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बुधवार, 21 मई 2014

राजस्थान की भाजपा सरकार के नायाब तोहफे

  • डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान के इतिहास में किसी भी पार्टी की सरकार को कभी उतना बहुमत नहीं मिला, जितना की वर्तमान भाजपा सरकार को मिला है। इसलिये यहॉं की जनता की शुरू से ही राज्य सरकार से यही उम्मीदें रही हैं कि वसुन्धरा राजे के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार सभी वर्गों के हितों में कुछ न कुछ क्रान्तिकारी काम अवश्य उठाएंगी। जिससे राज्य का और राज्य की जनता का चहुँमुखी विकास होगा।

राज्य सरकार लोकसभा चुनाव होने तक तो एक दम शान्त रही, लोगों को लगा ही नहीं कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हो चुका है, लेकिन केन्द्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलते ही राज्य में भाजपा सरकार के परिवर्तन की छटा बिखरने लगी है। कुछ मामले इस प्रकार हैं :-

1. बड़े लोगों के लिये मॉल्स में खुलेंगी शराब की दुकानें : पिछले कार्यकाल में भाजपा की सरकार ने शराब की हजारों नयी दुकानें खोली थी और देर रात तक शराब की बिक्री विक्री होती थी। जिसके चलते लाखों परिवार बर्बाद हो गये और अनेकों घर टूट गये। इस स्थिति पर कांग्रेस सरकार ने असफल नियन्त्रण करने का प्रयास किया था। मगर भाजपा के दुबार सत्ता में आने के बाद भी राज्य सरकार को इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है कि शराब पीने से लाखों परिवार और घर बर्बाद हो रहे हैं। जनता शराब की दुकानों को बन्द कराने के लिये सड़क पर उतर कर आये दिन विरोध करती रहती है, फिर भी शराबबन्दी के बारे में किसी प्रकार का सकारात्मक निर्णय लिया जाना राजस्थान सरकार के लिये चिन्ता का कारण या विषय नहीं है। इसके विपरीत राजस्थान सरकार का मानना है कि साधन सम्पन्न, उच्चवर्गीय और उच्च कुलीन लोगों को शराब की दुकानों पर जाकर और भीड़ में शामिल होकर शराब खरीदने में शर्म, संकोच तथा हीनता का अनुभव होता है, इस स्थिति को बदलना राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में गम्भीर चिन्ता का विषय है। इसलिये राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की संरक्षक भाजपा की राज्य सरकार ने अपने अधिकारियों को निर्देशित किया है कि राज्य की राजधानी जयपुर में स्थित सभी मॉल्स में खरीददारी करने के लिये जाने वाले सम्पन्न, उच्चवर्गीय और उच्च कुलीन लोगों के लिये मॉल्स में ही शराब खरीदने की व्यवस्था की जावे। जिससेे कि ऐसे लोगों को शराब की दुकानों पर जाकर शराब खरीदने में होने वाले शर्म, संकोच तथा हीनता से मुक्ति मिल सके।

2. 7538 लिपिकों भर्ती प्रक्रिया रद्द करके लाखों बेरोजगारों के सपने किये चकनाचूर : गत वर्ष राजस्थान लोक सेवा आयोग के माध्यम से लिपिकों के 7538 रिक्त पदों पर भर्ती करने के लिये आवेदन मांगे गये थे, परीक्षा भी हो गयी और परिणाम घोषित किये जाने का लाखों बेरोजगार लम्बे समय से बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे, लेकिन भाजपा की बेतहासा बहुमत प्राप्त राज्य सरकार ने इस भर्ती प्रक्रिया को अन्तिम चरण में रद्द कर दिया है। तर्क दिया गया कि कम्प्यूटर के युग में बाबुओं की क्या जरूरत है?

