हे, पाठक!
यात्रा की थकान से निद्रा देर से खुली,वातायन पर लटक रहे पर्दे के पीछे से बाहर की रोशनी अंदर झांक रही थी। द्वार के नीचे से कुछ अखबार अंदर प्रवेश कर गए थे। सूत जी उठे, स्नानघर में घुस लिए। स्नान हुआ, ध्यान हुआ, फिर सुबह के कलेवे का आदेश दे अखबार बाँचने बैठे। मुखपृष्टों पर सब जगह इस चुनाव के नायक नायिका जूते-चप्पल छाए थे। एक ही नगर में वर्तमान और प्रतीक्षारत प्र.मुखियाओं के सामने निकल आए थे वर्तमान ने चलाने वाले को माफ कर दिया और प्रतीक्षारत ने क्या किया? पता नहीं चला। चुनाव का अवसर है, संसद बंद है। सारी गतिविधियाँ सड़कों और मैदानों में हो रही हैं तो संसद का ये स्थाई निवासी रौनक देखने वहाँ चले आए तो चलाने वाले का क्या दोष? उन्हें माफ किया ही जाना चाहिए। कल से वापस संसद में चलेंगे तब भी तो माफ करना पड़ेगा न?
हे, पाठक!
अखबारों से ही नगर की दिन भर की गतिविधियों की खबर मिली। नगर में साइकिल सवारी का महत्वाकांक्षी न्यायालय से स्वीकृति न मिलने पर साइकिल दुकान पर मिस्त्री गिरी कर रहा था और बहन जी की पप्पी-झप्पी लेने का महत्वाकांक्षी हो चला था। नगर के आस पास ही चक्कर लगा रहा था। वायरस दल की ओर से तीन बार महापंचायत के मुखिया रहे इस बार नगर से चुनाव न लड़ने से नगर में हलचल नहीं थी। पप्पी-झप्पी वाले को अदालत ने रोक दिया था। दो-दो कलाकारों के बाहर हो जाने से दर्शकों को चित्रपट में रुचि नहीं रह गई थी और केवल पोस्टर देख-देख लौट रहे थे। वायरस दल का स्थानापन्न अभिनेता मुखिया जी से चिट्ठी लिखा कर लाया था। अब आज कल चिट्ठी सिफारिश पर कौन चित्रपट देखता है? बैक्टीरिया दल नगरों के स्थान पर ग्रामों में सेंध लगाने में व्यस्त था। रात में भी चल सके इस लिए साइकिल पर लालटेन टांग ली गई थी फिर भी रास्ता नहीं सूझ रहा था। बहन अकेले पिली पड़ी थी, उसे अपनी अभियांत्रिकी पर भरोसा था, कहती थी खंड पंचायत की मुखिया बन सकती हूँ तो महापंचायत की क्यों नहीं? नगर में उस की सभा शाम को थी। कलेवा कर सूत जी नगर का भ्रमण पर निकल पड़े।
हे, पाठक!
नगर में पैदलों और दुपहिया वालों की मुसीबत हो गई थी। रात से ही चौपायों की संख्या यकायक बढ़ गई थी और वे इधर-उधर आ-जा रहे थे। बढ़े हुओं में तिहाई तो पुलिस के थे जो नगर में व्यवस्था बनाने में लगे थे, विशेष रूप से उस मैदान के आसपास जहाँ बहन जी शाम को भाषण पढ़ने वाली थीं। चोरी-चकारी, लूट-डकैती, तस्करी वगैरा की गुंजाइश पूरे खंड में न्यूनतम रह गई थी। इन के प्रायोजक किसी न किसी दल के प्रचार में लगे थे। पुलिस निश्चिंत हो कर बहन जी की सेवा में लगी थी। इस में वे भी थे जिन्हें बहन जी ने हटा दिया था और अदालत ने फिर से बिठा दिया था। बढ़े हुए शेष दो तिहाई चौपाए सार्वजनिक परिवहन में लगे निजि वाहन थे जो श्रोताओं और दर्शकों को गाँवों से ला रहे थे। परिवहन विभाग का निरीक्षक वाहनों के नंबर नोट कर रहा था जिन के परमिट पक्के करने थे। सूत जी मैदान के नजदीक पहुँचे वहाँ अभी भी तैयारियाँ चल रही थीं। ग्रामीण लोग सजावट देख देख उस और जा रहे थे, जहाँ सरकारी अभियंताओं की निगरानी में ठेकेदारों ने भोजन-पानी की भोजन-पानी की पर्याप्त से अधिक व्यवस्था कर रखी थी। सब देख कर सूत जी वापस लौट पड़े।
हे, पाठक!
सूत जी ने दोपहर का भोजन कर तनिक विश्राम किया और ठीक समय से मैदान पहुंच गए मैदान में बना पांडाल तमाम कोशिशों के भी भर नहीं पा रहा था। कुछ दूर अभी भी वाहन आए जा रहे थे, पर उन में से उतरे लोग कुछ ही लोग पांडाल की ओर आ रहे थे, कुछ कहीं और जा रहे थे। बहन जी के आने का समय हो चला था। पांडाल भर नहीं पा रहा था, कोशिशें जारी थीं। एक घड़ी गुजरी, दूसरी गुजर गई। बहन जी पूरे पांच घड़ी देरी से आई। पांडाल फिर भी खाली था। मंचासीन होते ही उन्हों ने पांडाल पर दृष्टिपात किया। चौपायों के मालिकों के अंदर एक शीत लहर विद्युत धारा की तरह दौड़ गई। उन्हें वर्तमान परमिट कैंसल होते प्रतीत हो रहे थे। माल्यार्पण और स्तुति गान के बाद बहन जी माइक पर आ गईं।
हे, पाठक!
बहन जी आते ही आयोग पर बरस पडीं। वह उन्हें महापंचायत का मुखिया नहीं बनने देना चाहता इस लिए बैक्टीरिया दल के इशारे पर बहुत रोड़े अटका रहा है। आज की इस सभा में बहुत लोग उन के इशारे पर आने से रोक दिए गए। फिर आया पप्पी-झप्पी के महत्वाकांक्षी को आड़े हाथों लिया। हम इस तरह के लोगों को सीधे अंदर कर देते हैं। या तो सीधे सीधे हमारे तम्बू में आ जाओ या फिर हम बड़े घर पहुँचा देंगे, मुकदमे हम ने दर्ज करवा दिए हैं। फिर सब पर एक साथ बरस पड़ीं, बहुजन एक हो रहा है तो लोगों की आँख की किरकिरी हो गया है। ये साइकिल, हाथ, फूल वाले और भी सब लोग बहुजन को बिखेरने में लगे हैं। पर उन को पता नहीं है कि इस बार मेरा ही नंबर है और कोई है ही नहीं जिस पर चुनाव के बाद सहमति बने। इस के बाद कागज समाप्त हो गया। लोगों ने बीच बीच में बहुत तालियाँ बजाईं। बहन जी पढ़ने के बाद वापस सिंहासन पर नहीं बैठी मंच से उतर कर सीधे अपने वाहन में बैठीं और चल दीं। इस के साथ ही सब लोग दौड़ पड़े। सूत जी भी तेजी से वापस लौटे। थोड़ी देर में रास्ते में जाम लगने वाला था।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
माया नगरी में सूत जी महाराज : जनतन्तर कथा (20)
हे, पाठक!
सूत जी को पहली बार तापघात हुआ था इसलिए उन्हें कष्ट भी बहुत हुआ। विचार किया तो संज्ञान हुआ कि यह दो दिन वातानुकूलन का सुख-भोगने का परिणाम था। सूत जी ने प्रण कर लिया कि वे कभी इस तरह वातानुकूलन का सुख नहीं लेंगे। ऐसा सुख किस काम का जो बाद में जीवन ही संकट में डाल दे। इस के साथ ही उन्हों ने चुनाव के इस काल में किसी नेता का साक्षात्कार करने की इच्छा भी त्याग दी। अपने पत्र के लिए गतिविधियों के आधार पर ही समाचार भेजने का निर्णय किया। वायरस दल की गतिविधियाँ तो वे देख ही चुके थे। इस के बाद अन्य दलों की गतिविधियों का जायजा लेने का क्रम था। सूत जी ने एक वाहन भाड़े पर लिया और निकल पड़े दिल्ली के राजनैतिक गलियारों की ओर। जहाँ बारहों मास देस भर के नेताओं और जनता की रहती है, उन सब गलियारों में सन्नाटा पसरा मिला। सब स्थानों से नेता अन्तर्ध्यान थे तो जनता कहाँ होती। पता लगा सब अपनी अपनी जनता के शक्ति प्राप्त करने गए हैं। अब राजधानी में रुकना व्यर्थ था।
हे, पाठक!
उसी रात सूत जी उत्तर प्रांत में प्रवेश कर गए। यह देश का सब से बड़ा प्रांत था। सब से अधिक खेत भी यहीं थे। यहाँ नाना प्रकार के दल चुनाव मैदान में थे। कोई हाथी पर सवार था तो कोई साइकिल पर था। वायरस और बैक्टीरिया दल भी यहाँ भिड़े हुए थे। एक जमाना था जब प्रधानमंत्री इसी प्रांत का हुआ करता था। आज यहायहा जिधर देखो हाथी का बोल बाला था। इस प्रांत में जनता की बहुसंख्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की थी जो कभी भी सत्ता का समीकरण बदल सकते थे। बैक्टीरिया दल को यहाँ से बहुमत हासिल होता था। उस ने इन संबंधों में हेरफेर को उचित न समझा। जैसे कोई भी बनिया कभी भी चलती दुकान में ग्राहकों को नयी सुविधाएं नहीं देता। जब तक कि कोई प्रतियोगी मैदान में न आ जाए। वायरस दल मैदान में आया भी तो उस ने बहुमत के धर्म को अपना आधार बनाया। उस का लाभ उठा कर खंड पंचायत पर कब्जा भी किया। पर उस में जिस कमजोरी का लाभ उठा कर सत्ताधीश धर्म परिवर्तन करा कर राज करते रहे वही भेदभाव उस की भी कमजोरी बन गया।
हे, पाठक।
इस प्रांत में अल्पसंख्यक कम नहीं थे उन के एक मुश्त मत किसी को भी राजा या रंक बना सकते थे। उन की भलाई का ढोंग करते हुए बैक्टीरिया दल पहले विजयी होता रहा। लेकिन यह तिलिस्म कभी तो टूटना था। आखिर उस की यह मतजागीरदारी टूट गई, जब साइकिल वालों ने उस में सेंध लगाई। उन्हीं दिनों एक नया दल बहुसंख्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की एकता के नाम पर पनप रहा था। कुछ बचा खुचा था वे छीन ले गए। एक बार तो इस नए दल की नेत्री ने वायरस दल के कंधे पर चढ़ कर सांझे का झांसा दे कर सत्ता की सवारी भी की। जब सवारी ढोने का अवसर आया तो साफ मुकर गई। धीरे धीरे उस ने सब को पीछे छोड़ दिया और अब प्रदेश में हाथी की सवारी कर रही थी।
हे, पाठक!
