@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अप्रैल 2008

बुधवार, 30 अप्रैल 2008

जरुरत है चिट्ठाकारों की कमाई का जरिया चिट्ठाकारी में ही तलाशने की

विगत आलेख के अंत में मै ने एक प्रश्न आप के सामने रखा था- क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?

भाई अनूप सुकुल जी ने कहा वे उत्तर का इंतजार करेंगे। जवाब मिले, और केवल इसी सवाल के नहीं कुछ और सवालों के भी। मसलन हमारे ड़ॉक्टर अमर कुमार जी ने कहा कि चाहे प्रचलित अंग्रेजी या किसी भी अन्य भाषा के शब्द का हिन्दी विकल्प बना लें लेकिन शब्द तो वही चलेगा जो जनता चलाएगी। यानी जो जुबान पर चढ़ गया वही चलेगा। अब इन्हें हम हिन्दी शब्दकोष में जगह दें या न दें यह कोषकार पर निर्भर करेगा। पर जनता शब्दकोष पढ़ कर हिन्दी न बोलेगी। जो उस की समझ में आएगा वह बोलेगी। अब हिन्दी को जनता के साथ चलना है तो उसे भी इन शब्दों को अपनाना पड़ेगा। इस से उस का कुछ भी नुकसान नहीं होने का वह और बलवान और समृद्ध हो जाएगी।

ब्लॉगर के प्रोफेशनल होने पर तो घोस्ट बस्टर जी के अलावा किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन यह चिन्ता थी कि ब्लॉगर कहीं इसे केवल कमाई का साधन न बना ले। मेरे सवाल का सब से खूबसूरत जवाब देहरादून की खूबसूरत प्रेटी वूमन रक्षन्दा जी ने दिया कि ब्लॉगर प्रोफेशनल जरूर हो, लेकिन ब्लॉगिंग उस का प्रोफेशन न हो जाए। उन्हों ने प्रोफेशन शब्द के दो अलग अलग अर्थों का एक ही वाक्य में सुन्दर प्रयोग किया, और इस सवाल के मुख्य द्वंद को स्पष्ट भी किया।

कुल मिला कर सब की चिन्ता एक ही थी कि ब्लॉगिंग का उपयोग समाजिक ही रहे। धन लालसा उसे असामाजिक न बना दे। वह शिवम् बनी रहे, कल्याणकारी ही रहे। भले मानुषों की यह चिन्ता होनी भी चाहिए।

मैं एक प्रोफेशनल वकील हूँ। इस का अर्थ यह है कि मैं अपने हर काम में जीत हासिल करने की इच्छा ही नहीं रखता बल्कि उस के लिए प्रयत्न भी करता हूँ। काम हाथ में लेते समय भी परखता हूँ कि इस में सफलता मिल सकती है या नहीं। इस का यह भी अर्थ नहीं कि मैं सफलता हासिल होने वाले ही काम हाथ में लेता हूँ। ऐसे काम भी हाथ में लेता हूँ जिन में रत्ती भर भी गुंजाइश सफलता की नहीं होती, लेकिन वह लड़ाई महत्वपूर्ण होती है। वहाँ लड़ते-लड़ते हार जाना भी जीत ही होती है। लेकिन संभावित परिणामों से प्रारंभ में ही अपने सेवार्थी को अवगत करा देना, उस का तोड़ है। वह फिर भी लड़ना चाहे तो उस की लड़ाई जरूर लड़ी जाती है।

हर काम में धन की कमाई जरूरी भी नहीं होती। कभी ऐसा भी होता है कि मिलने वाले शुल्क से काम में खर्च होने वाला धन अधिक हो जाता है, तब नुकसान भी होता है। लेकिन अगर काम हाथ में ले लिया तो यह नहीं देखा जाता कि इस में नुकसान है या फायदा। एक अच्छे प्रोफेशनल की पहचान ही यही है कि वह अपने काम को मिशन की तरह ले। यही नहीं उस की कमाई पर निर्भर भी करे। क्या आप ये चाहेंगे कि मैं पूरे समय वकालत करूँ और मेरा घर किसी और साधन से चले। अगर ऐसा होने लगा तो मैं वकालत और अपने सेवार्थी के प्रति कभी भी ईमानदार नहीं रह सकूंगा। मैं फिर लोगों पर उपकार करने का नाटक करने वाला ढ़ोंगी बन कर रह जाऊँगा, और अपने सेवार्थी के हित की चिन्ता करने के बजाय उस का भला बने रहने की चिन्ता अधिक करूंगा। कमाई के जाजरू वाले रास्ते देखने लगूँगा।

