@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Litrature
Litrature लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Litrature लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

'विकल्प' सृजन सम्मान 2011 वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा को

दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण में आज यह खबर छपी है -
वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा होंगे सम्मानित 
‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच की ओर से नववर्ष एवं मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को दोपहर 1:30 बजे श्रीपुरा स्थित शमीम मंजिल पर ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ का आयोजन होगा। विकल्प के सचिव शकूर अनवर ने बताया कि इस वर्ष विकल्प का सृजन सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा (झालावाड़) को दिया जाएगा। समारोह के मुख्य अतिथि कवि बशीर अहमद मयूख होंगे। अध्यक्षता अंबिकादत्त, प्रो. हितेश व्यास एवं रोशन कोटवी करेंगे। विशिष्ठ अतिथि मेजर डीएन शर्मा ‘फजा’, प्रो. एहतेशाम अख्तर, निर्मल पांडेय, दुर्गाशंकर गहलोत, टी विजय कुमार व रिजवानुद्दीन होंगे। सम्मान समारोह के बाद वृहद काव्य गोष्ठी का आयोजन होगा, जिसमें हाड़ौती अंचल के प्रमुख कवि एवं शायरों का काव्यपाठ होगा। संचालन चांद शेरी एवं हलीम आईना करेंगे। सृजन सम्मान वाचन कृष्णा कुमारी करेंगी तथा सद्भावना वक्तव्य अरुण सेदवाल देंगे।
जी, हाँ! हर मकर संक्रांति पर शकूर 'अनवर' के घर 'शमीम मंजिल' पर एक हंगामा समारोह होता है। शांति के प्रतीक श्वेत कपोतों की उड़ानें, फिर आसमान में इधर-उधर गोते खाती, पेंच लड़ाती पतंगों में शामिल होती शमीम मंजिल की पतंगें, गुड़-तिल्ली की मिठाइयाँ और चावल-दाल की खिचड़ी, हाड़ौती अंचल के किसी कवि-साहित्यकार का सम्मान और काव्यगोष्टी। पिछले वर्ष के इस हंगामा समारोह के चित्र और रिपोर्ट यहाँ मौजूद हैं।
यह चित्र पिछले साल के समारोह का है, जिस में दिखाई दे रहे हैं शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए। इस में मैं भी हूँ जनाब अब इसे पहेली समझते हुए बताइए कि कहाँ हूँ, पहेली का जवाब इस साल के समारोह की रिपोर्ट में देखियेगा।
ब आप सोच रहे होंगे कि ऊपर वाली खबर में भी दिनेशराय द्विवेदी तो कहीं हैं ही नहीं। तो भाई, इस खबर में सिर्फ कवियों के नाम छपे हैं। बाकी सारे काम तो अपने ही जिम्मे हैं, जैसे पतंग उड़ाना, तिल्ली-गुड़ के लड्डू और खिचड़ी उदरस्थ करना और फोटो उतारना। आ सकें, तो आप भी आएँ, यह एक आनंदपूर्ण दिन होगा।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

आप ने कुत्ता पाला या नहीं?

हो सकता है आप ने भी कुत्ता पाल रखा हो, यह भी हो सकता है कि आप ने कुत्ते पाल रखे हों। लेकिन मैं ने कभी कुत्ता नहीं पाला। पर इस का ये मतलब कतई नहीं है कि मैं कुत्तों को नापसंद करता हूँ। वे मुझे अक्सर बुरे भी नहीं लगते। लेकिन मुझे उन्हें पालना कतई पसंद नहीं है। यहाँ तक कि मुझे उन्हें रोटी डालना या कुछ खिलाना भी पसंद नहीं है। होता यह है कि आप ने किसी कुत्ते को रोटी डाली नहीं कि वह रोज उसी वक्त आप के घर के बाहर आ कर पूंछ हिलाना शुरू कर देता है। अब उस दिन आप के यहाँ रोटी नहीं है तो आप का मन उदास हो जाएगा। बेचारा कुत्ता दुम हिला रहा है और आप के पास उस के लिए रोटी नहीं है। आप उसे भगाना चाहेंगे तो वह भागेगा नहीं, इधर उधर देखने लगेगा, कुछ देर बाद फिर से आप की और ताकेगा और दुम हिलाएगा।
मेरे नए घर में एक दिन मेरे कनिष्ट साथी आए, मैं छत पर था वे सीधे दफ्तर में घुस गए। मैं छत से नीचे उतर रहा था तो मेरी निगाह गेट की ओर गई तो देखा गेट खुला है और अंदर एक कुत्ता खड़ा है। मैं ने उसे बाहर निकाल कर गेट लगा  दिया। दो-तीन मिनट बाद ही गेट के बाहर से कुत्तों के भोंकने और एक दूसरे को गरियाने की आवाजें आने लगीं। मैं ने गेट खोला तो जो कुत्ता गेट के अंदर आया था वह गेट से चिपका खड़ा था और मुहल्ले के कुत्ते उस पर भोंक रहे थे। गेट के बाहर मुझे देखते ही सब चुप हो गए। मेरे कनिष्ट दौड़ कर आए और कहने लगे यह कुत्ता मेरे साथ आया है और दूसरे मुहल्ले का होने के कारण आप के मुहल्ले के कुत्ते इस पर भोंक रहे हैं। उस की यहाँ उपस्थिति उन्हें यहाँ बर्दाश्त नहीं हो रही है। मैं ने उस कुत्ते को अंदर ले कर गेट लगा दिया। मुहल्ले के कुत्ते चले गए। कुत्ता गेट के पास ही बैठ गया। मैं ने कनिष्ट से पूछा क्या आप ने पाल रखा है। उन का जवाब था, पाल तो नहीं रखा, लेकिन उसे रोज रोटी डालते हैं इस लिए हिल गया है। हमारे पीछे-पीछे चल देता है। मुहल्ले की सीमा आते ही हम उसे वापस भेज देते हैं। आज भूल गए जिस से साथ आ गया। यह हमारे गेट के बाहर बैठा रहता है। इस से घर की सुरक्षा रहती है।
निष्ठ जी और कुत्ते का रिश्ता बड़ा अजीब था। कुत्ते को रोटियाँ चाहिए थीं वे कनिष्ठ जी ने उस पर दया कर के डालना आरंभ किया था। फिर कुत्ते ने रोटियां चुकाने के लिए घर की पहलेदारी आरंभ कर दी। अब उन में अनन्य संबंध स्थापित हो चुका था। वैसे हमारे यहाँ रिवाज है कि पहली रोटी गाय को डाली जाती है और बची हुई कुत्ते को। लेकिन यदि आप ने कुत्ता पाल लिया तो उस के लिए रोटियाँ बनानी पड़ती हैं। अपनी पसंद का कोई खास कुत्ता पालना हो तो उस के नखरे भी उठाने पड़ते हैं। उस के लिए खास भोजन लाना पड़ता है, उसे नहलाना, टहलाना पड़ता है, और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है। अक्सर बड़े बड़े घरों, कोठियों और बंगलों में कुत्ते पाले जाते हैं, वहाँ लिखा होता है, कुत्तों से सावधान! आप ने जैसे ही बंगले की कॉलबेल बजाई नहीं कि कुत्ता भोंकना आरंभ कर देता है। जैसे घन्टी बजा कर आपने अपराध कर दिया हो। वैसे भी कॉलबेल का काम पूरा हो चुका होता है और आगे का कर्तव्य कुत्ता पूरा करता है। कुत्ते की आवाज सुन कर अक्सर कोई बंगले में दिखाई देने लगता है। अगर वह आप को जानता है तो कुत्ते को बांध देता है। यदि कुत्ता पहले से बंधा होता है तो कहता है आप बैखोफ अंदर आ जाइये, कुत्ता कुछ नहीं करेगा। मेरी धारणा है कि सब बड़े-बड़े लोग कुत्ते पालते हैं, कुत्तों के बिना उन का काम नहीं चल सकता। 
कुत्ते बड़े लोगों के बहुत काम सरकाते हैं। जैसे कोई बड़ा उद्योग लगाना हो तो पहले कुत्ता पालना पड़ता है। कोई भी बड़ा काम करना हो तो कुत्ता पालना जरूरी है, वर्ना वह भोंकने लगेगा और सब को पता लग जाता है आप क्या करने जा रहे हैं और क्यों करने जा रहे हैं। इस तरह कुत्ते पालना बड़े लोगों के लिए जरूरी कर्म है। कुत्ता पाल लिया तो वह आप की ओर से दूसरों पर भोंकता है, आप सुरक्षित रहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि एक बड़े आदमी ने पिछले दिनों कहा कि वह हवाई जहाज कंपनी चलाना चाहता था। लेकिन उस के लिए कुत्ते पालना जरूरी था और उसे कुत्ते पालना पसंद नहीं था। मुझे इस बयान पर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्यों कि मैं पहले से जानता हूँ कि कुत्ते पाले बिना कोई भी उद्योग लगाना और चलाना संभव नहीं है। मैं ही क्या यह बात तो सभी जानते हैं, यहाँ तक कि बच्चा-बच्चा जानता है। मुझे आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि वे दूसरे उद्योग कैसे चला रहे हैं?
ब भले ही यह बयान उन बड़े आदमी ने गलती से दिया हो, पर इस से बड़े आदमियों पर संकट आ गया। संकट कुत्तों पर और उन के मुखियाओं पर भी आया। आखिर यह बात दूसरे बड़े आदमी कैसे सहन करते? यह समझा जाने लगा कि सब बड़े लोग कुत्ते पाल कर ही कारोबार चलाते हैं। दूसरे ने तपाक से कहा कि किसी कुत्ते में हिम्मत नहीं कि रोटी के लिए मेरे सामने दुम हिलाए। एक संन्यासी भी मैदान में आ गए, कहने लगे कि कुछ कुत्ते उन से दुम हिलाते रोटियाँ मांगने आए थे लेकिन उन्हों ने उस की शिकायत उन के मुखिया से की तो मुखिया ने कहा कि कुत्तों को आप से रोटियाँ ऐसे नहीं मांगनी चाहिए थीं जिस से लगे कि वे अपने लिए मांग रहे हों। उन्हें रोटियाँ किसी आश्रम के लिए मांगनी चाहिए थीं। 
खैर, बात कुछ भी हो। यह बात तो सर्व सिद्ध है कि कुत्तों के बिना कारोबार नहीं चल सकता। कुछ खुले आम कुत्ते पालते हैं, कुछ चुपके-चुपके। कुछ पालते तो हैं पर सब के सामने मानते नहीं कि, पालते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि कुत्तों के बिना कारोबार एक कदम भी नहीं चल सकता। जो लोग बिना कुत्ते पाले कारोबार चलाने की बात करते हैं, वे या तो निरे बेवकूफ हैं और कारोबार डुबोने में लगे हैं; या फिर वे होशियार बनने की कोशिश करते हैं। गुपचुप तरीके से अंडरग्राउंड में कुत्ते पालते हैं और साफ मुकर जाते हैं कि वे कुत्ते पालते हैं या उन्हें रोटियाँ डाल कर हिलाते हैं। वे जानते हैं कि कुत्ते पालने की यह तकनीक कुछ लोग और सीख गए तो कम्पीटीशन बढ़ जाएगा, इसी लिए झूठ-मूट मना करते हैं। वैसे मैं भी एक निरा बेवकूफ आदमी हूँ। बड़ा होने का गुर जानते हुए भी कुत्ते नहीं पालता। शायद मैं बड़ा ही नहीं बनना चाहता। पर आप बताएँ कि आप का क्या इरादा है? कुत्ते पालने का? या मेरी तरह बने रहने का? 