अर्ध रात्रि को सूत जी महाराज जिस माया नगर में पहुँचे वहाँ एक विशाल मैदान में जोर शोर से मंच बनाने की तैयारियाँ चल रही थीं। बहुत से वाहन आ जा रहे थे। नीली पताकाएँ सजाई जा रही थीं। पता लगा कि प्रान्त की मुख्यमंत्री कल यहाँ अपने दल के प्रत्याशी के समर्थन में सभा को संबोधित करने वाली हैं। सूत जी ने इस माया के कभी दर्शन नहीं किए थे। उन्हों ने इसी नगर में एक ठीक-ठाक सा सितारा विश्रामालय देखा और वहीं रात्रि विश्राम के लिए रुक गए।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सूत जी को पहली बार तापघात हुआ था इसलिए उन्हें कष्ट भी बहुत हुआ। विचार किया तो संज्ञान हुआ कि यह दो दिन वातानुकूलन का सुख-भोगने का परिणाम था। सूत जी ने प्रण कर लिया कि वे कभी इस तरह वातानुकूलन का सुख नहीं लेंगे। ऐसा सुख किस काम का जो बाद में जीवन ही संकट में डाल दे। इस के साथ ही उन्हों ने चुनाव के इस काल में किसी नेता का साक्षात्कार करने की इच्छा भी त्याग दी। अपने पत्र के लिए गतिविधियों के आधार पर ही समाचार भेजने का निर्णय किया। वायरस दल की गतिविधियाँ तो वे देख ही चुके थे। इस के बाद अन्य दलों की गतिविधियों का जायजा लेने का क्रम था। सूत जी ने एक वाहन भाड़े पर लिया और निकल पड़े दिल्ली के राजनैतिक गलियारों की ओर। जहाँ बारहों मास देस भर के नेताओं और जनता की रहती है, उन सब गलियारों में सन्नाटा पसरा मिला। सब स्थानों से नेता अन्तर्ध्यान थे तो जनता कहाँ होती। पता लगा सब अपनी अपनी जनता के शक्ति प्राप्त करने गए हैं। अब राजधानी में रुकना व्यर्थ था।
हे, पाठक!
उसी रात सूत जी उत्तर प्रांत में प्रवेश कर गए। यह देश का सब से बड़ा प्रांत था। सब से अधिक खेत भी यहीं थे। यहाँ नाना प्रकार के दल चुनाव मैदान में थे। कोई हाथी पर सवार था तो कोई साइकिल पर था। वायरस और बैक्टीरिया दल भी यहाँ भिड़े हुए थे। एक जमाना था जब प्रधानमंत्री इसी प्रांत का हुआ करता था। आज यहायहा जिधर देखो हाथी का बोल बाला था। इस प्रांत में जनता की बहुसंख्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की थी जो कभी भी सत्ता का समीकरण बदल सकते थे। बैक्टीरिया दल को यहाँ से बहुमत हासिल होता था। उस ने इन संबंधों में हेरफेर को उचित न समझा। जैसे कोई भी बनिया कभी भी चलती दुकान में ग्राहकों को नयी सुविधाएं नहीं देता। जब तक कि कोई प्रतियोगी मैदान में न आ जाए। वायरस दल मैदान में आया भी तो उस ने बहुमत के धर्म को अपना आधार बनाया। उस का लाभ उठा कर खंड पंचायत पर कब्जा भी किया। पर उस में जिस कमजोरी का लाभ उठा कर सत्ताधीश धर्म परिवर्तन करा कर राज करते रहे वही भेदभाव उस की भी कमजोरी बन गया।
हे, पाठक।
इस प्रांत में अल्पसंख्यक कम नहीं थे उन के एक मुश्त मत किसी को भी राजा या रंक बना सकते थे। उन की भलाई का ढोंग करते हुए बैक्टीरिया दल पहले विजयी होता रहा। लेकिन यह तिलिस्म कभी तो टूटना था। आखिर उस की यह मतजागीरदारी टूट गई, जब साइकिल वालों ने उस में सेंध लगाई। उन्हीं दिनों एक नया दल बहुसंख्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की एकता के नाम पर पनप रहा था। कुछ बचा खुचा था वे छीन ले गए। एक बार तो इस नए दल की नेत्री ने वायरस दल के कंधे पर चढ़ कर सांझे का झांसा दे कर सत्ता की सवारी भी की। जब सवारी ढोने का अवसर आया तो साफ मुकर गई। धीरे धीरे उस ने सब को पीछे छोड़ दिया और अब प्रदेश में हाथी की सवारी कर रही थी।
हे, पाठक!
अर्ध रात्रि को सूत जी महाराज जिस माया नगर में पहुँचे वहाँ एक विशाल मैदान में जोर शोर से मंच बनाने की तैयारियाँ चल रही थीं। बहुत से वाहन आ जा रहे थे। नीली पताकाएँ सजाई जा रही थीं। पता लगा कि प्रान्त की मुख्यमंत्री कल यहाँ अपने दल के प्रत्याशी के समर्थन में सभा को संबोधित करने वाली हैं। सूत जी ने इस माया के कभी दर्शन नहीं किए थे। उन्हों ने इसी नगर में एक ठीक-ठाक सा सितारा विश्रामालय देखा और वहीं रात्रि विश्राम के लिए रुक गए।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
जनता के लिए क्या है, आप के पास? : जनतन्तर कथा (19)
हे, पाठक!
भारत वर्ष की महापंचायत के एक प्रतीक्षारत मुखिया के साक्षात्कार का अवसर मिल जाने से सूत जी अति-प्रसन्न थे। दो दिन रिक्त रहने की सारी उदासी अन्तर्ध्यान हो गई। वे तुरंत तैयारियों में जुट गए। अपने यंत्रों की सार संभाल की कि साक्षात्कार कैसे अच्छा से अच्छा अंकित किया जा सकता है। वैमानिक कोलाहल में भी इस की जाँच करना चाहते थे। इस के लिए एक ऐसे कमरे की आवश्यकता थी जिस में आवाज करने वाला यंत्र हो। इस भवन में ध्वनिरहित वातानुकूलक बहुत थे, पर कोलाहल कहीं नहीं,, वे बहुत चिंतित हुए। अचानक उन्हें स्मरण आया कि वे अपने जंघशीर्ष पर जाल के माध्यम से विमान ध्वनि पैदा कर सकते हैं। उन्हों ने विमान ध्वनि उत्पन्न कर अपने यंत्र जाँच लिए। संध्याकाल में सूचना आई कि प्रातः पाँच बजे ही उन्हें उस वाहन में बैठना है जो प्रेस को ले कर विमान पत्तन के लिए जाएगी।
हे, पाठक!
अगले दिन सूत जी को ले कर वाहन निकला तो पूरे नगर में न जाने कहाँ कहाँ चक्कर लगाता हुआ विमानपत्तन पहुँचा। इस बीच वाहन में अनेक लोग स्थान-स्थान से सवार हुए। पत्तन पर वहाँ विशेष विमान तैयार था, सब को विमान पर चढ़ा दिया गया। सब से अंत में सात बजे जो अंतिम व्यक्ति विमान पर चढ़ा, वह प्रतीक्षारत मुखिया था। उसने सब पर दृष्टिपात किया और अपने निर्धारित आसन पर जा बैठा। फिर अपने सहायक से सूत जी की ओर इशारा कर उन के बारे में जाना। विमान चल पड़ा। जैसे ही विमान व्योम में पहुंचा और कमरबंद खोले गए, सहायक सूत जी के पास आया और प्रतीक्षारत मुखिया जी के पास वाले आसन पर जा कर अपना काम निपटा लेने को कहा, इस चेतावनी के साथ कि आप के पास मुश्किल से आधा घंटा है, इतने में काम पूरा कर लेना होगा। सूत जी तुरंत प्र. मुखिया जी के पास वाले आसन पर पहुँचे, अपना परिचय देने लगे, तो प्र. मुखिया जी खुद ही बोल पड़े - महाराज, आप को कौन नहीं जानता? आप की कथाएँ पढ़-पढ़ कर ही तो हम यहाँ तक पहुँचे हैं। आप की कथाएँ नहीं होतीं तो हम न जाने कहाँ होते? आप श्रीगणेश कीजिए। सूत जी आरंभ हुए।
हे, पाठक!
सूत जी ने पूछा- इस बार तो इस महापंचायत चुनाव में आप का दल अकेला हैं जो कह रहा हैं कि आप निर्विवादित रूप से दल की ओर से मुखिया के प्रत्याशी हैं, क्या आप के दल इस बारे में कोई विवाद नहीं है?
