@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अधिवक्ता
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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दिमाग पर स्पेस का संकट

ल अनवरत और आज तीसरा खंबा की पोस्टें नहीं हुई। मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? एक तो पिछले सप्ताह बच्चे घर पर थे। सोमवार को वे चले गए। बेटी अपनी नौकरी पर और बेटा नौकरी के शिकार पर। उस का लक्ष्य है कि अच्छा शिकार मिले। पिछले चार माह से जंगल (बंगलूरू) में है, अभी कोई अच्छा शिकार काबू में नहीं आ रहा है। मुझे विश्वास है कि वह शीघ्र ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। शाम को बात हुई तो पता लगा आज भी सुबह एक लिखित परीक्षा दे कर आया है।  
च्चों के जाते ही अपना काम याद आया। एक हफ्ता मैं ने भी बच्चों के साथ जो गुजारा उस में कुछ काम  फिर के लिए छोड़ दिए गए। पिछले दिनों हड़ताल के कारण  मुकदमें कुछ इस तरह लग गए कि एक-एक दिन में ही चार-पाँच मुकदमे अंतिम बहस वाले। एक दिन में इस तरह के एक-दो मुकदमों में ही काम किया जा सकता है। लेकिन वकील को तो सभी के लिए तैयार हो कर जाना पड़ता है। पता नहीं कौन सा करना पड़ जाए। उस के लिए अपने कार्यालय में भी अतिरिक्त समय देना पड़ता है। पेचीदा मामलों में सर भी खपाना पड़ता है। नतीजा यह कि दूसरी-दूसरी बातों के लिए स्पेस ही नहीं रहता। पिछले तीन दिनों से तो एक मुकदमे मे रोज बहस होती रही। आज पूरी हो सकी। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा, वास्तव में ऐसा होता है।

स मुकदमे में मैं तीन प्रतिवादियों में से एक का वकील था। वादी ने अपनी गवाही के दौरान एक दस्तावेज  की फोटो प्रति यह कहते हुए मुकदमे में पेश कर दी कि उस की असल उस के पास थी लेकिन गुम हो गई, इस रिकार्ड पर ले लिया जाए। हमारे मुवक्किल ने कहा कि यह फर्जी है, असल की जो प्रति उसे दी गई थी वह कुछ और कहती है। लेकिन वह प्रति तलाश करनी पड़ेगी। प्रति बेटे के पास थी जो रोमानिया में था। बेटा कुछ माह बाद भारत आया तो उस ने तलाश कर के वह दी। दोनों में पर्याप्त अंतर था। यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सी सही है और कौन सी गलत। हमने अपने मुवक्किल की प्रति पेश कर उसे रिकॉर्ड पर लेने का निवेदन अदालत से किया। हमारी प्रति रिकार्ड पर नहीं ली गई। हम हाईकोर्ट जा कर उसे रिकार्ड पर लेने का आदेश करा लाए। इस मुकदमे में दोनों को ही एक दूसरे की प्रति को गलत और अपनी को सही साबित करना था। हम इसी कारगुजारी में उलझे रहे। इस मुकदमे में अनेक अन्य बिंदु भी थे। अदालत ने उन सब पर बहस सुनी ,लगातार तीन दिन तक। जब एक ही मुकदमा तीन दिन तक लगातार चले। वही फैल कर  आप के दिमाग की अधिकांश स्पेस को घेर ले साथ में रूटीन काम भी निपटाने हों तो कैसे दिमाग में स्पेस हो सकती है।
स बीच अनेक बातें सामने आई, जिन पर लिखने का मन था। लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो। तो उसे आराम करने दिया जाए। तो आप के साथ उसे भी शुभ रात्रि कहता हूँ। कल मिलते हैं फिर उस के साथ आप से।