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

पल्ला झाड़

खुलने लगें जब राज
न लगें लोग जब साथ
तब खिसियाहट होती है
बिल्ली खंबा नोचती है।


जब पता लगता है
कि एक निरा मूर्ख
नौ बरस तक
उन का भगवान स्वरूप
एक-छत्र नेता बना रहा 

तब यही बेहतर कि
भक्त-गण ऐसे भगवान से
पल्ला झाड़ लें
  • दिनेशराय द्विवेदी

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-2

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। कल आप ने प्रथम भाग पढ़ा आज दूसरा और अंतिम भाग प्रस्तुत है। 

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
 स सभ्यता का दूसरा सिद्धांत है - 'Business is business' अर्थात व्यवसाय व्यवसाय है। उस में भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं है। पुराने जीवन सिद्धान्त में वह लट्ठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन देन का सवाल है, रुपये पैसे का मामला है, वहाँ न दोस्ती का गुजर है, न मुरौवत का, न इन्सानियत का, बिजनेस में दोस्ती कैसी, जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए, फिर आप की जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन जरूरत से लाचार हो कर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं और चाहते हैं कि वह कुछ मदद करे। यह भी आशा रखते हैं कि शायद दर में वह कुछ रियायत कर दे, पर जब देखते हैं कि यह सहानुभूति मेरे साथ भी वही कारोबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भर कर बड़े करुण स्वर में कहते हैं- महाराज,  मैं इस समय बड़ा परेशान हूँ, नहीं तो आप को कष्ट नहीं देता, ईश्वर के लिए मेर हाल पर रहम कीजिये। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त ..... वहीं बात काट कर आज्ञा के स्वर में फरमाया जाता है लेकिन जनाब, आप 'बिजनेस इज बिजनेस' भूल जाते हैं। उस दिन कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उस के पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठ कर वह अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय सिद्धान्त के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।
हाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति नीतियाँ चलाई हैं, उस में सब से अधिक और रक्त पिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीबी में बिजनेस; बाप-बेटे में बिजनेस; गुरू-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवी, आध्यात्मिक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त, आदमी-आदमी के बीच बस कोई लगाव है, तो बिजनेस का। लानत है इस बिजनेस पर !  लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गयी और अपनी जीविका का कोई उपाय न निकाल सकी तो बाप के घर में ही लोंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में काम-काज करते ही हैं, पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता, पर इस महाजनी सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लोंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृभक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने सपूत की टहलुई, स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में ही नहीं। भाई भी भाई के घर आए तो मेहमान है। अक्सर तो उसे उस मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आपस्वार्थी बनें, सब कुछ अपने लिए करें।
र यहाँ भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों के गुजर का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, और वह हल नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उस का भविष्य अन्धकारमय है।
अब तक दुनिया के लिए इस सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई उपाय न था, उसे झक मार कर उस के आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम में फूला फिरता था। सारी दुनिया उस के चरणों पर नाक रगड़ रही थी, बादशाह उस का बन्दा वजीर उस के गुलाम, सन्धि-विग्रह की कुंजी उस के हाथ में, दुनिया उस की महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाये हुए, हर मुलक में उस का बोल बाला।
रन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिस ने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोद कर फैंक दी है, जिस का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत कर के कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का कोई हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं, महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न हो कर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शमिल आवाज इस ई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है, व्यक्ति स्वातंत्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आजादी-वह इन सब की घातक, गला घोंट देने वाली बताई जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ हैं, काम ले कर उस के विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई जो इस सारे अंधकार को चीर कर दुनिया में य़अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है। 
निस्सन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के पंजे, नाखून  और दांत तोड़ दिए हैं। उस के राज्य में एक पूंजीपति लाखों मजदूरों का खून पी कर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बना कर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इस की स्वाधीनता ही स्वाधीनता है तो निस्सन्देह नई सभ्यता में स्वाधीनता नहीं पर यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गाँव, मनोरंजन और व्यायाम सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्य सुलभ  न्याय की प्राप्ति हो तो इस समजा की व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोरी जमात के दंभमय उपदेशों और अन्ध विश्वास-जनित रूढ़ियों का अनुसरण है तो वहाँ निस्सन्देह वहाँ पर इस स्वातंत्र्य का अभाव है। पर धर्म स्वातंत्र्य का अर्थ यदि लोक सेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और देश को उस के दर्शन भी नहीं हो सकते।
हाँ धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक जैसी स्थिति में हैं, वहाँ जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो और सतीत्व-विक्रय क्यों हो, झूठे मुकदमे क्यों चलें, और चोरी डाके की वारदातें क्यों हों। यह सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इन की सृष्टि की है। वही इन को पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझ कर अपनी स्थिति से सन्तुष्ट रहें। उन की ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उन के सिर कुचलने के लिए पुलिस है, अदालत है, कालापानी है। आप शराब पी कर उस के नशे से बच नहीं सकते। आग लगा कर चाहें लपट न उठे, असम्भव है। पैसा अपने साथ यह सारी चीजें लाता है, जिन्हों ने दुनिया को नर्क बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने आप मिट जायेंगी, जड़ खोद कर केवल फुनगी की पत्तियाँ तोड़ना बेकार है। यह नयी सभ्यता धनाड्यता को हेय, लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है, गहनों से लदकर कोई स्त्री सुंदर नहीं बनती, घृणा का पात्र बनती है। साधारण जनसमाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती है। शराब पी कर वहाँ बहका नहीं जा सकता, अधिक मद्यपान वहाँ दोष समझा जाता है, धार्मिक दृष्टि से नहीं, किन्तु शुद्ध सामाजिक दृष्टि से, क्यों कि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अध्यवसाय और श्रमशीलता का अंत हो जाता है।
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह-तरह के बहानों से उन की मेहनत का फायदा उठाए या सरकारी पद प्राप्त कर के मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूँछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से उँचे अधिकारी की तनख्वाह भी उतनी ही है, जितनी एक कुशल कारीगर की, वह गगन-चुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर-बसर करना पड़ता है। उस की श्रीमती जी रानी साहिबा या बेगम बनी हुई स्कूलों में ईनाम बाँटती नहीं फिरतीं, बल्कि अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पा कर वह अपने को लाटसाहब नहीं बल्कि जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिस से उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चांदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं है ? पूंजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उन की जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं पर जब वह लोग भी उस की खिल्ली उड़ाने और उस पर फब्तियाँ कसने लगते हैं तो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उन की दास-मनोवृत्ति पर हँसी आती है। जिस में मनुष्यता, आध्यात्मिकता, उच्चता और सौंदर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिस की नींव लोभ-स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की सम्पत्ति दी है तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उश से जन समाज पर हुकूमत चलाओ, उस का खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।
न्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है और जल्दी ही या देर से दुनिया उस का, पदानुसरण अवश्य करेगी, यह सभ्यता अमुक देश की समाज रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, यह तर्क नितांत असंगत है। ईसाई मजहब का पौधा यरूसलम में उगा और सारी दुनिया उस के सौरभ से बस गयी, बौद्ध धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरूदक्षिणा दी। मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी। हाँ महाजनी सभ्यता और उस के गुर्गे अपनी शक्ति भर उस का विरोध करेंगे, उस के बारे में भ्रमजनक प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकायेंगे, उस की आँखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है, एक न एक दिन उस की विजय होगी और अवश्य होगी। (समाप्त)  

