@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बीमारी
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शनिवार, 21 मार्च 2020

गणगौर एडवाइजरी जारी करे सरकार


'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के अगले दिन से ही राजस्थान भर में गाया जा रहा है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो जाता है। आग बरसाता हुआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं। अनवरत पसीना टपकाने वाले ऐसे निकट भविष्य के पहले राजस्थान में अगले शुक्रवार 27 मार्च को गणगौर का त्यौहार मनाया जाने वाला है।

गणगौर प्रतिमाएँ अनेक घरों पर बिठा दी गयी हैं। रोज उनकी पूजा की जा रही है। गीत गाए जा रहे हैं। यह अभी व्यक्तिगत स्तर पर है। पर अगले शुक्रवार को यही सब सामुहिक रूप ले लेने वाला है। उस से पहले गणगौर पर बनने वाले पकवान गुणे बनना आरंभ हो चुके हैं। कल मुझे भी हुकुम हुआ कि गुड़ लाना है, गुणे बनाने के लिए। गुड़ आया तो दो घण्टे बाद ही टेबल पर गुड़ और गेहूँ के आटे के बने गुणे नजर आने लगे। रात तक वे तले जा कर खुले में रख दिए गए, जिस से उन की बची खुची नमी भी निकल ले। सुबह वे डिब्बे में बंद हो चुके हैं। किसी को भी इनका स्वाद अगले शुक्रवार गणगौर के दिन पूजा के बाद ही चखने को मिलेगा।

गणगौर के दिन अर्थात अगले शुक्रवार 27 मार्च को सुबह से ही मुहल्ले में स्त्रियों की हलचल बढ़ जाएगी। वे सजेंगी-सँवरेंगी, बेसन के आटे से शिव-पार्वती की प्रतिमाओं के लिए गहने गढ़ेंगी, फिर पूजा का थाल सजा कर उस घर को जाएंगी जहाँ मुहल्ले मे गणगौर घाली हुई है। वे पूजा के लिए अकेले ही नहीं जातीं। दो-दो चार-चार के समूह में पूजा के लिए जाती हैं। वहाँ एकत्र हो कर गीत गाती हैं, नाचती हैं। आमोद प्रमोद चलता है। साँयकाल गणगौर की प्रतिमाओँ को सरानेसामुहिक रूप से जलूस बना कर नदी तालाब पर जाती हैं। इस जलूस के आगे बैंड-बाजा होता है। कुछ नहीं तो एक ढोली ढोल बजाता हुआ जरूर चलता है। नदी पर वे प्रतिमाओं को सराने के पहले और बाद में गीत गाती हैं और ढोल की थाप पर नृत्य करती हैं। देर रात तक यह काम चलता रहता है। पहले तो सारी व्यवस्थाएँ पुरुष ही करते थे। अब यह कमान लगभग पूरी तरह स्त्रियों के हाथों में है। पुरुष इन कामों में केवल वान्छित सहयोग करते हैं। राजस्थान में स्त्रियों के लिए इस त्यौहार का बहुत महत्व है। पुरुषों के लिए भी यह त्यौहार अपनी प्रियाओं को प्रसन्न रखने, रूठी प्रियाओं को मनाने और वैवाहिक जीवन में सूख चुके रोमांस को तरलता प्रदान करने का होता है। इस त्यौहार में पुराने वक्त में मनाए जाने वाले मदनोत्सव के अवशेष मौजूद हैं।

