@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: सितंबर 2011

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

खेती का आविष्कार और सामंती समाज व्यवस्था का उदय : बेहतर जीवन की तलाश-3

शुपालन के साथ मनुष्य अनेक नयी चीजें सीख रहा था। जांगल युग में वह तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। लेकिन पशुपालन के माध्यम से उस ने स्वयं उत्पादन करना आरंभ किया। मांस और दूध उस के उत्पादन थे। मृत पशुओं के चर्म से उसे तन ढकने को पर्याप्त चमड़ा भी प्राप्त हो रहा था। लेकिन पशुओं को पालने के लिए सब से आवश्यक चीज थी पशुओं के भोजन के लिए चारा। जो उस समय तक प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। बस पशुओं को चारे के समीप ले जाना था। इस तरह मनुष्य समूह अपने पशुओं के साथ, जो तब तक उस की प्रमुख बन चुके संपत्ति थे, चारे की तलाश में स्थान बदलता रहा। इस दौरान उस ने देखा कि किस तरह एक मैदान का सारा चारा पशुओं द्वारा चर जाने पर भी अनुकूल परिस्थितियों में चारा दुबारा उगने लगता है। काल के साथ उस ने यह भी जाना कि चारे को उगाया जा सकता है। खेती का आरंभ संभवतः सब से पहले चारे के उत्पादन के लिए ही हुआ। इस तरह उस ने एक नयी उत्पादन पद्धति कृषि का आविष्कार किया। इस खेती के आविष्कार ने उस की बारम्बार जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन की आवश्यकता को कम कर दिया। उस ने मैदानों में जहाँ जल की उपलब्धता थी और चारे की खेती की जा सकती थी टिकना आरंभ कर दिया। वह मिट्टी की ईंटों के घर बनाने लगा। इसी दौरान उस का परिचय लौह खनिजों से हुआ और उस ने लौह खनिजों को गला कर उन से खेती में काम आने वाले औजार मुख्यतः हल का आविष्कार किया। लेकिन जब तक वह केवल चारा उगाता रहा तब तक मुख्यतः पशुपालक ही बना रहा। खेती भी उस के पशुपालन की आवश्यकता मात्र थी। जब घासों की खेती करना उस ने सीख लिया तो वह दिन भी दूर नहीं था जब उस ने यह भी जाना कि कैसे कुछ घासों के बीज मनुष्य को पोष्टिक भोजन प्रदान कर सकते हैं। इस तरह स्वयं के भोजन के लिए जब उस ने बीजों को उगाना सीख लिया तो उन का उत्पादन भी आरंभ हो गया। धीरे-धीरे खेती प्रमुखता प्राप्त करती गयी और पशुपालन खेती का एक सहायक उद्योग भर रह गया।  

सी दौर में उस ने अक्षर लिखने की कला का आविष्कार किया और लेखन में उस का प्रयोग आरंभ कर दिया। इसी अवस्था में हमें पहली बार पशुओं की मदद से लोहे के हलों के प्रयोग से जुताई कर के बड़े पैमाने पर खेती का उपयोग देखने को मिलता है। लोहे के औजार मनुष्य का जीवन बदल रहे थे। जंगलों को काट कर उन्हें खेती और चरागाह भूमि में बदलना लोहे की कुल्हाड़ी और बेलचे की मदद के बिना संभव नहीं था। जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगीं और बस्तियाँ आबाद होने लगीं। इस दौरान लोहे के उन्नत औजारों के साथ  धोंकनी, हथचक्की, कुम्हार का चाक, तेल और शराब निर्माण, धातुओं के काम का कलाओं के रुप में विकास। गाड़ियों, युद्ध के रथों, तख्तों से जहाजों का निर्माण, स्थापत्य का कला का प्रारंभिक विकास, मीनारों-बुर्जों व प्राचीरों से घिरे नगरों का निर्माण महाकाव्य और पुराणों की रचना इसी युग की देन हैं। 

खेती के आविष्कार ने मनुष्य को प्रचुर संपदा का मालिक बना दिया था। गुलाम अब भी मौजूद थे लेकिन खेती के काम के लिए उन्हें सदा के लिए बांध कर नहीं रखा जा सकता था। खेती के लिए उन्हें छूट की आवश्यकता थी। इस तरह दासों की एक नयी किस्म भू-दासों का उदय हो रहा था। इस तरह अब समूह खेती करने योग्य भूमि का स्वामी भी हो चुका था। भू-दास समूह के लिए खेती करते थे। समूह के सदस्य उन पर नियंत्रण रखने का काम करने लगे थे। खेती की उपज समूह की संपत्ति थी। भू-दासों को उपज का केवल उतना ही हिस्सा मिलता था जितनी कि उन के जीवनधारण के लिए न्यूनतम आवश्यकता थी। हम कुछ काल पहले तक देखते हैं कि अकाल आदि की अवस्था में भी किसान को जमींदार का हिस्सा देना होता था। चाहे वास्तविक उत्पादक के पास उस का जीवन बनाए रखने तक के लिए भी कुछ न बचे। उसे अपने जीवन को बचाए रखने के लिए जमींदार से कर्जा लेना होता था और इस तरह वह सदैव कर्जे में दबा रहता था।
स बीच समूह के सद्स्यों की संख्या भी बढ़ रही थी और खेती योग्य भूमि भी। यह संभव नहीं था कि समूह सारी भूमि पर खेती की व्यवस्था कर सके। इस के लिए समूह ने परिवारों को भूमि बांटना आरंभ कर दिया। इस तरह परिवारों के पास भूमि एक संपत्ति के रूप में आ गयी। परिवारों के मुखिया को भूमिपति की तरह पहचाना जाने लगा। संपत्ति की प्रचुरता से लेन-देन और वस्तुओं के विनिमय का भी आरंभ हुआ। समूह अब परिवारों में बंट गया था। परिवारों की अपनी संपत्ति होने लगी थी। परिवार के विभाजित होने पर संपत्ति का विभाजन भी होने लगा। इस तरह परिवार के हर सदस्य का भाग संपत्ति में निर्धारित होने लगा। उस के लिए लेन-देन, व्यापार, उत्तराधिकार और विवाह के लिए स्पष्ट विधि की भी आवश्यकता महसूस होने लगी। विधि की पालना के लिए राज्य के उदय के लिए परिस्थितियाँ बनने लगीं।  बाद में राज्य बने और उन के विस्तार के लिए युद्ध भी हुए। आने वाला संपूर्ण सामन्ती काल भूमि और संपदा के लिए युद्धों के इतिहास से भरा पड़ा है। अभी उस के विस्तार में जाने के स्थान पर केवल इतना समझ लेना पर्याप्त है कि मनुष्य ने अपनी सहूलियत को बढ़ाने के लिए नयी उत्पादन पद्धति और साधनों का विकास किया। लेकिन प्रत्येक उत्पादन पद्धति ने न केवल मनुष्य के जीवन को बदला अपितु मनुष्य समाज के ढांचे, उस की व्यवस्था को भी अनिवार्य रूप से परिवर्तित किया।