प्र. मुखिया जी बोले- वायरस दल में मुखिया के लिए कभी विवाद के जन्म की कोई संभावना ही उत्पन्न नहीं होने दी जाती है। हम वरिष्ठता से चलते हैं। जो हम से वरिष्ठ हैं, उन के टायर घिस गए थे। चाल बाधित हो गई थी, दल ने टायर भी बदलवाए, वे चले भी, लेकिन समय के साथ नहीं चल सकते थे, इस लिए दल ने उन्हें अवकाश दे दिया। तत्पश्चात मेरा ही क्रम था, विवाद कैसे जन्म लेता।
सूत जी- क्या यह सही नहीं कि दल के युवाओं ने गुर्जर खंड के नेता के पक्ष में ध्वनियाँ की हैं?
प्र.मुखिया- सही है, किन्तु केवल यह कहा जाता है कि वे मुखिया के योग्य हैं। ध्वनि तीव्र होती उस से पहले ही दल ने मुझे आगे कर दिया। प्रचार आरंभ हो गया। अब ध्वनियाँ होती रहें, उन के परिपक्व होने की संभावना समाप्त हो गई।
सूत जी- क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि एक जन्म लेने की संभावना को गर्भ में ही समाप्त कर दिया गया जो अमानवीय था?
प्र. मुखिया- नहीं, संभावना कोई जीव नहीं होती। उसे कहीं भी समाप्त किया जा सकता है।
सूत जी- क्या आप के दल को बहुमत प्राप्त होने की संभावना है?
प्र.मुखिया- हमने ऐसा कभी नहीं कहा, हम ने कहा हमारा दल महापंचायत का सब से बड़ा दल होगा। हम बहुमत जुटाएंगे।
सूत जी- यह तेरह दिवस, मास का खेल तो पहले भी असफल हो चुका है?
प्र. मुखिया- नहीं, अब नहीं होने देंगे। कुछ दल हमारे साथ हैं, शेष हम जुटा लेंगे।
सूत जी- उन में से किसी ने आप के मुखिया होने पर आपत्ति हुई तो?
प्र. मुखिया- नहीं होगी, यही तो एक कारण है कि दल मुझे पहले ही मैदान में ले आया। वरना जवानों की ध्वनियाँ गुर्जरखंड नेता के लिए तीव्र हो जातीं तो दल को साथ मिलना कठिन हो जाता।
सूत जी- पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए आप के दल का मुख्य नारा क्या है?
प्र. मुखिया- यही कि हमारे पास मुखिया के लायक नेता है, किसी और के पास नहीं।
सूत जी- यह तो आप के दल के लिए हुआ, जनता के लिए क्या है?
प्र. मुखिया- जनता के लिए किस के पास क्या है? किसी के पास कुछ नहीं, हम से ही क्यों अपेक्षा की जाती है। फिर जनता के लिए बहुत कुछ है। दल ने घोषणा की है। राम मंदिर बनाएंगे, समान नागरिक संहिता बनाएंगे, भारतवर्ष को आतंकवाद हीन कर देंगे, गरीबों को सस्ता चावल देंगे, बहुत कुछ है .... आप ने हमारा घोषणा-पत्र नहीं पढ़ा?
प्र. मुखिया- राम मंदिर और समान नागरिक संहिता तो आप आप के दल के बहुमत की स्थिति में बनाएँगे जिस के लिए आप खुद स्वीकार करते हैं कि वह नहीं आ रहा है। आतंकवाद के लिए विपक्षी आप को आतंकवादियों को कैकय छोड़ देने का स्मरण करवा चुके हैं। सस्ता चावल गरीबों को तब मिलेगा जब रोजगार मिलेगा। उस के लिए कुछ है आप के घोषणा पत्र में .....
सूत जी का प्रश्न पूरा होता उस से पहले ही विमान में घोषणा हुई कि यात्री अपने-अपने कमरबंद कस लें विमान उतरने वाला है। सूत जी को अपने आसन पर आना पड़ा। साक्षात्कार अधूरा ही रह गया। दिन भर में विमान अनेक स्थानों पर गया। प्र. मुखिया जी ने सब स्थानों पर भाषण किया। सूत जी को उन के प्रश्नों के उत्तर न मिले। पर मुखिया जी जब भाषण दे कर वापस आने लगते तो विपक्षी का चुनाव चिन्ह जरूर दिखाते। सायंकाल जब विमान पत्तन पर उतरा तो यान की ठंडक और बाहर की गर्मी में आते जाते सूत जी तापघात के शिकार हो लिए। सूत जी पत्तन से बाहर आए तो सहायक सूत जी को एक कागजी थैला दे कर बोला- इस में प्र. मुखिया जी के छाया चित्र हैं इन्हें साक्षात्कार के साथ जरूर छापिएगा। तीन दिनों से कोई पत्र उन के चित्र नहीं छाप रहा है और इस वाहन में बैठिएगा यह आप को आप के आवास पर छोड़ देगा। सूत जी पहले ही अपना आवास छोड़ चुके थे। वहीं वापस पहुंचे तो वहाँ कोई स्थान खाली न था। सूत जी ने पुराना ग्राहक होने की दुहाई दी तो उन्हें बताया गया कि अर्धरात्रि को एक स्थान रिक्त होगा तब वे वहाँ जा सकते हैं। तब तक वे प्रतीक्षागृह में प्रतीक्षा करें। वे प्रतीक्षागृह आए जहाँ और भी लोग थे। उन्हों ने कागजी थैला खोला तो उस में चित्रों के साथ एक विज्ञापन था और साथ में शुल्क का एक चैक भी। तापघात से पीड़ित सूत जी दो दिनों तक अपने कक्ष में ही रहे। साक्षात्कार तीसरे दिन छपा।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
भारत वर्ष की महापंचायत के एक प्रतीक्षारत मुखिया के साक्षात्कार का अवसर मिल जाने से सूत जी अति-प्रसन्न थे। दो दिन रिक्त रहने की सारी उदासी अन्तर्ध्यान हो गई। वे तुरंत तैयारियों में जुट गए। अपने यंत्रों की सार संभाल की कि साक्षात्कार कैसे अच्छा से अच्छा अंकित किया जा सकता है। वैमानिक कोलाहल में भी इस की जाँच करना चाहते थे। इस के लिए एक ऐसे कमरे की आवश्यकता थी जिस में आवाज करने वाला यंत्र हो। इस भवन में ध्वनिरहित वातानुकूलक बहुत थे, पर कोलाहल कहीं नहीं,, वे बहुत चिंतित हुए। अचानक उन्हें स्मरण आया कि वे अपने जंघशीर्ष पर जाल के माध्यम से विमान ध्वनि पैदा कर सकते हैं। उन्हों ने विमान ध्वनि उत्पन्न कर अपने यंत्र जाँच लिए। संध्याकाल में सूचना आई कि प्रातः पाँच बजे ही उन्हें उस वाहन में बैठना है जो प्रेस को ले कर विमान पत्तन के लिए जाएगी।
हे, पाठक!
अगले दिन सूत जी को ले कर वाहन निकला तो पूरे नगर में न जाने कहाँ कहाँ चक्कर लगाता हुआ विमानपत्तन पहुँचा। इस बीच वाहन में अनेक लोग स्थान-स्थान से सवार हुए। पत्तन पर वहाँ विशेष विमान तैयार था, सब को विमान पर चढ़ा दिया गया। सब से अंत में सात बजे जो अंतिम व्यक्ति विमान पर चढ़ा, वह प्रतीक्षारत मुखिया था। उसने सब पर दृष्टिपात किया और अपने निर्धारित आसन पर जा बैठा। फिर अपने सहायक से सूत जी की ओर इशारा कर उन के बारे में जाना। विमान चल पड़ा। जैसे ही विमान व्योम में पहुंचा और कमरबंद खोले गए, सहायक सूत जी के पास आया और प्रतीक्षारत मुखिया जी के पास वाले आसन पर जा कर अपना काम निपटा लेने को कहा, इस चेतावनी के साथ कि आप के पास मुश्किल से आधा घंटा है, इतने में काम पूरा कर लेना होगा। सूत जी तुरंत प्र. मुखिया जी के पास वाले आसन पर पहुँचे, अपना परिचय देने लगे, तो प्र. मुखिया जी खुद ही बोल पड़े - महाराज, आप को कौन नहीं जानता? आप की कथाएँ पढ़-पढ़ कर ही तो हम यहाँ तक पहुँचे हैं। आप की कथाएँ नहीं होतीं तो हम न जाने कहाँ होते? आप श्रीगणेश कीजिए। सूत जी आरंभ हुए।
हे, पाठक!
सूत जी ने पूछा- इस बार तो इस महापंचायत चुनाव में आप का दल अकेला हैं जो कह रहा हैं कि आप निर्विवादित रूप से दल की ओर से मुखिया के प्रत्याशी हैं, क्या आप के दल इस बारे में कोई विवाद नहीं है?
प्र. मुखिया जी बोले- वायरस दल में मुखिया के लिए कभी विवाद के जन्म की कोई संभावना ही उत्पन्न नहीं होने दी जाती है। हम वरिष्ठता से चलते हैं। जो हम से वरिष्ठ हैं, उन के टायर घिस गए थे। चाल बाधित हो गई थी, दल ने टायर भी बदलवाए, वे चले भी, लेकिन समय के साथ नहीं चल सकते थे, इस लिए दल ने उन्हें अवकाश दे दिया। तत्पश्चात मेरा ही क्रम था, विवाद कैसे जन्म लेता।
सूत जी- क्या यह सही नहीं कि दल के युवाओं ने गुर्जर खंड के नेता के पक्ष में ध्वनियाँ की हैं?
प्र.मुखिया- सही है, किन्तु केवल यह कहा जाता है कि वे मुखिया के योग्य हैं। ध्वनि तीव्र होती उस से पहले ही दल ने मुझे आगे कर दिया। प्रचार आरंभ हो गया। अब ध्वनियाँ होती रहें, उन के परिपक्व होने की संभावना समाप्त हो गई।
सूत जी- क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि एक जन्म लेने की संभावना को गर्भ में ही समाप्त कर दिया गया जो अमानवीय था?