त्यौहार तो आ चुका है। लेकिन उसके साथ ही राजस्थान में वायरस कोविद-19’ की भयानक उपस्थिति एक बड़े संकट का कारण हो सकती है। इस वायरस से फैली बीमारी को संयुक्त राष्ट्र संघ महामारीघोषित कर चुका है। ऐसे में इस त्यौहार के समय सतर्कता बहुत आवश्यक हो गयी है। इस त्यौहार में स्त्रियों का समूह में एकत्र होना पर्याप्त समय तक साथ रहना। पुरुषों का सहयोग के लिए नजदीक बने रहना। फिर समारोह है तो अपरिचित भी इसमें सम्मिलित होते हैं। ऐसे में सामुहिक रूप से इसे मनाना वायरस के प्रसार के लिए बहुत मुफीद हो सकता है। आज ही खबर है कि भीलवाड़ा में तीन चिकित्सक और तीन नर्सिंग छात्र इस कोरोना की चपेट में हैं। उन में लक्षण दिखाई देने के पहले वे सैंकड़ों लोगों के संपर्क में आए होंगे और उनमें से अनेक को वायरस स्थानान्तरित हुए हो सकते हैं। इसी कारण से इस नगर को पूरी तरह से लॉक डाउनकी स्थिति में लाने की कवायद चल रही है। आशा है प्रशासन और भीलवाड़ा की जनता इस लॉक डाउन को सहयोग करेंगे और वायरस का विस्तार रुक सकेगा।

इस घटना को देखते हुए आगामी दिन बहुत ऐहतियात रखने के होंगे। गणगौर पूजा वास्तव में शिव-पार्वती पूजा है। जिन परिवारों की स्त्रियाँ इस त्यौहार को मनाती हैं उन के घरों में शिव-पार्वती प्रतिमाएँ या तस्वीरें अवश्य होती हैं। सभी स्त्रियाँ अपने अपने घरों में रह कर इन प्रतिमाओं/ तस्वीरों की पूजा कर के त्यौहार मना सकती हैं। उन्हें इस के लिए बाहर निकलने की जरूरत नहीं होगी। इस अवसर पर जो मीठे और चरपरे गुणे बनाए जाते हैं उन्हें आपस में बदला भी जाता है। इस बार यह काम न किया जाए तो बेहतर है। क्यों कि इस अदला-बदली में वायरस स्थानान्तरण भी हो सकता है। आज कोरोना वायरस से फैली इस विश्वव्यापी महामारी के समय में गणगौर के त्यौहार को भी निबन्धित रीति से मनाना पड़ेगा। यह निबन्धित रीति क्या हो, यह बताने के लिए राज्य सरकार को तुरन्त एडवाइजरी जारी करनी चाहिए।


शुक्रवार, 20 मार्च 2020

कोविद-19 का नेग


17 मार्च तक अदालत में कामकाज सामान्य था। 18 को जब अदालत गया तो हाईकोर्ट का हुकम आ चुका था, केवल अर्जेंट काम होंगे। अदालत परिसर को सेनीटाइज करने और हर अदालत में सेनीटाइजर और हाथ धोने को साबुन का इन्तजाम करने को कहा गया था, वो नदारद था। काम न होने से हम मध्यान्ह की चाय के लिए 1.30 के बजाय 12.40 पर ही चले गए। वापस लौटे तब तक अदालत के तीनों गेट बंद थे। केवल एक गेट की खिड़की चालू थी। अब अन्दर जाने के लिए गेट नंबर-1 से ही जाना होता जो दूर था। सब मुकदमों में पेशियाँ हो चुकी थीं। परिसर के अंदर वाले एक सहायक से बैग मंगाया, बाउंड्री के ऊपर से उसने दिया। मैं 2 बजे के पहले घर आ गया।

कल मैं नहीं, केवल मेरा सहायक अदालत गया। कोई आधे घण्टे में ही मोबाइल एप पर सारे मुकदमों की पेशियाँ मिल गयीं। घण्टे भर में तो सहायक भी वापस लौट कर आ गया। उसने बताया कि केवल गेट नं.1 की खिड़की खुली थी, वहाँ एक पुलिसमेन और एक अदालत कर्मचारी तैनात था। मात्र अदालत स्टाफ, वकील और उनके क्लर्कों के अलावा किसी  ही अदालत परिसर में आने दिया जा रहा था।

