जनतंत्र है तो वाक स्वातंत्र्य भी। सब
को अपनी बात कहने का अधिकार भी है। अब सरकार अभिनेत्री रेखा और क्रिकेटर
सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे,
सिफारिश मानने को बाध्य राष्ट्रपति उस पर मुहर लगा दें, अधिसूचना भी जारी
कर दी जाए और देश उसे चुपचाप स्वीकार कर ले तो सिद्ध हो जाएगा कि देश मे
जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र का होना सिद्ध होता रहे इसलिए यह जरूरी है कि
सरकार के हर कदम की आलोचना की जाए, सरकारी पार्टी की आलोचना की जाए और
मनोनीत व्यक्तियों की आलोचना की जाए।
यूँ तो देश में जनतंत्र होना सिद्ध करने
की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की है। सरकारी पार्टी की पिछली पारी में
मैदान के बाहर से समर्थन देने वाली सब से बड़ी वामपंथी पार्टी ने इस काम की
आलोचना नहीं की सिर्फ इतना भर कहा कि सचिन के पहले गांगुली को यह सम्मान
मिलना चाहिए था, इस तरह उन्हों ने साबित किया कि फिलहाल अखिल भारतीय
पार्टी बनने का सपना देखना उन के ऐजेंडे पर नहीं है, वे अभी अपने
दक्षिणपंथी विचलन को त्यागने पर भी कोई विचार नहीं कर रहे हैं, अभी उन का
इरादा केवल और केवल अपनी क्षेत्रीय पार्टी की इमेज की रक्षा करने में जुटे
रहना है। अभी-अभी रुस्तम-ए-लखनऊ का खिताब जीतने वाली पार्टी ने भी इस की
आलोचना करने के बजाए प्रशंसा करना बेहतर समझा और सिद्ध किया कि वह अपनी
नवअर्जित छवि को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भुनाना
चाहती है। पूर्व रुस्तम-ए-लखनऊ की कुर्सी छिन जाने और अभी अभी राज्य सभा
में कुर्सी कबाड़ लेने वाली बहन जी ने जनतंत्र की रक्षा करने के स्थान पर
सस्पेंस खड़ा करने की कोशिश करते हुए बयान किया कि वे जानती हैं कि इन
लोगों को राज्य सभा में लाने के पीछे सरकारी पार्टी की मंशा क्या है।
मराठा सरदार की पार्टी ने सरकार के इस कदम
की आलोचना की तो लगा कि कोई तो जनतंत्र को बचाने के लिए सामने आया। पर वे
भी इतना ही कह कर रह गए कि सरकारी पार्टी ध्यान बांटने का काम कर रही है,
उस का मन कभी पवित्र नहीं रहा, वह हमेशा कोई न कोई लाभ उठाने के चक्कर में
रहती है। इस बार वह सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। इस बयान से भी
जनतंत्र को कोई लाभ नहीं हुआ उन्हें जनतंत्र बचाने से अधिक इस बात का अफसोस
था कि एक महाराष्ट्रियन का लाभ कांग्रेस कैसे उठा ले जा रही है। सबसे
बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब जनतंत्र साबित करने की जिम्मेदारी केवल अपने
कंधों पर उठाने का दावा करने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी आलोचना
करने के स्थान पर सरकार के इस कदम की प्रशंसा कर दी। करती भी क्या। उस के
पूर्व अध्यक्ष पर चल रहे रिश्वत लेने के मुकदमे का फैसला आने वाला था और वह
इस मामले में इतनी सी रियायत चाहती थी कि सरकारी पार्टी उस की आलोचना न
करे।
जब सब ओर से जनतंत्र खतरे में दिखाई दिया
तो ऐसे दुष्काल में विदेश से कालाधन वापस लाने की जिद पर अड़े बाबा काम आए,
उन्हों ने जम कर सरकार की आलोचना की। सरकारी पार्टी डूबता जहाज है, वह
जहाज को डूबने से बचाने के लिए सचिन-रेखा का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन
यह प्रयोग भी उसे नहीं बचा पाएगा। बल्कि डूबते जहाज में बिठा कर वह इन
दोनों की साख को भी डुबा देगा। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि ये दोनों जब
राज्यसभा में जाएंगे तो वहाँ काले धन के मामले पर क्या बोलेंगे।
बाबा ने जनतंत्र की प्राण रक्षा की।
लेकिन उन की खुद की सुरक्षा इस से खतरे में पड़ गई है। पिछले कुछ बरसों से
उनका झंडा उठाए उठाए घूमने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी बाबा से घोर
नाराज हो गई। उस ने चेतावनी दे डाली कि बाबा को उन की हद में रहना चाहिए।
जनतंत्र सोच में पड़ गया है कि आखिर बाबा की हदें कब, कहाँ, क्यों और कैसे
तय की गई थीं? और तय की गई थीं तो अब तक मीडिया वालों को उन की हदों का पता
क्यों नहीं लगा? यदि किसी को लग भी गया था तो जनता को क्यों नहीं बताया
गया?