@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अप्रैल 2010

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

दादा जी! जरा अपने पोते पोतियों के दोस्त तो बनें!

श्री  विष्णु बैरागी जी के ब्लाग एकोऽहम् पर कुछ दिन पहले एक पोस्ट थी  'वृद्धाश्रम: मकान या मानसिकता'। मैं ने इस पर टिप्पणी की थी "काका साहब बेटे बहू और पोते पोती के दोस्त क्यों नहीं बन जाते हैं? क्यों दादा ही बने रहना चाहते हैं? मेरे पिता जी के काका जी ने यही किया था। वे हमारे और पिताजी के दोस्त बन गए थे। कभी पूरी बात लिखूंगा। शायद जल्दी ही।" इस पोस्ट को पढ़ कर जो कुछ मेरे स्मरण में आया उसे ही आज दोहरा रहा हूँ।

वे मेरे सब से छोटे दादा जी थे। कुल पाँच में से मेरे दादा जी और उन के छोटे भाई एक से, दो एकसे, और एक एक से कुल मिला कर मेरे पाँचों दादा जी तीन दंपतियों की संतान थे। सब से छोटे दादा जी से मेरे दादा जी का संबंध तीन पीढ़ी पहले से था। पर दादा जी ने जिस तरह परिवार को एक रखा था हमें बहुत बाद में पता लगा कि पांचों दादा जी एक माता-पिता की संतान नहीं थे।  छोटे दादा जी ने जीवन में बहुत पापड़ बेले। वे पहले एक दादा जी के साथ कोटा में व्यवसाय में थे, फिर अपना बिजली का काम करने लगे। जिन दादा जी के साथ वे थे वे लापता हो गए। तो सब भाइयों ने मिल कर उन की तीन बेटियों के ब्याह किए। छोटे दादा जी के खुद दो ब्याह हुए, एक बेटी भी हुई। पत्नियाँ कम उम्र में उन का साथ छोड़ गईं। वे अकेले रह गए तो कोटा छोड़ उज्जैन की एक कपड़ा मिल में नौकरी करने चले गए। बाद में वे बड़ी दादी को अपने साथ ले गए। छोटे दादा जी साल में एक-दो बार बारा आते हम बच्चों के लिए कुछ न कुछ ले कर आते। पिताजी और उन की खूब निभती थी। बारां में काका भतीजे दोनों चौबीसों घंटे साथ रहते।  
 
ब मैं सात आठ वर्ष का था, पिता जी अम्माँ, मुझे और दो बहनों को ले कर उज्जैन गए। हम वहाँ कोई आठ-दस दिन रुके। रोज शाम दादा जी हमें टेकरी पर घुमाने ले जाते, कभी आइसक्रीम खिलाते कभी कुछ और। इस तरह पाँच दिन निकल गए। छठे दिन सुबह सुबह ही दादा जी मुझ से पूछने लगे -तुम्हें यहाँ आए कितने दिन हो गए? मैं ने बताया पाँच दिन। तो कहने लगे -तुम कैसे बेकार बच्चे हो? तुम्हें यहाँ उज्जैन आए पाँच दिन हो गए हैं और अभी तक तुमने सिनेमा देखने की जिद नहीं की? सिनेमा नहीं देखा तो नए जमाने को कैसे पहचानोगे? मुझे यह सब जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि वे हम से इस तरह बात कर सकते हैं। पिताजी तो सिनेमा के कट्टर विरोधी थे। हमारी कभी उन से सिनेमा जाने कहने की हिम्मत नहीं होती थी। जाते भी थे तो तब जब वे बाराँ में नहीं होते थे, वह भी छोटे काका के साथ। धीरे-धीरे हम समझ गए कि ये दादा जी हैं जिन से अपनी इच्छा खुल कर कही जा सकती है और बहुत सी बातें ऐसी भी की जा सकती हैं जो हम परिवार के किसी दूसरे बुजुर्ग के साथ नहीं कर सकते। 
 
कोई पाँच सात बरस बाद परिवार की एक शादी में हम जोधपुर में थे। बाजार में निकले छोटे दादा जी ने वहाँ की मावा कचौरी और मिर्ची बड़े खिलवाए। छोटी बहिन कहने लगी मुझे चप्पलें लेनी हैं। हम सभी चप्पल की दुकान पर पहुँचे। बहिन ने पिता जी की उपस्थिति में सादी सी चप्पलें पसंद कीं, जिन्हें छोटे दादा जी ने रिजेक्ट कर दिया। कहने लगे -ये भी कोई चप्पलें हैं? बिलकुल आउट ऑफ फैशन। जरा ऊंची ऐड़ी वाली कुछ तड़क भड़क वाली खरीदो तो सहेलियाँ बार बार पूछें कि कहाँ से लाई है? कितने की लाई है? छोटे दादा जी ने उसे जबरन नवीनतम फैशन की चप्पलें पहनाईं। छोटे दादाजी हम सभी बच्चों के मित्र थे। वे हमारे मन को पढ़ सकते थे। इस का नतीजा था कि हम सब बच्चे उन का हमेशा ख्याल रखा करते। उन्हें क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है? केवल हम ही नहीं  मेरी सब बुआएँ और उन के बच्चे उन के साथ रहना पसंद करते थे।  मैं समझता हूँ कि मेरे छोटे दादा जी की ही तरह तमाम बुजुर्ग चाहें तो अपने बच्चों और उन के बच्चों के मित्र बन सकते हैं।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ठंडा ठंडा मटके का पानी गर्मी में प्यास बुझाए, तपत तड़पत तन-मन में फिर से प्राण बसाए!!

खबार में खबर है, कोटा के जानकीदेवी बजाज कन्या महाविद्यालय को एक वाटर कूलर भेंट किया गया। पढ़ते ही वाटर कूलर के पानी का स्वाद स्मरण हो आता है। पानी का सारा स्वाद गायब है। लगता है फ्रिज से बोतल निकाल कर दफत्तर की मेज पर रख दी गई है। बहुत ठंडी है लेकिन एक लीटर की बोतल पूरी खाली करने पर भी प्यास नहीं बुझती। मैं अंदर घर में जाता हूँ और मटके से एक गिलास पानी निकाल कर पीता हूँ। शरीर और मन दोनों की प्यास एक साथ बुझ जाती है।
धर होली के पहले और बाद में बाजार में निकलते ही मटकों की कतारें लगी नजर आने लगती हैं। शहर की कॉलोनियों में मटकों से लदे ठेले घूमने लगती हैं। गृहणी ठोक बजा कर चार मटके खरीद लेती है। मैं आपत्ति करता हूँ -चार एक साथ? तो वह कहती है पूरी गर्मी और बरसात निकालनी है इन में। सर्दी के बने मटके हैं पानी को ठंड़ा रखेंगे। दो मटके मैं उठा कर घर में लाता हूँ और दो गृहणी। घर में फ्रिज है उस में बोतलें रखी हैं, पानी ठंडा रखा है। पर शायद ही कभी उन का पानी पीने की नौबत आती हो। मटके का ठंडा पानी हरदम हाजिर है। वही प्यास बुझाता है, मन की भी। उस में मिट्टी का स्वाद है, ऐसा स्वाद जिस के बिना मन की प्यास बुझती ही नहीं। 
र्मी आरंभ होती थी कि शहर में सड़क के किनारे प्याउएँ नजर आने लगती थीं। वे अब भी लगती हैं लेकिन पहले की अपेक्षा कम। बहुत सी समाज सेवी संस्थाओं ने उन के स्थान पर बिजली से चलने वाले वाटर कूलर फिट कर दिए हैं। कूलर के ऊपर पांच सौ/हजार लीटर की पानी की टंकी है जिस में पानी नलों से पहुँच जाता है। फिर वही पानी कूलर में आता रहता है। महीनों शायद ही उस टंकी और कूलर की स्टोरेज की सफाई होती हो। अदालत में भी पाँच सात कूलर लगे हैं। दो प्याऊ भी हैं,एक नगर निगम की और एक किसी समाजसेवी संस्था की। कूलर में पानी ठंडा है। लेकिन फिर भी उन प्याउओं पर दिन भर भीड़ लगी रहती है। वहाँ मटके का ठंडा पानी मिलता है। 