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-1

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रथम भाग प्रस्तुत है।

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओं में परिगणित थे और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उन के आवश्यक साधन थे, पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लु्प्त नहीं हुए थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से प्यास बुझाता था, तो अक्सर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उस की अवज्ञा को कदापि सहन नहीं कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था। दूसरे के देश पर चढ़ाई या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम रखने के लिए या फिर देश विजय और राज्य विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उस की विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को स्वार्थसाधन और धन शोषण की भट्टी का ईंधन न समझते थे, किन्तु उन के दुख-सुख में शरीक होते थे और उन के गुण की कद्र करते थे। 
गर इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों-पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रुरियायत नहीं। उस का अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यहग है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिस का फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उस का शिकार है समाज। वह खुद समाज से बिलकुल अलग है, अगर कोई संबंध है तो यह कि किसी या युक्ति से बस समाज को उल्लू बनाये और उस से जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।
न लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने आधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा है।  जिस के पास पैसा है, देवता स्वरूप है, उस का अंतःकरण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत, कला सभी धघन की देहली पर  माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी जहरीली हो गयी है कि इस में जीवित रहना कठिन होता जा रहा है। डॉक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी फीस लिए बात नहीं करता। वकील और बैरिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता है। गुण और योग्यता की सफलता उस के आर्थिक मूल्य के हिसाब से मानी जा रही है। मौलवी साहब और पण्डित जी भी पैसे वालों के बिना पैसों के गुलाम हैं, अखबार उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलो-दिमाग पर इतना कब्जा जमा लिया है  कि उस के राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। वह दया और स्नेह, सचाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममता शून्य जड़ यन्त्र बन कर रह गया है।  इस महाजनी सभ्यता ने नये नये नीति नियम गढ़ लिए हैं जिन पर आज समाज व्यवस्था चल रही है, उन में एक यह है कि समय ही धन है, पहले समय जीवन था, उस का सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उस का सब से बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डॉक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर, उन का एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर एक अशर्फी नजर की है तो वह उसे मिनट से ज्यादा वक्त नहीं दे सकते, रोगी अपनी दुखगाथा सुनाने के लिए बैचेन है, पर डॉक्टर साहब का उधर बिलकुल ध्यान नहीं, उस से उन्हें जरा भी दिलचस्पी नहीं। उन की निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है, कि वह उन्हें फीस देता है। वह जल्द से जल्द नुस्खा लिखेंगे औऱ दूसरे रोगी को देखने चले जाएंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उन का एक घंटा वक्त बंधा है। वह घड़ी सामने रख लेते हैं। जैसे ही घंटा पूरा हुआ, वह उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया है तो रह जाय, उन की बला से, वह घंटे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं? क्यों कि समय रूपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी या लड़कों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और सम्बन्धी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बात करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा, कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ समय का नाश है। बिना खाए-सोये काम नहीं चलता, बेचारा लाचार है और इतना समय नष्ट करना पड़ता है। 
प का कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए, उस के यहाँ आप की रसाई मुमकिन नहीं। आप को उस के दरे दौलत पर जा कर कार्ड भेजना होगा, उन महाशय को बहुत से काम होंगे, मुश्किल से आप से एक दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुरसत नहीं है। अब वे पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
प का कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकदमे में फँस गए हैं, तो उस से किसी तरह की सहायता की आशा न रखिए, अगर वह मुरौवत को गंगा में न डुबो चुका है, तो आप से लेन-देन की बात शायद न करेगा, परक आप के मुकदमे की ओर तनिक भी ध्यान न देगा, इस से तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास चले जाँय और उस की पूरी फीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज में कमाल हासिल हो जाय, फिर मनुष्यता नाम को न रह जायेगी, उस का एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा। 
स का अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय, पर यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता-मित्रता-स्नेह-सहानुभूति सब को निकाल बाहर करे। 
र आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कह सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है, मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अभ्यास अर्जन करते थे। जब धन उस का एक मात्र उपाय है तब मनुष्य मजबूर है कि एक निष्ठ भाव से उसी की उपासना करे। वह कोई साधु-महात्मा-सन्यासी-उदासी नहीं, वह देख रहा है कि उस के तपेशे में जो सौभाग्यशाली सफळता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं, वह उसी राज-मार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का, वह इस सिद्धान्त का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पद चिन्हों का अनुसरण करता है, तो उस का क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से गिरायी नहीं जा सकती। वह देख रहा कि जिन के पास दौलत नहीं और जिन्हों ने वक्त को दौलत नहीं समझा, उन को कोई पूछने वाला नहीं। वह अपने पेशे में उस्ताद है फिर भी उन की कहीं पूछ नहीं। जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है, वह तो उपेक्षा की स्थिति को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौवत, दोस्ती और सौजन्य को धता बता कर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और यह इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उस के मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गयी है कि उसे धनार्जन के सिवा और किसी कार्य से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घंटा बैठना पड़े, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उस की सारी मानसिक, भावगत और सास्कृतिक दिलचस्पियाँ इसी केन्द्र बिन्दु पर आ कर एकत्रित हो गयी हैं, और क्यों न हों? वह देख रहा है, कि पैसे के सिवा उस कोई अपना नहीं, स्नेही मित्र भी अपनी गरज ले कर ही उस के पास आते हैं, स्वजन सम्बन्धी भी उस के पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता तो वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उस में एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता, उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, लड़कों के लिए कुछ कर जाना है जिस से उन्हें दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति शून्य स्थिति का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में पड़ने नहीं देना चाहता, जो सारी आशाओं उमंगों पर पाला गिरा देती हैं, हिम्मत-हौंसले को तोड़ कर रख देती हैं। उसे वह सारी मंजिलें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होंगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्तों पर चलाये बिना वह इन में से एक भी मंजिल पार नहीं कर सकता।  

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

शिवराम जी के बाद, उन के घर .....

जीवनसाथी शोभा परसों से मायके गई हुई है। आज लौटना था, लेकिन सुबह फोन आ गया, अब वह कल सुबह आएगी। कल-आज और कल अवकाश के दिन हैं। मैं घर पर अकेला हूँ। चाहता तो था कि इन दिनों में मैं मकान बदलने से बिखरी अपने पुस्तकालय और कार्यालय को ठीक करवा लेता। पर अकेले यह भी संभव नहीं था। जिन्हें इस काम में साथ देना था वे भी अवकाश मना रहे हैं। शिवराम जी के बाद ब्लागीरी पर जो विराम लगा था, कल उसे तोड़ने का प्रयास किया। आज पूरे पाँच दिन के अन्तराल के बाद आज शिवराम जी के घर जाना हुआ। भाभी पहले तीन दिनों तक खुद को संभाल नहीं पा रही थीं। आज कुछ सामान्य दिखाई पड़ीं। मुझ से बात कर के  फिर से उन का अवसाद गहरा न जाए इस कारण उन से बात नहीं की। वे अपनी तीनों बहुओं और ननद के साथ बैठी बातें कर रही थीं और साथ दे रही थीं।
न के ज्येष्ठ पुत्र ब्लागर रवि कुमार और कनिष्ट पुत्र पवन से मुलाकात हुई। रवि बहुत सयाना है, उस में एक बड़ा कलाकार जीता है। सभी कोण से वह शिवराम जी से कम प्रतिभाशाली नहीं है। उसी से कुछ देर बात करता रहा। उसी ने बताया कि माँ अब अवसाद से धीरे-धीरे बाहर आ रही हैं। मैं ने पत्रिका अभिव्यक्ति की बात छेड़ दी। आपातकाल के ठीक पहले शिवराम जी से मेरी मुलाकात हुई थी। हम बाराँ में दिनकर साहित्य समिति चलाते थे और एक पत्रिका प्रकाशन की योजना बना रहे थे। शिवराम जी ने उसे आसान कर दिया। पत्रिका आरंभ हुई तो अनियमित रूप से प्रकाशित होती रही। लेकिन वह चल रही है और लघुपत्रिकाओं में अपना विशिष्ठ स्थान रखती है। शिवराम जी ही इस का संपादन करते रहे, सहयोग कई लोगों का रहा। लेकिन मूल काम और जिम्मेदारियाँ वही देखते थे। मैं ने रवि से अभिव्यक्ति में अपना योगदान बढ़ाने को कहा। उस ने बताया कि वह भी इस बारे में सोच रहा है। अभी तो वह शिवराम जी के कागजों को संभाल रहा है जिस से पता लगे कि वे कितने कामों को अधूरा छोड़ गए हैं, और उन्हें कैसे संभाला जा सकता है।
मैं ने रवि से उल्लेख किया कि घर आर्थिक रूप से तो संभला हुआ है। इस लिए पटरी पर जल्दी आ जाएगा, लेकिन जो सामाजिक जिम्मेदारियाँ शिवराम जी देखते थे, सब से बड़ा संकट वहाँ उत्पन्न हुआ है। उसे पटरी पर लाने में समय लगेगा। रवि ने प्रतिक्रिया दी कि यह तो मैं भी कह रहा हूँ कि अपने परिवार और घर के लिए तो वे सूचना मात्र रह गए थे, उन का सारा समय और जीवन तो समाज को ही समर्पित था। रवि ने ही बताया कि कुछ सांस्कृतिक संगठन कल शोक-सभा रख रहे हैं, जिस में कोटा के बाहर के कुछ महत्वपूर्ण लोग भी होंगे। यह मेरे लिए सूचना थी। मेरा मन तो कर रहा है कि इस सभा में रहूँ,  शिवराम जी के बाद उन से साक्षात्कार का यह अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन मुझे पहले से तय जरूरी काम से जयपुर जाना होगा। रवि ने कल की सभा की छपी हुई सूचना मुझे दी। हरिहर ओझा की एक कविता इस पर छपी है, जो महत्वपूर्ण है।  मैं उस सूचना का चित्र यहाँ लगा रहा हूँ।  आर्य परिवार संस्था कोटा ने शिवराम को एक आँसू भरी श्रद्धांजलि पर्चे के रूप में छाप कर वितरित की है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शिवराम ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले कम्युनिस्ट थे, लेकिन धर्मावलंबी जो उन के संपर्क में थे किस तरह सोचते थे, यह श्रद्धांजलि पर्चा उस की एक मिसाल है। दोनों को ही आप चित्र पर चटका लगा कर बड़ा कर के पढ़ सकते हैं।
 

 


शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम न रुके थे।

मैं जानता हूँ कि जो मंजिल मेरा लक्ष्य है वह बहुत दूर है, मैं इस जीवन में वहाँ नहीं पहुँच सकूंगा। लेकिन वह मंजिल मेरी अकेले की तो नहीं। वह तो पूरी मानव जाति की मंजिल है। मनुष्य के पास दो ही मार्ग हैं, या तो वह निजी स्वार्थों और लालच के वशीभूत हो कर जीवन जिए और लड़-झगड़ कर इस धरती को बरबाद करे और स्वयं इस मानव जाति को नष्ट कर डाले, या फिर वह एक ऐसे मानव समाज की रचना करे जो संपूर्ण मानव-समाज के सामुहिक हित की सोचे। सामाजिक हित सर्वोपरि हों। धरती को हम खूबसूरत बनाएँ। जिएँ और जीने दें, लगातार उन्नति करते जाएँ। इस दूसरे रास्ते पर  चलने वाले दुनिया में लाखों नहीं करोड़ों लोग हैं। उन में बहुत लोग हैं जो मंजिल की ओर जा रहे काफिले की अगुवाई करते हैं। निश्चय ही वे मानवजाति के श्रेष्ठतम  लोग हैं। उन का पूरा जीवन काफिले की इस यात्रा को समर्पित है। वे जानते हैं कि वे मंजिल तक नहीं पहुँच पाएंगे, लेकिन फिर भी उन का सब कुछ इस मानव-समाज के लिए है। वे सोचते हैं कि वे नहीं उन की कोई आगामी पीढ़ी अवश्य ही मंजिल पा लेगी। यदि उन्हों ने कोताही की तो निश्चित ही मंजिल तक पहुँचने के पहले मानव जाति नष्ट हो जाएगी और हमारी यह खूबसूरत धरती भी जिस का कोई जोड़ अभी तक मनुष्य इस ब्रह्मांड में तलाश नहीं कर सका है।
शिवराम ऐसे ही व्यक्तित्व थे। सोचा न था कि वे चलते-चलते यूँ काफिला छोड़ जाएंगे। जब उन के जाने की खबर मिली तो हर कोई हतप्रभ रह गया। मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं अदालत में था। जल्दी से अदालत से अपना काम समेट, घर पहुँचा। नेट पर सूचना चस्पा की और उन के घर पहुँच गया। वे घर के नीचे के कमरे में दरी पर विश्राम कर रहे थे, चादर ओढ़े। वह विश्राम जो उन्हों ने जीवन भर नहीं किया। चेहरा भी चादर से ढका था। इच्छा हुई कि चादर हटा कर देखूँ इस चिरविश्रांति में वे कैसे लग रहे हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। चेहरे से चादर हटी तो शायद मैं अपने आप पर काबू नहीं रख सकूंगा, कहूँगा- कामरेड! तुम अभी से सो गए। उठो अभी तो बहुत काम बाकी है। वे उठेंगे नहीं। मैं निराश सा, क्या कर लूंगा? सिवा रोने और विलाप करने के, जो मैं नहीं करना चाहता था। मैं कमरे के बाहर चला आया। 
शिवराम ने जीवन के इकसठ वर्ष पूरे नहीं किए। लेकिन इस जीवन में उन्हों ने सैंकड़ों जीवन जिए। विद्यार्थी जीवन के बाद नौकरी की तलाश के दिनों में ही उन्हों ने पहचान लिया था कि दुनिया और समाज जिस अवस्था में है, वह  निराश करता है ,जीने लायक नहीं है। उसे बदलना होगा, जीने लायक बनाना होगा। न जीने लायक उस दुनिया के बारे में वे लिखते हैं-
"मैं खुद बेरोजगारी के दौर में किसी तरह भटकता फिरता था. असहायता के अहसास से मैं भी गुजरा था। लेकिन रोटी के लिए वेश्यावृत्ति। आठ-दस साल  का बेटा अपनी माँ के लिए ग्राहक ढूंढेगा। यह स्साली कोई जिन्दगी है। लानत है। 
शायद इन्हीं दिनों हम पांडिचेरी गए। वहाँ भी हम ने यह सब देखा। आप को एक तौलिया खरीदना हो और दूकानदार आप के सामने दस तरह के तौलिए पटक दे। जो पसन्द हो छांट लो, वैसे ही साधारण से होटलों में लड़कियों की लाइन लगा दी जाती थी। सब की दरें बता दी जाती थीं। जो पसन्द हो ले कर अपने कमरे में चले जाओ। हमारा समूह भी एक होटल में पहुँच गया और यह सब दृष्य अपनी आँखों से देखा। औरों का मुझे पता नहीं, मेरे लिए यह भयानक अनुभव था। यह सब विद्यमान व्यवस्था की देन है। यह व्यवस्था क्यों है? गरीबी-अमीरी का मामला क्या है? भगवान इस सब को ठीक क्यों नहीं करता? पांडिचेरी में एक ओर इतना बड़ा आध्यात्मिक केन्द्र और दूसरी ओर यह गंदगी। आध्यात्मिकता और इस गंदगी का चोली दामन का साथ तो नहीं? इस आध्यात्मिक केंद्र की वजह से और इस शहर की खूबसूरती की वजह से यहाँ पर्यटक आने लगे होंगे तो यह धंधा फला-फूला होगा। पर्यटन और वेश्यावृत्ति क्या एक ही हिस्से के दो पहलू हैं?"
रोजगार की तलाश खत्म हुई, नौकरी लगी। प्रशिक्षण में स्वयं प्रकाश से भेंट हुई। वे भी ऐसे ही मोड़ पर थे। छह महिने की ट्रेनिंग पूरी होने पर जोधपुर में दो माह का प्रायोगिक प्रशिक्षण आरंभ हुआ। स्वयंप्रकाश के साहित्यिक लोगों से संबंध थे। वहीं मिले पारस अरोड़ा जिन के घर ज्ञानोदय के अंकों का ढेर और बहुत सी किताबें थीं। शिवराम इतनी किताबें देख चकित थे। इतना पढ़ते हैं ये लोग! हम चार स्कूली किताबें पढ़ कर, वो भी पास होने के लिए, खुद को पढ़ा लिखा समझते हैं। हम काहे के पढ़े लिखे हैं? जिन्दगी और दुनिया को समझना है तो किताबें पढ़नी होंगी। एक पुस्तकालय में विवेकानंद का साहित्य पढ़ने को मिला। उसे पढ़ा तो लगा विवेकानंद का बताया रास्ता सही है। सब बुराइयों की जड़ अज्ञान है, अशिक्षा है। बच्चों में उच्च मानवीय मूल्यों के संस्कार देने वाला साहित्य प्रचारित प्रसारित करो। दो माह यूँ ही गुजर गए। रामगंज मंडी  (जिला कोटा राजस्थान) में पोस्टिंग हुई। शिवराम नौकरी के अलावा वहाँ बच्चों के लिए निशुल्क स्कूल भी चलाने लगे कमरा निशुल्क मिल गया। वहाँ आर.एस.एस भी था और सोशलिस्ट पार्टी भी। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तकें और लोहिया की जीवनी पढ़ी। गीता का अंग्रेजी अनुवाद करने पर काम करने लगे। कुछ न कुछ लिखने भी लगे। स्वयं प्रकाश का पत्र मिला - क्या पढ़ रहे हो कार्ल मार्क्स की पूँजी पढ़ो। शिवराम का जवाब था -कम्युनिस्टों के चक्कर में पड़ गए लगते हो। मैं लोहिया पढ़ रहा हूँ पर संतुष्ट हूँ। स्वयं प्रकाश का उत्तर था -तुम्हें हक है कि जो तुम्हें ठीक  न लगे उसे खारिज कर दो, पर पहले उसे जानो, समझो तो सही। तुमने मार्क्स की पूंजी को चलताऊ तरीके से खारिज कर दिया। पत्र की भाषा बहुत सख्त थी। प्रतिक्रिया हुई -ठीक है मार्क्स को पढूंगा और फिर इसे बताउंगा मैं ने मार्क्स को क्यों खारिज किया। करौली बस स्टैंड पर प्रगतिशील साहित्य भंडार से मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबें और भगतसिंह की जीवनी खरीदी।  पैसे कम पड़ गए, दुकानदार से कहा कुछ किताबें निकाल दो, तो दुकानदार शर्मा जी ने एक किताब और मिलाई और बोले -फिर दे देना।  शिवराम कुछ महीने बाद पैसे लौटाने पहुँचे तो दुकान बंद थी। पता चला शर्मा जी नहीं रहे। उन का कर्ज रह गया। शिवराम ने मार्क्सवाद पढ़ा, समझा और वर्ग-संघर्ष के मार्ग पर चल पड़े। चलते-चलते सैंकड़ों-हजारों लोग साथ होते गए। काफिला बनता चला गया। आज वही शिवराम काफिले में नहीं हैं, चुपचाप सड़क के किनारे बैठ गए हों और कह रहे हों। जीवन ने यहीं तक साथ दिया, मैं आगे नहीं जा सकता। लेकिन ध्यान रहे! काफिला कम न हो और रुके नहीं।

स्वयंकथ्य 
शिवराम के जाने ने अंदर तक आहत किया है। एक सप्ताह से की-बोर्ड पर उंगलियाँ चल ही नहीं पा रही थीं। आज हिम्मत कर के वापस बैठा हूँ। यह हिम्मत भी शिवराम की दी हुई है। कह रहे हों कि मैं छूट गया तो क्या सफर छोड़ दोगे? ऐसा ही था तो क्यों चले थे मेरे साथ? सफर छूटे ना, मंजिल अभी दूर है, बहुत चलना है, रुको मत! चलते रहो! मुड़ कर मत देखो!
ह सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम  न रुके  थे। 
शिवराम के जाने ने जो रिक्तता पैदा की है, उसे एक या कुछ लोग नहीं भर सकते।  उस के लिए बहुत लोगों को सामने आना होगा। साहित्य, संस्कृति, रंगमंच, ट्रेड यूनियनें, मोहल्ला संगठन, किसान सभाएँ और पार्टी, सब जगह अनेक लोगों को वे मोर्चे संभालने होंगे, जिन्हें अकेले शिवराम संभाले थे। शिवराम का न होना, लगातार पीछा कर रहा है। 'अनवरत' भी अभी कुछ दिन शिवराम-मय ही रहेगा। 