शनिवार, 6 मार्च 2010

दुर्घटना के मुकदमों में दावेदारों की वकालत का विकास

पनी वकालत का यह बत्तीसवाँ साल चल रहा है। वकालत के पहले दस-बारह वर्षों में यदा-कदा मोटर दुर्घटना में घायल होने या मृत्यु हो जाने के मुकदमे सहज रूप से आया करते थे। इसी तरह कामगार क्षतिपूर्ति के मुकदमे सहज रूप से आते ही थे। हम अपने सेवार्थी से मुकदमे का खर्च लेते थे और जो भी फीस तय होती थी उस का आधा पहले लेते थे और शेष आधी फीस मुकदमे में बहस होने के पहले तक सेवार्थी अपनी सुविधा से जमा कर देता था। फीस की राशि निश्चित होती थी और उस का संबंध सेवार्थी को मिलने वाली राशि पर निर्भर नहीं होता था। 
1980 आते-आते स्थिति यह हो गई कि सेवार्थी जिद करने लगे कि वे मुकदमे का खर्च तो देंगे, लेकिन फीस नहीं देंगे। मुकदमे से मिलने वाली क्षतिपूर्ति का निर्धारित प्रतिशत वे क्षतिपूर्ति राशि मिलने पर देंगे। आरंभ में सेवार्थी से हम अपनी शर्त मनवाने के लिए जिद करते थे। लेकिन वकीलों में ही कुछ लोग इन शर्तों को मानने को तैयार हो गए तो हम ने भी इस शर्त को स्वीकार कर लिया। तब फीस का प्रतिशत मिलने वाली क्षतिपूर्ति की राशि का पाँच से आठ प्रतिशत तक हुआ करता था। इस से वकीलों को मिलने वाली फीस की राशि में पर्याप्त वृद्धि होती थी। क्षतिपूर्ति का भुगतान बीमा कंपनी करती थी और यह राशि मिलने पर सेवार्थी फीस वकील को दे दिया करते थे। कोई कोई सेवार्थी ऐसा होता था जो फीस देने में बेईमानी भी कर लेता था। हम लोग उसे भुगत लेते थे या फिर किसी तरह से उस से फीस वसूल कर लेते थे। 
फीस बढ़ने से इस ओर सभी वकीलों का आकर्षण बढ़ा। अब वकीलों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो गई। वकीलों ने यह कर दिया कि वे खर्चा भी नहीं लेने लगे लेकिन फीस बढ़ कर दस प्रतिशत तक पहुँच गयी। यह 1990 के आसपास की बात है। इस बीच 1984 में भोपाल में गैस दुर्घटना हुई। क्षतिपूर्ति के मुकदमे करने के लिए अमरीका के वकीलों ने मुवक्किलों से संपर्क किया और मुकदमा करने के लिए दावेदारों को क्षतिपूर्ति की राशि अग्रिम देने का प्रस्ताव किया। इस से देश के उन वकीलों ने सीखा  जो इस व्यवसाय में पूंजी का नियोजन  कर सकते थे उन्हों ने दुर्घटना के मुकदमे हासिल करने के लिए दावेदारों को अपने पास से अग्रिम राशि देने की पेशकश करना आरंभ कर दिया।
काम हासिल करने का यह तरीका उन वकीलों को रास आया जो वकालत के लिए पूंजी का नियोजन कर सकते थे। धीरे-धीरे काफी वकील इस क्षेत्र में आ गए उन्हों ने पूंजी नियोजित न कर सकने वाले और करने की इच्छा न रखने वाले वकीलों को इस क्षेत्र से विस्थापित कर दिया। अब इस क्षेत्र में केवल वे ही अकेले रह गए। लेकिन पूंजी नियोजित करने वालों की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ती रही। अब उन के बीच भी प्रतिस्पर्धा होने लगी। लोग समाचारों पर निगाह रखने लगे कि कहाँ दुर्घटनाएँ हो रही हैं। वकील दुर्घटना में मृत्यु होने वाले परिवारों से घर जा कर संपर्क करने लगे। इस प्रतिस्पर्धा की स्थिति यह हो गई कि वकील दुर्घटना में मृतक की अंत्येष्टि पर पंहुचने लगे। घायलों से अस्पतालों में ही संपर्क करने लगे। अब तो स्थिति यह है कि मृतक का पोस्टमार्टम जहाँ हो रहा हो वहाँ भी पहुंचने लगे हैं। 
दुर्घटना स्थल पर सब से पहले पुलिस पहुँचती है। पुलिस ने भी जब वकीलों का यह रवैया देखा तो अन्वेषण करने वाले पुलिस अफसरों ने इसे अपनी आय का जरिया बना लिया। अब अन्वेषण अधिकारी पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल आते ही सब से पहले उस वकील को सूचना देता है जिस से उसे कुछ कमीशन मिलने वाला होता है और यह बताता है कि यहाँ मृतक के रिश्तेदार मौजूद हैं, वह आ कर मुकदमा हासिल कर ले। वकीलों की सेवाएँ अब यहाँ तक पहुँच गई हैं कि वे दावे के लिए न केवल तमाम दस्तावेजात जुटाते हैं बल्कि दावेदारों को पच्चीस-तीस हजार तक धन राशि स्वयं अपने पास से अग्रिम दे देते हैं जिसे वे मुकदमे में अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि मिलने के समय वापस वसूल कर लेते हैं। 
ज हमारे सामने ऐसा ही एक वाकया आया। एक वकील साहब हमारे साथ चाय पी रहे थे कि उन के पास पुलिस अफसर का फोन आया कि वे दुर्घटना में मृतक का पोस्टमार्टम करवा रहे हैं, मृतक के रिश्तेदार आ गए हैं आप बात कर लें। यह कह कर पुलिस अफसर ने फोन मृतक के रिश्तेदार को पकड़ा दिया। मृतक के रिश्तेदार ने फोन पर केवल यह कहा कि वकील साहब आप अग्रिम क्या दे रहे हैं? यहाँ एक वकील साहब पहले से आए हुए हैं और बीस हजार देने को तैयार हैं। वकील साहब का नाम पूछा तो पता लगा कि वह दूसरे जिले का वकील है और मुकदमा हासिल करने के लिए यहाँ तक आ गया है।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

