@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: एक रविवार, वन-आश्रम में (5) .... बाबा की कीर्ति

बुधवार, 30 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (5) .... बाबा की कीर्ति

मैं -बाबा, समस्या तो नहीं कहूँगा, हाँ चिन्ताएँ जरूर हैं। बेटी पढ़-लिख गई है, नौकरी करती है। उस की शादी होना चाहिए, योग्य वर मिलना चाहिए।

बाबा -बेटी की आप फिक्र क्यों करते हैं। वह स्वयं सक्षम है, और आप की चिन्ता वह स्वयं ही दूर कर देगी। बाबा बोले।

मैं -समस्या ही यही है कि बेटी कहती है कि वर तलाशना पिता का कर्तव्य है उस का नहीं। फिर वह शुद्ध शाकाहारी, ब्राह्मण संस्कार वाला, उसे और उस के काम को समझने वाला वर चाहती है, और जहाँ तक मेरा अपना दायरा है, मुझे कोई उस की आकांक्षा जैसा दिखाई नहीं देता।

बाबा –हाँ, तब तो समस्या है। फिर भी आप चिंता न करें। वर्ष भर में सब हो लेगा। आप की चिंता दूर हो जाएगी। और बताएँ।

मैं –बेटे के अध्ययन का आखिरी साल है। वह चिंतित है कि उस का कैम्पस सैलेक्शन होगा या नहीं। नौकरी के लिए चक्कर तो नहीं लगाने पड़ जाएंगे?

बाबा -केंम्पस तो नहीं हो सकेगा। लेकिन प्रयत्न करेगा, तो उसे बिलकुल बैठा नहीं रहना पड़ेगा। वैसे, आप को दोनों ही संतानों की ओर से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

मैं ने कहा –बाबा, एक नया मकान भी बनाना चाहता हूँ, अपने हिसाब का?

बाबा -आप की वह योजना दीपावली के बाद ही परवान चढेगी। ..... और कुछ?

मुझे बाबा थके-थके और विश्राम के आकांक्षी प्रतीत हुए। वे आराम चाहते थे। मैं भी वहाँ से खिसकना चाहता था। हम ने बाबा को नमस्कार किया और वहाँ से चल दिए। हमारे साथ के लोग भी सब चले आए। हम सीढ़ियों से नीचे उतर कर आए ही थे कि पीछे से किसी ने आ कर सीढ़ियों का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया। बाबा अब विश्राम कर रहे थे।

जो काम बाबा कर रहे थे, वह मैं अपने परिवार में हमेशा से होता देखता आया था। मेरे दादा खुद ज्योतिषी थे। वे जन्म पत्रिकाएँ बनाते थे। लोग उन के पास समस्याएँ ले कर आते थे, और वे परंपरागत ज्योतिष ज्ञान के आधार पर उन्हें सलाह देते थे, उन की चिन्ताएँ कम करते थे और उन्हें समस्याओं के हल के लिए कर्म के मार्ग पर प्रेरित करते थे। पिता जी खुद श्रेष्ठ अध्यापक थे। परंपरागत ज्योतिष ज्ञान उन्हों ने भी प्राप्त किया था। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने पर वे नित्य दोपहर तक घर पर आने वाली लड़कियों को पढ़ाते थे, जिन में अधिकांश उन के अपने विद्यार्थियों की बेटियाँ होती थीं। अपरान्ह भोजन और विश्राम के उपरांत उन के पास उन के परिचित मिलने आते और तरह तरह की समस्याएँ ले कर आते। वे उन्हें ज्योतिष के आधार पर या अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर कर्म के लिए प्रेरित करते थे। जहाँ हो सकता था उन की सहायता भी करते। अधिकांश लोगों की समस्याएं हल हो जाती थीं। दादाजी और पिताजी को इस तरह लोगों की समस्याएँ हल करने में सुख मिलता था। दोनों ही अच्छे ज्योतिषी जाने जाते थे। लेकिन न तो दादा जी ने और न ही पिता जी ने ज्योतिष को अपने जीवन यापन का आधार बनाया था।