रविवार, 1 अगस्त 2010

राजा-रानी छू-मंतर, किसान को बनाया नायक मुंशी प्रेमचंद ने

मैं तो कल मुंशी प्रेमचंद जी की जयन्ती नहीं मना पाया। बस उन का आलेख 'महाजनी सभ्यता तलाशता रहा। लेकिन उधर प्रेस क्लब में 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच' ने मुंशी जी का जन्मदिन बेहतरीन रीति से मनाया। इस अवसर पर नगर के सभी जाने माने साहित्यकार और कलाकार एकत्र हुए, जी हाँ वहाँ कुछ ब्लागर भी थे, बस मैं ही नहीं जा सका था। इस अवसर पर "आज की कहानी और प्रेमचंद" विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गई। 
प्रोफेसर राधेश्याम मेहर
रिचर्चा में समवेत विचार यह निकल कर आया कि आज के कथाकारों को केवल परिवेश की अक्कासी ही नहीं अपितु मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों से प्रेरणा ले कर आम-आदमी के जीवन की सचाइयों आत्मसात करते हुए समाज को दिशा प्रदान करने वाली रचनाओं का सृजन करना चाहिए।
कवि ओम नागर
रिचर्चा को प्रारंभ करते हुए नगर के चर्चित कथाकार विजय जोशी ने कहा कि आज की कहानियों में भौतिक विकास तो दिखाई पड़ता है लेकिन आत्मिक विकास नदारद है। कवि ओम नागर ने कहा कि आज के गाँवों की स्थितियाँ प्रेमचंद के गाँव से अधिक त्रासद हैं, लेकिन कहानियों में वे प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो रही हैं। 
डॉ. अनिता वर्मा
वि, व्यंगकार और ब्लागर अतुल चतुर्वेदी ने आधुनिक समय की अनेक कहानियों के उदाहरण देते हुए बताया कि इन कहानियों में बाजारवाद तो है लेकिन मनुष्य की मुक्ति की राह दिखाई नहीं देती है। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र आज भी गाँव-गाँव में जीवन्त हैं। लेकिन आधुनिक कहानियों में अनुभव की वह आँच नहीं दिखाई देती जो प्रेमचंद की कहानियों में थी।  डॉ. अनिता वर्मा ने कहा कि मनुष्य और समाज से प्रेमचंद को गहरा लगाव था, आज का कथाकार उस गहराई को छू भी नहीं पाता है। 
श्याम पोकरा
विशिष्ठ अतिथि श्याम पोकरा ने कहा कि प्रेमचंद ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सभी समाज के कड़वे यथार्थ से उपजी हैं। लेखकों को कृत्रिमता से बचते हुए सहजता के साथ समाज के उत्पीड़ितों की गाथा लिखनी चाहिए।
कथाकार विजय जोशी
 रिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त ने कहा कि प्रेमचंद के पास समाज के प्रति गहरी निष्ठा, त्यागमय जीवन मूल्य, व प्रगतिशील दृष्टि थी। इसी कारण से वे आज तक बड़े लेखक बने हुए हैं। अध्यक्ष मंडल के ही सदस्य प्रोफेसर राधेश्याम मेहर ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्रेमचंद ने कहानियों  के केन्द्रीय पात्रों  राजा-रानी को किसान और मजदूर से प्रतिस्थापित कर दिया। वे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध स्वातंत्र्य चेतना जगाने वाले महत्वपूर्ण और प्रमुख साहित्यकार थे। समारोह के संचालक शिवराम ने इस में अपनी बात जोड़ी कि आज के साहित्यकारों को जन-स्वातंत्र्य की चेतना जगाने के लिए प्रेमचंद की ही तरह काम करने की आवश्यकता है। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।
कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन

ज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। वे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने भारतीय जन जीवन, उस की पीड़ाओं को गहराई से जाना और अभिव्यक्त किया। उन की कृतियाँ हमें उन के काल के उत्तर भारतीय जीवन का दर्शन कराती हैं। 
न का बहुत सा साहित्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। लेकिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख 'महाजनी सभ्यता' अभी तक अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है। मैं ने सोचा था कि उन के इस जन्मदिन पर मैं इसे अंतर्जाल पर चढ़ा दूंगा। लेकिन जब कल तलाशने लगा तो वह आलेख जिस पुस्तक में उपलब्ध था नहीं मिली। मुझे उस पुस्तक के न मिलने का भी बहुत अफसोस हुआ, मैं ने उसे करीब पिछले तीस वर्षों से सहेजा हुआ था। 
मुझे कुछ तलाशते हुए परेशान होते देख पत्नी शोभा ने पूछा -क्या तलाश रहे हो? मैं ने बताया कि कुछ किताबें और पत्रिकाएँ नहीं मिल रही हैं। रद्दी में तो नहीं दे दीं? तब उस ने कहा कि कोई किताब और पत्रिका रद्दी में नहीं दी गई है। हाँ, दीपावली पर सफाई के वक्त कुछ किताबें ऊपर दुछत्ती में जरूर रखी हैं। मैं तुरंत ही दुछत्ती से उन्हें निकालना चाहता था। लेकिन वहाँ पहुँचने का एक मात्र साधन स्टूल टूट कर चढ़ने लायक नहीं रहा है। खैर महाजनी सभ्यता को इस जन्मदिन पर अंतर्जाल पर नहीं चढ़ा पाया हूँ। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक मेरे पल्ले पड़ी इसे अविलंब चढ़ाने का काम करूंगा। प्रेमचंद जी के अगले जन्मदिन का इंतजार किए बिना।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

"जो चाहो मुझ पर जुल्म करो" एक नज़्म पाकिस्तान से

शिवराम के संपादन में प्रकाशित हो रही  "सामाजिक यथार्थवादी पत्रिका अभिव्यक्ति" का 36वाँ अंक प्रेस से आ गया है। इस का वितरण आरंभ कर दिया है। प्रकाशक की पाँच सुरक्षित पाँच प्रतियाँ मुझे मिलीं। अभी पूरी तरह इस अंक को देख नहीं पाया हूँ। पर इस में पाकिस्तानी कवि जावेद अहमद जान की एक नज़्म मुझे पसंद आई जो लाहौर के दैनिक जंग में 11 अप्रेल 1989 को प्रकाशित हुई थी। नज़्म आप के लिए पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ ----

मैं बागी हूँ
  • जावेद अहमद जान

मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।

इस दौर के रस्म रिवाजों से 
इन तख्तों से इन ताजों से
 जो जुल्म की कोख से जनमे हैं
इन्सानी खून से पलते हैं
ये नफरत की बुनियादें हैं
और खूनी खेत की खादें हैं

मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।

मेरे हाथ में हक का झण्डा है
मेरे सर पे जुल्म का फन्दा है
मैं मरने से कब डरता हूँ
मैं मौत की खातिर जिन्दा हूँ
मेरे खून का सूरज चमकेगा
तो बच्चा बच्चा बोलेगा
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
 फ्रेंच कारटूनिस्ट, चित्रकार, मूर्तिकार डौमियर ऑनर (1808-79).की एक कृति

मंगलवार, 16 मार्च 2010

मुबारक हो तुम को नया साल यारो

हाँ नीचे आप एक बिंदु से एक वृत्त को उत्पन्न होता और विस्तार पाता देख रहे हैं। फिर वही वृत्त सिकुड़ने लगता है और बिंदु में परिवर्तित हो जाता है। फिर बिंदु से पुनः एक वृत्त उत्पन्न होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। बिंदु या वृत्त? वृत्त या बिंदु? कुछ है जो हमेशा विद्यमान रहता है, जिस का अस्तित्व भी सदैव बना रहता है। वह वृत्त हो या बिंदु मात्र हो। 

ब आप इस वृत्त की परिधि को देखिए और बताइए इस का आरंभ बिंदु कहाँ है? आप लाख या करोड़ बार सिर पटक कर थक जाएंगे लेकिन वह आरंभ या अंत बिंदु नहीं खोज पाएंगे। वास्तव में वृत्त की परिधि का न तो कोई आरंभ बिंदु होता है और न ही अंतिम बिंदु वह तो स्वयं बिंदुओं की एक कतार है। जिस में असंख्य बिंदु हैं जिन का गिना जाना भी असंभव है चाहे वृत्त कितना ही छोटा या विस्तृत क्यों न हो।
पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। संपूर्ण विश्व (यूनिवर्स) के सापेक्ष। पृथ्वी से परे इस की घूमने की धुरी की एक दम सीध में स्थित बिंदुओं के अतिरिक्त सभी बिंदु चौबीस घंटों में एक बार उदय और अस्त होते रहते हैं। दिन का आरंभ कहाँ है। मान लिया है कि अर्थ रात्रि को, या यह मान लें कि जब सूर्योदय होता है तब। लेकिन इस मानने से क्या होता है? हम यह भी मान सकते हैं कि यह दिन सूर्यास्त से आरंभ होता है या फिर मध्यान्ह से।  चौबीस घंटे में एक दिन शेष हो जाता है। फिर एक नया दिन आ जाता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है। हर दिन अपने परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ जाती है। यह पथ भी एक वृत्त ही है। वर्ष पूरा होते ही पृथ्वी वापस अपने प्रस्थान बिंदु पर पहुँच जाती है। हम कहते हैं वर्ष पूरा हुआ, एक वर्ष शेष हुआ, नया आरंभ हुआ। वर्ष कहाँ से आरंभ होता है कहाँ उस का अंत होता है। वर्ष के वृत्त पर तलाशिए, एक ऐसा बिंदु। उन असंख्य बिंदुओं में से कोई एक जो एक कतार में खड़े हैं और इस बात की कोई पहचान नहीं कि कौन सा बिंदु प्रस्थान बिंदु है। 
खिर हम फिर मान लेते हैं कि वह बिंदु वहाँ है जहाँ शरद के बाद के उन दिनों जब दिन और रात बराबर होने लगते हैं और सूर्य और पृथ्वी के बीच की रेखा को चंद्रमा पार करता है। कुछ लोग इसे तब मानते हैं जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। कुछ लोग हर बारहवें नवचंद्र के उदय से अगले सूर्योदय के दिन मानते हैं। हम  आपस में झगड़ने लगते हैं, मेरा प्रस्थान बिंदु सही है, दूसरा कहता है मेरा प्रस्थान बिंदु सही है। उस के लिए तर्क गढ़े जाते हैं, यही नहीं कुतर्क भी गढ़े जाने लगते हैं। हम फिर उसी वृत्त पर आ जाते हैं। अब की बार हम मान लेते हैं कि इस की परिधि का प्रत्येक बिंदु एक प्रस्थान बिंदु है। हम वृत्त के हर एक बिंदु पर हो कर गुजरते हैं और अपने प्रस्थान बिंदु पर आ जाते हैं। फिर वर्षारंभ के बारे में सोचते हैं। हम पाते हैं कि वह तो हर पल हो रहा है। हर पल एक नया वर्ष आरंभ हो रहा है और हर पल एक वर्षांत भी। हमारे यहाँ कहावत भी है 'जहाँ से भूलो एक गिनो'। मेरे लिए तो हर  पल दिन का आरंभ है और हर दिन वर्ष का आरंभ। 
तो शुभकामनाएँ लीजिए, नव-वर्ष मुबारक हो! 
याद रखिए हर पल एक नया वर्ष है।
और याद रखिए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' साहब की ये ग़ज़ल.....

