@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: एक रविवार, वन-आश्रम में (6) ... ज्ञान और श्रद्धा

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (6) ... ज्ञान और श्रद्धा

दुकानदार 24-25 वर्ष का नौजवान था। यहां तो बहुत लोग आते हैं? मैं ने उस से पूछा।

-हाँ, मंगल और शनिवार तो बहुत लोग आते हैं। उन दो दिनों में दुकानदारी भी अच्छी होती है। यूँ कहिए कि सप्ताह भर की कमाई इन दो दिनों में ही निकलती है। कुछ लोग रविवार या किसी छुट्टी के दिन आते हैं। बाकी दिन तो घटी-पूर्ती के ही हैं।

-स्टेशन से यहाँ तक की सड़क तो कच्ची है, गड्ढे भी बहुत हैं। जीपें भी दो ही चल रही हैं। बड़ी परेशानी होती होगी?

नहीं उस दिन तो आस पास के स्टेशनों पर रुकने वाली सभी ट्रेनें बीच में, आश्रम के नजदीक खड़ी हो जाती हैं। लोग उतर कर पैदल आ जाते हैं, एक किलोमीटर से भी कम पड़ता है।

यह व्यवस्था रेल्वे प्रशासन स्तर पर है या मौखिक इसे पता करने का साधन मेरे पास नहीं था। लेकिन लोग कह रहे थे कि यह रेल चालकों के सहयोग से ही होता है और, यह कुछ वर्षों से स्थाई व्यवस्था बन गई है।

-आश्रम कब से है यहाँ?

अभी जो बाबा हैं उन के पिता जी ने ही बनाया था। मंदिर भी उन के ही जमाने का है। वे बहुत पहुँचे हुए थे। उन के पास बहुत लोग आते थे। उन के बाद से आना कम हो गया था। पर कुछ बरसों से अभी वाले बाबा पर भी बहुत लोगों का विश्वास जमने लगा है। लोगों का आना बढ़ता जा रहा है। मंदिर का तो कुछ खास नहीं, पर लोग बाबा से ही मिलने आते हैं।

इतनी बात हुई थी कि मेरा लिपिक जीतू वहाँ आ गया, बोला –भाई साहब आप की कॉफी तो बनेगी नहीं पर नीबू बहुत हैं, मैं शिकंजी बना देता हूँ। मैं उस के साथ लौट कर आ गया। उसी ने याद दिलाया कि मेरी जेब में विजय भास्कर चूर्ण के पाउच पड़े हैं। उसने पूछा –आप ने नहीं लिया। मैं ने कहा –नहीं।

मैं विजया लेने का अभ्यासी नहीं। पर कहीं पार्टी-पिकनिक में उस से मुझे कोई परहेज नहीं। शायद मेरा शरीर ही ऐसा है कि मुझ पर उस का कोई विपरीत असर नहीं होता। मैं ने एक पाउच चूर्ण निकाल कर खा लिया, वह कुछ हिंग्वाष्टक के जैसे स्वाद वाला था। थोड़ी देर में जीतू मेरी शिकंजी ले आया। उस के पीने के बाद मेरा टहलने का मन हुआ तो मैं परिक्रमा पद-पथ पर चल पड़ा। दूसरे छोर पर शिव-मंदिर के पीछे हो कर दूसरे कोने पर पहुँचा तो वहाँ निर्माणाधीन सड़क दिखाई दी तो आश्रम का मानचित्र पूरी तरह साफ हो गया। उधर आश्रम और मंदिर का प्रवेश द्वार बनना था। जिस ओर जीप ने हमें उतारा था वह बाद में पिछवाड़ा हो जाना था। इस निर्माणाधीन सड़क के पार कुछ सौ मीटर से पहाड़ी श्रंखला शुरू होती थी, जो दूर तक चली गई थी। पहाड़ियों के बीच से एक बरसाती नाला निकलता था, जो ठीक आश्रम के पास हो कर जा रहा था। आश्रमं के ऊपर सड़क के उस पार पहाड़ी के नीचे आसानी से एनीकट बनाया जा सकता था। जिस में बरसात का पानी रुक कर एक तालाब की शक्ल ले सकता था। ऊपर पहाड़ियों में भी एक-दो स्थानों पर पानी को रोक कर भूमि और क्षेत्र में पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती थी। पर यह सब जंगल क्षेत्र था और शायद इस खर्च को सरकार फिजूल समझ रही थी। पर यह काम तो आश्रम के भक्त एक श्रमदान योजना के तहत भी कर सकते थे। इस से आश्रम का पड़ौस सुन्दर तो हो ही सकता था। आश्रम की भूमि के लिए सिंचाई का साधन भी उपलब्ध हो सकता था। मैं ने यह सुझाव लौट कर आश्रम भक्तों को दिया भी। लेकिन उन की इस में कोई रुचि नहीं थी। आश्रम में ट्यूबवैल पानी के लिए उपलब्ध था ही। यदि आश्रम के नेतृत्व में वाकई ऐसा कुछ हो जाए और उस का क्षेत्र में अनुसरण हो, तो सवाई माधोपुर व करौली जिलों में पानी की जो कमी दिखाई देती है उस का कुछ हद तक हल निकाला जा सकता है।

