबला की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कुछ अभिनय किया। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने। डॉगी बहुत ही प्यारी थी, पाबला जी ने बताया डेज़ी नाम है उस का।
.................आँख खुली तो डेज़ी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी। मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ। पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई। पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया? -नहीं केवल पहचान कर रही थी।
......... तीसरे दिन सुबह गुरप्रीत ने सोने जाने के पहले कॉफी पिलाई। नींद पूरी न हो पाने के कारण मैं फिर चादर ओढ़ कर सो लिया। दुबारा उठा तो डेज़ी चुपचाप मुझे तंग किए बिना मेरे पैरों को सहला रही थी। मुझे उठता देख तुरंत दूर हट कर बैठ गई और मुझे देखने लगी। हमारे पास भैंस के अतिरिक्त कभी कोई भी पालतू नहीं रहा। उन की मुझे आदत भी नहीं। पास आने पर और स्वैच्छापूर्वक छूने पर अजीब सा लगता है। डेज़ी को मेरे भरपूर स्नेह के बावजूद लगा होगा कि मैं शायद उस का छूना पसंद नहीं करता इस लिए वह पहले दिन के अलावा मुझ से कुछ दूरी बनाए रखती थी। उस दिन मुझे वह उदास भी दिखाई दी। जैसे ही पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया वह बाहर चल दी। लेकिन उस के बाद मैं ने महसूस किया कि वह मेरा पीछा कर रही है। मैं जहाँ भी जाता हूँ मेरे पीछे जाती है और मुझे देखती रहती है। मैं उसे देखता हूँ तो वह भी मुझे उदास निगाहों से देखती है। मुझे लगा कि मेरे हाव भाव से उसे महसूस हो गया है कि मैं जाने वाला हूँ। उस का यह व्यवहार सिर्फ मेरे प्रति था, वैभव के प्रति नहीं। शायद उसे यह भी अहसास था कि वैभव नहीं जा रहा है, केवल मैं ही जा रहा हूँ।
हमें दो बजे तक दुर्ग बार ऐसोसिएशन पहुँचना था। मैं धीरे-धीरे तैयार हो रहा था। पाबला जी की बिटिया के कॉलेज जाने के पहले उस से बातें कीं। फिर कुछ देर बैठ कर पाबला जी के माँ-पिताजी के साथ बात की। हर जगह डेज़ी मेरे साथ थी। मैं ने पाबला जी को बताया कि डेज़ी अजीब व्यवहार कर रही है, शायद वह भाँप गई है कि मैं आज जाने वाला हूँ। ........
मैं सवा बजे पाबला जी के घर से निकलने को तैयार था। मैं ने अपना सभी सामान चैक किया। कुल मिला कर एक सूटकेस और एक एयर बैग साथ था। मैं ने पैर छूकर स्नेहमयी माँ और पिता जी से विदा ली। मैं नहीं जानता था कि उन से दुबारा कब मिल सकूँगा? या कभी नहीं मिलूँगा। लेकिन यह जरूर था कि मैं उन्हें शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकूँ।
मैं सामान ले कर दालान में आया तो देखा वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक आ रहे हैं और डेजी उन के आगे है। मैं डेजी को देख रुक गया तो वह दो पैरों पर खड़ी हो गई बिलकुल मौन। मैं ने उसे कहा बेटे रहने दो। तो वापस चार पैरों पर आ गई। गुरप्रीत पहले ही बाहर वैन के पास खड़ा था। उस ने मेरा सामान वैन के पीछे रख दिया। मैं पाबला जी और वैभव हम वैन में बैठे सब से विदाई ली। डेजी चुप चाप वैन के चक्कर लगा रही थी। शायद अवसर देख रही थी कि पाबला जी का इशारा हो और वह भी वैन में बैठ जाए। पाबला जी ने उसे अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर हो गई और वहाँ से निहारने लगी। हमारी वैन दुर्ग की ओर चल दी। मैं ने डेजी जैसी पालतू अपने जीवन में पहली बार देखी जो दो दिन रुके मेहमान के प्रति इतना अनुराग कर बैठी थी। मैं जानता था कि कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो।
इस पोस्ट का मकसद डेज़ी को स्मरण करना तो है ही साथ ही यह भी कि शायद हम अपने त्योहारों या अन्य किसी प्रकार की मौज-मस्ती के बीच उन्हें पहुँचाने वाले जानलेवा कष्टों को पहचान सकें और व्यवहार में कुछ सहिष्णु हो सकें।
डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम!