अकर्मण्यता का शिकार एक बेहद बकवास अदालती दिन

ल का दिन बहुत बकवास और फालतू दिन था, कम से कम मेरे लिए। कुल छह मुकदमे थे। सारे के सारे अन्तिम बहस के लिए निश्चित थे। मैं ने सभी मुकदमों में तैयारी की। इस भरोसे कि मौका मिला तो सभी में अंतिम बहस कर डालूंगा। कम से कम कुछ में तो निर्णय हो सकेगा। लेकिन सब कुछ मेरे अकेले के सोचने से थोड़े ही हो सकता है। एक मुकदमे में मेरे ही सेवार्थी (मुवक्किल) की माँ का देहान्त हो गया था। वह पेशी पर नहीं आ सकता था। सेवार्थी की अनुपस्थिति में मुकदमे में बहस करना कुछ अच्छा नहीं लगता। फिर भी केवल इसलिए कि मुकदमा किनारे लगे, मैं उस में बहस को तैयार था। पता नहीं क्यों उस मुकदमे में जज खुद बहस सुनने को तैयार नहीं। सामने वाला वकील भी एक बजे तक अदालत में नहीं आया। मौका देख कर अदालत ने तारीख बदल दी। इस मुकदमे में मेरे पक्ष की बहस लगभग सुनी जा चुकी है,  वह भी चार बार में पूरी विस्तारित रुप में। अदालत का खुद का मानना था कि अब उस में समय नहीं लगेगा और मैं एक ही दिन में उसे पूरी कर दूँ। निश्चित रूप से मुझे अवसर मिलता तो मैं एक घंटे से भी कम समय में बहस पूरी कर देता। पर क्या कहा जाए? इस मुकदमे  में मेरा सेवार्थी हाईकोर्ट से निर्देश ला चुका है कि दो माह में इस का निर्णय किया जाए। फिर भी किसी न किसी बहाने यह निर्णीत नहीं हो रहा है। निर्देश को लाए छह माह से भी अधिक समय हो चुका है। खैर निर्देश की लाज रखते हुए अदालत ने उस में चार दिन बाद की तिथि बहस हेतु नियत की है।