मैं परिक्रमा पूरी कर वापस लौट आया। मुझे पूरे परिक्रमा पद-पथ पर सभी लोग उलटे आते हुए दिखे तो मुझे शंका हुई कि मैं ने कहीं विपरीत परिक्रमा तो नहीं कर ली है। मैं ने खुद को जाँचा तो मैं सही था। मैं ने पूछा भी तो वहाँ के एक साधू ने बताया कि यहाँ विपरीत दक्षिणावर्त परिक्रमा ही की जाती है। क्यों कि यहाँ केवल शिव और हनुमान के मंदिर हैं और हनुमान भी शिव के रुद्र रूप ही हैं। मैं इस का अर्थ नहीं समझा। मैं ने पहली बार विपरीत परिक्रमा करते लोगों को देखा था। वापस लौटा तो भोजन को तैयार होने में आधे घंटे की देरी थी। अब यहाँ भोजन और रवानगी के सिवाय कुछ बचा न था।

मैं सुबह देखे स्नानघर की ओर चल दिया। वहाँ शौचादि से निवृत्त हो स्नान किया तो दिन भर की गर्मी का अहसास धुल गया। स्नान से विजया ने अपना असर दिखाना प्रारंभ कर दिया था, भूख सताने लगी थी। भोजन के स्थान पर पहुँच मंदिर के लिए भोग की पत्तल तैयार करवाई और नन्द जी के भाई को लेकर मंदिर भेजा। इधर महिलाओं को भोजन कराने को बैठाया। दूसरी पंगत में हम बैठे और तीसरी में बाकी लोग निपटे। उधर जीप आ चुकी थी। एक ही होने से लोगों को कई किस्तों में स्टेशन पहुँचाया। मैं अन्तिम किस्त में स्टेशन पहुँचा। हमें रेल का अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा, कुछ ही देर में जोधपुर भोपाल गाड़ी आ गई और हम रात्रि को ग्यारह बजने तक अपने घर पहुँच गए।

इस यात्रा में एक कमी मुझे बहुत अखरी। मैं जब घर से निकला था तो मुझे विश्वास था कि इस आश्रम में मुझे कुछ तो आध्यात्मिक और दर्शन चर्चा का अवसर प्राप्त होगा। लेकिन वहाँ उस का बिलकुल अभाव था। अध्ययन-अध्यापन बिलकुल नदारद। उस के स्थान पर कोरी अंध-श्रद्धा का ही फैलाव वहाँ नजर आया। नगरीय वातावरण से दूर पर्वतीय वनांचल में स्थित ऐसे आश्रम में जिसे जन सहयोग भी प्राप्त हो, कम से कम संस्कृत और भारतीय दर्शन के अध्ययन का केन्द्र आसानी से विकसित किया जा सकता है। इसे किसी विश्वविद्यालय से मान्यता भी दिलाई जा सकती है। ज्ञान का वहाँ प्रवेश हो सकता है। लेकिन शायद वहाँ ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। मुझे आश्रम के वर्तमान विकास का प्रेरणा स्रोत अंध-श्रद्धा में दिखाई दिया, और जहाँ ज्ञान का प्रकाश फैलता है वहाँ अंध-श्रद्धा का कोई स्थान नहीं होता।

