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शुक्रवार, 19 जून 2015

न्याय और कार्यपालिका के बीच शीत गृह-युद्ध

देश में शीत गृहयुद्ध जारी है। हमारी न्याय व्यवस्था जर्जर होने की सीमा तक पहुँच गयी है। कहीं कहीं फटी हुई भी है। फटने से हुए छिद्रों को छुपाने के लिए लगाए गए पैबंद खूब दिखाई देने लगे हैं। जहाँ सौ जोड़ा कपड़ों की हर साल जरूरत है, वहाँ दस जोड़ा कपड़े दिए जाते हैं। जंजीरों में बंधे गुलामों के वो चित्र याद आते हैं जिन में गुलामों से जब तक वे बहोश न खो दें काम कराया जाता था और खाने को इतना ही दिया जाता था कि वे मर न जाएँ। वैसी ही हालत हमारी न्याय पालिका की है। न्याय पालिका हमारे संघ राज्य का महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन वह कभी कभी जनपक्षीय हो जाता है। यही कारण है कि उसे विधायिका और कार्यपालिका कभी मजबूत नहीं होने देती। यह डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं वह पूंजीवादी निजाम को पलटने का एक साधन न बन जाए।

यही है हमारी स्वतंत्र न्याय पालिका। हर साल उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के जजों के साथ प्रधानमंत्री एक समारोह करते हैं। पिछले 15 वर्षों के इन समारोहों की रपटें उठा ली जाएँ तो पता लगेगा कि हर बार मुख्य न्यायाधीश अदालतों की अतिशय कमी की ओर ध्यान दिलाते हैं। पर इन अदालतों की स्थापना तो सरकार से मिलने वाले वित्त पोषण पर निर्भर करती है। हर साल प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकारें अण्डज हैं, साल भर बाद नतीजे के नाम पर अण्डा निकलता है।

उधर विधायिकाओं और सरकारों के पास देश की हर समस्या का एक इलाज है, कानून बना दो। वे कानून बनाते हैं। हर कानून अदालतों में मुकदमों का इजाफा करता है। हर कानून के साथ न्याय पालिका में अदालतें भी बढ़ाने का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन उस से सरकार को क्या? यदि मुकदमे देर तक चलेंगे तो सरकार की बदनामी थोड़े ही होगी, बदनाम तो न्याय पालिका होगी। यही तो सरकारें चाहती हैं। तभी तो सरकार के लिए न्यायपालिका में हस्तक्षेप के अवसर पैदा होंगे। आप देख ही रहे हैं कि सरकार ने कॉलेजियम की पद्धति को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया है। अब नए जजों को पुराने जज नहीं बल्कि ये आयोग चुनेगा। इस आयोग के गठन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है। न्याय पालिका इस परिवर्तन के विरुद्ध लड़ रही है। लेकिन उस के पास फौज और पुलिस जैसे हथियार तो हैं नहीं। उस के पास जो साधारण औजार हैं और वह उन्हीं से लड़ रही है।

कई बरस पहले देशी-विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव पर परक्राम्य विलेख अधिनियम में चैक बाउंस को अपराध बनाए जाने का कानून बनाया गया। कानून बनते ही चैक का इस्तेमाल आम हो गया। अब चैक सब से बड़ी गारंटी होने लगा। कंपनियों से ले कर गली के बनियों ने उधार माल बेचने और बहुराष्ट्रीय वित्तीय उपक्रमों से ले कर टटपूंजिए साहूकारों तक ने चैक का खूब इस्तेमाल किया। पहले तो उधार वसूलने के लिए गुंडों और लठैतों की जरूरत होती थी। अब अदालतें यह काम करने लगीं। बड़ी कंपनियों ने चैक ले कर थोक में अपने उत्पाद बेचे और जब वे चैक अनादरित होने लगे तो सब के खिलाफ मुकदमे होने लगे। एक कंपनी ने तो दक्षिण भारत की एक अदालत में एक ही दिन में 70000 से अधिक मुकदमे पेश किए। अगले दिन खबर मुख्य न्यायाधीश को मिली और तीसरे दिन एक समारोह में उन्होने बयान दिया कि वे इस कानून को रुपया वसूली का औजार न बनने देंगे। एक समय में 500 मुकदमों की सुनवाई करने की क्षमता वाली अदालत पर 70000 हजार मुकदमे आ जाएँ तो शायद उन्हें रजिस्टर में दर्ज करने में ही दो-तीन साल तो लग ही जाएंगे।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश के कहने से क्या होता है? मुकदमे आते रहे और अदालतें बोझिल होती रहीं। कोई प्राथमिक अपराधिक अदालत ऐसी न बची जहाँ इस तरह के मुकदमे हजार पाँच सौ की संख्या में लंबित न हों। हाल वैसा हो गया जैसे सारे वाहन यकायक एक साथ सड़क पर निकल आने पर होता है। अदालतों मे ट्रेफिक जाम होने लगा। ट्रेफिक जाम में नियम कानून और नैतिकता सब दाँव पर होते हैं। कैसे भी सवार बाहर निकलने की कोशिश करता है और ट्रेफिक के सिपाही डंड़ा फटकार कर जाम को हटाने की कोशिश करते हैं।

