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गुरुवार, 18 अगस्त 2011

आने वाले दिन बताएंगे, बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं?

खिर सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन ने अपने रंग दिखाने आरंभ किया। जिन की मति मारी गई थी उन के इशारों पर आंदोलन के नेताओं को हिरासत में लेना आरंभ कर दिया। सत्ता की यह वही प्रवृत्ति है जिस के चलते 1975 में आपातकाल लगा था। तब पूरे देश को एक जेल में तब्दील कर दिया गया था। तब भी जनता में विश्वास करने वालों को पूरा विश्वास था कि भारत में जनतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि तानाशाही अधिक दिन नहीं चल सकती। इस बार तो अन्ना को हिरासत में लिए जाने के बाद ही जनता ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया। यह रंग ऐसा चढा़ कि शाम होते होते उन्हें नेताओं को छोड़ने का निर्णय करना पड़ा। 


न्ना ने कोई अपराध तो किया नहीं था। जब वे अपने फ्लेट से निकले तो इमारत से बाहर निकलने के पहले ही उन्हें उठा लिया गया था। पुलिस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि यह कहा जाए कि उन्हें शान्ति भंग की आशंका से गिरफ्तार किया जा रहा है। फिर से अंग्रेजी राज से चले आ रहे एक जन विरोधी कानून का सहारा पुलिस और सरकार ने लिया। जिस का सीधा सीधा अर्थ था कि यदि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाता तो वे कोई ऐसा संज्ञेय अपराध करते जिसे उन की गिरफ्तारी के बिना नहीं रोका जा सकता था। उन्हें फिर मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया। ऐसा मजिस्ट्रेट जो सीधे सरकार का नौकर था, उस ने मान लिया कि यदि अन्ना को छोड़ दिया गया तो वे वे शांति भंग करेंगे या लोक प्रशान्ति को विक्षुब्ध करेंगे और अन्ना से शांति भंग न करने के लिए व्यक्तिगत बंध पत्र भरने पर रिहा किए जाने का हुक्म दिया। इस हुक्म को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था। लोक प्रशान्ति को तो सरकार खुद कब से पलीता लगा चुकी थी। कार्यपालक मजिस्ट्रेट यदि अपने विवेक और न्यायदृष्टि से काम लेता तो उसे पुलिस को आदेश देना चाहिए था कि अन्ना को गलत हिरासत में लिया गया है उन्हें तत्काल स्वतंत्र किया जाए। लेकिन कार्यपालक मजिस्ट्रेटों में इस दृष्टि का होना एक अवगुण माना जाने लगा है। अब तो यह स्थिति यह हो चली है कि न्यायिक मजिस्ट्रेट तक इस स्तर पर अपनी न्यायदृष्टि का प्रयोग नहीं करते। 


लेकिन तब तक लोग सड़कों पर उमड़ने लगे थे। जिस डर से सरकार ने अन्ना और उन के साथियों को गिरफ्तार किया था। वही डर अब कई गुना हो कर सामने आ गया था। शाम तक सरकार को अहसास हो चला था कि वह गलतियों की अपनी श्रंखला में कुछ गलतियाँ और पिरो चुकी है। निवारक कार्रवाई (Preventive action) के जिस खोखले कानूनी तर्क को आधार बना कर ये गिरफ्तारियाँ दिल्ली पुलिस ने की थीं वह खोखला सिद्ध हुआ था। वह आग को रोकने के लिए जिस द्रव का उपयोग  उस ने पानी समझ कर किया था वह पेट्रोल निकला था। शाम को उन्हों ने अन्ना को बिना शर्त छोड़ने की घोषणा की। लेकिन तब तक बंदर की पूँछ अन्ना के हाथ आ चुकी थी और वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं थे। अन्ना तो अनशन के लिए निकल चुके थे। सरकार ने इस के लिए उन्हें जेल में स्थान दिया। उन्हें स्थान मिले तो वे बाहर निकलें। उन्हें बाहर निकाला जाए तो कैसे बाहर मार्ग कहाँ था। वहाँ तो पहले ही कितने ही अन्ना ही जुट चुके थे। 


रात निकली, एक नया सूर्योदय हुआ, एक नया दिन आरंभ हो गया। जैसे जैसे सूरज चढ़ता गया लोग घरों से निकल कर सड़कों पर आते रहे। ऐसा लगने लगा जैसे सारी दिल्ली सड़कों पर उतर आई है। यह आलम केवल दिल्ली का नहीं था। सारा देश जाग उठा था। सरकार और संसद के व्यवसनी संसद के अधिकारों और गरिमा की दुहाई देते फिर रहे हैं। लेकिन अधिकार तो हमेशा कर्तव्यों के साथ जुड़े हैं। संसद के पास लोकपाल के लिए संसद अपना कर्तव्य निभाने से रोकने के लिए कोई सफाई नहीं है। सवाल खड़ा किया जा रहा है कि सिविल सोसायटी का नाम लेकर कुछ हजार लोगों को साथ लिए कोई आएगा और ससंद को कहेगा कि हम जैसा कहते हैं वैसा कानून बनाओ तो क्या संसद बना देगी? संसद को इस काम के लिए चार दशक जनता ने दिए। संसद स्लेट पर अक्षर तक नहीं बना सकी, वह सिर्फ आड़ी तिरछी लकीरें खींच कर मिटाती रही। अब बिगड़ैल बच्चे का हाथ पकड़ कर उस की माँ उसे सिखा रही है कि अनार वाला 'अ' ऐसे लिखा जाता है तो बिगड़ैल बच्चा कह रहा है। मैं 'अ' नहीं बनाता, मुझे तो लकीरें ही खींचनी हैं। आने वाले दिन बताएंगे कि बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं? 


सोमवार, 15 अगस्त 2011

सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?

मैं सैडल डेम की पिकनिक के बारे में आप को बता रहा था। लेकिन वे बातें फिर कभी। आज मैं उन्हें रोक कर  कुछ अलग बात करना चाहता हूँ। आज भारत की अंग्रेजी राज से मुक्ति का दिवस था। हम इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस और आजादी शब्द बहुत अमूर्त हैं। इस जगत में कोई भी कभी भी परम स्वतंत्र या आजाद नहीं हो सकता। जगत का निर्माण करने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म कण से लेकर बड़े से बड़ा पिंड तक स्वतंत्र नहीं हो सकता। विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि भौतिक जगत में भी अनेक प्रकार के बल प्राकृतिक रूप से अस्तित्व में हैं कि परम स्वतंत्रता एक खामखयाली ही कही जा सकती है। इसलिए जब भी हम स्वतंत्रता और आजादी की बात करते हैं तो वह किसी न किसी विषय से संबंधित होती है। यहाँ हमारा आजादी का दिन या स्वतंत्रता दिवस जिसे भारत भर ने आज 15 अगस्त को मनाया उसे हमें सिर्फ ब्रिटिश राज्य की अधीनता से स्वतंत्र होने के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है। अन्य संदर्भों में उस का कोई अर्थ नहीं है। 

लेकिन जब भारत अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था तब संघर्षरत लोग केवल अंग्रेजी राज से ही मुक्ति की कामना से आपस में नहीं जुड़े थे। उन में सामन्ती शोषण से मुक्ति, पूंजीवाद के निर्मम शोषण से मुक्ति, जातिवाद के जंजाल से मुक्ति के साथ साथ अशिक्षा, गरीबी, बदहाली से मुक्ति की कामना करने वाले लोग भी शामिल थे। उस में वे लोग भी शामिल थे जो अपना सामन्ती ठाठ बचाए रखना चाहते थे और वे लोग भी शामिल थे जो पूंजी के बल पर देश में सर्वोच्च प्रभुत्व कायम करना चाहते थे। इन विभिन्न इरादों के बावजूद सब का तात्कालिक लक्ष्य अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त करना था। उन में अन्तर्विरोध होते हुए भी वे साथ चले। अलग अलग चले तब भी एक दूसरे को सहयोग करते हुए चले। अंततः देश ने अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त कर ली। अंग्रेजी राज से मिली इस आजादी के तुरंत बाद ही अलग अलग उद्देश्यों वाले लोग अलग होने लगे। इस आजादी का बड़ा हिस्सा फिर से देश की सामंती ताकतों और पूंजीपतियों ने हथिया लिया। शेष जनता को आजादी के बाद से अब तक मात्र उतना ही मिला जो उस ने आजाद देश की सरकार से लड़कर लिया।