एक चिट्ठाकार अपना चार-छह घंटों का कीमती समय रोज खर्च भी करे और घर चलाने के लिए दूसरी और झाँके, तो फिर चिट्ठाकारी चलनी नहीं है। वह आज की तरह रेंगती ही रहेगी।

और अंत में यह भी कि कोई भी सामाजिक मिशन बिना प्रोफेशनल कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के शिखर पर नहीं पहुँचता। इसलिए हिन्दी चिट्ठाकारी को प्रोफेशनल चिट्ठाकारों की सख्त जरुरत है, और ऐसे प्रोफेशनल चिट्ठाकारों की कमाई के जरिए चिट्ठाकारी में ही तलाशने की जरुरत है।

क्या अब भी आप चाहेंगे कि पूरी तरह समाज को समर्पित चिट्ठाकार आर्थिक दबावों में किसानों की तरह आत्महत्या करने लगें?

क्या अब भी आप कहेंगे कि चिट्ठाकार को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?

मैं ने चिटठाकार समूह पर एक सवाल छोड़ा था। प्रोफेशनलिज्म के लिए हिन्दी शब्द क्या हो सकता है? जवाब भी खूब मिले। व्यवसायिकता  इस के लिए सही शब्द हो सकता है, लेकिन यह भी समानार्थक नहीं। प्रोफेशनलिज्म शब्द का हिन्दी में कोई समानार्थक नहीं। मेरी जिद भी है कि जब आप को कोई समानार्थक शब्द अपनी भाषा में न मिले तो उसे अपनी भाषा का संस्कार दे कर अपना लिया जाए इस से हिन्दी न तो हिंगलिश होगी और न ही उस की कोई हानि होगी। लाभ यह होगा कि आप के भाव को प्रकट करने वाला एक और शब्द आप के शब्द कोष में सम्मिलित हो जाएगा। इस से भाषा समृद्ध ही होगी।

मूल बात थी कि प्रोफेशनलिज्म का अर्थ क्या?  यह एक गुण या गुणों का समुच्चय है। जो आप के काम को करने के तरीके को निर्धारित करता है और आप के काम के परिणाम और उस से उत्पन्न उत्पाद की गुणवत्ता को भी।

मैं एक वकील हूँ, एक प्रोफेशनल। मेरे पास एक सेवार्थी अपनी कोई समस्या ले कर आता है। मुझे उस की समस्या हल करनी है। कोई आते ही यह भी कहता है कि 'वकील साहब,  एक नोटिस देना है' मैं उस से यह भी कह सकता हूँ कि 'दिए देते हैं' अगर मैं ने यह जवाब दिया, तो समझो मैं प्रोफेशनल नहीं हूँ, और एक वकील, एक लॉयर नहीं हूँ। फिर मैं एक दुकानदार हूँ, जो माल बेचता है। क्यों कि ग्राहक ने कहा नोटिस दे दो, और मैं ने दे दिया।

भाई, वकील तो मैं हूँ। यह तुम ने कैसे तय कर लिया कि, नोटिस देना है? और समस्या के हल के लिए यह एक सही प्रारंभ है। सेवार्थी का काम है, मुझे समस्या बताने का। मेरा काम है, उस से वे सभी तथ्य और उन्हें प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य की उपलब्धता जाँचने का, और फिर इस सामग्री के आधार पर समस्या का हल तलाश करने का। मैं तय करूगा कि, समस्या का हल कैसे करना है?

अगर मेरे सारे कामों में यह गुण विद्यमान रहता है तो मैं एक सही प्रोफेशनल हूँ, अन्यथा नहीं। अपने काम के प्रति पूरी सजगता होना, उस के लिए जरुरी कुशलता हासिल करना और उसे उत्तरोत्तर विकसित करते रहना जरुरी है। सेवार्थी को सर्वोत्तम सेवाएं प्रदान करने के लायक बने रहना ही प्रोफेशनलिज्म है। प्रोफेशनलिज्म का यह अध्याय यहीं समाप्त नहीं होता। अनेक और बाते हैं जो इस में समाहित होती हैं। पर आज के लिए इतना पर्याप्त है।

अंत में एक सवाल- क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए? 