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

पशुपालन का आरंभ : बेहतर जीवन की तलाश-2


बात आरंभ यहाँ से हुई थी कि आज मनुष्य जीवन को सब तरफ से आप्लावित करने वाली कंपनियों का उदय कब और क्यों कर हुआ? लेकिन हम ने आरंभ किया मनुष्य जीवन के आरंभिक काल में हो रहे परिवर्तनों से। हम ने देखा कि भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के जांगल युग में अपने रोजमर्रा के कामों के बीच हुए अनुभवों और बेहतर जीवन की तलाश ने पशुओं को काबू करने और मुश्किल दिनों के लिए उन का संरक्षण करना आरंभ कर दिया था। इसी ने विजेता समूह में पराजित समूह के सदस्यों के जीवन का अंत करने की प्रवृत्ति को दास बनाने के प्रयत्न में बदलना आरंभ किया था। इस तरह वे अपना जीवन बेहतर बनाना चाहते थे। पराजित समूह के सदस्य के लिए जानबख्शी भी बहुत बड़ी राहत थी। इस तरह अब जो मानव समूह अस्तित्व में आया उस में और पहले वाले मानव समूह में एक बड़ा अंतर यह था कि पहले वाले समूह में केवल सदस्य थे जो किसी न किसी प्रकार से रक्त संबंधों से जुड़े थे और सदस्यों के बीच कोई भेद नहीं था। लेकिन जो नया समूह जन्म ले रहा था उस में सदस्यों के अतिरिक्त दास भी सम्मिलित थे। अब समूह वर्गीय हो चले थे। दासों को बन्धन में रहते हुए वही काम करना था जो समूह के सदस्य उन के लिए निर्धारित करते थे। ये काम समूह के मुख्य कामों के सहायक काम होते थे। इस के बदले समूह उन्हें मात्र इतना भोजन देता था कि वे किसी तरह जीवित रह सकें।

दीर्घ काल तक पशुओं का संरक्षण करते रह कर मनुष्य को सीखने को मिला कि एक पशुमाता अपनी संतान का अपने स्तनों के जिस दूध से पोषण करती है वह मनुष्य के लिए भी उतना ही पोषक है जितना कि पशु के लिए और उस का उपयोग समूह के सदस्यों के पोषण के लिए किया जा सकता है। आरंभ में मनुष्य ने पशुबालक की तरह ही पशुदुग्ध का सेवन करना सीखा होगा और अनुभव ने उसे सिखाया कि सीधे पशु-माता के स्तन को मुहँ लगाए बिना भी पशु-माताओं से दूध प्राप्त किया जा कर उस का उपयोग किया जा सकता है। मनुष्य जीवन के विकास में यह एक बड़ा परिवर्तन था। जिन पशुओं का वह मात्र खाद्य के रूप में संरक्षण कर रहा था उस पशु को जीवित रख कर भी उन से पोषक भोजन प्राप्त किया जा सकता था। इसी ज्ञान ने मनुष्य को पशु-संरक्षक से पशुपालक में बदलना आरंभ कर दिया। पशुपालन विकसित होने लगा। बेशक वनोपज-संग्रह और शिकार भी जारी रहा, लेकिन वह पशुपालन से अधिक जोखिम का काम था, पशुपालन के विकास के साथ ही उस का कम होना अवश्यंभावी था। मनुष्य ने यह भी जान लिया था कि पाले गए पशुओं की संख्या में स्वतः ही वृद्धि होती रहती है। मनुष्य को उन्हें हमेशा काबू कर पालतू बनाने की आवश्यकता नहीं है। शनैः शनैः मनुष्य वनोपज संग्राहक और शिकारी से पशुपालक होता गया। एक अवस्था वह भी आ गई जब वह मुख्यतः पशुपालक ही हो गया। पशुपालन से भोजन के लिए पशुओं की आवश्यकता की भी बड़ी मात्रा में पूर्ति संभव हो गयी। उस के लिए अब शिकार की जोखिम उठाना आवश्यक नहीं रह गया था। वनोपज संग्रह और शिकार अब अनुष्ठानिक कार्यों, शौक, आनंद, औषध आदि के लिए रह गए। जांगल युग समाप्त हो रहा था और मनुष्य सभ्यता के प्राथमिक दौर में प्रवेश कर चुका था। हालांकि यह युग भी मानव इतिहास में बर्बर युग के नाम से ही जाना जाता है। 

सामी और आर्य समूहों में पशुपालन मुख्य आजीविका हो चला था लेकिन अभी वे खेती के ज्ञान से बहुत दूर थे। मनुष्य जीवन पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों से निकल कर घास के मैदानों में आ चुका था। चौपायों के पालन और उन की नस्ल बढ़ाते रहने से, समूहों के पास पशुओं के बड़े बड़े झुण्ड बनने लगे। उन के पास भोजन के लिए मांस और दूध की प्रचुरता हो गई। इस का बालकों के विकास पर अच्छा असर हो रहा था। घास के मैदानों में वे प्रकृति के नए रहस्यों से परिचित हो रहे थे कि कैसे पानी और धूप घास के जंगलों को पैदा करती रहती है? कैसे घास के बीज अँकुराते हैं और घास पैदा होती रहती है। कैसे मिट्टी से उपयोगी बर्तन बनाए जा सकते हैं, और कैसे उन्हें आग में तपा कर स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है? कैसे किसी खास स्थान की मिट्टी से धातुएँ प्राप्त की जा सकती हैं? जिन से उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। एक लंबा काल इसी तरह जीते रहने के उपरान्त वे सोच भी नहीं सकते थे कि वे वापस उन्हीं पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों में जा सकते हैं।

म देख सकते हैं कि जांगल युग में मनुष्य तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। वह वे ही औजार तैयार कर पाता था जिन से प्राकृतिक वस्तुएँ प्रकृति से प्राप्त करने में मदद मिलती थी। इस से अगली पशुपालन की अवस्था में उस ने पशुओं में प्रजनन के माध्यम से प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखना आरंभ किया। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बना रहा था। लेकिन इस बेहतरी ने मनुष्य समूह में दो वर्ग उत्पन्न कर दिए थे, 'स्वामी' और 'दास'। पशुओं के रूप में संपत्ति ने जन्म ले लिया था। हालांकि इस संपत्ति का स्वामित्व अभी भी सामुहिक अर्थात संपूर्ण समूह का बना हुआ था। वह व्यक्तिगत नहीं हुई थी।  (क्रमशः) 


दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

सोमवार, 26 सितंबर 2011

दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

ज शर्मा जी नया एलईडी टीवी खरीद कर लाए हैं, मनोज ने नया लैपटॉप खरीदा है या फिर मोहता जी ने नई कार खरीदी है। जब भी इस तरह का कोई समाचार सुनने को मिलता है तो अनायास कोई भी यह प्रश्न कर उठता है। टीवी या लैपटॉप कौन सी कंपनी का लाया गया है, या कार कौन सी कंपनी की है? जैसे कंपनी का नाम पता लगते ही वस्तु की रूप-गुणादि का स्वतः ही पता लग जाएंगे। कंपनी का नाम वस्तुओं के उत्पादन के साथ अनिवार्य रूप से जु़ड़ चुका है। हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाएँ कंपनी हमारा पीछा छोड़ती दिखाई नहीं देती, वह परछाई की तरह मनुष्य का पीछा करती है। कंपनियों का जो स्वरूप आज मनुष्य समाज में सर्व व्यापक दिखाई देता है। लगभग छह सौ बरस पहले तक वह अनजाना था। आखिर पिछले छह सौ बरस पहले ऐसा क्या हुआ कि अचानक कंपनियों का उदय हुआ और थोड़े ही काल में उन्हों ने सारी दुनिया पर प्रभुत्व जमा लिया?