इस प्रकार का हृदयहीन तथा निष्ठुर निर्णय लिये जाने से पूर्व राज्य सरकार ने तनिक भी गौर नहीं किया कि लिपिक भर्ती परीक्षा में शामिल हुए लाखों बेरोजगारों ने अपने माता-पिता की खूनपसीने की कमार्इ से कोचिंग सेंटर्स पर महिनों तैयारी करके परीक्षा दी, जिसमें हर एक बेराजगार को हजारों रुपये का खर्चा वहन करना पड़ा। परीक्षा के लिये आने-जाने और शैक्षणिक सामग्री में किये गये खर्चे के साथ-साथ बेरोजगारों के अमूल्य समय, श्रम और जीवन का कम से कम एक वर्ष रसातल में चला गया। यही नहीं राज्य सरकार के इस निर्णय से लिपिक भर्ती परीक्षा के परिणामों का इन्तजार कर रहे लाखों अभ्यर्थियों को गहरे सदमें में पहुँचा दिया है। जिससे अनेक प्रकार की सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा आपराधिक विकृतियों के जन्मने की सदैव आशंका बनी रहती है! 

3. सचिवालय के 275 पदों पर लिपिकों की भर्ती रद्द : 7538 लिपिकों की भर्ती रद्द करने अगले ही दिन राजस्थान सरकार ने सचिवालय में 275 पदों पर होने वाली क्लर्को की भर्ती भी रद्द कर दी। इस भर्ती के लिए भी परीक्षा भी हो चुकी है।

4. विधानसभा में भी 36 पदों पर भर्ती रद्द : राजस्थान विधानसभा में भी पिछली सरकार के समय निकाली गई बाबुओं की भर्ती को भी राज्य सरकार ने रद्द कर दिया है। विधानसभा में 36 पदों पर भर्ती के लिए अक्टूबर, 2013 में जगह निकाली थी। अब यह भर्ती नये सिरे से प्रारम्भ की जाएगी।

5. पिछली सरकार द्वारा मंजूर 61 विभागों में नये सृजित पदों के भरने पर पर भी लगायी रोक : राज्य की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में राज्य के 61 विभागों को सृजित किये गये अतिरिक्त पदों पर पदोन्नति की प्रक्रिया पर भाजपा की राज्य सरकार ने रोक लगा दी है। इसके लिए 28 जून 2013 को अधिसूचना जारी हुई थी। सरकार ने वित्त विभाग को इसकी समीक्षा के निर्देश दिए हैं।

6. प्रदेश में 25 फीसदी बढ़ेगा टोल टैक्स : अपैल के प्रथम सप्ताह में समाचार-पत्रों में खबर पढने को मिली थी कि अप्रेल से भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के टोल बूथों पर टोल दरें बढाने का भाजपा ने विरोध कर रही है। इस बारे में भाजपा की ओर से आंदोलन करने की चेतावनी भी दी गयी थी। इससे लोगों के मन में एक नयी आस बंधी थी कि यदि राज्य में भाजपा सरकार आती है तो टोल टैक्स की मार से मुक्ति मिल सकेगी। लेकिन इसके ठीक विपरीत भाजपा की उक्त घोषणा के मात्र डेढ-दो माह बाद ही राजस्थान सरकार ने निर्णय लिया है कि प्रदेश में 25 फीसदी तक तक टोल टैक्स की दरें बढाने के लिये नयी टोल नीति लागू करने पर राज्य सरकार विचार कर रही है। निश्‍चय ही इस सबका भार राज्य की जनता पर पड़ना तय है।

इस प्रकार राजस्थान की भाजपा सरकार की ओर से राजस्थान की जनता द्वारा प्रदान किये गये प्रबल समर्थन के एवज में आघातिक और गहरे सदमें में डालने वाले तोहफे प्रदान करना शुरू कर दिया है।

सरकार के उपरोक्त निर्णयों को लेकर अनेक प्रकार की चर्चाएँ जोरों से चल निकली हैं। सबसे बड़ी चर्चा तो लिपिकों की भर्ती प्रक्रिया को लेकर है। जिसके बारे में दो बातें सामने आ रही हैं :-

प्रथम : पिछली सरकार की ओर से लिपिकों को भर्ती करने में कथित रूप से खुलकर लेनदेन हुआ था, जिसके चलते अफसरों और सम्बन्धित नेताओं ने जमकर कमाया।