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

गेम "कैसे बनें सफल व्यापारी"

मैं ने 1978 में वकालत शुरु की। साल भर कुछ भी नहीं कमाया। केवल काम की धुन सवार थी। सोचते थे, काम करो, तो नाम होगा। नाम होगा, तो काम भी मिलेगा, और दाम भी।

एक कहावत हाड़ौती में बहुत कही जाती है। घर का जोगी जोगणा, आन गाँव का सिद्ध। मतलब ज्ञान की पूछ घर में नहीं होती, बाहर वाले को अधिक पूछा जाता है।

हम बाराँ से निकल लिए। आ गए कोटा। काम यहाँ जैसे हमारे इन्तजार में था। खूब काम किया, नाम भी हुआ, दाम भी मिलने लगा। बच्चे हुए, घर बनाया।

यही हाल अभी हिन्दी ब्लॉगिंग यानी हिन्दी चिट्ठाकारी का है। उस का अभी बचपना है, यानी खेलने-खाने के दिन। हम एडसेंस का बिल्ला चिपका कर "कैसे बनें सफल व्यापारी" खेल रहे हैं। अभी हमें मीलों चलना है। दुनियाँ अपनी बनानी है।

बकौल रवि रतलामी के तीन हजार चिट्ठे हैं, उन पर भी आपसी बातें अधिक, ज्ञान कम। तो पाठक भी कम हैं। अपने काम के प्रति समर्पित कम और शौकिया अधिक। टिप्पणियों में सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा वाले अधिक। उन की परवाह न करने वाले कम। हम अपना काम किए जाएँ। लोग अपने आप पहचानेंगे। रोज दस्तक देंगे आप के द्वारे, अगर हम अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए।

यह तकनीक और अर्थव्यवस्था का युग है। हम नहीं  देखते कि हम क्या उत्पादित कर रहे हैं? हमारा उत्पाद लोगों की जरुरतों और आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं? फिर लोगों को पता भी है या नहीं कि हम उन की जरुरत का माल पैदा कर रहे हैं? हम लोगों तक पहुँचने का प्रयत्न कर ही नहीं रहे हैं। जंगल में मोर नाचा किसने देखा?

सब से पहले हमें जानना चाहिए कि हमारे श्रेष्टतम उत्पाद क्या-क्या हो सकते है? उन में कौन सा उत्पाद है, जिस की लोगों को सर्वाधिक आवश्यकता है? हम यह शोध कर लें, फिर जरुरत का माल उत्पादित करें, और इसे घर में रख कर न बैठ जाएँ।

जी हाँ अपने चिट्ठे को ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत या कुछ और एग्रीगेटरों पर दर्ज करा देना, उत्पादन को घर में डाल देना ही है। कितने नैट प्रयोगकर्ताओं को ब्लॉगवाणी चिट्ठाजगत पता है? हम ने माल पैदा किया, और घर में डाला। अब घर के मेम्बर ही एक दूसरे के माल की तारीफ कर रहे हैं, या मीन-मेख निकाले जाते हैं। एक दूसरे का माल खरीदने से रहे।

शानदार संगीत महफिल जमी है। सभी संगीतकार हैं। गाए जा रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कोई दूसरा उस की तारीफ कर दे, तो जीवन सफल हो जाए। नया पुराने से और पुराने नयों से तारीफ की आकांक्षा करते हैं। असली गाहक कोई नहीं। बस रियाज हो रहा है। शिष्य गा रहे हैं, उस्ताद कमी निकाल कर बता रहे हैं। यहाँ, यहाँ और यहाँ सुर और साध लो, बस फिर तुम्हारी फतह। उस्ताद गा कर बता रहे हैं, ऐसा! शिष्य साधने में लग जाते हैं। असली परीक्षा, प्रदर्शन का दिन अभी बहुत दूर है।

