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मंगलवार, 20 नवंबर 2018

राजनीति में सामंतवाद महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।

पाँच राज्योें के विधानसभा चुनावों में एक परिदृश्य ठीक उन दिनों उपस्थित हो रहा है जब उम्मीदवारों के नामांकन की अन्तिम तिथि नजदीक आई है। यह परिदृश्य उपस्थित करने में पहले सत्ता में रह चुकी कांग्रेस और वर्तमान में सत्ता का स्वाद चख रही भाजपा प्रमुख हैं। कांग्रेस के वे नेता जो समझते थे कि उन्हें तो पार्टी चुनाव में उम्मीदवार बनाने से इन्कार कर ही नहीं सकती। उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाने पर वे रातों रात भाजपा मे गए और उन्हें तुरन्त वहाँ उम्मीदवार बना लिया गया। इसी तरह रातों रात भाजपा के एक पुराने सदस्य ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया। 


कांग्रेस के पुराने नेता बून्दी के बृजसुंदर शर्मा की पुत्रवधु जिस की कांग्रेस में अच्छी स्थिति थी इस बार उम्मीदवार न बनाए जाने पर उसे भाजपा ने अपने पाले में बुला कर तुरन्त इटावा विधानसभा से उम्मीदवार बनाया। उसी तरह कांग्रेस से संसद सदस्य रहे कोटा के भूतपूर्व राज परिवार के सदस्य इज्जेराज सिंह ने रातों रात कांग्रेस को त्याग कर भाजपा की सदस्यता प्राप्त कर ली और उन की पत्नी को भाजपा ने लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बना लिया है। दूसरी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवन्त सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता ली और वे अब वर्तमान मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के विरुद्ध कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में झालरापाटन से चुनाव लड़ रहे हैं। 


हाँ दोनों ही पार्टियाँ विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी नीतियों और घोषणापत्रों के आधार पर चुनाव लड़ती प्रतीत नहीं होती हैं। वे किसी भी तरह से अधिक से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में जीत कर विधानसभा में अपना बहुमत बनाने के फेर में हैं। ममता शर्मा और इज्जेराज सिंह को उन्हों ने क्षत्रप माना है, जिनका किसी क्षेत्र विशेष में अपना प्रभाव है और उस प्रभाव के उपयोग से वे चुनाव जीत कर भाजपा की झोली में डाल देंगे। भाजपा जानती है कि यह चुनाव वह नहीं जीत रही है बल्कि जीतना है तो क्षत्रपों पर भरोसा करना होगा। कांग्रेस की स्थिति कुछ भिन्न है। उन्हों ने मानवेंद्र सिंह को मुख्यमंत्री वसुन्धरा के मुकाबले चुनाव में खड़ा किया है जहाँ से उन का जीतना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। फिर भी वे वसुन्धरा को अच्छी टक्कर दे सकते हैं। 

ह स्थिति केवल हाड़ौती अंचल की नहीं है पूरे राजस्थान में और अन्य राज्यों में भी कमोबेश इस तरह की घटनाएँ घटी हैं। चुनाव के ठीक पहले ये घटनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि राजनीति आज भी उसी सामंतवादी स्वभाव से चल रही है, जहाँ राजा का राज इस आधार पर नहीं चलता था कि वह जनता के बीच लोकप्रिय है, बल्कि इस आधार पर चलता था कि उस ने कितने सूबेदारों का विश्वास जीत रखा है। इस तरह हम देखते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में देश की सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए पूंजीपति वर्ग को सामंती राजनीति पर बड़ा भरोसा रखना पड़ रहा है। बल्कि वह जानता है कि इस के बिना वह सत्ता को बहुत देर तक अपने पास बरकरार नहीं रख सकता। 


मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अपना आधार मानने वाले कुछ राजनैतिक दल पता नहीं किस आधार पर यह मानते हैं कि भारत में सामंतवाद सगभग समाप्त हो चुका है, सामंती संबंध प्रभावशाली नहीं रहे हैं। और इसी आधार पर वे मानते हैं कि जनवादी क्रान्ति के कार्यभार पूरे हो चुके हैं और भारत में समाजवादी क्रान्ति का दौर आ चुका है।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

आने वाले दिन बताएंगे, बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं?