यूँ मेरे पास वकालत का काम हमेशा पैंडिंग रहता है, मैंने सोचा उसी को निपटाया जाए। पर मन नहीं लगा। टीवी पर फिल्म देखने बैठ गया। सालों बाद पूरी फिल्म देखी, जितेन्द्र-जया की "परिचय"। उत्तमार्ध ने सूची बना रखी थी बाजार से लाने वाले सामानों की। मैंने उसके दो हिस्से किए। कैश काउंटर से लाने वाले सामान कल ले आया। उसके यहां हमारी जरूरत वाला चाय का ब्रांड उपयुक्त साइज का नहीं था। आज उसके और कुछ और चीजों के लिए दुबारा बाजार जाना पड़ेगा। बाजार सामान्य था। बस भीड़ कम थी, इतनी कि रामपुरा बाजार और उसकी गलियों में बिना किसी से टकराए आसानी से निकला जा सकता था।

दवा वाले की दुकान से दो दवाएँ लानी थीं। उनमें से एक नहीं थी। मैं दोनों नहीं लाया। सोचा शाम को ले लूंगा, पर दुबारा बाजार जाना नहीं हुआ। उसके पास एक सेनेटाइजर जेल उपलब्ध था। लेकिन बहुत महंगा। इस कारण मैं नहीं लाया। मुझे लगा कि उसके बिना काम चलाया जा सकता है। साबुन से हाथ धोकर वे कम से कम एक माह की जरूरत के पहले से घर पर मौजूद थे। कुछ दूसरी जरूरी चीजें लेने के लिए जो घर पर लगभग खत्म होने की स्थिति में हैं आज फिर बाजार जाना पड़ेगा।

अखबार में खबर है कि नगर में विदेश से आए 112 लोगों की स्क्रीनिंग की गयी है। तीन सन्दिग्ध हैं इनमें से दो अस्पताल में भर्ती हैं, शेष एक को घर पर आइसोलेट किया गया है। अब तक आइसोलेट किए जाने वाले लोगों की संख्या 107 हैं। 7 संदिग्धों के आइसोलेशन के 28 दिन पूरे हो चुके हैं। फिलहाल 127 लोग चिकित्सा विभाग की निगरानी में हैं। अच्छी बात यह है कि अभी तक कोई कोविद-19 का पोजिटिव नहीं पाया गया है। फिर भी नगर जिस तरह से एहतियात बरत रहा है वह अच्छा है।

अखबार में यह भी खबर है कि इटली में कोविद-19 से हुई मौतों की संख्या 3405 ने चीन में हुई मौतों की संख्या 3245 को पीछे छोड़ दिया है। यह बहुत बुरी खबर है। सबसे अधिक आबादी वाला चीन ने इस कोविद-19 के विजय अभियान को बिना कोई हल्ला किए सफलता पूर्वक रोक दिया है। इटली में अभी वायरस का विजय अभियान जारी है। बाकी विश्व बुरी तरह आतङ्कित है। हमारी अपनी तैयारी को देख कर बहुत बुरा महसूस हो रहा है। हैंड सेनेटाइजर, हैंड वाश और मास्क पर जम कर कालाबाजारी हो रही है। पैनिक में खाने-पीने की वस्तुएँ बाजार से गायब हो गयी हैं। विशेष रूप से पीएमओ की नाक के नीचे एनसीआर में यह संकट है। वहाँ से जो खबरें आ रही हैं वे अच्छी नहीं हैं। नोएडा में बेटी को तीन दिन से मल्टीग्रेन आटा नहीं मिल रहा था। कल सामान्य गेहूँ आटा खऱीद कर लाना पड़ा। एक और मित्र ने कहा कि गाजियाबाद में आटा बाजार से गायब है। निश्चित रूप से गलियों में यही ऊंचे दामों पर मिल रहा होगा वह भी सीमित मात्रा में। साहेब, आप कितना ही कहें कि मास्क और सेनेटाइजरों की, घरेलू सामानों की कोई कमी नहीं है। पर जब ग्राउण्ड रिपोर्ट विपरीत आ रही हो तो साहेब की बात पर विश्वास हो तो कैसे? इसबीच खबर ये भी है कि डॉलर 76 रुपए का हो चला है।