धर गर्मियाँ हों या सर्दियाँ हमेशा बिजली की कमी बनी रहती है। गर्मी में तो मांग से कम पड़ती है बिजली। सर्दी में बिजली की जरूरत सिंचाई के लिए किसानों को अधिक होती है। पावर कट आम बात है।  इस के बावजूद हमारी निगाह इस बात पर नहीं जाती कि मटका और सुराही पानी ठंडा करते हैं और बिना बिजली के। पानी पीने में स्वादिष्ट होता है। यदि हम पीने के पानी के ठंडा बनाने के लिए मटकों और सुराहियों का ही उपयोग करें तो कितनी ही हजार लाख यूनिट बिजली बचा सकते हैं। साथ ही मटका -सुराही निर्माण में जुटे लोगों को साल भर रोजगार देते रह सकते हैं। 

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

एक राजनेता की मौत

हामहिम के देहांत का समाचार मिलने पर बहुत लोगों को शॉक (झटका) लगा था। वे अभी तीन माह पहले ही तो राज्य की राज्यपाल बनाए गए थे। उस समय किसी ने यह थोड़े ही सोचा था कि वे इतनी जल्दी विदा ले जाएँगे, और वे भी इस तरह पद पर बने रहते हुए। पर यह तो होता ही है, जो आता है वह जाता है। वैसे अभी उन की उम्र ही क्या थी? मात्र पिचहत्तर साल और डेढ़ माह से कुछ ऊपर। यह भी कोई इस दुनिया से विदा लेने की उम्र होती है। लोग तो 90 वर्ष की उम्र के बाद भी राजकीय पदों पर काम करते रहते हैं।  पर शायद उन का शरीर राजनीति में काम करते हुए बहुत थक गया था, या फिर वे शरीर से भारी थे कि दिल साथ न दे पाया। हो सकता है दिल को खून पहुँचाने वाली धमनियों में इतनी चर्बी जमा हो गई हो कि दिल को रक्त पहुँचना ही बंद हो गया और वह जवाब दे गया। सब से बड़े सरकारी अस्पताल तक पहुँचाए जाने के पहले वे अपने प्रसाधन कक्ष (टॉयलट) में अचेत पाए गए थे। चिकित्सकों ने अच्छी तरह जाँच कर ही घोषणा की कि वे अब हम से सदा के लिए विदा ले जा चुके हैं। 
न की मृत्यु से बहुत से लोगों को प्रसन्नता प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।  ये तमाम लोग या तो राज के  या फिर वित्तीय संस्थाओं के कर्मचारी थे। ऐसा भी नहीं कि उन्हें ऐसा सुअवसर मुश्किल से ही प्राप्त होता हो।  जब भी किसी बड़े राजनेता की मृत्यु होती उन्हें ऐसा अवसर मिलता ही रहता था। सही भी है कि आप के पास बहुत से काम करने को हों। उन के कारण आप तनाव में डूबे हों। घर से पत्नी जी का फोन आया हो कि घंटे भर बाद आप के साले साहब अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ एक सप्ताह के लिए आ रहे हैं और आप को उन्हें लेने स्टेशन जाना है। तब अचानक यह समाचार मिले कि अवकाश हो गया है और अब दो दिन आप को कोई काम नहीं करना है, तो तनाव ऐसे गायब होगा ही, जैसे गधे के सिर से सींग। ऐसे में प्रसन्न होना अस्वाभाविक थोड़े ही है। ऐसे में प्रसन्नता ऐसे फूट पड़ती है जैसे रेगिस्तान में अचानक ठंडे और मीठे पानी के सोते फूट पड़े हों। राजनेता की मृत्यु से लगे शॉक के लिए यह अवकाश शॉक ऑब्जर्वर बन जाता है और दूसरे कई शॉक झेल जाता है।

प्रसन्न होने वाले ऐसे अनगिन लोगों के बीच बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्हें वाकई शॉक लगा था और फिर उस में डूब गए थे। ये वे लोग थे जो पहले ही किसी न किसी शोक में कांधे तक डूबे हुए थे। अवकाश की घोषणा ने उन के लिए शॉक ऑब्जर्वर के स्थान पर उलटा झटका देने का काम किया था। इन में एक तो बिलासी था। वह कंपनी की नौकरी में था और कंपनी के क्वार्टर में रहता था। नौकरी छूटी तो टाइपिंग की दुकान लगा  ली , जैसे तैसे घर चलाने लगा। पुश्तैनी मकान में पिताजी अपने जीते जी ही  किराएदार रख गए थे। कंपनी बंद हो गई। कंपनी ने मकान खाली करने का नोटिस दे दिया। उस ने किराएदार से मकान खाली करने को कहा तो किराएदार ने इन्कार कर दिया। बिलासी को घर का मकान होते हुए किराए के मकान में जाना पड़ा। मकान खाली कराने का मुकदमा किया उस की आखिरी पेशी थी, जज साहब बहस सुन कर फैसला देने वाले थे। अचानक अवकाश से बहस मुल्तवी हो गई। उसे जो शॉक लगा है उस से वह संभल नहीं पा रहा है।
धर एक महिला राशन कार्ड बनवाने की लाइन में खड़ी थी। राशनकार्ड न होने से उसे राशन का सस्ता आटा नहीं मिल रहा। मर्द दूसरे शहर में मजदूरी पर है। इधर तीन बच्चे हैं और वह है। सुबह कागज तैयार करवाने में चालीस रुपए खर्च हुए, कारपोरेटर के दस्तखत करवाने के लिए भटकने में तीस रुपए टूट गए। लाइन में बस चार आदमी और रह गए थे, उन के बाद पाँचवाँ नम्बर उसी का था कि खटाक से खिड़की बंद हो गई। सब के सब भोंचक्के रह गए। अभी तो लंच होने में भी सवा घंटा शेष है। पूछा तो पता लगा कि राज्यपाल का देहान्त हो गया है। तुरंत छुट्टी कर देने का हुकम फैक्स से आया है। कल भी छुट्टी रहेगी। परसों आइए। बेचारी औरत कह रही थी -बस आज आज का आटा खरीद कर घर पर रख कर आई हूँ। सोचा था आज राशनकार्ड मिल जाएगा तो कल राशन की दुकान से आटा खरीद लूंगी। अब बाजार से दो गुना कीमत का आटा खरीदना पड़ेगा। वह अपने खुदा को कोस रही थी कि उसे भी राज्यपाल को अपने घर बुलाने को यही वक्त मिला था. एक दिन ... क्या आधा घंटा और नहीं रुक सकता था कि उसे कम से कम राशनकार्ड तो मिल जाता।
घंटे भर में सारे सरकारी दफ्तर, सारी अदालतें बंद हो गईं। मुवक्किल जिन के काम अटके थे अपना मुहँ मसोस कर चल दिए। वकीलों के मुंशियों ने अपने अपने बस्ते बांधे और साइकिलों व बाइकों पर लाद दिए।  ज्यादातर वकील अदालत से चल दिए। कुछ अब भी वकालत खाने में ताश और शतरंज खेलने में मशगूल थे। ये वे थे जो वकील तो थे पर जिन के घर वकालत से नहीं बल्कि मकानों दुकानों के किरायों और उधार पर उठाई हुई रकम से चलते थे। इन्हें आधे दिन के अवकाश से तो कोई समस्या नहीं हुई थी। वे शाम पाँच बजे के पहले ताश और शतरंज छोड़ कर जाने वाले नहीं थे। पर अगले दिन के अवकाश से जरुर परेशान थे। सोच रहे थे कि कल का दिन कैसे बिताएँगे? ताश और शतरंज के लिए कौन सी जगह तलाशी जाएगी। गर्मी का मौसम न होता तो किसी पिकनिक स्पॉट पर चले जाते। गर्मी में तो वहाँ भी दिन बिताना भारी पड़ता है।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