प्र. मुखिया- नहीं, संभावना कोई जीव नहीं होती। उसे कहीं भी समाप्त किया जा सकता है।
सूत जी- क्या आप के दल को बहुमत प्राप्त होने की संभावना है?
प्र.मुखिया- हमने ऐसा कभी नहीं कहा, हम ने कहा हमारा दल महापंचायत का सब से बड़ा दल होगा। हम बहुमत जुटाएंगे।
सूत जी- यह तेरह दिवस, मास का खेल तो पहले भी असफल हो चुका है?
प्र. मुखिया- नहीं, अब नहीं होने देंगे। कुछ दल हमारे साथ हैं, शेष हम जुटा लेंगे।
सूत जी- उन में से किसी ने आप के मुखिया होने पर आपत्ति हुई तो?
प्र. मुखिया- नहीं होगी, यही तो एक कारण है कि दल मुझे पहले ही मैदान में ले आया। वरना जवानों की ध्वनियाँ गुर्जरखंड नेता के लिए तीव्र हो जातीं तो दल को साथ मिलना कठिन हो जाता।
सूत जी- पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए आप के दल का मुख्य नारा क्या है?
प्र. मुखिया- यही कि हमारे पास मुखिया के लायक नेता है, किसी और के पास नहीं।
सूत जी- यह तो आप के दल के लिए हुआ, जनता के लिए क्या है?
प्र. मुखिया- जनता के लिए किस के पास क्या है? किसी के पास कुछ नहीं, हम से ही क्यों अपेक्षा की जाती है। फिर जनता के लिए बहुत कुछ है। दल ने घोषणा की है। राम मंदिर बनाएंगे, समान नागरिक संहिता बनाएंगे, भारतवर्ष को आतंकवाद हीन कर देंगे, गरीबों को सस्ता चावल देंगे, बहुत कुछ है .... आप ने हमारा घोषणा-पत्र नहीं पढ़ा?
प्र. मुखिया- राम मंदिर और समान नागरिक संहिता तो आप आप के दल के बहुमत की स्थिति में बनाएँगे जिस के लिए आप खुद स्वीकार करते हैं कि वह नहीं आ रहा है। आतंकवाद के लिए विपक्षी आप को आतंकवादियों को कैकय छोड़ देने का स्मरण करवा चुके हैं। सस्ता चावल गरीबों को तब मिलेगा जब रोजगार मिलेगा। उस के लिए कुछ है आप के घोषणा पत्र में .....
सूत जी का प्रश्न पूरा होता उस से पहले ही विमान में घोषणा हुई कि यात्री अपने-अपने कमरबंद कस लें विमान उतरने वाला है। सूत जी को अपने आसन पर आना पड़ा। साक्षात्कार अधूरा ही रह गया। दिन भर में विमान अनेक स्थानों पर गया। प्र. मुखिया जी ने सब स्थानों पर भाषण किया। सूत जी को उन के प्रश्नों के उत्तर न मिले। पर मुखिया जी जब भाषण दे कर वापस आने लगते तो विपक्षी का चुनाव चिन्ह जरूर दिखाते। सायंकाल जब विमान पत्तन पर उतरा तो यान की ठंडक और बाहर की गर्मी में आते जाते सूत जी तापघात के शिकार हो लिए। सूत जी पत्तन से बाहर आए तो सहायक सूत जी को एक कागजी थैला दे कर बोला- इस में प्र. मुखिया जी के छाया चित्र हैं इन्हें साक्षात्कार के साथ जरूर छापिएगा। तीन दिनों से कोई पत्र उन के चित्र नहीं छाप रहा है और इस वाहन में बैठिएगा यह आप को आप के आवास पर छोड़ देगा। सूत जी पहले ही अपना आवास छोड़ चुके थे। वहीं वापस पहुंचे तो वहाँ कोई स्थान खाली न था। सूत जी ने पुराना ग्राहक होने की दुहाई दी तो उन्हें बताया गया कि अर्धरात्रि को एक स्थान रिक्त होगा तब वे वहाँ जा सकते हैं। तब तक वे प्रतीक्षागृह में प्रतीक्षा करें। वे प्रतीक्षागृह आए जहाँ और भी लोग थे। उन्हों ने कागजी थैला खोला तो उस में चित्रों के साथ एक विज्ञापन था और साथ में शुल्क का एक चैक भी। तापघात से पीड़ित सूत जी दो दिनों तक अपने कक्ष में ही रहे। साक्षात्कार तीसरे दिन छपा।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
सूत जी घोषित हीरो जी के निजि सचिव के साथ : जनतन्तर कथा (18)
हे, पाठक!
वायरस पार्टी के परबक्ता से मिल कर सूत जी महाराज को बड़ा हर्ष हुआ। नई कथा के लिए सूत्र मिल चुका था। परबक्ता को अपना परिचय दिया कि मैं नैमिषारण्य टाइम्स का विशेष सम्वाददाता हूँ और आप के घोषित हीरो से एक साक्षात्कार चाहता हूँ। परबक्ता बोला- अभी तो समय मिलना असंभव लगता है, हीरो भारतवर्ष के तूफानी दौरे पर हैं। एक पावं मंच पर, तो दूसरा एयरोप्लेन या हेलीकोप्टर पर रहता है, वहाँ से हटता है तो किसी द्रुतगामी वाहन पर चला जाता है। फिर यह काम मेरे क्षेत्राधिकार का नहीं है साक्षात्कार फिक्स करने का काम हीरो जी के निजि सचिव का है। उन का कॉन्टेक्ट नम्बर आप को दे सकता हूँ। सूत जी ने फटाफट अपनी डायरी निकाली, नंबर नोट किया और अपना लैपटॉप संभालते वहाँ से चलते भए। सोच रहे थे नंबर मिल गया यह कम नहीं, वरना जाल पर खोज करनी पड़ती। फिर क्या था बाहर आ कर सीधे निजि सचिव को मोबाइल थर्राया। बहुत देर तक व्यस्त रहने के बाद आखिर नंबर लग गया और वंदेमातरम् की धुन सुनाई दी। फिर आवाज आई- हू आर यू? स्पीक इमिडियटली। सूत जी कम खुदा थोड़े ही थे, उन्होंने देस देस के ऋषिमुनियों की क्लास ले रखी थी। उसे भी अपना परिचय बताया। या, या, आई लिसन्ड दिस वर्ड नेमिसारण, बट नेवर सी दिस पेपर, व्हाई नोट सेन्ड ए कॉपी डेली टू अस, वी मे प्रोवाइड यू सम हेण्डसम एडस्। सूत जी ने बताया कि उन का अखबार सारे ऋषि, मुनियों और धार्मिक हिन्दुओं में बहुत पोपुलर है। अगर हीरो जी का साक्षात्कार उस में छप गया तो चुनाव में बड़ा लाभ मिलेगा।
हे, पाठक!
ऋषि, मुनि और धार्मिक पब्लिक का नाम सुनते ही निजि सचिव सोच में पड़ गया- यह बीमारी कहाँ से टपक पड़ी। ऋषि, मुनि और धार्मिक हिन्दू तो पहले ही बुक्ड हैं। उन पर समय और धन व्यय करना ठीक नहीं, इस आदमी को टालना होगा। पर इस की इन में पैठ है, कुछ उलटा सीधा लिख बैठा तो बुक्ड माल में से कुछ तो हाथ से निकल ही जाएगा, सफाई देनी पड़ेगी सो अलग। सचिव ने तुरंत सूत जी को बोला- वैसे तो हीरो जी से साक्षात्कार होना कठिन है, फिर भी मैं कुछ प्रयत्न कर सकता हूँ। लेकिन आप को मेरे ऑफिस में एक-दो दिन डेरा डालना पड़ेगा। सूत जी फिर हर्षित हुए। काम बनता नजर आ रहा है। बन गया तो एक एक्सक्लूसिव कथा का प्रबंध तो हो ही जाएगा।
हे, पाठक!
सूत जी निजि सचिव के दफ्तर पहुँचे। निजि सचिव ने जो उन की वेषभूषा देखी तो चकरा गया। सोचा यह साक्षात व्यास मुनि का भूत कहाँ से चला आ रहा है। निजि सचिव ने एक व्यक्ति को भेज कर प्रेस के लिए आरक्षित गेस्ट हाउस का एक कमरा उन के लिए खुलवा दिया। हिदायत दी मैं काम में भूल सकता हूँ इस लिए सुबह शाम याद दिलाते रहना। एक दो दिन में साक्षात्कार अरेंज करवा दूंगा। पर एक शर्त पर कि हीरो जी मिलें तो उन से मेरी तारीफ जरूर कर दीजिएगा। कमरे पर पहुँचाने वाले आदमी ने स्विच बोर्ड पर लगा औरेंज कलर का बटन दिखाया। किसी चीज की जरूरत हो तो इसे दबाइएगा। जो चाहेंगे वही हाजिर कर दिया जाएगा। सूत जी समझ गए कि यह सब चुनाव काल की कृपा है, जिस दिन चुनाव अंतिम हुए और गेस्ट हाउस खाली करा लिया जाएगा। खैर अपने को करना भी क्या है? साक्षात्कार हुआ और अपन सटके। दूसरे एण्टी हीरो भी तो तलाशने हैं।
हे, पाठक!
