देश में शीत गृहयुद्ध जारी है। हमारी न्याय व्यवस्था जर्जर होने की सीमा तक पहुँच गयी है। कहीं कहीं फटी हुई भी है। फटने से हुए छिद्रों को छुपाने के लिए लगाए गए पैबंद खूब दिखाई देने लगे हैं। जहाँ सौ जोड़ा कपड़ों की हर साल जरूरत है, वहाँ दस जोड़ा कपड़े दिए जाते हैं। जंजीरों में बंधे गुलामों के वो चित्र याद आते हैं जिन में गुलामों से जब तक वे बहोश न खो दें काम कराया जाता था और खाने को इतना ही दिया जाता था कि वे मर न जाएँ। वैसी ही हालत हमारी न्याय पालिका की है। न्याय पालिका हमारे संघ राज्य का महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन वह कभी कभी जनपक्षीय हो जाता है। यही कारण है कि उसे विधायिका और कार्यपालिका कभी मजबूत नहीं होने देती। यह डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं वह पूंजीवादी निजाम को पलटने का एक साधन न बन जाए।
यही है हमारी स्वतंत्र न्याय पालिका। हर साल उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के जजों के साथ प्रधानमंत्री एक समारोह करते हैं। पिछले 15 वर्षों के इन समारोहों की रपटें उठा ली जाएँ तो पता लगेगा कि हर बार मुख्य न्यायाधीश अदालतों की अतिशय कमी की ओर ध्यान दिलाते हैं। पर इन अदालतों की स्थापना तो सरकार से मिलने वाले वित्त पोषण पर निर्भर करती है। हर साल प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकारें अण्डज हैं, साल भर बाद नतीजे के नाम पर अण्डा निकलता है।
उधर विधायिकाओं और सरकारों के पास देश की हर समस्या का एक इलाज है, कानून बना दो। वे कानून बनाते हैं। हर कानून अदालतों में मुकदमों का इजाफा करता है। हर कानून के साथ न्याय पालिका में अदालतें भी बढ़ाने का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन उस से सरकार को क्या? यदि मुकदमे देर तक चलेंगे तो सरकार की बदनामी थोड़े ही होगी, बदनाम तो न्याय पालिका होगी। यही तो सरकारें चाहती हैं। तभी तो सरकार के लिए न्यायपालिका में हस्तक्षेप के अवसर पैदा होंगे। आप देख ही रहे हैं कि सरकार ने कॉलेजियम की पद्धति को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया है। अब नए जजों को पुराने जज नहीं बल्कि ये आयोग चुनेगा। इस आयोग के गठन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है। न्याय पालिका इस परिवर्तन के विरुद्ध लड़ रही है। लेकिन उस के पास फौज और पुलिस जैसे हथियार तो हैं नहीं। उस के पास जो साधारण औजार हैं और वह उन्हीं से लड़ रही है।
कई बरस पहले देशी-विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव पर परक्राम्य विलेख अधिनियम में चैक बाउंस को अपराध बनाए जाने का कानून बनाया गया। कानून बनते ही चैक का इस्तेमाल आम हो गया। अब चैक सब से बड़ी गारंटी होने लगा। कंपनियों से ले कर गली के बनियों ने उधार माल बेचने और बहुराष्ट्रीय वित्तीय उपक्रमों से ले कर टटपूंजिए साहूकारों तक ने चैक का खूब इस्तेमाल किया। पहले तो उधार वसूलने के लिए गुंडों और लठैतों की जरूरत होती थी। अब अदालतें यह काम करने लगीं। बड़ी कंपनियों ने चैक ले कर थोक में अपने उत्पाद बेचे और जब वे चैक अनादरित होने लगे तो सब के खिलाफ मुकदमे होने लगे। एक कंपनी ने तो दक्षिण भारत की एक अदालत में एक ही दिन में 70000 से अधिक मुकदमे पेश किए। अगले दिन खबर मुख्य न्यायाधीश को मिली और तीसरे दिन एक समारोह में उन्होने बयान दिया कि वे इस कानून को रुपया वसूली का औजार न बनने देंगे। एक समय में 500 मुकदमों की सुनवाई करने की क्षमता वाली अदालत पर 70000 हजार मुकदमे आ जाएँ तो शायद उन्हें रजिस्टर में दर्ज करने में ही दो-तीन साल तो लग ही जाएंगे।
लेकिन मुख्य न्यायाधीश के कहने से क्या होता है? मुकदमे आते रहे और अदालतें बोझिल होती रहीं। कोई प्राथमिक अपराधिक अदालत ऐसी न बची जहाँ इस तरह के मुकदमे हजार पाँच सौ की संख्या में लंबित न हों। हाल वैसा हो गया जैसे सारे वाहन यकायक एक साथ सड़क पर निकल आने पर होता है। अदालतों मे ट्रेफिक जाम होने लगा। ट्रेफिक जाम में नियम कानून और नैतिकता सब दाँव पर होते हैं। कैसे भी सवार बाहर निकलने की कोशिश करता है और ट्रेफिक के सिपाही डंड़ा फटकार कर जाम को हटाने की कोशिश करते हैं।
यही हुआ भी। 1 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की बैंच ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ के मुकदमे में यह फैसला दिया कि चैक बाउंस का मुकदमा सुनने का अधिकार केवल उस अदालत को है जिस के क्षेत्र में चैक जारीकर्ता की बैंक की शाखा स्थित है। अब तक लगभग सारे मुकदमे वहाँ दाखिल किए गए थे जहाँ चैक डिसऑनर हुआ था। पुराने मुकदमों को वापस ले कर इस निर्णय के अनुसार क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि निर्धारित की गयी। हजारों मुकदमे वापस दिए गए जिन में से कुछ मुकदमे जो साधारण न्यायार्थियों के थे, वापस पेश ही नहीं हुए जब कि बहुत सारी कंपनियों और न्यायार्थियों ने अपने मुकदमे दूसरे राज्यों की अदालतों में पेश किए ।
इस से सब से बड़ी परेशानी बड़ी कंपनियों को हुई। चैक अब अच्छी गारंटी नहीं रहा। कंपनियों को माल बेचने में परेशानी आने लगी। उन्हों ने फिर सरकारा पर दबाव बनाया और कानून में बदलाव की हवा बनने लगी। कानून बनने में तो देर लगती है। संसद में पारित कराना होता है, फिर राष्ट्रपति का अनुमोदन चाहिए तब कानून लागू होता है। इस से बचाने का एक रास्ता अध्यादेश लागू करना है। सो केन्द्र सरकार ने इतनी तत्परता दिखाई कि 15 जून को परक्राम्य विलेख अधिनियम में संशोधन अध्यादेश लागू कर दिया।
दशरथ रूप सिंह राठौर के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि किस तरह इन मुकदमों ने मजिस्ट्रेट न्यायालयों में एक एविलांस (ऊँचे पहाड़ों में हिम स्खलन से उत्पन्न बर्फीला तूफान) उत्पन्न कर दिया है –
“we need to remind ...... “हमें खुद को याद दिलाने की जरूरत है कि इस देश की मजिस्ट्रेसी पर चैक अनादरण के मुकदमों का हिमस्खलन आया हुआ है। विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार अक्टूबर 2008 में इस तरह के मुकदमों की संख्या 38 लाख से अधिक थी। नतीजे के तौर पर चैक अनादरण के मुकदमों से देश के हर मुख्य शहर की मजिस्ट्रेट स्तर की अपराधिक न्याय व्यवस्था का दम घुट रहा था। चार महानगरों और अन्य व्यावसायिक महत्व के केन्द्रों की अदालतें इस तरह के मुकदमों के कारण भारी बोझ से दब गईं। अकेले दिल्ली की अदालतों में 1 जून 2008 को इस तरह के पाँच लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे। दूसरे अनेक शहरों की हालत भी इस से अच्छी नहीं है, केवल इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी संख्या में धारा 138 के मामले घटे हैं बल्कि इस लिए कि बहुराष्ट्रीय व दूसरी कंपनियों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व अभिक्रमों ने इन शहरों को शिकायत दर्ज कराने के लिए उचित समझा जिस का इस से अच्छा कारण कोई नहीं है कि अनादरित चैक की राशि को लौटाने के लिए नोटिस जारी किए गए थे और चैक उन शहरों की शाखाओं में समाशोधन के लिए जमा किए गये थे”। ... banks in those cities.”
इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्चतम न्यायालय किस तरह परेशान है और उस से निपटने के लिए क्षेत्राधिकार के आधार पर वह कुछ मुकदमे कम होते देखना चाहता है। कम से कम कार्यपालिका को एक चेतावनी देना चाहता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय का यह मंसूबा सरकार कैसे पूरा होने देती। उस ने इस मामले को संसद तक ले जाने और कानून में संशोधन करने तक की राह नहीं देखी। तब तक वे कंपनियाँ कैसे इन्तजार करतीं जिन्हों ने करोड़ों रुपए इस सरकार को बनाने में दाँव पर लगाए थे। अपने आका को इतने दिन परेशान होते देखना किस जिन्न को बर्दाश्त होता है? वे अध्यादेश लाए और एक दम आका की परेशानी का हल पेश कर दिया।
यह सरकार और न्यायपालिका के बीच का शीत गृह-युद्ध है। जहाँ न्याय पालिका के पास निर्णय पारित करने का औजार है वहीं सरकार के पास निर्णयों को कानून और अध्यादेशों के जरिए पलट डालने का शस्त्र मौजूद है। अब साल में दो चार बार इस युद्ध का नजारा देखने को मिलता ही रहेगा। जब तक कि न्यायपालिका को देश की जरूरतों के मुताबिक अदालतें नहीं मिल जातीं। आप जानते हैं, देश की जरूरत क्या है? नहीं जानते हों तो मैं ही बता देता हूँ। देश को मौजूदा अदालतों की संख्या से चार गुनी और अदालतें चाहिए।