क जमाना था जब मनुष्य रोज की आवश्यकताओं को रोज पूरी करता था। भोजन के लिए जंगलों की उपज एकत्र करके लाना या शिकार करना ही इस के साधन थे। लेकिन इस तरह प्राप्त भोजन इतना ही होता था कि मनुष्य की प्रतिदिन की आवश्यकता को पूरा कर दे। न तो शिकार को बचा कर रखा जा सकता था और न ही जंगल से संग्रह की गई वनोपज को। भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के उस जांगल युग में मनुष्य ने अपने शिकार पशुओं का व्यवहार समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उस ने अनुभव से जाना कि कुछ जानवर ऐसे हैं जिन्हें शिकार किए बिना जीवित ही काबू किया जा सकता है। उन्हें घेर कर या बांध कर रखा जा सकता है, और शिकार न मिलने के कठिन दिनों में उन का उपयोग कर क्षुधापूर्ति की जा सकती है। यह मनुष्य समाज के विकासक्रम में आगे आने वाली महत्वपूर्ण अवस्था का पूर्वरूप था। जब पशु घेर कर या बान्ध कर रखे जाने लगे तो उन की सुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। काबू में किए गए पशु घेरा या बन्धन तोड़ कर स्वयं स्वतंत्र हो सकते थे, अन्य हिंस्र पशु भोजन की तलाश में उन पर हमला कर सकते थे, या कोई दूसरा मानव समूह उन पर कब्जा कर सकता था। मनुष्य को अपने समूह के सदस्यों के एक भाग को भोजन संग्रह और शिकार के काम से अलग कर इन काबू किए गए पशुओं की सुरक्षा में लगाना पड़ा। भोजन संग्रह और शिकार अभी मनुष्य के मुख्य काम थे और पशु संरक्षा के काम में लगाए गए स्त्री-पुरुष समूह के वे सदस्य थे जो इस के लिए कम योग्य या अयोग्य समझे जाते थे। लेकिन पशु संरक्षा का यह काम आरंभ करते समय मनुष्य को यह अनुमान तक नहीं था कि आगे आने वाले युग में भोजन संग्रह और शिकार गौण हो जाने वाला है और उस ने पशुओं को काबू करना सीख कर जीवन यापन के लिए एक नए, उन्नत और अधिक उपयोगी साधन के विकास की नींव रख दी है। 

भोजन संग्रह और शिकार युग में कभी कभी काम के दौरान दो मानव समूहों की भेंट भी हो जाती थी। यह भेंट वैसी नहीं होती थी जैसी आज दो देशों के राजनयिक या सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडलों की होती है। वह अनिवार्य रूप से हिंस्र होती थी। यह हिंसा होती थी संग्रह किए जाने वाले भोजन या शिकार पर कब्जे के लिए। यह भेंट कुछ कुछ आज कल किसी क्षेत्र में अवैध व्यापार करने वाली गेंगों के बीच होने वाली गैंगवार जैसी होती होगी। जब तक एक समूह को पूरी तरह नष्ट न कर दिया जाए या क्षेत्र से बहुत दूर न खदेड़ दिया जाए, तब तक दूसरे समूह के लोगों को कत्ल कर देने का सिलसिला खत्म न होता था। पशु संरक्षा के नए काम ने इन हिंसक मुलाकातों के अंत का मार्ग भी प्रशस्त किया। अब पशु संरक्षा के काम को आरंभ कर चुके समूहों को पशुओं की सार संभाल के लिए कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस हो रही थी जो बन्धन में रहकर काम कर सकें। उस काल तक एक समूह को पराजित कर देने के उपरान्त पराजित समूह के सभी सदस्यों की हत्या कर देने के और शेष बचे सदस्यों को भाग जाने देने के स्थान पर बन्दी बना कर उन से काम लेना अधिक उपयोगी था। पराजित समूह के शेष बचे सदस्यों के लिए भी लड़ कर जीवन का सदा के लिए अन्त कर देने के स्थान पर बन्दी बन कर जीवन बचाए रखना अधिक उपयोगी था, उस में स्वतंत्र जीवन की आस तो थी। मानव विकास का यह मोड़ अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसे हम मनुष्य समाज के विकासक्रम में दास युग का प्रारंभ कह सकते हैं। (क्रमशः)

शनिवार, 24 सितंबर 2011

गरीबी संख्या से हटती है।

ब से यह निठल्ला जनतंत्र आया है तब से गरीबों की सहायता करना सरकार के लिए सब से बड़ी समस्या बनी हुई है। उन्हें सारा हिसाब किताब रखना पड़ता है कि देश में कितने लोग गरीब हैं? फिर उन की नियमित रूप से सहायता करनी पड़ती है। जनतंत्र न होता तो ये समस्या होती ही नहीं। तब राज करना आसान था। बस तलवार का जोर चाहिए था। अब तो एक निर्धारित अंतराल के बाद जनता से वोट हासिल करने जाना होता है। अब जब जनतंत्र का पल्ला पकड़ ही लिया है तो जाना तो होगा ही। जब जब भी जाना पड़ता है जनता से मुकाबला भी करना पड़ता है। जनता के पास जाते हैं तो गरीब से भी पाला पड़ता ही है। तब गरीब से कहना पड़ता है कि बस उन की सरकार बन जाए तो फिर वे गरीबी को हटा देंगे। उन के राज में कोई गरीब न रहेगा। कोई चार दशक पहले जब यह बात भारत में पहली बार वोट मांगने के लिए इस्तेमाल की गई थी तो जो सरकार बनी वह टाटा की स्टील से भी कई गुना मजबूत थी। ऐसा लगा था कि अब गरीबी कुछ ही दिनों की मेहमान है। उस के बाद जनता दिन गिनती रह गई। दिन गिनते-गिनते साल निकल गए, गरीबी बहुत हटीली निकली हटी नहीं। सरकार ने पाँच के बजाए छह साल लिए फिर भी नहीं हटी। सरकार गरीबी हटाते हटाते गरीबों को हटाने में जुट गई। गरीबों ने सरकार को हटा दिया।तब से यह कायदा हो गया है कि वोट मांगने लिए गरीबी हटाने की बात करना जरूरी है। 