सूत जी महाराज ने दो दिन तक मुफ्त आतिथ्य का सुख भोगा। वहाँ सब कुछ था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे इंद्र लोक के किसी अतिथिगृह में ठहरे हों। तीसरे दिन निजि सचिव ने बताया कि आप के साक्षात्कार की व्यवस्था हो गई है। हीरो जी कल सुबह दक्षिण भारत के दौरे पर जा रहे हैं। आप उन के साथ प्लेन पर होंगे और हवाई यात्रा के बीच ही उन का साक्षात्कार ले सकेंगे। इस के अलावा कोई और समय साक्षात्कार के लिए हीरो जी के पास नहीं है। आप अपने इंस्ट्रूमेंट्स संभाल कर ले जाना। शाम को प्लेन आप को वापस यहीं छोड़ देगा। आप चाहेंगे तो आप को नेमिषारण पहुँचाने की व्यवस्था कर दी जाएगी। सूत जी बोले अभी इलेक्शन तक इधर ही रुकने और दो चार राज्यों में जाने का कार्यक्रम है। इस लिए दिल्ली में ही छोड़ दें तो ठीक रहेगा।
आज की कथा यहीं विराम लेती है, कल हीरो जी के हवाई साक्षात्कार की कथा होगी, पढ़ना विस्मृत मत करिएगा।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
वायरस पार्टी के परबक्ता से मिल कर सूत जी महाराज को बड़ा हर्ष हुआ। नई कथा के लिए सूत्र मिल चुका था। परबक्ता को अपना परिचय दिया कि मैं नैमिषारण्य टाइम्स का विशेष सम्वाददाता हूँ और आप के घोषित हीरो से एक साक्षात्कार चाहता हूँ। परबक्ता बोला- अभी तो समय मिलना असंभव लगता है, हीरो भारतवर्ष के तूफानी दौरे पर हैं। एक पावं मंच पर, तो दूसरा एयरोप्लेन या हेलीकोप्टर पर रहता है, वहाँ से हटता है तो किसी द्रुतगामी वाहन पर चला जाता है। फिर यह काम मेरे क्षेत्राधिकार का नहीं है साक्षात्कार फिक्स करने का काम हीरो जी के निजि सचिव का है। उन का कॉन्टेक्ट नम्बर आप को दे सकता हूँ। सूत जी ने फटाफट अपनी डायरी निकाली, नंबर नोट किया और अपना लैपटॉप संभालते वहाँ से चलते भए। सोच रहे थे नंबर मिल गया यह कम नहीं, वरना जाल पर खोज करनी पड़ती। फिर क्या था बाहर आ कर सीधे निजि सचिव को मोबाइल थर्राया। बहुत देर तक व्यस्त रहने के बाद आखिर नंबर लग गया और वंदेमातरम् की धुन सुनाई दी। फिर आवाज आई- हू आर यू? स्पीक इमिडियटली। सूत जी कम खुदा थोड़े ही थे, उन्होंने देस देस के ऋषिमुनियों की क्लास ले रखी थी। उसे भी अपना परिचय बताया। या, या, आई लिसन्ड दिस वर्ड नेमिसारण, बट नेवर सी दिस पेपर, व्हाई नोट सेन्ड ए कॉपी डेली टू अस, वी मे प्रोवाइड यू सम हेण्डसम एडस्। सूत जी ने बताया कि उन का अखबार सारे ऋषि, मुनियों और धार्मिक हिन्दुओं में बहुत पोपुलर है। अगर हीरो जी का साक्षात्कार उस में छप गया तो चुनाव में बड़ा लाभ मिलेगा।
हे, पाठक!
ऋषि, मुनि और धार्मिक पब्लिक का नाम सुनते ही निजि सचिव सोच में पड़ गया- यह बीमारी कहाँ से टपक पड़ी। ऋषि, मुनि और धार्मिक हिन्दू तो पहले ही बुक्ड हैं। उन पर समय और धन व्यय करना ठीक नहीं, इस आदमी को टालना होगा। पर इस की इन में पैठ है, कुछ उलटा सीधा लिख बैठा तो बुक्ड माल में से कुछ तो हाथ से निकल ही जाएगा, सफाई देनी पड़ेगी सो अलग। सचिव ने तुरंत सूत जी को बोला- वैसे तो हीरो जी से साक्षात्कार होना कठिन है, फिर भी मैं कुछ प्रयत्न कर सकता हूँ। लेकिन आप को मेरे ऑफिस में एक-दो दिन डेरा डालना पड़ेगा। सूत जी फिर हर्षित हुए। काम बनता नजर आ रहा है। बन गया तो एक एक्सक्लूसिव कथा का प्रबंध तो हो ही जाएगा।
हे, पाठक!
सूत जी निजि सचिव के दफ्तर पहुँचे। निजि सचिव ने जो उन की वेषभूषा देखी तो चकरा गया। सोचा यह साक्षात व्यास मुनि का भूत कहाँ से चला आ रहा है। निजि सचिव ने एक व्यक्ति को भेज कर प्रेस के लिए आरक्षित गेस्ट हाउस का एक कमरा उन के लिए खुलवा दिया। हिदायत दी मैं काम में भूल सकता हूँ इस लिए सुबह शाम याद दिलाते रहना। एक दो दिन में साक्षात्कार अरेंज करवा दूंगा। पर एक शर्त पर कि हीरो जी मिलें तो उन से मेरी तारीफ जरूर कर दीजिएगा। कमरे पर पहुँचाने वाले आदमी ने स्विच बोर्ड पर लगा औरेंज कलर का बटन दिखाया। किसी चीज की जरूरत हो तो इसे दबाइएगा। जो चाहेंगे वही हाजिर कर दिया जाएगा। सूत जी समझ गए कि यह सब चुनाव काल की कृपा है, जिस दिन चुनाव अंतिम हुए और गेस्ट हाउस खाली करा लिया जाएगा। खैर अपने को करना भी क्या है? साक्षात्कार हुआ और अपन सटके। दूसरे एण्टी हीरो भी तो तलाशने हैं।
हे, पाठक!
सूत जी महाराज ने दो दिन तक मुफ्त आतिथ्य का सुख भोगा। वहाँ सब कुछ था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे इंद्र लोक के किसी अतिथिगृह में ठहरे हों। तीसरे दिन निजि सचिव ने बताया कि आप के साक्षात्कार की व्यवस्था हो गई है। हीरो जी कल सुबह दक्षिण भारत के दौरे पर जा रहे हैं। आप उन के साथ प्लेन पर होंगे और हवाई यात्रा के बीच ही उन का साक्षात्कार ले सकेंगे। इस के अलावा कोई और समय साक्षात्कार के लिए हीरो जी के पास नहीं है। आप अपने इंस्ट्रूमेंट्स संभाल कर ले जाना। शाम को प्लेन आप को वापस यहीं छोड़ देगा। आप चाहेंगे तो आप को नेमिषारण पहुँचाने की व्यवस्था कर दी जाएगी। सूत जी बोले अभी इलेक्शन तक इधर ही रुकने और दो चार राज्यों में जाने का कार्यक्रम है। इस लिए दिल्ली में ही छोड़ दें तो ठीक रहेगा।
आज की कथा यहीं विराम लेती है, कल हीरो जी के हवाई साक्षात्कार की कथा होगी, पढ़ना विस्मृत मत करिएगा।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
नयी फिलम का हीरो केवल हमरे पास ; जनतन्तर कथा (17)
हे, पाठक!
पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए महारथी मैदान में डट गए। लोगों ने तलाशना शुरू किया, है कोई नया चेहरा हो मैदान में? सब जगह पुराने ही चेहरे नजर आए, कोई नया नहीं। पार्टियाँ वैसी की वैसी हैं, जैसी वे पहले थीं। बस सब के चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ बढ़ गई हैं। जिस चेहरे पर जितनी ज्यादा झुर्रियाँ चढ़ी हैं, उस पर उतना ही पाउडर और फेस क्रीम भी चुपड़ दिया गया है। इस बीच कोई नयी पार्टी नहीं जनमी। कहीं से खबर, इशारा भी नहीं, कि कोई गर्भ में पल रही हो। या तो रानी माँ बाँझ हो गई है, या राजा निरबंसिया हो चुका है। ऐसे में आ गया, चुनाव। लोग जान गए, कि किसी को वोट डाल दो परिणाम वही होगा जो होना है। नया कुछ भी पैदा नहीं होने वाला। मैया जितने बच्चे ले कर जच्चा खाने गई है, उन्हें ही ले कर वापस लौटेगी। कुछ फरक पड़ भी गया तो इतना कि घर में बच्चों के सोने बैठने की जगह बदल जाएगी। जब भी रात को सोने जाएंगे पहले की तरह लड़ेंगे। बेडरूम से फिर से वैसी ही आवाजें आएंगी। सुबह खाने पर वैसे ही लड़ेंगे। चिल्लाएंगे, वो वाला ज्यादा खा गया। मैं भूखा रह गया।
हे, पाठक!
सब को पता है, कि इस बार भी न बैक्टीरिया पार्टी और न ही वायरस पार्टी दोनों ही महापंचायत में कमजोर रहेंगी, कोई भी ऐसा न होगा जो अपने दम पर पंचायत कर ले। खुद बैक्टीरिया और वायरस पार्टियों को यकीन है कि ऐसा ही होगा। फिर भी वे मैदान में आ डटी हैं। वायरस पार्टी ने घोषणा कर दी है, उन का नेता ही महापंचायत का हीरो होगा। पार्टी के परवक्ता जी से सूत जी महाराज टकरा गए तो उन से पूछा कि कास्ट पूरी न मिली तो कैसे होगा? तो बोले वह बाद की बात है, बाद की बात बाद में देखी जाएगी। हम में हिम्मत है, हम सब कर सकते हैं। हम महापंचायत का हीरो घोषित कर सकते हैं, हम ने कर दिया। किसी और में दम हो तो कर के देखे। सूत जी बोले- बहुत डायरेक्टरों ने हीरो घोषित कर दिये और हीरोइन ढूंढते रह गए। फिलम का मुहुर्त शॉट डिब्बे में बन्द हो कर रह गया। सूत जी को जवाब भी तगड़ा मिला- उन डायरेक्टरों को फाइनेन्सर न मिला था। रोकड़ा ही नहीं था तो हिरोइन कहाँ से लाते? फिलम तो डिब्बे में बंद होनी ही थी। हमारे पास फाइनेंसर बहुत हैं देखते नहीं जाल पर कितने दिन से हीरो का चेहरा चमक रहा है। यह सब फाइनेंस का ही कमाल है। फाइनेंस से सब कुछ हो सकता है।
हे, पाठक!
