- गंदगी को आप हटाते रहें, और गंदगी करनेवाला गंदगी करता रहे। यह कब तक चलता रहेगा। आख़िर गंदगी करने वाले के बारे मैं सबको पता लगना चाहिए कि कौन इसे फैला रहा है?
- अगर म्युनिसिपैलिटी इसे नहीं हटाती है, तो लोग ख़ुद ही उस रस्ते से निकालना बंद कर देंगे।
- कीडे गंदगी से निकलते ही मर जाते हैं, गंदगी उनके जीवन के लिए जरुरी है
शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008
गंदगी को मत हटाओ जिससे पता लगता रहे कि उसका उद्गम क्या है
भड़ास को ब्लॉगर ने हटाया
मैंने अभी देखा की कुछ और ब्लोग्स को ब्लॉगर से हटा देने का आव्हान किया गया है। इस बात की मुझे पहले ही आशंका थी।
इससे अब अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकने की संभावना हो गई है। यह एक और ख़राब स्थिति है। इससे कैसे निपटा जा सकता है , इस पर विमर्श आवश्यक हो गया है। सभी हिन्दी ब्लोग्गेर्स को इस पर विचार करना पड़ेगा।
१, मार्च २००८,
भड़ास को किसी ने नहीं हटाया
भड़ास को की सी ने नहीं हटाया। न ब्लॉगर ने और न ही चिट्ठा संकलकों ने।
इसमें कोई भी बात बुरी नहीं। सबके अपने अपने पाठक हैं। मगर ख़ुद ही अपने चिट्ठे पर उसे हटाने का नाटक भी खूब रहा। हम गच्चा खा गए। कोई बात नहीं मधु मास चल रहा है और कुछ लोग मदन मस्ती पर उतर आये हैं। उन्हें अपना काम करने दीजिये। बाकी लोग अपना काम करें।
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008
आफ्टर लंच आन्ट्रॅप्रॅनर (Entrepreneur)
केन्टीन के इस बंटवारे से दुखी बड़ा पुत्र नशे की लत का शिकार हो गय़ा। वह विक्रय के लिए सर्वोत्तम माल तैयार करने और ग्राहकों को खींचने में सक्षम। लेकिन व्यापार में अक्षम। दिन भर सर्वाधिक बिक्री होने के बाद भी उस के हाथ गिनती के ही रुपए लगें। नौकर बीच में ही ग्राहकों से रुपया मार लें। पता लग जाने पर वह नौकरों से युद्ध पर उतर आए और धन्धे के औजार करछी-लोटा ही हथियार बन जाऐं। दूसरे दिन फिर सब कुछ सामान्य। कभी अति हो जाए तो लंच ऑवर के पहले नौकर काम छोड़ कर कोने में खड़े हड़ताली नजर आएं। रोज के लंच के ग्राहक समझौता करा कर अपनी चाय की जुगत करें। केन्टीन की चाय ऐसी कि ग्राहक को दूसरे की चाय ही पसंद न आए। आखिर उस की केन्टीन सिर्फ चाय-कॉफी की दुकान भर रह गई। कभी भाइयों से झगड़ा हो जाए और उन पर खार आए तो। चाय के साथ कचौड़ी, समौसे, सेव, लड्डू भी मिलने लगें और दुकान कुछ दिनों के लिए फिर कैंटीन नजर आने लगी।
कभी वह नौकरों से और कभी नौकर उस से परेशान। रोज रणभेरी बजती लेकिन युद्ध नहीं होता दोनों पक्ष एक दूसरे की जरुरत हैं। ग्राहक भी ऐसे ही हो गए हैं। बाईस की जगह बीस रुपए ही दे कर चल देते। वह भी उस्ताद कि उन्नीस की जगह बीस ही मार लेता। फिर भी हिसाब में ग्राहक ही लाभ में रहता।