ग़ज़ल
मुबारक हो तुम को नया साल यारो
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो

मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो

अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो

बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो

बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो

फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * *



शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दिमाग पर स्पेस का संकट

ल अनवरत और आज तीसरा खंबा की पोस्टें नहीं हुई। मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? एक तो पिछले सप्ताह बच्चे घर पर थे। सोमवार को वे चले गए। बेटी अपनी नौकरी पर और बेटा नौकरी के शिकार पर। उस का लक्ष्य है कि अच्छा शिकार मिले। पिछले चार माह से जंगल (बंगलूरू) में है, अभी कोई अच्छा शिकार काबू में नहीं आ रहा है। मुझे विश्वास है कि वह शीघ्र ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। शाम को बात हुई तो पता लगा आज भी सुबह एक लिखित परीक्षा दे कर आया है।  
च्चों के जाते ही अपना काम याद आया। एक हफ्ता मैं ने भी बच्चों के साथ जो गुजारा उस में कुछ काम  फिर के लिए छोड़ दिए गए। पिछले दिनों हड़ताल के कारण  मुकदमें कुछ इस तरह लग गए कि एक-एक दिन में ही चार-पाँच मुकदमे अंतिम बहस वाले। एक दिन में इस तरह के एक-दो मुकदमों में ही काम किया जा सकता है। लेकिन वकील को तो सभी के लिए तैयार हो कर जाना पड़ता है। पता नहीं कौन सा करना पड़ जाए। उस के लिए अपने कार्यालय में भी अतिरिक्त समय देना पड़ता है। पेचीदा मामलों में सर भी खपाना पड़ता है। नतीजा यह कि दूसरी-दूसरी बातों के लिए स्पेस ही नहीं रहता। पिछले तीन दिनों से तो एक मुकदमे मे रोज बहस होती रही। आज पूरी हो सकी। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा, वास्तव में ऐसा होता है।

स मुकदमे में मैं तीन प्रतिवादियों में से एक का वकील था। वादी ने अपनी गवाही के दौरान एक दस्तावेज  की फोटो प्रति यह कहते हुए मुकदमे में पेश कर दी कि उस की असल उस के पास थी लेकिन गुम हो गई, इस रिकार्ड पर ले लिया जाए। हमारे मुवक्किल ने कहा कि यह फर्जी है, असल की जो प्रति उसे दी गई थी वह कुछ और कहती है। लेकिन वह प्रति तलाश करनी पड़ेगी। प्रति बेटे के पास थी जो रोमानिया में था। बेटा कुछ माह बाद भारत आया तो उस ने तलाश कर के वह दी। दोनों में पर्याप्त अंतर था। यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सी सही है और कौन सी गलत। हमने अपने मुवक्किल की प्रति पेश कर उसे रिकॉर्ड पर लेने का निवेदन अदालत से किया। हमारी प्रति रिकार्ड पर नहीं ली गई। हम हाईकोर्ट जा कर उसे रिकार्ड पर लेने का आदेश करा लाए। इस मुकदमे में दोनों को ही एक दूसरे की प्रति को गलत और अपनी को सही साबित करना था। हम इसी कारगुजारी में उलझे रहे। इस मुकदमे में अनेक अन्य बिंदु भी थे। अदालत ने उन सब पर बहस सुनी ,लगातार तीन दिन तक। जब एक ही मुकदमा तीन दिन तक लगातार चले। वही फैल कर  आप के दिमाग की अधिकांश स्पेस को घेर ले साथ में रूटीन काम भी निपटाने हों तो कैसे दिमाग में स्पेस हो सकती है।
स बीच अनेक बातें सामने आई, जिन पर लिखने का मन था। लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो। तो उसे आराम करने दिया जाए। तो आप के साथ उसे भी शुभ रात्रि कहता हूँ। कल मिलते हैं फिर उस के साथ आप से।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

न जाने कब हूर मिलेगी?

'कहानी'
 न जाने कब हूर मिलेगी? 
 दालत के जज साहब पूरे सप्ताह अवकाश पर हैं। रीडर साहब की मेज पर पड़ी आज की दैनिक मुकदमा सूची गवाही दे रही है कि जिन मुकदमों में आज पेशी थी, उन में तारीख बदली जा चुकी है। जो मुवक्किल पेशी पर आए थे वे तारीखें ले कर जा चुके हैं।  जिन मुकदमों में मुवक्किल नहीं आए उन में वकील या उन के मुंशी आ रहे हैं और मुकदमा सूची से ही नोट कर के जा रहे हैं। रीडर सभी फाइलों में आदेशिका लिख कर फुरसत पा चुका है और डायस पर अपनी कुर्सी से उतर कर वकीलों और मुवक्किलों के बैठने की बेंच पर आ बैठा है। एक दो लोग उस के पास और बैठे हैं।
ये और रीडरों से अलग आदमी हैं। उन के बारे में कहा जाता है कि वे किसी काम में पैसा नहीं लेते। यहाँ तक कि चाय भी केवल उसी की पीते हैं जिस से उन का दिल मिल गया है। धार्मिक कामों में उन की रुचि है। आज कल एक प्राचीन उपेक्षित कृष्ण मंदिर के जीर्णोद्धार में आगे बढ़ कर सहयोग कर रहे हैं। मैं एक मुकदमे की तारीख जानने अदालत में जाता हूँ तो मुझे आवाज दे लेते हैं। मैं उन के पास जा कर बैठता हूँ। उन के साथ कुछ लोग और बैठे हैं। धर्म चर्चा चल रही है। एक कहता है -आजकल लोगों में धार्मिक भावना बहुत बढ़ गई है। कोटा से सुबह छह बजे जनशताब्दी जाती है। उस में एक सीट खाली नहीं रहती। लेकिन मथुरा में वह ट्रेन आधी से अधिक खाली हो जाती है। इतने लोग गोवर्धन जी की परिक्रमा के लिए जाते हैं कि मथुरा पहुँचने वाली शायद ही कोई ट्रेन ऐसी हो जिस से कम से कम एक  तिहाई सवारी वहाँ न उतरती हो। मैं भी अनेक बार इस ट्रेन से यात्रा कर चुका हूँ, मैं कभी भी मथुरा इस से नहीं उतरा। यह सही था कि मथुरा में बहुत सवारियाँ उतरती हैं। लेकिन पूरी ट्रेन में दस-पंद्रह प्रतिशत से अधिक सवारी मथुरा की नहीं होती। 
-हो सकता है, एकादशी से पूर्णिमा के बीच आधी सवारियाँ मथुरा उतरती हों। लेकिन ट्रेन तो निजामुद्दीन तक भरी जाती है। मैं ने कहा। उस के बाद बात मुड़ गई। 
क सज्जन कहने लगे।-लेकिन यह धार्मिकता बाहर के लोगों में ही है, वहाँ के स्थानीय लोगों में नहीं। हम वहाँ परिक्रमा पथ के एक गांव में एक के घर रुके। हमारे साथ कोई था उस के रिश्तेदार का घर था। उन्हों ने हमें पानी और चाय पिलाई। उन के घर की 45 वर्ष की महिला से मैं ने पूछा कि उन की तो साल में अनेक परिक्रमाएँ हो जाती होंगी? तो वे कहने लगी मुझे यहाँ ब्याह कर आए पच्चीस बरस हो गए, मैं एक बार भी पूरी परिक्रमा नहीं कर सकी हूँ। 
स बीच रीडर साहब बोल पड़े -लेकिन हमारे पास मैरिज गार्डन के पीछे जो मंदिर है उस का पुजारी है। बहुत गरीब है। मैरिज गार्डन वाले ने उसे पूजा के लिए रखा है। उसे पाँच-छह सौ रुपए हर माह दे-देता है। बाकी काम चढ़ावे से चलता है जो वहाँ अधिक नहीं आता। पुजारी को आजीविका के लिए छोटे-मोटे काम भी करने पड़ते हैं. लेकिन वह हर माह परिक्रमा करने जरूर जाता है। वह कहता है कि मैं ने यहाँ एक डब्बा रख छोड़ा है जिस में मैं बिला नागा बीस रुपए रोज अलग रख देता हूँ। महिने मैं पाँच सौ से ऊपर इकट्ठे हो जाते हैं। बस इतना ही परिक्रमा करने में खर्चा होता है। मैं कई वर्षों से वहाँ जा रहा हूँ। मैं ने उस से पूछा कि कितनी परिक्रमा कर चुके हो तो कहता है कि पिछले साल 108 पूरी हो गई थीं। उस के बाद मैं ने गिनना छोड़ दिया।
मैं ने कहा -आप देखेंगे कि नियमित परिक्रमा जाने वाले अधिकांश लोग गरीब और निम्नमध्यम वर्ग के ही हैं। आप जानते हैं कि वे नियमित रूप से वहाँ क्यों जाते हैं? 
वे एक-एक कर जवाब देने लगते हैं -भावना के कारण? श्रद्धा के कारण? आध्यात्मिक उन्नति के लिए,?भक्ति के लिए? या फिर किसी मन्नत के कारण? मैं उन के हर जवाब के बाद कहता हूँ -गलत जवाब। वे मुझे पूछने लगते हैं -आप ही बताइए, क्या  कारण है? 
मैं कहता हूँ -उन्हें वहाँ आनंद मिलता है, और उसी का मजा लेने वे जाते हैं। हो सकता है वे पहली-दूसरी बार वहाँ उन में से किसी उद्देश्य से जाते हों जो आपने बताए हैं। लेकिन अपनी रूटीन की जिन्दगी में ऊबते लोग, हर वक्त किसी न किसी चिंता से ग्रस्त लोग, आर्थिक दबावों में पिसते और जूझते लोग जब एक-दो बार वहाँ जाते हैं। कुछ दोस्तों के साथ गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। वहाँ हर बार बहुत लोग नए मिलते हैं, उन से बात करते हैं। मंदिरों के दर्शन करते हैं। वहाँ उन की व्यथा कथा कोई रुचि से सुनता है और अपनी सुनाता है तो घावों पर मरहम लग जाते हैं। एक डेढ़ दिन वहाँ बिता कर वापस आते हैं तो उन का रूटीन टूटता है। वहाँ से लौटने पर वे जीवन में एक बदलाव महसूस करते हैं। वे हर माह वहाँ जाने लगते हैं उस में उन्हें आनंद मिलने लगता है।
रीडर साहब के साथ वहाँ बैठे लोग भी मेरी बात से सहमत हो जाते हैं। मैं कहता हूँ  -लोग अनेक तरह से आनंद लेते हैं। कोई रोज शाम को काम से निपटते ही बगीची भागता है। जहाँ और लोग मिलते हैं, सब मिल कर विजया पीसते हैं फिर छान कर महादेव को भोग लगाते हैं। शाम का भोजन कर फिर कोई संगीत सुनता है, कोई गाने वालों की महफिल में चला जाता है तो कोई पान की दुकान पर या मुहल्ले में गप्पे मारने चला जाता है। वे अपने तरीके से आनंद लेते हैं। कोई शाम को पैग लगा कर नदी किनारे या पार्क में जा बैठता है, या भोजन कर के बिस्तर पर सोने चला जाता है। जिस को जिस में आनंद मिलता है वह वही करता है। कई बार तो यह आनंद भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और बरसात से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। 
मैं थोड़ी देर रुकता हूँ। तो वहाँ बैठे लोगों में कोई बोल पड़ता है, -लोग आनंद के लिए मरने भी चले जाते हैं। उन पढ़े लिखे नौजवानों को देखिए जो अच्छी भली नौकरियाँ और धन्धों को छोड़ कर दुनिया बदलने के नशे में जंगल में जा कर बंदूक उठा लेते हैं। उन्हें जान की परवाह ही नहीं है। मैं ने सुना है बड़े बड़े नगरों की जवान लड़कियाँ भी उन में शामिल हैं। और उसे देखो वह कसाब? दस लोगों के साथ यहाँ आया था। बाकी नौ मर गए। वह जेल में पड़ा अपनी मौत का इंतजार कर रहा है। बड़ी बुरी गुजरी उस पर।  जरूर सोच रहा होगा -वे नौ मर गए साले। उन्हें जरूर जन्नत में हूरें मिल गई होंगी। एक मैं ही बचा जिसे ये लोग सजा भी नहीं दे रहे हैं। पता नहीं कब तक नहीं देंगे? मुझे न जाने कब हूर मिलेगी?

