कल रविवार था। रविवार? सब के लिए अवकाश का दिन, लेकिन मेरे लिए सब से अधिक काम का दिन। उसी दिन तो मेरे सेवार्थियों (मुवक्किलों) को अवकाश होता है और वे मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। लेकिन कल का रविवार हम ने कोटा के बाहर बिताया।
मेरे सहयोगी वकील नन्दलाल शर्मा, जिन्हें हम संक्षेप में नन्दजी कहते हैं, लम्बे समय से वनखंडी आश्रम जाने को कह रहे थे। वजह थी कि उन के बड़े भाई एक गंभीर अपराधिक मुकदमे में फँसाए गए थे और उस में जमानत भी नहीं हुई थी। नन्द जी ने संकल्प किया था कि यदि उन के भाई मुकदमे में बरी हो गए तो वे वनखंडी आश्रम में हनुमान जी को भोग लगायेंगे। उन्हें संकल्प पूरा करना था। मुकदमे में मैं ने पैरवी की थी। इस कारण वे मुझे भी वहाँ ले जाना चाहते थे। मेरे कारण ही वे तारीखें आगे बढ़ाते रहे। शुक्रवार को उन्हों ने पूछा -भाई साहब, इस रविवार को वनखंडी चलें? तो व्यस्तता होते हुए भी मैं ने चलने को हाँ कर दी।
वहाँ कारें नहीं जा सकती थीं। वैसे भी कोटा-सवाईमाधोपुर सड़क मार्ग को चौड़ा किए जाने का काम चल रहा होने के कारण परेशानी थी। तो हम ने कोटा से रेल द्वारा रवाँजना डूँगर स्टेशन, और वहाँ से जीपों से वनखंडी तक का 5 किलोमीटर की यात्रा जीप से करने का तय किया। कोई तेजगति गाड़ी रवाँजना रुकती नहीं, इस कारण से सुबह 7 बजे रवाना होने वाली कोटा-जमुना ब्रिज पैसेंजर से ही जाना था। रात काम करते हुए 1 बज गए थे। सुबह अलार्म 4 बजे का लगाया गया। अलार्म ने शोभा (मेरी पत्नी) को तो जागने में मदद की लेकिन मुझ पर उस का कोई असर नहीं हुआ। मुझे शोभा ने सुबह साढ़े पाँच पर जगाया। देर हो चुकी थी। मैं झटपट तैयार हुआ तो मेरे एक अन्य सहयोगी और क्लर्क भी आ गए। हम चारों अपनी गाड़ी में लद कर नन्द जी के घर से कुछ सामान लादते हुए समय पर स्टेशन पहुँचे। गाड़ी रवाना होने में अभी भी 15 मिनट थे। हम ने चैन की साँस ली। गाड़ी ने पूरे पौन घंटे देरी से स्टेशन त्यागा। हम एक साथ जाने वालों की संख्या 30 हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वर्षाकाल के वन विहार पर जा रहे हों।
बहुत दिनों में पैसेन्जर का सफर किया था। अनेक प्रकार के स्थानीय निवासियों से गाड़ी भरी थी और हर स्टेशन पर रुकती, सवारियाँ उतारती-चढ़ाती चल रही थी। गाड़ी में जहाँ मुझे बैठने को स्थान मिला वहाँ सब महिलाएँ थीं। उन में एक थीं लगभग साठ की उम्र की नन्द जी की विधवा जीजीबाई (बहिन)। वे बातें करने लगीं। कुछ देर बाद ही पता लग गया कि वे पक्की स्त्री समर्थक थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। सारा जीवन एक घरेलू महिला की तरह बिताया। उन के अध्ययन और जानकारियों का प्रमुख स्रोत उन के द्वारा बहुत से कथावाचकों से सुनी धार्मिक कथाएँ और उन के बीच-बीच सुनाए जाने वाली दृष्टान्त कथाएं थीं। काफी सारा धार्मिक साहित्य उन का पढ़ा हुआ था। वे लगातार बात करती रहीं। उन के स्वरों में जरा भी आक्रामकता नहीं थी, लेकिन वे एक-एक कर समाज की पुरुष