जब फाइनेंस की बात चली तो सूत जी ने स्मरण कराया। इत्ता ही फाइनेंस पर बिस्वास था तो छह महिने पहले जब न्यू क्लियर डील का मसला आया, तभी लाइन क्लीयर क्यूँ नहीं कर दी। परवक्ता जी बोले-तब की बात और थी। हम चाहते तो यही थे। पर तब फाइनेंसर पीछे हट गए। बोले अभी फाइनेंस रिस्की है। छह महीने बाद करेंगे। अभी करेंगे तो छह माह बाद फिर करना पड़ेगा। फिर अभी तुम आ बैठे तो जनता विपदग्राही हो लेगी। लेने के देने पड़ जाएँगे। फिर न्यू क्लीयर डील तो हम भी चाहते हैं। तुम करो चाहे वे करें, हम फाइनेंसरों को क्या फरक पड़ेगा? तुम बैठ गए तो शरम के मारे कर नहीं पाओगे, यह लटकती रहेगी। उधर परदेस में हमारे धंधों की पटरी बैठ जाएगी।
आज का समय यहीं समाप्त, कथा जारी रहेगी......
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए महारथी मैदान में डट गए। लोगों ने तलाशना शुरू किया, है कोई नया चेहरा हो मैदान में? सब जगह पुराने ही चेहरे नजर आए, कोई नया नहीं। पार्टियाँ वैसी की वैसी हैं, जैसी वे पहले थीं। बस सब के चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ बढ़ गई हैं। जिस चेहरे पर जितनी ज्यादा झुर्रियाँ चढ़ी हैं, उस पर उतना ही पाउडर और फेस क्रीम भी चुपड़ दिया गया है। इस बीच कोई नयी पार्टी नहीं जनमी। कहीं से खबर, इशारा भी नहीं, कि कोई गर्भ में पल रही हो। या तो रानी माँ बाँझ हो गई है, या राजा निरबंसिया हो चुका है। ऐसे में आ गया, चुनाव। लोग जान गए, कि किसी को वोट डाल दो परिणाम वही होगा जो होना है। नया कुछ भी पैदा नहीं होने वाला। मैया जितने बच्चे ले कर जच्चा खाने गई है, उन्हें ही ले कर वापस लौटेगी। कुछ फरक पड़ भी गया तो इतना कि घर में बच्चों के सोने बैठने की जगह बदल जाएगी। जब भी रात को सोने जाएंगे पहले की तरह लड़ेंगे। बेडरूम से फिर से वैसी ही आवाजें आएंगी। सुबह खाने पर वैसे ही लड़ेंगे। चिल्लाएंगे, वो वाला ज्यादा खा गया। मैं भूखा रह गया।
हे, पाठक!
सब को पता है, कि इस बार भी न बैक्टीरिया पार्टी और न ही वायरस पार्टी दोनों ही महापंचायत में कमजोर रहेंगी, कोई भी ऐसा न होगा जो अपने दम पर पंचायत कर ले। खुद बैक्टीरिया और वायरस पार्टियों को यकीन है कि ऐसा ही होगा। फिर भी वे मैदान में आ डटी हैं। वायरस पार्टी ने घोषणा कर दी है, उन का नेता ही महापंचायत का हीरो होगा। पार्टी के परवक्ता जी से सूत जी महाराज टकरा गए तो उन से पूछा कि कास्ट पूरी न मिली तो कैसे होगा? तो बोले वह बाद की बात है, बाद की बात बाद में देखी जाएगी। हम में हिम्मत है, हम सब कर सकते हैं। हम महापंचायत का हीरो घोषित कर सकते हैं, हम ने कर दिया। किसी और में दम हो तो कर के देखे। सूत जी बोले- बहुत डायरेक्टरों ने हीरो घोषित कर दिये और हीरोइन ढूंढते रह गए। फिलम का मुहुर्त शॉट डिब्बे में बन्द हो कर रह गया। सूत जी को जवाब भी तगड़ा मिला- उन डायरेक्टरों को फाइनेन्सर न मिला था। रोकड़ा ही नहीं था तो हिरोइन कहाँ से लाते? फिलम तो डिब्बे में बंद होनी ही थी। हमारे पास फाइनेंसर बहुत हैं देखते नहीं जाल पर कितने दिन से हीरो का चेहरा चमक रहा है। यह सब फाइनेंस का ही कमाल है। फाइनेंस से सब कुछ हो सकता है।
हे, पाठक!
जब फाइनेंस की बात चली तो सूत जी ने स्मरण कराया। इत्ता ही फाइनेंस पर बिस्वास था तो छह महिने पहले जब न्यू क्लियर डील का मसला आया, तभी लाइन क्लीयर क्यूँ नहीं कर दी। परवक्ता जी बोले-तब की बात और थी। हम चाहते तो यही थे। पर तब फाइनेंसर पीछे हट गए। बोले अभी फाइनेंस रिस्की है। छह महीने बाद करेंगे। अभी करेंगे तो छह माह बाद फिर करना पड़ेगा। फिर अभी तुम आ बैठे तो जनता विपदग्राही हो लेगी। लेने के देने पड़ जाएँगे। फिर न्यू क्लीयर डील तो हम भी चाहते हैं। तुम करो चाहे वे करें, हम फाइनेंसरों को क्या फरक पड़ेगा? तुम बैठ गए तो शरम के मारे कर नहीं पाओगे, यह लटकती रहेगी। उधर परदेस में हमारे धंधों की पटरी बैठ जाएगी।
आज का समय यहीं समाप्त, कथा जारी रहेगी......
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
रविवार, 19 अप्रैल 2009
पब्लिक सीखे डिरेवरी ; जनतन्तर कथा (16)
हे, पाठक!
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है। टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है। ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही, पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती। कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें। भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली। उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है। मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है। लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........
आप ने सुना भी, और गाया भी। तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।
हे, पाठक!
पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है। कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है। पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा। डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में। हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े? फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी। पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।
हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है। पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे। उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं। फिर पब्लिक ने डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है। बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता। इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए। पर किस से बदली जाए? सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं। कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे। ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी। उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।
फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
आप सुधिजन हैं, आप जान चुके हैं कि पुरानी कार मियादी मरम्मत और रंग रोगन के लिए बरक्शॉ में है। टाटा जी की नई कार के लिए लाइन भले ही लगी हो, लेकिन पब्लिक इस कार को फिलहाल बदलने को तैयार नहीं है। ताऊ की रामप्यारी भी कथा पढ़ने लगी, कथा पढ़ के बाली परमजीत पाती लिक्खे, कि पब्लिक को नई कारों में कोई पसंद ही नहीं आ रही, पुरानी से इत्ता मोह भया है कि छोड़ना ही नहीं चाहती। कैसे टूटे मोह ? कोई उपाय सोचें। भंग चितेरे अंजन पुत्र लिक्खे कि उन के जीते जी तो नई कार नहीं आने वाली। उधर झाड़ फूँक की तान-पाँच छोड़ के नकदउआ की निनानवे में उलझे ओझा बाबू संदेसा दिए हैं कि कारुआ पै रंग-रोगन की गुजाइस नहीं निकल रही है। पता चला है रंग-मसीन का कम्प्रेसरवा खुद मरम्मत मांग रहा है। मैं तो दंग रह गया, चहुँ ओर इत्ती निरासा काहे बिखरी पड़ी है। लगता है हमरे सुबरण सुत की ये बाउल नहीं सुनी। तो आज की कथा सुरू होवे के पहले ये बाउल सुनें, साथ साथ गाएँ तो अउर भी आनंद होयगा, अउर निरासा भी क्षीण होगी .........
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आप ने सुना भी, और गाया भी। तो क्या समझै? अरे! कैसी भी हो हालत, सब कुछ लुट जाए, पर आस न छोड़ें।
हे, पाठक!
पुरानी कार तो लौटेगी, इतनी आस तो सब में है। कंप्रेसर ठीक हुआ, तो रंग-रोगन हो के लौटेगी। कार की आवाज कम होगी या बढ़ जाएगी अभी पता नहीं है। पब्लिक को हो न हो पर डिरेवर की अरजी लगाए लोगों को यकीन है कि ऐ सी जरूर ठीक रहेगा। डिरेवर सीट की गद्दी भी कायम रहेगी। तभी तो इत्ते लोग अर्जी लगाए हैं जनता के दरबार में। हर कोई या तो खुद बहरूपिये सा सांग बना के घूमता है या बहरूपियों की मंडली ही जमा ली है। तो पब्लिक क्यूँ आस छोड़े? फिर बरक्शॉ में गई तो कुछ तो बदल के लौटेगी। अच्छी या बुरी। पहले भी ये कार चौदह बार बरक्शॉ में जा चुकी है अउर कुछ न कुछ बदला ही है।
हे, पाठक!
पहली तीन महापंचायतों को छोड़ दें तो बाकी सब में कुछ न कुछ बदला है। पहले लोग कार में एक डिरेवर रखते थे। उस को अहंकार हो जाता था, मेरा जैसा कोई नहीं। फिर पब्लिक ने डिरेवर बदलना सुरू कर दिया। तो डिरेवरी के बहुत से दावेदार खड़े हो गए। अब बहुत विकल्प हैं पर जिस को भी रखते हैं उस में कोई न कोई ऐब निकल आता है। बिना ऐब का डिरेवर नहीं मिलता। इस का इलाज भी है कार बदल दी जाए। पर किस से बदली जाए? सारे मॉडल तो ऐसे हैं कि डिरेवर मांगते हैं। कोई फैक्टरी ऐसी कार ही नहीं बना रही जिस में डिरेवर की जरूरत ही न हो, अपने आप चलने लगे। ऐसी कार तो ईजाद करनी पड़ेगी। उस में तो वक्त लगेगा, न जाने कितने दिन, महीने, बरस लगेंगे? पब्लिक ऐसा क्यों नहीं करती कि जब तक नई कार ईजाद हो तब तक खुद डिरेवरी सीख ले।
फिर मिलते हैं आगे की कथा में-
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में : जनतन्तर कथा (15)
हे, पाठक!