रविवार, 17 जनवरी 2010

जब इतिहास जीवित हो उठा

1976 या 77 का साल था। मैं बी. एससी. करने के बाद एलएल.बी कर रहा था। उन्हीं दिनों राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिए पहली और आखिरी बार प्रतियोगी परीक्षा में बैठा। मैं ने अपने विज्ञान के विषयों के स्थान पर बिलकुल नए विषय इस परीक्षा के लिए चुने थे। उन में से एक भारत की प्राचीन संस्कृति और उस का इतिहास भी था। इस विषय का चयन मैं ने इसलिए किया था कि मैं इस विषय पर अपने पुस्तकें पढ़ चुका था जिन में दामोदर धर्मानंद कौसम्बी और के.एम. पणिक्कर की पुस्तकें प्रमुख थीं और जिन्हों ने मुझे प्रभावित किया था। कौसंबी जी की पुस्तक मुझे अधिक तर्कसंगत लगती थी जो साक्ष्यों का सही मूल्यांकन करती थी।
मैं इस विषय का पर्चा देने के लिए परीक्षा हॉल में बैठा था। घंटा बजते ही हमें प्रश्नपत्र बांट दिए गए। मैं उसे पढ़ने लगा। पहला ही प्रश्न था। "वर्तमान हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म और सिंधु सभ्यता के धर्म में से किस का अधिक प्रभाव है? साक्ष्यों का उल्लेख करते हुए अपना उत्तर दीजिए।" 
मैं उस प्रश्न को पढ़ते ही सोच में पड़ गया। मैं ने इस दृष्टि से पहले कभी नहीं सोचा था। मैं ने अपने अब तक के समूचे अध्ययन पर निगाह दौड़ाई तो उत्तर सूझ गया कि मौजूदा हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म की अपेक्षा सिंधु सभ्यता के धर्म का अधिक प्रभाव है।यहाँ तक कि सिंधु सभ्यता के धर्म के जितने प्रामाणिक लक्षण इतिहासकारों को मिले हैं वे सभी आज भी हिन्दू धार्मिक रीतियों में मौजूद हैं। जब कि हमारे हिन्दू धर्म ने आर्यों के धर्म के केवल कुछ ही लक्षणों को अपनाया है। मैं सभी साक्ष्यों पर विचार करने लगा। मुझे लगा कि मैं उस युग में पहुँच गया जब आर्यों का सिंधु सभ्यता के निवासियों से संघर्ष हुआ होगा। दोनों के धर्म, संस्कृति और क्रियाकलाप एक फिल्म की तरह मेरे मस्तिष्क में दिखाई देने लगे। जैसे मैं उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। उक्त वर्णित दो प्रामाणिक पुस्तकों के अलावा एक पुस्तक मुझे स्मरण आ रही थी जिस ने इस दृष्यीकरण ( visualisation) का काम किया था। वह पुस्तक थी डॉ. रांगेय राघव का ऐतिहासिक उपन्यास "मुर्दों का टीला"

मैं ने आगे के प्रश्नों को पढ़े बिना ही प्रश्न का उत्तर लिखना आरंभ कर दिया। मूल उत्तर पुस्तिका पूरी भर गई, उस के बाद एक पूरक  उत्तर पुस्तिका भर गई और दूसरी पूरक उत्तरपुस्तिका के दो पृष्ठ लिख देने पर उत्तर पूरा हुआ। इस उत्तर में मैं सारे साक्ष्यों की विवेचना के साथ साथ इतिहास के तर्कशास्त्र के सिद्धांतो को भी अच्छी तरह लिख चुका था। मैं आगे के प्रश्नों को पढ़ता उस से पहले ही घंटा बजा। मैं ने घड़ी देखी दो घंटे पूरे हो चुके थे। केवल एक घंटा शेष था, जिस में मुझे चार प्रश्नों के उत्तर लिखने थे। मैं ने शेष प्रश्नों में से चार को छाँटा और उत्तर पुस्तिका में नोट लगाया कि - मैं पहले प्रश्न का उत्तर विस्तार से लिख चुका हूँ और इतिहास व उस के तर्कशास्त्र से संबद्ध जो कुछ भी मैं इस पहले प्रश्न के उत्तर में लिख चुका हूँ उसे अगले प्रश्नों के उत्तर में पुनः नहीं दोहराउंगा। शेष प्रश्नों के उत्तर के लिए केवल पौन घंटा समय शेष है इस लिए मैं उत्तर संक्षेप में ही दूंगा। मैं ने शेष प्रश्न केवल दो-दो पृष्ठों में निपटाए। समय पूरा होने पर उत्तर पुस्तिका दे कर चला आया । मैं सोचता था कि मैं पचास प्रतिशत अंक भी कठिनाई से ला पाउंगा। लेकिन जब अंक तालिका आई तो उस में सौ में से 72 अंक मुझे मिले थे। इन अंको का सारा श्रेय डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक " मुर्दों का टीला" को ही था।
डॉ. रांगेय राघव जिन का आज 87 वाँ जन्मदिन है। मात्र 39 वर्ष की उम्र में ही कर्कट रोग के कारण उन्हें काल ने हम से छीन लिया। इस अल्पायु में ही उन्हों ने इतनी संख्या में महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं कि कोई प्रयास कर के ही उन के समूचे साहित्य को एक जीवन में पढ़ सकता है। बहुत लोगों ने उन की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा है। उन की पुस्तकें आगे भी पढ़ी जाएंगी और लोग उन से कुछ न कुछ सीखते रहेंगे।

वे मेरे अनेक गुरुओं में से एक हैं। उन्हें उन के जन्मदिवस पर शत शत प्रणाम !


उन की पुस्तकों की एक सूची मैं यहाँ चस्पा कर रहा हूँ --

रांगेय राघव की कृतियाँ
उपन्यास    
घरौंदा • विषाद मठ • मुरदों का टीला • सीधा साधा रास्ता • हुजूर • चीवर • प्रतिदान • अँधेरे के जुगनू • काका • उबाल • पराया • देवकी का बेटा • यशोधरा जीत गई • लोई का ताना • रत्ना की बात • भारती का सपूत • आँधी की नावें • अँधेरे की भूख • बोलते खंडहर • कब तक पुकारूँ • पक्षी और आकाश • बौने और घायल फूल • लखिमा की आँखें • राई और पर्वत • बंदूक और बीन • राह न रुकी • जब आवेगी काली घटा • धूनी का धुआँ • छोटी सी बात • पथ का पाप • मेरी भव बाधा हरो • धरती मेरा घर • आग की प्यास • कल्पना • प्रोफेसर • दायरे • पतझर • आखीरी आवाज़ •
कहानी संग्रह    
साम्राज्य का वैभव • देवदासी • समुद्र के फेन • अधूरी मूरत • जीवन के दाने • अंगारे न बुझे • ऐयाश मुरदे • इन्सान पैदा हुआ • पाँच गधे • एक छोड़ एक
काव्य    
अजेय • खंडहर • पिघलते पत्थर • मेधावी • राह के दीपक • पांचाली • रूपछाया •
नाटक    
स्वर्णभूमि की यात्रा • रामानुज • विरूढ़क       

रिपोर्ताज
तूफ़ानों के बीच
आलोचना    
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका • भारतीय संत परंपरा और समाज • संगम और संघर्ष • प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास • प्रगतिशील साहित्य के मानदंड • समीक्षा और आदर्श • काव्य यथार्थ और प्रगति • काव्य कला और शास्त्र • महाकाव्य विवेचन • तुलसी का कला शिल्प • आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार • आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली • गोरखनाथ और उनका युग •


शनिवार, 16 जनवरी 2010

जेब से पैसे निकालो

शिवराम की यह कविता सारी बात खुद ही कहती है- 
पढ़िए और गुनिए ......


