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मंगलवार, 24 अगस्त 2010

सिंथेटिक मावा/खोया और उस की मिठाइयों का बहिष्कार करें ....

स कुछ देर में तारीख बदलने वाली है। हो सकता है यह आलेख प्रकाशित होते होते ही बदल जाए। नई तारीख रक्षा बंधन के त्यौहार की है। यूँ हमारे यहाँ तिथियाँ सूर्योदय से आरंभ होती हैं। इस कारण कल का सूर्योदय होती ही रक्षाबंधन आरंभ हो जाएगा। हम लोग अपने घरों पर श्रवणकुमार की पूजा करेंगे। घर के हर दरवाजे पर उस का प्रतीकात्मक चित्र बनाया जाएगा। उस की पूजा की जाएगी। उस के बाद रक्षा बंधन आरंभ हो जाएगा। हर बहिन अपने भाई को राखी बांधने के पहले टीका करेगी, फिर रुपया नारियल रख कर वारणे लेगी और मिठाई का डब्बा खोल कर कम से कम एक टुकड़ा मिठाई भाई के मुख में ऱख देगी। भाई ऐसे वक्त पर मना भी नहीं करेगा। 
राखी के त्यौहार पर आने वाली मिठाई में से अधिकांश खोये/मावे की बनी होगी। लेकिन इधर देखने में आ रहा है कि स्थान स्थान पर खोया/मावा पकड़ा जा रहा है जो जाँच पर नकली या खराब निकल रहा है। यहाँ ट्रेन में कल डेढ़ क्विंटल मावा  शौचालय में रखा मिला जो अवैध रूप से कहीं से लाया जा रहा था। अब इस के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने में क्सी को संदेह हो सकता है? सिन्थेटिक दूध से मावा बनाया जा रहा है। सिन्थेटिक मावा या अवधिपार खराब हुआ मावा स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। सरकार की ओर से प्रचार किया जा रहा है कि मावा और उस से बनी मिठाई जाँच-परख के बाद विश्वसनीय होने पर ही खरीदें। लेकिन आम आदमी के पास जाँच का क्या साधन है। वह विश्वास पर जीता है लेकिन क्या कोई भी विश्वास के योग्य है? सिन्थेटिक मावा और दूध का निर्माण केवल मुनाफे के लिए नहीं होता। इस का एक कारण यह भी है कि शुद्ध दूध का उत्पादन मांग से कम है। त्यौहारों पर तो इस की मांग कई गुना बढ़ जाती है। इस मांग की पूर्ति किसी तरह संभव नहीं है। ऐसी हालत में सिंथेटिक दूध और मावे का बनना किसी हालत में नहीं रोका जा सकता।
से रोके जाने का एक हल हम उपभोक्ताओं के पास यह है कि हम मावा/खोया का बहिष्कार आरंभ करें। यह मौजूदा परिस्थितियों में संभव भी है। जब मावा स्वास्थ्य के लिए चुनौती बन गया है तो ऐसी स्थिति में मावे का सार्वजनिक बहिष्कार कर देना ही बेहतर है। इस से मावे की मांग में कमी आएगी। जब मावे के ग्राहक कम होंगे तो निश्चित रूप से इस का बनना कम हो जाएगा। जिस से दूध की उपलब्धता बढ़ जाएगी। दूध की उपलब्धता बढ़ने से सिन्थेटिक दूध के व्योपार भी फर्क पड़ेगा। मेरा तो यह मानना है कि राज्य सरकारों को रक्षाबंधन जैसे त्योहारों के एक सप्ताह पहले से एक सप्ताह बाद तक मावा/खोया और उस के उत्पादों के निर्माण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।जिस से मावे का उत्पादन न हो दूध की उपलब्धता बनी रहे। इसी समय में सरकारी विभाग अपनी चौकसी और निरीक्षणों के बढ़ा दें तो इस समस्या से निजात पाया जा सकता है।
अब सरकार तो सोचेगी तब सोचेगी। हम तो सोच ही सकते हैं कि इस रक्षाबंधन पर न मावा/खोया खरीदेंगे और न उन से बनी मिठाइयाँ। मैं तो पिछले एक वर्ष से यही कर रहा हूँ। मेरे यहाँ मावा/खोया और उस की मिठाई नहीं आती। श्रीमती जी ने उस के विकल्प में दूसरी मिठाइयाँ घर पर ही बना ली हैं। क्या आप भी ऐसा करेंगे कि आज से ही खोया/मावा और उस से बनी मिठाइयाँ बनाना और लाना बंद कर दें?




सभी को रक्षाबंधन के त्यौहार पर हार्दिक शुभकामनाएँ!!!