सा नहीं है कि गरीबी को हटाने के प्रयास न किए जाते हों। कई सरकारें बदलीं, अलग-अलग रंगों की सरकारें बनीं। कई मेल के रंगों की सरकारें बनीं। हर सरकार ने प्रयोग किए, पर सफल कोई न हुआ। फिर अचानक एक विद्वान प्रधानमंत्री के दिमाग में अचानक सौदामिनी दमक उठी। गरीबी इसलिए नहीं हट रही है कि हम उस पर जरा अधिक ध्यान दे रहे हैं। हमें ध्यान देना चाहिए अमीरी बढ़ाने पर। जब अमीरी बढ़ेगी तो गरीबी क्या खा कर बचेगी। उसे तो रसातल में जाना ही पड़ेगा। अमीरी के भारत प्रवेश के लिए खिड़की दरवाजे खोले जाने लगे। नई नई चीजें देश में दिखाई देने लगीं। गरीब खुश हो गया, नई नई चीजों का आनन्द लेने लगा। उसे लगा कि अब गरीबी गई, अब उसका बचना नामुमकिन है। अखबारों में, टीवी चैनलों में खबरें आने लगी। अब देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ गई है। अब अरबपति भी होने लगे हैं। दुनिया के सब से अमीर लोगों की सूची में स्थान पाने लगे हैं। गरीब की खुशी और बढ़ गई। 

रीब समाचार पढ़ सुन कर प्रसन्न था। फिर सुनने को मिलने लगा कि गरीब भारत में ही नहीं अमरीका इंग्लेण्ड में भी होते हैं। उस की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। वाह! क्या बात है? अमरीका और इंग्लेंड में भी गरीब रहते हैं! प्रसन्नता समाती भी कैसी उस की इज्जत बढ़ रही थी वह अमरीका इंग्लेंड से मुकाबला कर रहा था। अब गरीबी उन्हें रास आने लगी। गरीबों को ही क्यों वह तो अब अच्छे-अच्छों को रास आ रही थी। इस बात का पक्का सबूत भी लगातार मिलने लगा। सरकार ने जब गरीबों को बीपीएल नाम का पहचान पत्र देना आरंभ किया तो गरीब ही क्यों गरीबी की रेखा के उस पार दूर दूर तक विराजमान लोगों ने इस पहचान पत्र को बनवाने के लिए मशक्कत की और बनवा भी लिए। लेकिन सरकार उदास हो गई। वह तो चली थी गरीबी हटाने बीपीएल कार्ड तो गरीबों की संख्या बढ़ाने लगे। चिन्ता बढ़ने लगी, इतनी बढ़ी कि उसे घबराहट होने लगी। तुरंत योजना आयोग को बताया गया कि इस का इलाज करना होगा। योजना आयोग प्राण-प्रण से जुट गया। उस ने सारे देश में अपने जासूस भेज दिए आखिर उस ने तोड़ निकालने के लिए पता लगा ही लिया कि देश के किसी भी नगर में 32 और गाँव में 26 रुपए रोज खर्च करने तक की क्षमता रखने वाला गरीब नहीं हो सकता। उस ने यह बात छुपा कर भी नहीं रखी। सुप्रीमकोर्ट तक को बता दी। पर इस से गरीब बहुत नाराज हैं। इस तरह तो उन की संख्या कम हो जाएगी, जो उन्हें कतई पसन्द नहीं है।  आखिर जनतंत्र में संख्या का ही तो खेल है। संख्या से ही तो गरीबी मिटती है। अब झारखंड वाली पार्टी के पास संख्या न होती तो कोई सरकार बचाने को उन की गरीबी हटाता?

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

आज जन्मदिन की शुभकामनाएँ! किसे दें ?

आज  हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन ब्लाग के ब्लागर

हर दिल अजीज बी.एस. पाबला जी का जन्मदिन है

बुधवार, 21 सितम्बर, 2011










पाबला जी को असीम, अनन्त, अशेष शुभकामनाएँ!!!

सोमवार, 19 सितंबर 2011

उपवास-1, एकादशी महात्म्य


मैं ने बचपन से ही घर के बड़ों को एकादशी का उपवास करते देखा। हर एकादशी को वे भोजन नहीं करते। केवल दूध, चाय और पानी पीते। दुपहरी कट जाने के बाद अम्माँ एकादशी करने वालों के लिए आलू के चिप्स और साबूदाने के पापड़ तलती, सैंधा नमक और काली मिर्च से उन में स्वाद पैदा करती। सिंघाड़े या आलू का हलुआ भी उन के साथ बनाया जाता। ठाकुर जी को भोग लगाया जाता। फिर उपवासी एक साथ या एक एक कर के शाकाहार करते। हम बच्चों को भी इस शाकाहार में भाग मिलता। आलू के चिप्स और हलुआ अच्छा लगता, लेकिन सिंघाड़े का हलुआ कतई अच्छा नहीं लगता। कभी कभी कोई अम्माँ से पूछता -आप सारी ही एकादशी करती हैं क्या? अम्माँ का जवाब होता -करनी पड़ती हैं, पिछली साल दादी सास का देहान्त हुआ तब पंडित ने संकल्प करने को कहा था। मैं ने चौबीस एकादशी उन को दे दीं। अब वे तो करनी ही पड़ेंगी। जब तक चौबीस एकादशी पूरी होती कोई और निकट संबंधी परलोक गमन कर जाता। एकादशी के कर्ज खाते में कुछ एकादशी और दर्ज हो जाती। पिछले पचास वर्ष में कोई समय ऐसा नहीं आया कि अम्माँ का एकादशी कर्ज खाता कभी चुकता हो गया हो। 

कुछ बड़ा हुआ तो पता लगा कि भारत में किसान का कर्जा कभी नहीं चुकता वह कर्जे में ही पैदा होता है और कर्जे में ही परलोक चला जाता है। कर्जे की इस चक्की में महाजन माल बनाता रहता है और एक दिन ऐसा आता है कि किसान की जमीन महाजन के नाम हो जाती है। फिर किसान अपनी ही जमीन पर महाजन का कर्जदार हो कर बेगारी करने लगता है। मुझे लगने लगा था कि किसान की और मेरी अम्माँ की कर्ज की समस्या में कोई गंभीर संबंध है। फिर बहुत बाद में मैं ने भारतीय देव परिवार का विकास पढ़ा तो समझ आया कि वैदिक देवता होते हुए भी विष्णु की कोई खास पूछ नहीं थी। आर्यों और लिंगपूजकों में संघर्ष के दौरान सर्वोपरि आर्य देवता इन्द्र अपने कारनामों (गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के शील भंग जैसे कांड, जिस में उसे ऋषि गौतम के शाप के कारण अपने अंडकोष खोने पड़े थे। वापस देवलोक पहुँचने पर वहाँ के शल्य चिकित्सकों को मेंढे के अंडकोष लगा कर उसे फिर से वीर्यवान बनाना पड़ा, आखिर बिना अंडकोषों के वह देवताओँ का राजा कैसे बना रह सकता था, तीनों लोंकों में उस की भद्द न पिट जाती।) से बदनाम हो गया। शल्य चिकित्सा से वह भौतिक सुखों के योग्य तो हो गया लेकिन दुनिया में भद्द तो पिट ही गई। आर्यों द्वारा तो उसे स्वीकार करना मजबूरी थी। लेकिन अनार्य, विशेष रूप से लिंगपूजक उसे कैसे स्वीकार करते? लिंग पूजकों पर आर्यों ने भौतिक विजय तो हासिल कर ली थी लेकिन सांस्कृतिक विजय के बिना तो वह अधूरी ही रहती।