जेब से पैसे निकालो
  • शिवराम
इस कटोरे में हुजूर 
कुछ न कुछ डालो
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !


काम का उपदेश 
यहाँ खूब मिलता है
मगर जनाब कहाँ 
कोई काम मिलता है
यह मेरी मेहरबानी है
कि चोरी नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
नजरें न चुराओ
जल्दी करो, पीछा छुड़ालो ।।1।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !

नजरें फेर लेने से
कुछ नहीं होगा
जब तक नहीं दोगे
जाएगा नहीं गोगा
यह मेरी करुणा है 
कि हिंसा नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
ऐंठ न दिखाओ
जल्दी करो, मुक्ति पा लो।।2।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
लाल-पीले न होइए
गुस्सा न कीजिए
बहुत क्षुब्ध हैं हम भी
आपा न खोइए
यह मेरी शालीनता है
कि मैं आपा नहीं खोता
जीना हक है, मेरा

सो, मर नहीं सकता
क्रोध मत दिखाओ
जल्दी करो, और न सालो ।।3।।


देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो!

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

प्रकृति के त्यौहार मकर संक्रांति पर एक स्थाई सद्भावना समारोह

कर संक्रांति का धर्म से क्या रिश्ता है? यह तो आप सब को जानते हुए पूरा सप्ताह हो चुका है। टीवी चैनलों ने इसी बात को बताने में घंटों जाया किया है। ऐसा लगता था जैसे वे इस देश को कोई नई जानकारी दे रहे हों। सब को पता था कि मकर संक्रांति पर उन्हें क्या करना था? घरों पर महिलाओं ने बहुत पहले ही तिल-गुड़ के व्यंजन तैयार कर रखे थे। बाजार के लोगों ने पहले ही दुकानों से चंदा कर दुपहर में भंडारों की व्यवस्था कर ली थी। बच्चे पहले ही पतंगें और माँझे ला कर घर में सुरक्षित रख चुके थे। गाँवों में जहाँ अब भी पतंगों का रिवाज नहीं है, खाती से या खुद ही लकड़ी को बसैलों से छील कर गिल्ली-डंडे तैयार रखे थे। यह सब करने में किसी ने जात और धरम का भेद नहीं किया था। ये सब काम सब घरों में चुपचाप हो रहे थे। पतंग-माँझा बनाने और बेचने के व्यवसाय को करने वालों में अधिकांश मुस्लिम थे। संक्रांति का पर्व उन के घरों की समृद्धि का कारण बन रहा हो कोई कारण नहीं कि उन के यहाँ तिल्ली-गुड़ के व्यंजन न बनते हों।


मकर संक्रांति पर उड़ती पतंगें

लेकिन संक्रांति तो सूर्य की, या यूँ कहें कि समूची पृथ्वी की है।  सूर्य जो हमारी आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है उसे केवल आधुनिक दूरबीनों से सजी वेधशालाओं से ही देखा जा सकता है। लेकिन हमारी धरती सूरज के गिर्द जो परिक्रमा करती है उसे  मापने का तरीका है कि आकाश के विस्तार को हमने 12 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग को राशि की संज्ञा दे दी। अब पृथ्वी की परिक्रमा के कारण सूरज आकाश के विस्तार में हर माह एक राशि का मार्ग तय करता  और दूसरी राशि में प्रवेश करता दिखाई है। एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के इस आभासी प्रवेश को हम संक्रांति कहते हैं। अब सूरज न तो हिन्दू देखता है और न मुसलमान और न ही ईसाई। वह तो सभी का है। तो संक्रांति भी सभी की हुई, न कि किसी जाति और धर्म विशेष की। हम ही हैं जो इन प्राकृतिक खगोलीय घटनाओं को अपने धर्मों से जोड़ कर देखते हैं। यूँ यह एक ऋतु परिवर्तन का त्योहार है। शीत की समाप्ति की घोषणा। अब दिन-दिन दिनमान बढ़ता जाता है, सूरज की रोशनी पहले से अधिक मिलने लगती है और शीत से कंपकंपाते जीवन को फिर से नया उत्साह प्राप्त होने लगता है। ऐसे में हर कोई जो भी जीवित है उत्साह से क्यों न भर जाए।

शकूर 'अनवर' के मकान की छत पर पतंग उड़ाती लड़कियाँ

मेरे घर तिल्ली-गुड़ के व्यंजन भी बने और अपनी संस्कृति के मुताबिक शोभा (पत्नी) ने परंपराओं को भी निभाया। दुपहर उस ने मंदिर चलने को कहा तो वहाँ भी गया। बहुत भीड़ थी वहाँ। हर कोई पुण्य कमाने में लगा था। मंदिर के पुजारी का पूरा कुनबा लोगों के पुण्य कर्म से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को बटोरने में लगा था। राह में अनेक स्थानों पर भंडारे भी थे। दोनों ही स्थानों पर विपन्न और भिखारी टूटे पड़े थे। सड़कों पर बच्चे बांस लिए पतंगें लूटने के लिए आसमान की ओर आँखें टिकाए थे और किसी पतंग के डोर से कटते ही उस के गिरने की दिशा में दौड़ पड़ते थे।

मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृश्य

मारे नगर के उर्दू शायर शक़ूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर्व पर खास धूमधाम रहती है। वहाँ इस दिन दोपहर बाद एक खास समारोह होता है जिस में नगर के हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के साहित्यकार एकत्र होते हैं। शक़ूर भाई का पूरा परिवार मौजूद होता है। वे इस दिन किसी न किसी साहित्यकार का सम्मान करते हैं। सब से पहले मकान की तीसरी मंजिल की छत पर जा कर शांति के प्रतीक सफेद कबूतर छोड़े जाते हैं। उस के बाद उड़ाई जाती हैं पतंगें जिन पर सद्भाव के संदेश लिखे होते हैं। फिर आरंभ होता है सम्मान समारोह। सम्मान के उपरांत एक काव्यगोष्टी होती है जो शाम ढले तक चलती रहती है जिस में हिन्दी-उर्दू-हाड़ौती के कवि अपनी रचनाएँ सुनाते हैं। इस मौके पर सब को शक़ूर भाई के घर की खास चाय पीने को तो मिलती ही है। साथ ही मिलती है गुड़-तिल्ली से बनी रेवड़ियाँ और गज़क। शक़ूर भाई के यहाँ संक्रांति पर होने वाले इस सद्भावना समारोह को इस बरस नौ साल पूरे हो गए हैं। शकूर भाई की मेजबानी में इस समारोह का आयोजन  "विकल्प जन सांस्कृतिक मंच" की कोटा नगर इकाई करती है। 


महेन्द्र 'नेह' और शकूर 'अनवर'

ल मैं जब शक़ूर भाई के घर पहुँचा तो कबूतर छोड़े जा चुके थे और पतंग उड़ाने का काम जारी था। जल्दी ही मेहमान पतंगों को एक-एक दो-दो तुनकियाँ दे कर नीचे उतर आए और पतंगों की डोर संभाली शकूर भाई की बेटियों ने। वे पतंगें उड़ाती रहीं। फिर आरंभ हुआ सम्मान समारोह। जिस में कोटा स्नातकोत्तर महाविद्यालय (जो इसी साल से कोटा विश्वविद्यालय का अभिन्न हिस्सा बनने जा रहा है) के उर्दू विभाग की प्रमुख  डॉ. कमर जहाँ बेगम को उन के उर्दू आलोचना साहित्य में योगदान के लिए सद्भावना सम्मान से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर खुद शकूर अनवर साहब की रचनाओं की पुस्तिका "आंधियों से रहा मुकाबला" का लोकार्पण किया गया। समारोह की अध्यक्षता प्रोफेसर ऐहतेशाम अख़्तर और हितेश व्यास ने की। मुख्य अतिथि वेद ऋचाओं के हिन्दी प्रस्तोता कवि बशीर अहमद मयूख और कथाकार श्रीमती लता शर्मा थीं। बाद में हुई गोष्ठी में  पहले लता जी ने अपनी कहानी 'विश्वास' का पाठ किया और फिर मेजर डी एन शर्मा, अखिलेश अंजुम, अकील शादाब, पुरुषोत्तम यक़ीन, हलीम आईना, डॉ. जगतार सिंह, डॉ. नलिन वर्मा, चांद शेरी, ओम नागर, गोपाल भट्ट, नरेंद्र चक्रवर्ती, ड़ॉ. कंचन सक्सेना, नारायण शर्मा, नईम दानिश, सईद महवी, मुकेश श्री वास्तव, गोविंद शांडिल्य, यमुना नारायण और महेन्द्र नेह आदि ने काव्य पाठ किया। गोष्ठी का सफल संचालन आर.सी. शर्मा 'आरसी' ने किया। विकल्प की ओर से सभी अतिथियों को विकल्प प्रकाशन की पुस्तिकाएँ भेंट की गईं।

अतिथि और शकूर भाई के परिवार की महिलाएँ

कूर भाई का घर जहाँ स्थित है वहाँ आसपास घनी मुस्लिम आबादी है। लगभग दूर दूर तक सभी घऱ मुसलमानों के हैं। लेकिन जब मैं ने देखा तो पाया कि आस पास की शायद ही कोई छत हो जहाँ लड़के, लड़कियाँ, महिलाएँ और पुरुष पतंगें उड़ाने में मशगूल न हों। सभी में संक्रान्ति का उत्साह देखते बनता था। मुझे लगा कि शायद सारे शहर की सब से अधिक पतंगें इसी मोहल्ले से उड़ रही थीं। मैं ने पूछा भी तो शकूर भाई के बेटे ने कहा। संक्रांति पर सब से अधिक पतंगें हमारे ही मुहल्ले से उड़ती हैं। दुनिया बेवजह ही प्रकृति के इस त्योहार को एक धरम की अलमारी के एक खाँचे में बंद कर सजा देना चाहती है।
इस अवसर पर मैं ने कुछ चित्र भी लिए, आप की नज्र हैं।



डॉ. जगतार सिंह, पुरुषोत्तम 'यक़ीन', मैं स्वयं और डॉ. कमर जहाँ बेगम



शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर
और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए




श्रीमती लता शर्मा अपनी कहानी का पाठ करते हुए


शकूर 'अनवर' की पुस्तिका का लोकार्पण