शायद कोई प्रोफाइल बनानी थी, वह भी अंग्रेजी में। अब अंग्रेजी में अपनी टांग जरा टेड़ी पड़ती है, चलते हुए सदा लगता है कि अब गिरे कि अब गिरे। मैंने सोचा कुछ तरीके से लिखना चाहिए। लिखना था कुछ और, मैं लिखने लगा कुछ और-
– इन इंडियन सिस्टम द लूनर मंथस् स्टार्ट फ्रॉम न्यू-मून-डे, व्हिच इज दी डे आफ्टर नो-मून-डे।
यह लेख"जनसंदेश टाइम्स"में 13 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित हो चुका है। |
नो-मून लिख तो दिया पर यह याद नहीं आ रहा था कि वास्तव में अमावस को नो-मून-डे लिखना ठीक भी है कि नहीं। तब तक ये याद आया कि पगले जब तुझे यहाँ प्रोफाइल ही बनानी है तो ये न्यू-मून, नो-मून और फुल-मून क्या कर रहा है। तेरा जनम तो पूनम से अगले दिन होता है। तब ये भी याद आया कि उत्तर भारत में तो चांद्र मास पूनम के बाद अगले दिन यानी पड़वा यानी प्रतिपदा से शुरू होता है।
अब मैं भर रहा था –बट नॉर्थ इंडियन पीपल स्टार्टस् देयर लूनर मंथ फ्रॉम द डे आफ्टर फुल-मून-डे। लिखने पर फिर याद आया कि फुल मून डे तो पागलों का दिन भी होता है। उस दिन ज्वार भाटा होता है। बरसात हो तो मुम्बई जैसे शहर में ये फूल-मून-डे कहर बरपा जाता है। उत्तर भारत तो नहीं पर उत्तर प्रदेश में जब से संतजी सरकार के मुख्य मंत्री बन गए हैं तब से यू.पी. पुलिस हर रात को फुल-मून-नाइट मना रही है। गोली चलाने वाले हथियार उन के पास हैं ही, बस धाँय से चला देते हैं। किसी को लग गयी तो वह अपराधी। साला भाग रहा था। टांग पर चलाई थी, भागते हुए सिर नीचा कर रहा था, सिर में लग गई। हो गया एन्काउंटर। ईनाम वाला काम किया है, कुछ तो नकदी पुरुस्कार मिलेगा ही, हो सकता है परमोशन भी हो ही जाए।
इस बार गोली किन्ही दुबे, तिब्बे जी को लग गयी। एक तो साला गूगल-फूगल में अफसर निकला ऊपर से बिरहमन भी था। प्रदेश में ही नहीं देस भर में बवाल मच गया। न जाने क्यों नीचे से ऊपर तक खबर बिजली की तरह फैल गयी। जिस कार में बैठा था उस में विण्ड स्क्रीन पर गोली ठीक उस जगह से घुसी जिस से उस की खोपड़ी कैसे भी न बच सके। बीच में विण्ड स्क्रीन भी रुकावट बनी थी, फिर भी निशाना एक दम सटीक था। गोली मारने वाले की साथिन चिल्लाई तब तक पूनम की रात का पागलपन पूरी तरह उतर चुका था। अब कानिस्टेबल जी का कान ही नहीं दिमाग तक स्टेबल होने की कोशिश कर रहा था। पर गोली तो चल चुकी थी, विण्ड स्क्रीन तोड़ कर खोपड़ी में घुस चुकी थी। दो जगह के छेद ठीक होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। एन्काउंटर को किसी हादसे में बदलने की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी थी। पर दूसरा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। खैर, यह बताना ही दुरुस्त समझा कि कार को रोका था, रोकी नहीं, अपराधी की तरह भागने लगे तो मोटर साइकिल से पीछा किए, और जब आगे निकल कर रोका तो एक्सीडेंट कर दिया। अपराधी भाग रहा था, गोली मार दी, मर गया। कसूरवार साबित होने से बचने का कोई और रास्ता नहीं था। इस में बस कमी इत्ती थी कि विंड स्क्रीन पर जिस जगह छेद हुआ था उस जगह मरने वाले की टांग कैसे हो सकती थी? ये ही सोचना बाकी था। तभी उतरते नशे ने झटका दिया –अब सारा तू ही सोच लेगा क्या? कुछ तेरे अफसर और वकीलों के सोचने के लिए भी छोड़ दे।