जैसे हरि अनंता, हरि कथा अनंता! वैसे ही जनतन्तर अनंता और जनतन्तर कथा अनंता! सकल परथी के भिन्न-भिन्न खंडों पर भाँत-भाँत के रूप,आकार और रंगों के कीट दृष्टिगोचर होते हैं, उन की जीवन शैली भी भाँत-भाँत की है। वैसे ही जनतन्तर भी देस-देस में भाँत-भाँत का होता है। जब भरतखंड के एक खंड को भारतवर्ष कहा गया तो उसे गणतन्तर भी घोषित कर दिया। सब कहते हैं कि गणतन्तर भरतखंड की प्राचीन परंपरा है। पर जानते कितने हैं? एक पाठक ने प्रश्न किया गणतन्तर और जनतन्तर में क्या भेद है?
हे, पाठक!
अब हम गणतन्तर और जनतन्तर भेद लिखते हैं। पहले के जमाने में देस में एक राजा हुआ करता था जो देस पर राज करता था। राज करना एक कला भी थी और सामर्थ्य भी, कला से ज्यादा सामर्थ्य थी। राजा को अपने देस पर और परजा पर नियंत्रण बना कर रखना पड़ता था। यह सब काम वह किसम किसम के लोगों के जरीए करता था। जिनमें मतरी, जागीरदार वगैरा हुआ करते थे। देस बड़ा हुआ तो सूबे भी होते थे और सूबेदार भी। राजा को हटाने का तरीका यही था कि देस में बगावत हो जाए, या दूसरा कोई राजा लड़ाई कर देस पर कब्जा कर ले। आम तौर पर राजा का बेटा ही अगला राजा हुआ करता था। इसी को राजतन्तर कहते थे। पुराने जमाने में भरतखंड के बहुत से देसों में गणतन्तर होते थे। यानी परिवारों के मुखियाओं की पंचायत, पंचायत के मुखियाओं से कबीलों की पंचायत, कबीलों के मुखिया सरदार और सरदारों की पंचायत देस की पंचायत, देस की पंचायत का मुखिया राजा। विद्वानों ने गणतन्तर को इस तरह कहा, कि जो राजतन्तर न हो और जिस में बंस परंपरा से बनने वाले राजा शासन न हो। बल्कि किसी भी और तरीके से जनता या जनता का कोई हिस्सा राज करने वालों की पंचायत को चुनता हो।
हे, पाठक!
भारतवर्ष गणतन्तर बना तो साथ ही यह भी घोषणा हो गई कि यह जनतन्तर होगा और देस के हर एक बालिग को वोट देने का अधिकार होगा। देस का राज महापंचायत करेगी, जिस के लिए हर खेत के बालिग अपना एक गण चुनेंगे। इन गणों के बहुमत का नेता महापंचायत का परधान होगा। हमने भारतवर्ष को गणतन्तर भी बना लिया और जनतंतर भी बना लिया। पर इस में भी भीतर ही भीतर वो सबी तन्तर पलते रह गए जिन को परदेसी के साथ ही सिधार जाना था। परदेसी चले गए, । देस में उन का राज चलाने वाले सब यहीं रह गए। परदेसी के जाने की हवा बनते ही उन ने कहना शुरू कर दिया था कि राज तो वे ही चलाएँगे, जो चलाना जानते हैं। उन को चुना न गया तो सुराज फेल हो जाना है। लोग झाँसे में आ गए, लोगों ने उन को ही चुनना शुरू कर दिया।
हे, पाठक!
इस तरह गणतन्तर में पुराने सब तन्तर जिन्दा रहे । वैसे ही, जैसे कंपनी ने पुरानी कार को चमका-चमकू के शो-रूम में खड़ी कर दी हो, और खरीद के नया रजिस्ट्रेशन नंबर ले कर इतरा रहे हों कि नए कार के मालिक हैं। बरस भर बाद जब अंदर के घिसे पुरजे जवाब देना शुरू करें तो पता लगे कि नयी कार नयी होती है और पुरानी पुरानी। पर करें तो क्या करें? जब तक नयी कार न लेंगे पुरानी से ही काम चलाना होगा। भारतवासी तीन-बीसी से पुरानी कार घसीट रहे हैं। नयी कार कब आएगी? यह भविष्य के गर्भ में है। कार की हर पाँच साल में सर्विस जरूरी है। पुरानी है तो बीच में जब भी झटके खाने लगती है तभी बरक्शॉ में खड़ी हो जाती है। इस बार कुछ ऐहतियात से चलाई गई तो झटके कम लगे, एक जोर का आया तो था पर वो साइकिल वाले की मदद से झेल लिया गया। फिलहाल पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में है।
आगे की कथा में पढि़ए क्या हो रहा है वहाँ पुरानी कार के संग।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
जैसे हरि अनंता, हरि कथा अनंता! वैसे ही जनतन्तर अनंता और जनतन्तर कथा अनंता! सकल परथी के भिन्न-भिन्न खंडों पर भाँत-भाँत के रूप,आकार और रंगों के कीट दृष्टिगोचर होते हैं, उन की जीवन शैली भी भाँत-भाँत की है। वैसे ही जनतन्तर भी देस-देस में भाँत-भाँत का होता है। जब भरतखंड के एक खंड को भारतवर्ष कहा गया तो उसे गणतन्तर भी घोषित कर दिया। सब कहते हैं कि गणतन्तर भरतखंड की प्राचीन परंपरा है। पर जानते कितने हैं? एक पाठक ने प्रश्न किया गणतन्तर और जनतन्तर में क्या भेद है?
हे, पाठक!
अब हम गणतन्तर और जनतन्तर भेद लिखते हैं। पहले के जमाने में देस में एक राजा हुआ करता था जो देस पर राज करता था। राज करना एक कला भी थी और सामर्थ्य भी, कला से ज्यादा सामर्थ्य थी। राजा को अपने देस पर और परजा पर नियंत्रण बना कर रखना पड़ता था। यह सब काम वह किसम किसम के लोगों के जरीए करता था। जिनमें मतरी, जागीरदार वगैरा हुआ करते थे। देस बड़ा हुआ तो सूबे भी होते थे और सूबेदार भी। राजा को हटाने का तरीका यही था कि देस में बगावत हो जाए, या दूसरा कोई राजा लड़ाई कर देस पर कब्जा कर ले। आम तौर पर राजा का बेटा ही अगला राजा हुआ करता था। इसी को राजतन्तर कहते थे। पुराने जमाने में भरतखंड के बहुत से देसों में गणतन्तर होते थे। यानी परिवारों के मुखियाओं की पंचायत, पंचायत के मुखियाओं से कबीलों की पंचायत, कबीलों के मुखिया सरदार और सरदारों की पंचायत देस की पंचायत, देस की पंचायत का मुखिया राजा। विद्वानों ने गणतन्तर को इस तरह कहा, कि जो राजतन्तर न हो और जिस में बंस परंपरा से बनने वाले राजा शासन न हो। बल्कि किसी भी और तरीके से जनता या जनता का कोई हिस्सा राज करने वालों की पंचायत को चुनता हो।
हे, पाठक!
भारतवर्ष गणतन्तर बना तो साथ ही यह भी घोषणा हो गई कि यह जनतन्तर होगा और देस के हर एक बालिग को वोट देने का अधिकार होगा। देस का राज महापंचायत करेगी, जिस के लिए हर खेत के बालिग अपना एक गण चुनेंगे। इन गणों के बहुमत का नेता महापंचायत का परधान होगा। हमने भारतवर्ष को गणतन्तर भी बना लिया और जनतंतर भी बना लिया। पर इस में भी भीतर ही भीतर वो सबी तन्तर पलते रह गए जिन को परदेसी के साथ ही सिधार जाना था। परदेसी चले गए, । देस में उन का राज चलाने वाले सब यहीं रह गए। परदेसी के जाने की हवा बनते ही उन ने कहना शुरू कर दिया था कि राज तो वे ही चलाएँगे, जो चलाना जानते हैं। उन को चुना न गया तो सुराज फेल हो जाना है। लोग झाँसे में आ गए, लोगों ने उन को ही चुनना शुरू कर दिया।
हे, पाठक!
इस तरह गणतन्तर में पुराने सब तन्तर जिन्दा रहे । वैसे ही, जैसे कंपनी ने पुरानी कार को चमका-चमकू के शो-रूम में खड़ी कर दी हो, और खरीद के नया रजिस्ट्रेशन नंबर ले कर इतरा रहे हों कि नए कार के मालिक हैं। बरस भर बाद जब अंदर के घिसे पुरजे जवाब देना शुरू करें तो पता लगे कि नयी कार नयी होती है और पुरानी पुरानी। पर करें तो क्या करें? जब तक नयी कार न लेंगे पुरानी से ही काम चलाना होगा। भारतवासी तीन-बीसी से पुरानी कार घसीट रहे हैं। नयी कार कब आएगी? यह भविष्य के गर्भ में है। कार की हर पाँच साल में सर्विस जरूरी है। पुरानी है तो बीच में जब भी झटके खाने लगती है तभी बरक्शॉ में खड़ी हो जाती है। इस बार कुछ ऐहतियात से चलाई गई तो झटके कम लगे, एक जोर का आया तो था पर वो साइकिल वाले की मदद से झेल लिया गया। फिलहाल पुरानी कार पाँच साला सर्विस के लिए बरक्शॉ में है।
आगे की कथा में पढि़ए क्या हो रहा है वहाँ पुरानी कार के संग।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
जो चमकाए देस उन को हम चमकाए देत : जनतन्तर कथा (14)
हे, पाठक!
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है। भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो, पर अब वह अपवाद ही नजर आता है। अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है। बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है। ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों। लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।
हे, पाठक!
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था। तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी। गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी। देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे। चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया। वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे। पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है। शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।
हे, पाठक!