द्वितीय : नयी सरकार नहीं चाहती कि पिछली सरकार द्वारा निकाली गयी रिक्तियों के पदों को उसके द्वारा बिना किसी प्रतिफल के भरा जावे। इसलिये सरकार के सूत्र बताते हैं कि सरकार कुछ समय बाद दबाव बढने पर फिर से लिपिकों की भर्ती निकाल सकती है। जिसमें फिर से वही सब होना लाजिमी है, जो कथित रूप से पिछली सरकार द्वारा किया गया था।

इस कारण जानबूझकर और भर्ती प्रक्रिया में शामिल अभ्यर्थियों के प्रति निष्ठुरता तथा हृदयहीनता दिखाते हुए राज्य सरकार ने रिक्तियों और भर्ती प्रक्रिया को रद्द कर दिया है। ऐसे में अब हमें निगाह रखनी होगी कि आगे-आगे होता है क्या?

रविवार, 4 मई 2014

भाजपा का घोषणापत्रः फासीवादी दस्तावेज

  • अनिल यादव

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने जो अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी किया है, वह भारत जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए घातक ही नहीं, बल्कि उसके संवैधानिक मूल्यों के भी विपरीत है। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का दंभ भरने वाली भाजपा का घोषणापत्र भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाता नजर आता है। भाजपा द्वारा जारी किए गए घोषणा-पत्र को गंभीरता से देखें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि विकास का झुनझुना बजाने वाले मोदी और उनके सिपहसलारों का उद्देश्य कुछ दूसरा ही है। घोषणा-पत्र के मुख्य पृष्ठ पर ही ’एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ का श्लोगन भाजपा की मानसिकता की तरफ इशारा करता नजर आता है। वस्तुतः जब भी हमारे मस्तिष्क में ’एक’ की प्रस्तुति होती है, त्यों ही हम दो के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। एक भारत कहने का अर्थ साफ है कि भाजपा का घोषणा-पत्र बनाने वाली समिति किसी ’दूसरे’ भारत के बारे में जानती है, अर्थात वह भारत को एक नही मानती है। भाजपा का ’एक’ भारत कैसा होगा? कहीं यह हिन्दू राष्ट्र की तरफ इशारा तो नही है? क्या भाजपा पुराने संघी अवधरणा की तरफ इशारा करती नजर नही आ रही है कि भारत के भीतर कई पाकिस्तान हैं।

मोदी ने अपने पूर्वोत्तर की एक रैली में कहा था कि जहां भी हिन्दुओं पर अत्याचार होगा, उसके लिए भारत सुरक्षित जगह होगी। वह भारत ही लौटकर आएंगे। अब 2014 के भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र ने इसे बिल्कुल साफ कर दिया है। भाजपा के घोषणा-पत्र में स्पष्ट लिखा है कि अपनी जमीन से उजाड़े गए हिन्दुओं के लिए भारत सदैव प्राकृतिक गृह रहेगा और यहां आश्रय लेने के लिए उनका स्वागत है। इससे साफ है कि भाजपा भारत को हिन्दू राष्ट्र के तौर पर ही देखती है।

एक अप्रैल 2014 को नेपाल में भाजपा के अनुषांगी संगठन विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल नें विराट नगर में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि यदि मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं तो नेपाल को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया जाएगा। एक तरफ भारतीय संविधान जहां किसी भी देश के खिलाफ षडयंत्र न रचने और मैत्रीपूर्ण संबंधों की वकालत करता है, वहीं दूसरी तरफ सत्ता का ख्वाब सजा रही भाजपा और उससे जुड़े हुए नेताओं का विचार बेहद घातक है, जो सिर्फ भारत के लोकतंत्र के लिए ही नहीं बल्कि बल्कि पड़ोसी मुल्को के लोकतंत्र के लिए भी घातक है।

ऐतिहासिक तथ्य है कि शुरू से ही भाजपा और संघ परिवार के लिए नेपाल बहुत ही महत्वपूर्ण राष्ट्र रहा है। सावरकर जैसे हिन्दूवादी दार्शनिक ने तो यहां तक घोषणा की थी कि भारत आजाद होगा तो उसे नेपाल में विलय कर दिया जाएगा। नेपाल नरेश को सावरकर ने विश्व हिन्दू सम्राट की उपाधि भी प्रदान की थी। जब नेपाल के लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत थे तो 2006 में गोरखपुर में आयोजित हिन्दू महा सम्मेलन में ’राजनीति का हिन्दुत्व करण और हिन्दुओं का सैन्यकरण’ का नारा बुलंद किया गया था। इसी क्रम में 23 से 25 अप्रैल 2008 में देवीपाटन मंदिर बलरामपुर में विश्व हिंदू महासंघ की कार्यकारिणी की बैठक में साफ कहा गया था कि नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की बहाली होकर रहेगी, चाहे हमें हिंसा का सहारा ही क्यों न लेना पड़े। परन्तु, हिन्दुत्ववादियों को इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई।