राजकीय शोक और अचानक अवकाश की प्रसन्नता

ज डायरी में मुकदमे अधिक न थे, लेकिन जितने थे वे सभी समय खपाऊ थे। चार मुकदमों में अंतिम बहस थी और चारों अलग अलग अदालतों में थे। एक मकान मालिक की ओर से किराएदार से मकान खाली कराने का था। दूसरा एक डाक्टर द्वारा बिना मरीज की अनुमति प्राप्त किए और उसे प्रक्रिया और परिणाम बताए बिना ऐंजियोप्लास्टी कर देने का उपभोक्ता विवाद था। तीसरा मजदूर की काम के दौरान दुर्घटना की मृत्यु के कारण मुआवजे का और चौथा एक नौकरी से निकालने का। सुबह साढ़े सात पर अदालत पहुँचा तो वहाँ केवल चार वकील और मिले जब कि पैंतीस अदालतें बाकायदा खुल चुकी थीं और काम चल रहा था। वकीलों के न पहुँचने के कारण वे अपने दूसरे काम निपटा रही थीं। वकीलों के बैठने वाले इलाके में अभी झाड़ू निकाला जा रहा था। मैं अपने मुवक्किल के साथ अदालत पहुँच गया। दूसरे पक्ष के वकील अभी पहुँचे नहीं थे। इंतजार के बाद तकरीबन पौने नौ बजे बहस आरंभ हुई और दस बजते बजते मैं ने उसे समाप्त कर दिया। प्रतिपक्ष की बहस के लिए कल की तिथि दे दी गई। 
क और अदालत में प्रतिपक्ष का वकील ठीक से तैयार नहीं था, उस में तिथि बदल गई। एक अदालत में अभी जज साहब चैंबर में थे तो मैं चौथी में जा पहुँचा। वहाँ अधिकारी अवकाश पर थे। आखिर डेढ़ बजे मुझे एक जज ने मुकदमे में बहस सुनाने के लिए चैम्बर में ही बुलवा लिया। मैं ने बहस सुना दी। प्रतिपक्षी की बहस फिर अधूरी रह गई। इस बीच किसी ने खबर दी कि राजस्थान की राज्यपाल का देहांत हो गया है। जज साहब ने तुरंत ही शोक जाहिर किया और घर फोन लगा कर अपने बेटे को निर्देश दिया कि वह ई-टीवी राजस्थान पर खबर सुन कर तफसील बताए। फिर कहने लगे कि -अब कल का तो अवकाश हो ही जाएगा। परसों फिर शोकसभा के कारण काम स्थगित रहेगा। आधा दिन आज का गया ही समझो। कुल मिला कर ढाई दिन का अवकाश हो गया। अवकाश से वे बहुत राहत महसूस कर रहे थे। 

कुछ देर बाद उन्हों ने फिर घर फोन लगाया तब तक यह कन्फर्म हो चुका था कि आज का आधे दिन का और कल का पूरे दिन का अवकाश घोषित हो चुका है। उन्हों ने तुरंत अपने एक रिश्तेदार को फोन लगा कर बताया कि वह कल का अवकाश न ले और वैसे ही अवकाश घोषित हो चुका है। उसे अवकाश ले कर कहीं जाना था। जज साहब ने तुंरत रीडर को हुक्म दिया कि अब तक जो आदेशिकाएँ लिखी जा चुकी हैं उन में उन के हस्ताक्षर करवा लिए जाएँ, जिस से वे तुरंत घऱ जा सकें। शेष फाइलों में नोट लगा दिया जाए कि राज्यपाल के निधन के कारण अवकाश घोषित हो जाने से काम नहीं हो सका। उन फाइलों में अदालत खुलने वाले दिन हस्ताक्षर कर दिए जाएँगे। हस्ताक्षर कर के जज साहब ने अदालत छोड़ दी। रीडर शेष फाइलों में आदेशिका लिखने लगा। वह कहता जा रहा था कि अवकाश तो अफसरों का हुआ है। उन्हें तो उतनी ही फाइलें लिखनी पड़ेंगी जितनी रोज लिखनी पड़ती थीं। 

मैं ने तीन बजे बाद अदालत छोडी। बैंक में लेनदेन बंद हो चुका था इस लिए कैश नहीं निकलवा सका। सोचा कल निकलवा लिया जाएगा। (मैं अभी तक एटीएम प्रयोग नहीं करता) घर पहुँचते ही एक इंश्योरेंस कंपनी से फोन आया कि किसी जरूरी मामले पर विमर्श करना है। मैं घंटे भर बाद ही वहाँ के लिए रवाना हो गया। काम की बात के अलावा वहाँ भी इस बात का चर्चा था कि क्या वहाँ भी कल अवकाश रहेगा। एक कर्मचारी कह रहा था कि पिछले राज्यपाल के निधन पर तो अवकाश रहा था। इस बार भी निगोशिएबुल इंस्ट्रूमेंट एक्ट में अवकाश होना चाहिए। मैं ने कहा शायद न हो, पहले वाले राज्यपाल निगोशिएबुल रहे हों और ये वाले न रहे हों।
खैर वहाँ से निकलकर शाम साढ़े छह घर पहुँचा तो वहाँ एक बैंक वाले मौजूद थे। उन्हों ने बताया कि उन के यहाँ भी अवकाश घोषित हो चुका है। जितने भी अफसर और कर्मचारी थे अचानक अवकाश का एक दिन मिल जाने से प्रसन्न थे। उन्हें राजकीय शोक रास आ रहा था।

मैं सुबह पौने पाँच पर सो कर उठा था। दिन भर काम करने पर थक चुका था। आज दिन में भी विश्राम नहीं मिला था। मुझे भी अच्छा लग रहा था कि कल का अवकाश हो चुका है वर्ना किराएदारी वाले मुकदमे के कारण कल फिर पौने पाँच उठ कर साढ़े सात तक अदालत पहुँचना पड़ता। मैं यह भी सोच रहा था कि इस मुकदमे में मकान मालिक कितना अभागा है कि आधी बहस के बाद मुकदमे में फिर अवकाश की अड़चन आ गई। परसों भी शोकसभा के कारण काम नहीं हो सकेगा। उस के बाद के दिन मुकदमा रखवाना पड़ेगा और इस के लिए बुध को फिर जल्दी जाना पड़ेगा। इस बीच यदि जज का ट्रांसफर आदेश आ गया तो..... गई भैंस पानी में।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

"आफू की पान्सी", खाई है कभी आप ने?