कुछ सप्ताहों से एक परिवर्तन देखने को मिला। वह ग्राहकों से उलझने लगा। पूरे बाईस लेने लगा। कभी कभी एक चाय की संख्या बढ़ा कर पच्चीस भी वसूलने की फिराक में रहता। दुकान से भी पाँच के बजाय तीन, साढ़े तीन बजे ही खिसकने लगा। बाद में नौकर ही दुकान चलाते नजर आते। जब तक वह रहता सब नौकर कामचोर नजर आते। उस के जाते ही वे ऐसी दुकानदारी करते जैसे उन से अच्छा संचालक कोई नहीं।
आज जब शाम साढ़े तीन बजे उस के यहाँ चाय के लिए पहुँचे तो वह नहीं था। मैं ने उस के सब से पुराने नौकर से इशारे में पूछा तो उस ने इशारे में ही बताया कि वह जा चुका है। सीनियर नौकर जूनियरों पर मालिक की तरह हुक्म चला रहा था। बाकी दोनों नौकर दौड़-दौड़ कर हुक्म बजा रहे थे। ग्राहकों को भी शानदार सेवाएं मिल रही थीं और चाय की क्वालिटी भी उत्तम थी। मैं ने सीनियर को बुला कर बात की।
सीनियर ने बताया कि उनका मालिक तो तीन बजे बाद ही तब तक हो चुका कैश कलेक्शन ले कर जा चुका है। दूध, चाय, शक्कर, कॉफी आदि सब कुछ की कीमत अलग निकाल कर अपना मुनाफा ले कर जा चुका है। कुछ दूध, चाय, शक्कर, कॉफी छोड़ गया है। इन से माल बना कर बेचकर हम तीनों नौकरों को अपनी तनख्वाह निकालनी है। ज्यादा कमा लिया तो हम बाँट लेंगे।
कितना ज्यादा कमा लोगे? मैं ने पूछा। तो उस ने बताया कि तीनों पचास पचास रुपया तो बेशी कर ही लेंगे।
इस तरह चल रहा था उनका आफ्टर लंच आन्ट्रॅप्रॅनर (Entrepreneur)।
सोमवार, 25 फ़रवरी 2008
कॉपीराइट को न जानना आप को कैद की सजा तक पहुँचा सकता है
आप की जानकारी के लिए इतना बता दूँ कि किसी भी कॉपीराइट के उल्लंघन पर कम से कम छह माह की कैद जो तीन वर्ष तक की भी हो सकती है, साथ में अर्थदण्ड भी जरुर होगा जो पचास हजार रुपयों से कम का न होगा और जो दो लाख रुपयों तक का भी हो सकता है। इस सजा को अदालत पर्याप्त और विशिष्ठ कारणों से कम कर सकती है लेकिन उसे इन पर्याप्त और विशिष्ठ कारणों का अपने निर्णय में उल्लेख करना होगा।
सभी चिट्ठाकारों को कॉपीराइट कानून की प्रारंभिक जानकारी होना आवश्यक है। इस कारण से इस कानून से सम्बन्धित प्रारंभिक जानकारी "अनवरत" के सहयोगी ब्लॉग "तीसरा खंबा" पर कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है जो सप्ताह में एक-या दो बार प्रकाशित की जाऐंगी।
शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008
लड़कियां क्यों उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं करतीं?
आज हमें एक विवाह संगीत में जाना पड़ा। पहले विवाहों के समय एक एक हफ्ते तक महिलाओं का संगीत चलता रहता था। अब वह सब एक समारोह में सिमट गय़ा है। इस के साथ ही लोकरंजन की यह विधा नगरों से विदाई लेती नजर आती है, कस्बे उन का अनुकरण कर रहे हैं और गाँव भी पीछे नहीं हैं। वहाँ भी टीवी ने सब कुछ पहुँचा दिया है। अब लगता है महिलाओं से वे लोकगीत सुनना दूभर हो जाएगा जो विवाहों में सहज ही सुनाई दे जाते थे। खैर!