गला मुकदमा भी उसी अदालत में है और दस वर्ष से चल रहा है। पिछले चार बरस से तो वह अन्तिम बहस में चल रहा है। कोई उसे सुनना ही नहीं चाहता है। बात मामूली है लेकिन न जाने क्यो अदालत उसे भारी समझती है। इस मामले में मेरा सेवार्थी हर पेशी पर आता है और अदालत पर सुनवाई के लिए दबाव बनाता है, वह अदालत को अनेक बार यह कह चुका है कि मुकदमे का निर्णय कर दिया जाए। चाहे उस के विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन आज यह सेवार्थी भी अदालत नहीं आया। यह कुछ राजनैतिक गतिविधियों में संलग्न रहता है। इन दिनों पंचायतों के चुनाव चल रहे हैं। हो सकता है उसी कारण न आया हो। मुझ से भी उस ने कोई संपर्क नहीं किया। अदालत ने उसे भी गैर हाजिर देख मुकदमे को नहीं सुना।  मैं ने उस में जल्दी की तिथि तय करने की बात कही तो अदालत ने कहा हम खुद जल्दी की तिथि देंगे। लेकिन तिथि तय हुई कोई बयालीस दिन की। लगता है अदालत के जज मूडी होते हैं वे वही करते हैं जो उन्हें करना होता है। इन दोनों मुकदमों में भी यही स्थिति है। इन में समय खपाना पड़ेगा। कम से कम आठ दस घंटों का तब जा कर उन में निर्णय हो सकेगा। अदालत में मुकदमों का अम्बार है। अदालतें ऐसे सर खपाऊ मुकदमों को क्यों सुने?  जब वह मुश्किल से मिनटों के श्रम से कुछ मुकदमों में निर्णय पारित कर सकती है। मनुष्य की हमेशा लालसा रहती है कि कम से कम काम करने पर अधिक से अधिक प्रतिफल और श्रेय मिले। अदालतों के जज इस लालसा से अछूते क्यों रहें?

चार अन्य मुकदमे एक ही न्यायार्थी द्वारा दायर किए हुए हैं जिन में जीवन बीमा निगम से राहत की मांग की गई थी। एक ही प्रकृति के मुकदमे होने और निर्णय के लिए आवश्यक बिंदु सभी मुकदमों में एक ही होने के कारण उन्हें समेकित कर दिया गया था। मै समझता था कि यह आसान काम है और जज इसे जरूर करेगा। लेकिन ये जज साहब भी लगता है काम करने के मूड में नहीं थे। शायद उन्हों ने यह खबर अपने स्टाफ को दे दी थी कि जितने मुकदमों में वकील चाहें पेशी दे दी जाए। अब आवेदक के वकील को पता है कि उस के ये चारों मुकदमे निरस्त होने की संभावना अत्य़धिक प्रबल है तो वह आसानी से बहस करने का मन नहीं बना पा रहा है। उस ने अदालत से समय चाहा और अदालत ने उसे दे दिया। जज साहब को यहाँ भी फिक्र नहीं है। उन के यहाँ छोटे-छोटे काम इतने हैं कि वे केवल फूँक मार दें तो उन से अपेक्षित काम से चार गुना दिखाई देने लगे।