मेरे दादाजी, पिताजी और 'बाबा' में एक मूल अंतर था। दादाजी और पिताजी ने कभी इस बात का उपक्रम नहीं किया था कि कोई अतीन्द्रिय शक्ति है, जिस से वे लोगों का कल्याण कर रहे थे। लेकिन बाबा यह कर रहे थे। वे लोगों को अपने अनुभव और सामान्य अनुमान से सांत्वना देते थे। बाबा के उत्तरों में कुछ भी असाधारण नहीं था। वे केवल लोगों को उन की समस्याओं को निकट भविष्य में हल होने का विश्वास जगाते थे। असंभव हलों के होने से इन्कार कर देते थे। और संभव हलों को हासिल करने के लिए लोगों को प्रयत्न करने को प्रेरित करते थे। मेरे समक्ष तो ऐसी कोई बात सामने नहीं आई थी, लेकिन मुझे अनेक लोगों ने यह भी बताया था कि लोग समस्याओं के हल के लिए उपाय करने के लिए भी उन से पूछते थे और वे लोगों को उपाय भी बताते थे। इन उपायों में एक उपाय यह भी था कि भक्त यहाँ या कहीं भी हनुमान मंदिर की 11, 21, 51 परिक्रमा लगाना जैसे उपाय सम्मिलित थे। ये उपाय ऐसे थे जिन में समय तो खर्च होता था पर पैसा नहीं, और जो लोगों में, स्वयं में विश्वास जगाते थे तथा समस्या के हल के लिए कर्म करने को प्रेरित करते थे। अधिकांश लोग स्वयं के प्रयासों से ही समस्याओं का हल कर लेने में समर्थ होते थे। लोगों का बाबा में विश्वास उपज रहा था। कुछ जंगल में स्थित मंदिर में बैठे हनुमान जी का लोगों पर प्रभाव था। बाबा के भक्तों की संख्य़ा में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी, उन में अतीन्द्रीय शक्तियाँ होने के विश्वासियों की संख्या लगातार बढ़ रही थी,  जो आश्रम और बाबा की कीर्ति और भौतिक समृद्धि का विस्तार कर रही थी।

सीढ़िय़ों से नीचे उतर कर घड़ी देखी तो चार बज चुके थे। मुझे कॉफी की याद आने लगी थी। चाय मैं सोलह वर्षों से नहीं पीता और कॉफी यहाँ उपलब्ध नहीं थी। सुबह रवाना होने की हड़बड़ी में मुझे कॉफी के पाउच साथ रखने का ध्यान नहीं रहा था। मैं ने बाहर दुकानों पर जा कर पता किया तो एक दुकान वाला रखता ही नहीं था। दूसरे ने कहा -उस के यहाँ खतम हो गई है। शायद वह अधिक होशियार था जो यह प्रदर्शित नहीं करना चाहता था वह कॉफी रखता ही नहीं। मैं दुकानदारों से आश्रम के बारे में बातें करने लगा। (अगले आलेख में समाप्य)

15 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

अच्छा कटा अब तक का सफर - क्यूरिओसिटी है आगे क्या होगा?

Udan Tashtari ने कहा…

हम जब राजनीति में थे तब नरसिंहा राव जी के लगभग भावविहिन और सुप्त चेहरे से एक नया सिद्धांत बनाया था और उसे मैं पी ओ पी कहता था याने पॉलिटिक्स ऑफ पोस्टपोनमेन्ट. स्थगन राजनीति.

जब भी कोई आपके पास किसी काम से आये, कभी न मत करो. ८०% समस्यायें समय के साथ खुद ही सुलझ जाती हैं, बाकि २०% प्रतिशत के लिए, जो स्वयं न सिद्ध हों, कुछ बोल बाल दो, कुछ कोशिश कर दो -आधी लोग सुन लेंगे बाकि १०% अनसाल्वड रह जायेंगी मगर उनकी न सुलझ पाने की व्यथा कोई नहीं सुनेगा क्यूंकि ९०% लोग आपके साथ हैं, तो यह १०% अपने आपको बेवकूफ साबित करवाने के बजाय आपके गुणगान करना ही पसंद करेगा..शायद १-२% विरोध करें, मगर उनको सुनेगा कौन? वो दब कर रह जायेंगे और आप सफल कहलायेंगे...ये मौनी बाबा और बाकि बाबा टाईप लोग इसी नीति का ही इस्तेमाल करते हैं.

आप निश्चिंत रहें और चाहें तो समीर बाबा से प्रश्न पूछ कर इसी तरह का समाधान प्राप्त करें. :)

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

जब मैं कोटा में वकालत में आया तो यहाँ नौकरी के मुकदमों के एक ख्यात वकील थे। उन की सांख्यिकी का विश्लेषण किया तो पता लगा कि उन के पास 90 प्रतिशत से अधिक सरकारी कर्मचारियों के स्थानान्तरण के मामले थे। वे किसी तरह यथास्थिति का आदेश करवा लेते थे। विभाग उसे स्थानान्तरित और कर्मचारी पुरानी स्थिति में समझता था। तीन-चार माह तक तारीखें लेते थे। इस बीच वह जुगाड़ बना लेता था स्थानान्तरण को निरस्त कराने का या इच्छित स्थान पर पदस्थापन का। जो नहीं बनाता था वह हार जाता था। जीतने का प्रतिशत शून्य के एकदम नजदीक था। फिर भी वे सब से सफल वकील थे।

Arvind Mishra ने कहा…

क्या अभी कुछ शेष रह गया है ? ये बाबा तो ठीक ठाक लगे .भारत में मनोविज्ञान के रास्ते भी अनेक समस्याएं ठीक की जा सकती हैं -प्लैसेबो चिकित्सा के तर्ज पर .
यह विद्या भी भारत में काफी उन्नत हो चली थी -अब पश्चिम से आयी ज्ञान की आंधी में हमारी कितनी ही प्राच्य विद्याएँ दम तोड़ गयी हैं ?क्या उन्हें पुनर्जीवित किया जा सकता है ? हाँ पर इसके लिए ईमानदार प्रयास करने होंगे .आपने अपने दादा जी ,पिता जी और वर्तमान बाबा जी के फर्क को तो बताया ही -

कुश ने कहा…

ये बाबाजी तो सही निकले..
वैसे चिंता मत करिए कॉफी आपको मैं पीला दूँगा.. अपना तो काम ही वही है..