खिर सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन ने अपने रंग दिखाने आरंभ किया। जिन की मति मारी गई थी उन के इशारों पर आंदोलन के नेताओं को हिरासत में लेना आरंभ कर दिया। सत्ता की यह वही प्रवृत्ति है जिस के चलते 1975 में आपातकाल लगा था। तब पूरे देश को एक जेल में तब्दील कर दिया गया था। तब भी जनता में विश्वास करने वालों को पूरा विश्वास था कि भारत में जनतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि तानाशाही अधिक दिन नहीं चल सकती। इस बार तो अन्ना को हिरासत में लिए जाने के बाद ही जनता ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया। यह रंग ऐसा चढा़ कि शाम होते होते उन्हें नेताओं को छोड़ने का निर्णय करना पड़ा। 


न्ना ने कोई अपराध तो किया नहीं था। जब वे अपने फ्लेट से निकले तो इमारत से बाहर निकलने के पहले ही उन्हें उठा लिया गया था। पुलिस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि यह कहा जाए कि उन्हें शान्ति भंग की आशंका से गिरफ्तार किया जा रहा है। फिर से अंग्रेजी राज से चले आ रहे एक जन विरोधी कानून का सहारा पुलिस और सरकार ने लिया। जिस का सीधा सीधा अर्थ था कि यदि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाता तो वे कोई ऐसा संज्ञेय अपराध करते जिसे उन की गिरफ्तारी के बिना नहीं रोका जा सकता था। उन्हें फिर मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया। ऐसा मजिस्ट्रेट जो सीधे सरकार का नौकर था, उस ने मान लिया कि यदि अन्ना को छोड़ दिया गया तो वे वे शांति भंग करेंगे या लोक प्रशान्ति को विक्षुब्ध करेंगे और अन्ना से शांति भंग न करने के लिए व्यक्तिगत बंध पत्र भरने पर रिहा किए जाने का हुक्म दिया। इस हुक्म को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था। लोक प्रशान्ति को तो सरकार खुद कब से पलीता लगा चुकी थी। कार्यपालक मजिस्ट्रेट यदि अपने विवेक और न्यायदृष्टि से काम लेता तो उसे पुलिस को आदेश देना चाहिए था कि अन्ना को गलत हिरासत में लिया गया है उन्हें तत्काल स्वतंत्र किया जाए। लेकिन कार्यपालक मजिस्ट्रेटों में इस दृष्टि का होना एक अवगुण माना जाने लगा है। अब तो यह स्थिति यह हो चली है कि न्यायिक मजिस्ट्रेट तक इस स्तर पर अपनी न्यायदृष्टि का प्रयोग नहीं करते। 


लेकिन तब तक लोग सड़कों पर उमड़ने लगे थे। जिस डर से सरकार ने अन्ना और उन के साथियों को गिरफ्तार किया था। वही डर अब कई गुना हो कर सामने आ गया था। शाम तक सरकार को अहसास हो चला था कि वह गलतियों की अपनी श्रंखला में कुछ गलतियाँ और पिरो चुकी है। निवारक कार्रवाई (Preventive action) के जिस खोखले कानूनी तर्क को आधार बना कर ये गिरफ्तारियाँ दिल्ली पुलिस ने की थीं वह खोखला सिद्ध हुआ था। वह आग को रोकने के लिए जिस द्रव का उपयोग  उस ने पानी समझ कर किया था वह पेट्रोल निकला था। शाम को उन्हों ने अन्ना को बिना शर्त छोड़ने की घोषणा की। लेकिन तब तक बंदर की पूँछ अन्ना के हाथ आ चुकी थी और वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं थे। अन्ना तो अनशन के लिए निकल चुके थे। सरकार ने इस के लिए उन्हें जेल में स्थान दिया। उन्हें स्थान मिले तो वे बाहर निकलें। उन्हें बाहर निकाला जाए तो कैसे बाहर मार्ग कहाँ था। वहाँ तो पहले ही कितने ही अन्ना ही जुट चुके थे। 