श्रीमती शोभाराय द्विवेदी सोमवार से ही अत्यधिक व्यस्त थीं। उन के बाऊजी और जीजी जो आए हुए थे। बाऊजी को डाक्टर को दिखाने और दवा लेते रहने के बाद आराम था। उन का मन कर रहा था कि वे छोटी बेटी के यहाँ जयपुर भी मिल कर आएँ। लेकिन किसी के साथ के बिना यह यात्रा संभव नहीं थी। मैं ने ऑफर दिया था कि शुक्रवार की शाम चले चलेंगे मैं अपनी कार से उन्हें छोड़ कर रविवार को वापस लौट आऊंगा। लेकिन फिर लौटने की समस्या थी। अचानक यह तय हुआ कि वे वापस अपने घर लौटेंगे। श्रीमती द्विवेदी ने साथ देने का इरादा किया और वे शुक्रवार बाऊजी जीजी को छोड़ने चली गई। शनिवार को वापस लौटीं। अब मायके हो कर आई थीं तो कुछ तो वहाँ से ले कर आना ही था। दोपहर बाद पता लगा कि वे "आफू की पान्सी" लेकर आई हैं और शाम को वही पकना है।
"आफू की पान्सी" बोले तो अफीम के पत्तों को सुखा कर बनाई गई सब्जी जो गर्मी के दिनों में बड़ी ठंडक पहुँचाती है। वैसे जिन दिनों अफीम खेतों में हरी होती है तो उस के पत्ते निराई छंटाई के समय तोड़े जाते हैं तो हरे पत्तों की सब्जी भी बनाई जाती है। उन्ही दिनों कुछ पत्तों को तोड़ कर सुखा  कर पान्सी बना ली जाती है जो गर्मी के मौसम में काम आती है।  अफीम ऐसा पौधा है जिस का सब कुछ काम आता है। सब से मुख्य तो इस का फल है। जब .यह पौधे पर हरा रहता है तभी चाकू से इस में लम्बवत चीरे लगा दिए जाते हैं जिस से पौधे का दूध (लेटेक्स) निकलने लगता है और वहीं जम जाता है। इसी को इकट्ठा किया जाता है। यही अफीम है। यह नशा देती है। ऐसा मीठा नशा की जिस को लग जाता है छूटता नहीं। बहुत से दर्दों से एक साथ छुटकारा मिल जाता है। लेकिन कुछ दिन बाद उसी आनंद और आराम के लिए अधिक मात्रा की आवश्यकता होने लगती है। इसी से हेरोइन बनती है। 
ब सारी अफीम निकाल ली जाती है और फल पक जाता है तो उसे तोड़ लिया जाता है। इस फल के अंदर से निकलते हैं बीज जिन्हें हम पोस्ता दाना के नाम से जानते हैं। गर्मी में और साल भर इस का इस्तेमाल ठंडाई बनाने में होता है। इस दाने को पानी के साथ पीस कर फिर से दूध हासिल किया जा सकता है और  इस की चावल के साथ खीर बनाई जा सकती है जो स्वादिष्ट तो होती ही है तासीर में ठंडी भी होती है। गर्मी के मौसम में दो चार बार यह खीर खाने को मिल जाए तो गर्मियों का आनंद आ जाता है। अब फल का खोल बचता है जिसे हम डोडा चूरा के नाम से जानते हैं। इस का उपयोग भी दवाओं के लिए होता है। सुना तो यह भी है कि कुछ बीड़ी उत्पादक डोडा चूरा को पानी में उबाल कर तंबाकू पर उस के पानी का छिड़काव कराते हैं। इस तम्बाकू से बनी बीड़ी का आनंद कुछ और ही है ऐसा कुछ बीड़ी उत्पादक बताते हैं।
फीम के खेतों में जिन दिनों फूल खिलते हैं वहाँ की बहार देखने लायक होती है। जब भी सर्दी के दिनों में मुझे ननिहाल जाना पड़ा तब रास्ते में जिन खेतों में अफीम उगी होती थी वे ही सब से खूबसूरत दिखाई देते थे। अफीम में 12 प्रतिशत मॉर्फीन होता है जो अनेक दर्द निवारक दवाओँ का आवश्यक अंग है। इस के अलावा भी अफीम में अन्य रसायन होते हैं जो दवा निर्माण में काम आते हैं। दुनिया भर में ड्रग्स के धंधे में सर्वाधिक शेयर  अफीम और उस के उत्पादकों का  ही है। यही कारण है कि इस की स्वतंत्र खेती प्रतिबंधित है और सरकारी लायसेंस पर ही अफीम का उत्पादन किया जा सकता है और सारी अफीम सरकार को ही बेचनी होती है। फिर भी किसान लालच में अफीम बचा लेते हैं और उसे चोरी छिपे बेच कर धनी बनने का प्रयत्न करते हैं। अफीम उत्पादक क्षेत्रों मे किसान तो नहीं पर उन से चोरी छिपे अफीम खरीद कर बाहर तस्करों को भेजने वाले बहुत शीघ्र मालामाल होते दिखाई देते हैं। लेकिन जब वे ही पुलिस द्वारा धर लिए जाते हैं तो उन का माल खिसकने में भी देर नहीं लगती। 
खैर, शनिवार शाम को श्रीमती द्विवेदी ने "आफू की पान्सी" की सब्जी बनाई। पान्सी याने सूखे पत्तों को पानी में भिगोया गया और उस की मिट्टी निकालने के लिए आठ दस बार धोया गया। फिर उस का पानी निचोड़ कर उसे सूखा ही छोंक दिया गया और उस में भीगे हुए चने की दाल के दाने भी डाले गये। सब्जी लाजवाब बनी थी। खाने का तो आनंद आया ही नींद भी जोरों की आई। कोई चिंता भी नहीं थी दूसरे दिन रविवार था। मैं तो सुबह उठ कर अपने कामों में मशरूफ हो गया। लेकिन श्रीमती द्विवेदी को रह रह कर आलस आते रहे। यह एक सप्ताह बाऊजी जीजी की सेवा करने का या पिछले दो दिनों की यात्रा की थकान का नतीजा था या फिर "आफू की पान्सी" का असर। वैसे पौधे के जिस लेटेक्स से अफीम बनती है वह तो पौधे के अंग अंग में समाया रहता ही है। हरी पत्तियों को सुखाने पर उन में भी सूख कर कुछ अल्प मात्रा में तो रहता ही होगा। 


शनिवार, 24 अप्रैल 2010

परंपरा और विद्रोह: प्रथम सर्ग "धऱती माता" (उत्तरार्ध) .... यादवचंद्र

यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के प्रथम सर्ग "धऱती माता" का पूर्वार्ध पिछले अंक में प्रस्तुत किया गया था, जिस में "विश्व के उद्भव से पृथ्वी के जन्म" तक का वर्णन था। इस काव्यांश को जिस ने पढ़ा वह अभिभूत हुआ और उसे सराहा। यादवचंद्र जी का सारा काव्य है ही ऐसा कि पाठक अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाता है। इस बार पढ़िए इसी के प्रथम सर्ग  "धऱती माता" का उत्तरार्ध, जिस में उन्हों ने पृथ्वी पर जीवन के विकास और मनुष्य के जन्म तक के विकास को प्रस्तुत किया है। 

परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र * 

प्रथम सर्ग
धऱती माता
(उत्तरार्ध)

हिम युग का प्रारंभ यही रे
कहीं ताप का नाम नहीं रे
शांत स्निग्ध धरती के हिय में
करुणा की मधु धार बही रे

स्निग्ध दिशाएँ, स्निग्ध गगन है
स्निग्ध धरा का चञ्चल मन है
कोटि-कोटि युग-युग तक धरती
में न कहीं कुछ भी कम्पन है

खोए मन की प्यास न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो।

आओ आज कराएँ तुम को
प्रथम-प्रथम मिट्टी के दर्शन
लो माँ धरती के आंगन में
खुले तत्व के दिव्यालोचन

जल-काई जिस से परिणत हो
हुए प्रस्तरीभूत जन्तु गण
सांघातिक सागर लहरों में
उन्हें चाहिए घना आवरण

इसी प्रयोजन को ले उन के
हुए रूप में फिर परिवर्तन
कौड़ी, घोंघे, और केंकड़े
आते मानव के पुरखे बन

ये सब छोटे-छोटे प्राणी
जल के भीतर करते शासन
भूमि और जलवायु बदल कर
दिशा-खोलते उन के लोचन


घड़ियालों के वंशज को ले
ढोल, नगाड़े, सिंघा बाजे
मत्स्यरूप भगवान स्वर्ग से
अंडा फोड़ धरा पर भागे

दल-दल ऊपर नील गगन की
शोभा ले फैली हरियाली
नील सिन्धु की लहर लहर कर
नाच रही तितली मतवाली

जल-थलचारी अण्डज, पिण्डज
बनने की करते तैयारी
और निरंतर प्रलय-सृजन की
ताल ठोकते बारी बारी

युग पर युग की तह लगती है
धरती धधक बर्फ बन जाती
सरीसृपों की फिर दुनिया में
भीम भयावह काया आती

क्रम से क्रम की राशि न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो

और धरा-गति-जन्य सत्व है
गरमी बन कर बर्फ गलाता
एक व्यवस्थित मौसम का क्रम
हिम सेवित धरती पर लाता

धरती सूर्य-पिण्ड के चारों-
और लगाती जाती चक्कर
और इधर संतुलन कार्य-
कर रहा सत्व सर्दी के ऊपर

जो भू-भाग सूर्य के आगे
आते हैं, गर्मी हैं पाते
औ, बेचारे दूर पड़े जो
सिसक-सिसक हिमवत हो जाते

सुखद, सलोने मौसम में हैं
लता-गुल्म-पौधे लहराते
जिनके फल-फूलों को खा कर
बन्दर होली रोज मनाते

कहीं लता-गुल्मों में बच्चों-
को माता स्तनपान कराती
देख जिसे बनमानुष की है
फूली नहीं समाती छाती

दूध, नेह निर्ब्याज जननि ने
किया पुत्र को जैसे अर्पण
भाव-देश में चुपके-चुपके
अहा, उतर आया जीवन

बुद-बुद व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन
का जागा सामूहिक यौवन
यूथ, समाज कि देश-विदेशों
में होते अगणित परिवर्तन

मंजिल पर मंजिल पर मंजिल
मंजिल मार रहा बन-मानव
पर, उस के आकार रूप में
कैसा यह घनघोर पराभव

कौन, अरे तू कौन खड़ा है?
किस की है तू बदली काया?
स्वजन संग प्रस्तर आयुध ले
किस ने युग पर हाथ उठाया?