कुछ शिष्य थकने लगे हैं। वापस भागने लगते हैं, तो दूसरे आस बंधाते हैं और रोक लेते हैं। वे फिर रियाज में लग जाते हैं। गुरुकुल में नए-नए लोग आ रहे हैं। गुरुकुल आबाद हो रहा है। गुरुकुल को आबाद होने दीजिए। इतना, कि दूर से ही अलग दिखाई देने लगे। तब वे भी आएंगे जो सिर्फ गाहक होंगे। दुनियाँ बहुत बड़ी है। हिन्दी की दुनियाँ भी बहुत बड़ी है, और हम अभी बहुत छोटे। इतने, कि ठीक से दिखाई ही नहीं देते। बस कुछ दिखने लायक हो जाएं, कुछ हमारे पास दिखाने लायक हो जाए। फिर घर से निकलें। फेरी लगाएं, गाहक के पास जाएँ, या फिर गाहक को दुकान तक पकड़ कर लाएँ। दुकान में ऐसा कुछ होगा तो गाहक दुबारा, तिबारा और बार-बार वहाँ आएगा।

आप गाहक को लाए, और वहाँ ऐसा कुछ न हुआ कि वह दुबारा वहाँ आए, तो उसे वहाँ लाना भी बेकार ही सिद्ध होगा।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

क्यो न कमाएँ? चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से

मैं जब हिन्दी चिट्ठे पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि कुछ लोग इस बात से परेशान हैं, कि कुछ हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए रुपया या डॉलर जो भी हो, धन कमा रहे हैं। भाई आप नहीं चाहते कि लक्ष्मी आप के घर या बैंक खाते में आए, तो आप मत आने दीजिए उसे। मगर जहाँ आ रही है, उन्हें तो भला-बुरा मत कहिए। आप कह भी देंगे तो जिस के घर आ रही है वहाँ आना बन्द न कर देगी और आप के बैंक खाते का रुख भी नहीं करने वाली। आप फिजूल में ही पड़ौस के केमिस्ट की दुकान पर बरनॉल की बिक्री बढ़ा रहे हैं।

ठहरिए! जरा सोचिए! कितना कमा रहा है, एक हिन्दी चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से? सोचने में परेशानी हो रही है तो आप किसी तरह पता लगा लीजिए एडसेंस से।

अब मैं तो देख रहा हूँ नियमित रूप से लिखने वाले और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले पाँच हिन्दी चिट्ठौं में से एक पाण्डे ज्ञानदत्त जी को। उन को इस का भारी शोक है कि लोग विज्ञापनों को क्लिक ही नहीं करते। दूसरे हम हैं जो रोज अपना एडसेंस खाता क्लिक कर-कर परेशान हैं, उस में जमा डॉलर उतना का उतना ही पड़ा रहता है। जैसे हमारे चिट्ठे किसी गली के ट्रेफिक-जाम में फँस गए हों। अब आज का हमारा एडसेंस का ऑल टाइम खाता देखिए और खुद ही बताइए कि हमने पिछले पाँच माह में क्या कमाया अपने दो हिन्दी चिट्ठों से?

देख लिया?

कुल 3.13 डॉलर!

आह! कितनी बड़ी रकम है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मैं यह सोच कर प्रसन्न होऊँ या माथे पर हाथ धर कर बैठूँ कि इस से कहीं अधिक धन तो वह बरनॉल बेचने वाला केमिस्ट कमा चुका होगा।

खैर हमें नहीं सोचना यह सब, और भी ग़म हैं सोचने को दुनियाँ में।

मगर मैं सोच तो सकता ही हूँ, और क्यों न सोचूँ कि दुनियाँ गोल है। कोई सोच पर पहरा कैसे लगा सकता है।

मार पीट कर गैलीलियो से चर्च हिमायतियों ने कहलवाया कि उसने गलत कहा कि धरती गोल है, वह तो वाकई चपटी है। जेल से छूटने पर उस से पूछा। मैं ने सोचा धरती गोल है, उन्होंने कहलवा लिया चपटी। पर मेरे सोच पर कोई पहरा नहीँ। कहूँगा नहीं तो क्या? सोच तो सकता ही हूँ कि धरती गोल ही है। पर हुआ क्या? गैलिलियो ने सोचा, कुछ और ने सोचा, और धरती चपटी से गोल हो गई। अब तो चर्च भी कह रहा है कि धरती गोल ही है। मुझे पुरानी धरती का कोई चित्र नहीं मिल रहा जब धरती गोल थी। सब जगह तलाश किया तो पता लगा तब कैमरा नहीं बना था।

तो मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न कमाएं हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए?