संगीत सभा को निमन्त्रण पत्र में “महिला संगीत” प्रदर्शित किया गया था। मेरे विचार से यह गलत शीर्षक था। इसे सीधे-सीधे “विवाह संगीत” लिखा जा सकता था।
वहाँ एक हॉल में ढ़ाई फुट ऊंचा डीजे मंच लगाया गया था। कोई पन्द्रह फुट लम्बा और दस फुट चौड़ा रहा होगा। रोशनियाँ नाच रही थीं, तेज गूँजती आवाज और वही कान में रुई का ढ़क्कन लगा कर सुनने योग्य तेज फिल्मी संगीत। बहुत सी लड़कियों ने इन रिकॉर्डेड गीतों पर नृत्य किए। सब लड़कियों ने अच्छे भाव दिखाए जिन में कठोर श्रम झलक रहा था। उन में से शायद ही कोई हो, जिसने किसी गुरु से नृत्य की शिक्षा ली हो। फिर भी उन के नृत्यों में बहुत परिपक्वता थी। ऐसा लग रहा था कि उन्होंने एकलव्य की कथा से बहुत कुछ सीखा है। यह महसूस किया कि वाकई लड़कियाँ लड़कों के मुकाबले शीघ्र परिपक्व हो जाती हैं, क्यों कि उन भावों को जो वे प्रदर्शित कर रहीं थीं, ठीक से समझे बिना प्रदर्शित करना कठिन था। सचमुच लड़कियाँ अन्दर से बहुत गहरी होती हैं।
मुझे एक बात अखरी, और मैं ने इस का उल्लेख एक-दो लोगों से किया भी। उन्होंने भी इसे नोट किया। मंच पर पाँच-पाँच वर्गफुट के छह वर्ग थे। तीन आगे, तीन पीछे। नृत्य करते समय तकरीबन सभी लड़कियाँ केवल बीच के दो वर्गों का ही उपयोग कर रही थीं। उनमें भी आगे पीछे के दो-दो फुट स्थान का भी वे उपयोग नहीं कर रही थीं। इस तरह उस पन्द्रह गुणा दस वर्गफुट के मंच में से केवल पांच फुट गुणा छह फुट मंच का ही वे उपयोग कर रही थीं। पूरे मंच के केवल मात्र 20 प्रतिशत हिस्से का। जब कि लड़के जब भी उस मंच पर नृत्य के लिए आए उपलब्ध समूची स्पेस का उपयोग कर रहे थे।
क्यों लड़कियां उन के पास उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं कर पा रही थीं? मेरे लिए यह प्रश्न एक पहेली की तरह खड़ा था। मन हुआ कि किसी लड़की से पूछा जाए। पर उस समारोह में ऐसा कर पाना संभव नहीं हो सका।
मैं इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहता हूँ। कुछ उत्तर मेरे पास हैं भी। क्या इसलिए कि न्यूनतम स्पेस में काम करने की उन की आदत ड़ाल दी गई है? या उन्हें इस बात का भय है कि वे मंच के किनारों से दूर रहें कहीं नृत्य में मग्न उन का कोई पैर मंच के नीचे न चला जाए और उन्हें कुछ समय का या जीवन भर का कष्ट दे जाए?
सही उत्तर क्या है? मैं अभी उस की तलाश में हूँ।
शायद आप में से कोई सही उत्तर सुझा पाए?
गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008
वह थी औरत (दूध मां का)
बुधवार, 20 फ़रवरी 2008
भाषा का संस्कार (पानी देना)
आज कहीं भी यह वाक्य सुन ने को मिल जाता है।
बचपन में एक बार भोजन करते समय तेज मिर्च लगने पर मैं एकाएक कह बैठा -अम्माँ, पानी देना।
दादी वहीं थी। पानी मिलना तो दूर वह डाँटने लगी- ऐसा नहीं बोलते।
मैं ने पूछा -क्यों।
तो, वे बोलीं - पानी मरने वाले को दिया जाता है।
उस के बाद इस शब्द का प्रयोग हमने नहीं किया।
आज इस बात की याद फिर आयी। शाम को शोभा (पत्नी) ने भोजन तैयार होने की सूचना दी। तो हम ऑफिस से उठे और कहा- हम हाथ मुंहँ धोकर ( शौच से निवृत्त हो कर) आते हैं। तब तक आप भोजन लगा दो। नहीं तो फिर कोई आ मरेगा।
पत्नी ने टोक दिया - ऐसा क्या बोलते हो? जरा शुभ-शुभ बोला करो।
मैं ने सफाई दी - इस में क्या गलत है? यह तो मुहावरा है।
-हो, मुहावरा। इस से भाषा तो खराब होती है।
मैं ने उसे सही बताते हुए अपनी गलती स्वीकार की। आइंदा सही बोलने का वायदा किया, और हाथ मुहँ धोने चल दिया।
वास्तव में परिवार में मिली इन छोटी-छोटी बातों से भाषा को संस्कार मिला। जीवन सहयात्री ने इसे बनाए रखने में सहयोग किया। अनेक ब्लॉगर साथियों को इस तरह के संस्कार नहीं मिले। वे इस अवसर से वंचित रह गए। सोचता हूँ, मैं ही उन्हें टोकना प्रारंभ कर दूँ। पर भय लगता है वे इसे अन्यथा ले कर कतराने लगे तो कहीं साथियाना व्यवहार ही न टूट जाऐ।
रविवार, 17 फ़रवरी 2008
खेमाबन्दी नहीं चलेगी, खेमाबन्दी मुर्दाबाद
कोई रजाई में घुसे घुसे चिल्लाया
खेमाबन्दी मुर्दाबाद।
कोई क्या खेमे बनाए
खेमे तो बने हुए हैं,
पहले से
मेरे, तुम्हारे, उस के या इसके
पैदा होने के पहले से।
एक खेमे में मैं हूँ
और मेरे जैसे लोग
जो फिल्म देख कर निकले हैं
उसी खेमे में हैं , या कि दूसरे में?