'मैं मानव हूँ प्रस्तर युग का
मुझे जिन्दगी की अभिलाषा'
पौरूष चीख-चीख कर उस का
पटक रहा है जीवन-पासा

'पट-चित हार-जीत का कारण
हाय, समझ में बात न आती
मेरे खूँ से कौन गगन में
अपनी जुड़ा रहा है छाती !

देव-शक्ति विश्वेतर कोई ?
नहीं, नहीं, यह भ्रम है मन का'
पर इस से क्या (?) जाग मनुज का
स्वार्थ हड़पने भाग स्वजन का

वर्ण, जाति, उपजाति, देश की
भृकुटी में चल पड़ते देखो
स्वार्थ मनुज का बँटा वर्ग में
वर्ग-वर्ग को लड़ते देखो

वेद, शास्त्र, आचार, नीति की
ईंट उसे फिर गढ़ते देखो
नाना रूप, रंग, परिभाषा
में तुम उस को बढ़ते देखो


धरती के बेटों को, धरती
को क्षत-विक्षत करते देखो
निज अंगों को काट मनुज का
पुनः उदर निज भरते देखो

हिरण्याक्ष-अभियान धऱा का
धरणी को लेकर बढ़ता है
दशकन्धर-उत्थान धरा का
देख, त्रिदिव का भ्रम हरता है

इधर वर्ग का स्वार्थ राम के
रा्ज्य बीच कोई गढ़ता है
ब्रह्मा का फिर सीस भुजा से
कुरुक्षेत्र का रण रचता है

मेरा यह परिहास न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो।


प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'धऱती माता' नाम का प्रथम सर्ग समाप्त
(क्रमशः)

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

परंपरा और विद्रोह ... स्व. यादव चंद्र का एक प्रबंध काव्य

यादवचंद्र जी से शायद आप परिचित न हों, उन के परिचय के लिए उन की एक रचना  से साक्षात्कार ही पर्याप्त है। अनवरत पर उन की कुछ रचनाएँ मैं ने प्रस्तुत की थीं। वे केवल समर्थ क्रांतिकारी कवि ही नहीं थे अपितु उन के व्यक्तित्व के बहुत विस्तृत आयाम थे। वे ओजस्वी वक्ता, समीक्षक, नाटककार, नाट्य निर्देशक, अभिनेता, कुशल लोक नर्तक, समर्पित कार्यकर्ता, परिश्रमी संगठनकर्ता ,प्रतिबद्ध चिंतक, लोकप्रिय शिक्षक ... और भी बहुत कुछ थे।
"परंपरा और विद्रोह" यादवचंद्र कृत अठारह सर्गों का एक प्रबंध काव्य है। इसे पढ़े बिना इस के मूल्य और महत्ता का अनुमान नहीं किया जा सकता। यह हिन्दी साहित्य को उन का विशिष्ठ योगदान है। यह आपातकाल के दौरान पहली बार प्रकाशित हुआ। शहीद भगत सिंह के साथी शिव वर्मा ने इस की भूमिका लिखी। यह समूचे ब्रह्मांड और सृष्टि के आविर्भाव और विकास की यात्रा की यथार्थ और सौंदर्यमयी अभिव्यक्ति है, यह मनुष्य की उत्पत्ति और जीवन संघर्षों और उस के महाभियानों की यात्रा है। इसे राहुल सांकृत्यायन की कृति 'वोल्गा से गंगा' और भगवत शरण उपाध्याय की 'इतिहास पर खून के छींटे' की परंपरा का सृजनात्मक विकास कहा जा सकता है।
स कृति के बारे में अधिक कुछ कहना अभी ठीक नहीं। मेरा मानना है कि इस कृति को पढ़ कर पाठक स्वयं इस कृति और इस के कृतिकार का मूल्यांकन करें। इस कृति को मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोशिश रहेगी कि सप्ताह में दो दिन अनवरत पर यह कृति स्थान पा सके। आशा है, आप इसे पढ़ेंगे और कृति और कृतिकार के संबंध में अपनी राय से हमें अवगत कराएंगे। 
कुल 142 पृष्ठों का यह प्रबंध काव्य अठारह सर्गों में विभाजित है। एक पोस्ट में एक सर्ग प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। एक सर्ग को दो-तीन या चार पोस्टों में बांट कर ही प्रस्तुत किया जाएगा। यहाँ प्रथम सर्ग का पूर्वार्ध प्रस्तुत है जिस में सृष्टि का आरंभ, पृथ्वी की उत्पत्ति का सुंदर और वैज्ञानिक वर्णन है। 


परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र * 

प्रथम सर्ग (पूर्वार्ध)
धऱती माता

तुम मेरा इतिहास न पूछो......

मेरे प्रथम चरण में धू-धू
कर जलती हैं दशों दिशाएँ
महाशून्य जाज्वल्यमान है
बंधी हुई हैं और हवाएँ

गति है मौन, ग्रहादिक तारे
और उपग्रह सभी लुप्त हैं
मानव के मानस-सुत ब्रह्मा,
विष्णु, पिनाकी सभी सुप्त हैं

रोक हृदय की गति बस अम्बर
दृश्य प्रलय का देख रहा है
नाश और निर्माण बिंदु की,
पूछ रहा है वह-रेख कहाँ है?


देखो उधर नेबुला देखो !
गति की गति ले, देता चक्कर
अग्नि-पिंड विष ज्वाल उगलता
चला, बढ़ा वह धुन्ध बांधकर

लाल गगन में आग लगाता
लाल गगन में लपट बिछाता
लाल-लाल शोले-चिनगारी
प्रतिपल-प्रतिपल वह छिटकाता

मेरा पहला हास न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो

शोले हर शोले को बांधे
नाच रहे हैं ऊपर-नीचे
यह गुरुत्व औ आकर्षण है
जो है एक, एक को खींचे

वर्ना वे फिर से टकरा कर
यहीँ आदि का अंत करेंगे
किन्तु स्वतः परतः दो गतियों
के कारण वे नहीं लड़ेंगे

नहीं लड़ेंगे, नहीं भिड़ेंगे
नाच रहे जो लाल सितारे
बीच सबों के बड़े पिंड जो
सूर्य, वही हैं भाग्य हमारे

मनुज! प्रज्वलित अग्नि-पिण्ड से
डरो  नहीं, मंगल  ही  होगा
'मंगल' की गति-विधि से धरणी
रह न सकेगी युग-युग बन्ध्या

यौवन की थाती धरती -
को पल भर भी तो सोने दो
महानाश को अजी, न छेड़ो
ज्वाला को शीतल होने दो

चक्कर काट-काट अकुलाती
रवि से दूर प्रिया की छाती
खोया-खोया सा दिन आता
सिसक-सिसक कर रजनी जाती

हाँ, इस निशा दिवस के क्रम में
ठंडा हुआ धधकता शोला
उभर सिमट कर पर्वत - गह्वर
पहले-पहल हुआ यह गोला

पा कर मौन धरा को, नभ के
तत्व द्रवित हो पाँव बढ़ाए
सावन-भादों घिरे नयन में
उमड़-घुमड़ कर बादल छाए

रोके रुके न लेकिन आँसू
झंझावात-विजन की आहें
आँसू कढ़े हृदय को पाने
फैलाए चिर प्यासी बाहें

फूट-फूट कर रोता अंबर
सिसक-सिसक धरती अकुलाती
प्लावन कहीं न हो इस क्रम में
सोच कलम मेरी रुक जाती

रूठ गई है आज हवाएँ
जल के फूट रहे फौव्वारे
हिम के पर्वत छूट गगन से
गिरते टूट रहे ज्यों तारे

कोटि-कोटि मीलों की गति ले
झंझा हहर रही है दुस्तर
जिस के भीम वेग में पड़ कर
उड़ते तिनके-से गुरु प्रस्तर

टाईफोन, संहार, प्रलय है
जल-प्लावन से आज न खेलो
जागा है नैराश्य धरा का
सागर उसे अंक में ले लो ....