ब आर्यों के पास कोई उपाय शेष नहीं था। उधर लिंगपूजकों का पशुपति आर्यों में आदर पाने लगा था। उस की रुद्र से समानता भी थी। आखिर इंद्र के अनुज विष्णु को मैदान में उतारना पड़ गया। वह सीदा सादा था। उस पर जलंधर का रूप रख उस की पत्नी वृन्दा को छलने के सिवा कोई आरोप न था। पर उस के लिए तो आर्यों के पास उपयुक्त बचाव था, कि यदि विष्णु ऐसा न करता तो जलंधर को परास्त कर पाना असंभव था। तो विष्णु को लाँच किया गया। उस में तत्काल असफलता हासिल न हुई तो उसे भटकती मृतात्माओं के तारनहार के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह पासा चल निकला। कौन था जो अपने पूर्वजों की मृतात्माओं को भटकता देखना चाहता। कम से कम उस हालत में तो कतई नहीं जब कि वे अपने वंशजों के शरीर में आ कर उत्पात मचाती हों और उन के जीवन को नर्क बना देती हों। तब से अपने पूर्वजों की मृतात्माओं से मुक्ति और मृतात्माओं की मुक्ति के लिए एकादशी का उपवास चल रहा है, आज कल तो यह दौड़ रहा है। नगरों में तो दुकानों पर तरह तरह के स्वादिष्ट और सामान्य भोजन से कई गुना अधिक कैलोरी ऊर्जा प्रदान करने वाले फलाहारी व्यंजन उपलब्ध हैं। जिन के कारण मृतात्माओं से और मृतात्माओं की मुक्ति को अत्यन्त सरल और आनंदपूर्ण बना दिया है।

म्माँ अभी भी उपवास के कर्ज तले दबी है। मैं जान चुका हूँ कि जन्म से पहले और मृत्यु के उपरान्त आत्मा का कोई भाव नहीं, शरीर के बिना उस का अस्तित्व संभव ही नहीं। मैं सदेह मुक्त हूँ। अम्माँ का कार्यभार श्रीमती जी ने संभाल लिया है, लेकिन वे कर्जा नहीं करतीं। वे पहले से एकादशी का उपवास कर के बैंक में रखती हैं। जब भी जरूरत होती है उस में से चैक काट देती हैं। लेकिन यह उपयोगितावाद का युग है। एक वस्तु या व्यवहार का एक उपयोग आज के इंसान को बर्दाश्त नहीं। उसने उपवास के भी अनेक उपयोग निकाल लिए हैं .....

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

वकील बाबू क्या हुआ?

कुछ दिनों से कान में सुरसुराहट हो रही थी, लग रहा था पेट्रोल के दाम अब बढ़े, अब बढ़े। दिन भर अदालत में व्यस्त रहे वकील बाबू शाम को थक कर घर पहुँचे तो खबर इंतजार ही कर रही थी। कान की सुरसुराहट बंद हो चुकी थी। पेट्रोल के दाम में तीन रुपए का इज़ाफा होने की घोषणा हो चुकी थी। आधी रात के बाद नए भाव से मिलना शुरू हो जाना था। वकील बाबू की कार की टंकी फुल करवाने का अभी आधी रात तक तो मौका था। हिसाब लगाना शुरू किया। 28 लीटर की टंकी, जिस में कम से कम तीन लीटर तो अभी भी भरा होगा, खाली स्थान बचा 25 लीटर। अभी दाम है 67.40 रुपए प्रति लीटर। 25 लीटर के लिए चाहिए 1685/- । जेब टटोली तो वहाँ निकले पाँच सौ के पाँच नोट। पेट्रोल भरवा लिया तो एक ही बचेगा, तीन सौ-सौ के नोटों के साथ। यकायक जेब का इतनी हलकी हो जाना दिल को गवारा न था। वकील बाबू बचत का हिसाब लगाने लगे। कुल तीन-साढ़े तीन रुपए बढ़ने हैं। अधिक से अधिक 75-80 रुपए का फायदा होना था। बस! इतनी सी बचत होगी?

कील बाबू ने कार लेकर पंप पर जाने का इरादा त्याग दिया। शाम को भोजन के समय टीवी समाचार पर नजर पड़ी तो 75-80 रुपए का लालच सताने लगा। मन कह रहा था, कार ले कर निकल पड़। दो-तीन किलोमीटर ही तो है आना-जाना। ज्यादा से ज्यादा से ज्यादा 10-12 रुपए का पेट्रोल जलेगा, फिर भी 65-70 तो बच ही लेंगे। फिर ख्याल आ गया। पिछली बार तीन पेट्रोल पंपों ने लौटा दिया था तब जा कर चौथे पर पर पेट्रोल मिला था। वह भी आधा घंटा लाइन में लगे रहने के बाद। कम से कम आठ बार इंजन को चालू बंद करना पड़ा था। 40 रुपए का पेट्रोल तो इसी में फुँक गया था। पर तब 5.32 रुपए प्रति लीटर का सवाल था। इस बार इतना ही पेट्रोल फूँकना पड़े और कम से कम एक घण्टा टाइमखोटी किया जाए तो भी टंकी फुल करा कर बचेगा क्या? सिर्फ 30 रुपल्ली। वकील बाबू ने फाइनली तय कर लिया कि कार को गैराज से बाहर निकालना फिज़ूल है, इस से अच्छा तो ये है कि वकालत का काम देखा जाए।

णित, वकील बाबू की पुरानी प्रेयसी जब दिमाग में घुस जाती है तो आसानी से निकलती नहीं। गणना बराबर चल रही थी। कार महीने में 50-55 लीटर पेट्रोल पीती है। कुल मिला कर दो सौ रुपए का पेट्रोल खर्च बढ़ेगा। इतना और कूटना पड़ेगा मुवक्किलों से। वैसे मुफ्त सलाह लेने वाले लोगों में से एक से भी फीस वसूल ली तो घाटा पट जाएगा। इत्ती गणना हुई कि भोजन निपट लिया। वकीलाइन ने सब्जी के भाव बताना शुरू कर दिया। भाव बता चुकने पर पूछा -बाजार सामान लेने कब चलना है? रसोई के डिब्बे खाली हो चले हैं। गणना फिर शुरू हो गई। पेट्रोल खरचा तो सब्जी वाले का भी बढ़ा है। कल सब्जी में पाँच रूपया किलो बढ़ जाना है। दूध वाला कल से दाम तो नहीं बढ़ाएगा, पर पानी बढ़ा देगा। किराने वाला, और .......... ये सब भी तो कहीं न कहीं कसर निकालेंगे। नहीं निकालेंगे तो जिएंगे कैसे। वकील बाबू का महिने में एक मुवक्किल से सलाह की फीस लेने का फारमूला फेल हो गया। अब तो हर मुवक्किल ट्राई करना पड़ेगा।

वैसे ये बहुत बुरी बात है। ये सरकार ... सॉरी! तेल कंपनियाँ हर तीसरे महीने 3-5 रुपए बढ़ा देती हैं। कभी कच्चे के दाम बढ़ने के कारण, तो कभी रुपए का दाम घटने के कारण। सरकार कुछ सोचती ही नहीं। इस तरह दाम बढ़ाने पड़े तो तीन बरस में बारह बार बढ़ाने पड़ेंगे। फिर चुनाव आ जाएगा। लोगों को ताजा ताजा याद रहती है। एक साथ ही दाम 100 रुपए लीटर कर दिए होते तो ठीक था। वकील बाबू भी उस का तोड़ एक बार में ही निकाल लेते। 3 साल में जनता भूल जाती कि दाम 100 रुपए किया था। गुंजाइश निकलती तो ठीक चुनाव के पहले 5-10 रुपए कम किए जा सकते थे। वकील बाबू ने पिछली बार भी कहा था कि दाम सीधे ही 100 रुपया लीटर कर देना चाहिए। पर सरकार के नक्कार खाने में वकील बाबू की तूती कौन सुनता? 
कील बाबूने आज फैसला कर लिया है। कल अदालत में वकीलों, टाइपिस्टों, क्लर्कों, मुवक्किलों.... आदि आदि से बात करेंगे कि मोर्चा जमाया जाए। पेट्रोल का दाम सीधे 100 रुपए किया जाए। बार-बार दाम बढ़ाने से बहुत तकलीफ होती है। धीरे-धीरे गंजा होने से अच्छा है एक बार ही नाई से उस्तरा फिरवा लिया जाए। कम से कम लोग पूछेंगे तो वकील बाबू क्या हुआ?

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत

र्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय के बाद छह करोड़ गुजरातियों के नाम खुली चिट्ठी लिखने वाले नरेन्द्र मोदी के नाम गुजराती आईपीएस अधिकारी संजीव राजेन्द्र भट्ट ने खुली चिट्ठी लिखी है। इस चिट्ठी के अंत में भट्ट ने महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के अपने सहपाठी भूचुंग डी. सोनम की एक कविता उदृत की है। यहाँ उस कविता का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है ... 

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत
  • भूचुंग डी. सोनम

मेरे पास सिद्धांत है, बल नहीं
तुम्हारे पास बल है, सिद्धांत कोई नहीं
तुम 
तुम हो, और मैं 
मैं हूँ
सुलह का कोई मार्ग नहीं  
उतरो मैदान में युद्ध के लिए
 
मेरे साथ सत्य है, कोई बल नहीं
तुम्हारे पास बल है, सत्य कोई नहीं
तुम 
तुम हो, और मैं 
मैं हूँ
सुलह का कोई मार्ग नहीं  
उतरो मैदान में युद्ध के लिए

तुम तोड सकते हो
मेरा सिर
फिर भी तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए
 
तुम फो़ड़ सकते हो
मेरी हड्डियाँ
फिर भी तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए
 
तुम मुझे जिंदा दफन कर सकते हो
फिर भी
तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए

करूंगा मैं युद्ध
अपनी रगों में दौड़ते हुए सत्य के साथ 
 
करूंगा मैं युद्ध
सचाई के हर अंश के साथ 
 
करूंगा मैं युद्ध
जीवन के अंतिम श्वास तक

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत
धराशाई न हो जाए जब तक
असत्य की ईंटों से निर्मित तुम्हारा दुर्ग

घुटने न टिका दे जब तक  
तुम्हारे असत्यों से पूजित शैतान  
सचाई के फरिश्ते के सामने 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

उपभोक्ता के रूप में क्या आप हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं?

दो दिन पहले सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी के शाखा कार्यालय जाना हुआ। बीमा कंपनी हर वर्ष 14 सितम्बर से एक सप्ताह तक हिन्दी सप्ताह मनाती है। इस के लिए कुछ बजट भी शाखा में आता है। इस सप्ताह में कर्मचारियों के बीच निबंध, हिन्दी लेखन, हिन्दी प्रश्नोत्तरी जैसी कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित कराई जाती हैं और अंतिम दिन पुरस्कार वितरण होता है। जिस के उपरान्त जलपान का आयोजन होता है और इस तरह हिन्दी को कुछ समृद्धि प्रदान कर दी जाती है। दो वर्षों से इस सप्ताह के अंतिम दिन जब हिन्दी प्रश्नोत्तरी और पुरस्कार वितरण का आयोजन किया जाता है तो वे मुझे बुलाते हैं। इस बार भी उन्हों ने मुझे आने को कहा। मैं ने उन्हें अपनी सहमति दे दी। इन प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुछ नवीनता आए और हिन्दी में काम करने के प्रति लोगों का रुझान पैदा हो इस के लिए मैं ने कुछ सुझाव भी दिए। सुझावों को गंभीरता से सुना तो गया। लेकिन उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जो उत्साह होना चाहिए वह वहाँ दिखाई नहीं दिया। मुझे लगा कि इस वर्ष फिर पिछले वर्षों की तरह ही बनी बनाई लकीर पर एक और लकीर खींच कर हिन्दी सप्ताह संपन्न हो लेगा।

कुछ देर और मुझे शाखा प्रबंधक के कक्ष में रुकना पड़ा तो मैं ने उन्हें बताया कि उन के कंप्यूटरों में हिन्दी भाषा का उपयोग करने की सुविधा है लेकिन उसे चालू नहीं किया हुआ है। यहाँ तक कि वे इस सुविधा को चालू कर के पूरे कंप्यूटर को हिन्दी रूप प्रदान कर सकते हैं। मैं ने उन के कंप्यूटर के डेस्कटॉप पर लगे आईकॉन के नाम देवनागरी में बदले। उन्हें बताया कि कैसे फाइल और फोल्डर्स के नाम नागरी में अंकित किए जा सकते हैं। उन्हों ने पूछा कि हिन्दी तो उन के कंप्यूटर पर पहले भी टाइप की जाती रही है, लेकिन जब वे उस पर हिन्दी फोन्ट में फाइल का नाम लिखते थे तो रोमन में अजीबोगरीब शब्द आ जाते थे, लेकिन आप ने यह सब कैसे लिखा? 

