सहजीवन मनुष्य का स्वाभाविक गुण भी है और आवश्यकता भी। बालक को जन्मते ही अपनी माँ का साथ मिलता है। उसी के माध्यम से उसे विकसित होने का अवसर प्राप्त होता है और उसी के माध्यम से वह जगत से परिचित होता है। फिर आते हैं पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ, मामा, नाना .... आदि। फिर जैसे जैसे बड़ा होता है उसे अपने हम उम्र मिलते चले जाते हैं। वह माँ से सीखना आरंभ कर के सारी दुनिया में जो कोई भी उस के संपर्क में आता है उस से सीखता जाता है। ये सीखें कभी समाप्त नहीं होती, जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। जो सोच लेता है कि अब उसे सीखने को कुछ शेष नहीं वह मुगालते में रहता है। उस के सीखने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है और धीरे-धीरे बंद भी हो जाती है। बस यही वह क्षण है जब वह मृत्यु की और कदम बढ़ाने लगता है। कभी लगता है सीखते जाना, लगातार सीखते जाना ही जीवन है।
बालक बड़ा होता है विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करता है, अपने जीवन यापन के लिए सीखता है। इसी बीच वह जवान होता है। उस का शारीरिक विकास विपरीत लिंगी साथी की आवश्यकता महसूस कराने लगता है। वे भाग्यशाली हैं जिन्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिल जाता है। जीवन की अगली पायदान आरंभ हो जाती है। जीवन संघर्ष यहीं से आरंभ होता है। अब दोनों को मिल कर जीवन चलाना है, एक सहजीवन। वे मिल कर श्रम करते हैं, साधन अर्जित करते हैं, गाड़ी के दो पहियों की तरह। यदि एक भी बराबर साथ न दे तो गाड़ी डगमगाने लगती है। पथ पर चलने में कठिनाई आने लगती है। कभी गाड़ी पथ से उतर जाती है, कभी रुक जाती है, कभी गलत राह पर चल पड़ती है। मंजिल पर पहुँचने के स्थान पर किसी अनजान पथ पर अनजान दिशा में चलने लगती है।
इसलिए जरूरी है, दोनों पहियों के बीच तालमेल और बराबरी से एक दूसरे का साथ निभाते चलना। यह तभी संभव है जब दोनों पहिए साथ चले ही नहीं अपितु एक दूसरे का ध्यान भी रखें। जब कभी कोई मोड़ आए और एक पर भार कम और एक पर अधिक हो तो कोई किसी का साथ न छोड़े। समझे कि यह मोड़ है, मोड़ पर तो यह होगा ही कि एक पर भार कम औऱ एक पर अधिक होगा। हो सकता है, अगले ही मोड़ पर दूसरे को अधिक भार उठाना पड़े। दोनों पहिए कब हर मोड़ पर यह समझ पाते हैं? जरा सी असुविधा में एक पहिया दूसरे को दोष देने लगता है। दूसरा जान रहा है कि यह उस का नहीं मार्ग का, परिस्थितियों का दोष है। उसे अच्छा नहीं लगता। उसे चोट पहुँचती है। यह अक्सर होने लगे तो चोट गहरी होने लगती है। चोट खाने वाला बिलबिला उठता है। यही वह समय है, जब दोनों पहियों को सोचना चाहिए, एक दूसरे के बारे में सोचने से अधिक उन परिस्थितियों के बारे में जो दोनों में भेद उत्पन्न कर रही हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि प्रयास और परिश्रम करने पर भी कभी कभी इच्छित परिणाम नहीं मिलते। विचार, प्रयास और परिश्रम तो मनुष्य के हाथ में है, वे इन पर काम कर सकते हैं। लेकिन ये निर्णायक नहीं होते। निर्णायक होती हैं परिस्थितियाँ। उन्हें एक दूसरे को दोष देने के स्थान पर परिस्थितियों को समझना चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार अपने विचारों, प्रयासों और परिश्रम का उपयोग करना चाहिए। अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा करते हुए, एक दूसरे को पहुँचाई गई चोटों को सहलाते हुए, आगे इस बात का ध्यान रखते हुए कि वे दूसरे को चोट नहीं पहुँचाएंगे पथ पर चलते रहना चाहिए।