रात निकली, एक नया सूर्योदय हुआ, एक नया दिन आरंभ हो गया। जैसे जैसे सूरज चढ़ता गया लोग घरों से निकल कर सड़कों पर आते रहे। ऐसा लगने लगा जैसे सारी दिल्ली सड़कों पर उतर आई है। यह आलम केवल दिल्ली का नहीं था। सारा देश जाग उठा था। सरकार और संसद के व्यवसनी संसद के अधिकारों और गरिमा की दुहाई देते फिर रहे हैं। लेकिन अधिकार तो हमेशा कर्तव्यों के साथ जुड़े हैं। संसद के पास लोकपाल के लिए संसद अपना कर्तव्य निभाने से रोकने के लिए कोई सफाई नहीं है। सवाल खड़ा किया जा रहा है कि सिविल सोसायटी का नाम लेकर कुछ हजार लोगों को साथ लिए कोई आएगा और ससंद को कहेगा कि हम जैसा कहते हैं वैसा कानून बनाओ तो क्या संसद बना देगी? संसद को इस काम के लिए चार दशक जनता ने दिए। संसद स्लेट पर अक्षर तक नहीं बना सकी, वह सिर्फ आड़ी तिरछी लकीरें खींच कर मिटाती रही। अब बिगड़ैल बच्चे का हाथ पकड़ कर उस की माँ उसे सिखा रही है कि अनार वाला 'अ' ऐसे लिखा जाता है तो बिगड़ैल बच्चा कह रहा है। मैं 'अ' नहीं बनाता, मुझे तो लकीरें ही खींचनी हैं। आने वाले दिन बताएंगे कि बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं? 


सोमवार, 15 अगस्त 2011

सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?

मैं सैडल डेम की पिकनिक के बारे में आप को बता रहा था। लेकिन वे बातें फिर कभी। आज मैं उन्हें रोक कर  कुछ अलग बात करना चाहता हूँ। आज भारत की अंग्रेजी राज से मुक्ति का दिवस था। हम इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस और आजादी शब्द बहुत अमूर्त हैं। इस जगत में कोई भी कभी भी परम स्वतंत्र या आजाद नहीं हो सकता। जगत का निर्माण करने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म कण से लेकर बड़े से बड़ा पिंड तक स्वतंत्र नहीं हो सकता। विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि भौतिक जगत में भी अनेक प्रकार के बल प्राकृतिक रूप से अस्तित्व में हैं कि परम स्वतंत्रता एक खामखयाली ही कही जा सकती है। इसलिए जब भी हम स्वतंत्रता और आजादी की बात करते हैं तो वह किसी न किसी विषय से संबंधित होती है। यहाँ हमारा आजादी का दिन या स्वतंत्रता दिवस जिसे भारत भर ने आज 15 अगस्त को मनाया उसे हमें सिर्फ ब्रिटिश राज्य की अधीनता से स्वतंत्र होने के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है। अन्य संदर्भों में उस का कोई अर्थ नहीं है। 

लेकिन जब भारत अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था तब संघर्षरत लोग केवल अंग्रेजी राज से ही मुक्ति की कामना से आपस में नहीं जुड़े थे। उन में सामन्ती शोषण से मुक्ति, पूंजीवाद के निर्मम शोषण से मुक्ति, जातिवाद के जंजाल से मुक्ति के साथ साथ अशिक्षा, गरीबी, बदहाली से मुक्ति की कामना करने वाले लोग भी शामिल थे। उस में वे लोग भी शामिल थे जो अपना सामन्ती ठाठ बचाए रखना चाहते थे और वे लोग भी शामिल थे जो पूंजी के बल पर देश में सर्वोच्च प्रभुत्व कायम करना चाहते थे। इन विभिन्न इरादों के बावजूद सब का तात्कालिक लक्ष्य अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त करना था। उन में अन्तर्विरोध होते हुए भी वे साथ चले। अलग अलग चले तब भी एक दूसरे को सहयोग करते हुए चले। अंततः देश ने अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त कर ली। अंग्रेजी राज से मिली इस आजादी के तुरंत बाद ही अलग अलग उद्देश्यों वाले लोग अलग होने लगे। इस आजादी का बड़ा हिस्सा फिर से देश की सामंती ताकतों और पूंजीपतियों ने हथिया लिया। शेष जनता को आजादी के बाद से अब तक मात्र उतना ही मिला जो उस ने आजाद देश की सरकार से लड़कर लिया।