भाजपा के 2009 के घोषणा-पत्र को देखा जाए तो इसमें साफ लिखा है कि यदि वो सत्ता में आएं तो नेपाल के प्रति नीति की समीक्षा करेंगे। आखिर यह इशारा क्या था? भाजपा का दुर्भाग्य था और नेपाली लोकतंत्र का सौभाग्य कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार पीएम इन वेटिंग ही रह गए। यदि हम भाजपा के 2014 के घोषणा-पत्र के प्रस्तावना को ध्यान से देखें तो साफ जाहिर हो जाता है कि भाजपा हिन्दुत्व और विदेश नीति को लेकर क्या सोचती है। भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में उल्लेख किया है कि कोई भी राष्ट्र अपने आप को, अपने इतिहास को, अपनी जड़ों को, अपनी शक्तियों और सफलता को ध्यान में रखे बिना अपने विदेश नीति को तय नहीं कर सकता है। वस्तुतः भाजपा अपने घिसे पिटे तर्कों के आधार पर भारत को प्राचीन में एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखती है। वह अपनी जड़ों को नेपाल की हिन्दू राजशाही से भी जोड़कर देखना चाहती है।

नेपाल से जुड़े पूर्वाचल में हिन्दुत्व के पैरोकार योगी आदित्यनाथ ने तो भारत के हिन्दू राष्ट्र होने का खाका भी तैयार कर लिया है। योगी आदित्यनाथ के लोग पूर्वांचल में खुले मंचों से मुसलमानों से उनके वोट देने के वैधानिक अधिकार को छीनने की बात करते नजर आते है। आदित्यनाथ के लोग न सिर्फ भारत के आंतरिक संप्रभुता के विरुद्ध हैं, बल्कि नेपाल जैसे संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता के लिए भी घातक हैं। ज्ञातव्य हो कि मालेगांव बम विस्फोट के बाद एटीएस चार्जशीट में गोडसे की बेटी और सावरकर की बहू हिमानी सावरकर नें स्वीकार किया है कि भारत में सैन्य विद्रोह के लिए नेपाल से मदद ली जाएगी और ’बाहर’ से ही भारत की सरकार को चलाया जाएगा। इसके साथ ही साथ नेपाल में भी कई आतंकवादी घटनाओं में योगी आदित्यनाथ का नाम भी आया है।

भारत पर अध्ययन के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले पाॅल ब्राश नामक विद्वान ने ’द पाॅलिटिक्स आॅफ इंडिया सिंस इन्डिपेंन्डेन्स’ में लिखा है कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारतीय समाज और राजनीति बहुत सारे उन पूर्व- फासिस्ट समय के हिंसक लक्षणों को प्रदशित कर रही है, जिन्होंने अनगिनत शहरों में स्थानीय रूप से अपने ’क्रिस्टलनाख्त’ (हिटलर के समय नाजी ठिकाने, जो यहूदियों पर हमला करने के लिए बनाए गए थे) बना लिए हैं। भाजपा ने ऐसे असंवैधानिक मुद्दों को अपने घोषणा-पत्र में शामिल करके सत्ता में आना चाहती है। ताकि जब वह सत्ता में आए तो उसके पास यह तर्क हो कि भारत की जनता ने उसके घोषणा-पत्र को स्वीकार किया है।

शनिवार, 5 मई 2012

बोलने की हदें?