गुरु ऋंगों पर सिन्धु लहरता
सिन्धु बीच ज्वारों का पर्वत
जिस के तुङ्ग शिखर पर युग का
कवि बैठा है बन कर तक्षक

पीने को निखिल विश्व का
युग उद्वेलित कटु हालाहल
पी कर तरल गरल कवि के दृग
स्नेह-स्निग्ध बरसाते प्रतिपल

निष्ठा से विश्वास न पूछो
तुम मेरा इतिहास न पूछो

(क्रमशः)

मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे?

 चाची जी
ब मैं पाँच बरस का था तो चाचा जी की शादी हुई। चाची जी घऱ में आ गईं। खिला हुआ गोरा रंग और सुंदर जैसे मंदिर में सजी हुई गौरी हों। उसी साल बी.ए. की परीक्षा दी थी उन्हों ने। तब लड़कियों का मेट्रिक पास करना भी बहुत बड़ा तीर मारना होता था। मैं अक्सर उन के आस पास ही बना रहता। मुझे सब सरदार ही कहा करते थे। स्कूल में नाम दिनेश लिखा गया था। लेकिन चाची जी मुझे हमेशा दिनेश जी कहती थीं। उन का मुझे नाम ले कर पुकारना और फिर पीछे जी लगाना बहुत अच्छा लगा। वे पहली थीं जिन ने मुझे इतनी इज्जत बख्शी थी। इस के बाद तो बहुत लोग जीवन में आए जिन्हों ने उम्र में बड़े होते हुए भी मुझे जी लगा कर पुकारा।
मैं वकालत करने कोटा आया तो यहाँ के अभिभाषकों में सब से वरिष्ठ थे पं. रामशरण जी शर्मा। उन की उम्र मेरे दादा जी के बराबर थी। वे केवल वकील ही नहीं थे। उन का इतर अध्ययन भी था और वे विद्वान थे। सभी उन के पैर छूते थे। उन के पास रहते हुए मुझे बहुत भय लगता था इस बात का कि कहीं ऐसा न हो कि मैं कोई ऐसी बात कह दूँ या कोई ऐसी हरकत कर दूँ जिस से उन्हें बुरा लग जाए। हालांकि इच्छा यह होती थी कि जब भी वे बोल रहे हों उन के आस पास बना रहूँ। उन की आवाज बहुत धीमी और मीठी थी। इतनी धीमी कि लोगों को कान और ध्यान दोनों लगा कर सुनना पड़ता था। अदालत में भी जब वे बहस करते तो भी उन का स्वर धीमा ही रहता था। जज उन की बात को बहुत ध्यान से सुनते थे। जब वे बोलते थे तो अदालत में सन्नाटा होता था। कहीं ऐसा न हो कि उन के बोलने में कोई व्यवधान पड़े। 
क दिन अचानक फोन की घंटी बजी। फोन पर बहुत महीन और मधुर स्वर उभरा - द्विवेदी जी, मैं पंडित रामशऱण अर्ज कर रहा हूँ। 
मैं इस आवाज को सुनते ही हड़बड़ा उठा। मैं ने उन्हें प्रणाम किया। बाद में वे जो कुछ पूछना चाहते थे पूछते रहे मैं जवाब देता रहा। उन के इस विनम्र व्यवहार से मैं उन के प्रति अभिभूत हो उठा था। इस के बाद उन से निकटता बनी। एक दिन उन से खूब बातें हुई। उस दिन मैं ही बोलता रहा, वे अधिकांश सुनते रहे। उन्हों ने कोई टिप्पणी नहीं की। दो-चार दिन बाद उन्हों ने आगे से कहा -मुझे उस दिन तुम्हारी बातों से आश्चर्यजनक प्रसन्नता हुई कि वकीलों में अब भी ऐसे लोग आ रहे हैं जो वकालत की किताबों के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ते हैं। फिर उन के पौत्र वकालत में आए। वे अक्सर उन के बारे में मुझ से पूछते कि -हमारा नरेश कैसा वकील है? मुझे जो भी बन पड़ता जवाब देता। 
मेरी आवाज बहुत ऊंची है। जब अदालत में बहस करता हूँ तो अदालत के बाहर तक सुना जा सकता है। लेकिन मुझे मेरी यही आवाज मुझे अच्छी लगती थी। लेकिन पंडित जी से मिलने के बाद बुरी लगने लगी। मुझे लगा कि मुझे धीमे बोलने की आदत डालना चाहिए जिस से लोग मुझे ध्यान से सुनें और उस पर गौर करें। मेरा व्यवहार छोटे से छोटे व्यक्ति के साथ भी मधुर, विनम्र और सम्मानपूर्ण होना चाहिए। मैं तभी से यह प्रयास करता रहा हूँ कि मैं ऐसा कर सकूँ। मैं अभी तक इस काम में सफल नहीं हो सका हूँ, लेकिन प्रयत्नशील अवश्य हूँ। 
ल खुशदीप जी ने मुझे कहा कि मैं उन्हें खुशदीप कहूँ तो उन्हें खुशी होगी। उन का कहना ठीक है। शायद वे इसी तरह मुझ से अधिक आत्मीयता महसूस करते हों। लेकिन मैं जो कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहा हूँ उस में तो यह बाधा उत्पन्न करता ही है। यदि मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे? मुझे लगता है कि उन्हें इस से बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं सभी से ऐसा ही व्यवहार कर सकूँ। मैं तो कहता हूँ कि मेरे सभी पाठक यदि अपने से उम्र में छोटे-बड़े सभी लोगों से ऐसा व्यवहार कर के देखें।  वे अपने बच्चों और पत्नी या पति को जिस भी नाम से पुकारते हैं उस के अंत में जी लगा कर संबोधित कर के देखें, और लगातार कुछ दिन तक करें। फिर बताएँ कि वे कैसा महसूस करते हैं। 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ब्लागीरी को अपने काम और जीवन का सहयोगी बनाएँ