खैर¡ आप तो इतवार के कर्फ्यू के लिए तैयार हो जाइए। बाहर कतई न निकलें। निकलेंगे तो सोच लीजिए आपके साथ क्या-क्या हो सकता है? मैं ने बताने का ठेका नहीं ले रखा। बस वेलेंटाइन-डे के अगले दिन के अखबार की खबरों को याद रखें। हाँ, थाली या ताली बजाना तो मूर्खता लगती है। मैंने सुना है और बचपन में देखा भी है कि थाली घर में बेटा होने पर बजाई जाती थी और शाम तक ताली बजाने वाले पहुँच जाते थे, अपना नेग वसूलने के लिए। आप भी तैयार हो जाइए नेग तो वसूला जाएगा ही। आखिर आपके घर कोविद-19 पैदा हुआ है।

- दिनेशराय द्विवेदी, कोटा-20.03.2020

रविवार, 15 मार्च 2020

मरीजों की दवा कौन करे


दुखते हुए जख्मों पर हवा कौन करे,
इस हाल में जीने की दुआ कौन करे,
बीमार है जब खुद ही हकीमाने वतन,
तेरे इन मरीजों की दवा कौन करे ...
 
किस शायर की पंक्तियाँ हैं ये, पता नहीं लग रहा है। पर जिसने भी लिखी होंगी, जरूर वह जख्मी भी रहा होगा और मुल्क के हालात से परेशान भी। आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं।
 
कोरोना वायरस ने दुनिया भर को हलकान कर रखा है। दुनिया के सभी देश कोरोना वायरस को परास्त करने के लिए मुस्तैदी से कदम उठा रहे हैं। लेकिन हम नाटकीय लोग हैं। हम नाटक करने में जुट गए हैं। बरसात होने के बाद गड्ढों में पानी भर जाता है तो मेंढ़क बाहर निकल आते हैं, यह उनके प्रजनन का वक्त होता है। वे अंडे देने और उन्हें निषेचित कराने को अपने साथी को बुलाने के लिए टर्र-टर्र की आवाज करने लगते हैं। इसे ही हम मेंढ़की ब्याहना कहते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि बरसात मेंढ़की के ब्याहने से होती है। फिर जब कभी बरसात नहीं होती तो हम  समारोह पूर्वक मेंढ़की ब्याहने का नाटक करते हैं, जैसे उस से बरसात होने लगेगी। हम सब जानते हैं, ऐसा नहीं होता। लेकिन फिर भी नाटक करने में क्या जाता है। वैसे इन नाटकों से बहुत लोगों की रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाता है। बल्कि कुछ लोग तो इन्हीं नाटकों के भरोसे जिन्दा हैं। जिन्दा ही नहीं बल्कि राज तक कर रहे हैं।
 
कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए हम क्या कर रहे हैं? लगभग कुछ नहीं। हम अपने घटिया धर्मों, परंपराओँ और अन्धविश्वासों के हथियारों से उसे हराने की बात कर रहे हैं, जिनसे इंसान के अलावा कोई परास्त नहीं होता। गोबर और गौमूत्र थियरियाँ फिर से चल पड़ी हैं। यही नहीं उससे नाम से कमाई भी की जा रही है। कुछ सौ रुपयों में गौमूत्र पेय और गोबर स्नान उपलब्ध करा दिए गए हैं। गाय को उन्होंने कब से माँ घोषित कर रखा है। जो खुद की माँ को न तो कभी समझ सके हैं और न कभी समझेंगे। यदि वे उसे समझते तो शायद गाय, गौमूत्र और गोबर के फेर में न पड़ते। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ज्यादातर वायरल बीमारियाँ पालतू जानवरों से ही मनुष्यों में फैली हैं। लेकिन हम उन्ही पालतू जानवरों के मल-मूत्र से उसकी चिकित्सा करने में जुटे पड़े हैं।
 