17 टिप्‍पणियां:

Anil Pusadkar ने कहा…

isiliye bhaisaab aajkal tirthyatra sundey ko hi ki jaati hi aur wo tirhtyatra kum picnic jyaada hoti ja rahi hai.aapne likha achha hai baandhe rakhne me safal rahe aap

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी ऎसे लोगो को मेने देखा हे पढे लिखे लोग भी मानते हे, ओर इन्ही लोगो ने आम आदमी की सोचने की शक्ति भी खारव कर दी हे, यह जितने भी बाबा लोग टी वी पर आते हे , इन्ही के भाई हे,ओर पता नही लोग क्यो लाखो की सख्या मे जाते भी हे, ओर इन की ऊट पटांग बाते मानते भी हे. धन्यवाद आप ने फ़िर से मेरा विशवास मजबुत किया.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

देखिये रेल के ड्राइवर कैसी समाज सेवा करते हैं! मजे की बात है कि यह हमारी नोटिस में आता नहीं होगा।
रेलवे सभी ट्रेनों की सेटलाइट ट्रैकिंग पर सोच रही है। सालाना खर्च ५-१० करोड़ मात्र होगा पर इस तरह के अनाधिकृत स्टापेज कम्प्यूटर पर आने लगेंगे!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

ये भाग भी अच्छा लिखा गया है - बाबाजी की जय तो नहीँ कहेँगे हाण बम बम भोले की जय ! मारुतिनँदन की जय अवश्य कहेँ ~~
- लावण्या

Udan Tashtari ने कहा…

आश्रम के नाम पर यही हालात हर जगह हैं और बाबा लोग अपना उल्लू साध रहे हैं हर तरफ. परेशान लोग भीड़ लगा लेते हैं और उनकी चल निकलती है.

Arvind Mishra ने कहा…

आपके लिए यह आध्यात्म खोज यात्रा कुछ ख़ास उपलब्धि वाली भले ही न रही हो मगर पाठकों के लिए एक यादगार यात्रा वृत्तांत तो बन ही गयी है .
और मुझे तो ख़ुद अपनी ही एक आश्चर्यजनक रूप से समान तिलिस्म यात्रा की याद दिला गयी जो मिर्जापुर के चन्द्रकान्ता संतति की ख्याति वाले शक्तिगढ़ के करीब में 'आध्यात्म कुटीर ' बनाकर एक मैदानी जलप्रपात के निकट रह रहे बाबा अड़ गडा नन्द का वृत्तांत है -उन्होंने आध्यात्म गीता लिखी है -पर उन्हें 'सरकारी' अधिकारियों से ज्यादा प्रेम है -यह मुझे नागवार गुजरा -मैंने उन्हें अलविदा कहा .हाँ जलप्रपात अभी भी जाता हूँ .

कुश ने कहा…

बाबा जी का आश्रम प्राइवेट लिमिटेड
लगता है अब इन आश्रमो पर यही बोर्ड लगने वाले है.. वैसे भारतीय रेलवे की प्रसंशा करनी पड़ेगी.. बड़े दयालु ड्राइवर रखे है नौकरी पर..

बालकिशन ने कहा…

भाई साब बहुत ही मज़ेदार चल रहा है बाबा पुराण.
एक और बाबा आजकल टी वी में छाये हुए है किन्ही और कारणों से बाबा "आशाराम जी"
उनके बारे में क्या ख्याल है?

Smart Indian ने कहा…

स्वार्थ इंसान को अंधा करता है. अंधश्रद्धा भी आमतौर पर किसी न किसी कामना या स्वार्थ से ही पनपती है और बाबा लोग उसका भरपूर फायदा उठाते हैं.

बहुत अच्छी तरह लिखा है आपने. लगा जैसे मैं ख़ुद ही वहां आपके साथ हूँ.

Abhishek Ojha ने कहा…

ज्ञान की खोज, दर्शन और अध्यात्म वाली जगहों की भारी कमी है. कभी उत्तराँचल होकर आयें... कुछ दिनों पहले ही मेरे माता-पिता वहां से होकर आए हैं... सुना है बहुत अच्छी जगहें हैं.