क्या कहा? आप भी सोचना चाहते हैं, ऐसा ही कुछ। तो चलिए हमारे साथ।

आखिर कबीरदास जी कह गए हैं-जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।

आप साथ चले तो रहेगी चर्चा जारी, वरना हम अकेले ही सोचेंगे। अपने चिट्ठे पर लिखेंगे भी। आप आज ही थोक में बरनॉल खरीद लाइए होलसेल केमिस्ट से जल्दी ही मांग और दाम बढ़ने वाले हैं।

क्या पता सोचते-सोचते चपटी धरती गोल हो ही जाए।

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

सब बातें छोड़ कर सोचिए पहले खाने के बारे में

आज से राजस्थान में अदालतें सुबह की हो गईं हैं जो 30 जून तक रहेंगी। अब सुबह सात से साढ़े बारह की अदालत है। लेकिन परिवार न्यायालय, श्रम न्यायालय, राजस्व न्यायालय का समय पहले की तरह दस से पाँच बजे तक ही रहेगा। यहाँ यह सुविधा दे दी गई है कि खुले न्यायालय का समय डेढ़ बजे तक रहेगा उस के बाद अदालतें चेम्बर का और कार्यालय का काम निपटाएंगी। हम इस तरह हम अब साढ़े सात बजे घर से निकला करेंगे और तकरीबन दो बजे से तीन बजे के बीच घर वापसी संभव हो सकेगी। शाम को सात से दस, साढ़े दस बजे तक अपना वकालत का दफ्तर करना पड़ेगा। कुछ काम शेष होने पर देर रात तक भी काम करना पड़ सकता है। इस में अपनी चिट्ठाकारी के लिए समय चुराना कितना दुष्कर हो जाएगा आप समझ सकते हैं।

आज सुबह जल्दी पौने पाँच पर ही उठ जाना पड़ा। तैयार होते होते सात बज गए। बीच में समय मिला तो कुछ चिट्ठों पर आलेख पढ़े। लेकिन इन सब पर कमेटिया नहीं पाए, इतना समय नहीं था। सुबह पढे गए चिट्ठे भ्रष्टाचार की पाठशाला, Dr. Chandra Kumar Jain's Home, फुरसतिया, नौ दो ग्यारह, घुघूती बासूती, शब्‍दों का सफ़र, आलोक पुराणिक की अगड़म बगड़म, ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल, हैं। मैं ने सुबह ही इन के नाम नोट कर लिए थे। फिर साढ़े सात अदालत के लिए निकल लिए। आ कर कुछ घरेलू काम निपटाए। फिर थोड़ा विश्राम, और फिर पांच बजे से लग गए अपने काम पर। अभी काम का एक हिस्सा पूरा कर साढ़े दस बजे निपटा हूँ। इस बीच शाम सात बजे भोजन भी किया है।

दिन में अदालत से आ कर भी कुछ चिट्ठे पढ़े सब कुछ सामान्य सा लगा। अभी रात को इंक़लाब: पर "अब पहले खाने के बारे में सोचिए!" पढ़ा। आज का सब से सार्थक आलेख है। जैसा विषय था और जिस गंभीरता के साथ सत्येन्द्र रंजन ने इसे लिखने का श्रम किया है। उसे इस आलेख को पढ़ कर ही जाना जा सकता है। इस आलेख में दुनियाँ भर में गहरा रहे अनाज संकट का उल्लेख है। जिसे पढ़ कर लगा कि सुबह पुराणिक जी जिस आटे के लिए ईएमआई और बैंक लोन की बात कर रहे थे वह मजाक नहीं अपितु एक सचाई हो सकती है आने वाले समय में। इस भोजन की समस्या पर विचार करते समय। उन्हों ने दुनिय़ाँ के विकास की दिशा पर विचार किया और लगा कि दिशा की त्रुटि ही समस्याओं की मूल है। इस के साथ साथ माँसाहार के बढ़ने, किसानों का खाद्य फसलों के स्थान पर औद्योगिक फसलों की ओर झुकाव और उद्योगों व सरकारों द्वारा इस के लिए प्रोत्साहन आदि बिन्दुओं पर चर्चा करते हुए इस नतीजे पर पहुँचा गया है कि तमाम प्रश्नों को ताक पर रख कर दुनियाँ को खाद्य समस्या हल करनी होगी अन्यथा सभ्यता एक बहुत बड़े संकट का सामना करने वाली है जो मानव के समस्त सपनों के लिए कब्रगाह बन सकती है।