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया। वह कह रही थी, हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे। देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया। शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे। जनता ने सोचा, हमारा काहे का फील गुड? हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते। बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।
हे, पाठक!
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली। बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था। चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी। लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया। अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे। वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया। लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली। उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया। लाठी भी न टूटी, और साँप भी मर गया। स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग। महापंचायत फिर चल निकली। पूरे पाँच साल गुजारे। हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।
हे, पाठक!
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई। उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती। यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता। वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम। आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है। कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।
आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है। भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो, पर अब वह अपवाद ही नजर आता है। अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है। बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है। ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों। लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।
हे, पाठक!
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था। तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी। गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी। देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे। चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया। वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे। पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है। शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।
हे, पाठक!
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया। वह कह रही थी, हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे। देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया। शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे। जनता ने सोचा, हमारा काहे का फील गुड? हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते। बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।
हे, पाठक!
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली। बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था। चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी। लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया। अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे। वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया। लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली। उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया। लाठी भी न टूटी, और साँप भी मर गया। स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग। महापंचायत फिर चल निकली। पूरे पाँच साल गुजारे। हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।
हे, पाठक!
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई। उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती। यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता। वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम। आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है। कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।
आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
पाँच बरस चल गया साँझे का चूल्हा : जनतन्तर-कथा (13)
हे, पाठक!
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई। इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए। तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी। तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया। लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा। बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था। कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता। पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था। फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए। और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी। आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है। पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।
हे, पाठक!
आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं। वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं। सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा। यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं। अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है। इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था। देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था। लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली। यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई। इस के अच्छे नतीजे भी आए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी। परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा। इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे। देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे। इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था। लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे। जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे। इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए। दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे। लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था। देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो। लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं। यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था। इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई। इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए। तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी। तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया। लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा। बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था। कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता। पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था। फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए। और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी। आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है। पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।
हे, पाठक!
आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं। वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं। सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा। यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं। अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है। इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था। देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था। लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।
हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली। यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई। इस के अच्छे नतीजे भी आए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी। परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा। इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे। देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे। इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था। लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे। जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे। इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए। दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे। लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था। देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो। लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं। यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था। इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
चालीस माह में महा-पंचायत के तीन चुनाव : जनतन्तर-कथा (12)
ग्यारहवीं महापंचायत पूरी तरह से ऐतिहासिक थी। वायरस पार्टी की सरकार तेरह दिन चली। विश्वास मत पर घंटों बहस हुई। बहस के बाद मतदान होता, उस से पहले ही सरकार ने हार मान ली। अरे भाई जब जानते थे कि सरकार नहीं बचा पाएँगे तो बनाई क्यों थी? अपनी समझ में कुछ नहीं आया। दो बातें समझ में आती हैं, एक तो यह कि शायद सरकार बनने के बाद रुतबे से ही कुछ मनसबदार टूट जाएँ, ट्राई मारने में क्या बुराई है। फिर ट्राई मारी गई और फेल हो गए। दूसरा यह कि जानते थे, सरकार न बचा पाएँगे। फिर भी 13 दिन का प्रधान होना क्या बुरा है? वह भी तब जब न्यौता मिला हो, इतिहास में तो दर्ज हो ही जाएँगे। एक तीसरा विकल्प और भी, कि इस से संसद में भाषण का अवसर तो मिलेगा। टीवी पर करोड़ों लोग एक साथ देखेंगे। कुछ नहीं तो प्रचार मिलेगा। खैर मकसद कुछ भी रहा हो। तेरह दिन की शहंशाही खत्म हो गई। भारतवर्ष ने तो एक दिन में चमड़े के सिक्के चलते देखे हैं, यह कौन सी नई बात हुई।
सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया। उसे प्रधान बनाया गया। वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा। पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था। किसान किसानी संभाल ले वही बहुत। लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब। बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ, पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ, लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे। बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।
फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी। पर देश हित में वह भी किया। पंचायत चुनाव जितना देर से होता देश के लिए अच्छा था, खरचा बचता था। उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका। अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई। बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।
बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा। तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला। पीछे के अनुभव काम आए। चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया। पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए। वह हाथ छुड़ा कर भाग ली। सरकार पर संशय खड़ा हो गया। पिछली बार विश्वास मत लेना था। इस बार अविश्वास मत का नंबर था। एक मत से सरकार पिट गई। फिर चुनाव हुए। इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे। दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था। दोनों ने वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया। तसल्ली हुई कि इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी। हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही, पर भागें नहीं। सरकार चलने लगी। वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था। पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे। आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।
सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया। उसे प्रधान बनाया गया। वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा। पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था। किसान किसानी संभाल ले वही बहुत। लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब। बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ, पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ, लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे। बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।
फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी। पर देश हित में वह भी किया। पंचायत चुनाव जितना देर से होता देश के लिए अच्छा था, खरचा बचता था। उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका। अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई। बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।
बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा। तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला। पीछे के अनुभव काम आए। चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया। पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए। वह हाथ छुड़ा कर भाग ली। सरकार पर संशय खड़ा हो गया। पिछली बार विश्वास मत लेना था। इस बार अविश्वास मत का नंबर था। एक मत से सरकार पिट गई। फिर चुनाव हुए। इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे। दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था। दोनों ने वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया। तसल्ली हुई कि इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी। हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही, पर भागें नहीं। सरकार चलने लगी। वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था। पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे। आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
तेरह दिन की सरकार : जनतन्तर-कथा (11)
हे, पाठक!
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रविवार, 12 अप्रैल 2009
नेता, स्टेरॉयड और बाजुओं की बल्लियाँ : जनतन्तर-कथा (10)
हे, पाठक!
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
बोफोर्स और मंडल-कमंडल : जनतन्तर-कथा (9)
हे, पाठक!
देश के वोट डालने वाले लोगों में से लगभग आधों ने जवानी पर भरोसा किया था। पर नेता के इरादे सही होने पर भी शायद वह अनुभव हीन था। मिले जुले बंद बाजार को खुले बाजार की ओर खींचने की कोशिशों के बीच तोपों का सौदा भारी पड़ा। जब खजाँची-सेनापति ही शहंशाह की नीयत पर शक करने लगे तो बाकी मनसबदार क्यों न सरकने लगें? उसे पद से हटाना ही मुनासिब! बाद में उस ने दरबार ही छोड़ दिया। कुछ और लोगों के साथ नई पार्टी बना ली और चुनाव जीत कर फिर से दरबार में जा बैठा। नीति यही कहती है कि जब कोई घर का भेदी बाहर आ जाए, तो घर ढहाने को सब उस के साथ होलें। सो सारे विपक्षी साथ हो लिए। इधर बाहर आधा-अधूरा पंचनद चैन नहीं लेने दे रहा था कि हमने पडौसी देश की आग में हाथ दे डाला। हाथ खींचना चाहा तो वापस खिंचा ही नहीं, वहीं पकड़ लिया गया।
वोटों से मिला जनता का समर्थन क्षण भंगुर होता है। वह वोट देते ही खिसक लेता है। वोट पाने वाला समझता है वह सिकंदर हो लिया, ऐसा होता नहीं है। घर के अंदर विरोध तो घर कमजोर, मुहल्ले के अखाड़ची रोज लंगोट घुमा जाएँ, ऐसे में अपना घर संभालने के बजाए पड़ौसी का झगड़ा सुलझाने को अपने लठैत वहाँ भेज दें और मंदिर-मस्जिद झगड़े का ताला खुलवा दें तो क्या होगा? वही नौजवान शहंशाह का हुआ। सारी जमातें एक हो गईं। यहाँ तक कि उत्तर-दक्खिन ध्रुव एक हो लिए। चुनाव में भारी मोर्चा लगा। फिर चुनाव की शतरंज बिछ गई। हाथी तो तोप प्रकरण ने मार लिए। घोड़े पड़ौसी के यहाँ लठैती में चले गए। अब ऊँटों के जरिए कहाँ तक बाजी संभलती।
नौ वीं लोक सभा के लिए नतीजे उलट गए। इस बार पेटी ने ताकत आधी से भी कम रहने दी। घर-भेदी को पंचों ने गद्दी पकड़ा दी। घर-भेदी पिछडों को आरक्षण की तरफदारी मंडल कर गया था। उस ने सारा जोर आरक्षण बढ़ाने में लगा दिया। इधर पंचों के इरादे ठीक न थे। ताकत के बल पर मंदिर-मस्जिद का झगड़ा निपटाने का प्रचार करना फायदे का सौदा लगा। कुछ पंच कमंडल ले कर जातरा पर निकल पड़े। दूसरे पंच के यहाँ पहुँचे तो उस ने जातरी को जेल पहुँचा दिया। आग में घी पड़ चुका था। पंचों की एकता छिन्न भिन्न हो गई। घर के भेदी का समय इतना ही था। दरारें दिखते ही कभी के युवा तुर्क जवान नेता की बैक्टीरिया पार्टी की तरफ झाँका, -तुम सहारा दो तो मैं भी तमन्ना पूरी कर लूँ? उन्हों ने अपनी हथेली लगा दी। युवा तुर्क गद्दी पर पहुँच गए। बड़ों की हथेली पर छोटों की गद्दी ज्यादा दिन नहीं टिकती। हथेली हिली कि गद्दी गिरी। यह हथेली जल्दी ही हिल गई। पाँच साल के चौथाई वक्त, सवा साल में ही दसवी महापंचायत के लिए रणभेरी बज गई।
आज कथा यहीं तक, लेकिन आगे जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया
हे, पाठक!
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
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