Anil Pusadkar ने कहा…

babaon ka dhandha kabhi na mandaa.jabhi to desh me local se lekar sevenstar tak catagory ke baba uplabdh hai.koi videsh yatraa kar raha hai to sarkkari guest hai,kisika aashram hai to kisi ka aspataal hai.koi hawai jahaj me udta hai ko tees paintees karon ke kaafile me chalta hai.kabhi-kabhi lagta sab chhod chhad ke baba hi ban jaun.achha likha aapne.

Abhishek Ojha ने कहा…

धर्म और ज्योतिष पर विश्वास इस देश के लाखों लोगो के जीवन का आधार है. हम भरोसा करें न करें... अगर ये न हो तो कई लोग चिंता में ही मर जाएँ... मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत अच्छा काम कर जाता है ये.

बालकिशन ने कहा…

सभी बाबा ऐसे ही होते हैं.
ये अपना अनुभव है.
आपकी दादाजी और पिताजी के बारे में जानकर अच्छा लगा.
समीर भाई ने अच्छा हल सुझाया है.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

यह पीओपी मजाक की बात नहीं है। असल में यह चिन्तानिवारण का स्वस्थ तरीका है। आप जितना कर सकते हैं करें। शेष पीओपी के हवाले करें। इस पओपी को कुछ लोग गोविन्द/ईश्वर/अल्लाह भी कहते हैं! :-)
बहुत सुन्दर पोस्ट।

डॉ .अनुराग ने कहा…

रोचक सफर है इस उत्सुकता में हूँ आप आख़िर में क्या कोई राज खोलेगे ?

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

बाबा जी से मिलना अच्छा लगा .
बजरँग बलिजी की जय !

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी,आप के बाबा की तरह, मे भी अपने घर मे बच्चो को, बीबी को, अपने जान पहचान वालो को मुसिबत मे, सकंट के समय हमेशा होसाला ही देता हु, जिस का असर यह होता हे सामने वाले को काफ़ी हिम्मत आ जाती हे, मेने कभी भी नही कहा यह नही हो सकता,कोशिश करो हो जायेगा, बस सामने बाला पुरी हिम्मत से काम करता हे ओर ज्यादा तर कामजाब भी होता हे, यह एक मनोविग्यानिक सोच हे, ओर बाबा जी यही करते हे,
बहुत अच्छा लगा पढ कर अगले लेख की इन्तजार हे.
धन्यवाद

डा. अमर कुमार ने कहा…

.
बाबा रे बाबा..

*:o)

यहाँ तो बाबा अभी तक बैठा है !
विज्ञजन क्षमा करें,
ईश्वर के सिवा किसी क आश्रय लेना नितांत मूर्खता है ।
इनके सच के अनुसंधान में कई घाट का पानी पिया है,
समयाभाव के कारण इसकी श्रूंखला नहीं दे पा रहा हूँ ।
मेरा मंतव्य किसी के भी अंध-आस्था को ललकारना कदापि नहीं है ।

कभी अवसर मिले तो डा. अब्राहम कुनूर को पढ़ें:

Anita kumar ने कहा…

बिना बकलम लिखे ही आप के बारे में बहुत कुछ जानने को मिल रहा है अच्छा लग रहा है। अगर आप के दादा जी और पिता जी को ज्योतिष विध्या आती थी तो आप को भी आती होगी, फ़िर बाबा से क्यों पूछना, जवाब तो आप खुद ही जानते होगें।
हां हमने भी ये नया चलन देखा है, आज कल माता पिता बच्चों को प्रोत्साहन देते है कि खुद जीवन साथी ढ़ूढ़ लो ज्यादा अच्छा रहेगा पर ये बच्चे जो अपने अपने कैरियर में इतने कामयाब है, ये निर्णय खुद नहीं लेना चाह्ते, कहते हैं आप भी थोड़ी मेहनत करो। मेरा बेटा भी यही कहता है कि खुद नहीं ढ़ूढ़ेगा। अब बताइए हमने तो अपने लिए भी नहीं ढ़ूढ़ा था, ट्प्प से यूँ ही जोड़ी बन गयी थी तो हमें ये काम कितना मुश्किल लग रहा होगा। बच्चे जो न करवाये कम है जी…:)

अजित वडनेरकर ने कहा…

इस कड़ी में टिप्पणियों का विचार प्रवाह भी जोरदार है। बढ़िया चल रहा है वर्णन। लगता है बकलमखुद भी हमें जल्दी ही मिलने वाला है।