प्रधानता पर आक्रमण करती रहीं। उन्हें इस का अवसर हमारे साथ ही जा रहे नन्द जी के बच्चों के ट्यूशन-शिक्षक के कारण मिल गया, जिन का अपनी पत्नी से विगत सात-आठ वर्षों से विवाद चल रहा था। उन की पत्नी उन के साथ आ कर रहने को तैयार नहीं थी। वे लगातार इस बात पर जोर देती रहीँ कि भाई अपनी पत्नी को मना कर ले आओ, उसी में जीवन का सार है। गन्तव्य स्टेशन तक का सफर उन्हीं की बातों में कब कट गया पता ही न चला।
इस बीच उस पण्डित की तलाश हुई जिस ने हमारा भोजन बनाना था। भोजन, यानी कत्त-बाफले। पण्डित कोटा स्टेशन तक तो आ चुका था। लेकिन ट्रेन पर चढ़ पाया था, या नहीं इस का पता नहीं चल रहा था। सोचा, चढ़ लिया होगा तो अवश्य ही उतरने वाले स्टेशन पर मिल जाएगा। नहीं मिला तो? लेकिन नन्द जी आश्वस्त थे।
गाड़ी पैसेंजर थी, लेट चली थी, तो किसी भी तेजगति गाड़ी या मालगाड़ी को निकालने के लिए उसे खड़ा कर दिया जाता। नतीजा सवा नौ के स्थान पर ग्यारह बजे स्टेशन पर उतरे। गाड़ी चली गई। हम ने भोजन-पंड़ित को तलाश किया तो वह नदारद था। खैर, तय हुआ कि वनखंडी में ही किसी की तलाश कर ली जाएगी या फिर खुद हाथों से बनाएंगे। स्टेशन के बाहर दो ही जीपें उपलब्ध थीं। पता लगासवारियों को पहुँचाने के लिए फेरे करेंगी। हम सब से पीछे वाले फेरे के लिए रुक गए। जीपें जब दूसरा फेरा कर रही थीं तब फोन आया कि पंडित किसी एक्सप्रेस ट्रेन को पकड़ कर सवाई माधोपुर पहुँच गया था, वहाँ से बस पकड़ कर पास के बस स्टेंड पहुँच गया है और वहां से वनखंड़ी की ओर रवाना हो चुका है। हमारी भोजन बनाने की चिन्ता दूर हो चुकी थी।
जीप के तीसरे और आखिरी फेरे ने हमें स्टेशन से मात्र पांच किलोमीटर दूर आश्रम तक पहुंचाया। बीच में केवल एक छोटा गाँव था। उसी गांव से कोई डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर आश्रम दो स्टेशनों के मध्य रेलवे लाइन से कोई पौन किलोमीटर दूर स्थित था। दो ओर खेत थे, तीसरी ओर जंगल और चौथी तरफ एक कम ऊंचा पहाड़ी श्रंखला। आदर्श स्थान था। मेरे मन में आश्रम की जो काल्पनिक छवि बनी थी उस के मुताबिक एक बड़े से घेरे में कुटियाएँ बनी होंगी, मन्दिर होगा, आश्रम में छोटा ही सही पर विद्यालय चलता होगा, जिस में संस्कृत अध्ययन होता होगा। निकट ही कहीं जल स्रोत के लिए कोई झरना होगा, जहाँ से निर्मल जलधारा निकल बह रही होगी। आश्रमवासी कुछ खेती कर रहे होंगे। लोग वहाँ आध्यात्म सीखने और अभ्यास करने जाते होंगे। आश्रम के महन्त अवश्य ही कोई ज्ञानी पुरुष होंगे, आदि आदि। लेकिन जैसे ही जीप से उतरे आश्रम का द्वार दिखाई पड़ा और उस के पीछे पक्के निर्माण देखते ही मन में निर्मित हो रहा काल्पनिक आश्रम तिरोहित हो गया। (जारी)
17 टिप्पणियां:
जय बजरंग बली। रवांजना डूंगर का मैने एक बार रात्रिकालीन निरीक्षण किया था - रात ढ़ाई तीन बजे! सड़क मार्ग से जा कर। निराशा हुई थी कि स्टेशन स्टाफ की कोई गलती न निकाल पाये थे।
आपकी पोस्ट से वह ११-१२ वर्ष पहले का समय याद आ गया।
अच्छा लगा आपका यात्रा विवरण...