बात करते हैं...
कि फिल्म कैसी है?
कोई कहता है- बिलकुल बोर
कोई कहता है- टाइम पास
और कोई कहता है
-नहीं, बड़ा संदेश छिपा है इस में।
अब छोड़ो भी यार देख ली ना
समझ में न आई हो तो टिकट लो
और दुबारा घुस लो,
पसंद आई हो तो टिकट लो
और दुबारा घुस लो।
मुझे भूख लगी है,
कोई खाने की जगह देखो
और वहां घुस लो।
कई जगह देखते हैं।
एक, एक को पसंद नहीं
दूसरी दूसरे को
आखिर वहाँ पहुँचते हैं
जिस के बाद कोई खाने की जगह नही.
सभी कहते हैं, सब से रद्दी
ये कोई जगह है?
न बैठने को ठीक, न खाने को
वापस चलें?
वापस पिछला, एक किलोमीटर पहले छूटा है?
मुझे भूख लगी है
वापस नहीं जा सकता
भूख सभी को लगी है।
अब कौन वापस लौटेगा।
चलो यहीं बैठते हैं।
सभी घुस जाते हैं
खाना खाते हैं
बाहर निकलते हुए कोई कहता है
-कुछ बुरा भी नहीं था खाना
बुरा नहीं था? तू यहीं महीना लगवा ले।
और तुम?
मैं भूखा रह लूंगा पर यहाँ नहीं आउंगा।
तो मैं कैसे यहाँ आउंगा।
चल कल नया ढूंढेंगे।
चल, चल कर सोते हैं
सब चल देते हैं
एक बोलता है
तू ने सही कहा, खाना वैसे बुरा नहीं था
साथ खाया, बुरा कैसे होता?
तो फिर तय रहा
बुरा हो या अच्छा
खाएंगे, साथ साथ
खेमाबन्दी नहीं चलेगी
कोई रजाई में घुसे घुसे चिल्लाया
खेमाबन्दी मुर्दाबाद।
गुड नाइट दोस्तों
अब सोता हूँ।
-दिनेशराय द्विवेदी,
17.02.2008, रात्रि 11:16 IST
गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008
सौ साल पहले ............ आज भी है, और कल भी रहेगा।
'शोभा' मेरी वेलेंटाइन (उत्तमार्ध) |
सोमवार, 11 फ़रवरी 2008
सावधान! हमले से बचें। परागकण आ रहे हैं।
शनिवार को भी ऐसा ही हुआ। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद की सुस्ती और सरदी लगने के भाव ने धूप सेंकने का मन बनाया और अपने राम चटाई ले छत पर जा लेटे। तेज धूप थी तो चुभती ठंडी हवा भी। रास्ता ये निकला कि पास में धुलाई के बाद सूख चुका पत्नी शोभा का शॉल औढ़ा और उस से छनती हुई धूप सेंकी एक घंटे और नीचे अपने कार्यालय में आकर काम पर लगे।
शाम होते होते नाक में जलन होने लगी। हम समझ गए कम से कम तीन दिन का कष्ट मोल ले चुके हैं। हम ने तुरंत शोभा को सूचना दी। उस ने भी तुरंत हमारी (जिस पर अब उस का एकाधिकार है) होमियोपैथी डिस्पेंसरी से जो अलमारी के दो खानों में अवस्थित है और जिसने हमें पिछले पच्चीस सालों से किसी अन्य चिकित्सक की शरण में जाने से बचाए रखा है, लाकर दवा दी। हम उसी को लेकर दो दिनों से अपने धर्मों को निबाह रहे हैं।