तुम बहुत, बहुत याद आओगी!
अधिवक्ता संघ के सचिव श्री ओम प्रकाश शर्मा बैठक का संचालन करते हुए
अधिवक्ता संघ दुर्ग शायद देश का पहला जिला स्तरीय अधिवक्ता संघ है जो जुलाई 2008 से अपना मासिक अखबार संचालित करता है और उस का नेट संस्करण भी ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करता है। यह नेट संस्करण ही मेरा इस संघ के साथ संपर्क का माध्यम बना। दुर्ग अधिवक्ता संघ के कार्यालय का कमरा न्यायालय परिसर में ही प्रथम तल पर स्थित कोई 12 गुणा 20 फुट के कमरे में स्थित था। उसे एक बैठक की तरह सजाया हुआ था। एक तरफ चार पांच कुर्सियाँ लगी थीं उन के सामने मेज थी और उस के सामने मेज की ओर मुँह किए शेष कुर्सियां लगी थीं कुल बीस-पच्चीस व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था। मुझे भी चार कुर्सियों में से एक पर बैठने को कहा गया वहाँ पहले से अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन, सचिव ओम प्रकाश शर्मा मौजूद थे। हमारे वहाँ पहुँचने के कुछ देर बाद ही औपचारिक बैठक आरंभ हुई। सचिव शर्मा जी ने कार्यक्रम का संचालन किया अतिथि (मैं) और अध्यक्षा को माल्यार्पण और बुके भेंट के बाद मुझ से इंटरनेट की वकीलों के लिए उपयोगिता पर प्रकाश डालने को कहा गया।
अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी बोलते हुए
मैं ने उन्हें बताया कि हमारी पीढ़ी तो शायद इंटरनेट का उपयोग बहुत ही कम कर पाए लेकिन आने वाली पीढी़ का काम इस के बिना नहीं चलेगा। सर्वौच्च न्यायालय के 1950 से ले कर आज तक के सभी महत्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध हैं और 2000 के बाद तो लगभग सभी उच्चन्यायालयों के निर्णय भी उपलब्ध होने लगे हैं। आज जब सैंकड़ों की संख्या में विधि जर्नल प्रकाशित होने लगे हैं। महत्वपूर्ण निर्णयों तक पहुँचना कठिन हो चला है। आगे आने वाले वर्षों में और भी कठिन होता जाएगा। उन तक पहुँच केवल इंटरनेट के माध्यम से ही संभव हो सकेगी। तब बिना इंटरनेट की सुविधा के वकील को योग्य वकील ही नहीं समझा जाएगा। जैसे मुवक्किल आज वकील के दफ्तर की किताबों की संख्या को देख कर वकील की योग्यता का अनुमान करता है। तब प्रत्येक वकील के दफ्तर में एक कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन आवश्यक होगा।
स्वागत और परिचय
मुफ्त साधनों के साथ बहुत से डा़टाबेस भी उपलब्ध हैं। जिनका हम उपयोग कर सकते हैं जहाँ सभी निर्णयों के साथ साथ वकालत की अन्य सामग्री भी तुरंत उपलब्ध हो सकती है। अधिकांश कानून और नए संशोधनों की जानकारी अभी भी इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। लोग इस का उपयोग प्रारंभ करें तो जल्द ही उस के बहुत से नतीजे भी सामने आने लगेंगे। मैं ने उन्हें तीसरा खंबा, जूनियर कौंसिल, अभिभाषक वाणी और अदालत ब्लॉगों के बारे में भी बताया। यह सौभाग्य ही था कि तीनों के मॉडरेटर या प्रतिनिधि वहाँ उस बैठक में उपस्थित थे। मैं ने अदालतों की कमी और साधनों की कमी के बारे में उन्हें बताया और यह भी कहा कि हम वकील यदि छोटी छोटी समस्याओं पर काम बंदी के स्थान पर अदालतों की संख्या वृद्धि और साधनवृद्धि के मामले में आंदोलित हों तो सरकारों को चेतन होना पड़ेगा। वकीलों के आंदोलित हुए बिना इस समस्या की ओर सरकारें ध्यान नहीं देंगी। इस छोटी सी बैठक को अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन ने भी संबोधित किया। सभा का संचालन न केवल रोचक था अपितु काव्यत्मक भी था। अनपेक्षित रूप से मुझे संघ की ओर से श्रीफल और एक शॉल भी एक सम्मान पत्र के साथ भेंट किया गया।