यही हुआ भी। 1 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की बैंच ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ के मुकदमे में यह फैसला दिया कि चैक बाउंस का मुकदमा सुनने का अधिकार केवल उस अदालत को है जिस के क्षेत्र में चैक जारीकर्ता की बैंक की शाखा स्थित है। अब तक लगभग सारे मुकदमे वहाँ दाखिल किए गए थे जहाँ चैक डिसऑनर हुआ था। पुराने मुकदमों को वापस ले कर इस निर्णय के अनुसार क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि निर्धारित की गयी। हजारों मुकदमे वापस दिए गए जिन में से कुछ मुकदमे जो साधारण न्यायार्थियों के थे, वापस पेश ही नहीं हुए जब कि बहुत सारी कंपनियों और न्यायार्थियों ने अपने मुकदमे दूसरे राज्यों की अदालतों में पेश किए ।

इस से सब से बड़ी परेशानी बड़ी कंपनियों को हुई। चैक अब अच्छी गारंटी नहीं रहा। कंपनियों को माल बेचने में परेशानी आने लगी। उन्हों ने फिर सरकारा पर दबाव बनाया और कानून में बदलाव की हवा बनने लगी। कानून बनने में तो देर लगती है। संसद में पारित कराना होता है, फिर राष्ट्रपति का अनुमोदन चाहिए तब कानून लागू होता है। इस से बचाने का एक रास्ता अध्यादेश लागू करना है। सो केन्द्र सरकार ने इतनी तत्परता दिखाई कि 15 जून को परक्राम्य विलेख अधिनियम में संशोधन अध्यादेश लागू कर दिया।

दशरथ रूप सिंह राठौर के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि किस तरह इन मुकदमों ने मजिस्ट्रेट न्यायालयों में एक एविलांस (ऊँचे पहाड़ों में हिम स्खलन से उत्पन्न बर्फीला तूफान) उत्पन्न कर दिया है –

“we need to remind ...... “हमें खुद को याद दिलाने की जरूरत है कि इस देश की मजिस्ट्रेसी पर चैक अनादरण के मुकदमों का हिमस्खलन आया हुआ है। विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार अक्टूबर 2008 में इस तरह के मुकदमों की संख्या 38 लाख से अधिक थी। नतीजे के तौर पर चैक अनादरण के मुकदमों से देश के हर मुख्य शहर की मजिस्ट्रेट स्तर की अपराधिक न्याय व्यवस्था का दम घुट रहा था। चार महानगरों और अन्य व्यावसायिक महत्व के केन्द्रों की अदालतें इस तरह के मुकदमों के कारण भारी बोझ से दब गईं। अकेले दिल्ली की अदालतों में 1 जून 2008 को इस तरह के पाँच लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे। दूसरे अनेक शहरों की हालत भी इस से अच्छी नहीं है, केवल इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी संख्या में धारा 138 के मामले घटे हैं बल्कि इस लिए कि बहुराष्ट्रीय व दूसरी कंपनियों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व अभिक्रमों ने इन शहरों को शिकायत दर्ज कराने के लिए उचित समझा जिस का इस से अच्छा कारण कोई नहीं है कि अनादरित चैक की राशि को लौटाने के लिए नोटिस जारी किए गए थे और चैक उन शहरों की शाखाओं में समाशोधन के लिए जमा किए गये थे”। ... banks in those cities.”

इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्चतम न्यायालय किस तरह परेशान है और उस से निपटने के लिए क्षेत्राधिकार के आधार पर वह कुछ मुकदमे कम होते देखना चाहता है। कम से कम कार्यपालिका को एक चेतावनी देना चाहता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय का यह मंसूबा सरकार कैसे पूरा होने देती। उस ने इस मामले को संसद तक ले जाने और कानून में संशोधन करने तक की राह नहीं देखी। तब तक वे कंपनियाँ कैसे इन्तजार करतीं जिन्हों ने करोड़ों रुपए इस सरकार को बनाने में दाँव पर लगाए थे। अपने आका को इतने दिन परेशान होते देखना किस जिन्न को बर्दाश्त होता है? वे अध्यादेश लाए और एक दम आका की परेशानी का हल पेश कर दिया।

यह सरकार और न्यायपालिका के बीच का शीत गृह-युद्ध है। जहाँ न्याय पालिका के पास निर्णय पारित करने का औजार है वहीं सरकार के पास निर्णयों को कानून और अध्यादेशों के जरिए पलट डालने का शस्त्र मौजूद है। अब साल में दो चार बार इस युद्ध का नजारा देखने को मिलता ही रहेगा। जब तक कि न्यायपालिका को देश की जरूरतों के मुताबिक अदालतें नहीं मिल जातीं। आप जानते हैं, देश की जरूरत क्या है? नहीं जानते हों तो मैं ही बता देता हूँ। देश को मौजूदा अदालतों की संख्या से चार गुनी और अदालतें चाहिए।

बुधवार, 21 मई 2014

राजस्थान की भाजपा सरकार के नायाब तोहफे

  • डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान के इतिहास में किसी भी पार्टी की सरकार को कभी उतना बहुमत नहीं मिला, जितना की वर्तमान भाजपा सरकार को मिला है। इसलिये यहॉं की जनता की शुरू से ही राज्य सरकार से यही उम्मीदें रही हैं कि वसुन्धरा राजे के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार सभी वर्गों के हितों में कुछ न कुछ क्रान्तिकारी काम अवश्य उठाएंगी। जिससे राज्य का और राज्य की जनता का चहुँमुखी विकास होगा।

राज्य सरकार लोकसभा चुनाव होने तक तो एक दम शान्त रही, लोगों को लगा ही नहीं कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हो चुका है, लेकिन केन्द्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलते ही राज्य में भाजपा सरकार के परिवर्तन की छटा बिखरने लगी है। कुछ मामले इस प्रकार हैं :-

1. बड़े लोगों के लिये मॉल्स में खुलेंगी शराब की दुकानें : पिछले कार्यकाल में भाजपा की सरकार ने शराब की हजारों नयी दुकानें खोली थी और देर रात तक शराब की बिक्री विक्री होती थी। जिसके चलते लाखों परिवार बर्बाद हो गये और अनेकों घर टूट गये। इस स्थिति पर कांग्रेस सरकार ने असफल नियन्त्रण करने का प्रयास किया था। मगर भाजपा के दुबार सत्ता में आने के बाद भी राज्य सरकार को इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है कि शराब पीने से लाखों परिवार और घर बर्बाद हो रहे हैं। जनता शराब की दुकानों को बन्द कराने के लिये सड़क पर उतर कर आये दिन विरोध करती रहती है, फिर भी शराबबन्दी के बारे में किसी प्रकार का सकारात्मक निर्णय लिया जाना राजस्थान सरकार के लिये चिन्ता का कारण या विषय नहीं है। इसके विपरीत राजस्थान सरकार का मानना है कि साधन सम्पन्न, उच्चवर्गीय और उच्च कुलीन लोगों को शराब की दुकानों पर जाकर और भीड़ में शामिल होकर शराब खरीदने में शर्म, संकोच तथा हीनता का अनुभव होता है, इस स्थिति को बदलना राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में गम्भीर चिन्ता का विषय है। इसलिये राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की संरक्षक भाजपा की राज्य सरकार ने अपने अधिकारियों को निर्देशित किया है कि राज्य की राजधानी जयपुर में स्थित सभी मॉल्स में खरीददारी करने के लिये जाने वाले सम्पन्न, उच्चवर्गीय और उच्च कुलीन लोगों के लिये मॉल्स में ही शराब खरीदने की व्यवस्था की जावे। जिससेे कि ऐसे लोगों को शराब की दुकानों पर जाकर शराब खरीदने में होने वाले शर्म, संकोच तथा हीनता से मुक्ति मिल सके।