 ..... व्यंग्य चित्र मस्तान टून्स से साभार

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

मुश्किल का दूध

दिनांक - 6 अगस्त 2010, प्रातः 5:15,
भी-अभी दूध ले कर लौटे हैं। 
यूँ, छह माह पहले तक दूध घर पर आ जाया करता था। आधा किलोमीटर के दायरे में सात आठ दूध डेयरियाँ हैं। जिन में सरस दूध डेयरी के आउटलेट भी हैं, जिन में थैली बंद दूध भी मिलता है। लेकिन यह दूध कभी श्रीमती शोभाराय को पसंद नहीं आया। न जाने कब का निकला होता है। फिर उन का पेस्चराइजेशन कर के उसे थैलियों में बंद किया जाता है। निश्चित ही दूध का प्राकृतिक स्वाद उस से छिन जाता है। शोभा इन का दूध लाती भी थी तो केवल दही जमाने के लिए। 
गूजर की झौंपड़ी के बाहर भैंसें
हले गाँवों से आने वाले दूधियों से दूध लिया करते थे। सात-आठ साल पहले जब कोटा के आस पास लहसुन की खेती बढ़ गई तो दूध में उस की महक शामिल होने लगी। दूधियों का दूध बंद कर दिया गया। एक गूजर की डेयरी से दूध आने लगा। पाँच-छह साल उस से दूध आता रहा। उस का भी बड़ा अजीब किस्सा था। वह दो-तीन क्वालिटी का दूध सप्लाई किया करता था। एक सब से अधिक कीमत का, एक सब से कम कीमत का और दो उस के बीच की कीमत के। हमारे यहाँ सब से अधिक कीमत का दूध आता रहा। लेकिन उस की गुणवत्ता लगातार गिरती रहती थी। तब तक, जब तक कि कीमतें न बढ़ जातीं। कीमतें बढ़ जाने पर अचानक गुणवत्ता में सुधार हो जाता था। चार-छह माह बाद फिर से उस की गुणवत्ता गिरने लगती थी और तब तक गिरती रहती थी जब तक कि फिर से एक बार दूध की कीमतें न बढ़ जातीं। साल भर पहले इस डेयरी के दूध में भी लहसुन की महक आने लगी। शिकायत की गई तो कहा कि वह ऐसा दूध घर पर सप्लाई नहीं कर सकता, दूध डेयरी से लेने आना पड़ेगा। बिना महक का दूध सिर्फ बोराबास के पठार से आता है। उधर लहसुन की खेती नहीं होती। उधर लहसुन की खेती क्या होती? उधर खेती होती ही नहीं थी, मीलों जंगल जो है। मैं कोई साल भर तक उस के यहाँ से दूध लाता रहा। लेकिन कभी-कभी वहाँ भी गड़बड़ हो जाती। आखिर उस का दूध बंद करना पड़ा। अब समस्या खड़ी हुई कि दूध कहाँ से लाएँ?
गूजर की झौंपड़ी
ब श्रीमती जी ने एक नया स्रोत तलाश किया। कोई एक किलोमीटर पर दशहरा मैदान है। उसी में कोई बीस-तीस गूजरों ने अपनी झोंपड़ियाँ डाल रखी हैं। वे भैंस-गाय पालते हैं। सुबह-शाम ग्राहकों को दूध सामने दुह कर देते हैं। वहीं कुछ व्यापारियों के डेरे भी हैं जो दिन में दो बजे और सुबह दो बजे अपने जानवर दुहते हैं। सुबह का दूध तो खुद दूधिए बस्ती में बेचने के लिए ले जाते हैं और उस में उतना ही पानी मिला कर सस्ते में बेचते हैं। दिन का दूध अवश्य सीधे ग्राहकों को मिल जाता है।  डेयरी से दूध बंद हुआ तो उस के सब से अच्छे दूध का भाव पच्चीस रूपये लीटर था। लेकिन ये सामने दुहने वाले गूजर तीस के भाव सामने भैंस दुह कर दूध देते थे। परेशानी यही थी कि वहाँ दूध दुहने के समय के पहले पहुँचना पड़ता है। जरा भी देरी हुई कि दूध में पानी या गाय का दूध मिला देना गूजरों के बाँए हाथ का खेल है। अब रोज-रोज दशहरा मैदान जाना तो संभव नहीं। हम ने तीन दिनों का दूध एक साथ लाना आरंभ कर दिया। सरस डेयरी ने दूध के भाव बढ़ाए शहर की दूसरी डेयरियों ने भी भाव में वृद्धि कर दी। दशहरा मैदान में भी भैंस का दूध तीस से पैंतीस हो गया। इस साल जुलाई माह बिना बरसात के निकल गया। 
गूजर की झौंपड़ी के पास उपला उद्योग
म जिस गूजर के यहाँ से दूध लाते हैं वह सुबह पौने पाँच बजे और शाम को चार बजे अपने जानवरों को दुहता है। अब इसी समय वहाँ जाया जाए तभी दूध सही मिले। अब अक्सर अदालत से लौटते तो पाँच से ऊपर का समय हो जाता है। हम सुबह के समय दूध लाने लगे। सप्ताह में तीन दिन सुबह साढ़े-चार उठना और कार से दूध लाना आरंभ हो गया। गूजर की झौंपड़ी मुख्य सड़क से कोई सौ-डेढ़ सौ मीटर अंदर मैदान में है। जुलाई में तो बरसात न हुई अगस्त के आरंभ से बरसात होने लगी तो मैदान में कीचड़ होने लगा। पैदल चलना तो कठिन था ही कार का जाना भी कठिन हो गया। आज तो पक्की सड़क पर भी कार चलाना कठिन हो गया। कल सुबह बरसात हुई थी। मैदान में आज सुबह तक कीचड़ था। गाएँ सारी सड़क पर आ बैठी थीं और सारी सड़क उन्हों ने अवरुद्ध कर रखी थी। हम जैसे-तैसे कार ले कर गूजर की झोंपड़ी से बीस मीटर दूर तक पहुँचे। लेकिन वे दस मीटर भी पार करना भारी था। गूजर के यहाँ एक ग्राहक बैठा था और वह भैंस दुह रहा था। श्रीमती जी कार से उतरी लेकिन वे मुश्किल से दस मीटर तक पहुँच सकीं आगे कीचड़ के कारण जाना कठिन था। आखिर शेष दस मीटर गूजर खुद दूध की बाल्टी ले कर आया और दूध नाप गया। श्रीमती जी वापस लौट कर कार में बैठीं तो कार को वापस मोड़ना कठिन हो गया। जैसे-तैसे आगे पीछे कर कार को वापस घुमाया और अपने घर पहुँचे।
गूजर से दूध ले कर लौटती श्रीमती शोभाराय
 मैं ने कहा - आज का दूध बहुत मुश्किल का दूध है, और इस का भरोसा भी नहीं कि इस में पानी मिला है या गाय का दूध। श्रीमती जी कहने लगीं अभी गर्म करते ही पता लग जाता है। खैर पोस्ट समाप्त होने के पहले वे कॉफी का प्याला टेबुल पर रख गईं। मैं टाइप करते-करते उसे खत्म भी कर चुका हूँ। मुझे दूध में कोई खोट नहीं दिखा, न स्वाद का न पानी का।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