किसानों को जमींदारी शोषण से मुक्ति के लिए लड़ना पड़ा। जमीन जोतने वाले की हो यह आज भी सपना ही है। मजदूरों ने जितने अधिकार हासिल किए सब लड़ कर हासिल किए। मजदूरों के हक में कानून बने लेकिन उन्हें लागू कराने के लिए आज तक मजदूरों को लड़ना पड़ रहा है। कोई पूंजीपति, यहाँ तक कि जनता की चुनी हुई संस्थाएँ और सरकारें तक उन कानूनों का पालन नहीं करती हैं। भारत की केन्द्र सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार कानून के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी तय करती है लेकिन वह मजदूरों को केवल वहीं मिलती है जहाँ उस से कम मजदूरी पर मजदूर नहीं मिलता। शेष स्थानों पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मांगने और सरकारी महकमे में शिकायत करने पर काम से हटा दिया जाता है। सरकारी महकमा उस मजदूर के हकों की रक्षा करने की न तो इच्छा रखता है और न ही उसे इतने अधिकार दिए गए हैं कि वह मजदूर को तुरंत या कुछ दिनों या महिनों में सुरक्षा प्रदान कर सके। कुल मिला कर कानून बने पड़े हैं। लेकिन उन्हीं कानूनों का पालना सरकार करवाती है जिन की पालना करने के लिए मजबूत लोग सामने आते हैं। आज भी इस देश में मजबूत लोग केवल भू-स्वामी, पूंजीपति, गुंडे, बाहुबली, संगठित अपराधी और उन की सेवा में नख से शिखा तक लिप्त राजनेता और अफसर ही हैं। सारे कानून उन्हीं के लिए बनते हैं। जो कानून मजदूरों और किसानों के नाम से बनते हैं उन की धार भी इन मजबूत लोगों के ही हक में ही चलती है। 
 
दाहरण के बतौर हम ठेकेदार मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 को देखें तो नाम से लगेगा कि यह ठेकेदार मजदूरी का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया कानून है। लेकिन व्यवहार में देखें तो पता लगेगा कि यह कानून ठेकेदार मजदूरी की प्रथा को बचाने और उसे मजबूत बनाने का काम कर रहा है। अब तो इस की आड़ ले कर नियमित सरकारी कर्मचारियों से लिए जाने वाले काम इसी प्रथा के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी की दर पर ठेकेदार को दे कर करवाए जा रहे हैं। सरकारी काम पर लगे इन ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कभी नहीं मिलती। जितने मजदूर लगाने के लिए ठेका दिया जाता है उतने मजदूर काम पर लगाए भी नहीं जाते। यह सब चल रहा है। इसे चलाने वाली शक्ति का नाम भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार में लिप्त वही मजबूत लोग हैं जिन का उल्लेख मैं ऊपर कर आया हूँ।

भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कानून बनाने की बात चल रही है। जनता की ओर से सिविल सोसायटी सामने आ कर खड़ी हुई तो जनता ने उस का समर्थन किया। बवाल बढ़ा तो सरकार समझ गई कि अब कानून बनाना पड़ेगा। सरकार ने हाँ कर दी। सिविल सोसायटी ने अपना विधेयक बताया तो सरकार अड़ गई कि ये नहीं हो सकता विधेयक बनाने का काम सरकार का है उसे कानून में तब्दील करने का काम संसद का है। आप सिर्फ सलाह दे सकते हैं। सिविल सोसायटी ने सरकारी विधेयक को देखा और कहा कि यह भ्रष्टाचार मिटाने का नहीं उसे और मजबूत करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले का मुहँ बन्द करने का काम करेगा। सिविल सोसायटी आंदोलन पर अड़ गई और सरकार उसे रोकने पर अड़ गई। आज का आजादी का दिवस इसी माहौल में मनाया गया। पहले राष्ट्रपति ने भ्रष्टाचार को कैंसर घोषित कर दिया, उन का आशय था कि वह ठीक न होने वाली बीमारी है। फिर सुबह प्रधानमंत्री बोले कि सरकार इस कैंसर से लड़ने को कटिबद्ध है। सिविल सोसायटी के नेता अन्ना हजारे अनशन पर अड़े हैं। सरकार उन की ताकत को तौलना चाह रही है। तरह तरह के भय दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे रामकथा का रावण अशोक वाटिका में कैद कर के सीता को दिखाया करता था। लेकिन सीता तिनके की सहायता लेकर उस भय का मुकाबला करती रही जब तक कि राम ने रावण को परास्त नहीं कर दिया। 