2. 7538 लिपिकों भर्ती प्रक्रिया रद्द करके लाखों बेरोजगारों के सपने किये चकनाचूर : गत वर्ष राजस्थान लोक सेवा आयोग के माध्यम से लिपिकों के 7538 रिक्त पदों पर भर्ती करने के लिये आवेदन मांगे गये थे, परीक्षा भी हो गयी और परिणाम घोषित किये जाने का लाखों बेरोजगार लम्बे समय से बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे, लेकिन भाजपा की बेतहासा बहुमत प्राप्त राज्य सरकार ने इस भर्ती प्रक्रिया को अन्तिम चरण में रद्द कर दिया है। तर्क दिया गया कि कम्प्यूटर के युग में बाबुओं की क्या जरूरत है?

इस प्रकार का हृदयहीन तथा निष्ठुर निर्णय लिये जाने से पूर्व राज्य सरकार ने तनिक भी गौर नहीं किया कि लिपिक भर्ती परीक्षा में शामिल हुए लाखों बेरोजगारों ने अपने माता-पिता की खूनपसीने की कमार्इ से कोचिंग सेंटर्स पर महिनों तैयारी करके परीक्षा दी, जिसमें हर एक बेराजगार को हजारों रुपये का खर्चा वहन करना पड़ा। परीक्षा के लिये आने-जाने और शैक्षणिक सामग्री में किये गये खर्चे के साथ-साथ बेरोजगारों के अमूल्य समय, श्रम और जीवन का कम से कम एक वर्ष रसातल में चला गया। यही नहीं राज्य सरकार के इस निर्णय से लिपिक भर्ती परीक्षा के परिणामों का इन्तजार कर रहे लाखों अभ्यर्थियों को गहरे सदमें में पहुँचा दिया है। जिससे अनेक प्रकार की सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा आपराधिक विकृतियों के जन्मने की सदैव आशंका बनी रहती है! 

3. सचिवालय के 275 पदों पर लिपिकों की भर्ती रद्द : 7538 लिपिकों की भर्ती रद्द करने अगले ही दिन राजस्थान सरकार ने सचिवालय में 275 पदों पर होने वाली क्लर्को की भर्ती भी रद्द कर दी। इस भर्ती के लिए भी परीक्षा भी हो चुकी है।

4. विधानसभा में भी 36 पदों पर भर्ती रद्द : राजस्थान विधानसभा में भी पिछली सरकार के समय निकाली गई बाबुओं की भर्ती को भी राज्य सरकार ने रद्द कर दिया है। विधानसभा में 36 पदों पर भर्ती के लिए अक्टूबर, 2013 में जगह निकाली थी। अब यह भर्ती नये सिरे से प्रारम्भ की जाएगी।

5. पिछली सरकार द्वारा मंजूर 61 विभागों में नये सृजित पदों के भरने पर पर भी लगायी रोक : राज्य की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में राज्य के 61 विभागों को सृजित किये गये अतिरिक्त पदों पर पदोन्नति की प्रक्रिया पर भाजपा की राज्य सरकार ने रोक लगा दी है। इसके लिए 28 जून 2013 को अधिसूचना जारी हुई थी। सरकार ने वित्त विभाग को इसकी समीक्षा के निर्देश दिए हैं।

6. प्रदेश में 25 फीसदी बढ़ेगा टोल टैक्स : अपैल के प्रथम सप्ताह में समाचार-पत्रों में खबर पढने को मिली थी कि अप्रेल से भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के टोल बूथों पर टोल दरें बढाने का भाजपा ने विरोध कर रही है। इस बारे में भाजपा की ओर से आंदोलन करने की चेतावनी भी दी गयी थी। इससे लोगों के मन में एक नयी आस बंधी थी कि यदि राज्य में भाजपा सरकार आती है तो टोल टैक्स की मार से मुक्ति मिल सकेगी। लेकिन इसके ठीक विपरीत भाजपा की उक्त घोषणा के मात्र डेढ-दो माह बाद ही राजस्थान सरकार ने निर्णय लिया है कि प्रदेश में 25 फीसदी तक तक टोल टैक्स की दरें बढाने के लिये नयी टोल नीति लागू करने पर राज्य सरकार विचार कर रही है। निश्‍चय ही इस सबका भार राज्य की जनता पर पड़ना तय है।