सोमवार से शोभा के बाऊजी, और जीजी हमारे बच्चों के नाना जी और नानीजी साथ हैं तो घर में रौनक है।  बच्चों के बाहर रहने से हम दोनों पति-पत्नी ही घर में रहते हैं। कोई भी आता है तो रौनक हो जाती है। बाऊजी अस्सी के होने जा रहे हैं, कोई सात बरस पहले उन्हें मधुमेह ने पकड़ लिया। वे स्वयं नामी ऐलोपैथिक चिकित्सक हैं और इलाके में बालरोग विशेषज्ञ के रूप में विख्यात भी। वे अपने शरीर में शर्करा की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। फिर भी मधुमेह ने शरीर पर असर किया है। अब कमर के निचले हिस्से में सुन्नता का अनुभव करते हैं। उन की तंत्रिकाओँ में संचार की गति कुछ मंद हुई है। कोटा के एक ख्यात चिकित्सक को दिखाने आते हैं। इस बार जीजी को भी साथ ले कर आए। हम ने आग्रह किया तो रुक गए। पिछले दो दिनों से लोग उन से मिलने भी आ रहे हैं। लेकिन इन दो दिनों में ही उन्हें अटपटा लगने लगा है। अपने कस्बे में उन बाऊजी के पास सुबह से मरीज आने लगते हैं। वे परिवार के व्यवसायों पर निगरानी भी रखते हैं। जीजी भी सुबह से ही परिवार के घरेलू और खेती कामों पर  निगरानी रखती हैं और कुछ न कुछ करती रहती हैं। यहाँ काम उन के पास कुछ नहीं, केवल बातचीत करने और कुछ घूम आने के सिवा तो शायद वे कुछ बोरियत महसूस करने लगे हों। अब वे वापस घर जाने या जयपुर अपनी दूसरी बेटी से मिलने जाने की योजना बना रहे हैं। मुझे समय नहीं मिल रहा है, अन्यथा वे मुझे साथ ले ही गए होते। हो सकता है कल-परसों तक उन के साथ जयपुर जाना ही हो। सच है काम से विलगाव बोरियत पैदा करता है। 
रात को मैं और बाऊजी एक ही कमरे में सो रहे थे, कूलर चलता रह गया और कमरा अधिक ठंडा हो गया। मैं सुबह उठा तो आँखों के पास तनाव था जो कुछ देर बाद सिर दर्द में बदल गया। मैं ने शोभा से पेन किलर मांगा तो घर में था नहीं। बाजार जाने का वक्त नहीं था। मैं अदालत के लिए चल दिया। पान की दुकान पर रुका तो वहाँ खड़े लोगों में से एक ने अखबार पढ़ते हुए टिप्पणी की कि अब महंगाई रोकने के लिए मंदी पैदा करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। दूसरे ने प्रतिटिप्पणी की -महंगाई कोई रुके है? आदमी तो बहुत हो गए। उतना उत्पादन है नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलावट कर कर के तो जरूरत पूरी की जा रही है, वरना लोगों को कुछ मिले ही नहीं। अब सरकारी डेयरी के दूध-घी में मिलावट आ रही है। वैसे ही गाय-भैंसों के इंजेक्शन लगा कर तो दूध पैदा किया जा रहा है। एक तीसरे ने कहा कि सब्जियों और फलों के भी इंजेक्शन लग रहे हैं और वे सामान्य से बहुत बड़ी बड़ी साइज की आ रही हैं। मैं ने भी प्रतिटिप्पणी ठोकी -भाई जनसंख्या से निपटने का अच्छा तरीका है, सप्लाई भी पूरी और फिर मिलावट वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में कमी तो लाएगी ही।
दालत पहुँचा, कुछ काम किया। मध्यांतर की चाय के वक्त सिर में दर्द असहनीय हो चला। मुवक्किल कुछ कहना चाह रहे थे और बात मेरे सिर से गुजर रही थी। आखिर मेरे एक कनिष्ठ वकील ने एनालजेसिक गोली दी। उसे लेने के पंद्रह मिनट में वापस काम के लायक हुआ। घऱ लौट कर कल के एक मुकदमे की तैयारी में लगा। अभी कुछ फुरसत पाई है तो सोने का समय हो चला है। कल पढ़ा था खुशदीप जी ने सप्ताह में दो पोस्टें ही लिखना तय किया है। अभी ऐसा ही एक ऐलान और पढ़ने को मिला। मुझे नहीं लगता कि पोस्टें लिखने में कमी करने से समस्याएँ कम हो जाएंगी। बात सिर्फ इतनी है कि हम रोजमर्रा के कामों  में बाधा पहुँचाए बिना और अपने आराम के समय में कटौती किए बिना ब्लागीरी कर सकें। इस के लिए हम यह कर सकते हैं कि हमारी ब्लागीरी को हम हमारे इन कामों की सहयोगी बनाएँ। जैसे तीसरा खंबा पर किया जाने वाला काम मेरे व्यवसाय से जुड़ा है और मुझे खुद को ताजा बनाए रखने में सहयोग करता है। अनवरत पर जो भी लिखता हूँ बिना किसी तनाव के लिखता हूँ। यह नहीं सोचता कि उसे लिख कर मुझे तुलसी, अज्ञेय या प्रेमचंद बनना है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

"जो चाहो मुझ पर जुल्म करो" एक नज़्म पाकिस्तान से

शिवराम के संपादन में प्रकाशित हो रही  "सामाजिक यथार्थवादी पत्रिका अभिव्यक्ति" का 36वाँ अंक प्रेस से आ गया है। इस का वितरण आरंभ कर दिया है। प्रकाशक की पाँच सुरक्षित पाँच प्रतियाँ मुझे मिलीं। अभी पूरी तरह इस अंक को देख नहीं पाया हूँ। पर इस में पाकिस्तानी कवि जावेद अहमद जान की एक नज़्म मुझे पसंद आई जो लाहौर के दैनिक जंग में 11 अप्रेल 1989 को प्रकाशित हुई थी। नज़्म आप के लिए पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ ----

मैं बागी हूँ
  • जावेद अहमद जान

मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।

इस दौर के रस्म रिवाजों से 
इन तख्तों से इन ताजों से
 जो जुल्म की कोख से जनमे हैं
इन्सानी खून से पलते हैं
ये नफरत की बुनियादें हैं
और खूनी खेत की खादें हैं

मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।

मेरे हाथ में हक का झण्डा है
मेरे सर पे जुल्म का फन्दा है
मैं मरने से कब डरता हूँ
मैं मौत की खातिर जिन्दा हूँ
मेरे खून का सूरज चमकेगा
तो बच्चा बच्चा बोलेगा
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
 फ्रेंच कारटूनिस्ट, चित्रकार, मूर्तिकार डौमियर ऑनर (1808-79).की एक कृति

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

फिर से पढना, मुल्कराज आनंद के उपन्यास "कुली" का

किसी भी शाकाहारी के लिए वह भी ऐसे शाकाहारी के लिए जिस के लिए किसी भी तरह के अंडा और लहसुन तक त्याज्य हो,  यात्रा करना एक चुनौती से कम नहीं। वह भी तब जब कि उसे भारत से बाहर जाना पड़ रहा हो। बेटी पूर्वा के साथ भी यही चुनौती उपस्थित हुई थी। उसे पहली बार किसी कार्यशाला के लिए एक अफ्रीकी  देश जाना था। कुल एक सप्ताह की यात्रा थी। आखिर उस की मित्रों ने सलाह दी की तुम्हारी माँ तो बहुत अच्छे खाद्य बनाती है जो महीनों सुरक्षित रहते हैं, तो वही बनवा कर ले जाओ। यह बात जब शोभा तक पहुँची तो पत्थर की लकीर हो गया। बेटी जब पहली बार विदेश जा रही हो तो उस से मिलने जाना ही था। खैर, शोभा ने बेटी के लिए खाद्य बनाए। कुछ और वस्तुएँ जो उसे पहुँचानी थी, ली गई। यात्रा दो से चार दिन की हो सकती थी। कुछ किताबें पढ़ने के लिए होनी चाहिए थीं। मैं ने अपनी अलमारी टटोली और दो बहुत पहले पढ़ी हुई पुस्तकों का चयन किया। इन में से एक भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक मुल्कराज आनंद के उपन्यास कुली का हिन्दी अनुवाद था।
कुली आजादी के पूर्व के परिदृश्य में एक अनाथ पहाड़ी किशोर की कहानी है। चाचा चाची कहते हैं कि वह पर्याप्त बड़ा हो गया है उसे कमाना आरंभ कर देना चाहिए। उसे नजदीक के कस्बे में एक बाबू जी के घर नौकर रख दिया जाता है। उद्देश्य यह की खाएगा वहाँ और जो नकद कमाएगा वह जाएगा चाचा की जेब में। अपना ही निकटतम पालक परिजन  जब शोषक बन जाए तो औरों की तो बात कुछ और ही है। वह शोषण और निर्दयता का मुकाबला करता हुआ उस से भाग कर एक नए जीवन की तलाश में भटकता रहता है। लेकिन जहाँ भी जाता है वहाँ शोषण का अधिक भयानक रूप दिखाई पड़ता है। अंततः 15 वर्ष की आयु में वह यक्ष्मा का शिकार हो कर मर जाता है। 
स उपन्यास में देश में प्रचलित अर्ध सामंती, नए पनपते पूंजीवाद और साम्राज्यवादी शोषण के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। इस में लालच के मनुष्यों को हैवान बना देने के विभत्स रूप देखने को मिलते हैं, तो कहीं कहीं शोषितों के बीच सहृदयता और प्यार के क्षण भी हैं।  भले ही यह उपन्यास आजादी के पहले के भारत का परिदृश्य प्रस्तुत करता है। लेकिन पढ़ने पर आज की दुनिया से समानता दिखाई देती है। शोषण के वे ही विभत्स रूप आज भी हमें अपने आसपास उसी बहुतायत से दिखाई देते हैं। वे हैवान आज भी हमारे आस-पास देखने को मिलते हैं। जिन्हें हम देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं, वैसे ही जैसे बिल्ली कुत्ते को देख कर आँख मूंद लेती है।
मैं इस उपन्यास को आधा कोटा से फरीदाबाद जाते हुए ट्रेन में ही पढ़ गया। शेष भाग फरीदाबाद में पढ़ा गया। बहुत दिनों बाद पढ़ने पर लगा कि जैसे मैं उसे पहली बार पढ़ रहा हूँ। बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है। जो हमारे वर्तमान समाज के यथार्थ को शिद्दत के साथ महसूस कराती है। यह पुस्तक मिल जाए तो आप भी अवश्य पढ़िए। जो लोग इसे खरीदने में समर्थ हैं वे इसे खरीद कर अपने पुस्तकालय में इसे अवश्य सम्मिलित करें।  यात्रा में ले जाई गई दूसरी पुस्तक का मैं एक ही अध्याय फिर से पढ़ सका। आज मेरे एक कनिष्ट अधिवक्ता उसे पढ़ने के लिए ले गए हैं। देखता हूँ वह कब वापस लौटती है। इस दूसरी पुस्तक के बारे में बात फिर कभी।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी

18 अप्रेल, 2010
पंखा सुधारता मिस्त्री
ड़नतश्तरी ने चित्रों को सही पहचाना वे फरीदाबाद सैक्टर 7-डी के ही थे। बेटी पूर्वा वहीं रहती है। उसी के कारण सपत्नीक वहाँ जाना हुआ। हो सकता था मुझे दो दिन और रुकना पड़ता।  हम कोटा के वकीलों ने 30 अगस्त से छह दिसंबर तक चार माह से कुछ अधिक समय हड़ताल रखी। सारे मुकदमों में विलंब हुआ और यह भी कि उन की अगली तिथियों का प्रबंधन हम न कर पाए। इस के कारण सब ऊल-जलूल तरीके से तारीखों में फिट हो गए। उन्हों ने अब बाहर निकलना दूभर कर दिया है। यदि दो दिन और रुकता तो अपने मुवक्किलों को  अप्रसन्न करता।  लेकिन अभी हमारा समाज बहुत सहयोगी है। मैं ने समस्या का उल्लेख पूर्वा के मकान मालिक से किया तो उन्हों ने कहा -ये भी कोई समस्या है। आप चिंता न करें जरूरत पड़ी तो यह काम मैं स्वयं करूंगा। हम निश्चिंत हुए और आज ही वापस लौट लिए।
कोटा अदालत चौराहे की दोपहर
रोज सुबह आठ बजे अदालत निकल जाना और दोपहर बाद दो बजे तक वहाँ रहना इस भीषण गर्मी में नहीं अखरता।एक तो काम में न सर्दी का अहसास होता है और न गर्मी का। दूसरे कोटा में जहाँ अदालत है वहाँ  आसपास वनस्पति अधिक होने से तापमान दो-चार डिग्री कम रहता है और नमी बनी रहती है। इस कारण गर्मी बरदाश्त हो लेती है। वापस लौट कर घर पर कूलर का सहारा मिल ही जाता है। गर्मियाँ कटती रहती हैं। लेकिन कल सुबह छह बजे ट्रेन कोटा से रवाना हुई और सूरज निकलने के साथ ही गर्मी बढती रही। मथुरा पहुँचते पहुँचते जनशताब्दी का दूसरे दर्जे का डब्बा बिलकुल तंदूर बन चुका था। जैसे तैसे 12 बजे बल्लभगढ़ उतरे तो वहाँ सूरज माथे पर तप रहा था। पूर्वा के आवास पर पहुँचे तो घऱ पूरा गर्म था। कुछ देर कूलर ने साथ दिया और फिर बिजली चली गई। आधी रात तक बिजली कम से कम छह बार जा चुकी थी। बिजली 15 से 30 मिनट रहती और फिर चली जाती। वह शहर में ही ब्याही नई दुल्हन की तरह हो रही थी जो ससुराल में कम और मायके अधिक रहती है।
पंछियों के लिए परिंडा 
रात हो जाने पर हिन्दी ब्लाग जगत के शीर्ष चिट्ठाकार रह चुके अरूण अरोरा (पंगेबाज) जी के घर जाना हुआ।  हमारा सौभाग्य था कि वे घर ही मिल गए। उन्हों ने कुछ मेहमान आमंत्रित किए हुए थे इसलिए वे शीघ्र घर लौट आए थे। वर्ना इन दिनों उन का अक्सर ही आधी रात तक लौटना हो पाता है और सुबह जल्दी घर छोड़ देते हैं। पिछले वर्ष जब सभी उद्योग मंदी झेल रहे थे तब उन्हों ने बहुत पूंजी अपने उद्योग में लगाई थी। मैं सदैव चिंतित रहा कि इस माहौल में उन्हों ने बहुत रिस्क ली है। लेकिन यह जान कर संतोष हुआ कि पूंजी लगाने का सकारात्मक प्रतिफल मिल रहा है। हम उन के घरपहुँचे तब बिजली नहीं थी और रोशनी व पंखा इन्वर्टर पर थे। हमें बात करते हुए दस ही मिनट हुए थे कि वह भी बोल गया। घर से अंधेरा दूर रखने के लिए मोमबत्ती का सहारा लेना पड़ा। कुछ देर में उन के आमंत्रित मेहमान भी आ गए और हम ने विदा ली। रात भर बिजली आती-जाती रही।
सूर्यास्त होने ही वाला है
मारी समस्या हल हो चुकी थी। दोपहर पौने दो बजे कोटा के लिए जनशताब्दी थी। हम उस से वापल लौट लिए। फरीदाबाद हरियाणा सरकार का कमाऊ पूत है। समूचे हरियाणा का आधे से अधिक आयकर इसी शहर से आता है। निश्चित ही राज्य सरकार को भी यहाँ से इसी अनुपात में राजस्व मिलता है। इस शहर की हालत बिजली के मामले में ऐसी है तो यह अत्यंत चिंताजनक बात है। रात को चर्चा करते हुए पंगेबाज जी ने तो कह ही दिया था -और दो काँग्रेस को वोट, अब यही होगा। मैं ने पूछा क्या हरियाणा में इतनी कम बिजली पैदा होती है। तो वे कहने लगे -बिजली तो जरूरत जितनी पैदा होती है लेकिन कांग्रेस की सरकार है तो दिल्ली को बिजली देनी होती है। हम यहाँ भुगतते हैं। अब असलियत क्या है? यह तो कोई खोजी पत्रकार आंकडे़ जुटा कर ही बता सकता है।
लो सूरज विदा हुआ
वापसी यात्रा में जनशताब्दी का डब्बा फिर से तंदूर की तरह तप रहा था। जैसे-तैसे छह घंटों का सफर तय किया और कोटा पहुँचे। मैं शोभा से कह रहा था कि इस भीषण गर्मी में घर छोड़ कर बाहर निकलना मूर्खता से कम नहीं है। वह नाराज हो गई। इस में काहे की मूर्खता है, काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी। यहाँ आ कर अखबार देखा तो पता लगा कि कल के दिन कोटा का अधिकतम तापमान 45.7 डिग्री सैल्शियस था।