जोग लिखी हाड़ौती का हिरदा, कोटा राजसथान सूँ, सारा जम्बूदीप अर भरतखण्ड का रह्बा हाळाँन् क ताईं दिनेसराई दुबेदी की आड़ी सूँ सँकरात को राम राम बँचणा जी। राम जी की किरपा सूँ य्हां सब मजामं छे। राम जी व्हाँ भी थानँ मजामँ रखाणे।
आज तड़-तड़के ही नारायण परसाद जी को मेल मल्यो, कै हिन्दी कि बोल्याँन् का कतनाँ चिट्ठा परकासित हो रिया छे ? मेल मँ म्हाँकी हाड़ौती क ताईं हारोटी मांड मेल्यो छो। म्हारे तो या बात तीर सी लागी। नाँव बगड़बो खुणनँ छोखो लागे छे। ज्ये मनं तो सोच ली के आज तो अनवरत पे हाड़ौती की पोस्ट जावे ही जावे।
हाड़ौती ख्हाँ छे ? राजस्थान का नक्सा मं दक्खन-पूरब मं एक गोळ-गोळ उभार दीखे छे। बस या ही हाड़ौती की धरती छे। कोटो, बून्दी, झालावाड़ अर बाराँ याँ चार जिलाँन को जो खेतर छे ऊँ स ई हाड़ौती खे छे।
।। बड़ी सँकरात।।
आज बड़ी सँकरात छे। बड़ी अश्यां के यो म्हाँके राजस्थान मँ संसकर्ति को सबसूँ बड़ो थ्वार छे। खास कर र ब्याऊ स्वाणी छोरियाँ के कारणे। व्हाँ ने सासरा मँ ज्यार कश्यां रह् णी छाइजे या सिखाबा के कारणे घणा सारा नेग (बरत) कराया जावे छे। ज्यां मँ सूँ दो चार अश्याँ छे।
तारा दातुन
छोरियाँ क ताँईं तड़-तड़के ई उठणी पड़े, अर तारा स्वाणी ई दातुन करणी पड़े। बरस मँ एक भी दन चूक नं होणी छावे, नँ तो फेर एक बरस ताँईं बरत करणी पड़े।
मून
छोर् यां ब्याऊ स्वाणी होतां ईं सँकरात सूँ एक बरस ताईं मून रखणी पड़े। मूनी रहबा को अभ्यास कराबा के कारणे। संझ्या की टेम दन आँथतांईं छोर् यां राम राम ख्हेर मूनी हो जावे। जद संझ्या फूले अर तारा हो जावे तो ऊंको मून कोई दूसरो मंतर बोल र छुड़ावे, जदी छोरी बोले, व्हाँ ताईं मूनी ई रेवे। मून छुड़ाबा को मंतर अश्यां छे। .....
‘आम्बो मोरियो, नीम्बो मोरियो, मोरियो डाढ़्यूँ डार।
सरी किसन जी सेव बैठ्या, राजा राणी कांसे बैठ्या। झालर बाज घड़ावळ बाजी, संझ्या फूली, तारा होया।
मूनी जी की मून छूटी, मूनी बाबा राम राम।।’
ईं का तोड़ मं मून लेबा हाळी छोरी राम राम खेवे, जद मून छूटे। बापड़ी नरी छोरियाँ मून छुड़ाबा के कारणे मून को मंतर जाणबा हाळा नं ढूँढती ही रेवे। ज्याँ ताईं न मले मूँडा प ताळो पटक्याँ रैणी पड़े। म्हारी बा’ (दादी) के गोडे नरी छोरियाँ मून छुड़ाबा आती। बा’ न्हं होती तो ऊँ की बाट न्हाळती। छोरियाँ की परेसानी देख र बा’ नै यो मंतर म्हारे ताँईं सिखायो छो, ज्ये आज थाँ ईँ बता दियो।
चड़ी चुग्गो
मून की ई नाईं बरस भर ताईं रोजीनां एक मुट्ठी चावळ, चावळ न होवे तो ज्यार का दाणा, चड़्यां के ताईं पटकणी पड़े। ईं मं चूक हो जावे तो दूसरे दन दो मुट्ठी देणी पड़े। अश्यां भी कर सके क, म्हींना भर ताईं एक मुट्ठी दाणा रोज का भेळा करे, अर म्हीनो होताँ ईं पूरी तीस मुट्ठी दाणा चड्याँ नें पटके।
ये तीन बरत मनं यां मांड्या। अश्या तीन सौ आठ नेग होवे छे।
सँकरात कश्याँ मनावै?
सँकरात पे ब्हेण-बेट्याँ ने फीर मं बुलावै। फेर जीं के खेत होवे, सारी लुगायां छोखा-छोखा कपड़ा फेर र खेत मं जावे। व्हाँ चावळ-दाळ को, नँ तो बाजरा-दाळ को खीचड़ो गाड़ र आवे। खेताँ में खूब घूमे-फरे के घाघरा की लावणाँ सारा खेत में फर जावे। अश्याँ खी जावे के अश्याँ करबा सूँ लावणी पे खूब फसल होवे अर समर्धी घरणँ आवे छे। सँकरात के बाद सब ब्हेण-बेट्याँ अर भाणजा-भाणज्याँ ने नया कपड़ा-लत्ता दे र बिदा करे छे। संकरात के दन चावळ-दाळ को खीचड़ो बणावै, तिल्ली का लड्डू, पापड़ी, चक्की बणावे। यां नै दान करे, अर या नं ई खावै। घर मं कत्त-बाटी-दाळ को भोजन बणावे। जतनो हो सके गरीबाँ के ताईं ख्वावे, अर दान करे। सुहागण्याँ
सुहागण्याँ ईं दन चूड़ो, बिन्दी, सिन्दूर, कपड़ा अर सुहाग का सन्दा सामान सासू नँ या सासरा की कोई भी बड़ी सुहागण नै देवे अर आसीस लेवे।
आदमी अर छोरा
आदमी अर छोरा ईं दन गुल्ली-डंडा खेले। पण आज खाल तो देख्याँ-देखी पतंगां उडाबा को चलण हो ग्यो। म्हाँ कै कोटा मँ शायर शकूर ‘अनवर’ सा’ब क’ य्हाँ दस-बारा बरस सूँ सँकरात प’ सिरजन सद्भावना समारोह मनायो जावे छे। जी मेँ सहर का सारा साहित्यकार भेळा हो’र कविता पढे छे, पतंगाँ उड़ाव छे, तिल्ली की गजक, रेवड़ी, लड्डू, दाळ-चावल की खीचड़ी खावे छे।
उश्याँ हाड़ौती मं ईं जनम्यो अर बावन बरस खडग्या। पण अतनी सी हाड़ौती मांडबा में पसीनो आग्यो, ईं श्याळा मँ भी।
कोसिस रह्गी क’ ‘अनवरत’ पै म्हीनाँ मँ क’ सात दनाँ मँ एक पोस्ट हाड़ौती मँ जावै। पण ईं सूँ हाड़ौती का लोग ज्यादा सूँ ज्यादा जुड़गा जदी या चाल पावगी।
या पोस्ट तो खालिस नाराइण जी को परसाद छे।
नाराइण। नाराइण।