इस प्रकार राजस्थान की भाजपा सरकार की ओर से राजस्थान की जनता द्वारा प्रदान किये गये प्रबल समर्थन के एवज में आघातिक और गहरे सदमें में डालने वाले तोहफे प्रदान करना शुरू कर दिया है।

सरकार के उपरोक्त निर्णयों को लेकर अनेक प्रकार की चर्चाएँ जोरों से चल निकली हैं। सबसे बड़ी चर्चा तो लिपिकों की भर्ती प्रक्रिया को लेकर है। जिसके बारे में दो बातें सामने आ रही हैं :-

प्रथम : पिछली सरकार की ओर से लिपिकों को भर्ती करने में कथित रूप से खुलकर लेनदेन हुआ था, जिसके चलते अफसरों और सम्बन्धित नेताओं ने जमकर कमाया।

द्वितीय : नयी सरकार नहीं चाहती कि पिछली सरकार द्वारा निकाली गयी रिक्तियों के पदों को उसके द्वारा बिना किसी प्रतिफल के भरा जावे। इसलिये सरकार के सूत्र बताते हैं कि सरकार कुछ समय बाद दबाव बढने पर फिर से लिपिकों की भर्ती निकाल सकती है। जिसमें फिर से वही सब होना लाजिमी है, जो कथित रूप से पिछली सरकार द्वारा किया गया था।

इस कारण जानबूझकर और भर्ती प्रक्रिया में शामिल अभ्यर्थियों के प्रति निष्ठुरता तथा हृदयहीनता दिखाते हुए राज्य सरकार ने रिक्तियों और भर्ती प्रक्रिया को रद्द कर दिया है। ऐसे में अब हमें निगाह रखनी होगी कि आगे-आगे होता है क्या?

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सैक्स-सीडी और जनता-इश्क

सेक्स (करना) सभी एकलिंगी जीवधारियों का स्वाभाविक कृत्य है और बच्चों की पैदाइश सेक्स का स्वाभाविक परिणाम। जब भी स्वाभाविक परिणाम को रोकने की कोशिश की जाती है तो अस्वाभाविक परिणाम सामने आने लगते हैं। बच्चों की पैदाइश रोकी जाती है तो सीडी पैदा हो जाती हैं। बच्चों को पैदा होते ही माँ की गोद मिलती है। लेकिन जब सीडी पैदा होती है तो उसे सीधे किसी अखबार या वेब पोर्टल का दफ्तर मिलता है। अदालत की शरण जा कर उसे रुकवाओ तो वह यू-ट्यूब पर नजर आने लगती है, वहाँ रोको तो फेसबुक पर और वहाँ भी रोको तो उस की टोरेंट फाइल बन जाती है। आराम से डाउनलोड हो कर सीधे कंप्यूटरों में उतर जाती है। रिसर्च का नतीजा ये निकला कि सेक्स के परिणाम को रोकने का कोई तरीका नहीं, वह अवश्यंभावी है। 

रिणाम जब अवश्यंभावी हो तो उसे रोकने की कोशिश करना बेकार है। उस से मुँह छुपाना तक बेकार है। एक सज्जन ने परिणाम रोकने की कोशिश नहीं की बच्चे को दुनिया में आने दिया। पर उस से मुहँ छुपा गए। बच्चा बालिग हुआ तो अपनी पहचान बनाने को अदालत जा पहुँचा। वहाँ भी सज्जन मुहँ छुपा गए तो अदालत ने डीएनए टेस्ट करने का आर्डर जारी कर दिया। उस के लिए मना किया तो अदालत ने फैसला दे दिया कि बच्चे की बात सही है। पुरानी पीढ़ी के इस अनुभव से नए लोगों को सीख लेनी चाहिए। वे बच्चे न चाहते हों तो कोई बात नहीं, पर उन्हें आने वाले परिणामों से बचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। बचने के परिणाम गंभीर होते हैं।