मैं सोच रहा था कि इस जुकाम के आगमन का कारण क्या रहा होगा। घर के सामने पार्क में बहुत से पेड़ हैं जिन में यूकेलिप्टस की बहुतायत है। उन से इन दिनों परागकण झर रहे हैं। वास्तव में वे ही इस अनचाहे मेहमान के कारण बने। खैर जुकाम तो काबू में है और एक दो दिन में विदा भी हो लेगा। पर इस मौसम में जो अभी मध्य अप्रेल तक चलेगा सभी को इन पराग कणों से बचने के प्रयत्न करते रहना चाहिए जो केवल जुकाम ही नहीं, नाक से लेकर फेपड़ों तक को असर कर सकते हैं। इन से हे-फीवर तक हो सकता है और कुछ अन्य प्रकार की ऐलर्जियाँ भी। बीमारी अनचाहे मेहमान बन कर आ जाए तो आप के कामों और आनंद सभी में खलल तो पैदा करेगी ही जेब पर हमला भी करेगी।
रविवार, 10 फ़रवरी 2008
“कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
किसी नए व्यक्ति से मिलने जाते हैं तो पहले उस का पता हासिल करना होता है। फिर किसी साधन से वहाँ तक पहुँचना पड़ता है। स्थान नया हो तो दस जगहों पर पूछते हुए जब गन्तव्य पर पहुंचते हैं तो बड़ी तसल्ली होती है, कि पहुँच गए। पर वहां घर के मुख्य द्वार पर लगी तख्ती फिर होश उड़ा देती है। जिस पर लिखा होता है “कुत्ते से सावधान" या “कुत्तों से सावधान”। अब आप बुलाने वाली घंटी को ढूंढते हैं, मिल जाने पर उसे दबाते हैं, कि कुत्ता या कुत्ते स्वागत गान कर देते हैं। फिर कुछ या कई मिनटों के बाद कोई आकर गेट खोलता है, आप का इंटरव्यू करता है कि आप घर में घुसाने लायक व्यक्ति हैं, कि नहीं ?
जब तक कोई बहुत बड़ी गरज न हो या फिर कोई अपने वाला ही न हो, तो ऐसे वक्त में खुद पर बड़ी कोफ्त होती है, कि पहले ही क्यों न पता कर लिया कि जहाँ जा रहे हो वह जगह कुत्ते वाली तो नहीं है ? और पता लग जाता तो शायद वहाँ तक पहुँचते ही नहीं।
आज हर व्यक्ति के पास बहुत कम समय है। दाल-रोटी का जुगाड़ ही सारा समय नष्ट कर देता है। ऐसे समय में हमें दूसरे लोगों के समय की कीमत पहचानना चाहिए। खास कर हिन्दी चिट्ठाकारों को जरूर पहचानना चाहिए।
मैं हिन्दी चिट्ठाकारी में नया जरूर हूँ। मगर अपने इस काम के प्रति संजीदा भी रहना चाहता हूँ। जैसे कहा जाता है कि जो रोज नहीं पढ़ता उसे पढ़ाने का अधिकार नहीं। इसी तरह मेरा सोचना है कि जो रोज कम से कम बीस चिट्ठे नहीं पढ़ता उसे चिट्ठा लिखने का भी कोई अधिकार नहीं।
अब आप चिट्ठे पढ़ेंगे तो टिप्पणी जरुर करेंगे। करना भी चाहिए। चिट्ठा लिखने का कोई तो आप का उद्देश्य रहा होगा। अनेक बार चिट्ठा लिखने का उद्देश्य केवल किसी चिट्ठे पर लिखे आलेख पर टिप्पणी करने से भी पूरा हो जाता है। इस तरह आप किसी विषय पर दोहराने वाला आलेख लिखने से बच जाते हैं और आप को एक नए बिन्दु पर चिट्ठा लिखने का अवसर मिल जाता है। जो चिट्ठाकार और पाठक दोनों के लिए ही उत्तम और समय को बचाने वाला है। इस कारण से सभी संजीदा चिट्ठाकारों को समय बचाने के मामले में सजग रहना चाहिए।