दालतों की संख्या कम होने और हर अदालत में मुकदमों के अंबार ने और उच्च न्यायालय द्वारा  निश्चित किए गए क़ोटा सिस्टम ने उन्हें अकर्मण्य बना दिया है। वे अंबार में से आसान काम तलाशते हैं और अपने निर्धारित कोटे से दो-तीन गुना अधिक काम कर के अपनी परफोरमेंस को श्रेष्ठ बनाने में जुटे रहते हैं। इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौर में काम करने वाले जज नहीं हैं। एक मुकदमे के अंतिम बहस के स्तर पर पहुँचने के बाद एक पक्षकार का देहांत हो गया। सूचना मिलते ही प्रार्थी ने मृतक पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को रिकार्ड पर लेने का आवेदन प्रस्तुत किया। सामान्य जज उस पर तुरंत आदेश पारित न कर के उस के लिए कोई आगे की तिथि तय कर देता। लेकिन अदालत के जज ने उसी समय आदेश पारित कर विधिक प्रतिनिधियों को नोटिस जारी करने का आदेश दिया और कहा कि तुरंत प्रोसेस प्रस्तुत करें जिस से अगली तिथि तक उन्हें नोटिस मिल जाएँ। अगले दिन ही मृतक के एक और विधिक प्रतिनिधि का पता लगा और उस के लिए आवेदन दिया गया तो जज ने तुरंत पत्रावली अदालत में मंगा कर उसे भी साथ ही नोटिस जारी करने का आदेश दे दिया। इस मुकदमे की पत्रावली भी अदालत की शायद सब से मोटी  पत्रावली है, लेकिन यह जज उसे शीघ्र सुनवाई कर निर्णय करना चाहता है। उस जज का सभी मुकदमों के प्रति यही व्यवहार है। ऐसे ही कुछ जजों ने शायद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बचा रखा है।
जों में जो अकर्मण्यता बढ़ रही है उस का मुख्य कारण अदालतों का पर्याप्त संख्या में न होना और लगभग सभी अदालतों के पास उन की वास्तविक क्षमता से चार-पांच गुना काम का सदैव लंबित रहना है जिस से वे अपने लिए आसान काम का चयन कर लेते हैं और मुश्किल मुकदमे निर्णय के लिए तरसते हुए गिनीज और लिम्का बुकों में रिकार्ड दर्ज कराने की ओर बढ़ते रहते हैं।