रकार भले ही एकवचन हो पर इस का आचरण बहुवचनी होता है। वह एक साथ अनेक के साथ सेक्स कर सकती है। वह एक और तो वित्तीय सुधार करते हुए वर्ड बैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स के साथ सेक्स कर सकती है, दूसरी ओर शहरी और ग्रामीण विकास योजनाएँ चला कर जनता के साथ इश्क फरमा सकती है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब जनता के साथ इश्क फरमाने से वर्डबैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स नाराज हो जाते हैं। उधर उन के साथ सेक्स करने की खबर से जनता नाराज हो जाती है।

 
 जब वर्ड बैंक वगैरा वगैरा नाराज होते हैं तो सरकार को उन्हें मनाने के लिए आर्थिक सलाहकार भेजना पड़ता है। वहाँ जा कर वह समझाता है कि जनता के साथ इश्क फरमाना सरकार की मजबूरी है, आम चुनाव सर पर हैं, जनता के साथ इश्क का नाटक न किया तो सरकार सरकार ही नहीं रहेगी, फिर आप किस के साथ सेक्स करेंगे? आप तो जानते ही हैं कि हम सब से कम बदबूदार सरकार हैं। कोई और सरकार हो गया तो बदबू के कारण उस के पास तक जाना दूभर होगा, सेक्स तो क्या खाक कर पाएंगे? आप सवाल न करें, हमारा साथ दें। इस बार बिना रिश्तेदारों की सरकार बनाने में हमारी मदद करें तो सेक्स में ज्यादा आनंद आएगा।

धर मान मनौवल चल ही रही थी कि सीडी बन कर देस पहुँच गई। सरकार को घेर लिया गया। आर्थिक विकास की गाड़ी गड्ढे में क्यों फँसी पड़ी है? क्या जनता के साथ सरकार का इश्क झूठा नहीं है? सरकार इश्क में धोखा कर रही है। इश्क जनता से, और सेक्स परदेसी से? इधर सरकार की भी सीडी बनने लगी। उधर सलाहकार देस लौटा। कहता है उस की परदेस में बनाई गई सीडी नकली है, फर्जी है। असली तो खुद उस के पास है, देख लो। सरकार के पैरों से सिर तक के अंग सफाई देने लगे। जनता के साथ उस का इश्क सच्चा है, वह किसी और के साथ सेक्स करती है तो वो भी जनता के फायदे के लिए। जनता सोच रही है कि ये सरकार इश्क के काबिल रही भी या नहीं? अब इस से नहीं तो इश्क किस से किया जाए?

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

विश्वसनीय सरकारें अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

सोमवार सुबह 5.55 की ट्रेन से बेटी पूर्वा को जाना था। अलार्म बजा तो हम तीनों की नींद छूट गई। पूर्वा अपनी तैयारी करने लगी और उस की माँ उस के लिए नाश्ता बनाने में जुट गई। मैं फिर से सो गया। मुझे फिर पाँच बजे जगाया गया, कॉफी का प्याला सामने था। मैं ने उसे पिया और फिर मैं भी तैयार हो गया। साढ़े पाँच हम घर से निकले। पत्नी जी ने दूध लाने की बाल्टी भी साथ रख ली। पूर्वा की ट्रेन को रवाना कर हम छह बजे स्टेशन से चले और सीधे दूध वाले के यहाँ। वहाँ अंधेरा छाया हुआ था। रोड लाइटस् बंद हो चुकी थीं और अभी सुबह होनी शेष थी। हम ने दूध वाले के यहाँ कोई हलचल न देख सोचा अभी वह सो कर उठा ही नहीं है। हम अपनी कार में ही बैठे रहे। कुछ देर बाद दूध वाले के डेरे में कुछ रोशनी दिखाई दी। शायद चूल्हा सुलगाया गया था। हम उस के डेरे की ओर बढ़े तो दिखाई दिया कि वह कुछ दूध निकाल भी चुका था। उस ने बताया कि दो एक ग्राहक दूध ले कर जा भी चुके हैं। उस के यहाँ सामने दुहा दूध लेने वाले आते हैं इसलिए वह ग्राहक आने पर ही दूध निकालता है। वह इधर उधऱ के काम करता रहा। कुछ देर में एक ग्राहक और आया तब उस ने एक भैंस दुहना आरंभ किया। 