मैं बात तो मेरी प्रोफाइल की कर रहा था, न जाने कहाँ से ये यूपी, संतजी और एन्काउंटर आ घुसे दिमाग में। तो नॉर्थ इंडियन पीपल का चांद के महीने का पहला दिन पूनम की रात के अगले दिन की पड़वा को पड़ता है। बस उसी दिन मैं पैदा हुआ था। उस के पहले वाली पूनम के दिन राखी का त्यौहार था। तमाम घर वाले खानदानी हुनर होते हुए भी सारी ज्योतिष भूल गए। याद रहा कि ये बंदा राखी के दूसरे दिन पैदा हुआ था। न पूनम रही, न महीने का पहला दिन रहा। बस राखी के दूसरे दिन जन्मदिन मनाने लगे। हर साल उसी दिन शंकरजी सुबह सुबह अभिषेक कराने को और दादाजी के कर्मकांडी मित्र करने को तैयार रहने लगे। स्कूल में भर्ती की नौबत आई तो किसी को तारीख याद नहीं रही। बस भादवे के महीने का पहला दिन याद आया। याददाश्त पर ज्यादा जोर दिया तो पता लगा उस साल तो दो भादवे थे। तारीख पता करना और मुश्किल हो गया। स्कूल में कोई पंचांग तो था नहीं। होता भी तो पाँच साल पुराना भर्ती रजिस्टर ढूंढ निकालना जिस स्कूल में गंजे के सिर पर बाल तलाशने जैसा काम हो, वहाँ पंचांग का मिलना तो कतई नामुमकिन था। खैर, अंदाज से सितंबर के महीने की एक तारीख लिखा दी गयी। इस में कम से कम महिने के पहले दिन वाला साम्य तो आ ही गया था। सब को तसल्ली हो गयी।
मैं अपनी प्रोफाइल बना ही रहा था कि नीन्द खुल गयी। शायद मोबाइल ने टूँ...टूँ की थी। खिड़की की तरफ देखा तो शीशे से सड़क वाली एलईडी की नहीं, बल्कि सुबह की रोशनी छन कर आ रही थी। धत्तेरे की, अभी से सुबह हो गयी। अब उठना पड़ेगा। दुबारा नीन्द लगना मुश्किल है। बस अफसोस तो इस बात का था कि उस नयी वेबसाइट पर अपनी प्रोफाइल बनते बनते रह गयी। अब मैं सोच रहा था कि मेरा जन्मदिन तो चार तारीख को पड़ता है फिर ये जन्मदिन के नाम पर पहली तारीख का अनुसंधान क्यों हो रहा था? सपने ऊलजलूल बहुत होते हों पर हर अच्छे या बुरे सपने का कोई न कोई ठोस आधार जरूर होता है। न होता तो भारत में ये आधार कार्ड न आए होते। न राशन की दुकान से अस्पताल होते हुए सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ कर जाने के बजाए सीधे सुप्रीम कोर्ट न पहुँच गये होते। अब आज कल ये भी मुसीबत हो गयी है, हर मसला सीढ़ी चढ़ने के बजाये उड़ कर सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाता है और वहाँ भी जज सीधे सुनने को बैठ जाते हैं। वो तो कभी कभी वे भी पुलिस को राहत दे देते हैं। कह देते हैं कि जाँच वाँच में अभियुक्त और उस के चाहने वालों का कोई दखल नहीं होगा। जब वाकई पकड़ लें तो नीचे की अदालत सुनेगी। इस तरह पुलिस को सोचने का वक्त भी मिल जाता है कि विण्ड स्क्रीन में गोली से हुए छेद के पीछे मरने वाले की टांग कैसे पहुँच सकती थी। जजों को भी फुरसत मिल जाती है कि तब तक कोई बीच का रस्ता निकल लेगा। हर बार टेबल पर हथौड़ा कूट कर ऑर्डर ऑर्डर करना भी ठीक नहीं है।