किसानों को जमींदारी शोषण से मुक्ति के लिए लड़ना पड़ा। जमीन जोतने वाले की हो यह आज भी सपना ही है। मजदूरों ने जितने अधिकार हासिल किए सब लड़ कर हासिल किए। मजदूरों के हक में कानून बने लेकिन उन्हें लागू कराने के लिए आज तक मजदूरों को लड़ना पड़ रहा है। कोई पूंजीपति, यहाँ तक कि जनता की चुनी हुई संस्थाएँ और सरकारें तक उन कानूनों का पालन नहीं करती हैं। भारत की केन्द्र सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार कानून के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी तय करती है लेकिन वह मजदूरों को केवल वहीं मिलती है जहाँ उस से कम मजदूरी पर मजदूर नहीं मिलता। शेष स्थानों पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मांगने और सरकारी महकमे में शिकायत करने पर काम से हटा दिया जाता है। सरकारी महकमा उस मजदूर के हकों की रक्षा करने की न तो इच्छा रखता है और न ही उसे इतने अधिकार दिए गए हैं कि वह मजदूर को तुरंत या कुछ दिनों या महिनों में सुरक्षा प्रदान कर सके। कुल मिला कर कानून बने पड़े हैं। लेकिन उन्हीं कानूनों का पालना सरकार करवाती है जिन की पालना करने के लिए मजबूत लोग सामने आते हैं। आज भी इस देश में मजबूत लोग केवल भू-स्वामी, पूंजीपति, गुंडे, बाहुबली, संगठित अपराधी और उन की सेवा में नख से शिखा तक लिप्त राजनेता और अफसर ही हैं। सारे कानून उन्हीं के लिए बनते हैं। जो कानून मजदूरों और किसानों के नाम से बनते हैं उन की धार भी इन मजबूत लोगों के ही हक में ही चलती है। 
 
दाहरण के बतौर हम ठेकेदार मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 को देखें तो नाम से लगेगा कि यह ठेकेदार मजदूरी का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया कानून है। लेकिन व्यवहार में देखें तो पता लगेगा कि यह कानून ठेकेदार मजदूरी की प्रथा को बचाने और उसे मजबूत बनाने का काम कर रहा है। अब तो इस की आड़ ले कर नियमित सरकारी कर्मचारियों से लिए जाने वाले काम इसी प्रथा के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी की दर पर ठेकेदार को दे कर करवाए जा रहे हैं। सरकारी काम पर लगे इन ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कभी नहीं मिलती। जितने मजदूर लगाने के लिए ठेका दिया जाता है उतने मजदूर काम पर लगाए भी नहीं जाते। यह सब चल रहा है। इसे चलाने वाली शक्ति का नाम भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार में लिप्त वही मजबूत लोग हैं जिन का उल्लेख मैं ऊपर कर आया हूँ।

भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कानून बनाने की बात चल रही है। जनता की ओर से सिविल सोसायटी सामने आ कर खड़ी हुई तो जनता ने उस का समर्थन किया। बवाल बढ़ा तो सरकार समझ गई कि अब कानून बनाना पड़ेगा। सरकार ने हाँ कर दी। सिविल सोसायटी ने अपना विधेयक बताया तो सरकार अड़ गई कि ये नहीं हो सकता विधेयक बनाने का काम सरकार का है उसे कानून में तब्दील करने का काम संसद का है। आप सिर्फ सलाह दे सकते हैं। सिविल सोसायटी ने सरकारी विधेयक को देखा और कहा कि यह भ्रष्टाचार मिटाने का नहीं उसे और मजबूत करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले का मुहँ बन्द करने का काम करेगा। सिविल सोसायटी आंदोलन पर अड़ गई और सरकार उसे रोकने पर अड़ गई। आज का आजादी का दिवस इसी माहौल में मनाया गया। पहले राष्ट्रपति ने भ्रष्टाचार को कैंसर घोषित कर दिया, उन का आशय था कि वह ठीक न होने वाली बीमारी है। फिर सुबह प्रधानमंत्री बोले कि सरकार इस कैंसर से लड़ने को कटिबद्ध है। सिविल सोसायटी के नेता अन्ना हजारे अनशन पर अड़े हैं। सरकार उन की ताकत को तौलना चाह रही है। तरह तरह के भय दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे रामकथा का रावण अशोक वाटिका में कैद कर के सीता को दिखाया करता था। लेकिन सीता तिनके की सहायता लेकर उस भय का मुकाबला करती रही जब तक कि राम ने रावण को परास्त नहीं कर दिया। 

रकार के दिखाए सभी भय आज शाम उस वक्त ढह गए जब अन्ना अपने दो साथियों के सामने अचानक राजघाट पर बापू की समाधि के सामने जा कर बैठ गए। तब सामन्य रुप से राजघाट पहुँचने वाले लगभग सौ लोग वहाँ थे। जब खबर मीडिया के माध्यम से फैली तो लोग वहाँ पहुँचने लगे। ढाई घंटे बाद जब अन्ना वहाँ से उठे तो दस हजार से अधिक लोग वहाँ जमा थे। तिनका इतना मजबूत और भय नाशक हो सकता है इस का अनुमान शायद सरकार को नहीं रहा होगा। अन्ना घोषणा कर चुके है कि सुबह अनशन होगा। वैसे भी अनशन को स्थान की कहाँ दरकार है? वह तो मन से होता है, और कहीं भी हो सकता है। अन्ना जानते हैं कि भ्रष्टाचार तभी समाप्त हो सकता है जब वह सारी व्यवस्था बदले,  जिस के लिए भ्रष्टाचार का जीवित रहना आवश्यक है। उन्हों ने आज शाम के संबोधन में उस का फिर उल्लेख किया है और पहले भी करते रहे हैं। व्यवस्था परिवर्तन क्रांति के माध्यम से होता है और क्रान्तियाँ जनता करती है,  नेता, संगठन या फिर राजनैतिक दल नहीं करते। वे सिर्फ क्रान्तियों की बातें करते हैं। जब जनता क्रान्ति पर उतारू होती है तो वह अपना नेता भी चुन लेती है, संगठन भी बना लेती है और अपना राजनैतिक दल भी। जनता क्रान्ति तब करेगी जब उसे करनी होगी। लेकिन क्या तब तक सुधि लोग चुप बैठे रहें। वे जनता की तात्कालिक मांगों के लिए लड़ते हैं। तात्कालिक मांगों के लिए जनता की ये लड़ाइयाँ ही जनता को क्रान्ति के पथ पर आगे बढ़ाती है। 
 
रकार समझती है कि उन का बनाया लोकपाल कानून तात्कालिक जरूरतों को पूरा कर सकता है। सिविल सोसायटी की समझ है कि भ्रष्टाचार इस से रुकने के स्थान पर और बढ़ेगा और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठती आवाजों के गले में पट्टा बांध दिया जाएगा। सरकार कानून बनाने के मार्ग पर बढ़ रही है। लेकिन सिविल सोसायटी अपनी समझ जनता के सामने रख रही है कि केवल वैसा कानून भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब हो सकता है जैसा उस ने प्रस्तावित किया है। सिविल सोसायटी के पास जनता के सामने अपना विचार रखने का जो तरीका हो सकता है वही वह अपना रही है, सरकार अपना तरीका अपना रही है। ये जनता को तय करना है कि वह किस के साथ जाती है। अभी तो लग रहा है कि जनता सिविल सोसायटी के साथ खड़ी हो रही है। अन्ना के अनशन को आरंभ होने में अभी देरी है। लेकिन जनता पहले ही उस जगह पहुँच गई है जहाँ अनशन होना था और दिल्ली सरकार ने गिरफ्तारियाँ आरंभ कर दी हैं। इस रात के बाद होने वाले सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?
 

