गणपति उत्सव को सर्वप्रथम शुरू करने वाले बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणपति बिठाया। दस दिन तक सभा और सम्मेलनों को संबोधित किया। बिठाये गये गणपति की दसवें दिन फेरी निकाली। गणपतिका दर्शन सभी के लिए खुला रखा था। मौके का भरपूर फायदा उठाते हुये एक चमार ने मूर्ति के दर्शन करने के क्रम में उसे छू ही डाला।
गणपति को अपवित्र कर डाला! गणपति अपवित्र हो गया! कहते हुये सभी प्रकार के ब्राह्मणों में भयानक खलबल मच गयी। सभी तिलक को गरियाते हुये कहने लगे कि देखा! गणपति को सार्वजनिक किया तो इस प्रकार धर्म डूब गया। कौन ब्राह्मण इस मूर्ति को अपने घर में रखेगा? तब तक फेरी पुणे के बाहर और मुला-मुठा नदी तक आ चुकी थी। तभी आराम से तिलक ने कहा चिल्लाते क्यों हो.? शांत रहो ....मैं धर्म को डूबने कैसे दूंगा! धर्म को डुबाने की अपेक्षा हम इस अपवित्र मूर्ति को ही डूबा देते हैं।
... और इस प्रकार गणपति को डूबा दिया गया। तभी से प्रत्येक वर्ष 10 दिन तक तमाम अछूतों द्वारा अपवित्र हुये गणपति को डुबा दिया जाता है। जिसे कलम कसाई विसर्जन कहते हैं।