अब ये बीच में आधार कार्ड, सुप्रीम कोर्ट और अभियुक्त के आ जाने से जो टैम मिला उस में याद आया कि जनमदिन के लिए अंग्रेजी महीने की पहली तारीख अनुसंधान के नतीजे के बतौर तब हासिल हुई थी जब दसवीं के इम्तहान के लिए बोर्ड का फार्म भरने का वक्त आया। पता लगा कि इस साल परीक्षा नहीं दे पाएंगे। इम्तहान के साल की पहली अकटूबर को पूरे पन्द्रह साल होने में कोई सत्ताईस दिन कम पड़ रहे हैं। हम क्लास के ब्रिलियँट स्टूडेंट माने जाते थे, स्कूल का गौरव जैसी चीज हो सकते थे, तो मामला उड़ कर हेड मास्टर जी के पास पहुँचा। आखिर स्कूल गौरव से वंचित कैसे हो सकता था। वहाँ मामले की सुनवाई में फैसला निकला कि जन्म तारीख एक साल घटा कर एक अक्टूबर कर दी जाए और फार्म भर कर बोर्ड भेज दिया जाए। स्कूल का रिकार्ड बाद में दुरुस्त कर लिया जाएगा।
अब मैं तीसरी बार पैदा हुआ था। बोर्ड का एक्जाम भी हो गया। रिजल्ट भी आ गया। फर्स्ट डिविजन में पास भी हो गया। स्कूल को एक गौरव प्राप्त हुआ। विद्यार्थी परिषद वालों ने अपना बनाने को सम्मान भी कर डाला और विवेकानन्द की एक किताब भेंट कर दी। बस यहीं वे गलती कर गए। पढ़ने लिखने वाले को कभी किताब भेंट नहीं करनी चाहिए। किताबें भेंट करना उन्हें ठीक होता है जो उन्हें पूजा-घर में रख कर पूजा करते हैं और फिर हनुमान जी या रामदरबार की तस्वीर सामने रख, अगरबत्ती वगैरा लगा कर ब्राह्म मुहूर्त में श्रद्धा पूर्वक उस का सस्वर पाठ करते हैं, जिस से पड़ौसी जागते रहें और मोहल्ले में चोरी चकारी न हो। मेरे जैसे पढ़ने लिखने वाले को किताब देने का नुकसान ये हुआ कि उस ने पढ़ डाली, कुछ वेदान्त पल्ले पड़ा, कुछ विवेकानन्द जी का ईश्वर पल्ले पड़ा, जिस के लिए वो कहते थे कि मैंने तो जब से आँख खोली तब से उस के सिवा कुछ देखा ही नहीं, और साथ ही ये पल्ले पड़ा कि बिरहमन, क्षत्रिय और बनिए ये सब राज कर चुके हैं, अब तो शूद्र कहे जाने वाले इंसानों का ही राज आना है। उन को कायस्थ कुल में जन्मे होने के कारण बिरहमनों ने शूद्र जो कह दिया था। खैर, मैं पढ़ने लिखने में हवाई जहाज नहीं बन सका। सीढ़ी दर सीढ़ी पढ़ता रहा और बीएससी पास करते करते गोर्की की माँ और मार्क्स-एंगेल्स के कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो तक पहुँच गया। विद्यार्थी परिषद वाले टापते रह गए। भारतीय जनसंघ के लोकल एमएलए ने पिताजी के पास घणे चक्कर काटे कि लड़के को उन के साथ रहने को कहें, उस में नेता बनने के सभी गुण हैं। पिताजी ने कभी मुझे नहीं बताया, सोचा होगा लड़का पढ़ता लिखता है तो खुद ही समझदार होगा कि किस के नजदीक रहना है किस से दूर।
खैर, अब ये भी याद आ गया है कि एक अकटूबर के पहले वाली रात को प्रोफाइल बनाते वक्त जन्मदिन के लिए महीने का पहला दिन इसीलिए याद आ रहा था कि रिकार्ड में जन्मदिन एक अक्टूबर है। ये तीसरा जन्मदिन है। पहला राखी के अगले दिन हुआ, फिर सितंबर की चार तारीख को असली वाला। कुछ भी हो सपना कभी निराधार नहीं होता। वह आता ही तब है जब उस का आधार कार्ड बन जाता है। बस उसे पढ़ना आना चाहिए, फिर भौतिक जगत से उस का नाता पता लगने में देर नहीं लगती।
- यह लेख दैनिक समाचार पत्र "जनसंदेश टाइम्स" में 13 अक्टूबर 2018 को सभी संस्करणों में प्रकाशित हो चुका है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें