@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अगस्त 2013

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता

1985 में मैं ने अपने लिए पहला वाहन लूना खरीदी थी, दुबली पतली सी। लेकिन उस पर हम तीन यानी मैं, उत्तमार्ध और बेटी पूर्वा बैठ कर सवारी करते थे। स्कूटर के भाव ऊँचे थे और बजाज स्कूटर  आसानी से नहीं मिलता था। फिर पाँच सात साल उसे चला लेने के बाद एक विजय सुपर सैकण्ड हैंड खरीदा, उसे पाँच सात साल चलाने के बाद एक सेकण्ड हैंड बजाज सुपर से उसे बदल डाला। 2003 से मारूति 800 मेरे पास है। उसी साल बेटे के लिए एक हीरो होंडा स्पेंडर बाइक खरीदी थी जो इस साल निकाल दी उस के स्थान पर होंडा एक्टिवा स्कूटर ले लिया है।

ड़तीस साल पहले लूना खरीदी थी तो अपने घर से अदालत तक साढ़े छह किलोमीटर के सफर में बमुश्किल पाँच दस कारें रास्ते में दिखाई पडती थीं। दस साल पहले जब मारूति खरीदी तब अदालत परिसर में 11 बजे के बाद पहुँचने पर उसे पार्क करने की जगह आराम से मिलती थी। लेकिन अब हालत ये है कि अदालत परिसर के भीतर तो उसे पार्क करने के लिेए 10 बजे के पहले ही जगह नहीं रहती। यदि मैं 11 बजे के बाद अदालत पहुँचूँ तो अदालत के आसपास सड़क पर जो पार्किंग की जगह है वहाँ भी उसे पार्क करने की जगह नहीं मिलती मुझे अदालत से कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर अपनी कार पार्क करनी पड़ती है। पिछले दस वर्षों में बहुत तेजी से मोटर यानों की संख्या बढ़ी है।

2003 में मैं ने अपने एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। वे उस की फीस मुझे कार खरीदवाने में खर्च करना चाहते थे। मैं सकुचा रहा था कि इस कार के पेट्रोल का खर्च सहन कर पाउंगा या नहीं। हम डीलर के यहाँ पहुंचे मारूती 800 पसंद की और डीलर ने मात्र 500 रुपए जमा कर के कार हमें सौंप दी। बाकी सारा पैसा बैंक ऋण से डीलर के पास आ गया। हमें कार की कीमत का 20 प्रतिशत बैंक को देना था वह उन मित्र ने जमा कराया। उस वक्त आप की जेब में पाँच सौ रुपए हों तो आप नयी कार घर ला सकते थे। सरकार की नीतियों ने कार खरीदना इतना आसान कर दिया था। इस आसानी ने ग्राहक की इस संकोच को कि वह कार के रख रखाव का खर्च उठा पाएगा या नहीं दूर भगा दिया था। 

रकार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजि बैंकों और निजि फाइनेंसरों की इस कर्ज नीति ने मोटर यान खरीदना इतना आसान बना दिया था कि सड़कें कुछ ही सालों में इन वाहनों से पट गई। नगर में पार्किंग की जगह का अकाल हो गया। घरों में खरीदे गए वाहनों को रखने की जगह नहीं थी। इस कारण कालोनी की 20 से 40 फुट चौड़ी सड़कों पर रात-दिन भर वाहन खड़े नजर आने लगे। यहाँ तक कि कालोनी वासियों में पार्किंग को ले कर झगड़े होने लगे, पुलिस के पास मामले बढ़ने लगे, यहाँ तक कि इन झगड़ों में हत्याएँ होने के मामले भी अनेक नगरों में दर्ज हुए। खैर, पब्लिक का क्या? वह आपस में लड़ती-झगड़ती रहे तो देश के पूंजीपति शासकों को बहुत तसल्ली मिलती है कि उन की  लूट की कारगुजारियों पर तो लोगों की निगाह नहीं जाती।


मारा देश तेल का बहुत बड़ा उत्पादक नहीं है। उसे क्रूड बहुत बड़ी संख्या में आयात करना पड़ता है जो डालर में मिलता है। इस तरह देश को इन वाहनों के लिए क्रूड का आयात बढ़ाना पड़ा, उस के लिए डालर देने पड़े। हर साल डालर की जरूरत बढ़ने लगी। देश हर जायज नाजायज तरीकों से डालर लाता रहा। डालर की कीमत बढ़ती रही। हम ने 2005 से आज तक किस तरह क्रूड ऑयल का आयात बढ़ाया है इस सारणी में देखा जा सकता है।  


1986 में हमारा क्रूड का आयात 300 हजार बैरल प्रतिवर्ष के लगभग था। 1999 में यह 800 हजार बैरल, 2001 1600 हजार बैरल, 2007 में 2400 हजार बैरल, 2009 में 3200 बैरल तक पहुँच गया। इसी मात्रा में हमें डालर खरीद कर तेल के बदले देने पड़े। इन डालरों को खरीदने के लिए हमें अपना क्या क्या बेचना पड़ा है इस का हिसाब और अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। अब तो शायद बेचने के लिए हमारे पास मिथ्या सम्मान तक शायद ही बचा हो। देश के आजाद होने से जो थोड़ा सा स्वाभिमान हम ने अर्जित किया था वह तो हम कभी का बेच चुके हैं या गिरवी रख चुके हैं जिसे छुड़ाने की कूवत अभी दूर दूर तक पैदा होनी दिखाई नहीं देती। 

ब तक की सरकारों ने यदि देश में सार्वजनिक परिवहन को तरजीह दी होती तो हमें इतना क्रूड खरीदने की जरूरत नहीं होती न स्वाभिमान गिरवी रखना पड़ता और दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

सभी तरह के मीडिया के कर्मचारियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए

मीडियाकर्मियों को जिस तरह 300 और 60 की बड़ी संख्या में नौकरी से निकाला गया है उस से यह बात स्पष्ट होती है कि पूंजीवादी आर्थिक ढाँचे में कर्मचारियों और मजदूरों को कानूनी संरक्षण की आवश्यकता रहती है। इस आर्थिक ढाँचे में कभी भी कर्मचारी-मजदूर किसी संविदा के मामले में पूंजीपति के बराबर नहीं रखे जा सकते। अखबारों में काम करने वाले कर्मचारियों की सेवा शर्तों, कार्यस्थल की सुविधाओं, वेतनमान तय करने, वेतन और ग्रेच्यूटी भुगतान, तथा नौकरी से निकाले जाने के मामलों के नियंत्रण के लिए वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना हुआ है। लेकिन यह कानून सिर्फ न्यूजपेपर्स और न्यूजपेपर संस्थानों पर ही प्रभावी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे कर्मचारियों को किसी तरह का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है। इस कारण इस क्षेत्र के नियोजकों द्वारा मनमाने तरीके से नौकरी के वक्त की गई संविदा की मनमानी शर्तों के अन्तर्गत उन्हें संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इस कारण यह जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित संपूर्ण मीडिया संस्थानों को इस कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।

ज के जमाने में कर्मचारियों और श्रमिकों का संघर्ष केवल अपने मालिकों से नहीं रह गया है। कहीं मजदूर अपनी सेवा शर्तों की बेहतरी के लिए सामुहिक सौदेबाजी के तरीके अपनाते हैं तो सरकारी मशीनरी पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जा खड़ी होती है। इस तरह यह लड़ाई किसी एक मीडिया ग्रुप को चलाने वाले पूंजीपति के विरुद्ध न हो कर संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध हो जाती है जिस का प्रतिनिधिनित्व सरकारें अपने सारे वस्त्र त्याग कर करती हैं।

स कारण यह एक संस्थान के मीडिया कर्मियों का संघर्ष सम्पूर्ण मीडिया कर्मियों का और संपूर्ण मजदूर वर्ग का हो जाता है। इस संघर्ष में मजदूर वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने वाली सभी ट्रेड युनियनों और राजनैतिक दलों व समूहों को सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि इस बार बहुत से सफेद कालर इस दमन का शिकार हुए हैं। उन के ढुलमुल वर्गीय चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जा सकती हैं। लेकिन वह कर्मचारी वर्ग के आपसी संघर्ष का भाग होगा। इस लड़ाई में उन मुद्दों को हवा देना एक तरह से मालिकों की तरफदारी करना है।
अब लड़ाई छँटनी करने वाले मीडिया संस्थान के विरुद्ध तो है ही साथ के साथ सरकार के विरुद्ध भी होनी चाहिए। साथ के साथ संपूर्ण मीडियाकर्मियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की और विवादों के हल के लिए तेजगति से काम करने वाली मशीनरी की व्यवस्था करने की लड़ाई सीधे सरकार के विरुद्ध चलाई जानी चाहिए। मीडिया कर्मियों को इस लड़ाई में संपूर्ण श्रमिक कर्मचारी जगत को  अपने साथ लाने का प्रयास करना चाहिए।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

डॉ. धाभोलकर की इस हत्या रंग लाएगी, एक दिन दुनिया अंधश्रद्धा से निर्मूल अवश्य होगी।

महाराष्ट्र सरकार शीघ्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन कानून बनाए

अंधविश्वास और काले जादू के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने वाले डॉ. नरेन्द्र धाभोलकर पुणे स्थित अपने निवास से सुबह की सैर के लिए निकले थे कि औंकारेश्वर पुल के नजदीक मोटरसाइकिल पर सवार दो हमलावरों ने उनके सिर पर क़रीब से गोलियां दाग कर उन की हत्या कर दी। उन्हें देख कर लोगों ने उन्हें ससून अस्पताल पहुँचाया जहाँ उन की मृत्यु हो गई। पुणे के पुलिस आयुक्त गुलाबराव ने दाभोलकर की मौत की पुष्टि करते हुए बताया कि पुलिस हत्या के कारणों की जांच की जा रही है लेकिन अभी तक किसी हमलावर की पहचान नहीं हुई है।
देश और दुनिया भर के अंधश्रद्धा विरोधी और वैज्ञानिक विचार के समर्थक लोगों और उन के आन्दोलन को इस घटना से गहरा दुख पहुँचा है। अनेक राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने धाभोलकर की हत्या की कड़ी निंदा करते हुए उन्हें प्रगतिवादी सोच के लिए समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता बताया है। डॉ. धाभोलकर प्रगतिवादी सोच के लिए महाराष्ट्र में  विशेष रूप से काम कर रहे थे।
हाराष्ट्र के मुख्यमंत्री  पृथ्वीराज चव्हाण ने डॉ. धाभोलकर की हत्या की निंदा करते हुए उनके हत्यारों का सुराग बताने वाले को दस लाख रुपए इनाम की घोषणा की है। राज्य के गृह मंत्री आरआर पाटिल ने डॉ. धाभोलकर की हत्या पर क्षोभ और दुख व्यक्त करते हुए कहा कि पुलिस के शीर्ष अधिकारियों को इस मामले की तह में जाने का निर्देश दिया है। पुलिस ने बताया कि 69 साल के डॉ. धाभोलकर को कुल चार गोलियां मारी गई थीं जिनमें दो उनके सिर पर लगी थीं।
माज में व्याप्त अंधविश्वासों को खत्म करने और वैज्ञानिक चेतना जगाने के लिए चलाए जा रहे अभियान अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की अगुवाई कर रहे थे। साथ ही वे प्रगतिवादी विचारधारा की पत्रिका ‘साधना’ के संपादक भी थे। महाराष्टर के सतारा ज़िले के रहने वाले डॉ. धाभोलकर सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वास के ख़िलाफ क़ानून लाने के लिए महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधेयक लाने का प्रयास कर रहे थे लेकिन कुछ लोग उनकी इस मुहिम के ख़िलाफ थे। इस विधेयक में जिन कृत्यों को अपराध घोषित किए जाने का प्रस्ताव था वे निम्न प्रकार हैं …
  1. भूत उतारने के बहाने किसी व्यक्ति को, रस्सी या ज़ंजीर से बांधकर रखना, पीटना, लाठी या चाबुक से मारना, पादत्राण भिगाकर उसका पानी पिलाना, मिरची का धुआं देना, छत से लटकाना, रस्सी या बालों से बांधना, उस व्यक्ति के बाल उखाडना, व्यक्ति के शरीर पर या अवयवों पर गरम की वस्तु के दाग देकर हानि पहुँचाना, सार्वजनिक स्थान पर लैंगिक कृत्य करने की जबरदस्ती करना, व्यक्ति पर अघोरी कृत्य करना, मुँह में जबरदस्ती मूत्र या विष्ठा डालना या ऐसी कोई कृति करना।
  2. किसी व्यक्ति को तथाकथित चमत्कार कर उससे आर्थिक प्राप्ति करना और इसी प्रकार ऐसे तथाकथित चमत्कारों का प्रचार और प्रसार कर लोगों को फंसाना, ठगना अथवा उन पर दहशत निर्माण करना।
  3. अतिन्द्रीय शक्ति की कृपा प्राप्त करने के लिए ऐसी अघोरी प्रथाओं का अवलंब करना जिन से जान का खतरा होता हो या शरीर को प्राणघातक जख्म होते हों; और ऐसी प्रथाओं का अवलंब करने के लिए औरों को प्रवृत्त करना, उत्तेजितकरना या उन के साथ जबरदस्ती करना।
  4. मूल्यवान वस्तु, गुप्त धन, जलस्रोत खोजने के बहाने या तत्सम कारणों से करनी, भानामति इत्यादि नामों से कोई भी अमानुष कृत्य करना या ऐसे अमानुष कृत्य करने और जारणमारण अथवा पर नरबलि देना या देने का प्रयास करना, या ऐसे अमानुष कृत्य करने की सलाह देना, उसके लिए प्रवृत्त करना, अथवा प्रोत्साहन देना।
  5. अपने भीतर अतींद्रिय शक्ति है ऐसा आभास निर्माण कर अथवा अतींद्रिय शक्ति संचरित होने का आभास निर्माण कर औरों के मन में भय निर्माण करना या उस व्यक्ति का कहना न मानने पर बुरे परिणाम होने की धमकी देना।
  6. कोई विशिष्ट व्यक्ति करनी करता है, काली विद्या करता है, भूत लगाता है, मंत्र-तंत्र से जानवरों की दूध देने की क्षमता समाप्त करता है, ऐसा बताकर उस व्यक्ति के बारे में संदेह निर्माण करना, इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपशकुनी है, रोग फैलने का कारण इत्यादि बताकर या आभास निर्माण कर संबंधित व्यक्ति का जीना मुश्किल करना, कष्टमय करना या कठिन करना, कोई व्यक्ति शैतान या शैतान का अवतार है, ऐसा घोषित करना।
  7. जारणमारण, करनी या टोटका करने का आरोप लगा कर किसी व्यक्ति के साथ मारपीट करना, उसे नग्नावस्था में घुमाना या उसके रोज के व्यवहार पर पाबंदी लगाना।
  8. मंत्र की सहायता से भूत-पिशाचों का आव्हान कर या आव्हान करने की धमकी देकर लोगों के मन में घबराहट निर्माण करना, मंत्र-तंत्र अथावा तत्सम बातें बनाकर किसी व्यक्ति को विष-बाधा से मुक्त करने का आभास निर्माण करना, शारीरिक हानि (क्षति) होने के लिए भूत या अमानवी शक्ति का कोप होने का आभास करा देना, लोगों को वैद्यकीय उपचार लेने से रोककर, उसके बदले उन्हें अघोरी कृत्य या उपाय करने के लिए प्रवृत्त करना अथवा मंत्र-तंत्र (टोटका) जादूटोना अथवा अघोरी उपाय करने का आभास निर्माण कर लोगों को मृत्यु का भय दिखाना, पीडा देना या आर्थिक अथवा मानसिक हानि पहुँचाना।
  9. कुत्ता, साँप, बिच्छु आदि के काटे व्यक्ति को वैद्यकीय उपचार लेने से रोककर या प्रतिबंध कर, उसके बदले, मंत्र-तंत्र, गंडा-धागा आदि अन्य उपचार करना।
  10. उंगली से शस्त्रक्रिया कर दिखाता हूँ ऐसा दावा करना या गर्भवती स्त्री के गर्भ का लिंग बदल कर दिखाता हूँ ऐसा दावा करना।
  11. (क) स्वयं में विशेष शक्ति होने या किसी का अवतार होने या स्वयं पवित्र आत्मा होने का आभास निर्माण कर या उसके बातों में आई व्यक्ति को पूर्वजन्म में तू मेरी पत्नी, पति या प्रेयसी, प्रियकर था ऐसा बताकर, उस व्यक्ति के साथ लैंगिक संबंध रखना।
    (ख) संतान न होनेवाली स्त्री को अतींद्रिय शक्ति द्वारा संतान होने का आश्वारसन देकर उसके साथ लैंगिक संबंध रखना।
  12. मंद बुद्धि के (mentally retarded) व्यक्ति में अतींद्रिय शक्ति है ऐसा अन्य लोगों के मन में आभास निर्माण कर उस व्यक्ति का धंधे या व्यवसाय के लिए प्रयोग करना।
डॉ. धाभोलकर की इस हत्या से वैज्ञानिक विचारधारा के सभी समर्थक अत्यन्त हतप्रभ हैं। लेकिन यह वैज्ञानिक विचारधारा के समर्थन में अभियान चलाने वालों के जीवन समाप्त कर देने के प्रयासों का पहला अवसर नहीं है। इतिहास में ऐसा होता आया है। लेकिन इस के बावजूद मनुष्य का अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने का प्रयास कभी रुका नहीं, वह और बलवान हो कर आगे बढ़ता रहा। अब भी इस घटना से यह अभियान रुकने वाला नहीं है वह और मजबूत हो कर आगे बढ़ेगा। हम इस अभियान को निरंतर आगे बढ़ाएंगे। एक दिन अवश्य होगा जब दुनिया अंधश्रद्धा से निर्मूल होगी।
“तीसरा खंबा” और “अनवरत” डॉ. धाभोलकर की इस हत्या कि कड़ी निन्दा करते हैं। उन्हें उन के अथक प्रयासों के लिए सलाम करते हैं। हम आव्हान करते हैं कि वैज्ञानिक विचार के पक्षधर लोग एकजुट हों और अपने अपने क्षेत्र में इस अभियान को सक्रिय हो कर गति प्रदान करें।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

अर्जेंटीना की मेहरबानी से भारत को विश्वकप में प्रवेश का अवसर ...बीजी जोशी

विश्व कप में प्रवेश के लिए एशिया कप जीतना जरूरी नहीं

जायंट किलर अर्जेंटीना ने चौथे पैनअमेरिकी हॉकी कप के फाइनल में कनाडा को ४-० से रौंद कर भारत के विश्व कप हॉकी में खेलने की संभावनाएं बढाई है। अब भारत को २४ अगस्त से इपोह में शुरू हो रहा ९वां एशिया कप जीतना जरूरी नही रहा है।

जकल हॉकी विश्व कप में दो विश्व कप क्वालिफायर (वर्ल्ड लीग सेमीफाइनल) में प्रथम तीन स्थान पर रही टीमें, मेजबान व पांचों महाद्वीप के चैंपियन सहित १२ स्थान है। जर्मनी, अर्जेंटीना, इग्लैंड ने मलेशिया में खेले गए तथा बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स ने नीदरलैंड्स में आयोजित क्वालिफायर से अपने पग विश्व कप में रख दिए है। क्वालिफायर में चौथे क्रम पर रही न्यूजीलैंड ने मेजबान नीदरलैंड्स की जगह प्राप्त कर ली है। वर्ल्ड लीग स्पर्धा में अर्जित रैंकिंग के आधार पर दक्षिण कोरिया, स्पेन, मलेशिया व भारत क्रमशः विश्व कप हेतु वेटिंग लिस्ट में है। 

अर्जेंटीना ने भारत की राह आसान की

पूर्व में ही विश्व कप में पहुंच चुकी अर्जेंटीना की जगह अब दक्षिण कोरिया को मिल गई है। ऐसे में योरप, ऑस्ट्रेलिया कप में पूर्व में ही विश्व कप में पहुंच चुकी टीम के विजेता बनने पर स्पेन व मलेशिया को मौका मिलेगा। अब इपोह एशिया कप में सूत्र है दक्षिण कोरिया या मलेशिया के जीतने पर भी भारत स्वतः ही विश्व कप में खेलेगा, हां पाकिस्तान द्वारा एशिया कप जीतने पर भारत विश्व कप से बाहर हो जाएगा। अर्जेंटीना ने मांट्रियल ओलिंपिक (१९७६) में ऑस्ट्रेलिया को हरा कर भारत को सेमीफाइनल का मौका दिया था। तब प्लेऑफ में भारत टाईब्रेकर में ऑस्ट्रेलिया से हार कर स्वर्णिम अवसर खो बैठा था। विदित है कि कुआलालंपुर (१९७५) में विश्व कप विजयी भारतीय टीम को अर्जेंटीना ने पुल मैच में हराया था। आज अमेरिकी हॉकी कप में कनाडा को हरा कर भारत की विश्व कप राह में फूल बिछा दिए है। 

-बीजी जोशी

शनिवार, 10 अगस्त 2013

क्या लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही नहीं चाहते हैं?

म लोग आम भाषा में बात करते हैं। भारत में रावण बुराइयों का प्रतीक है। लेकिन आम लोग आप को उस की बढ़ाई करते मिल जाएंगे। यह कहते हुए मिल जाएंगे कि वह बहुतों से अच्छा था। लेकिन जब वे इस तरह की बात करते हैं तो वे रावण के किसी एक गुण की बात कर रहे होते हैं जो तुलना किए जाने वाले व्यक्तित्व में नहीं होता। या वे उस दुर्गुण की बात कर रहे होते हैं जो रावण में नहीं था और आज कल के नेताओं में होता है। मसलन रावण ने सीता का अपहरण तो किया लेकिन उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाने की तो क्या उस के निकट आने की कोशिश तक नहीं की। वह भय और प्रीत दिखा कर ही सीता को अपना बनाने के प्रयत्न करता रहा। खैर! यह तो एक मिथकीय चरित्र था। लेकिन आम लोग सामान्य जीवन में क्रूरतम शासकों की तारीफ भी करते दिखाई दे जाते हैं। 
मेरे एक पड़ौसी अक्सर आज के जनतंत्र के मुकाबले राजाओं और अंग्रेजों के राज की तारीफ करते नहीं थकते थे। मुझे लगता था कि वे सिरे से ही जनतंत्र के विरुद्ध हैं और मैं उन से अक्सर बहस में उलझ जाता था। लेकिन धीरे धीरे मुझे पता लगा कि वे वास्तव में जनतंत्र के विरुद्ध नहीं हैं। लेकिन इस जनतंत्र के नाम पर जो छद्म चल रहा है, जिस तरह पूंजीपति-भूस्वामी एक वर्ग की तानाशही चल रही है और जिस तरीके से सत्ता में बने रहने के लिए इन वर्गों की पार्टियाँ और उन के नेता जनता को बेवकूफ बनाते हैं उस के वे सख्त खिलाफ थे और चाहते थे कि कानून का राज होना चाहिए न कि व्यक्तियों का। कानून का व्यवहार सब के साथ समान होना चाहिए। यदि अतिक्रमियों के विरुद्ध कार्यवाही हो तो सब के विरुद्ध समान रूप से हो न कि कुछ के विरुद्ध हो जाए और बाकी लोगों को छोड़ दिया जाए। 
स तरह के लोग वास्तव में यह प्रकट कर रहे होते हैं कि जनतंत्र तो ठीक है,  लेकिन आम जनता के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले लोगों और कानून का पालन न करने वाले लोगों के विरुद्ध तानाशाह जैसी सख्ती बरतनी चाहिए। लेकिन वे इसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाते और इतिहास के बदनाम तानाशाहों का हवाला दे कर कहने लगते हैं कि इन शासकों से तो वही अच्छा था। साधारण और गैर राजनैतिक लोगों से यह चूक इस कारण से होती है कि वे शासन के वर्गीय चरित्र और जनतांत्रिक पद्धति में सरकारों की भूमिका को नहीं समझ पाते। हम उन्हें इस चीज को समझाने के स्थान पर उन से बहस में उलझ पड़ते हैं। 
ज ही फेसबुक पर मेरे एक सूत्र पर टिप्पणी करते हुए राज भाटिया जी ने टिप्पणी कर दी कि "चोर लुटेरो से तो अच्छा हिटलर ही हे..." तब मैं ने उस का तुरन्त प्रतिाद किया कि "राज जी, आप गलत हैं, वह किसी से अच्छा न था। इंसानियत के नाम पर कलंक था।" मैं उन से इस बात पर वहाँ बहस नहीं करना चाहता था, क्यों कि मैं समझ रहा था कि राज जी हिटलर को अच्छा बता कर क्या कहना चाहते थे। लेकिन फिर मसिजीवी जी ने टिप्पणी की- "जरा बताए कि हिटलर चोर-लुटेरों या किसी से भी कैसे अच्‍छा हो सकता है ? खेद है कि आपका कथन शर्मनाक है।"
इस पर राज जी नाराज हो गए उन्हों ने टिप्पणी की -"जी आप को कोई अधिकार नही मुझ से प्रशन करने का, आप जैसे हालात मे खुश हे भगवान आप को उन्ही हालात मे रखे..."
राज जी ने उस के बाद मेरी टिप्पणी का उत्तर भी दिया "दिनेशराय द्विवेदी मानता हू आप की बात हिटलर इंसानियत के नाम पर कलंक हे, लेकिन उसे वहां तक लाया कोन था..? उसे वो सब करने पर मजबुर किस ने किया।....गंदी को साफ़ करने के लिये गंदी मे उतरना पडता हे, तो लोग उसे ही गंदा कहते हे, पहले सोचे वो इतना नीच कैसे हो गया... जो आम आदमी था." खैर!
स पोस्ट की बात छोडें। अपनी बात पर आएँ। वास्तव में लोग जनतंत्र भी चाहते हैं और जनहित के विरुद्ध काम कर रहे तत्वों पर सख्त तानाशाही भी। लेकिन जिस तरह का तंत्र वे चाहते हैं उसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पातेष उस के लिए उन के पास उदाहरण भी नहीं हैं। वैसे हालातों में वे बदनाम और क्रूर तानाशाहों तक का उदाहरण दे बैठते हैं। 
हाँ तक मैं समझता हूँ कि वे यह चाहते हैं कि आम श्रमजीवी जनता के लिए जनतंत्र होना चाहिए लेकिन उन्हें समाज के नियम और कानून के साथ चलाने के लिए सख्ती भी चाहिए। मौजूदा पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग राजनेताओं और नौकरशाहों को भ्रष्ट कर के जिस तरह से अपनी तानाशाही चलाता है उस से निजात भी चाहिए वह निजात इन वर्गों पर तानाशाही के चलते ही संभव हो सकती है। वस्तुतः ऐसे लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही चाहते हैं। जिस में आम श्रमजीवी जनता को लोकतांत्रिक अधिकार मिलें, लेकिन उन्हें अनुशासित रखने के लिए सख्ती भी हो साथ ही पूंजीपति-भूस्वामियों के लुटेरे वर्गों और उन के सहयोगी राजनेताओं व नौकरशाहों पर तानाशाही भी हो।

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

वानर के नर बनने में श्रम की भूमिका - फ्रेडरिक एंगेल्स

मनुष्य के हाथ श्रम की उपज हैं।

र्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त संपदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत है, लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे वह सामग्री प्रदान करती है जिसे श्रम संपदा में परिवर्तित करता है। पर वह इस से भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे मानव-अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है, और इस हद तक प्रथम मौलिक शर्त है कि एक अर्थ में हमें यह कहना होगा कि स्वयं मानव का सृजन भी श्रम ने ही किया। 
लाखों वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के भू-विज्ञानियों द्वारा तृतीय कहे जाने वाले महाकल्प की एक अवधि में, जिसे अभी ठीक निश्चित नहीं किया जा सकता है, पर जो संभवतः इस तृतीय महाकल्प का युगांत रहा होगा, कहीं ऊष्ण कटिबंध के किसी प्रदेश में -संभवत- एक विशाल महाद्वीप में जो अब हिंद महासागर में समा गया है -मानवाभ वानरों की विशेष रूप से अतिविकसित जाति रहा करती थी। डार्विन ने हमारे इन पूर्वजों का लगभग यथार्थ वर्णन किया है। उन का समूचा शरीर बालों से ढका रहता था,  उन के दाढ़ी और नुकीले कान थे,  और वे समूहों में पेड़ों पर रहा करते थे।
संभवतः उन की जीवन-विधि,  जिस में पेड़ों पर चढ़ते समय हाथों और पावों की क्रिया भिन्न होती है, का ही यह तात्कालिक परिणाम था कि समतल भूमि पर चलते समय वे हाथों का सहारा कम लेने लगे और अधिकाधिक सीधे खड़े हो कर चलने लगे। वानर से नर में संक्रमण का यह निर्णायक पग था। 
सभी वर्तमान मानवाभ वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और पैरों के बल चल सकते हैं, पर तभी जब सख्त जरूरत हो, और बड़े भोंडे ढंग से ही। उन के चलने का स्वाभाविक ढंग आधा खड़े हो कर चलना है, और उस में हाथों का इस्तेमाल शामिल होता है। इन में से अधिकतर मुट्ठी की गिरह को जमीन पर रखते हैं, और पैरों को खींच कर शरीर को लम्बी बाहों के बीच से झुलाते हैं, जिस तरह लंगड़े लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं। सामान्यतः वानरों में हम आज  भी चौपायों की तरह चलने से ले कर पांवो पर चलने के बीच की सभी क्रमिक मंजिलें देख सकते हैं। पर उन में से किसी के लिए भी पावों के सहारे चलना एक आरज़ी तदबीर से ज्यादा कुछ नहीं है।

मारे लोमश पूर्वजों में सीदी चाल के पहले नियम बन जाने और उस के बाद अपरिहार्य बन जाने का तात्पर्य यह है कि बीच के काल में हाथों के लिए लगातार नए नए काम निकलते गए होंगे। वानरों तक में हाथों और पांवो के उपयोग में एक विभाजन पाया जाता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, चढ़ने में हाथों का उपयोग पैरों से भिन्न ढंग से किया जाता है। जैसा कि निम्न जातीय स्तनधारी जीवों में आगे के पंजे के इस्तेमाल के बारे में देखा जाता है, हाथ प्रथमतः आहार संग्रह, तता ग्रहण के काम आते हैं। बहुत से वानर वृक्षों में अपने लिए डेरा बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते हैं अथवा चिंपाजी की तरह वर्षा-धूप से रक्षा के लिए तरुशाखाओं के बीच छत सी बना लेते हैं। दुश्मन से  बचाव के लिए वे अपने हाथों से डण्डा पकड़ते हैं या दुश्मनों पर फलों अथवा पत्थरों की वर्षा करते हैं। बंदी अवस्था में वे मनुष्यों के अनुकरण से सीखी गई सरल क्रियाएँ अपने हाथों से करते हैं। लेकिन ठीक यहीं हम देखते हैं कि मानवाभ से मानवाभ वानरों के अविकसित हाथ और लाखों वर्षों के श्रम द्वारा अति परिनिष्पन्न मानव हाथ सैंकड़ों ऐसी क्रियाएँ संपन्न कर सकते हैं जिन का अनुकरण किसी भी वानर के हाथ नहीं कर सकते। किसी भी वानर के हाथ पत्थर की भोंडी छुरी भी आज तक नहीं गढ़ सके हैं।
तः आरंभ में वे क्रियाएँ अत्यंत सरल रही होंगी, जिन के लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से नर में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। फिर भी निम्नतम प्राकृत मानव भी वे प्राकृत मानव भी जिन  में हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उस के साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ हैं। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी जिस की तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णयक पग उठाया जा चुका था। हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिकाधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था। तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत हेती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी। 
तः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं हैं, वह श्रम की उपज भी है। श्रम के द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, स्नायुओं- और दीर्घतर अवधियों में हड्डियों-के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही, तथा इस वंशागत पटुता के नए, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं मे नित पुनरावृत्त उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्नता प्राप्त की है जिस की बदौलत राफ़ायल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागनीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सका।

मनुष्य के वाक् और मस्तिष्क का विकास

रन्तु हाथ अपने आप में ही अस्तित्वमान न था। वह तो एक पूरी अति जटिल शरीर-व्यवस्था का एक अंग मात्र था। और जिस चीज से हाथ लाभान्वित हुआ, उस से वह पूरा शरीर भी लाभान्वित हुआ जिस की हाथ खिदमत करता था। यह दो प्रकार से हुआ।
हली बात यह कि शरीर उस नियम के परिणामस्वरूप लाभान्वित हुआ जिसे डार्विन विकास के अंतःसंबंध का नियम कहते थे। इस नियम के अनुसार किसी जीव के अलग-अलग अंगों के विशेष रूप से उन से असंबद्ध अन्य अंगों के कतिपय रूपों के साथ आवश्यक तौर पर जुड़े हुए होते हैं। जैसे, उन सभी पशुओं में, जिन में कोशिका केंद्रकों के बिना लाल रक्त कोशिकाएँ होती हैं और जिन में सिर का पृष्ठ भाग दुहरी संधि (अस्थिकंद) के द्वारा प्रथम कशेरूक के साथ जुड़ा होता है, निरपवाद रूप में अपने बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी होती हैं। इसी तरह जिन स्तनधारी जीवों में अलग-अलग खुर पाया जाता है। कतिपय रूपों में परिवर्तन के साथ शरीर के अन्य भागों में भी परिवर्तन होते हैं, यद्यपि इस सह-संबंध की हम कोई व्याख्या नहीं कर सकते। नीली आँखों वाली बिल्कुल सफेद बिल्लियाँ सदा, प्रायः बहरी होती हैं। मानव हाथ के शनैः शनैः अधिकाधिक परिनिष्पन्न होने और उसी अनुपात में पैरों को सीधी चाल के लिए अनुकूलित होने की, इस अंतः सबंध के नियम की बदौलत, निस्संदिग्ध रुप से शरीर के अन्य भागों में प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, पर इस क्रिया की अभी इतनी कम जाँच पड़ताल की गई है कि हम यहाँ तथ्य को सामान्य शब्दों में प्रस्तुत करने से अधिक कुछ नहीं कर सकते। 
स से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है शेष शरीर पर हाथ के विकास की प्रत्यक्ष दृश्यमान प्रतिक्रिया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हमारे पूर्वज, मानवाभ वानर, यूथचारी थे। प्रकट है कि सब से अधिक सामाजिक पशु-मनुष्य-का व्युत्पत्ति संबंध किन्हीं अयूथचारी निकटतम पूर्वजों से स्थापित करने की चेष्टा असम्भव है। हात के विकास के साथ, श्रम के साथ आरंभ होने वाली प्रकृति पर विजय ने प्रत्येक अग्रगति के साथ मानव के क्षितिज को व्यापक बनाया। मनुष्य को प्राकृतिक वस्तुओं के नए नए और अब तक अज्ञात गुणधर्मों का लगातार पता लगता जा रहा था। दूसरी ओर, श्रम के विकास ने पारस्परिक सहायता, सम्मिलित कार्यकलाप के उदाहरणों को बढ़ा कर और प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस सम्मिलित कार्य कलाप की लाभप्रदता स्पष्ट कर के समाज के सदस्यों को एक दूसरे के निकटतर लाने में आवश्यक रूप से मदद दी। संक्षेप में, विकसित होते मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ उन्हें एक दुसरे से कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगी। इस वाक्-प्रेरणा से धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से काया पलट हुआ, जिस से कि लगातार और भी विकसित मूर्च्छना पैदा हो, और मुख के प्रत्यंग एक-एक कर नयी-नयी संहित ध्वनियों का उच्चारण करना धीरे-धीरे सीखते गए।  

शुओं के साथ तुलना करने से सिद्ध हो जाता है कि यह व्याख्या ही एकमात्र सही व्याख्या है कि श्रम से और श्रम  के साथ भाषा की उत्पत्ति हुई। अधिक से अधिक विकसित पशु भी एक दूसरे से बात करने की अपनी अतिस्वल्प आवश्य़कता संहित वाणी की सहायता के बिना ही पूरी कर सकते हैं। प्राकृतिक अवस्था में मानव वाणी न बोल सकने अथवा न समझ सकने के कारण कोई पशु दिक्क़त नहीं महसूस करता। किन्तु मनुष्य द्वारा पालतू बना लिए जाने पर बात बिल्कुल और ही होती है। मानव संगति के कारण कुत्तों और घोड़ों में संहित वाणी ग्रहण करने की ऐसी शक्ति विकसित हो जाती है कि वे, अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर किसी भी भाषा को समझ लेना आसानी से सीख लेते हैं। इस के अतिरिक्त उन्हों ने मानव के प्रति प्यार और कृतज्ञता जैसे आवेग-जो पहले उन के लिए एकदम अनजान थे-महसूस करने की क्षमता विकसित कर ली है। ऐसे जानवरों से अधिक लगाव रखनेवाला कोई भी व्यक्ति यह माने बिना शायद ही रह सकता है कि ऐसे कितने ही जानवरों की मिसालें मौजूद हैं जो अब यह महसूस करते हैं कि उन का बोल न सकना एक ख़ामी है, यद्यपि उन के स्वरांगों के ख़ास दिशा में अति विशेषीकृत होने के कारण यह ख़ामी दुर्भाग्यवश अब दूर नहीं की जा सकती। पर जहाँ ये अंग मौजूद हैं, वहाँ कुछ सीमाओं के भीतर यह असमर्थता भी मिट जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि पक्षियों के मुखांग मनु्ष्य के मुखांगों से अधिकतम भिन्न होते हैं, फिर भी पक्षी ही एक मात्र जीव हैं जो बोलना सीख लेते हैं। और सब से कर्कश स्वर वाला पक्षी-तोता सब से अच्छा बोल सकता है। यह आपत्ति नहीं की जानी चाहिए कि तोता जो बोलता है, उसे समझता नहीं है। यह सही है कि मानवों के साथ रहने और बोलने के सुख मात्र के लिए तोता लगातार घंटों टाँय टाँय करता जाएगा और अपना संपूर्ण शब्द भंडार लगातार दुहराता रहेगा। पर अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर वह जो बोलता है उसे समझना भी सीख सकता है। किसी तोते को इस तरह से गालियाँ बोलना सिखा दीजिए कि उसे इन के अर्थ का थोड़ा आभास हो जाए (उष्ण देशों की यात्रा करने वाले जहाजियों का यह एक प्रिय मनोरंजन का साधन है), इस के बाद उसे छेड़िए। आप देखेंगे कि वह इन गालियों का बर्लिन के कुंजड़ों के समान ही सटीक उपयोग करेगा। ऐसा ही छोटी-मोटी चीजें मांगना सिखा देने पर भी होता है। 

हले श्रम, उस के बाद और उस के साथ वाणी-ये ही दो सब से सारभूत उद्दीपनाएँ थीं जिन के प्रभाव से वानर का मस्तिष्क धीरे-धीरे मनुष्य के मस्तिष्क में बदल गया, जो सारी समानता के बावजूद वानर के मस्तिष्क से कहीं बड़ा और अधिक परिनिष्पन्न है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही उस के सब से निकटस्थ करणों, ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ। जिस तरह वाणी के क्रमिक विकास के साथ अनिवार्य रूप से श्रवणेंद्रियों का तदनुरूप परिष्कार होता है, ठीक उसी तरह से समग्र रूप में मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ सभी ज्ञानेन्द्रियों का परिष्कार होता है। उक़ाब मनुष्य से कहीं अधिक दूर तक देख सकता है, परन्तु मनुष्य की आँखें चीजों में बहुत कुछ ऐसा देख सकती हैं कि जो उक़ाब की आँखें नहीं देख सकतीं। कुत्ते में मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र घ्राणशक्ति होती है, परन्तु वह उन गंधों के सौवें भाग की भी अनुभूति नहीं कर सकता जो मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं की द्योतक होती हैं।  और स्पर्श शक्ति, जो कच्चे से कच्चे आरंभिक रूप में भी वानर के पास भी मुश्किल से ही होती है, केवल श्रम के माध्यम से स्वयं मानव हाथ के विकास के संग ही विकसित हुई है। 
स्तिष्क और उस के सहवर्ती ज्ञानेन्द्रियों के विकास, चेतना की बढ़ती स्पष्टता, विविक्त विचारणा तथा विवेक की शक्ति की प्रतिक्रिया ने श्रम और वाणी दोनों को ही और विकास करते जाने की नित नवीन उद्दीपना प्रदान की। मनुष्य के अंतिम रूप से वानर से भिन्न हो जाने के साथ इस विकास का समाप्त होना तो दूर रहा, वह प्रबल प्रगति ही करता गया। हाँ, विभिन्न जनगण और विभिन्न कालों में इस विकास की मात्रा और दिशा भिन्न-भिन्न रही है। जहाँ-तहाँ स्थानीय अथवा अस्थाई पश्चगमन के कारण उस में व्यवधान भी पड़ा। पूर्ण विकसित मानव के उदय होने के साथ एक नए तत्व, अर्थात समाज के मैदान में आ जाने से इस विकास को एक और अग्रगति की प्रबल प्रेरणा मिली और दूसरी ओर अधिक निश्चित दिशाओं में पथनिर्देशन प्राप्त हुआ।
 

वानर से नर और लुटेरी अर्थव्यवस्था से पशुपालन तक

पेड़ों पर चढ़ने वाले एक वानर-दल से मानव-समाज के उदित होने से निश्चय ही लाखों वर्ष - जिन का पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य-जीवन के एक क्षण से अधिक महत्व नहीं है, गुजर गए होंगे। परन्तु उस का उदय हो कर रहा। और यहाँ फिर वानर-दल एवं मानव-समाज मं हम क्या विशेष अंतर पाते हैं? अन्तर है, श्रम । वानर-दल अपने लिए भौगोलिक अवस्थाओं द्वारा अथवा पास-पड़ौस के अन्य वानर-दलों के प्रतिरोध द्वारा निर्णीत आहार-क्षेत्र में ही आहार प्राप्त कर के ही संतुष्ट था। वह नए आहार-क्षेत्र प्राप्त करने के लिए नयी जगहों में जाता था और संघर्ष करता था। परन्तु ये आहार क्षेत्र प्रकृत अवस्था में उसे जो कुछ प्रदान करते थे, उस से अधिक इन से कुछ प्राप्त करने की उस में क्षमता न थी। हाँ, उस ने अचेतन रूप से अपने मल-मूल द्वारा ही मिट्टी को उर्वर अवश्य बनाया। सभी संभव आहार क्षेत्रों पर वानर-दलों द्वारा कब्जा होते ही वानरों की संख्या अधिक से अधिक यथावत रह सकती थी। परंतु सभी पशु बहुत-सा आहार बरबाद करते हैं, इस के अतिरिक्त वे खाद्य पूर्ति की आगामी पौध को अंकुर रूप में ही नष्ट कर देते हैं। शिकारी अगले वर्ष मृग-शावक देने वाली हिरणी को नहीं  मारता, परन्तु भेड़िया उसे मार डालता है। तरु-गुल्मों के बढ़ने से पहले ही उन्हें चर जाने वाली यूनान की बकरियों ने देश की सभी पहाड़ियों की नंगा बना दिया है। पशुओं की यह लुटेरू अर्थव्यवस्था उन्हें सामान्य खाद्यों के अतिरिक्त अन्य खाद्यों को अपनाने को मजबूर कर के पशु-जातियों के क्रमिक रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्यों कि उस की बदौलत उन का रक्त भिन्न रासायनिक संरचना प्राप्त करता है और समूचा शारीरिक गठन क्रमशः बदल जाता है। दूसरी ओर पहले कायम हो चुकने वाली जातियाँ धीरे-धीरे विनष्ट हो जाती हैं। इस में कोई संदेह नहीं है कि इस लुटेरू अर्थ व्यवस्था ने वानर से मनुष्य में हमारे पूर्वजों के संक्रमण में प्रबल भूमिका अदा की है। 
बुद्धि और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था। हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं, परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज, वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज इस का महत्व नहीं रह गया है।  
मांसाहार के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा पचा हुआ  भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के लिए उन का भारी महत्व है।
 

श्रम - मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर

भारतीय प्राचीन आवास (मोहेन्जोदड़ो)
जिस तरह मनुष्य ने सभी भक्ष्य वस्तुओं को खाना सीखा, उसी तरह उस ने किसी भी जलवायु में रह लेना भी सीखा। वह समूची निवास योग्य दुनिया में फैल गया। वही एक मात्र पशु ऐसा था जिस में खुद-ब-खुद ऐसा करने की क्षमंता थी। अन्य पशु-पालतू जानवर और कृमि-अपने आप नहीं, बल्कि मनुष्य का अनुसरण कर ही सभी जलवायुओं के अभ्यस्त बने। और मानव द्वारा एक समान गरम जलवायु वाले अपने मूल निवास स्थान से ठण्डे इलाकों में स्थानान्तरण से, जहाँ वर्ष के दो भाग हैं- ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु - नयी आवश्यकताएँ उत्पन्न हुई - शीत और नमी से बचाव के लिए घर और पहनावे की आवश्यकता उत्पन्न हुई जिस से श्रम के नए क्षेत्र आविर्भूत हुए। फलतः नए प्रकार के कार्यकलाप आरंभ हुए जिन से मनुष्य पशु से और भी अधिकाधिक पृथक होता गया। 
वस्त्रों की आरंभिक आवश्यकता
प्रत्येक व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी हाथों स्वरांगों और मस्तिष्क के संयुक्त काम से मानव अधिकाधिक पेचीदा कार्य करने के तथा सतत उच्चतर लक्ष्य अपने सामने रखने और उन्हें हासिल करने के योग्य बने। हर पीढ़ी के गुजरने के साथ स्वयं श्रम भिन्न, अधिक परिनिष्पन्न, अधिक विविधतायुक्त होता गया। शिकार और पशुपालन के अतिरिक्त कृषि भी की जाने लगी। फिर कताई, बुनाई, धातुकारी, कुम्हारी और नौचालन की बारी आयी। व्यापार और उद्योग के साथ अन्ततः कला और विज्ञान का आविर्भाव हुआ। क़बीलों से जातियों और राज्यों का विकास हुआ। प्रथमतः मस्तिष्क की उपज लगने वाले और मानव समाजों के ऊपर छाए प्रतीत होने वाले इन सारे सृजनों के आगे श्रमशील हाथ के अधिक साधारण उत्पादन पृष्टभूमि में चले गए। ऐसा इस कारण से भी हुआ कि समाज के विकास की बहुत प्रारंभिक मंजिल से ही (उदाहरणार्थ आदिम परिवार से ही) श्रम को नियोजित करने वाला मस्तिष्क नियोजित घम को दूसरों के हाथों से करा सकने में समर्थ था। सभ्यता की द्रुत प्रगति का समूचा श्रेय मस्तिष्क को, मस्तिष्क के विकास एवं क्रियाकलाप को दे डाला गया। मनुष्य अपने कार्यों की व्याख्या अपनी आवश्यकताओं से करने के बदले अपने विचारों से करने के आदी हो गए (हालाँकि आवश्यकताएँ ही मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती हैं, चेतना द्वारा ग्रहण की जाती हैं)। अतः कालक्रम में उस भाववादी विश्वदृष्टिकोण का उदय हुआ जो प्राचीन यूनानी-रोमन समाज के पतन के बाद से तो ख़ास तौर पर मानवों के मस्तिष्क पर हावी रहा है। वह अब भी उन पर इस हद तक हावी है कि डार्विन पंथ के भौतिकवादी से भौतिकवादी प्रकृति विज्ञानी भी अभी तक मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट धारणा निरूपित करने में असमर्थ हैं क्यों कि इस विचारधारा के प्रभाव में पड़ कर वे इस में श्रम द्वारा अदा की गई भूमिका को नहीं देखते। 
चार्ल्स डार्विन
जैसा कि पहले ही इंगित किया जा चुका है, पशु अपने क्रियाकलाप से मानवों की भाँति बाह्य प्रकृति को परिवर्तित करते हैं यद्यपि वे उस हद तक ऐसा नहीं करते जिस हद तक मनुष्य करता है। और जैसा कि हम देख चुके हैं उन के द्वारा अपने परिवेश में किया गया यह परिवर्तन उलट कर उन के ऊपर असर डालता है तथा अपने प्रणेताओं को परिवर्तित करता है। प्रकृति में पृथक रूप से कुछ भी नहीं  होता। हर चीज  अन्य चीजों पर प्रभाव डालती तथा उन के द्वारा स्वयं प्रभावित होती है। इस सर्वांगीण गति एवं अन्योन्यक्रिया को बहुधा भुला देने के कारण ही प्रकृति-विज्ञानी साधारण से साधारण चीजों को स्पष्टता के साथ नहीं देख पाते। हम देख चुके हैं कि किसक तरह बकरियों ने यूनान में वनों के पुनर्जन्म को रोका है। सेंट हलेना द्वीप में वहाँ पहुँचनेवाले प्रथम यात्रियों द्वारा उतारे गए बकरों और सुअरों ने पहले से चली आती वहाँ की वनस्पतियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया और ऐसा कर के उन्हों ने बाद में आए नाविकों और आबादकारों द्वारा लाए गए पौधों के प्रसार के लिए जमीन तैयार की। परन्तु यदि पशु अपने परिवेश पर अधिक समय तक प्रभाव डालते हैं तो ऐसा अचेत रूप से ही होता है तथा स्वयं पशुओं को सम्बन्ध में यह महज संयोग की बात होती है. लेकिन मनुष्य पशु से जितना ही अधिक दूर होते हैं, प्रकृति पर उन का प्रभाव पहले से ज्ञात निश्चित लक्ष्यों की ओर निर्देशित, नियोजित क्रिया का रूप धारण कर लेता है। पशु यह महसूस किए बिना कि वह क्या कर रहा है, किसी इलाके की वनस्पतियों को नष्ट करता है। मनुष्य नष्ट करता है मुक्त भूमि पर फसलें बोने के लिए अथवा वृक्ष एवं अंगूर की लताएँ रोपने के लिए, जिन के बारे में वह जानता है कि वे बोयी गई मात्रा से कहीं अधिक उपज देंगी। उपयोगी पौधों और पालतू पशुओं को वह एक देश से दूसरे में स्थानान्तरित करता है और इस प्रकार पूरे के पूरे महाद्वीपों के पशुओं एवं पादपों को बदल डालता है। इतना ही नहीं, कृत्रिम प्रजनन के द्वारा वनस्पति और पशु दोनों ही मानव के हाथों से इस तरह बदल दिए जाते हैं कि वने पहचाने भी नहीं जा सकते। उन जंगली पौधों की  व्यर्थ ही अब खोज की जा रही है जिन से हमारे नाना प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति हुई है। यह प्रश्न कि हमारे कुत्तों का, जो खुद भी एक दूसरे से अति भिन्न हैं, अथवा उतनी ही भिन्न नस्लों के घोड़ों का पूर्वज कौन सा वन्य पशु है अब भी विवादास्पद है। 
इतिहास को दोहराता भ्रूण का विकास
बात चाहे जो भी हो, पशुओं के नियोजित पूर्वकल्पित ढंग से काम कर सकने की क्षमता के बारे में विवाद उठाना हमारा मक़सद नहीं है। इस के विपरीत, जहाँ भी प्रोटोप्लाज्म का, जीवित एल्बुमिन का अस्तित्व है और वह प्रतिक्रिया करता है, यानी निश्चित बाह्य उद्दीपनाओं के फलस्वरूप निश्चित क्रियाएँ संपन्न करता है, भले ही ये क्रियाएँ अत्यन्त ही सहज प्रकार की हों, वहाँ क्रिया की एक नियोजित विधि विद्यमान रहती है।  यह प्रतिक्रिया वहाँ भी होती है जहाँ अभी कोई कोशिका नहीं है, तंत्रिका कोशिका की तो बात दूर रही। इसी प्रकार से कीटभक्षी पौधों का अपना शिकार पकड़ने का ढंग किसी मानी में नियोजित क्रिया सा लगता है यद्यपि वह बिलकुल अचेतन रूप में की जाती है। पशुओं में सचेत, नियोजित क्रिया की क्षमता तंत्रिका तन्त्र के विकास के अनुपात में विकसित होती है और स्तनधारी पशुओं में यह काफी उच्च स्तर तक पहुँच जाती है। इंग्लेंड में लोमड़ी का शिकार करने वाले आसानी से यह देख सकते हैं कि लोमड़ी अपना पीछा करने वालों की आँखों में धूल झोंकने के लिए स्थानीय इलाके की अपनी उत्तम जानकारी का इस्तेमाल करने का कैसा अचूक ज्ञान रखती है और भूमि की अनपे लिए सुविधाजनक  हर विशेषता को वह कितनी अच्छी तरह जानती तथा कितनी अच्छी तरह शिकारी को गुमराह कर देने के लिए उस का इस्तेमाल करती है। मानव की संगति में रहने के कारण अधिक विकसित पालतू पशुओं को हम नित्य ही चतुराई के ठीक उस स्तर के कार्य करते देखते हैं जिस स्तर के बच्चे किया करते हैं। कारण यह है कि जिस प्रकार माता के गर्भ में मानव भ्रूण के विकास का इतिहास करोड़ों वर्षों में फैले हमारे पशु पूर्वजों के केंचुए से आरम्भ कर के अब तक के शारीरिक विकास के इतिहास की संक्षिप्त पुनरावृत्ति है, उसी प्रकार मानव शिशु का मानसिक विकास इन्हीं पूर्वजों के, कम से कम बाद में आने वाले पूर्वजों के, बौद्धिक विकास की ओर भी संक्षिप्त पुनरावृत्ति है। पर सारे के सारे पशुओं की सारी की सारी नियोजित क्रिया भी कभी धरती पर उन की इच्छा की छाप न छोड़ सकी। यह श्रेय मनुष्य को ही प्राप्त हुआ। 
सेंट हेलेना द्वीप
संक्षेप में, पशु बाह्य प्रकृति का उपयोग मात्र करता है और उस में केवल अपनी उपस्थिति द्वारा परिवर्तन लाता है। पर मनुष्य अपने परिवर्तनों द्वारा प्रकृति से अपने काम करवाता है, उस पर स्वामिवत शासन करता है। यही मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर है। श्रम यहाँ भी इस अन्तर को लाने वाला होता है। (गौरवशाली बनाने वाला होता है)
 

प्रकृति उस पर हर विजय का हम से प्रतिशोध लेती है

प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्यों कि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विजय से प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हम ने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित होते हैं, जिन से अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है। मेसोपोटामिया, यूनान. एशिया माइनर, तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषि योग्य भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बिल्कुल ही नष्ट कर डाला, उन्हों ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन कर के वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। एल्प्स के इटालियनों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये दक्षिणी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गए थे) पूरी तरह काट डाला, तब उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि ऐसा कर के वे अपने प्रदेश के दुग्ध उद्योग पर कुठाराघात कर रहे हैं। इस से भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिए जलहीन बना रहे हैं तथा साथ ही इन स्रोतों के लिए यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षा ऋतु में मैदानों में और भी अधिक भयानक बाढ़ें लाया करें। यूरोप में आलू का प्रचार करने वालों को यह ज्ञात नहीं था कि असल मंडमय कंद को फैलाने के साथ-साथ वे स्क्रोफुला रोग का भी प्रसार कर रहे हैं। अतः हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस, और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उस के मध्य है और उस के ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानों में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं।  

स्क्रोफुला के परिणाम
वास्तव में, ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं हम उस के नियमों को अधिकाधिक सही ढंग से सीखते जाते हैं और प्रकृति के नैसर्गिक प्रक्रम में अपने हस्तक्षेप के तात्कालिक परिणामों के साथ उस के दूरवर्ती परिणामों के भी देखने लगे हैं। खा़स कर प्रकृति-विज्ञान की वर्तमान शताब्दी की प्रबल प्रगति के बाद तो हम अधिकाधिक ऐसी स्थिति में आते जा रहे हैं जहाँ कम से कम अपने सब से साधारण उत्पादक क्रियाकलाप के अधिक दूरवर्ती परिणामों तक को हम जान सकते हैं और फलतः उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन जितना ही ज्यादा ऐसा होगा उतनी ही ज्यादा मनुष्य प्रकृति के साथ अपनी एकता न केवल महसूस करेंगे बल्कि उसे समझेंगे भी और तब यूरोप में प्राचीन क्लासिकीय युग के अवसान के बाद उद्भूत होने वाली ईसाई मत में सब से अधिक विशद रूप में निरूपित की जाने वाली मस्तिष्क और भूतद्रव्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के वैपरीत्य की निरर्थक एवं अस्वाभाविक धारणा उतनी ही अधिक असम्भव होती जायेगी। 

अकाल
रन्तु उत्पादन की दिशा में निर्देशित अपने कार्यकलाप के अधिक दूरवर्ती प्राकृतिक फलों का आकलन सीखने में जहाँ हमें हजारों वर्षों की मेहनत लग चुकी है, वहाँ इन क्रियाओं के अधिक दूरवर्ती सामाजिक फलों का आकलन करने का काम और भी दुष्कर रहा है। आलू के प्रचार के फलस्वरूप स्क्रोफुला रोग के प्रसार की हम चर्चा कर चुके हैं। परन्तु श्रम जीवियों के आलू के आहार पर ही आश्रित हो  जाने का पूरे के पूरे देशों के अन्दर जनसमुदाय की जीवनावस्था पर जो प्रभाव पड़ा है, उस के मुकाबले स्क्रोफुला रोग भी भला क्या है? अथवा उस अकाल की तुलना में ही यह रोग क्या था  जिस ने आलू की फसल में कीड़ा लग जाने के फलस्वरूप 1847 में आयरलैंड को अपना ग्रास बनाया था और सम्पूर्णतया या लगभग सम्पूर्णतया आलू के आहार पर पले दस लाख आयरलैंडवासियों को मौत का शिकार बना दिया तथा बीस लाख को विदेशों में जा कर बसने को मजबूर किया था? जब अरबों ने शराब चुआना सीखा तो यह बात उन के दिमाग में बिल्कुल नहीं आयी थी कि ऐसा कर के वे उस समय अज्ञात अमरीकी महाद्वीप के आदिवासियों के भावी उन्मूलन का एक मुख्य साधन उत्पन्न कर रहे थे। और बाद में जब कोलम्बस ने अमरीका की खोज की तो उसे नहीं पता था कि ऐसा कर के वह यूरोप में बहुत पहले मिटायी जा चुकी दास-प्रथा  को नवजीवन प्रदान कर रहा था और नीग्रो-व्यापार की नींव डाल रहा था। सत्रहवीं और अठारवीं शताब्दियों में भाप का इंजन आविष्कार करने में संलग्न लोगों के दिमाग में यह बात नहीं आयी थी कि वे वह औजार तैयार कर रहे हैं जो समूची दुनिया के अन्दर सामाजिक सम्बन्धों में अन्य किसी भी औजार की अपेक्षा बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन ला देने वाला होगा, खास कर के यूरोप में यह औजार थोड़े से लोगों के हाथ में धन को संकेंद्रित करते हुए और विशाल बहुसंख्यक को सम्पत्तिहीन बनाते हुए पहले तो पूंजीपति वर्ग को सामाजिक और राजनीतिक प्रभुता प्रदान करने वाला, लेकिन उस के बाद पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों के उस वर्ग-संघर्ष को जन्म देनेवाला होगा जिस का अन्तिम परिणाम पूंजीपति वर्ग की सत्ता का खात्मा और सभी वर्ग विग्रहों की समाप्ति ही हो सकता है। परन्तु इस क्षेत्र में भी लम्बे और प्रायः कठोर अनुभव के बाद तथा ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह और विश्लेषण कर के धीरे-धीरे हम अपने उत्पादक क्रियाकलाप के अप्रत्यक्ष, अधिक दूरवर्ती सामाजिक परिणामों को स्पष्ट देखना सीख रहे हैं। इस प्रकार इन परिणामों को भी नियंत्रित और नियमित करने की सम्भावना हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है। 
र ऐसे नियमन को क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इस के लिए हमारी अभी तक की उत्पादन-प्रणाली में, और उस ेक साथ हमारी समूची समकालीन समाज-व्यवस्था में आमूल क्रांति अपेक्षित है।
 

तात्कालिक मुनाफे की अर्थव्यवस्था के परिणाम

नंगे पहाड़
ज तक जितनी भी उत्पादन-प्रणालियाँ रही हैं, उन सब का लक्ष्य केवल श्रम के सब से तात्कालिक एवं प्रत्यक्षतः उपयोगी परिणाम प्राप्त करना मात्र रहा है। इस के आगे के परिणामों की, जो बाद में आते हैं तथा क्रमिक पुनरावृत्ति एवं संचय द्वारा ही प्रभावोत्पादक बनते हैं, पूर्णतया उपेक्षा की गई। भूमि का सम्मिलित स्वामित्व जो आरम्भ में था, एक ओर तो मानवों के ऐसे विकास स्तर के अनुरूप था जिस में उन का क्षितिज सामान्यतः सम्मुख उपस्थित वस्तुओं तक सीमित था, दूसरी ओर उस मे उपलब्ध भूमि का कुछ फ़ाजिल होना पूर्वमान्य था जिस से कि इस आदिम किस्म की अर्थव्यवस्था के किन्ही सम्भव दुष्परिणामों का निराकरण करने की गुंजाइश पैदा होती थी। इस फ़ाजिल भूमि के चुक जाने के साथ सम्मिलित स्वामित्व का ह्रास होने लगा, पर उत्पादन के सभी उच्चतर रूपों के परिणामस्वरूप आबादी विभिन्न वर्गों में विभक्त हो जाती थी और इस विभाजन के कारण शासक और उत्पीड़ित वर्गों का विग्रह शुरू हो जाता था। अतः शासक वर्ग का हित उस हद तक उत्पादन का मुख्य प्रेरक तत्व बन गया। जिस हद तक कि उत्पादन उत्पीड़ित जनता के जीवन-निर्वाह के न्यूनतम साधनों तक ही सीमित न था। पश्चिमी यूरोप में आज प्रचलित पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यह चीज सब से अधिक पूर्णता के साथ क्रियान्वित की गई है। उत्पादन और विनिमय पर प्रभुत्व रखने वाले अलग अलग पूँजीपति अपने कार्यों के सब से तात्कालिक उपयोगी परिणाम की चिन्ता करने में ही समर्थ हैं। वस्तुतः यह उपयोगी परिणाम भी - जहाँ तक कि प्रश्न उत्पादित और विनिमय की गई वस्तु की उपयोगिता का ही होता है - पृष्ठभूमि में चला जाता है और विक्रय द्वारा मिलने वाला मुनाफा एकमात्र प्रेरक तत्व बन जाता है।
मंदी
पूँजीपति वर्ग का सामाजिक विज्ञान - क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र - प्रधानतया उत्पादन और विनिमय से सम्बन्धित मानव क्रियाकलापों के केवल सीधे-सीधे इच्छित सामाजिक प्रभावों को ही लेता है। वह पूर्णतया उस सामाजिक संगठन के अनुरूप है जिस की वह सैद्धान्तिक व्याख्या है। चूँकि पूँजीपति तात्कालिक मुनाफे के लिए उत्पादन और विनिमय करते हैं इसलिए केवल निकटतम, सब से तात्कालिक परिणामों का ही सर्वप्रथम लेखा लिया जा सकता है। कोई कारखानेदार अथवा व्यापारी जब तक सामान्य इच्छित मुनाफे पर किसी उत्पादित अथवा खरीदे माल को बेचता है वह खुश रहता है और इस की चिन्ता नहीं करता कि बाद में माल और उस के खरीददारों का क्या होता है।  इस क्रियाकलाप के प्राकृतिक प्रभावों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। जब क्यूबा में स्पेनी बागान मालिकों ने पर्वतों की ढलानों पर खड़े जंगलों को जला डाला और उन की राख से अत्यन्त लाभप्रद कहवा-वृक्षों की केवल एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाद हासिल की, तब उन्हें इस बात की परवाह न हुई कि बाद में उष्णप्रदेशीय भारी वर्षा मिट्टी की अरक्षित परत को बहा ले जाएगी और नंगी चट्टाने ही छोड़ देगी !   जैसे समाज के सम्बन्ध में वैसे ही प्रकृति के सम्बन्ध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है।  और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस, उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उलटे ही प्रकार के होते हैं;  कि पूर्ति और मांग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है (जैसा कि प्रत्येक दस वर्षीय औद्योगिक चक्र से, जिस का जर्मनी तक "गिरावट" के मौके पर आरम्भिक स्वाद चख़ चुका है, सिद्ध हो चुका है) ; कि अपने श्रम पर आधारित निजि-स्वामित्व अनिवार्यतः मजदूरों की संपत्तिहीनता में विकसित हो जाता है जब कि समस्त धन गैरमजदूरों के हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होता जाता है; कि [.....]* 

* लेख की पाण्डुलिपि यहीँ समाप्त हो जाती है।
 
 
 

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

भाई ने भाई मारा रे


महेन्द्र नेह ने पिछले दिनों कुछ पद लिखे हैं, उन में से एक यहाँ प्रस्तुत है। 
उन के अन्य पद भी आप अनवरत पर पढ़ते रहेंगे।
 
 'पद'

  • महेन्द्र 'नेह' 

    भाई ने भाई मारा रे

 ये कैसी अनीति अधमायत ये कैसा अविचारा रे।

एक ही माँ की गोद पले दोउ नैनन के दो तारा रे।। 



जोते खेत निराई कीनी बिगड़ा भाग संवारा रे।

दोनों का संग बहा पसीना घर में हुआ उजारा रे।। 

                                    

अच्छी फसल हुई बोहरे का सारा कर्ज उतारा रे।

सूरत बदली, सीरत बदली किलक उठा घर सारा रे।। 



कुछ दिन बाद स्वार्थ ने घर में अपना डेरा डाला रे।

खेत बॅंट गये, बँट गये रिश्ते, रुका नहीं बॅंटवारा रे।।
                         

 

कोई नहीं पूछता किसने हरा भरा घर जारा रे।

रक्तिम हुई धरा, अम्बर में घुप्प हुआ अॅंधियारा रे।।

सोमवार, 5 अगस्त 2013

प्रेमचन्द की कहानी 'बालक'

प्रेमचन्द की इस कहानी को ले कर 4 अगस्त के जनसत्ता में किसी 'धर्मवीर' ने अपने लेख "हम प्रेमचंद को जानते हैं" के माध्यम से कानून और नैतिकता के सवाल खड़े किए हैं और प्रेमचन्द की प्रगतिशीलता को उछाला है। जब कि ये कहानी कहती है कि स्त्री-पुरुष का समानता पर आधारित प्रेम किस तरह प्रगतिशील मूल्यों को स्वयमेव स्थापित करता है। आप खुद इस कहानी को पढ़ें और निर्णय करें।  


‘कहानी’

बालक

-प्रेमचन्द


गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं और वह अपने को ब्राह्मण समझता भी है। मेरे सईस और खिदमतगार मुझे दूर से सलाम करते हैं। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पालागन की आशा रखता है। मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता और न मेरी कभी इतनी हिम्मत हुई कि उससे पंखा झलने को कहूँ। जब मैं पसीने से तर होता हूँ और वहाँ कोई दूसरा आदमी नहीं होता, तो गंगू आप-ही-आप पंखा उठा लेता है; लेकिन उसकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट प्रकट होता है कि मुझ पर कोई एहसान कर रहा है और मैं भी न-जाने क्यों फौरन ही उसके हाथ से पंखा छीन लेता हूँ। उग्र स्वभाव का मनुष्य है। किसी की बात नहीं सह सकता। ऐसे बहुत कम आदमी होंगे, जिनसे उसकी मित्रता हो; पर सईस और खिदमतगार के साथ बैठना शायद वह अपमानजनक समझता है। मैंने उसे किसी से मिलते-जुलते नहीं देखा। आश्चर्य यह है कि उसे भंग-बूटी से प्रेम नहीं, जो इस श्रेणी के मनुष्यों में एक असाधरण गुण है। मैंने उसे कभी पूजा-पाठ करते या नदी में स्नान करते नहीं देखा। बिलकुल निरक्षर है; लेकिन फिर भी वह ब्राह्मण है और चाहता है कि दुनिया उसकी प्रतिष्ठा तथा सेवा करे और क्यों न चाहे ? जब पुरखों की पैदा की हुई सम्पत्ति पर आज भी लोग अधिकार जमाये हुए हैं और उसी शान से, मानो खुद पैदा किये हों, तो वह क्यों उस प्रतिष्ठा और सम्मान को त्याग दे, जो उसके पुरुखों ने संचय किया था? यह उसकी बपौती है।

मेरा स्वभाव कुछ इस तरह का है कि अपने नौकरों से बहुत कम बोलता हूँ। मैं चाहता हूँ, जब तक मैं खुद न बुलाऊँ, कोई मेरे पास न आये। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि जरा-सी बातों के लिए नौकरों को आवाज देता फिरूँ। मुझे अपने हाथ से सुराही से पानी उँड़ेल लेना, अपना लैम्प जला लेना, अपने जूते पहन लेना या आलमारी से कोई किताब निकाल लेना, इससे कहीं ज्यादा सरल मालूम होता है कि हींगन और मैकू को पुकारूँ। इससे मुझे अपनी स्वेच्छा और आत्मविश्वास का बोधा होता है। नौकर भी मेरे स्वभाव से परिचित हो गये हैं और बिना जरूरत मेरे पास बहुत कम आते हैं। इसलिए एक दिन जब प्रात:काल गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया तो मुझे बहुत बुरा लगा। ये लोग जब आते हैं, तो पेशगी हिसाब में कुछ माँगने के लिए या किसी दूसरे नौकर की शिकायत करने के लिए। मुझे ये दोनों ही बातें अत्यंत अप्रिय हैं। मैं पहली तारीख को हर एक का वेतन चुका देता हूँ और बीच में जब कोई कुछ माँगता है, तो क्रोध आ जाता है; कौन दो-दो, चार-चार रुपये का हिसाब रखता फिरे। फिर जब किसी को महीने-भर की पूरी मजूरी मिल गयी, तो उसे क्या हक है कि उसे पन्द्रह दिन में खर्च कर दे और ऋण या पेशगी की शरण ले, और शिकायतों से तो मुझे घृणा है। मैं शिकायतों को दुर्बलता का प्रमाण समझता हूँ, या ठकुरसुहाती की क्षुद्र चेष्टा।

मैंने माथा सिकोड़कर कहा, क्या बात है, 'मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं ?'

गंगू के तीखे अभिमानी मुख पर आज कुछ ऐसी नम्रता, कुछ ऐसी याचना, कुछ ऐसा संकोच था कि मैं चकित हो गया। ऐसा जान पड़ा, वह कुछ जवाब देना चाहता है; मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं। मैंने जरा नम्र होकर कहा, 'आखिर क्या बात है, कहते क्यों नहीं ? तुम जानते हो, यह मेरे टहलने का समय है। मुझे देर हो रही है।'

गंगू ने निराशा भरे स्वर में कहा, 'तो आप हवा खाने जायँ, मैं फिर आ जाऊँगा।'

यह अवस्था और भी चिन्ताजनक थी। इस जल्दी में तो वह एक क्षण में अपना वृत्तान्त कह सुनायेगा। वह जानता है कि मुझे ज्यादा अवकाश नहीं है। दूसरे अवसर पर तो दुष्ट घण्टों रोयेगा। मेरे कुछ लिखने-पढ़ने को तो वह शायद कुछ काम समझता हो; लेकिन विचार को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना है, वह मेरे विश्राम का समय समझता है। वह उसी वक्त आकर मेरे सिर पर सवार हो जायगा। मैंने निर्दयता के साथ कहा,

'क्या कुछ पेशगी माँगने आये हो ? मैं पेशगी नहीं देता।'

'जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी पेशगी नहीं माँगा।'

'तो क्या किसी की शिकायत करना चाहते हो ? मुझे शिकायतों से घृणा है।'

'जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी किसी की शिकायत नहीं की।'

गंगू ने अपना दिल मजबूत किया। उसकी आकृति से स्पष्ट झलक रहा था, मानो वह कोई छलाँग मारने के लिए अपनी सारी शक्तियों को एकत्र कर रहा हो। और लड़खड़ाती हुई आवाज में बोला, 'मुझे आप छुट्टी दे दें।

'मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूँगा।'

यह इस तरह का पहला प्रस्ताव था, जो मेरे कानों में पड़ा। मेरे आत्माभिमान को चोट लगी। मैं जब अपने को मनुष्यता का पुतला समझता हूँ, अपने नौकरों को कभी कटु-वचन नहीं कहता, अपने स्वामित्व को यथासाध्य म्यान में रखने की चेष्टा करता हूँ, तब मैं इस प्रस्ताव पर क्यों न विस्मित हो जाता ! कठोर स्वर में बोला, 'क्यों, क्या शिकायत है ?

'आपने तो हुजूर, जैसा अच्छा स्वभाव पाया है, वैसा क्या कोई पायेगा; लेकिन बात ऐसी आ पड़ी है कि अब मैं आपके यहाँ नहीं रह सकता। ऐसा न हो कि पीछे से कोई बात हो जाय, तो आपकी बदनामी हो। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से आपकी आबरू में बट्टा लगे।'

मेरे दिल में उलझन पैदा हुई। जिज्ञासा की अग्नि प्रचण्ड हो गयी। आत्मसमर्पण के भाव से बरामदे में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठकर बोला, 'तुम तो पहेलियाँ बुझवा रहे हो। साफ-साफ क्यों नहीं कहते, क्या मामला है ?'

गंगू ने बड़ी नम्रता से कहा, 'बात यह है कि वह स्त्री, जो अभी विधवा-आश्रम से निकाल दी गयी है, वह गोमती देवी ...

वह चुप हो गया। मैंने अधीर होकर कहा, 'हाँ, निकाल दी गयी है, तो फिर ? तुम्हारी नौकरी से उससे क्या सम्बन्ध ?'

गंगू ने जैसे अपने सिर का भारी बोझ जमीन पर पटक दिया -- 'मैं उससे ब्याह करना चाहता हूँ बाबूजी !'

मैं विस्मय से उसका मुँह ताकने लगा। यह पुराने विचारों का पोंगा ब्राह्मण जिसे नयी सभ्यता की हवा तक न लगी, उस कुलटा से विवाह करने जा रहा है, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने देगा।

गोमती ने मुहल्ले के शान्त वातावरण में थोड़ी-सी हलचल पैदा कर दी। कई साल पहले वह विधवाश्रम में आयी थी। तीन बार आश्रम के कर्मचारियों ने उसका विवाह करा दिया था, पर हर बार वह महीने-पन्द्रह दिन के बाद भाग आयी थी। यहाँ तक कि आश्रम के मन्त्री ने अबकी बार उसे आश्रम से निकाल दिया था। तब से वह इसी मुहल्ले में एक कोठरी लेकर रहती थी और सारे मुहल्ले के शोहदों के लिए मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई थी।

मुझे गंगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी। इस गधो को सारी दुनिया में कोई स्त्री ही न मिलती थी, जो इससे ब्याह करने जा रहा है। जब वह तीन बार पतियों के पास से भाग आयी, तो इसके पास कितने दिन रहेगी ? कोई गाँठ का पूरा आदमी होता, तो एक बात भी थी। शायद साल-छ: महीने टिक जाती। यह तो निपट आँख का अन्धा है। एक सप्ताह भी तो निबाह न होगा। मैंने चेतावनी के भाव से पूछा, 'तुम्हें इस स्त्री की जीवन-कथा मालूम है?'

गंगू ने आँखों-देखी बात की तरह कहा, 'सब झूठ है सरकार, लोगों ने हकनाहक उसको बदनाम कर दिया है।'

'क्या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आयी ?'

'उन लोगों ने उसे निकाल दिया, तो क्या करती ?'

'कैसे बुध्दू आदमी हो ! कोई इतनी दूर से आकर विवाह करके ले जाता है, हजारों रुपये खर्च करता है, इसीलिए कि औरत को निकाल दे ?'

गंगू ने भावुकता से कहा, 'जहाँ प्रेम नहीं है हुजूर, वहाँ कोई स्त्री नहीं रह सकती। स्त्री केवल रोटी-कपड़ा ही नहीं चाहती, कुछ प्रेम भी तो चाहती है। वे लोग समझते होंगे कि हमने एक विधवा से विवाह करके उसके ऊपर कोई बहुत बड़ा एहसान किया है। चाहते होंगे कि तन-मन से वह उनकी हो जाय, लेकिन दूसरे को अपना बनाने के लिए पहले आप उसका बन जाना पड़ता है हुजूर। यह बात है। फिर उसे एक बीमारी भी है। उसे कोई भूत लगा हुआ है। यह कभी-कभी बक-झक करने लगती है और बेहोश हो जाती है।'

'और तुम ऐसी स्त्री से विवाह करोगे ?' मैंने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा, समझ लो, जीवन कड़वा हो जायगा।'

गंगू ने शहीदों के-से आवेश से कहा, 'मैं तो समझता हूँ, मेरी जिन्दगी बन जायगी बाबूजी, आगे भगवान् की मर्जी !'

मैंने जोर देकर पूछा, 'तो तुमने तय कर लिया है ?'

'हाँ, हुजूर।'

'तो मैं तुम्हारा इस्तीफा मंजूर करता हूँ।'

मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बन्धनों का दास नहीं हूँ; लेकिन जो आदमी एक दुष्टा से विवाह करे, उसे अपने यहाँ रखना वास्तव में जटिल समस्या थी। आये-दिन टण्टे-बखेड़े होंगे, नयी-नयी उलझनें पैदा होंगी, कभी पुलिस दौड़ लेकर आयेगी, कभी मुकदमे खड़े होंगे। सम्भव है, चोरी की वारदातें भी हों। इस दलदल से दूर रहना ही अच्छा। गंगू क्षुधा-पीड़ित प्राणी की भाँति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी ओर लपक रहा है। रोटी जूठी है, सूखी हुई है, खाने योग्य नहीं है, इसकी उसे परवाह नहीं; उसको विचार-बुद्धि से काम लेना कठिन था। मैंने उसे पृथक् कर देने ही में अपनी कुशल समझी।

2

पाँच महीने गुजर गये। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था और उसी मुहल्ले में एक खपरैल का मकान लेकर रहता था। वह अब चाट का खोंचा लगाकर गुजर-बसर करता था। मुझे जब कभी बाजार में मिल जाता, तो मैं उसका क्षेम-कुशल पूछता। मुझे उसके जीवन से विशेष अनुराग हो गया था। यह एक सामाजिक प्रश्न की परीक्षा थी सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भी। मैं देखना चाहता था, इसका परिणाम क्या होता है। मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता। समृद्धि और निश्चिन्तता के मुख पर जो एक तेज और स्वभाव में जो एक आत्म-सम्मान पैदा हो जाता है, वह मुझे यहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देता था। रुपये-बीस-आने की रोज बिक्री हो जाती थी। इसमें लागत निकालकर आठ-दस आने बच जाते थे। यही उसकी जीविका थी; किन्तु इसमें किसी देवता का वरदान था; क्योंकि इस वर्ग के मनुष्यों में जो निर्लज्जता और विपन्नता पायी जाती है, इसका वहाँ चिह्न तक न था। उसके मुख पर आत्म-विकास और आनन्द की झलक थी, जो चित्त की शान्ति से ही आ सकती है।

एक दिन मैंने सुना कि गोमती गंगू के घर से भाग गयी है ! कह नहीं सकता, क्यों ? मुझे इस खबर से एक विचित्र आनन्द हुआ। मुझे गंगू के संतुष्ट और सुखी जीवन पर एक प्रकार कीर् ईर्ष्या होती थी। मैं उसके विषय में किसी अनिष्ट की, किसी घातक अनर्थ की, किसी लज्जास्पद घटना की प्रतीक्षा करता था। इस खबर से ईर्ष्या को सान्त्वना मिली। आखिर वही बात हुई, जिसका मुझे विश्वास था। आखिर बच्चा को अपनी अदूरदर्शिता का दण्ड भोगना पड़ा। अब देखें, बचा कैसे मुँह दिखाते हैं। अब आँखें खुलेंगी और मालूम होगा कि लोग, जो उन्हें इस विवाह से रोक रहे थे, उनके कैसे शुभचिन्तक थे। उस वक्त तो ऐसा मालूम होता था, मानो आपको कोई दुर्लभ पदार्थ मिला जा रहा हो। मानो मुक्ति का द्वार खुल गया है। लोगों ने कितना कहा, कि यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है, कितनों को दगा दे चुकी है, तुम्हारे साथ भी दगा करेगी; लेकिन इन कानों पर जूँ तक न रेंगी। अब मिलें, तो जरा उनका मिजाज पूछूँ। कहूँ क्यों महाराज, देवीजी का यह वरदान पाकर प्रसन्न हुए या नहीं ? तुम तो कहते थे, वह ऐसी है और वैसी है, लोग उस पर केवल दुर्भावना के कारण दोष आरोपित करते हैं। अब बतलाओ, किसकी भूल थी ?

उसी दिन संयोगवश गंगू से बाजार में भेंट हो गयी। घबराया हुआ था, बदहवास था, बिलकुल खोया हुआ। मुझे देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये, लज्जा से नहीं, व्यथा से। मेरे पास आकर बोला, 'बाबूजी, गोमती ने मेरे साथ विश्वासघात किया।' मैंने कुटिल आनन्द से, लेकिन कृत्रिम सहानुभूति दिखाकर कहा, 'तुमसे तो मैंने पहले ही कहा था; लेकिन तुम माने ही नहीं, अब सब्र करो। इसके सिवा और क्या उपाय है। रुपये-पैसे ले गयी या कुछ छोड़ गयी ?'

गंगू ने छाती पर हाथ रखा। ऐसा जान पड़ा, मानो मेरे इस प्रश्न ने उसके ह्रदय को विदीर्ण कर दिया।

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए, उसने धेले की भी चीज नहीं छुई। अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गयी। न-जाने मुझमें क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूँ। वह पढ़ी-लिखी थी, मैं करिया अक्षर भैंस बराबर। मेरे साथ इतने दिन रही, यही बहुत था। कुछ दिन और उसके साथ रह जाता, तो आदमी बन जाता। उसका आपसे कहाँ तक बखान करूँ हुजूर। औरों के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आशीर्वाद थी। न-जाने मुझसे क्या ऐसी खता हो गयी। मगर कसम ले लीजिए, जो उसके मुख पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या है बाबूजी ! दस-बारह आने का मजूर हूँ; पर इसी में उसके हाथों इतनी बरक्कत थी कि कभी कमी नहीं पड़ी।'

मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैंने समझा था, वह उसकी बेवफाई की कथा कहेगा और मैं उसकी अन्ध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूँगा; मगर उस मूर्ख की आँखें अब तक नहीं खुलीं। अब भी उसी का मन्त्र पढ़ रहा है। अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है।

मैंने कुटिल परिहास आरम्भ किया- 'तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गयी ?

'कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की भी चीज नहीं।'

'और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी ?'

'अब आपसे क्या कहूँ बाबूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।'

'फिर भी तुम्हें छोड़कर चली गयी ?'

'यही तो आश्चर्य है बाबूजी !'

'त्रिया-चरित्र का नाम कभी सुना है ?'

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए। मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसका यश ही गाऊँगा।'

'तो फिर ढूँढ़ निकालो !'

'हाँ, मालिक। जब तक उसे ढूँढ़ न लाऊँगा, मुझे चैन न आयेगा। मुझे इतना मालूम हो जाय कि वह कहाँ है, फिर तो मैं उसे ले ही आऊँगा; और बाबूजी, मेरा दिल कहता है कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा। वह मुझसे रूठकर नहीं गयी; लेकिन दिल नहीं मानता। जाता हूँ, महीने-दो-महीने जंगल, पहाड़ की धूल छानूँगा। जीता रहा, तो फिर आपके दर्शन करूँगा।'

यह कहकर वह उन्माद की दशा में एक तरफ चल दिया।

3

इसके बाद मुझे एक जरूरत से नैनीताल जाना पड़ा। सैर करने के लिए नहीं। एक महीने के बाद लौटा, और अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि देखता हूँ, गंगू एक नवजात शिशु को गोद में लिये खड़ा है। शायद कृष्ण को पाकर नन्द भी इतने पुलकित न हुए होंगे। मालूम होता था, उसके रोम-रोम से आनन्द फूटा पड़ता है। चेहरे और आँखों से कृतज्ञता और श्रद्धा के राग-से निकल रहे थे। कुछ वही भाव था, जो किसी क्षुधा-पीड़ित भिक्षुक के चेहरे पर भरपेट भोजन करने के बाद नजर आता है।

मैंने पूछा- कहो महाराज, गोमतीदेवी का कुछ पता लगा, तुम तो बाहर गये थे ?

गंगू ने आपे में न समाते हुए जवाब दिया, 'हाँ बाबूजी, आपके आशीर्वाद से ढूँढ़ लाया। लखनऊ के जनाने अस्पताल में मिली। यहाँ एक सहेली से कह गयी थी कि अगर वह बहुत घबरायें तो बतला देना। मैं सुनते ही लखनऊ भागा और उसे घसीट लाया। घाते में यह बच्चा भी मिल गया। उसने बच्चे को उठाकर मेरी तरफ बढ़ाया। मानो कोई खिलाड़ी तमगा पाकर दिखा रहा हो।'

मैंने उपहास के भाव से पूछा, 'अच्छा, यह लड़का भी मिल गया ? शायद इसीलिए वह यहाँ से भागी थी। है तो तुम्हारा ही लड़का ?'

'मेरा काहे को है बाबूजी, आपका है, भगवान् का है।'

'तो लखनऊ में पैदा हुआ ?'

'हाँ बाबूजी, अभी तो कुल एक महीने का है।'

'तुम्हारे ब्याह हुए कितने दिन हुए ?'

'यह सातवाँ महीना जा रहा है।'

'तो शादी के छठे महीने पैदा हुआ ?'

'और क्या बाबूजी।'

'फिर भी तुम्हारा लड़का है ?'

'हाँ, जी।'

'कैसी बे-सिर-पैर की बात कर रहे हो ?'

मालूम नहीं, वह मेरा आशय समझ रहा था, या बन रहा था। उसी निष्कपट भाव से बोला, मरते-मरते बची, बाबूजी नया जनम हुआ। तीन दिन, तीन रात छटपटाती रही। कुछ न पूछिए। मैंने अब जरा व्यंग्य-भाव से कहा, लेकिन छ: महीने में लड़का होते आज ही सुना। यह चोट निशाने पर जा बैठी।

मुस्कराकर बोला, 'अच्छा, वह बात ! मुझे तो उसका ध्यान भी नहीं आया। इसी भय से तो गोमती भागी थी। मैंने कहा, 'ग़ोमती, अगर तुम्हारा मन मुझसे नहीं मिलता, तो तुम मुझे छोड़ दो। मैं अभी चला जाऊँगा और फिर कभी तुम्हारे पास न आऊँगा। तुमको जब कुछ काम पड़े तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूँगा। मुझे तुमसे कुछ मलाल नहीं है। मेरी आँखों में तुम अब भी उतनी ही भली हो। अब भी मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूँ। नहीं, अब मैं तुम्हें और ज्यादा चाहता हूँ; लेकिन अगर तुम्हारा मन मुझसे फिर नहीं गया है, तो मेरे साथ चलो। गंगू जीते-जी तुमसे बेवफाई नहीं करेगा। मैंने तुमसे इसलिए विवाह नहीं किया कि तुम देवी हो; बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें चाहता था और सोचता था कि तुम भी मुझे चाहती हो। यह बच्चा मेरा बच्चा है। मेरा अपना बच्चा है। मैंने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूंगा, कि उसे किसी दूसरे ने बोया था ? यह कहकर उसने जोर से ठट्ठा मारा।

मैं कपड़े उतारना भूल गया। कह नहीं सकता, क्यों मेरी आँखें सजल हो गयीं। न-जाने वह कौन-सी शक्ति थी, जिसने मेरी मनोगत घृणा को दबाकर मेरे हाथों को बढ़ा दिया। मैंने उस निष्कलंक बालक को गोद में ले लिया और इतने प्यार से उसका चुम्बन लिया कि शायद अपने बच्चों का भी न लिया होगा।

गंगू बोला, 'बाबूजी, आप बड़े सज्जन हैं। मैं गोमती से बार-बार आपका बखान किया करता हूँ। कहता हूँ, चल, एक बार उनके दर्शन कर आ; लेकिन मारे लाज के आती ही नहीं।'

मैं और सज्जन ! अपनी सज्जनता का पर्दा आज मेरी आँखों से हटा। मैंने भक्ति से डूबे हुए स्वर में कहा, 'नहीं जी, मेरे-जैसे कलुषित मनुष्य के पास वह क्या आयेगी। चलो, मैं उनके दर्शन करने चलता हूँ। तुम मुझे सज्जन समझते हो ? मैं ऊपर से सज्जन हूँ; पर दिल का कमीना हूँ। असली सज्जनता तुममें है। और यह बालक वह फूल है, जिससे तुम्हारी सज्जनता की महक निकल रही है।

मैं बच्चे को छाती से लगाये हुए गंगू के साथ चला।