शनिवार, 7 मार्च 2009

अधिवक्ता संघ दुर्ग ने किया विधि ब्लागिरी का सम्मान

अधिवक्ता संघ के सचिव श्री ओम प्रकाश शर्मा बैठक का संचालन करते हुए
अधिवक्ता संघ दुर्ग शायद देश का पहला जिला स्तरीय अधिवक्ता संघ है जो जुलाई 2008 से अपना मासिक अखबार संचालित करता है और उस का नेट संस्करण भी ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करता है।  यह नेट संस्करण ही मेरा इस संघ के साथ संपर्क का माध्यम बना।  दुर्ग अधिवक्ता संघ के कार्यालय का कमरा न्यायालय परिसर में ही प्रथम तल पर स्थित कोई 12 गुणा 20 फुट के कमरे में स्थित था।  उसे एक बैठक की तरह सजाया हुआ था।  एक तरफ चार पांच कुर्सियाँ लगी थीं उन के सामने मेज थी और उस के सामने मेज की ओर मुँह किए शेष कुर्सियां लगी थीं कुल बीस-पच्चीस व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था। मुझे भी चार कुर्सियों में से एक पर बैठने को कहा गया वहाँ पहले से अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन, सचिव ओम प्रकाश शर्मा मौजूद थे।  हमारे वहाँ पहुँचने के कुछ देर बाद ही औपचारिक बैठक आरंभ हुई। सचिव शर्मा जी ने कार्यक्रम का संचालन किया अतिथि (मैं) और अध्यक्षा को माल्यार्पण और बुके भेंट के बाद मुझ से इंटरनेट की वकीलों के लिए उपयोगिता पर प्रकाश डालने को कहा गया। 
 अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी बोलते हुए
मैं ने उन्हें बताया कि हमारी पीढ़ी तो शायद इंटरनेट का उपयोग बहुत ही कम कर पाए लेकिन आने वाली पीढी़ का काम इस के बिना नहीं चलेगा।  सर्वौच्च न्यायालय के 1950 से ले कर आज तक के सभी महत्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध हैं और 2000 के बाद तो लगभग सभी उच्चन्यायालयों के निर्णय भी उपलब्ध होने लगे हैं।  आज जब सैंकड़ों की संख्या में विधि जर्नल प्रकाशित होने लगे हैं।  महत्वपूर्ण निर्णयों तक पहुँचना कठिन हो चला है।  आगे आने वाले वर्षों में और भी कठिन होता जाएगा।  उन तक पहुँच केवल इंटरनेट के माध्यम से ही संभव हो सकेगी।  तब बिना इंटरनेट की सुविधा के वकील को योग्य वकील ही नहीं समझा जाएगा।  जैसे मुवक्किल आज वकील के दफ्तर की किताबों की संख्या को देख कर वकील की योग्यता का अनुमान करता है। तब प्रत्येक वकील के दफ्तर में एक कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन आवश्यक होगा।
स्वागत और परिचय
मुफ्त साधनों के साथ बहुत से डा़टाबेस भी उपलब्ध हैं। जिनका हम उपयोग कर सकते हैं जहाँ सभी निर्णयों के साथ साथ वकालत की अन्य सामग्री भी तुरंत उपलब्ध हो सकती है।  अधिकांश कानून और नए संशोधनों की जानकारी अभी भी इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।  लोग इस का उपयोग प्रारंभ करें तो जल्द ही उस के बहुत से नतीजे भी सामने आने लगेंगे।  मैं ने उन्हें तीसरा खंबा, जूनियर कौंसिल, अभिभाषक वाणी और अदालत ब्लॉगों के बारे में भी बताया।  यह सौभाग्य ही था कि तीनों के मॉडरेटर या प्रतिनिधि वहाँ उस बैठक में उपस्थित थे।  मैं ने अदालतों की कमी और साधनों की कमी के बारे में उन्हें बताया और यह भी कहा कि हम वकील यदि छोटी छोटी समस्याओं पर काम बंदी के स्थान पर अदालतों की संख्या वृद्धि और साधनवृद्धि के मामले में आंदोलित हों तो सरकारों को चेतन होना पड़ेगा।  वकीलों के आंदोलित हुए बिना इस समस्या की ओर सरकारें ध्यान नहीं देंगी।   इस छोटी सी बैठक को अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन ने भी संबोधित किया।  सभा का संचालन न केवल रोचक था अपितु काव्यत्मक भी था।  अनपेक्षित रूप से मुझे संघ की ओर से श्रीफल और एक शॉल भी एक सम्मान पत्र के साथ भेंट किया गया।
स्वागत और परिचय
इस संक्षिप्त सभा के उपरांत कार्यकारिणी ने हमारे साथ पास ही एक रेस्तराँ में दोपहर का भोजन किया।  वहाँ से  अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी, संजीव तिवारी और कुछ अन्य अधिवक्ता मुझे स्टेशन तक छोड़ने भी आए पाबला जी और वैभव तो साथ थे ही।  अधिवक्ता संघ दुर्ग ने जो सम्मान मुझे दिया वह केवल मेरा सम्मान नहीं था।  वह मेरी सवा वर्ष की कानून और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लागिरी और हि्दी ब्लागिरी का भी सम्मान था।  यह इस बात का भी द्योतक था कि ब्लागिरी केवल व्यक्तिगत विचारों को प्रकट करने का साधन नहीं है। अपितु यदि इस का उपयोग किया जाए तो यह समाज के विभिन्न भागों को जोड़ने और उपयोगी सूचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने का एक प्रभावकारी माध्यम भी हो सकती है।

हिन्दी ब्लागिरी का सम्मान
 
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के आने तक प्लेटफार्म पर भी बातों का सिलसिला जारी रहा।  एक एक कॉफी वहाँ पी ली गई।  जो मेरी छत्तीसगढ़ की इस संक्षिप्त यात्रा की अंतिम कॉफी थी।  मैं पाबला जी से कह रहा था कि समय की कमी से बहुत कुछ छूट गया है।  मेरी पंकज अवधिया से मुलाकात नहीं हो सकी वे बाहर थे और उसी दिन सुबह लौट कर आए थे, जिस दिन मैं वापस लौट रहा था।  एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति जिस से मुलाकात नहीं हो सकी वे अदालत ब्लाग के मॉडरेटर और पाबला जी के साथी लोकेश थे।  अदालत वह ब्लाग है जिस ने तीसरा खंबा को बहुत सहयोग किया।  अदालत यदि महत्वपूर्ण अदालती खबरें हिन्दी ब्लाग जगत तक निरंतर नहीं पहुंचाता तो शायद यह काम सीमित दायरे में रह कर तीसरा खंबा को करना पड़ता और जो काम तीसरा खंबा के माध्यम से अब तक हो सका है वह उतना नहीं हो सका जितना होना चाहिए था।
दुर्ग के एक वरिष्ठ वकील मिलते हुए
ट्रेन आई और मुझे ले कर चल दी।  सब लोग जो मुझे छोड़ने आए थे हाथ हिला कर मुझे विदा कर रहे थे।  मुझे लग रहा था कि मैं अपने पुत्र के अतिरिक्त बहुत कुछ यहाँ छोड़े जा रहा हूँ।  मैं ने बहुत कुछ यहाँ पाया और जो छोडे़ जा रहा हूँ उसे पकड़ने के लिए जल्द ही मुझे वापस यहाँ आना पडे़।
संजीव तिवारी (जूनियर कौंसिल) मैं और बी. एस. पाबला जी

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

जी, वकालत करता हूँ।

अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी में अनुवाद करना और उन का प्रचलित होना भी अजीब झमेला है।  भारत का हिन्दी बोलने और व्यवहार करने वाला क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, और इसी लिए जो नतीजे सामने आते हैं वे भी बहुत विविध होते हैं।  अब अंग्रेजी में दो शब्द हैं, लॉ'यर (Lawyer) और एड'वॅकेट (Advocate)।  पहले शब्द का अर्थ होता है जो विधि (कानून) की जानकारी रखता है और उसी का व्यवसाय करता है।  दूसरे शब्द का अर्थ है किसी अन्य की पैरवी करने वाला।  भारत में अंग्रेजी का प्रभाव आरंभ होने के सदियों पहले से इन दोनों शब्दों के लिए एक बहुत ही सुंदर शब्द प्रचलित है 'वकील' जिस में ये दोनों भाव मौजूद हैं।  मुस्लिम निकाह के दौरान जहाँ वधू पर्दे में होती है और सब के सामने नहीं आ सकती, वहाँ वर की ओर से वधू को अपनी जीवन संगिनी बनाए जाने का प्रस्ताव ले कर वधू के पास जाने वाले और उस का उत्तर ले कर काजी तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को भी वकील कहते हैं।  क्यों कि वह वर का प्रस्ताव ले जा कर वधू को देता है।  इस से यह स्पष्ट है कि इस शब्द में दूसरे की बात को किसी तीसरे के सामने रखने वाले व्यक्ति को वकील कहा जाता है।  सामान्य रूप से यदि कहीं किसी विवाद में हम अनपेक्षित रूप से किसी को अचानक किसी उपस्थित या अनुपस्थित व्यक्ति का तर्क सहित समर्थन करता देखें तो तुरंत उसे यह कह बैठते हैं कि, तुम उस के वकील हो क्या?  कुल मिला कर वकील एक व्यापक शब्द है जो अंग्रेजी के उक्त दोनों शब्दों के लिए पूरी तरह उपयुक्त है, व्यवहार में आसान है और इसलिए हिन्दी भाषियों के बीच बहुप्रचलित है।

लॉ'यर (Lawyer) शब्द जिन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जरूरी नहीं कि वे किसी की पैरवी भी करते हों।  वे केवल कानून के व्याख्याकार भी हो सकते हैं।  किसी समस्या के समय उपस्थित होने वाले इस प्रश्न को कि, कानून उन्हें किस प्रकार से व्यवहार करने को कहता है?  हल करने वाले को भी लॉ'यर (Lawyer) कहते हैं।  भारत की अदालतों में जब पैरवी करने वालों के व्यवसाय के नियमन के लिए कानून की जरूरत हुई तो  एडवोकेट, शब्द का उपयोग हुआ और एडवोकेट एक्ट बनाया गया। जो व्यक्ति बार कौंसिल में पंजीकृत हो और व्यावसायिक रूप से अदालतों के समक्ष पैरवी करने को अधिकृत हो उसे एडवोकेट कहा गया।  इस कानून के पहले तक इस व्यवसाय को करने वालों को सामान्य रूप से वकील ही कहा जाता था।  वे लोग भी वकील कहे जाते थे जो बिना किसी विशिष्ठ शैक्षणिक प्रमाण पत्र या डिग्री के भी स्वयमेव अभ्यास से हासिल योग्यता के आधार पर पैरवी करने के लिए मान्यता हासिल कर लेते थे।  इस कानून के बनने के बाद बिना मानक शैक्षणिक योग्यता के पैरवी का अधिकार प्राप्त करना असंभव हो गया।

जब केवल मानक शैक्षणिक योग्यता वाले लोग ही वकील बनने लगे तो उन्हों ने खुद को पुराने अभ्यास के आधार पर वकील बने लोगों से खुद को अलग दिखाने के लिए खुद को एडवोकेट लिख कर प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया जिस से वे ये दिखा सकें कि वे केवल अभ्यासी नहीं अपितु विधि स्नातक की योग्यता धारी वकील हैं।  जब अंग्रेजी शब्दों का हिन्दीकरण शुरू हुआ तो इस एडवोकेट शब्द का भी हिन्दीकरण आरंभ हो गया।  जो कहीं अभिभाषक हुआ तो कहीं अधिवक्ता हो गया।  इस का नतीजा यह हुआ कि यहाँ राजस्थान में हम एडवोकेट को अभिभाषक कहते हैं और बार ऐसोसिएशन अभिभाषक  परिषद लेकिन छत्तीसगढ़ में उसे हिन्दी में अधिवक्ता और अधिवक्ता संघ कहते हैं।  लेकिन यह लिखने भर को ही है।  एडवोकेट शब्द के लिए अब वकील शब्द ही सर्वाधिक उपयोग में लिया जाता है और वकीलों के संगठन के लिए बार एसोसिएशन शब्द।

शब्दों के उपयोग और उनके प्रचलन के अनेक आधार हैं।  यहाँ उन की चर्चा अप्रासंगिक होगी और उस का अधिकार केवल भाषा-शास्त्रियों को है, मुझे नहीं।  लेकिन शब्दों का उपयोग लोग अपनी सुविधा के अनुरूप करते हैं,  किसी कानून और कायदे से नहीं।  यही कारण है कि भाषाओं के विकास को कभी भी नियंत्रित किया जाना संभव नहीं हो सका है और न कभी हो पाएगा।  अंत में इतनी सी बात और कि कोई खुद को एडवोकेट, अभिभाषक, अधिवक्ता या वकील कुछ भी कहना-कहलाना पसंद करता हो लेकिन जब उस से पूछा जाता है कि वह क्या करता है तो वह यही कहता है,  जी, वकालत करता हूँ !