@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: यूँ समापन हुआ होली पर्व का

बुधवार, 10 मार्च 2010

यूँ समापन हुआ होली पर्व का

यूँ तो हाड़ौती (राजस्थान का कोटा संभाग) में होली की विदाई न्हाण हो चुकने के उपरांत होती है। न्हाण इस क्षेत्र में होली के बारहवें दिन मनाया जाता है। हमारे बचपन में हम देखते थे कि होली के दिन रंग तो खेला जाता था लेकिन केवल सिर्फ गुलाल से। लेकिन गीले रंग या पानी का उपयोग बिलकुल नहीं होता था। लेकिन बारहवें दिन जब न्हाण खेला जाता था तो उस में गीले रंगों और रंगीन पानी का भरपूर उपयोग होता था। सब लोग अपनी अपनी जाति के पंचायत स्थल पर सुबह जुटते थे और फिर टोली बना कर नगर भ्रमण करते हुए जाति के प्रत्येक घर जाते थे। शाम को जाति की पंचायत होती थी जिस में पुरुष एकत्र होते थे। जिस में वर्ष भर के आय-व्यय का ब्यौरा रखा जाता था। पूरे वर्ष में पंचायत ने क्या-क्या काम किए उन पर चर्चा होती थी। अगले वर्ष में क्या-क्या किया जाना अपेक्षित है, इस पर चर्चा होती थी और निर्णय लिए जाते थे और अगले वर्ष के लिए पंच और मुखिया चुन लिए जाते थे। 
पंचायत में भाग लेने वालों को देशी घी के बूंदी के लड़्डू वितरित किए जाते थे जो कम से कम ढाई सौ ग्राम का एक हुआ करता था।पंचायतें अब भी जुटती हैं। लेकिन न्हाण लगभग समाप्त प्राय हो चला है। केवल ग्रामीण इलाकों में ही शेष रह गया है। कोटा जिले के एक कस्बे सांगोद में न्हाण को एक विशेष सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाया जाता है जो होली से ले कर न्हाण तक चलता रहता है। उस के बारे में फिर कभी।
मेरे यहाँ होली का आरंभ हुआ था बेटी और बेटे के आने से। कल दोनों चले गए। हम उन्हें छोड़ने स्टेशन गए। दोनों की ट्रेन में कोई घंटे भर का अंतर था। पहले बेटे को ट्रेन मिली और घंटे भर बाद बेटी को। बेटी सुबह अपने गंतव्य पर पहुँच गई। बेटा अभी सफर में है उस का सफऱ करीब छत्तीस घंटों का है। वह आज दोपहर बाद ही बंगलूरू पहुँच सकेगा। स्टेशन पर जाते समय उन के चित्र लिए जो यहाँ मौजूद हैं। आज घर एकदम सूना सा लगा। होली पर सब के साथ रहने से फेल गए घऱ को पुनः समेटने में आज पत्नी ने पूरा दिन लगा दिया। मेरे घऱ होली समाप्त हो गई है और घऱ सिमट गया है।

14 टिप्‍पणियां:

Sanjay Karere ने कहा…

दो साल तक उदयपुर में रहने के दौरान लगभग हर दूसरे माह कोटा से गुजरता था। शाम को कोटा में दूसरी ट्रेन के इंतजार में दो तीन घंटे स्‍टेशन पर ही गुजरते थे। आपने स्‍टेशन पर खीचीं गई तस्‍वीरें दिखाकर उदयपुर प्रवास के दिनों की यादें ताजा करा दीं। शुक्रिया द्विवेदी जी।

ghughutibasuti ने कहा…

बढ़िया लेख। बच्चों के आने से त्यौहार त्यौहार से लगते हैं, अन्यथा कब आए कब गए पता भी नहीं चलता।
घुघूती बासूती

अजित वडनेरकर ने कहा…

घर की रौनक परिवार के सदस्यों से ही होती है, सजावट और साजोसामान से नहीं। फिर बच्चों के बड़े होने और बार बार घर लौटने से मिलती खुशियों का तो कहना क्या।
बढ़िया पोस्ट।

Arvind Mishra ने कहा…

सही है बेटे बेटी के आने पर होली दिवाली और जाने पर समापन ! यही अनुभव हमारा भी है !

विष्णु बैरागी ने कहा…

अब तो बच्‍चों का घर आना ही एक त्‍यौहार हो गया है। ऐसे में, त्‍यौहार पर बच्‍चों का आना तो मानो सोने में सुहागा।
इन क्षणों से मेरा साबका पहले ही हो चुका है। ऐसे खालीपन को झेलना अपने आप में कष्‍टदायक है।
आपकी यह पोस्‍ट मानो मेरे लिए लिखी गई हो।

Khushdeep Sehgal ने कहा…

न्हाण के बारे में पहली बार जानकारी मिली...ब्लॉगिंग का ये भी ब़ड़ा लाभ है कि देश के अलग-अलग हिस्सों के तीज-त्योहारों से भी अवगत हुआ जा सकता है...

वैसे द्विवेदी सर, ये देखा गया है कि अपने दूर रहते हैं तो दिल के ज़्यादा करीब हो जाते हैं...लेकिन इस भौतिकतावादी युग में एक छत के नीचे रहते हुए भी कई परिवारों में सदस्य एक दूसरे से खिंचे-खिंचे और दिल से दूर दिखाई देते हैं....ऐसा क्यों...

जय हिंद...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

परंपराओं की सुंदर जानकारी दी आपने. बाद मे जब लोग भूल जायेंगे तब आपके ब्लाग पर ऐसी जानकारी दी गई है..का उल्लेख होगा.

बच्चों की व्यथा कथा तो आपकी हमारी उम्र वालों के साथ ऐसा ही है. शुभकामनाएं.

रामराम.

शोभा ने कहा…

जैसे आपके यहाँ नहान होता है यहाँ मालवा में रंग पंचमी होती है यानि होली के दिन गुलाल से और पंचमी के दिन गीले रंगों से. पर बात तो वही है बस दिन अलग है .

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लेख लिखा, लेकिन जब पढा कि दोनो बच्चे त्योहार मना कर अपनी जगह वापिस चलेगे तो मन बहुत उदास हुआ, मुझे तो बच्चो के संग ही सब अच्छा लगता है, वेसे ही स्थिति आप की भी लगती है.
धन्यवाद

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

घर सिमट गया है..
और आप फैल रहे हैं...अनवरत...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत सुन्दर विवरण । आपकी पोस्ट आपके बेटे से पहले बेंगळुरु पहुँच गयी ।

अजय कुमार झा ने कहा…

हां सर बिल्कुल सच कहा आपने .....अब तो त्यौहारों के बहाने से ही बाल बच्चे मिल पाते हैं अपने परिवारों से ...और न्हाण के बारे में जानना अच्छा लगा ..
अजय कुमार झा

Abhishek Ojha ने कहा…

हमारी होली का समापन तो उसी दिन शाम तक हो गया था ! अपनों से मिलना हो जाए तो फिर होली का मजा वैसे ही दुगुना हो जाए.

निर्मला कपिला ने कहा…

बच्चों के साथ ही होती हैं घर की रोनकें। रोचक विवरण । रोचक विवरण है शुभकामनायें मगर भाभी जी के मन को महसूस कर रही हूँ काम करते हुये भी आँखें नम ही होंगी।