रकार के दिखाए सभी भय आज शाम उस वक्त ढह गए जब अन्ना अपने दो साथियों के सामने अचानक राजघाट पर बापू की समाधि के सामने जा कर बैठ गए। तब सामन्य रुप से राजघाट पहुँचने वाले लगभग सौ लोग वहाँ थे। जब खबर मीडिया के माध्यम से फैली तो लोग वहाँ पहुँचने लगे। ढाई घंटे बाद जब अन्ना वहाँ से उठे तो दस हजार से अधिक लोग वहाँ जमा थे। तिनका इतना मजबूत और भय नाशक हो सकता है इस का अनुमान शायद सरकार को नहीं रहा होगा। अन्ना घोषणा कर चुके है कि सुबह अनशन होगा। वैसे भी अनशन को स्थान की कहाँ दरकार है? वह तो मन से होता है, और कहीं भी हो सकता है। अन्ना जानते हैं कि भ्रष्टाचार तभी समाप्त हो सकता है जब वह सारी व्यवस्था बदले,  जिस के लिए भ्रष्टाचार का जीवित रहना आवश्यक है। उन्हों ने आज शाम के संबोधन में उस का फिर उल्लेख किया है और पहले भी करते रहे हैं। व्यवस्था परिवर्तन क्रांति के माध्यम से होता है और क्रान्तियाँ जनता करती है,  नेता, संगठन या फिर राजनैतिक दल नहीं करते। वे सिर्फ क्रान्तियों की बातें करते हैं। जब जनता क्रान्ति पर उतारू होती है तो वह अपना नेता भी चुन लेती है, संगठन भी बना लेती है और अपना राजनैतिक दल भी। जनता क्रान्ति तब करेगी जब उसे करनी होगी। लेकिन क्या तब तक सुधि लोग चुप बैठे रहें। वे जनता की तात्कालिक मांगों के लिए लड़ते हैं। तात्कालिक मांगों के लिए जनता की ये लड़ाइयाँ ही जनता को क्रान्ति के पथ पर आगे बढ़ाती है। 
 
रकार समझती है कि उन का बनाया लोकपाल कानून तात्कालिक जरूरतों को पूरा कर सकता है। सिविल सोसायटी की समझ है कि भ्रष्टाचार इस से रुकने के स्थान पर और बढ़ेगा और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठती आवाजों के गले में पट्टा बांध दिया जाएगा। सरकार कानून बनाने के मार्ग पर बढ़ रही है। लेकिन सिविल सोसायटी अपनी समझ जनता के सामने रख रही है कि केवल वैसा कानून भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब हो सकता है जैसा उस ने प्रस्तावित किया है। सिविल सोसायटी के पास जनता के सामने अपना विचार रखने का जो तरीका हो सकता है वही वह अपना रही है, सरकार अपना तरीका अपना रही है। ये जनता को तय करना है कि वह किस के साथ जाती है। अभी तो लग रहा है कि जनता सिविल सोसायटी के साथ खड़ी हो रही है। अन्ना के अनशन को आरंभ होने में अभी देरी है। लेकिन जनता पहले ही उस जगह पहुँच गई है जहाँ अनशन होना था और दिल्ली सरकार ने गिरफ्तारियाँ आरंभ कर दी हैं। इस रात के बाद होने वाले सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?
 

रविवार, 5 जून 2011

जन नेता अवतार नहीं लेते

ल और आज जो कुछ देश की राजधानी में हुआ वह सब ने देखा-सुना है। उस पर तबसरा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। वैसे भी इन घटनाओं पर मैं ने अपनी राय अपनी पिछली पोस्ट छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है में आप के सामने रखी थी। बाद में खुशदीप भाई ने अपनी राय देशनामा में व्यक्त की थी। वहाँ मैं ने अपनी राय अभिव्यक्त करते हुए अंकित करते हुए लिखा था, बहुतों की निगाह में बाबा भगवान से कम नहीं। आप बेकार ही उन्हें नाराज कर रहे हैं। दो दिन में सच सामने आ जाएगा। आप, हम और डाक्टर अमर कुमार जैसे लोगों फोकट जुगाली कर रहे हैं। उस टिप्पणी के बाद आठ घंटों में ही सारा सच सामने आ गया। 