यह सारी बात यहाँ से उठी है कि अनेक नए-पुराने चिट्ठों पर जरुरी समझते हुए टिप्पणी करने पहुँचे, टिप्पणी टाइप भी कर दी, आगे बढ़े तो वर्ड वेरीफिकेशन ने रास्ता रोक दिया। वैसा ही लगा जैसे किसी से मिलने पहुँचे हों और दरवाजे पर तख्ती दिख गई हो “कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि हिन्दी चिट्ठाकारों को इस वर्ड वेरीफिकेशन की जरूरत क्या है ? कोई मशीन तो आप के चिट्ठे पर टिप्पणी करने आने वाली नहीं है, आयेंगे सिर्फ इंसान ही। और अगर मशीन भी आ कर कोई टिप्पणी कर रही हो तो उस से आप को नुकसान क्या है ? अधिक टिप्पणियाँ आप की रेटिंग को ही बढ़ाएगी।
टिप्पणीकर्ता कितना असहज महसूस करता है जब उस के सामने टिप्पणी टाइप करने के बाद यह वर्ड वेरीफिकेशन टपकता है। वह हिन्दी में टाइप कर रहा है। इस वर्ड वेरीफिकेशन के कारण उसे वापस अंग्रेजी में टोगल करना पड़ता है। कभी कभी शीघ्रता में कोई अक्षर समझ में न आए य़ा हिन्दी लिखते लिखते यकाय़क अंग्रेजी पर जाने के कारण अभ्यास से गलत अक्षर टाइप कर दे तो उसे दुबारा यह परीक्षा देनी पड़ती है। एक दुष्प्रभाव यह भी छूटता है कि चिट्ठाकार के बारे में यह समझ बनती है कि वह कभी दूसरों को पढ़ता और टिप्पणी नहीं करता है।
सभी हिन्दी चिट्ठाकारों से मेरा विनम्र निवेदन है कि आप अपने अपने चिट्ठों से वर्ड वेरीफिकेशन की तख्ती हटा ही दें। मैं आप को बता दूँ कि कुछ महत्वपूर्ण चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं आती थीं। मेरे व्यक्तिगत निवेदन के बाद से उन्हों ने वर्ड वेरीफिकेशन को हटाया और उन चिट्ठों को टिप्पणियां मिलने लगीं।
शनिवार, 9 फ़रवरी 2008
बीस इंची साईकिल
बीस इंची साईकिल
बारहवें जन्म दिन पर
मिली है उसे
पूरे बीस इंच की साईकिल।
पानी के छींटे दे
अभिषेक किया है,
कच्चा रंगा सूत बांध
पहनाए हैं वस्त्र और
रोली का टीका लगा
श्रंगार किया है,
साईकिल का।
पहले ही दिन
घुटने छिले हैं,
एक पतलून
तैयार हो गयी है
रफूगर के लिए,
दूसरे दिन लगाए हैं
तीन फेरे, अपने दोस्त के घर और
दोनों जा कर देख आए हैं
अपनी टीचर का मकान।
तीसरे दिन
अपनी माँ को
खरीद कर ला दिया है
नया झाड़ू।
और आज
चक्की से
पिसा कर लाया है गेहूँ।
कर सकता है कई काम
जो किया करता था
कल तक उस का पिता।
वह बताता है-
लोग नहीं चलते बाएं,
टकरा जाने पर
देते हैं नसीहत उसे ही
बाएं चलने पर।
चौड़ा गयी है दुनियाँ
उस के लिए,
लगे हों जैसे पंख
नयी चिड़िया के।
नीम पर कोंपलें
हरिया रही हैं,
वसन्त अभी दूर है
पर आएगा, वह भी।
बेटा हुआ है किशोर
तो, होगा जवान भी
खुश हैं मां और बहिन
और पिता भी।
कि उसका कद
बढ़ने लगा है। - दिनेशराय द्विवेदी
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008
धूप की पोथी
बड़ी बहस छिड़ी है। नतीजा सभी को पता है।
भारत सभी भारतीयों का है।
इस बीच मराठियों, बिहारियों, उत्तर भारतीयों - सभी की बातें होंगी, हो रही हैं
इस बीच आदमी गौण हो रहेगा और राजनीति प्रमुख
राजनीति वह जो जनता को बेवकूफ बनाने और अपना उल्लू सीधा करने की है।
मुझे इस वक्त महेन्द्र 'नेह' की कविता 'धूप की पोथी' का स्मरण हो रहा है।
आप भी पढ़िए .......