डॉ .अनुराग ने कहा…

सच जानिये मुझे कुछ ऐसा ही आभास हुआ था की आप यही लिखेंगे .........आपने विस्तार से बताया ओर अपने तर्क भी दिये,अपने ऐसे अनुभव ओर बांटिएगा .... ऐसी कई दुकानों का विज्ञापन टी वी वाले मुफ्त कर रहे है

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

अब तो आश्रम का नाम सुनते ही कान खड़े हो जाते हैं। पहले जो एक आध्यात्मिक, त्यागमय, तपस्थली की तस्वीर इस शब्द से उभरती थी अब उसका स्थान आडम्बर, अंधविश्वास, धनलोलुपता, और बाजारोन्मुख छवि ने ले लिया है। हाल ही में मुझे इलाहाबाद के पौराणिक और त्रेतायुगीन प्रसिद्ध भारद्वाज आश्रम जाने पर भी कुछ इसी प्रकार का अनुभव हुआ था।

विष्णु बैरागी ने कहा…

ऐसे आश्रमों को अध्‍ययन-अध्‍यापन से दूर ही रखा जाता है । जहां अध्‍ययन होगा वहां जिज्ञासा और तर्क आएंगे और जहां दोनो आये कि बाबाजी की दुकानदारी बन्‍द ।
अन्‍त भला सो सब भला । यात्रा आनन्‍ददायक रही ।

अजित वडनेरकर ने कहा…

आनंददायक रही यह यात्रा। शुक्रिया।
जय बम बम भोले...

डा. अमर कुमार ने कहा…

अंत जो भी हुआ , चलो लौट के बुद्धु घर तो आये
लेकिन..




एक चीज की झलक तो दिखला ही दिया आपने, बोल दूँ ?

शब्दचित्र बहुत ही सटीक खींचते हो, गुरु
मान गये..भाई
मन ही मन सोच रहा हूँ कि..यह भी कह दूँ ?
अदालत में तो क़हर ढा देते होगे
मौका-ए-वारदात का ऎसा खाका खींचते होगे कि
ससुरा ज़ज़ खुद ही अपनी कुर्सी से उछल कर गवाही देने लगता होगा

आइंदे ..विजया वाले आलेख टैग कर दिया करना,
अमृतलाल नागर को तो मैंने स्वयं देखा है
ग़ज़ब का नियंत्रण था, उनमें
अब आपको देखना है, कभी

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

हम चाहेँ या ना चाहेँ
जीवन गतिमान है और
बदलाव इसकी विशेषता भी है -
धर्म क्या है ?
ये प्रश्न का उत्तर, अँतहीन है !
आपनी शृँखला से विषय पर प्रकाश पडा है
इसे जारी रखने से
बहुत अन्य बातोँ पे भी रोशनी पडेगी-
- लावण्या

Unknown ने कहा…

आज ही ब्लाग पकड़ में आया, अभी तो लेखन- पण्डित की लेखन तैयारी और भोजन- पण्डित की भोजन तैयारी का अवलोकन कर रहा हूँ, देखना है कौन पाँण्डित्य में स्वादु और तुष्टि प्रदान करता है? स्खलित वैचारिकताजन्य शाब्दिक अस्त्र से क्षत-विक्षत पण्डित के हश्र का चाक्षुष प्रत्यक्षीकरण दृश्टव्य है ही। किन्तु ध्यान से देखनें के बाद यह पता पड़नें पर कि उपसंहार तक उपलब्ध है तो पूरा ही बाँच गया। आपके निष्कर्ष को पढ़कर इतना ही निष्कर्ष निकाल पाया कि जाकी रही भावना जैसी,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। ञानी एवं साधक-भक्त आदि श्रेणियों में बँटे होते हैं यह बाबा आदि। सामान्य जन की आस्थापरक भावनाओं को सहानुभूति के मरहम से आध्यात्मिक न सही मनोवैञानिक चिकित्सा फिर भी यह कर ही देते हैं,इससे अधिक की आशा रखना ही व्यर्थ है। पण्डित द्वय के पाण्डित्य से कतिपय अधिक की आशा कर रहा था।