स्वागत और परिचय
इस संक्षिप्त सभा के उपरांत कार्यकारिणी ने हमारे साथ पास ही एक रेस्तराँ में दोपहर का भोजन किया। वहाँ से अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी, संजीव तिवारी और कुछ अन्य अधिवक्ता मुझे स्टेशन तक छोड़ने भी आए पाबला जी और वैभव तो साथ थे ही। अधिवक्ता संघ दुर्ग ने जो सम्मान मुझे दिया वह केवल मेरा सम्मान नहीं था। वह मेरी सवा वर्ष की कानून और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लागिरी और हि्दी ब्लागिरी का भी सम्मान था। यह इस बात का भी द्योतक था कि ब्लागिरी केवल व्यक्तिगत विचारों को प्रकट करने का साधन नहीं है। अपितु यदि इस का उपयोग किया जाए तो यह समाज के विभिन्न भागों को जोड़ने और उपयोगी सूचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने का एक प्रभावकारी माध्यम भी हो सकती है।
हिन्दी ब्लागिरी का सम्मान
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के आने तक प्लेटफार्म पर भी बातों का सिलसिला जारी रहा। एक एक कॉफी वहाँ पी ली गई। जो मेरी छत्तीसगढ़ की इस संक्षिप्त यात्रा की अंतिम कॉफी थी। मैं पाबला जी से कह रहा था कि समय की कमी से बहुत कुछ छूट गया है। मेरी पंकज अवधिया से मुलाकात नहीं हो सकी वे बाहर थे और उसी दिन सुबह लौट कर आए थे, जिस दिन मैं वापस लौट रहा था। एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति जिस से मुलाकात नहीं हो सकी वे अदालत ब्लाग के मॉडरेटर और पाबला जी के साथी लोकेश थे। अदालत वह ब्लाग है जिस ने तीसरा खंबा को बहुत सहयोग किया। अदालत यदि महत्वपूर्ण अदालती खबरें हिन्दी ब्लाग जगत तक निरंतर नहीं पहुंचाता तो शायद यह काम सीमित दायरे में रह कर तीसरा खंबा को करना पड़ता और जो काम तीसरा खंबा के माध्यम से अब तक हो सका है वह उतना नहीं हो सका जितना होना चाहिए था।
दुर्ग के एक वरिष्ठ वकीलमिलते हुए
ट्रेन आई और मुझे ले कर चल दी। सब लोग जो मुझे छोड़ने आए थे हाथ हिला कर मुझे विदा कर रहे थे। मुझे लग रहा था कि मैं अपने पुत्र के अतिरिक्त बहुत कुछ यहाँ छोड़े जा रहा हूँ। मैं ने बहुत कुछ यहाँ पाया और जो छोडे़ जा रहा हूँ उसे पकड़ने के लिए जल्द ही मुझे वापस यहाँ आना पडे़।
संजीव तिवारी (जूनियर कौंसिल) मैं और बी. एस. पाबला जी