आपका वनखंड़ी यात्रा का वृताँत बाँधे हुए है. अच्छा लग रहा है पढ़ना. अगली कड़ी का इन्तजार है.
चलिए देखते हैं आगे क्या होता है ?
मजेदार है। अगले का इंतजार है।
पंडित जी सायाने थे, सब से पहले पहुच गये, मजा आ रहा हे पढ कर,ऎसा लह रहा हे जेसे कोई जासुसी नावएल पढ रहे हो,वनखंड़ी मे कल देखे क्या होता हे, धन्यवाद
आगे जानने का इंतज़ार है ..रोचक लगा इसको पढ़ना
hum bhi bajrangbali ke bhakt hain socha aap darshan karwa denge,lekin darshan ke liye intezaar karna padega lagta hai.rochak likha hai,padhte rahenge
अरे वाह ..बहुत अच्छा यात्रा विवरण शुरु किया है आपने ..आजे क्या हुआ ?
वनखँडी के बारे मेँ पहले सुना ही नहीँ कभी ...
aur what is ..." कत्त-बाफले ? "
बढ़िया रोचक वृत्तान्त. रेलगाड़ी में मिली महिला-समर्थक बुआ के बारे में पढ़ना सुखद और ख़ास तरीक़े सुकून देने वाला था.
और लावण्या जी वाला सवाल मैं भी पूछना चाहता हूं : कत्त-बाफले ...
रोचक जगह पर ले जा कर आपने '(जारी)' लिख दिया. अगली किस्त का इन्तज़ार है साहब!
हनुमान जी के दर्शन के साथ साथ वन विहार जैसा भी है तो आशा है की इस विस्तृत वर्णन के साथ कुछ तस्वीरें भी होंगी ! विस्तार पूर्वक वर्णन अच्छा लग रहा है.
वाह वकील साहब आप यात्रा विवरण भी खूब दे सकते है ,क्या हिन्दुस्तान में स्त्रिया इतनी नाराज है पुरुषों से ?आश्रम कैसा होगा जानने की उत्सुकता हो गयी है
पहले तो कत्त बाफ़ले के बारे में पढ कर ही मुंह में पानी आ गया.कोटा छूटते ही सब पीछे छूट गया.यात्रा के बाकी विवरण का इन्तज़ार है.
rochak vivran....aage intzaar rahega.
जब शीर्षक पढ़ा तो सोचा एक बार जाया जाए.. पर आपने तो इंतेज़ार लगवा दिया है.. देखते है क्या होता है आगे
बहुत बढ़िया यात्रा वृत्त। मैं यहां देर से पहुंचा हूं। चार दिनों से नेट खराब था। ऐसी बढ़िया चीज़ों की जानकारी साहेब ईमेल पर अलग से दे दिया कीजिए न !
आज ही ब्लाग पकड़ में आया, अभी तो लेखन- पण्डित की लेखन तैयारी और भोजन- पण्डित की भोजन तैयारी का अवलोकन कर रहा हूँ, देखना है कौन पाँण्डित्य में स्वादु और तुष्टि प्रदान करता है? स्खलित वैचारिकताजन्य शाब्दिक अस्त्र से क्षत-विक्षत पण्डित के हश्र का चाक्षुष प्रत्यक्षीकरण दृश्टव्य है ही।
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