मैंने उन्हें बताने लगा कि उन का कंप्यूटर उन सब भाषाओं को समझ सकता है जो कि कंट्रोल पैनल के 'क्षेत्र और भाषा' विकल्प में दर्ज हैं, लेकिन वे उस विकल्प का उपयोग नहीं करते। वे केवल अंग्रेजी विकल्प का ही प्रयोग करते हैं जब कि उन का कंप्यूटर एक साथ अनेक भाषाओं और लिपियों में काम कर सकने की क्षमता रखता है। जब वे केवल अंग्रेजी के विकल्प का उपयोग भी आरंभ कर दिया जाता है तो जो कंप्यूटर केवल अंग्रेजी समझता था वह हिंदी भी समझने लगता है। लेकिन कंप्यूटर केवल यूनिकोड के हिन्दी फोन्ट को ही हिंदी के फोन्ट के रूप में मान्यता देता है, अन्य फोंट को नहीं। उस का कारण यह है कि अन्य फोंट वास्तव में अंग्रेजी कोड पर आधारित हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि उन में किसी खास रोमन अक्षर के स्थान पर देवनागरी के किसी अक्षर, अर्धाक्षर या मात्रा का चित्र विस्थापित कर दिया गया है जिस से देवनागरी के अक्षर को भी कंप्यूटर रोमन का ही कोई अक्षर समझता रहता है।

मेरे इतनी बात करने का लाभ यह हुआ कि शाखा प्रबंधक ने यूनिकोड हिन्दी टाइप करने के औजारों के संबंध में बात करना आरंभ किया। सब कुछ अल्प समय में बताना संभव नहीं था इसलिए मैं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे हिन्दी सप्ताह में कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करने के तरीकों के बारे में उन की शाखा में क्यों नहीं एक कक्षा आयोजित करते हैं? उन्हों ने आश्वासन दिया कि वे उस के लिए प्रयत्न करेंगे। मैं ने उन्हें यह भी बताया कि वे जो काम अंग्रेजी में करते आए हैं उसे हिन्दी में भी कर सकते हैं। जैसे ग्राहकों से हिन्दी में पत्र व्यवहार करना या भुगतान के चैक आदि हिन्दी में बनाना है। मैं ने उन्हें बताया कि मैं यह सब व्यवहार हिन्दी में ही करता हूँ और अंग्रेजी का उपयोग तभी करता हूँ जब कि वह अपरिहार्य हो जाता है। हिन्दी में चैक आदि बनाने पर राशियाँ लिखना बड़ा आसान है। इस बीच शाखा प्रबंधक ने एक ग्राहक को देने के लिए चैक बनाया तो उसे हिन्दी में लिखा और मुझे बताया। मैं ने उन्हें कहा कि यह चैक अंग्रेजी में लिखे गए चैक से अधिक सुंदर लग रहा है और गड़बड़ की गुंजाइश भी और कम हो गई है। जिस ग्राहक को यह चैक मिलेगा उसे भी हिन्दी में यह काम करने की प्रेरणा मिलेगी। शाखा प्रबंधक ने बताया कि वे प्रयत्न करेंगे कि अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। इस बीच सहायक ने उन्हें बताया कि बीमा पॉलिसी को हिन्दी में छापने की सुविधा भी उपलब्ध है। तो प्रबंधक जी कहने लगे कि जब तक ग्राहक अंग्रेजी में पॉलिसी छापने का खुद आग्रह न करे उसे पॉलिसी हिन्दी में छाप कर दी जानी चाहिए। उन्हों ने कहा कि मुझे अब तक खुद यह बात पता नहीं थी। लेकिन वे अब इस काम को भी हिन्दी में चालू करना चाहेंगे। 

गभग सभी व्यवसायिक संस्थाओं और उपक्रमों में हिन्दी में काम करने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं लोग परंपरा के कारण अंग्रेजी में का्म करते रहते हैं। यदि उपभोक्ता खुद हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो यह काम हिन्दी में हो सकते हैं। मैं तो हर स्थान पर हिन्दी में काम करने की मांग करता हूँ। आप चाहें तो आप भी कर सकते हैं। मुझे लगता है कि उपभोक्ता हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो हिन्दी को उस का उचित स्थान प्राप्त करने में वे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। क्या आप भी उपभोक्ता के रूप में हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं? यदि नहीं तो क्या अब करेंगे?

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सारा मीडिया अपराधी और दोषी है

ज से श्राद्धपक्ष आरंभ हो गया है। उस के साथ ही तमाम मीडिया चाहे वे अखबार हों या टीवी चैनल श्राद्ध को महिमामंडित करने में जुट गया है। इस काम को करते हुए हिन्दी मीडिया की भूमिका किस तरह की है? हमें उस की जाँच करनी चाहिए कि वह जनपक्षीय है या जनविरोधी? वह किस तरह के विचारों को जनता के बीच प्रचारित कर रही है? रविवार को दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों ने श्रीयुत राजेश साहनी ज्योतिषविद् एवं ज्योतिष सलाहकार का आलेख 'बुजुर्गो के प्रति श्रद्धा पितृ-दोष से मुक्ति' प्रकाशित किया है।  

श्रीयुत साहनी अपने आलेख के प्रारंभ में रामायण, पुराणों और गीता का उल्लेख करते हुए यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि  पूर्वजों द्वारा किए गए कर्मों का नतीजा उन के वंशजों को भुगतना पड़ता है, यही पितृदोष है। वे समाधान बताते हैं कि कर्मकांड पूर्वक श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न हो जाते हैं। पितरों के प्रसन्न होने से जीवन की समस्याओं का समाधान हो जाता है और पितृदोष से मुक्ति मिलती है।  श्रीयुत राजेश का सारा ध्यान यह समझाने पर है कि आज व्यवस्था के दोषों के कारण जनता जिस तरह का कष्टमय जीवन जी रही है उस का मूल कारण यह व्यवस्था नहीं, अपितु तुम्हारे पितरों द्वारा किए गए दुष्कर्म हैं। इसलिए तुम्हें व्यवस्था को दोष देने के स्थान पर श्राद्ध करने चाहिए।  श्रीयुत राजेश का यह कुतर्क कि पितरों को प्रसन्न करने से ग्रहों और देवताओं की कृपा होती है मेरे गले नहीं उतरा, शायद आप के गले उतर जाए। जो पितर स्वयं दुष्कर्म के दोषी थे उन के प्रसन्न हो जाने से ग्रहों और देवताओं को प्रसन्न करने की श्रीयुत राजेश की जुगत वैसी ही है जैसे किसी का पिता किसी अपराध के लिए जेल में बंद हो, तो जेल अधिकारियों को कुछ खिला-पिला कर पिता को सुविधाएँ पहुँचा कर प्रसन्न कर दिया जाए तो संतान उस अपराध के लांछन से मुक्त हो जाएगी?