धूप की पोथी
-महेन्द्र 'नेह'
रो रहे हैं
खून के आँसू
जिन्हों ने
इस चमन में गन्ध रोपी है !
फड़फड़ाई सुबह जब
अखबार बन कर
पांव उन के पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उन के सांकलों में थे
सी रहे हैं
फट गई चादर
जिन्हों ने
इस धरा को चांदनी दी है !
डगमगाई नाव जब
पतवार बन कर
देह उन की हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उन की हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं
धूप की पोथी
जिन्हों ने बरगदों को छाँह सोंपी है !
छलछलाई आँख जब
त्यौहार बन कर
प्राण उन के युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश हो कर
कदम उन के अग्नि-पथ पर थे
सह रहे हैं
मार सत्ता की
जिन्होंने
इस वतन को जिन्दगी दी है !
शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008
पुस्तक मेला लगाने पर रोक
कोलकाता पुस्तक मेला के उद्धाटन के एक दिन पहले कोलकाता उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने उस पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि इस से पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो सकता है तथा आसपास रहने वाले नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होगा। साथ ही प्रदूषण एक्ट, पर्यावरण सुरक्षा एक्ट तथा ध्वनि प्रदूषण एक्ट का भी उल्लंघन हो सकता है। यह निर्णय दरगाह रोड सिटीजंस कमेटी समेत कुछ संस्थाओं द्वारा दायर की गई एक याचिका पर दिया गया है।
29 जनवरी को मेले का उद्घाटन होना था। जोरशोर से स्टालों का निर्माण कार्य चल रहा था। हाईकोर्ट के इस फैसले से मेले के आयोजन पर प्रश्न चिह्न लग गया। निर्देश आने के तुरंत बाद बांस-बल्लियों को खोलने का काम शुरू कर दिया गया। पिछले दो साल से कोलकाता पुस्तक मेला आयोजन स्थल को लेकर विवादों से घिरा रहा है। पिछले वर्ष साल्टलेक स्टेडियम में मेला लगा था लेकिन पहले की तरह भीड़ नहीं जुटी। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है।
इस पोस्ट के उक्त दोनों चरण ‘जागरण’ की खबर के आधार पर हैं। हालांकि मुझे यह सूचना भाई शिवकुमार मिश्र के ब्लॉग से लगी थी। यह एक गंभीर बात है। एक ऐसे पुस्तक मेले पर ठीक एक दिन पूर्व रोक लगा दिये जाने से मेला आयोजकों एवं उसमें भाग लेने वाली संस्थाओं को बड़ी आर्थिक हानि होगी जो कि किसी भी प्रकार से इस उद्योग कि कठिनाइयों को देखते हुए बड़ा झटका है। कोई भी पुस्तक मेला मानव समाज के ज्ञान में वृद्धि ही करता है। उस से प्रदूषण फैलने पर रोक को प्रोत्साहन ही प्राप्त होता न कि उसे बढ़ाने को। इस से वे लाखों लोग ज्ञान को विस्तार देने से वंचित हो जाऐंगे जो इस पुस्तक मेले में शिरकत करते। इस से इन के सूचना के अधिकार का हनन होता।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस मामले में उच्च न्यायालय से कोई गंभीर गलती हुई है। इस तरह तो कोई भी जनता के भले के कार्यक्रम को रोका जा सकता है और मानव समाज की प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है। इस मामले में यह भी अन्वेषण किया जाना चाहिए कि ‘दरगाह रोड सिटीजंस कमेटी’ कितने और किस किस्म के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार तो कोई थोड़े से लोग समाज के विकास में न्यायालयों का सहारा ले कर बाधा बन खड़े होंगे।
इस मसले पर कानूनी लड़ाई को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मजबूती से लड़ा जाना चाहिए ही। इस तरह के निर्णयों के विरुद्ध आवाज भी उठानी चाहिए। लेखकों, प्रकाशकों, पाठकों और सभी पुस्तक प्रेमियों को सामूहिक आवाज उठानी चाहिए। आखिर भारत जैसे जनतंत्र में पर्यावरण के बहाने से बुक फेयर को रोका जाना एक गंभीर घटना है। आगे जा कर इसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा सकता है। उंगली उठते ही रोक देनी चाहिए। अन्यथा कल से हाथ उठेगा।