म दूध लेकर घर पहुंचे तो शरीर में थकान थी।  हुआ यूँ था कि मैं ने सुबह स्टेशन जाने के पहले पैर पर चोट के स्थान पर मल्हम लगा कर पट्टी कर ली थी। कुछ अधिक कस गई तो पैर दर्द करने लगा था। मैं फिर से बिस्तर पर लेट लिया। नौ बजे उठ कर निपटना आरंभ किया और ग्यारह बजे अदालत के लिए निकल पड़ा।  घुटने के एमसीएल की चोट में दर्द निवारक के सिवा कोई दवा नहीं होती है। असली दवा तो विश्राम है जो उस दिन कम मिला था। जल्दी में दवा लेना भूल गया। तो दर्द दिन में बढ़ता रहा। शाम को आया तो बहुत पीड़ा थी। मैं ने तुरन्त दर्द निवारक ली और लेट गया। कुछ देर बाद दर्द से छुटकारा मिला। रात को अचानक गैस सिलेंडर की गैस दगा दे गई। अपने एक कनिष्ठ को कहा तो उस ने गैस की व्यवस्था की। उस के बाद काम करने का मन न किया। ब्लाग अनवरत पर लिखने का मन होते हुए भी कुछ न लिखा और  तीसरा खंबा पर भी। जल्दी ही सोने चला गया। इस तरह रात को पूरे आठ घंटों का विश्राम मिल गया। सुबह उठा और पैर जमीन पर रखे तो एक दम ठीक थे। ऐसा लगा चोट पूरी तरह दुरुस्त हो गयी थी। अखबार में खबर थी दैनिक बिजली कटौती ग्यारह से एक के स्थान पर आज से आठ से दस बजे तक होगी। आठ बजने ही वाले थे। कुछ देर में बिजली चली गयी। अब काम तो हो नहीं सकता था। इसलिए आराम से निबटते रहे। आज दर्द नहीं था तो दर्द निवारक नहीं लिया बल्कि साथ रख लिया कि दर्द होने लगा तो अदालत में ही ले लिया जाएगा। अदालत में कुछ चलना फिरना हुआ तो हलका दर्द होने लगा। लेकिन मेरी चाल अन्य दिनों की अपेक्षा ठीक थी। फिर भी मैं ने दर्द निवारक ले ही ली। 

दालत से लौट कर कुछ विश्राम किया तो दर्द बिलकुल नहीं रहा। अभी भी नहीं है। इस से यह स्पष्ट हुआ कि चोट अब ठीक हो रही है। यदि वास्तव में कुछ दिन पैर को अधिक आराम दिया जाए घुटने पर कम से कम जोर डाला जाए तो बिलकुल ठीक हो लेगी। मेरी कोशिश यही रहेगी जिस से मैं जल्दी से जल्दी सामान्य हो सकूँ। 

शाम को खबर थी कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह सेना प्रमुख वी.के.,सिंह की उम्र संबंधी याचिका को निरस्त करने का आदेश वापस लेगी क्यों कि वह आदेश नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत लगता है,  सरकार ने तय किया है कि वह अपने आदेश को वापस नहीं लेगी और सेना प्रमुख की उम्र का विवाद न्यायालय को तय करने देगी। मुझे सरकार का यह रवैया ठीक नहीं लगा अपितु इस में सरकार के अहंकार की झलक दिखाई दी। आखिर जो निर्णय सरकार स्वयं कर सकती है उन्हें वह न्यायालयों पर क्यों छोड़ देती है। आखिर कानून और तथ्यों की रोशनी में जो निर्णय न्यायालय कर सकते हैं उन निर्णयों को सरकार क्यों नहीं कर सकती? भारत के न्यायालयों की सब से बड़ी पक्षकार सरकारें ही हैं। यदि सरकार स्वयं कानून के अनुसार तथ्यों के आधार पर उचित और न्यायपूर्ण निर्णय करने लगे तो अदालतों में काम का बोझ एकदम चौथाई कम हो सकता है। यदि वैसी स्थिति में भी सरकार के निर्णय को कोई चुनौती देता है तो न्यायालय तथ्यों और कानून की प्रारंभिक जाँच के आधार पर वैसी याचिकाओँ का निपटारा कर सकता है जिस में न्यायालयों का बहुत समय बच सकता है और सरकार भी अधिक विश्वसनीय हो सकती है। लेकिन लगता है वैसी सरकारें बनना अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।