वह थी औरत (दूध मां का)

मुझे मेरे एक मित्र ने ही इस घटना का ब्यौरा दिया था। मस्तिष्क के किसी कोने में पड़े रहने के कारण हो सकता है इस में कुछ उलट फेर हो गया हो। लेकिन जिस तरह की बहसें छिड़ गई हैं उन में यह प्रासंगिक है।

वाई माधोपुर से गंगापुर सिटी के बीच ट्रेन के दूसरे दर्जे के डब्बे में किसी जवां मर्द ने एक महिला की छातियां दबा दीं और आगे खिसक लिया। बिलकुल ग्रामीण कामकाजी महिला, वैसी ही उसकी वेशभूषा, गौर वर्ण, सुगठित शरीर। महिला ने उस युवक पर निगाह रखी। उसे अपने से दूर न होने दिया। गंगापुर सिटी स्टेशन पर युवक दरवाजे की ओर बढ़ा, पीछे-पीछे वह महिला भी। दोनों आगे-पीछे नीचे प्लेटफॉर्म पर उतरे।

नीचे उतरते ही महिला ने एक हाथ से युवक का हाथ पकड़ा, दूसरे हाथ से अपनी अंगिया ऊँची कर छातियाँ उघाड़ दीं और जोर से कहने लगी -लल्ला। तेरी अम्मां जल्दी मर गई बेचारी, सो कसर रह गई दूध पिलाने की। अम्माँ को दूध पी लियो होतो तो छिछोरापन ना होतो। वो कसर आज पूरी कर देऊँ हूँ। पी ले दूध मेरो। आगे से कोई तेरी माँ को गाली ना देगो तेरी हरकत के कारन। तू ने तो सारे जग की मैयन की शान बिगार दीन्हीं।

युवक ने बहुत कोशिश की हाथ छुड़ाने की, पर हाथ तो लौह-शिकंजे में जकड़ गया था जैसे। प्लेटफॉर्म पर भीड़ जुट गई। युवक महिला के सामने गिड़गिड़ाने लगा। मैया छोड़ दे मोहे। गलती हो गई मोसे। आगे से नहीं होगी।
बहुत गिड़गिड़ाने पर महिला ने कहा- खा कसम तेरी मैया की।
-मैया कसम, कभी गलती नाहीं होगी।
-मेरे सर पर हाथ धर के खा, कसम।
युवक ने महिला के सर हाथ धर के कसम खाई - मैया कसम, आगे कभी गलती नाहीं होगी।
- मैं तेरी कौन?
-तू मेरी मैया।

हाँ भीड़ में जुटी महिलाओं की ओर इंगित कर कहा-और ये कौन तेरी?
-ये सब भी मेरी मैया।
तब उस महिला ने कहा। चल बेटा सामान उठा मेरा और मेरे कूँ मोटर में बिठा।

युवक ने महिला का सामान उठाया और चल दिया मैया को मोटर में बिठाने। पीछे पीछे था लोगों का हजूम।