पाबला जी के यहाँ पहली रात थी, फिर भी थके होने से नीन्द जल्दी ही आ गई। सुबह 5-6 बजे के बीच खटपट से नींद खुली तो देखा मोनू कुछ कर रहा था। मुझे उठा देख उस ने पूछा, अंकल आप के लिए कॉफी बनाऊँ? मैं ने आश्चर्य व्यक्त किया कि, तुम जाग भी गए! बोला, अंकल मैं तो कॉफी पी कर दस पन्द्रह मिनट काम करुंगा फिर सोने जाउंगा, मेरा तो यह रूटीन है। मैं इसी वक्त सोता हूँ और 11-12 बजे तक उठता हूँ। सारी रात तो मेरा काम ही चलता रहता है। वहwebolutions.in के नाम से वेबसाइट डिजाइन करने और उन्हें संचालित करने का काम करता है। मैं भी अपनी वेबसाइट उसी से डिजाइन कराने का इरादा रखता था। मैं ने उसे कहा कि हम अपनी तीसरा खंबा के लिए कब बैठेंगे? अंकल आज शाम तो मेरे पास काम है हाँ आधी रात के बाद बैठ सकते हैं। मैं ने उसे हाँ कह दिया। तब तक उस ने मुझे कॉफी दे दी, वह अपना कप ले कर अपनी लेब में चला गया, वही उस के सोने का स्थान भी है। इसी लेब के साथ का टॉयलट मैं ने कल दिन भर प्रयोग किया था। इस लेब में एक पीसी और एक लेपटॉप था। पीसी पर मोनू का सहायक और लेपटॉप पर खुद मोनू काम करते थे। पूरे घर में ऐसी व्यवस्था थी कि किसी भी कंप्यूटर या लैपटॉप पर बिना कोई तार के इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता था।
संजीव तिवारी, मैं अभिभाषक वाणी के ताजा अंक हाथ में लिए,
शकील अहमद सिद्दीकी और बी.एस. पाबला
मेरी सफर और नए शहर की थकान नहीं उतरी थी कॉफी से भी आलस गया नहीं। मैं ने फिर से चादर ओढ़ ली और जल्दी ही नींद फिर से आ गई। अब की बार पाबला जी ने जगाया तब तक सात से ऊपर समय हो चुका था, वे घोषणा कर रहे थे कि हमें 10 बजे रायपुर के लिए निकलना है। मुझे तुरंत तैयार होना था। वे नाश्ते की पूछते इस से पहले ही मैं ने उन से उस के लिए माफी चाही, एक दिन पहले खाए-पिए से ही निजात नहीं मिल सकी थी। पाबला जी ने कुछ ना नुकर के साथ मुझे माफ कर दिया। कुछ देर बाद ही पता लगा कि साढ़े नौ बजे संजीव तिवारी के साथ दुर्ग के वकील शकील जो अधिवक्ता संघ दुर्ग के मासिक पत्र अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी साहब आ रहे हैं। मैं और वैभव शीघ्रता से तैयार हो गए। उन्हें आते आते 10 बज गए। मैं दोनों से पहली बार मिला। वे ऐसे मिले जैसे बिछड़े परिजन मिले हों। बीसेक मिनट उन से बात चीत हुई और 30 जनवरी को 2 बजे दुर्ग बार एसोसिएशन पहुँचने का कार्यक्रम तय हो गया।
रायपुर के लिए पाबला जी के घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए थे। पाबला जी को वैन में एलाइनमेंट की समंस्या नजर आई। वैन को टायर वाले के यहाँ ले गए। पाबला जी के कहने पर उसने एलाइनमेंट का काम पन्द्रह मिनट में पूरा कर दिया। वैन बाहर आई तो अचानक ऐक्सीलेटर ने जवाब दिया। उसे दुरुस्त करा कर हम रायपुर के लिए रवाना हुए। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि भिलाई से रायपुर तक सड़क के दोनों ओर उद्योगिक इकाइयाँ और खाली भूमि नजर आई लेकिन खेती का नामोनिशान तक न था। लगता था दुर्ग से ले कर रायपुर तक सब जगह केवल उद्योग हैं या बस्तियाँ। भिलाई में जरूर सघन वृक्षावली नजर आती हैं लेकिन वह भिलाई स्टील प्लाण्ट और टाउनशिप के निर्माताओं के प्रारूपण का कमाल है। भिलाई 52 कारखाने और उन का प्रदूषण होते हुए भी उस का असर इस वृक्षावली के कारण ही कम नजर आता है। पता नहीं कब नगर नियोजकों को यह गुर समझ आएगा कि नगर में भी बीच बीच में खेती और बागवानी के लिए भूमि आरक्षित की जाए तो प्रदूषण का मुकाबला करना कितना आसान हो सकता है?
