अनवरत के पिछले आलेख "
दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे
निन्दनीय के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।
जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।
लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।
इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है। वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है।
हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।
ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।
आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......
1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।