हाँ तक सरकार के चरित्र का प्रश्न है, उस मामले में मुझे कोई मुगालता नहीं है। यह सरकार और देश की लगभग सभी राज्य सरकारें। बहुराष्ट्रीय निगमों, देशी पूंजीपतियों और देश की बची-खुची सामंती ताकतों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे उन्हीं के हित साधती हैं। जनता से उन का लेना-देना सिर्फ वोट प्राप्त कर के सरकार बनाने और या फिर कानून व्यवस्था तक सीमित है। कानून व्यवस्था भी ऐसी कि उन के इन आकाओं को कोई हानि नहीं पहुँचे। जब भी जनता का गुस्सा उबाल पर होती है और इन तीन आकाओं के हित संकट में होते हैं तो सरकार तानाशाही की ओर कदम उठाने से कभी नहीं हिचकती। उस ने कल और आज जो कुछ किया वह उस के चरित्र के अनुरूप ही था। यह अवश्य कि जो कुछ उसे सफाई के साथ करना चाहिए था वह उस ने बहुत बेतरतीबी के साथ किया। अब जनता यदि गुस्से में आती है और एक संगठित प्रतिरोध निर्मित होता है तो उस का श्रेय किसी विपक्षी नेता या आंदोलनकारी के अपेक्षा सरकार को ही अधिक जाएगा। आखिर उस ने काम ही इतने बेकार तरीके से किया है कि यह सब तो आने वाले दिनों में होना है।  जहाँ तक बाबा और उन के आंदोलन का सवाल है उस पर भाई प्रवीण शाह ने अपनी पोस्ट अनशन पर बाबा, सिस्टम का पलटवार और इस बार तो निराश ही किया योगऋषि ने... (भाग-२) में सटीक  टिप्पणी की है। रही सही कसर मनु श्रीवास्तव ने अपनी पोस्ट राम (देव) लीला !!! में पूरी कर दी है। उस के आगे मुझे कुछ नहीं कहना है। 

मुझे सिर्फ इतना कहना है कि भ्रष्टाचार उक्त तीनों आकाओं की सत्ता के लिए रक्त के समान है यह सत्ता उसी से साँस लेती है। यदि उस का रक्त निचोड़ लिया जाए तो वह एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रह सकती। इसलिए यह समझना कि भ्रष्टाचार लोकपाल कानून लाने से समाप्त हो जाएगा  या फिर सरकार द्वारा कुछ मांगे मान लेने से उस की विदाई निश्चित हो जाएगी बहुत बड़ी नासमझी है। यदि भ्रष्टाचार समाप्त करना है तो उस के लिए समूची व्यवस्था को बदलना होगा। मौजूदा व्यवस्था का स्थान एक नई व्यवस्था ले, तभी यह संभव है। लेकिन जब व्यवस्था बदलती है तो उसे हम क्रांति कहते हैं। इस काम को जनता एक व्यापक और सुसंगठित संगठन के नेतृत्व में ही कर सकती है। इस संगठन का निर्माण भी जनता ही करती है। परिस्थितियाँ ऐसे संगठन को फलने फूलने और आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करती है। वर्तमान में ऐसे व्यापक संगठन का अभाव देश में देखा जा सकता है। हालाँकि बहुत छोटे और स्थानीय स्तर पर ऐसे संगठन देश के सभी भागों में देखे जा सकते हैं। जनता के ऐसे संगठन जिन का संचालन संगठन के सदस्यों द्वारा जनतांत्रिक ढंग से किया जाता है उन का निर्माण आवश्यक है। इस लिए सब से प्राथमिक बात यह है कि हम जहाँ भी रह रहे हैं वहाँ जनता के जनतांत्रिक संगठनों का निर्माण करें, उन्हें पालें पोसें और उन का विस्तार करें। आगे चल कर देश के सैंकड़ों हजारों ऐसे ही जनतांत्रिक संगठन आपस में मिल कर बड़े और व्यापक संगठन का निर्माण कर सकते हैं। ऐसे ही संगठन के नेतृत्व में जनता व्यवस्था परिवर्तन के ऐतिहासिक काम को पूरा करेगी। जहाँ तक नेता का प्रश्न है तो वे अवतार नहीं लेते, उन का निर्माण संघर्ष और जनता की कड़ी अग्निपरीक्षा में तप कर होता है। वे भी जनता के बीच से जनसंघर्षों की आग में तप कर ही जन्म लेंगे।