श्रीयुत राजेश जी केवल शास्त्रों में ही दखल नहीं रखते, वे विज्ञान और खास तौर पर खगोल विज्ञान में भी महारत रखते हैं। उन्हें पितरलोक का पता भी मालूम है। वे कहते हैं  ...  चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा लगभग 27 दिन 7 घंटे 45 मिनट में पूर्ण होती है। उल्लेखनीय है कि चंद्रमा का एक भाग ही पृथ्वी की ओर रहता है, दूसरा भाग पृथ्वी की ओर कभी नहीं आता। चंद्रमा जितनी कालावधि में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है, उतने ही कालखंड में वह अपने अक्ष पर एक बार घूम जाता है, इस कारण चंद्रमा का एक भाग सदैव पृथ्वी की ओर होता है, तो दूसरा भाग अदृश्य। चंद्रमा का अदृश्य अंधकारमय भाग, जो पृथ्वी की ओर नहीं आता, उसे पितृलोक माना जाता है। 

मैं ने कुछ देर के लिए श्रीयुत राजेश की इस बात को मान लिया कि चंद्रमा का वह भाग जो कभी पृथ्वी की ओर नहीं आता वह पितरलोक है। पर उन की इस प्रस्थापना ने कि वह भाग अदृश्य है और अंधकारमय भी अपने भेजे में घुसने से मना कर दिया। एक तो अमावस के दिन वह भाग पूरी तरह प्रकाशित रहता है, इस तरह उसे अंधकारमय कहना गलत है। फिर वह अदृश्य भी नहीं है, अमावस के रोज उस पूरे भाग को चंद्रमा के पिछली ओर जा कर देखा जा सकता है।  अचानक श्रीयुत राजेश का मस्तिष्क तुरंत रोशन हो उठता है, और चंद्रमा के पृष्ठ भाग जिसे वे पितर लोक बता रहे हैं के लिए कहते हैं कि जब हमारे यहाँ (पृथ्वी पर) अमावस्या होती है तो पितरलोक में मध्यान्ह होता है और यह पितरों के भोजन का समय होता है। इसी कारण अमावस्या के दिन हम श्राद्धकर्म करते हैं। लेकिन श्रीयुत राजेश जी का मस्तिष्क जिस बत्ती के जलने से रोशन हो उठा था वह तुरंत ही बुझ जाती है, (वे चाहें तो इस के लिए बिजली सप्लाई कंपनी को दोष दे सकते हैं) वे तुरंत चंद्रमा के पृष्ठ भाग पर सदैव के लिेए अंधकार कर देते हैं। वे कहते हैं  ...   वैज्ञानिक मतानुसार भी चंद्रमा की नमीयुक्त सतह पर दिशा सूचक यंत्र कार्य नहीं करते तथा एक भाग सदैव अंधकार से आच्छादित रहता है, जो चंद्रमा पर पितृ-लोक संबंधी अवधारणाओं की पुष्टि करता है।

बेचारे वैज्ञानिक बरसों से चंद्रमा पर नमी तलाश रहे हैं, फोटू खींच-खींच कर परेशान हैं कि किसी तरह बूंद भर पानी का पता लग जाए। वे पता नहीं लगा पाए। उन्हें तुरंत श्रीयुत राजेश जी से संपर्क कर के उन वैज्ञानिकों का पता प्राप्त कर लेना चाहिेए जिन्हें चंद्रमा के नमीयुक्त भाग का पता मालूम है और जहाँ जा कर उन के दिशासूचक यंत्र फेल हो गए थे।  श्रीयुत राजेश जी विश्वास जल्दी ही डिग जाता है कि पाठक राजा दशरथ की कहानी पर विश्वास कर लेंगे।  पाठकों का विश्वास कायम रखने के लिए वे तुरंत अपनी फलित ज्योतिष को सामने ला खड़ा करते हैं। वे सूर्य, शनि, राहु, के साथ-साथ शुक्र और बृहस्पति को दोष देने लगते हैं कि वे किसी के जन्म के समय किसी खास स्थान पर क्यों थे? जल्दी ही अपने धंधे पर आ कर राशियाँ और पितृदोष से मुक्ति के शुद्ध भौतिक उपाय बताने लगते हैं। 

गभग सभी अखबार इस तरह के आलेख प्रकाशित कर रहे हैं, टीवी  चैनल्स पर तो यह काम चीख-चीख कर होता है। खास मेक-अप में खास लोग आ कर अदालत के हरकारे की तरह आवाज लगाते हैं ... मेष राशि वालों .............. ओं !!!!!!!!! मुझे हंसी चलती है, लेकिन पीड़ित लोग उसे ध्यान से सुनते हैं और उलझ जाते हैं। मुझे तुंरत यू. आर. अनंतमूर्ति की कृति और उस पर आधारित गिरीश कासरवल्ली की पहली फिल्म "घटश्राद्ध" स्मरण होने लगती है जो श्राद्ध के कर्मकांड के पाखंड और उस में फँस कर बिन जल मीन की तरह छटपटाते जन की कहानी उजागर करती है। इस तरह के आलेख जनता को उसी जाल में फँसाए रखना चाहते हैं जिस जाल में फँसे रहने के कारण इस देश की जनता को देशी-विदेशी सामंत और आक्रान्ता लूटते रहे। इस तरह वे आज के शोषक पूंजीवादी निजाम की रक्षा करते हैं।

नुष्य के जन्म से ले कर आज तक मानव जाति की जितनी पीढ़ियाँ गुजरी हैं, सभी पीढ़ियों के मनुष्य ने जीवन जीते हुए अनुभव अर्जित किए, संपत्ति अर्जित की जिसे वे आने वाली पीढ़ियों के लिेए छो़ड़ गए हैं। हमें उन के अनुभव शिक्षा के रूप में प्राप्त होते हैं। जिन के आधार पर हम पूर्वजों के आगे का विकसित जीवन जीते हैं। हम पर हमारे पूर्वजों का कर्ज है। लेकिन यह कर्ज ब्राह्मणों को भोजन करवा कर नहीं उतारा जा सकता। उसका तो सब से सही तरीका यही है कि हम अपना जीवन जीते हुए नए अनुभव अर्जित करें और पूर्वजों से प्राप्त शिक्षा में उनका योग करते हुए आगे आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा रुप में छोड़ जाएँ। श्राद्ध-पक्ष में हम परिवार और मित्रों सहित एकत्र हो कर अपने पूर्वजों का स्मरण करें, उस में कोई बुराई नहीं। लेकिन इस स्मरण को कर्मकांड, पितृदोष आदि से जोड़ कर देखना गलत है और दिखाना मनुष्यता के प्रति अपराध। हमारा सारा मीडिया इस अपराध का दोषी है।