सत्येन्द्र रंजन के इस आलेख को पढ़ने के उपरांत किसी चीज में मन न लगा। आप खुद सोचिए ¡ क्या यह सबसे पहले हल की जाने वाली समस्या है, या नहीं? क्या यह अनियंत्रित वैश्वीकरण दुनियाँ को किसी अनजाने संकट की और तो नहीं धकेल रहा है? और क्या जिस समाज नियंत्रित अर्थव्यवस्था को मार्क्सवादी सोच कह कर तिलाँजलि दे दी गई थी उस पर तुरंत पुनर्विचार की आवश्यकता तो नहीं है, इस मानव समाज को बचाने के लिए?

आप का क्या सोचना है। "अब पहले खाने के बारे में सोचिए!" पढ़ कर बताएं।

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

कहाँ फँसा दिया? ज्ञान जी! शुद्ध-अशुद्ध 'हटमल' के चक्कर में

कहाँ फँसा दिया?

हम भी जा पहुँचे ज्ञान जी के बताए रास्ते से शुद्धता जँचवाने शुद्धता जांचक साइट पर, और लौट कर बुद्धू घर आ गए।
हमें ये शुद्धता जाँच बिलकुल फर्जी लगी। उसी तरह

जैसे वाहन बरकशॉ.. वाले का मुफ्त जाँच शिविर। जाँच कराने को मेला लगे है, वहाँ। फिर वह बतावै, के क्या-क्या कमियाँ हो गई हैं, फिर अपनी बरकशॉ.. पर जाने का कारड देवै है। अब मुफ्त जाँच करवाने वालों में से आधे-परधे तो पहुँच ही जावैं।

हम पहले बोलना सीखे, फिर पढ़ना, फिर लिखना सीखे। तीसरी कक्षा में भर्ती हुए, हिन्दी, विज्ञान और सामाजिक में अव्वल रहै,  गणित तो दादाजी की सिखाई थी, सो परचे के सारे सवाल कर नीचे लिखते कोई से पाँच सवाल जाँचना लेना, हमने  परचे में ऊपर लिखी चेतावनी सवाल करने के बाद पढ़ी, अब ये समझ ना आए की कौन सा हल काटें, किसको रक्खें, सब अपने ही किए धरे हैं।  

पाँचवीं तक स्कूल के मेधावी छात्र माने गए। छठी में हिन्दी के गुरूजी ने व्याकरण और उच्चारण का  ज्ञान दिया। तब लगा कि क्या-क्या गलतियाँ करते आए थे। उन नियमों के मुताबिक हिन्दी लिखने का प्रयास करते तो सभी परचे ब्रह्माण्ड (0) दर्शन करवा देते।

ये ही हाल अंग्रेजी का हुआ। बरसों तक हम व्याकरण के मुताबिक अंग्रेजी लिखते रहे। आज तक सफलता के दर्शन नहीं हुए। और गति बनी ही नहीं। फिर व्याकरण छोड़ा, त्यागी हुए, अपने मरजी-मुताबिक लिखने लगे तो अच्छे-अच्छे तारीफ कर गए। हाँलाकि उन में से कोई व्याकरण जानकार नहीं था। वह तो पबलिक थी, और पबलिक व्याकरण के नियम नहीं देखती। देखती है उस की समझ आया या नहीं और काम का है या नहीं। व्याकरण के हिसाब से काम करने वाली पारटियाँ कबर में दफ़न हो गई। जिसने मारकिट देखा उसने गुरूशिखर पर झंड़ा जा गाड़ा।
कानून के मुताबिक जिन्दगी जीने लग जाँय, तो पाजामे में मूतना पड़ जाय। जिन्दगी को जिन्दगी के हिसाब से जियो। रेल को पटरियों पर दौड़ने दो। रेल इस्पात की हो या रबर की। हमारा ध्येय चलना है। रुक गए तो गलतियां गिनने में में ही उमर निकल जानी है, ठीक करना कराना तो दूर का डोल। जिस ने मरज़ दिया वही दवाई देगा, जिस ने चोंच दी वही चुग्गा भी देगा। जे आदमी का बच्चा है जिस को चोंच नहीं मिली। मिले तो, मिले हाथ पाँव, उनको लेकर परेशान है। जिस ने शुद्धता-जाँच-मापक-जंत्र बनाया है, उस को अशुद्ध 'हटमल' को शुद्ध करने का जंतर भी बनाने दो। फिर इस्तेमाल करेंगे। उस को। काहे पचड़े में पड़ो। अपना काम लिखने का है, बस लिखते रहो। आखिर किसी ने 'अक्वा गार्ड' भी तो बनाया है, सब अपने अपने किचन में लगवाए हैं कि नहीं?