रविवार, 5 जून 2011

जन नेता अवतार नहीं लेते

ल और आज जो कुछ देश की राजधानी में हुआ वह सब ने देखा-सुना है। उस पर तबसरा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। वैसे भी इन घटनाओं पर मैं ने अपनी राय अपनी पिछली पोस्ट छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है में आप के सामने रखी थी। बाद में खुशदीप भाई ने अपनी राय देशनामा में व्यक्त की थी। वहाँ मैं ने अपनी राय अभिव्यक्त करते हुए अंकित करते हुए लिखा था, बहुतों की निगाह में बाबा भगवान से कम नहीं। आप बेकार ही उन्हें नाराज कर रहे हैं। दो दिन में सच सामने आ जाएगा। आप, हम और डाक्टर अमर कुमार जैसे लोगों फोकट जुगाली कर रहे हैं। उस टिप्पणी के बाद आठ घंटों में ही सारा सच सामने आ गया। 

हाँ तक सरकार के चरित्र का प्रश्न है, उस मामले में मुझे कोई मुगालता नहीं है। यह सरकार और देश की लगभग सभी राज्य सरकारें। बहुराष्ट्रीय निगमों, देशी पूंजीपतियों और देश की बची-खुची सामंती ताकतों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे उन्हीं के हित साधती हैं। जनता से उन का लेना-देना सिर्फ वोट प्राप्त कर के सरकार बनाने और या फिर कानून व्यवस्था तक सीमित है। कानून व्यवस्था भी ऐसी कि उन के इन आकाओं को कोई हानि नहीं पहुँचे। जब भी जनता का गुस्सा उबाल पर होती है और इन तीन आकाओं के हित संकट में होते हैं तो सरकार तानाशाही की ओर कदम उठाने से कभी नहीं हिचकती। उस ने कल और आज जो कुछ किया वह उस के चरित्र के अनुरूप ही था। यह अवश्य कि जो कुछ उसे सफाई के साथ करना चाहिए था वह उस ने बहुत बेतरतीबी के साथ किया। अब जनता यदि गुस्से में आती है और एक संगठित प्रतिरोध निर्मित होता है तो उस का श्रेय किसी विपक्षी नेता या आंदोलनकारी के अपेक्षा सरकार को ही अधिक जाएगा। आखिर उस ने काम ही इतने बेकार तरीके से किया है कि यह सब तो आने वाले दिनों में होना है।  जहाँ तक बाबा और उन के आंदोलन का सवाल है उस पर भाई प्रवीण शाह ने अपनी पोस्ट अनशन पर बाबा, सिस्टम का पलटवार और इस बार तो निराश ही किया योगऋषि ने... (भाग-२) में सटीक  टिप्पणी की है। रही सही कसर मनु श्रीवास्तव ने अपनी पोस्ट राम (देव) लीला !!! में पूरी कर दी है। उस के आगे मुझे कुछ नहीं कहना है। 

मुझे सिर्फ इतना कहना है कि भ्रष्टाचार उक्त तीनों आकाओं की सत्ता के लिए रक्त के समान है यह सत्ता उसी से साँस लेती है। यदि उस का रक्त निचोड़ लिया जाए तो वह एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रह सकती। इसलिए यह समझना कि भ्रष्टाचार लोकपाल कानून लाने से समाप्त हो जाएगा  या फिर सरकार द्वारा कुछ मांगे मान लेने से उस की विदाई निश्चित हो जाएगी बहुत बड़ी नासमझी है। यदि भ्रष्टाचार समाप्त करना है तो उस के लिए समूची व्यवस्था को बदलना होगा। मौजूदा व्यवस्था का स्थान एक नई व्यवस्था ले, तभी यह संभव है। लेकिन जब व्यवस्था बदलती है तो उसे हम क्रांति कहते हैं। इस काम को जनता एक व्यापक और सुसंगठित संगठन के नेतृत्व में ही कर सकती है। इस संगठन का निर्माण भी जनता ही करती है। परिस्थितियाँ ऐसे संगठन को फलने फूलने और आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करती है। वर्तमान में ऐसे व्यापक संगठन का अभाव देश में देखा जा सकता है। हालाँकि बहुत छोटे और स्थानीय स्तर पर ऐसे संगठन देश के सभी भागों में देखे जा सकते हैं। जनता के ऐसे संगठन जिन का संचालन संगठन के सदस्यों द्वारा जनतांत्रिक ढंग से किया जाता है उन का निर्माण आवश्यक है। इस लिए सब से प्राथमिक बात यह है कि हम जहाँ भी रह रहे हैं वहाँ जनता के जनतांत्रिक संगठनों का निर्माण करें, उन्हें पालें पोसें और उन का विस्तार करें। आगे चल कर देश के सैंकड़ों हजारों ऐसे ही जनतांत्रिक संगठन आपस में मिल कर बड़े और व्यापक संगठन का निर्माण कर सकते हैं। ऐसे ही संगठन के नेतृत्व में जनता व्यवस्था परिवर्तन के ऐतिहासिक काम को पूरा करेगी। जहाँ तक नेता का प्रश्न है तो वे अवतार नहीं लेते, उन का निर्माण संघर्ष और जनता की कड़ी अग्निपरीक्षा में तप कर होता है। वे भी जनता के बीच से जनसंघर्षों की आग में तप कर ही जन्म लेंगे। 

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

दिनकर जी के परिवार के साथ न्याय कैसे हो?

दो दिनों से व्यस्तता रही। शनिवार को मकान की छत का कंक्रीट डलता रहा, वहाँ दो बार देखने जाना पड़ा। रविवार सुबह एक वैवाहिक समारोह में और दोपहर बाद एक साहित्यिक स्मृति और सम्मान समारोह में बीता। रात नौ बजे ही घर पहुँच सका। घर पहुँच कर खबरें देखीं तो एक खबर यह भी मिली कि पटना में दिनकर जी की  वृद्ध पुत्र-वधु हेमन्त देवी का किराएदार लीज अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी दुकान खाली नहीं कर रहा है और उपमुख्यमंत्री का रिश्तेदार होने के कारण वह उन्हें धमकियाँ दे रहा है। 
ह समाचार भारतवर्ष की कानून और व्यवस्था की दुर्दशा की कहानी कहता है। हेमन्त देवी का कहना है कि वे मुख्यमंत्री तक से मिल चुकी हैं लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। मुख्यमंत्री क्या करें? वे एक व्यक्ति, जो कानूनी रूप से किसी संपत्ति के कब्जे में आया था, जिस का कब्जा अब लीज अवधि समाप्त होने के बाद  अवैध हो गया है और जो अतिक्रमी हो गया है, से मकान कैसे खाली करवा सकते हैं? यह मामला तो अदालत का है। महेश मोदी यदि दुकान खाली नहीं करता है और अगर यह मामला किराएदारी अधिनियम की जद में आता है तो उस के अंतर्गत मकान खाली करने का दावा करना पड़ेगा, और अगर लीज से संबंधित कानून के अंतर्गत यह मामला आता है तो कब्जे के लिए दावा करना पड़ेगा। हमारे अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है। राज्य सरकारें इस काम में बरसों से लापरवाही कर रही हैं। पूरे देश में जरूरत की केवल 20 प्रतिशत अदालतें हैं जिस के कारण एक मुकदमा एक-दो वर्ष के स्थान पर 20-20 वर्ष तक भी निर्णीत नहीं होता। जो कानून और अदालतें सब के लिए हैं, वे ही दिनकर जी के परिजनों के लिए भी हैं। इस कारण उन्हें भी इतना ही समय लगेगा। सरकार या कोई और ऐजेंसी इस मामले में कोई दखलंदाजी करती है या ऐसा करने का अंदेशा हो तो महेश मोदी खुद न्यायालय के समक्ष जा कर यह व्यादेश ला सकता है कि दुकान पर उस का कब्जा सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से न हटाए।
क मार्ग यह दिखाई देता है कि इस मामले में राज्य सरकार कोई अध्यादेश जारी करे, या फिर कानून बनाए जो संभव नहीं। एक मार्ग यह भी दिखाई देता है कि यदि राज्य में वरिष्ठ नागरिकों को उन के मकान का कब्जा दिलाने मामले में कोई विशिष्ठ कानून हो तो उस के अंतर्गत तीव्रता से अदालती कार्यवाही हो, अथवा अदालत हेमंत देवी को वरिष्ठ नागरिक मान कर त्वरित गति से मामले में फैसला सुनाए और यही त्वरण अपीलीय अदालतों में भी बना रहे। तब यह प्रश्न भी उठेगा कि हेमंत देवी के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह देश के सभी नागरिकों के लिए क्यों न किया जाए? वस्तुतः पिछले तीस वर्षों में जो भी केंद्र और राज्य सरकारें शासन में रहीं, उन्हों ने न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्हों ने उसे अपना कर्तव्य ही नहीं समझा।
पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बहुत बदली हैं। इस अतिविलंबित न्याय व्यवस्था ने समाज के ढाँचे को बदला है। अब हर अवैध काम करने वाला व्यक्ति धमकी भरे स्वरों में कहता है तु्म्हें जो करना हो कर लो। वह जानता है कि अदालत में जूतियाँ घिस जाती हैं बीसियों साल तक अंजाम नहीं मिलता। जिस के पास लाठी है वही भैंस हाँक ले जा रहा है, भैंस का मालिक अदालत में जूतियाँ तोड़ रहा है। ये पाँच-पाँच बरसों के शासक, इन की दृष्टि संभवतः इस अवधि से परे नहीं देख पाती। यह निकटदृष्टि राजनीति लगातार लोगों में शासन सत्ता के प्रति नित नए आक्रोश को जन्म देती है और परवान चढ़ाती है। पाँच बरस के राजा नहीं जानते कि  यह आक्रोश विद्रोह का जन्मदाता है ऐसे विद्रोहों का जिन्हें दबाया नहीं जा सकता।