नतंत्र है तो वाक स्वातंत्र्य भी। सब को अपनी बात कहने का अधिकार भी है। अब सरकार अभिनेत्री रेखा और क्रिकेटर सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे, सिफारिश मानने को बाध्य राष्ट्रपति उस पर मुहर लगा दें, अधिसूचना भी जारी कर दी जाए और देश उसे चुपचाप स्वीकार कर ले तो सिद्ध हो जाएगा कि देश मे जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र का होना सिद्ध होता रहे इसलिए यह जरूरी है कि सरकार के हर कदम की आलोचना की जाए, सरकारी पार्टी की आलोचना की जाए और मनोनीत व्यक्तियों की आलोचना की जाए।

यूँ तो देश में जनतंत्र होना सिद्ध करने की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की है। सरकारी पार्टी की पिछली पारी में मैदान के बाहर से समर्थन देने वाली सब से बड़ी वामपंथी पार्टी ने इस काम की आलोचना नहीं की सिर्फ इतना भर कहा कि सचिन के पहले गांगुली को यह सम्मान मिलना चाहिए था, इस तरह उन्हों ने साबित किया कि  फिलहाल अखिल भारतीय पार्टी बनने का सपना देखना उन के ऐजेंडे पर नहीं है, वे अभी अपने दक्षिणपंथी विचलन को त्यागने पर भी कोई विचार नहीं कर रहे हैं, अभी उन का इरादा केवल और केवल अपनी क्षेत्रीय पार्टी की इमेज की रक्षा करने में जुटे रहना है। अभी-अभी रुस्तम-ए-लखनऊ का खिताब जीतने वाली पार्टी ने भी इस की आलोचना करने के बजाए प्रशंसा करना बेहतर समझा और सिद्ध किया कि वह अपनी नवअर्जित छवि को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भुनाना चाहती है। पूर्व रुस्तम-ए-लखनऊ की कुर्सी छिन जाने और अभी अभी राज्य सभा में कुर्सी कबाड़ लेने वाली बहन जी ने जनतंत्र की रक्षा करने के स्थान पर सस्पेंस खड़ा करने की कोशिश करते हुए बयान किया कि वे जानती हैं कि इन लोगों को राज्य सभा में लाने के पीछे सरकारी पार्टी की मंशा क्या है।

राठा सरदार की पार्टी ने सरकार के इस कदम की आलोचना की तो लगा कि कोई तो जनतंत्र को बचाने के लिए सामने आया। पर वे भी इतना ही कह कर रह गए कि सरकारी पार्टी ध्यान बांटने का काम कर रही है, उस का मन कभी पवित्र नहीं रहा, वह हमेशा कोई न कोई लाभ उठाने के चक्कर में रहती है। इस बार वह सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। इस बयान से भी जनतंत्र को कोई लाभ नहीं हुआ उन्हें जनतंत्र बचाने से अधिक इस बात का अफसोस था कि एक महाराष्ट्रियन का लाभ कांग्रेस कैसे उठा ले जा रही है।  सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब जनतंत्र साबित करने की जिम्मेदारी केवल अपने कंधों पर उठाने का दावा करने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी आलोचना करने के स्थान पर सरकार के इस कदम की प्रशंसा कर दी। करती भी क्या। उस के पूर्व अध्यक्ष पर चल रहे रिश्वत लेने के मुकदमे का फैसला आने वाला था और वह इस मामले में इतनी सी रियायत चाहती थी कि सरकारी पार्टी उस की आलोचना न करे।  

ब सब ओर से जनतंत्र खतरे में दिखाई दिया तो ऐसे दुष्काल में विदेश से कालाधन वापस लाने की जिद पर अड़े बाबा काम आए, उन्हों ने जम कर सरकार की आलोचना की।  सरकारी पार्टी डूबता जहाज है, वह जहाज को डूबने से बचाने के लिए सचिन-रेखा का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन यह प्रयोग भी उसे नहीं बचा पाएगा। बल्कि डूबते जहाज में बिठा कर वह इन दोनों की साख को भी डुबा देगा। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि ये दोनों जब राज्यसभा में जाएंगे तो वहाँ काले धन के मामले पर क्या बोलेंगे।

बाबा ने जनतंत्र की प्राण रक्षा की।  लेकिन उन की खुद की सुरक्षा इस से खतरे में पड़ गई है। पिछले कुछ बरसों से उनका झंडा उठाए उठाए घूमने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी बाबा से घोर नाराज हो गई। उस ने चेतावनी दे डाली कि बाबा को उन की हद में रहना चाहिए। जनतंत्र सोच में पड़ गया है कि आखिर बाबा की हदें कब, कहाँ, क्यों और कैसे तय की गई थीं? और तय की गई थीं तो अब तक मीडिया वालों को उन की हदों का पता क्यों नहीं लगा? यदि किसी को लग भी गया था तो जनता को क्यों नहीं बताया गया?