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उधर बचाव के लिए जरूरी चीजें बाजार से गायब हो चुकी हैं। मास्कों, सैनिटाइजरों और हैंड-वाशों  की बाजार में कोई कमी नहीं होती। टीवी पर खूब विज्ञापन रोज चलते दिखाई देते रहे हैं। लगभग जितना स्टॉक होता है वह कम भी नहीं होता। लेकिन मांग बाजार में आने के पहले ही ये सब चीजें बाजार से गायब हो चुकी हैं। जिससे इन चीजों के दाम बढ़ाए जा सकें और मुनाफा कूटा जा सके। हम दसों दिशाओँ से मुनाफाखोरों से घिरे हैं।   
 
हमारे देश के मौजूदा आका भी कम नहीं। जब जनता मुसीबत में है तब इस वक्त में भी वे मुनाफा कूटने में लगे हैं। कोरोना वायरस के प्रभाव से काफी समय बाद अन्तराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें गिरी हैं। जब तेल के दाम बाजार से जोड़ दिए गए हैं तो होना तो यह चाहिए था कि इस का लाभ सीधे उपभोक्ताओं को मिलता। लेकिन सरकार को तेल के दाम गिरना कहाँ मंजूर है? जितने दाम गिरने चाहिए थे उतना उस पर टैक्स बढ़ा दिया है। जब जनता सब तरफ से मर रही है तब सरकार अपना खजाना भर रही है। क्यों न भरे? जनता मरे तो मरे उन्हें क्या? जब जनता भक्ति में लीन हो तो भगवान के लिए वही मौका होता है तब भक्त की जेब काट कर अपने ऐश के सामान जुटा ले। तो आपके भगवान इस वक्त की सब से बड़ी आफत के समय इसी में लगे हैं। फिलहाल विदेश यात्राएँ बंद हैं। आफत से बचने के लिए भगवान बंकर में जमींदोज हैं। खजाना भर रहा है। लेकिन कभी तो ये संकट टलेगा। जैसे ही पता लगेगा कि कोरोना अब आफत नहीं है। फिर निकलेंगे विदेश यात्रा के लिए।


रविवार, 24 अगस्त 2008

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

अनवरत के पिछले आलेख "दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे निन्दनीय  के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा  आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
 
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।

जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।

लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।

इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है।  वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है। 

हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।

ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।

आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।

रविवार, 13 जुलाई 2008

तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है।

ये बरसात का सुहाना मौसम, सब ओर हरियाली छाई है। इधर बरसात भी मेहरबान है। घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में रौनक है। लोग नगर छोड़ कर बाहर भाग रहे हैं। नदी-नालों-तालाबो-झरनों के किनारे रौनक है, और इतनी है कि जगह की कमी पड़ गई है। नए-नए गड्ढे तलाशे जा रहें हैं, जिन के किनारे पड़ाव डाले जा सकें। गोबर के उपलों का जगरा लगा कर दाल-बाफले-कत्त बनाए जा सकें। पकौड़ियाँ तली जा सकें, विजया की घोटम-घोंट के लिए बढिया सी चट्टान नजदीक हो। बस मौज ही मौज है।

पर 50 से ऊपर वालों पर चेतावनियाँ लटकी हैं। उधर चार दिन पहले प्रयाग में गंगा किनारे ज्ञानदत्त जी को गर्दन खिंचवा कर सही करानी पड़ी, तो इधर हम अलग ही चक्कर में पड़ गए। इस मौज-मस्ती में कुछ खाने का हिसाब गड़बड़ा गया। खाए हुए का अपशिष्ट बाहर निकलने के बजाय शरीर में ही कब्जा जमाए बैठ गया। वेसै ही जैसे चुनाव के दिनों में बहुत से लोग खाली जमीनों पर कब्जा कर बैठते हैं और फिर जिन्दगी भर हटते नहीं। हट भी जाते हैं तो कब्जा किसी दूसरे को संभला जाते हैं।