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।

ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।

प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।

जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।

हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।

गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।

बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।

मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

पखवाड़े भर नीम कोंपलों की गोलियाँ सेवन करें और मौसमी रोगों से दूर रहें

नव सम्वतसर के अवसर पर अनवरत और तीसरा खंबा के सभी पाठकों को शुभ कामनाएं।

जी हाँ, एक और नव-वर्ष प्रारंभ हो गया है, हमारे लोक जीवन में इस का बहुत महत्व है। इन दिनों दिन और रात की अवधि बराबर होती है। कभी मौसम में ठंडक होती है तो कभी गरमी सताती है। सर्दी के मौसम के फलों और सब्जियों का स्वाद चला जाता है। ग्रीष्म के फल और सब्जियाँ अपना महत्व बताने लगते हैं। भोजन में हरे धनिये की चटनी का स्थान पुदीना ले लेता है। कच्चे आम के अचार में स्वाद आने लगता है। बाजार में ठंडे पेय की बिक्री बढ़ जाती है। खान-पान पूरी तरह बदल जाता है।

अब हमारे पाचन तंत्र को भी इन नये खाद्यों के लिए नए सिरे से अभ्यास करना पड़ता है। जब भी हम कोई पुराना अभ्यास छोड़ते हैं और नया अपनाते हैं तो संक्रमण काल में कुछ नया करना होता है। इन दिनों यदि हम कम भोजन करें, अन्न के स्थान पर फलाहारी हो जाएं अथवा एक समय अन्न और एक समय फलाहारी रहें और वह भी आवश्यकता से कुछ कम लें तो इस संक्रमण काल को ठीक से निबाह सकते हैं।

शायद यही कारण है कि मौसम के इस संधि-काल में हमारे पूर्वजों ने नवरात्र का प्रावधान किया। जिस में व्रत-उपवास रखना, एक-दो घंटे स्वाध्याय करना शामिल किया। इस से संक्रमण काल को सही तरीके से बिताया जा सकता है, पुराने खाद्य का अभ्यास छूट जाता है और नए को अपनाना सुगम हो जाता है।

मैं चार-पाँच वर्षों से एक समय अन्न और एक समय फलाहार कर रहा हूँ। इस का नतीजा है कि मैं मौसमी रोगों का शिकार होने से बच रहा हूँ। विशेष रुप से उदर रोगों से।

आप को यह भी स्मरण करवा दूँ कि ऐसा ही मौसम परिवर्तन सितम्बर-अक्टूबर में भी होता है। उस समय शारदीय नवरात्र होते हैं।

एक और परम्परा याद आ रही है। दादाजी के सौजन्य से वे चैत्र की प्रतिपदा से नव-वर्ष के पहले दिन से नीम की कोंपलों को काली मिर्च के साथ पीस कर उस की कंचे जितनी बड़ी गोलियाँ बना लेते थे। सुबह मंगला आरती के बाद उन का भगवान को भोग लगाते और मंदिर में आए सभी दर्शनार्थियों को एक एक गोली प्रसाद के रूप में वितरित करते थे। हमें तो दो गोली प्रतिदिन खाना अनिवार्य था। उन का कहना था कि एक पखवाड़े, अर्थात पूर्णिमा तक इन के खाली पेट खा लेने से पूरे वर्ष मौसमी रोग नहीं सताते। शायद शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने का उन का यह परंपरागत तरीका था। यह कितना सच है? यह तो कोई चिकित्सक इस की परीक्षा करके अथवा कोई आयुर्वेदिक चिकित्सक ही बता सकता है।

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बहुत दिनों के अन्तराल पर अपने उपस्थित हो सका हूँ। निजि और व्यवसायिक व्यस्तताएं और उन की कारण उत्पन्न थकान इस का कारण रहे। पाठक और प्रेमी जन इस अनुपस्थिति के लिए मेरे अवकाश को मंजूरी दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।