@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: 'औकात'

गुरुवार, 4 जनवरी 2024

'औकात'

- दिनेशराय द्विवेदी

“अच्छे से बोलो” कलेक्टर के बात करने के तरीके पर ड्राइवरों में से एक ने यही तो कहा था। ड्राइवर आंदोलन पर थे और कलेक्टर को ड्यूटी दी गयी थी कि उन्हें समझाएँ कि वे कानून हाथ में न लें। वैसे भी कानून को हाथ में लेने का अधिकार सिर्फ प्रशासनिक अफसरों, पुलिस, सशस्त्र बलों, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं और माफियाओं को है। वैसे भी वे नए कानून का विरोध ही कर रहे थे।

पर कलेक्टर ने पलट कर जवाब दिया, “क्या करोगे तुम .... औकात क्या है तुम्हारी”?

व्याकरण की भाषा में सोचें तो यह जवाब नहीं, सवाल लगता है। पर असल में कलेक्टर ने अपनी औकात बता दी थी।

ड्राइवर का जवाब भी माकूल था, “यही चीज तो चाहिए सर¡ हमारी तो कोई औकात ही नहीं है। इसी की तो लड़ाई है।


असल में सामंतों को जबान दराजी पसंद नहीं। वही गुण आज के अफसरों में हैं। वे खुद को अफसर नहीं बल्कि सामंत समझते हैं और वैसे ही व्यवहार करते हैं। कुछ नहीं करते, लेकिन वे अपवाद हैं। नेताओं को भी यह सब पसंद है। सरकार और मंत्रियों को भी। लेकिन जब पूरी सरकार ही हाईकमान ने मुकर्रर की हो और खुद हाईकमान को कुछ महीने बाद जनता के पास हाथ जोड़ने जाना हो तो। यह सामंती तैश वह कैसे बर्दाश्त करे। कलेक्टर को हटा दिया गया। लगता है कि उसे दंडित किया गया है। पर वास्तव में उसे कलेक्टर से उपसचिव बना कर सेक्रेट्रियट में बुला लिया गया। अब उसकी पीठ थपथपाई जाएगी और कहा जाएगा कि तुम काम के आदमी हो, तुम्हारी जगह वहाँ नहीं इधर हमारे नजदीक है। अब सीधे हमारे लिए काम करो।

कलेक्टर ने सही कहा था “औकात क्या है तुम्हारी?” वास्तव में ड्राइवर की कोई औकात नहीं होती। किसी मजदूर, कर्मचारी, किसान, सिपाही, पैदल फौजी, दुकानदार, मेहनतकश की इस पूंजीवादी-सामन्ती निजाम में कोई औकात नहीं। वे सब ऐसे ही गरियाए लतियाए जाते हैं। उनका काम सिर्फ पूंजीपतियों, भूस्वामियों, राजनेताओं और अफसरों वगैरा वगैरा की सेवा करना है।

लकड़ी की औकात नहीं होती, पर लकड़ियों के गट्ठर की होती है। खुले हाथ की कोई औकात नहीं होती, कोई भी उंगली तोड़ सकता है। लेकिन बंद मुट्ठी और मुक्के की बहुत औकात होती है। ये सब मजदूर, कर्मचारी, किसान, दुकानदार, मेहनतकश जब इकट्ठा हो कर गट्ठर और मुट्ठी हो जाते हैं। जब वह मुट्ठी तन कर मुक्का हो जाए तो तो सर्वशक्तिमानों को पैदल दौड़ा देती है।

7 टिप्‍पणियां:

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

सत्य कथन। अब हर जगह ऐसा ही व्यवहार करते हैं अफसर।

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 06 जनवरी 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सटीक

Alaknanda Singh ने कहा…

द्व‍िवेदी जी, अच्छी लगी...शाजापुर की घटना पर ये त्वर‍ित रचना ...वाह

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

आपने सही लिखा है ,लेकिन लोग पुलिस पर डण्डे चलाते हैं , बिल लाने वाले को पीट देते हैं , वाहनों के कागज चैक करने पर लोग उग्र होकर हाथापाई करते हैं ..कानून बन रहा है तो उसे पहले समझ लें . अगर यह गलत है तो पहले भी तो गलत ही था कि लोग टक्कर मार कर भाग जाते थे और घायल पड़ा तड़फता रहता था . कानून पर इतना गुस्सा क्यों . मुझे तो लगता है कि हमारे देश में कानून को हर आदमी हथेली पर लेकर चल रहा है .

Meena sharma ने कहा…

किसी मजदूर, कर्मचारी, किसान, सिपाही, पैदल फौजी, दुकानदार, मेहनतकश की इस पूंजीवादी-सामन्ती निजाम में कोई औकात नहीं। कटु सत्य है। अभी समानता से बहुत बहुत दूर हैं हम।

Jai Insaan ने कहा…

बहुत बढ़िया लेख है।