कब्ज के इसी दौर में शादियाँ आ धमकीं। शुक्रवार रात शादी में गए और वहाँ पकवान्न देख रहा नहीं गया। नहीं-नहीं कर के भी इतना खा गए कि दो-तीन दिन की कब्ज का इंतजाम हो गया। वहाँ से लौट कर पंचसकार की खुराक भी ले ली। पर कब्जाए लोग कहाँ नगरपालिका और नगर न्यास की परवाह करते हैं जो हमारी आहार नाल पंचसकार की परवाह करती। शनिवार सुबह दो तीन बार कोशिश की, लेकिन कब्जा न हटना था तो नहीं हटा। दिन में हलका खाया। तीन घंटे नीन्द निकाली। रात को फिर मामूली ही खाया। काम भी मामूली किया।

रात को तारीख बदलने के बाद सोने गए तो निद्रा रानी रूठ गई। कब्जाए लोग हल्ला कर रहे थे। कभी पेट के इस कोने में, तो कभी उस कोने में। कभी ऊपर सरक कर दिल के नीचे से धक्का मारते, तो दिल और जिगर दोनों हिल जाते। पीठ की एक पुरानी पेशी कभी टूट कर जुड़ी थी, बस वहीं निगाह बनी रहती। लगता जोड़ अब खुला, तब खुला।

पिछले साल एक दिन अदालत में चक्कर खा गए थे। शाम को डाक्टर को दिखाया तो पता लगा। रक्त का दबाव कुछ बढा हुआ है। हम ने उछल-कूद कर, वजन घटा कर, (राउल्फिया सर्पैन्टाईना)  का होमेयोपैथी मातृद्रव ले कर यह दबाव तो सामान्य कर लिया। लेकिन उछल-कूद में कहीं साएटिका नामक तंत्रिका को परेशानी होने लगी तो उछलकूद बंद। वजन फिर बढ़ने लगा। हम ने घी दिया जलाने, और शक्कर वार-त्योहार को समर्पित कर, इसे कुछ नियंत्रित किया। लेकिन शक का कोई इलाज नहीं।

रात एक बजे तक नीन्द नहीं आई। दर्द शरीर में इधर-उधर भटक रहे थे। नीन्द नहीं आती, तब खयालात बहुत आते हैं और सब बुरे-बुरे। लोगों के किस्से याद आते रहे। जिन्हों ने दिल के दर्द को पेट की वात का दर्द समझा, ज्यादातर हकीम साहब तक पहुँचने के पहले ही अल्लाह को प्यारे हो गए, जो पहुँचे थे उनमें से कुछ ईसीजी मशीन पर शहीद हुए और कुछ आईसीयू में। इक्का-दुक्का जो बचे वे डाक्टर साहब की डाक्टरी चलाने के लिए जरूरी शोहरत के लिए नाकाफी नहीं थे।

हमने सोई हुई संगिनी को जगाया। पेट की वात बहुत तंग कर रही है। उस ने तुरंत ऐसाफिडिटा का तनुकरण आधा पानी प्याले में घोल कर पिलाया, ऊपर से बोली नाभि में हींग लगाई जाए। पर नौबत न आई। हमारी हालत देख कब्जा जमाए लोगों में से कुछ को ब्रह्महत्या के भय ने सताया होगा, तो भागने को दरवाजा भड़भड़ाने लगे। हमने भी शौचालय जाकर उन्हें अलविदा कहा। थोड़े बहुत जो जमे बैठे रह गए उन्हें सुबह के लिए छोड़ दिया। रात को ही संगिनी ने कसम दिलायी कि सुबह डाक्टर के यहाँ जरूर चलना है।

सुबह नहा-धोकर, चंदन-टीका किया ही था कि डाक्टर के यहाँ ठेल दिए गए। पचास रुपए में प्रवेश पत्र बना। चिकित्सक को दिखाया। उस ने विद्युतहृदमापक बोले तो ईसीजी और शुगर जाँच कराने को लिखा। तीन-सौ-सत्तर और जमा कराए। कुल हुए चार-सौ-बीस। ईसीजी हो गया। शुगर के लिए तो सुबह खाली पेट और खाने के दो घंटे बाद बुलाया गया, जो आज संभव ही नहीं था। उस के लिए कल की पेशी पड़ गई। फिर दिल का नक्शा जो कागज पर छाप कर दिया गया था, ले कर चिकित्सक के पास पहुँचे तो उस ने सब देख कर पूछा-धुम्रपान करते हो?