कार्टून वॉच का जनवरी अंक मेरे हाथ में, अनिल पुसदकर, त्रयम्बक शर्मा और वैभव
रायपुर प्रेसक्लब पहुँचे तो एक बज चुके थे। अनिल पुसदकर जी और संजीत त्रिपाठी कुछ अन्य पत्रकार साथियों के साथ बाहर ही प्रतीक्षा करते मिले। पुसदकर जी जैसे चित्र में लगते हैं, उस से कहीं कम उम्र के लगे। पहले उन्हों ने हमें प्रेस क्लब की पूरी इमारत का अवलोकन कराया। भूतल के एक हॉल में प्रेस कान्फ्रेंस चल रही थी। पूरी इमारत दिखाने के बाद प्रथम तल के एक बड़े कॉन्फ्रेन्स हॉल में मंच के दाहिनी और हम सब बैठे बतियाने लगे। सब से परिचय हुआ। वे बताने लगे कि कैसे उन्हों ने अपने पत्रकारिता जीवन में अनेक समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के लिए पत्रकारिता का कार्य किया है। पूरे विवरण में जो जरूरी बात नोट की जिसे वे छिपा रहे वह यह कि उन का छत्तीसगढ़ से बहुत लगाव रहा है। उन्हों ने छत्तीसगढ़, वहाँ की जनता और पत्रकारों के हितों के लिए अनेक बार अपने रोजगार को भी दाँव पर लगाया मुख्यमंत्री और उस स्तर तक के नेताओं से कभी समझौता नहीं किया। आज मोतीबाग के बीच प्रेस क्लब की जो शानदार और सुविधाजनक इमारत खड़ी है। उस में उन का योगदान सर्वोपरि है।
ब्लागरी के बारे में बात चली तो अनिल जी कहने लगे कि यह एक ऐसा माध्यम है जहाँ अपने विचार बिना किसी संकोच, दबाव और प्रभाव के स्वतंत्रता पूर्वक रखे जा सकते हैं। वहाँ हाजिर सभी व्यक्ति सहमत थे। वहीं कार्टून वॉच के संपादक त्रयम्बक शर्मा आ गए और चर्चा में सम्मिलित हो गए। उन्हों ने मुझे और पाबला जी को पत्रिका के जनवरी अंक की एक-एक प्रति भेंट की। कार्टून वॉच को इंटरनेट पर भी देखा है। लेकिन पत्रिका के रूप में देखना बहुत अच्छा लगा। मुझे बरसों पहले प्रकाशित होने वाली एक मात्र पत्रिका शंकर्स वीकली का स्मरण हो आया। जिस का मैं नियमित ग्राहक था। यहाँ तक कि उस में प्रकाशित होने वाले कार्टूनों की नकल कर के अपने कार्टून बनाने के प्रयास भी किए। लेकिन कुछ समय बाद वह पत्रिका बन्द हो गई और हमारे कार्टूनिस्ट कैरियर का वहीं अंत हो गया। मैं ने त्रयम्बक जी ने बताया कि पत्रिका 12 वर्षों से लगातार निकल रही है और देश की एकमात्र कार्टून पत्रिका है। मैं इस तथ्य से ही रोमांचित हो उठा। मैं ने त्रयम्बक जी को उसी समय वार्षिक शुल्क दिया। उन्होंने उस की रसीद देने में असमर्थता जताई। लेकिन रसीद के रूप में पत्रिका का फरवरी अंक मुझे समय पर मिल गया। मेरी सोच यह है कि ब्लागरों को इस पत्रिका का शुल्क दे कर इस का ग्राहक बनना चाहिए। जिस से इस एकमात्र कार्टून पत्रिका को आगे बढ़ने का अवसर मिले। त्रयंबक जी को कहीं और काम होने से वे जल्दी ही चले गए। ...........आगे अगली कड़ी में
पाबला जी बताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है। मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों। और एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया। बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला पहुँच गए। पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके। इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक एक बैग उठाए। पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया। अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी। उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले। उस ने एक बार मुड़ कर पाबला की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कहा भी। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने। डॉगी बहुत ही प्यारी थी।
लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई। बहुत ही आत्मीयता से मिले। मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं। उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता। जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ। पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया। बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा। जिस में एक टेबल पर पीसी था। पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है। अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।
कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए। तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था। दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे। हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया। फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं। तकनीकी तो थी हीं, कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं। रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे। बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे। पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका। मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे। कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था। इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था। वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था। हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।
घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं। मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी। अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था। माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते। हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे। इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं। भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए। वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया। यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं। पंखा चल रहा था। नींद आ गई।
आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी। मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ। पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई। पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया? -नहीं केवल पहचान कर रही थी। बाहर देखा तो शाम होने को थी। मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे? बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे। अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है। मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था। पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे। सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा। मैं उन से सहमत हो गया। समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया। मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
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1. पाबला जी के घर की बाउंड्रीवाल, 2. पाबला जी के पिता जी और माता जी, 3. भिलाई स्टील प्लाण्ट, 4. पाबला जी का घर बाहर से और 5. पाबला जी का पुत्र गुरूप्रीत सिंह (मोनू)
और यहाँ नीचे देख सकते हैं मोनू और डॉगी का शानदार वीडियो।
यह भोपाल का हबीबगंज स्टेशन था। उपयुक्त प्लेटफार्म पर पहुंचने के कुछ ही देर बाद छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस आ गई और हम उस में लद लिए। यह ट्रेन रोज अमृतसर से शाम साढ़े चार बजे चलती है और तीसरे दिन दोपहर 11.50 बजे बिलासपुर जंक्शन पहुंचती है। इस नाम की एक डाउन और एक अप ट्रेन हमेशा ट्रेक पर रहती है। गाड़ी चली तो आधे घंटे से कुछ अधिक ही लेट थी। एकाध घंटे हम बैठे रहे। पर जैसे जैसे रात गहराती गई मिडल बर्थ खुलने लगी और दस बजते बजते मैं भी मिडल बर्थ पर पहुंच लिया। चाय की आवाजों से नींद खुली तो ट्रेन नागपुर स्टेशन पर खड़ी थी। कोई चार से साढ़े चार का समय था। मैं ने वैभव से पूछा चाय पियोगे तो उस ने मना किया। लेकिन मैं उतर कर नागपुर प्लेटफार्म देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। प्लेटफॉर्म पर आया तो कोई सर्दी नहीं थी। प्लेटफॉर्म नगर अपनी प्राचीनता की कहानी स्वयं कह रहा था। ट्रेन बहुत देर वहाँ रुकी रही। मैं वापस अपनी बर्थ में आ कर कंबल में दुबक लिया।