रविवार, 2 जनवरी 2011

एक दिन हम इन सारी बाधाओं को हटा डालेंगे

ल हम ने बांग्ला साहित्य के शिखर पुरुष गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर और आधुनिक हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग के मौलिक निबंधकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के कुछ उद्धरण स्मरण किये थे। द्विवेदी जी का कहना था "हम ऊपर से कितने ही खंड रूप और ससीम क्यों न हों, भीतर से निखिल जगत के साथ 'एक' हैं। साहित्य हमें प्राणीमात्र के साथ एक प्रकार की आत्मीयता का अनुभव कराता है। वस्तुतः हम अपनी उसी 'एकता' का अनुभव करते हैं।" 
गुरुदेव इस एकता में द्वैत के दर्शन भी कराते हैं, वे कहते हैं  "लोभ के इस संकीर्ण ऐक्य के साथ सृष्टि के ऐक्य का, रस-साहित्य, और ललित कला के ऐक्य का संपूर्ण प्रभेद है। निखिल को छिन्न करने से लोभ होता है और निखिल को एक करने से रस होता है। लखपति महाजन रुपए की थैली ले कर 'भेद' की घोषणा करता है, गुलाब 'निखिल' का दूत है, वह 'एक' की वार्ता को ले कर फूटता है। जो 'एक' असीम है, वही गुलाब के नन्हे हृदय को परिपूर्ण कर के विराजता है।"
म इस द्वैत का अनुभव हमारे जीवन में पग-पग पर करते हैं। हम पहले मनुष्य को ही खाँचों में बाँट देते हैं। वह अमरीकी है, यह जर्मन है, कोई अंग्रेज तो कोई जापानी, वह पाकिस्तानी है तो मैं भारतीय हूँ। हम भारतीय तक भी आ कर नहीं रुकते। मैं हिन्दू हूँ तो वह मुसलमान है और वह ईसाई। हिन्दुओं में भी सिक्ख अलग हैं और जैन अलग। हमारे इस पावन भारतवर्ष में पवित्रता और अपवित्रता का खास ध्यान भी रखा जाता है, वह अवर्ण है, क्यों कि वह अपवित्र काम करता है। मैं सवर्ण हूँ, क्यों कि मैं पवित्र काम करता हूँ। फिर सवर्णों में भी ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य हैं। महानगरों में यह पहचान धूमिल हुई है तो वहाँ धनसंग्रह ने वह काम कर दिखाया है। जिन लोगों के पास अकूत धनराशि है तो उन्हों ने अधिकांश साधनों पर अधिकार कर लिया है और वे अब काम नहीं करते सिर्फ कराते हैं। काम करने वाले और काम कराने वाले का प्रभेद दिखने लगा है। जो श्रम कर रहा है वह निम्न कोटि का है और जो श्रम खरीद रहा है वह श्रेष्ठ है। जिधर भी हम देखते हैं उधर द्वैत है। कहीं तो एक्य नहीं है। 
विज्ञान भी ऐसा ही कुछ दिखा रहा है। पहले सोचते थे अणु ही सब से छोटा कण है, फिर हमें परमाणु का पता लगा। फिर परमाणु में हमें इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रोन दिखाई देने लगे। एक को खोदा तो तीन निकल आए। फिर पता लगा कि प्रोटोन और न्यूट्रोन भी ऋणात्मक और धनात्मक प्रकार के समान संहति वाले कणों से बने हैं जिन्हें क्वार्क के नाम से जाना गया। वहाँ अभी आगे खोज जारी है। लेकिन यह खोज उस तरफ बढ़ रही है जिस के संकेत कहते हैं कि ऊर्जा और पदार्थ दोनों एक ही प्रकार के कणों या तरंगों से बने हैं। इस तरह विज्ञान संकेत दे रहा है कि आखिर एक ही वस्तु है जिस से निखिल विश्व निर्मित है। वह भी हमें इस असीम एक की और ले जा रहा है। 
मैं निखिल विश्व की उस असीम एकता का अनुभव कर के, आनंद से अभिभूत हो उठता हूँ। खो जाता हूँ, अपने आप में। मेरा अपना आप इतना विस्तार पा गया है कि मैं ब्रह्म हो उठा हूँ। मैं असीम हो चला हूँ। जो कुछ है सब मुझ में ही समाहित है। सभी कुछ मैं ही हूँ, सब मेरे ही अंग हैं। मुझ से परे कोई नहीं। काशी के घाट पर गंगास्नान करता हूँ और गीले वस्त्रों से ही चल पड़ता हूँ, विश्वनाथ के दर्शनों के लिए। राह में कोई छू देता है। देखता हूँ वह मेहतर है, सफाई करने का झाड़ू उठाए हुए। मेरा स्वप्न टूट जाता है। विश्व के प्रभेद सामने आ खड़े होते हैं। मुझे छू देने की हरकत के लिए मैं उसे डाँटता हूँ, उस ने कोई अपराध कर दिया  है, वह अपराधी है, मुझे अवसर मिले तो मैं उसे निश्चित ही कठोर दंड दूँ।
साहित्य  हमें इस एक्य की और ले जाता है, लेकिन बहुत सी चीजें हैं जो हमें पकड़ कर वापस द्वैत में ले आती हैं जैसे मेरे मन में पैठा हुआ छूत-अछूत का विचार। क्यों नहीं मैं उस विचार को अपने भीतर से निकाल फैंकता। पर भीतर से निकाल कर फैंकने से क्या होगा? समाज में तो ये प्रभेद भरे पड़े हैं, वह गुलाब नहीं है, वह कोई बदबूदार चीज बन गई है। मैं उसी का एक अंग बना हुआ हूँ। जैसी बदबू मैं महसूस कर रहा हूँ, वैसी ही बदबू मुझे मेरे अंदर से आने लगती है। मैं अपनी ही नाक बंद कर लेता हूँ। लेकिन कब तक नाक को बंद रख सकता हूँ। ऐसे तो श्वास ही बंद हो लेगी। फिर प्राणवायु कहाँ से मिलेगी? मैं जीवित कैसे रह पाउंगा? मैं नाक को खोल देता हूँ। बदबू का एक असहनीय भभका नाक के अंदर घुस पड़ता है। यह कैसी अवस्था है? एक ओर खाई तो दूसरी ओर कुआँ है। जीना दूभर है, कभी भी प्राण जा सकते हैं। अब तो कुछ करना ही होगा। 
मैं उन प्रभेदों को नष्ट करने का मार्ग तलाशने लगता हूँ। जात-पाँत तोड़ डालना चाहता हूँ, धर्मों की दीवारें समाप्त कर देना चाहता हूँ, मैं मालिक मजदूर का भेद समाप्त कर देना चाहता हूँ। क्यों रहें ये वर्ग? क्यों नहीं हो सकता मनुष्य एक? हो सकता है, अवश्य हो सकता है। सभी प्रकृति हैं, उसी से बने हैं, उन्हें तो एक होना ही है। हम बाधा बनेंगे तो देरी से होगा।  हम बाधाओं को हटाएंगे तो शीघ्रता से। मैं निकल पड़ता हूँ, उन बाधाओं को हटाने के लिए। बहुत से साथी मिलते हैं जो पहले से इन बाधाओं को हटाने में लगे हैं। कुछ इन बाधाओं को हटाते हटाते सदैव के लिए छोड़ चले जाते हैं। उन से कुछ अधिक नए साथ हो लेते हैं। पहले काफिला बना था। अब तो अनेक काफिले दिखाई देते हैं। हमें विश्वास है, एक दिन हम इन सारी बाधाओं को हटा डालेंगे। एक्य को प्राप्त कर लेंगे। 
आप क्या करना चाहते हैं? आ रहे हैं हमारे साथ एक्य के मार्ग की बाधाएँ हटाने, या बने रहना चाहते हैं, बाधा ही?

