दुखते
हुए जख्मों पर हवा कौन करे,
इस हाल
में जीने की दुआ कौन करे,
बीमार
है जब खुद ही हकीमाने वतन,
तेरे इन
मरीजों की दवा कौन करे ...
किस
शायर की पंक्तियाँ हैं ये, पता नहीं लग रहा है। पर जिसने भी लिखी होंगी, जरूर वह जख्मी
भी रहा होगा और मुल्क के हालात से परेशान भी। आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं।
कोरोना
वायरस ने दुनिया भर को हलकान कर रखा है। दुनिया के सभी देश कोरोना वायरस को परास्त
करने के लिए मुस्तैदी से कदम उठा रहे हैं। लेकिन हम नाटकीय लोग हैं। हम नाटक करने
में जुट गए हैं। बरसात होने के बाद गड्ढों में पानी भर जाता है तो मेंढ़क बाहर
निकल आते हैं, यह उनके प्रजनन का वक्त होता है। वे अंडे देने और उन्हें निषेचित
कराने को अपने साथी को बुलाने के लिए टर्र-टर्र की आवाज करने लगते हैं। इसे ही हम
मेंढ़की ब्याहना कहते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि बरसात मेंढ़की के ब्याहने से होती
है। फिर जब कभी बरसात नहीं होती तो हम समारोह पूर्वक मेंढ़की ब्याहने का नाटक करते हैं,
जैसे उस से बरसात होने लगेगी। हम सब जानते हैं, ऐसा नहीं होता। लेकिन फिर भी नाटक
करने में क्या जाता है। वैसे इन नाटकों से बहुत लोगों की रोजी-रोटी का जुगाड़ हो
जाता है। बल्कि कुछ लोग तो इन्हीं नाटकों के भरोसे जिन्दा हैं। जिन्दा ही नहीं
बल्कि राज तक कर रहे हैं।
कोरोना
वायरस से मुकाबले के लिए हम क्या कर रहे हैं? लगभग कुछ नहीं। हम अपने घटिया धर्मों,
परंपराओँ और अन्धविश्वासों के हथियारों से उसे हराने की बात कर रहे हैं, जिनसे
इंसान के अलावा कोई परास्त नहीं होता। गोबर और गौमूत्र थियरियाँ फिर से चल पड़ी हैं।
यही नहीं उससे नाम से कमाई भी की जा रही है। कुछ सौ रुपयों में गौमूत्र पेय और
गोबर स्नान उपलब्ध करा दिए गए हैं। गाय को उन्होंने कब से माँ घोषित कर रखा है। जो
खुद की माँ को न तो कभी समझ सके हैं और न कभी समझेंगे। यदि वे उसे समझते तो शायद गाय,
गौमूत्र और गोबर के फेर में न पड़ते। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ज्यादातर वायरल
बीमारियाँ पालतू जानवरों से ही मनुष्यों में फैली हैं। लेकिन हम उन्ही पालतू जानवरों
के मल-मूत्र से उसकी चिकित्सा करने में जुटे पड़े हैं।
उधर बचाव
के लिए जरूरी चीजें बाजार से गायब हो चुकी हैं। मास्कों, सैनिटाइजरों और हैंड-वाशों
की बाजार में कोई कमी नहीं होती। टीवी पर
खूब विज्ञापन रोज चलते दिखाई देते रहे हैं। लगभग जितना स्टॉक होता है वह कम भी
नहीं होता। लेकिन मांग बाजार में आने के पहले ही ये सब चीजें बाजार से गायब हो चुकी
हैं। जिससे इन चीजों के दाम बढ़ाए जा सकें और मुनाफा कूटा जा सके। हम दसों दिशाओँ
से मुनाफाखोरों से घिरे हैं।
हमारे
देश के मौजूदा आका भी कम नहीं। जब जनता मुसीबत में है तब इस वक्त में भी वे मुनाफा
कूटने में लगे हैं। कोरोना वायरस के प्रभाव से काफी समय बाद अन्तराष्ट्रीय स्तर पर
तेल की कीमतें गिरी हैं। जब तेल के दाम बाजार से जोड़ दिए गए हैं तो होना तो यह
चाहिए था कि इस का लाभ सीधे उपभोक्ताओं को मिलता। लेकिन सरकार को तेल के दाम गिरना
कहाँ मंजूर है? जितने दाम गिरने चाहिए थे उतना उस पर टैक्स बढ़ा दिया है। जब जनता
सब तरफ से मर रही है तब सरकार अपना खजाना भर रही है। क्यों न भरे? जनता मरे तो मरे
उन्हें क्या? जब जनता भक्ति में लीन हो तो भगवान के लिए वही मौका होता है तब भक्त
की जेब काट कर अपने ऐश के सामान जुटा ले। तो आपके भगवान इस वक्त की सब से बड़ी आफत
के समय इसी में लगे हैं। फिलहाल विदेश यात्राएँ बंद हैं। आफत से बचने के लिए भगवान
बंकर में जमींदोज हैं। खजाना भर रहा है। लेकिन कभी तो ये संकट टलेगा। जैसे ही पता
लगेगा कि कोरोना अब आफत नहीं है। फिर निकलेंगे विदेश यात्रा के लिए।
3 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 15 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
लोगों के दो वर्ग हैं। एक वर्ग डॉक्टर, वैज्ञानिक, इंजीनियर, समाजसेवियों आदि का है जो अपने-अपने स्तर पर इस बीमारी से लड़ने में लगे हैं। दूसरा वर्ग उन बेरोजगार लोगों का है जो बतरस से मूत्र रस में लगे हैं।
@विश्वमोहन आपने सही कहा।
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