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

निगम चुनाव के मतदान के बाद का दिन

राजस्थान की कुछ स्वायत्त संस्थाओं के लिए मतदान कल संपन्न हो गए। 26 नवम्बर को मतगणना होगी और पता लग जाएगा कि मतदाताओं ने क्या लिखा है। इस चुनाव में मतदाताओं के पास विकल्प नहीं थे। वही काँग्रेस और भाजपा द्वारा मनोनीत और कुछ निर्दलीय उम्मीदवार। कोटा नगर निगम के लिए भी मतदान हुआ। लोगों का नगर की गंदगी, सड़कों, रोडलाइट्स, निर्माण आदि से रोज का लेना देना है। उन की वार्ड पार्षद से इतनी सी आकांक्षा रहती है कि मुहल्लों की सफाई नियमित होती रहे, रोड लाइट्स जलती रहें, सड़कें सपाट रहें, अतिक्रमण न हों। लेकिन उन की ये आकांक्षाएँ कभी पूरी नहीं होतीं। हो जाएँ तो अगले चुनाव  में उम्मीदवारों के पास कहने को क्या शेष रहे?

पिछली तीन टर्म से कोटा नगर निगम में भाजपा का बोर्ड रहा। नगर की सफाई, रोशनी, अतिक्रमण आदि की स्थिति वैसी ही नहीं है जैसे आज से पन्द्रह वर्ष पहले थी। हर टर्म में बद से बदतर होती गई है। अधिकांश पार्षदों ने अपने रिश्तेदारों के नाम ठेके ले कर अपने बैंक बैलेंस बढ़ाए हैं। उन्हें सफाई के लिए मिलने वाले रोज मजदूरी के मजदूरों की फर्जी हाजरी भर कर ठेकेदार से कमीशन खाने के कीर्तिमान बनाए हैं। नगर वैसे का वैसा है।

मेरे घर के सामने एक पार्क है। इस की व्यवस्था नगर निगम के पास है। जब भी इस की सफाई और घास कटाई की आवश्यकता होती है पार्षद के पास जाना होता है। वह कभी मजदूर लगा देता है कभी हटा देता है। जब वह नहीं सुनता है तो निगम के अफसरों और विधायक को कहना पड़ता है। उस का असर होता है तत्काल कोई न कोई व्यवस्था हो जाती है। लेकिन चार दिन बाद वही अंधेरी रात।

निगम चुनाव के बीस दिन पहले बिना कुछ कहे मजदूर आए साथ आया पुराना पार्षद। पार्क की घास की छंटाई और सफाई कर दी। घास को पानी दिया। रोज सार संभाल होने लगी। नालियाँ सड़कें भी साफ हुई। कचरा भी समय से उठने लगा। लोग प्रसन्न हुए कि चुनाव के बहाने कुछ तो हुआ। कुछ लोगों ने इस अवसर का व्यक्तिगत लाभ भी उठाया। अपने घरों के बागीचों को भी साफ कराया। कुछ ने अपने गमलों में मिट्टी भरवा कर नए पौधे लगवा लिए।

ज मतदान के बाद का पहला दिन है। पार्क से काम करने वाला माली गायब है। आज सड़क बुहारने वाले भी नहीं आए हैं। कचरा परसों उठा था, आज उठने का नंबर था लेकिन अभी तक कोई नहीं आया है, जानते हैं आएगा भी नहीं। आएगा तो तब जब कचरा सड़क रुद्ध करने लगेगा और कोई शिकायत करेगा। मैं सोचता हूँ कि कहीं पार्षद मिल जाए तो उसे कहूँगा। पर उस से भी क्या लाभ मुझे पता है उस का जवाब होगा कि अब तो 26 तारीख के बाद नए पार्षद से बात करना।