सोमवार, 15 नवंबर 2010

जोधपुर में लाल सैलाब

भारत की समृद्धि लगातार बढ़ रही है, हमारे पूंजीपति दुनिया भर के पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। हो सकता है कुछ बरस बाद सुनने को मिले कि दुनिया के सब से अमीर सौ व्यक्तियों में चौथाई भारतीय हैं। हम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर हमारे गरीब भी दुनिया भर के गरीबों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। अमीरी और गरीबी की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। यही भारतीय व्यवस्था का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। भारत की मुख्य धारा की राजनीति इस अंतर्विरोध की उपेक्षा करती रही है और लगातार कर रही है। यह अंतर्विरोध लगातार कम होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। इस अंतर्विरोध को हल करने वाली राजनीति की आवश्यकता लगातार बढ़ती जा रही है।  आम जनता जानती है कि देश में जितना भ्रष्टाचार है वह पूंजीपतियों का फैलाया हुआ है, उस के बिना पूंजीवाद एक कदम आगे नहीं चल सकता, उस के बिना लूट को जारी रख सकना कठिन है, लेकिन उस का इलाज भी किसी के पास नहीं है। आम लोग जानते हैं कि जिस रोग ने देश को ग्रस्त किया हुआ है वह व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। पूंजीवादी राजनैतिक दलों का देश की परिस्थितियों के बारे में मूल्यांकन सतही है, और वह फटे टाट को पैबंद लगा कर चलाते रहने की चिकित्सा ही प्रस्तुत करते हैं। 
दूसरी और वाम और साम्यवादी दल हैं जिन में देश की परिस्थितियों, राजनैतिक शक्तियों के मूल्यांकन पर राय में विभिन्नता है और उसी के अनुरूप उन के राजनैतिक कार्यक्रम भिन्न हैं। लेकिन उन में एक समानता है कि वे देश के इस अंतर्विरोध को आमूल-चूल परिवर्तन के माध्यम से हल करना चाहते हैं। इस के लिए लगातार विचार-विमर्श करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अर्थात क्रांति का जनता करती है, कोई राजनैतिक दल नहीं। लेकिन राजनैतिक दलों का काम जनता को संगठित करने और उसे शिक्षित करने का अवश्य है। जब क्रांति नजदीक नहीं होती और उस के लिए किए जा रहे प्रयास परवान चढ़ते नजर नहीं आते तो क्रांतिकारी राजनैतिक शक्तियों में मतभेद होते हैं और अनेक समूह बनते दिखाई देते हैं। इस से ऐसा लगने लगता है कि जब क्रांतिकारी शक्तियाँ ही विभाजित हैं तो क्रांति की बात करना बेमानी है, शायद जनता बेड़ियों में जकड़े रहने को अभिशप्त है। लेकिन ऐसा नहीं है। 
जैसे जैसे मूल अंतर्विरोध तीव्र होता जाता है और क्रांति के लिए परिस्थितियाँ पकने लगती हैं, वैसे ही इन क्रांतिकामी शक्तियाँ एक होने लगती हैं, उन की शक्ति बढ़ने लगती है। ऐसा ही एक अवसर इन दिनों भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) एमसीपीआई (यू) की दूसरी काँग्रेस में पिछले चार दिनों में देखने को मिला। सीपीआईएम नेतृत्व के गैर जनवादी रैवेये के कारण उस से अलग हुए अथवा अंदरूनी संघर्ष के कारण वहाँ से निकाले गए जुझारू लोगों ने एमसीपीआई का गठन किया था। अपने गठन के साथ ही यह पार्टी एक ऐसी शक्ति बन गई थी जो लगातार जनता के बीच काम करते हुए समान विचारधारा वाले गुटों और पार्टियों के साथ विमर्श करती है और क्रांतिकामी शक्तियों के एकीकरण के काम में जुटी है। शिवराम इसी दल के पॉलिट ब्यूरो सदस्य थे। मुझे भी पार्टी काँग्रेस में सम्मिलित होना था। लेकिन व्यक्तिगत व्यस्तताओं के कारण में इस में शिरकत नहीं कर सका। लेकिन मुझे भी कुछ घंटों के लिए पार्टी काँग्रेस के निकट रहने का सौभाग्य मिल ही गया।
निवार को काँग्रेस का प्रातः कालीन सत्र समाप्त होने के उपरांत रैली और सभा का आयोजन था। मैं ने इस रैली में शिरकत की। जैसे ही रैली स्थल पर पहुँचा देखा कि लाल रंग का सैलाब आया हुआ है। जिधर देखता था उधर लाल कैप पहने लाल झंडे हाथों में थामे पार्टी सदस्य  दिखाई देते थे। रैली आरंभ हुई रैली में विभिन्न प्रांतों से आए कार्यकर्ता सम्मिलित थे और ढोल बजाते, नृत्य करते, नारों से जोधपुर नगर को गुंजाते चल रहे थे। सब से आगे एक झाँकी थी जिस में एक व्यक्ति साम्राज्यवाद का प्रतीक था जो रस्सियों से जकड़ा हुआ था जिन के दूसरे सिरे कुछ लोगों के हाथों में थे जो कि स्वयं मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों के प्रतीक थे। साम्राज्यवाद हर किसी को खाना चाहता था, लेकिन ये श्रमजीवी शक्तियाँ उसे ऐसा करने से रोक रही थीं। इस झाँकी को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ तक कि रैली के साथ और पूरे शहर में तैनात पुलिस कर्मी उस झाँकी और कार्यकर्ताओं के उल्लास भरे नृत्य को देख कर आनंदित थे। वे जानते थे कि इस अनुशासित कार्यकर्ता समूह की रैली की व्यवस्था के लिए उन्हें किसी तरह के श्रम और तनाव की आवश्यकता नहीं है। रैली का जोधपुर नगर के लोगों ने स्थान-स्थान पर स्वागत किया, नेताओं को जोधपुरी साफे और पुष्प मालाएँ पहना कर उन का सम्मान किया। जोधपुर की श्रमजीवी जनता की कामना थी कि यह ताकत यूँ ही तेजी से बढ़ती रहे और अपना लक्ष्य प्राप्त करे। 
समाचार पत्रों में इस रैली के समाचार इस तरह थे.... 


गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

शिवराम ..... दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की मशाल


प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी शिवराम का अचानक चले जाना
नहीं बुझेगी दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की वह मशाल 
        
                                                                          -महेन्द्र नेह 
 सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, साहित्यकार और मार्क्सवादी विचारक शिवराम इसी एक अक्टूबर को हृदयगति रूक जाने से अचानक ही हमारे बीच से चले गये।  जीवन के अंतिम क्षण तक वे जितनी अधिक सक्रियता से काम कर रहे थे, उसे देख कर किसी तौर पर भी यह कल्पना नहीं की जा सकती थी, कि वे इस तरह चुपचाप हमारे बीच से चले जायेंगे। देश भर में फैले उनके मित्र, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनैतिक आंदोलनों में जुटे उनके सहकर्मी, उनके साहित्य के पाठकों के लिए शिवराम के निधन की सूचना अकल्पनीय और अविश्वसनीय थी।  जिसने भी सुना स्तब्ध रह गया।  उनके निधन के बाद समूचे देश में, विशेष तौर पर जन प्रतिबद्ध और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के उद्देश्यों में शामिल संस्थाओं द्वारा शोक-सभाओं एवं श्रद्धांजलि सभाओं का सिलसिला जारी है।
३ दिसम्बर, १९४९ को राजस्थान के करौली नगर के निकट गढ़ी बांदुवा गॉंव में जन्मे शिवराम ने अपने इकसठ वर्षीय जीवन में साहित्य, संस्कृति, वामपंथी राजनीति, सर्वहारा-वर्ग एवं बौद्धिक समुदाय के बीच जिस सक्रियता, विवेकशीलता और तर्क-संगत आवेग के साथ काम किया है, उसका मूल्यांकन आने वाले समय में हो सकेगा। लेकिन जिन्होनें उनके साथ किसी भी क्षेत्र में कुछ समय तक काम किया है, या उनके लेखन और सामाजिक सक्रियता के साक्षी रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि शिवराम बेहद सहज और सामान्य दिखते हुए भी एक असाधारण इन्सान और युग-प्रवर्तक सृजनधर्मी थे।  शिवराम का हमारे बीच से अकस्मात चला जाना मात्र एक प्राकृतिक दुर्घटना नहीं है।  यह उस आवेगमयी उर्जा-केन्द्र का यकायक थम जाना है जो दिन- रात अविराम इस समाज की जड़ता को तोड़ने, नव-जागरण के स्वप्न बॉंटने और एक प्रगतिशील-जनपक्षधर व्यवस्था निर्मित करने के अथक प्रयासों में लगा रहता था ।  
९६९ -७० में अजमेर से यांत्रिक इंजीनियरिंग से प्रथम श्रेणी में डिप्लोमा करते समय वे विवेकानन्द के विचारों से प्रभावित हुए और अपना पहला नाटक विवेकानन्द के जीवन पर लिखा। उसके बाद दूर-संचार विभाग ने उन्हॉंने छ: माह की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेजा। वहॉं उन्हें हिंदी के सुप्रसिद्ध  कथाकार स्वयंप्रकाश मिले, जिनके साथ न केवल उनकी व्यक्तिगत मित्रता, अपितु गहरी वैचारिक दोस्ती भी पल्लवित हुई।  स्वयंप्रकाश से उन्हें मार्क्सवाद के वैज्ञानिक-समाजवादी सिद्धान्त की प्रारम्भिक जानकारी मिली जो उत्तरोत्तर उनके जीवन, चिंतन और कर्म की धुरी बनती चली गई ।
शिवराम की दूर संचार विभाग में पहली नियुक्ति कोटा के उप-नगर रामगंजमंडी में हुई जो कोटा स्टोन की खानों के कारण श्रमिक-बहुल इलाका है । श्रमिकों के क्रूर शोषण और दुर्दशा देख कर उनके मन में गहरा संताप हुआ।  तभी उन्होंने अपना पहला नाटक  "आगे बढ़ो" लिखॉ।  इस नाटक में एक-दो मध्यवर्गीय मित्रों के अलावा अधिकांश पात्र ही नहीं अभिनेता भी श्रमिक समुदाय के थे।  नाटक के रिहर्सल के दौरान् ही अभिनेता साथियों के साथ उनके गहरे सरोकार जुड़ गये।  नाटक का मंचन भी सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित श्रमिकों के बीच हुआ।  सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि नाट्य-प्रदर्शन के साथ ही कथाकार स्वयंप्रकाश एवं रमेश उपाध्याय ने उस आयोजन में कहानी पाठ किया, जिन्हें पूरे मनोयोग से सुना तथा सराहा गया ।
नाटकों का यह सिलसिला चलता गया और आगे बढ़ता गया।  शहीद भगतसिंह  के जीवन पर नाटक खेला गया और शनै: शनै: इस अभियान ने एक नाट्य- आंदोलन ही नहीं जन-आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली।  नाटक के पात्रों की असल जिन्दगी की कशमकश ने इस बात की मांग की कि विचार और संवेदनाओं को यथार्थ की जमीन पर लाया जाए।  परिणामत: एक केन्द्रीय संस्थान के इंजीनियर होते हुए भी श्रमिकों के संगठन-निर्माण का दायित्व अपने कंधों पर लिया और पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ उसे निभाया।  उन्होनें कोटा में तत्कालीन श्रमिक-संगठन ’सीटू’ के अग्रणी व जुझारू नेता परमेन्द्र नाथ ढन्ड़ा से सम्पर्क किया और श्रमिकों की यूनियन को रजिस्टर्ड कराया।  एक छोटे से लोहे के यंत्रों के उत्पादक कारखाने से प्रारंभ हुए संगठन की लहर पूरे पत्थर खान श्रमिकों के बीच फैल गई। संघर्ष छिड़ गये और पत्थर खान मालिकों के सरगना आंदोलनों के केन्द्र-बिन्दु बने शिवराम को हर-सूरत में नष्ट करने तथा रामगंजमंडी से उनकी नौकरी के स्थानांतरण कराने की मुहिम में जुट गये ।
अंतत: शिवराम का स्थानांतरण कोटा के ही दूसरे उप-नगर बाराँ में कर दिया गया। यहॉं उन्हें बड़ा क्षितिज मिला। वे प्राण-प्रण से श्रमिकों, किसानों-छात्रों-युवकों-साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों को एकजुट करने की व्यापक मुहिम में जुट गये। हिन्दू कट्टरपंथियों के सबसे मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित बाराँ सम्भाग की फिजाँ देखते-देखते ही बदलने लगी। केसरिया की जगह लाल-परचम फहराने लगे।  गॉंवों में कट्टरपंथियों के साथ हथियारबंद टकराहटें हुईं और आन्दोलनकारी युवकों ने बारॉं के रेल्वे स्टेशन को जला कर खाक कर दिया।  लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले नगर के अनेकों बुद्धिजीवी इन आन्दोलनों के साथ जुड़ गये। शिवराम के बारॉं प्रवास के दौरान जो उपलब्धियॉं हुईं वे मामूली नहीं हैं।  बल्कि वे ऐसी बुनियाद हैं, जहॉं से शिवराम के भावी जीवन की उस भूमिका  का ताना-बाना बुना गया, जिसने उन्हें आम बुद्धिजीवी-साहित्यकारों एवं साम्यवादी नेताओं से भिन्न एक प्रखर वक्ता, विचारक एवं सक्रिय राजनैतिक-संस्कृति कर्मी के रूप में स्थापित किया।
 बाराँ में रहकर शिवराम ने साहित्यिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का प्रकाशन प्रारंभ किया, जो आज अपनी समझौताहीन सामाजिक-सांस्कृतिक छवि के कारण केवल वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच ही नहीं हिंदी के आम पाठकों और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले ईमानदार समुदाय के बीच भी अपनी प्रखर लोक-सम्बद्धता के कारण विशिष्ट पहचान बनाये हुए है ।  उस दौरान ही उनका प्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" लिखा गया , जो हिंदी के सर्व-प्रथम नुक्कड़ नाटक के रूप में जाना जाता है।  शिवराम न केवल उसके लेखक बल्कि कुशल निर्देशक व अभिनेता के रूप में भी जाने गये।  लखनउ में "जनता पागल हो गई है" पर पुलिस द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने पर, देश की लगभग सभी भाषाओं में रंगकर्मियों द्वारा यह नाटक खेला गया।  यह नाटक न केवल हिंदी के प्रथम नुक्कड नाटक के रूप में बल्कि सर्वाधिक खेले जाने वाले नुक्कड़ नाटकों में से भी है। बाराँ प्रवास के दौरान् ही शिवराम ने "आपात्काल" के विरूद्ध सांस्कृतिक मुहिम चलाई, जिसमें हिंदी क्षेत्र के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार एकत्रित हुए और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के लिए व्यापक अभियान चलाया गया।  इसी दौरान ’जनवादी लेखक संघ’ के गठन की पूर्व पीठिका बनी तथा इलाहाबाद में जलेस के संविधान निर्माण में उन्होनें उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया । 