अगली बार नीन्द दो स्त्रैण ध्वनियों ने भंग की कूपा लगभग खाली था, सुबह की रोशनी खिड़कियों से प्रवेश कर रही थी। सामने वाली मिडल बर्थ को गिराया जा चुका था ट्रेन किसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। शायद वे दोनों वहीं से बैठी थीं और उन्हें छोड़ने वाले प्लेटफॉर्म पर खड़े उन्हें हिदायतें दे रहे थे। उन में एक अधेड़ होने का आतुर विवाहिता और दूसरी किशोरावस्था की अंतिम दहलीज पर खड़ी कोई छात्रा थी। मैं ने स्टेशन का नाम पूछा तो गोंदिया बताया गया। मुझे बीड़ियों का स्मरण हो आया, ब्रांड शायद तीस छाप रहा होगा। कोई कह रहा था, ट्रेन कोई एक घंटा लेट हो गई है, या हो जाएगी। तभी मोबाइल ने पाबला जी की धुन गुन गुनाई। पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची। मैं ने बताया, गोंदिया में खड़ी है। नागपुर में आधे घंटे से कुछ अधिक लेट थी। यहाँ लोग एक घंटे के करीब बता रहे हैं। बाकी का अनुमान आप खुद लगाएँ। उन्हों ने बताया कि वे दुर्ग प्लेटफॉर्म पर हमें खड़े मिलेंगे। अभी ढाई घंटों का मार्ग शेष था। मुझे नींद की खुमारी थी। मैं फिर से कंबलशरणम् गच्छामि हो गया।
इस बार आँखें खुली तो तुरंत मोबाइल में समय देखा गया। अभी आठ बीस हो रहे थे। डब्बे में विद्यार्थियों, विशेष रुप से छात्राओं की भारी संख्या थी। जैसे वह शयनयान न हो कर जनरल डब्बा हो। गाड़ी की देरी के स्वभाव को देखते हुए दुर्ग पहुँचने में अभी पौन घंटा शेष था। कुछ ही देर में किसी गाड़ी नगरीय सीमा में प्रवेश करती दिखाई दी। मैं ने ऐतिहातन पूछ लिया कौन नगर आया? जवाब दुर्ग था। मैं एक दम चैतन्य हो उठ बैठा। कंबल आदि समेट कर बैग के हवाले किए और उतरने को तैयार।
प्लेटफॉर्म पर उतरे तो इधर उधर निगाहें दौड़ाई कि कही कोई पगड़ीधारी सिख किसी का इंतजार करता दिखा तो जरूर पाबला जी होंगे। कुछ सिख दिखे तो, लेकिन उन में से किसी के पाबला होने की गुंजाइश एक फीसदी भी नहीं थी। उतरी हुई सवारियाँ सब चल दीं, फिर ट्रेन भी। आखिर मोबाइल का सहारा लिया। पाबला जी पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची? मैं ने बताया हमें दुर्ग स्टेशन पर उतार कर आगे चल दी। वे बोले- हम तो अभी घर से निकले ही नहीं। देरी के हिसाब से तो अभी पहुँचने में पौन घंटा होना चाहिए। मैं ने कहा कम्बख्त ने गोंदिया के बाद सारी देरी कवर कर ली। आप चलिए हम प्लेटफॉर्म छोड़ कर स्टेशन के बाहर निकलते हैं। वे बोले मैं बीस मिनट में पहुँचता हूँ।
हम दोनों स्टेशन के बाहर निकल कर वहाँ आ गए जहाँ कारों की पार्किंग थी। कुछ दूर ही स्टेशन का क्षेत्र समाप्त हो रहा था और बाहर की दुकानें दिखाई दे रही थीं। वहाँ जरूर कोई चाय-कॉफी की दुकान होगी। सुबह की कॉफी नहीं मिली थी। पर मुझे यह गवारा न था कि पाबला जी को हमें तलाशने में परेशानी हो। हम वहीं उन का इंतजार करते रहे। मैं हर आने वाली वैन में पगड़ी धारी सिख को देखने लगा। आखिर वह वैन आ ही गई। हमने अपने बैग उठाए और उसकी और बढ़े। हमारी बढ़त देख पाबला जी ने भी हमें पहचान लिया। पाबला जी के साथ उन का पुत्र मोनू (घरेलू नाम) था। दोनों ने हमारे हाथों से बैग लगभग छीने और वैन के हवाले किए। वैभव को चालक सीट पर बैठे मोनू के साथ बिठाया और पाबला जी मेरे साथ पीछे बैठे। हम चल दिए भिलाई स्टील प्लांट की टाउनशिप में स्थित पाबला जी के घऱ की ओर।
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1. हबीबगंज (भोपाल) रेलवे स्टेशन 2. दुर्ग रेलवे स्टेशन है 3. पाबला जी।