हमने कहा- तीस-पेंतीस साल पहले ट्राई किया था, पर स्वाद जमा नहीं।

तम्बाकू खाते हैं?

हम बोले- हाँ।

तो फिर पूछा- कितना खाते हो?

हमने कहा- कोई नाप थोड़े ही है।

चिकित्सक बोला- जाओ तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है। कुछ नहीं हुआ।

मैं मन ही मन भुन कर रह गया। वे चार-सौ-बीस जो मेरे टूटे, उन का क्या? डाक्टर को थोड़ा बहुत मनोविज्ञान भी आता था। एमबीबीएस या एमडी करते वक्त जरूर पढ़ाया गया होगा। हमारी मुखाकृति पढ़ कर भांप गया। उसने पर्ची वापस ली एक गोली सुबह-शाम भोजन के पहले, पाँच दिन तक। दवा वाले ने पूरे पैंतालीस रूपए झाड़े और बताया कि अम्लता की दवा है।

आज की सुबह पड़ी चार-सौ-पैंसठ की।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

सावधान! हमले से बचें। परागकण आ रहे हैं।

शनिवार-रविवार दो दिन अवकाश के थे। सोचा था पड़ा हुआ कुछ काम करेंगे। लेकिन मेरे जैसे वकीलों के लिए जिन का कार्यालय भी घर पर हो अवकाश का अर्थ कुछ और होता है। एक तो वकील का काम अदालत और अपने कार्यालय तक बिखरा होता है। कार्यालय अपने घर पर होने का मतलब है वकालत-घर-परिवार-ब्लॉगिंग सबका गड्ड-मड्ड हो जाना। अवकाश कभी कभी काम का व्यस्त दिन बन जाता है। इस बीच कुछ अवांछित मेहमान भी आ टपकते हैं।
शनिवार को भी ऐसा ही हुआ। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद की सुस्ती और सरदी लगने के भाव ने धूप सेंकने का मन बनाया और अपने राम चटाई ले छत पर जा लेटे। तेज धूप थी तो चुभती ठंडी हवा भी। रास्ता ये निकला कि पास में धुलाई के बाद सूख चुका पत्नी शोभा का शॉल औढ़ा और उस से छनती हुई धूप सेंकी एक घंटे और नीचे अपने कार्यालय में आकर काम पर लगे।
शाम होते होते नाक में जलन होने लगी। हम समझ गए कम से कम तीन दिन का कष्ट मोल ले चुके हैं। हम ने तुरंत शोभा को सूचना दी। उस ने भी तुरंत हमारी (जिस पर अब उस का एकाधिकार है) होमियोपैथी डिस्पेंसरी से जो अलमारी के दो खानों में अवस्थित है और जिसने हमें पिछले पच्चीस सालों से किसी अन्य चिकित्सक की शरण में जाने से बचाए रखा है, लाकर दवा दी। हम उसी को लेकर दो दिनों से अपने धर्मों को निबाह रहे हैं।
मैं सोच रहा था कि इस जुकाम के आगमन का कारण क्या रहा होगा। घर के सामने पार्क में बहुत से पेड़ हैं जिन में यूकेलिप्टस की बहुतायत है। उन से इन दिनों परागकण झर रहे हैं। वास्तव में वे ही इस अनचाहे मेहमान के कारण बने। खैर जुकाम तो काबू में है और एक दो दिन में विदा भी हो लेगा। पर इस मौसम में जो अभी मध्य अप्रेल तक चलेगा सभी को इन पराग कणों से बचने के प्रयत्न करते रहना चाहिए जो केवल जुकाम ही नहीं, नाक से लेकर फेपड़ों तक को असर कर सकते हैं। इन से हे-फीवर तक हो सकता है और कुछ अन्य प्रकार की ऐलर्जियाँ भी। बीमारी अनचाहे मेहमान बन कर आ जाए तो आप के कामों और आनंद सभी में खलल तो पैदा करेगी ही जेब पर हमला भी करेगी।