शिवराम उन लेखकों में से नहीं थे जो मानते हैं कि साहित्यकारों को राजनीति से दूर रहना चाहिए और केवल कविता लिख देने या नाटक खेलने से ही उनके कर्तव्य की पूर्ति हो जाती है । "कविता बच जायेगी तो धरती बच जायेगी, मनुष्यता बची रहेगी" जैसे जुमलों से उनका स्पष्ट और गहरा मतभेद था।  उनका मानना था कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, वह एक वर्गीय समाज है, जिसमें प्रभु-वर्ग न केवल पूंजी की ताकत पर बल्कि सभी तरह के पिछड़े और प्रतिक्रियावादी विचारों और अप-संस्कृति के जरिये मेहनतकश जनता का निरंतर आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक शोषण-दमन कर रहा है । व्यापक जन समुदाय की वास्तविक आजादी और खुशहाली के लिए वर्तमान पूंजीवादी-सामन्ती-सम्प्रदायवादी शासक गठजोड़ की प्रभुता को नष्ट करके, देश में जनता की जनवादी क्रान्ति संपूरित करना व "जनता की लोकशाही" स्थापित करना अनिवार्य है।  वे शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के शोषणविहीन समाज की स्थापना के प्रबल समर्थक थे ।
पने इन्हीं क्रान्तिकारी विचारों को अमल में लाने के लिए उन्होनें कोटा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के जुझारू आन्दोलन में शामिल होकर पार्टी व जन-मोर्चों पर काम किया। लेकिन दुर्भाग्यवश आपात्काल की समाप्ति के पश्चात् सी.पी.आई.(एम.) के नेतृत्व पर संशोधनवादी गुट हावी हो गया तथा "जनता की जनवादी लोकशाही" स्थापित करने के मुख्य लक्ष्य को ठंडे बस्ते में डाल कर पार्टी में संसदवादी रूझान इतना बढ़ा कि जन आंदोलनों और संघर्ष के स्थान पर पार्टी पूंजीवादी संसदीय दलों की बगलगीर हो कर, खुले आम वर्ग-सहयोग के रास्ते पर बढ़ गई।  सी.पी.आई.(एम.) से पूरे देश में या तो वर्ग-संघर्ष और जनवादी क्रान्ति में विश्वास करने वाले साथियों को बाहर कर दिया गया, या फिर वे इन नीतियों का विरोध करते हुए पार्टी से बाहर आ गये।  इन सभी साथियों ने अपने-अपने प्रदेशों में अलग-अलग ढंग व नामों से कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया तथा अपने विकास क्रम में एक देशव्यापी पार्टी एम.सी.पी.आई. (यूनाइटेड़) का गठन किया।  शिवराम की राजस्थान के अग्रणी साथियों के साथ पार्टी के गठन व निर्माण में केन्द्रीय भूमिका थी तथा इस दिशा में वे प्राण-प्रण से जुटे हुए थे ।    
शिवराम का यह भी पक्का विश्वास था कि यद्यपि देश में जनता की लोकशाही स्थापित करने के लिए राजनीतिक क्रान्ति अनिवार्य है, लेकिन न तो अकेले राजनीतिक उपकरणों से सत्ता-परिवर्तन आसान है और न ही उसे टिकाउ रखा जा सकता है।  अत: वे जितना जोर क्रान्ति के लिए जनता की जत्थेबंदी और वर्ग-संघर्ष को तेज करने पर देते थे, उतना ही सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक लड़ाई को भी व्यापक और घनीभूत करना आवश्यक मानते थे।  उनका मानना था कि जनता के बीच अपनी प्रत्यक्ष प्रभान्विति के कारण इस दिशा में नाटक सबसे प्रभावशाली विधा हॉ।  कालांतर में उन्हें लगा कि चूंकि प्रभु-वर्ग अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सिनेमा, टी.वी.,मल्टी-मीड़िया, मोबाइल, धार्मिक सभाओँ, अवतारवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भाग्यवाद, फूहड़तावाद, सेक्स-व्यभिचारवाद, विचारहीनता, कुलीनवाद, पद-पुरस्कार सम्मोहन आदि सभी संभव रीतियों और विधाओं को काम में ले रहा है, उनका यह विश्वास दृढ़ हुआ कि प्रगतिशील-जनवादी रचनाकर्मियों को भी हर संभव मीडिया और विधाओं के जरिये स्तरीय व लोकप्रिय साहित्य-कला सृजन के द्वारा देश भर में एक व्यापक सांस्कृतिक -सामाजिक अभियान चलाना चाहिए ।
सी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होनें बिहार व अन्य प्रदेशों के साथियों के साथ मिल कर "विकल्प" अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा" का गठन किया। वे मोर्चा के गठन से ही अ.भा. महामंत्री थे और अपनी अंतिम सांस तक अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए काम कर रहे थे।  "विकल्प’ - अन्य लेखक संगठनों से इस मायने में एक भिन्न संरचना है, क्योंकि अन्य संगठन लेखकों की साहित्यिक भूमिका को ही प्राथमिक मानते हैं, जब कि "विकल्प" रचनाकारों की सामाजिक भूमिका को भी अनिवार्य मानता है ।  यह रेखांकित किये जाने योग्य बात है कि "विकल्प" की बिहार इकाई में मध्य-वर्गीय लेखकों के मुकाबले खेत मजदूरों, किसानों, शिक्षकों आदि की संख्या अधिक है। जो गॉंवों व कस्बों में गीतों, नाटकों, कविताओं , पोस्टरों आदि के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक जागरण की मुहिम चला रहे हैं।  उनका मानना था कि न तो कोई अकेला साहित्यकार और न ही कोई अकेला संगठन देश की सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ सकता है।  अत: वे लेखन व संस्कृति के क्षेत्र में सामूहिक प्रयत्नों के लिए दिन रात प्रयासरत् थे। उन्होनें न केवल राजस्थान में अपितु जहॉं-जहां संभव हुआ, संस्कृतिकर्मियों के सामूहिक अभियान के प्रयास किये और उसमें उन्हें एक हद तक सफलता भी मिली ।
पने विचारों और व्यवहार में शिवराम कहीं भी व्यक्तिवादी या अराजकतावादी नहीं थे।  उनका मानना था कि मुक्ति के रास्ते न तो अकेले में मिलते हैं और न ही परम्परा के तिरस्कार द्वारा। वे कहते थे कि हमें इतिहास और परम्परा का गहरा अध्ययन करना चाहिए तथा अपने नायकों को खोजना चाहिए।  परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों का जन आंदोलनों और जनहित में भरपूर उपयोग करना चाहिए।  लोक संस्कृति औेर लोक ज्ञान का उन्होंने अपनी रचनाओं मे सर्वाधिक कुशलता के साथ उपयोग किया है । 
"विकल्प" द्वारा राहुल, भारतेन्दु, फैज़, प्रेमचंद, सफदर हाशमी, आदि की जयन्तियों की एक गतिशील परम्परा और नव-जगरण की मुहिम के रूप में चलाना, शिवराम का परम्परा को भविष्य के द्वार खोलने के आवश्यक अवयव के रूप में उल्लेख किया जाना चाहिए। नि:संदेह वे अपनी कलम, उर्जा और अपनी संपूर्ण चेतना का उपयोग ठीक उसी तरह कर रहे थे, जिस तरह समाज में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए प्रतिबद्ध उनके पूर्ववर्ती क्रान्तिकारियों व क्रान्ति-दृष्टाओं ने किया ।
शिवराम  आज भले ही भौतिक रूप में हमसे बिछुड़ गये हों, लेकिन उनके द्वारा साहित्य, समाज व संस्कृति के क्षेत्र में किये गये काम हमारी स्मृतियों में एक भौतिक शक्ति के रूप में रहेंगे और हमारा व आने वाली पीढ़ियों का मार्ग दर्शन करेंगे।  वे हमारे सपनों, संकल्पों और संघर्षों में एक जलती  हुई तेजोदीप्त मशाल की तरह जीवित रहेंगे, हमेशा-हमेशा। हरिहर ओझा की काव्य-पंक्तियों के द्वारा मैं अपने संघर्षशील व क्रान्तिकारी विचारक साथी को सलाम करना चाहता हूँ :
" महाक्रांति की ताल/ समय की सरगम/ नूपुर परिवर्तन के /
और प्रगति की संगत पर /  जो जीवन / नृत्य करेगा / 
वह /नहीं मरेगा / नहीं मरेगा / नहीं मरेगा !"
                                            
         80- प्रतापनगर, दादाबाडी, कोटा    

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

अनमाप, अनियंत्रित भ्रष्टाचार के सागर में आशा की किरणें भी हैं

ज सुबह अपने तीसरा खंबा ब्लाग की पोस्ट भ्रष्टाचार अनमाप अनियंत्रित पर आई दो टिप्पणियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन में पहली टिप्पणी हमारे अजीज ब्लागर Blogger अजय कुमार झा की है। वे लिखते हैं ....

हां सर सच कहा आपने न्यायालय की ये टिप्पणी आज देश के हालत का आईना है । सबसे अहम बात ये है कि खुद न्यायपालिका मान रही है कि इस देश में आज सरकारें तक इस भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी हैं ..अब इसका निदान कभी हो पाएगा ..कहना असंभव सा लगता है । मगर यदि धीरे धीरे और कठोरता से ...प्रयास वो शीर्ष से ही शुरू किए जाएं तो जरूर स्थिति बदले न सही और बदतर तो नहीं ही होगी । आज भी कार्यालय में अपनी तेरह वर्षों के नौकरी में देखता हूं तो यही पाता हूं कि मेरी ईमानदारी का मोल सिर्फ़ मुझ तक ही है .....अन्य के लिए उसका कोई महत्व या मतलब नहीं है । मगर मैं अडिग हूं .....सोचता हूं कि कल को किसी आधिकारिक मुकाम पर होऊंगा तो फ़िर मातहातों को खासी दिक्कत आएगी मुझ से ...और फ़िर शायद किसी डडवाल के लिए मुझे भी ....किरन बेदी की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए ..

मैं जानता हूँ कि आज भी न केवल न्यायालयों में अपितु सभी सरकारी कार्यालयों में बहुत लोग ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार से कोसों दूर हैं। वे अपने कर्तव्य को ईमानदारी के साथ अंजाम देते हैं। 1978 की बात है जब मैं ने वकालत के लिए बार कौंसिल में आवेदन कर दिया था लेकिन मेरा पंजीकरण नहीं हुआ था। मैं ने अदालत में काम सीखना आरंभ कर दिया था। हमारे सीनियर के मुंशी जी को कहीं जाना था। वे मुझे दो रुपए और कुछ नकल के टिकट दे कर कह गए कि एक नकल लेनी है, दो बजे तक तैयार हो जाएगी। उस के बाद जा कर बाबू को दो रुपए दे कर नकल ले लेना। मैं दो बजे के बाद बाबू के पास पहुँचा और उसे नकल देने को कहा। उस ने नकल तैयार कर दी थी। मैं ने दो रुपए बाबू को दिए। उस ने बहुत तेज तर्रार आवाज में मुझे कहा ये दो रुपए उठा लो और मुझे कभी पैसा देने की कोशिश मत करना। शायद मुंशी मुझे सिखाना चाहता था कि यदि बाबू को दो रुपए दोगे तो आगे से उसे इस राशि का लालच रहेगा और वह औरों से पहले आप का काम करेगा। लेकिन मेरे तो सर मुंड़ाते ही ओले पड़ गए थे। मुझे भी लगा कि मैं दो रुपए दे कर एक मनुष्य को मनुष्य होने से नीचे गिरा रहा हूँ। उस दिन का दिन है कि मैं ने कभी भी किसी को इस तरह का धन देने की कोशिश नहीं की। कोटा में मुझे इस की जरूरत भी महसूस नहीं हुई। क्यों कि अक्सर सारा स्टाफ जानने लगा कि यह वकील पैसे नहीं देता। लेकिन जब जरूरत पड़ती है तो जान लगा देता है। वह बाबू आज परिवार न्यायालय में मुंसरिम के पद पर कार्यरत है जो कि गैर न्यायाधीश वर्ग में सब से बड़ा पद है। उस ने पूरे जीवन किसी से कोई उपहार नहीं लिया। रिश्वत तो बहुत दूर की बात है। वह इसी के लिए ख्यात है। जिस अदालत में वह नियुक्त होता है वहाँ आने वाला अफसर भी जब तक वहाँ रहता है दुरुस्त रहता है। 
मैं ने अपनी वकालत के जीवन में सब से अधिक काम कोटा के श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में किया। वहाँ कार्यरत स्टाफ में पिछले तीस वर्ष में कोई भी ऐसा नहीं रहा जिस ने किसी भी काम के लिए, किसी से पैसा लिया हो। हम लोग कहते हैं कि ऐसी अदालत बिरले ही मिलेगी। इस का एक लाभ यह भी है कि अदालत के हर कर्मचारी को सभी का सम्मान मिलता है। निश्चय ही जब व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठा के साथ काम करता है तो वह मनुष्य बना रहता है और उसे वैसा ही सम्मान मिलता है।
दूसरी टिप्पणी एक पाठक श्री राजेन्द्र जी की है, वे कहते हैं .....
सर क्षमा करें आप भी इसी तालाब में जीविका यापन कर रहे हैं जहाँ अगली तारिख लेने तक के पैसे तय होते हैं -में कभी स्वयम संलग्न होने पर अच्छी तरह देख चुका हूँ जज साहब को भले ही कुछ पता न हो पर जज साहब की श्रीमती जी सीधे पेशकार से हिसाब मांग लेती हैं नहीं तो लिस्ट तो पकड़ा ही देती हैं जो जो सामान आना होता है यह चलन पूरे भारत में निर्बाध चल रहा है कुछ प्रदेश अपवाद हो सकते हैं।
राजेन्द्र जी सही कह रहे हैं। यह चलन वास्तव में पूरे भारत में चल रहा है और मेरे विचार में शायद ही कोई प्रदेश इस का अपवाद हो। लेकिन हर प्रदेश में ऐसे कर्मचारी आप को हर स्थान पर मिल जाएंगे जो भ्रष्ट नहीं हैं। और गंदे तालाब में रहते हुए भी कमल के पत्तों की तरह तालाब का पानी उन पर चिपकता तक नहीं। यही लोग भविष्य के लिए आशा की किरण हैं। यदि ये लोग एकता बनाएँ और उन्हें जन समर्थन हासिल हो तो भ्रष्टाचार दूर भागता नजर आए।Delete