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रविवार, 16 जुलाई 2017

हिन्दी ब्लाग की उपलब्धि तीसरा खंबा को 5 वर्ष 6 माह 15 दिन में मिले 15 लाख विजिटर्स

हिन्दी ब्लागों को पढ़ते और टिपियाते हुए सुझाव आया कि मुझे भी ब्लाग लिखना चाहिए। 28 अक्टूबर 2007 को मेरा जो पहला ब्लाग सामने आया वह "तीसरा खंबा" था।


"तीसरा खंबा" के माध्यम से विधि के क्षेत्र में कुछ अलग करने का मन था। कुछ किया भी, लेकिन टिप्पणियों में यह फरमाइश होने लगी कि मैं लोगों को उन की समस्याओं के लिए कानूनी उपाय भी बताऊँ। मैं ने वह आरंभ किया तो। तीसरा खंबा पर समस्याएँ आने लगीं। तो मैं ने कम से कम एक समस्या का समाधान या उपाय हर रोज लिखना शुरू किया।  तो "तीसरा खंबा" नियमित ब्लाग हो गया।


उन्हीं दिनों बीएस पाबला जी ने "अदालत" ब्लाग शुरू किया था जिस में वे विधि से संबंधित समाचारों को लिखा करते थे। उन से संपर्क हुआ तो पक्की दोस्ती में बदल गया। 2011 की एक रात पाबला जी से फोन पर बात हो रही थी। उन का सुझाव था कि अपना डोमेन ले लिया  जाए। मैं ने कहा ले लो। पाबला जी से बात पूरी हुई थी कि 10 मिनट बाद फोन की घंटी बजी। पाबला जी थे बता रहे थे कि "तीसरा खंबा" के लिए  http://teesarakhamba.com/  डोमेन मिल गया है। अब उन का कहना था कि ब्लागर के स्थान पर वर्डप्रेस पर जा कर इसे एक वेबसाइट का  रूप दे दिया जाए। वह भी पूरा किया पाबला जी ने ही। आखिर वेबसाइट शुरू हो गयी। हम ने 1 जनवरी 2012 से उस का शुभारंभ मान कर उस की स्टेटिस्टिक्स शुरू की।

एक जनवरी 2012 से कल 15 जुलाई 2017 तक "तीसरा खंबा" ने 15 लाख विजिटर हासिल कर लिए हैं। बीते कल इस पर 4328 विजिटर थे। हिन्दी ब्लाग जगत के लिए इसे एक उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है।  

शनिवार, 1 जुलाई 2017

संसद में घण्टा बजने वाला है

1 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। खास तौर पर हमारे भारत देश में इस का बड़ा महत्व है। यदि केलेंडर में यह व्यवस्था हो कि आजादी के बाद के 70 सालों में किसी तारीख में पैदा हुए लोगों की संख्या उस तारीख के खांचे में लिखी मिल जाए तो 1 जुलाई की तारीख का महत्व तुरन्त स्थापित हो जाएगा। कैलेंडर की 366 तारीखों में सब से अधिक लोगों को जन्म देने वाला दिन 1 जुलाई ही नजर आएगा। उधर फेसबुक पर हर दिन दिखाया जाता है कि उस दिन किस किस का जन्मदिन है। फेसबुक शुरू होने से ले कर आज तक जन्मदिन सूची एक जुलाई को ही सब से लंबी होती है।
 
जब से मुझे पता लगा कि भारत में सब से अधिक लोग 1 जुलाई को ही पैदा होते हैं तो मेरे मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर ऐसा क्यों होता है? आखिर ये एक अदद तारीख का चमत्कार तो नहीं हो सकता। उस के पीछे कोई न कोई राज जरूर होना चाहिए। वैसे भी यदि ये तारीख का ही चमत्कार होता तो इमर्जेंसी में संजयगांधी जरूर इस तारीख को कैलेंडर से निकलवा देते। केवल इस तारीख को निकाल देने भर से जनसंख्या वृद्धि में गिरावट दर्ज की जा सकती थी। पूरे आपातकाल में ऐसा न हुआ, यहाँ तक कि ऐसा कोई प्रस्ताव भी सामने नहीं आया। मुझे तभी से यह विश्वास हो चला था कि यह तारीख का चमत्कार नहीं है बल्कि इस के पीछ कोई और ही राज छुपा है।

जिस साल इमर्जेंसी लगी उसी साल मेरी शादी हुई थी। शादी के डेढ़ माह बाद ही 1 जुलाई का दिन पड़ा। इस दिन पता लगा कि मेरे ससुर साहब भी 1 जुलाई को ही पैदा हुए थे। इस जानकारी के बाद मैं अपनी तलाश में लग गया कि आखिर इस के पीछे क्या राज है? मैं ने सोचा कि मुझे यह जानकारी हासिल करनी चाहिए कि देश में जन्मतिथि का रिकार्ड रखने का तरीका क्या है? इस कोशिश से पता लगा कि देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिस से लोगों के जन्म का रिकार्ड रखा जाता हो। आम तौर पर हर चीज के लिए मेट्रिक परीक्षा की अंक तालिका को ही जन्म तिथि का आधार मान लिया जाता है। मेट्रिक की अंकतालिका में वही जन्मतिथि अंकित होती थी जो किसी बच्चे को स्कूल में भर्ती कराते समय अंकित कराई जाती थी या फिर कर दी जाती थी।

जब स्कूल के रिकार्ड पर ही अपने इस महत्वपूर्ण शोध का परिणाम निकलने वाला था तो इस के लिए अध्यापकों से पूछताछ करना जरूरी हो गया। लेकिन मेरे लिए यह मुश्किल काम नहीं था। खुद अपने घर में चार पांच लोग अध्यापक थे। पिताजी भी उन में एक थे। मैं ने पिताजी से ही पूछा कि आखिर ऐसा क्यों है कि हमारे यहाँ सब से ज्यादा लोग 1 जुलाई को पैदा होते हैं? मेरे इस सवाल पर पिताजी ने अपने चिर परिचित अंदाज में जोर का ठहाका लगाया। उस ठहाके को सुन मैं बहुत अचरज में आ गया और सोचने लगा कि आखिर मैं जिस शोध में पूरी गंभीरता से जुटा हूँ उस में ऐसा ठहाका लगाने लायक क्या था? खैर¡
जैसे ही पिताजी के ठहाके की धुन्ध छँटी, पिताजी ने बोलना आरंभ किया। 1 जुलाई के दिन में ऐसी कोई खास बात नहीं है जिस से उस दिन ज्यादा बच्चे पैदा हों। वास्तव में इस दिन जबरन बहुत सारे बच्चे पैदा किए जाते हैं, और ये सब हमारे विद्यालयों में पैदा होते हैं।

मैं पूरे आश्चर्य से पिताजी को सुन रहा था। वे कह रहे थे। उस दिन लोग स्कूल में बच्चों को भर्ती कराने ले कर आते हैं। हम उन से जन्म तारीख पूछते हैं तो उन्हें याद नहीं होती। जब उम्र पूछते हैं तो वे बता देते हैं कि बच्चा पांच बरस का है या छह बरस का। अब यदि 1 जुलाई को बच्चे की उम्र पूरे वर्ष में कोई बताएगा तो उस साल में से उम्र के वर्ष निकालने के बाद जो साल आता है उसी साल की 1 जुलाई को बच्चे की जन्मतिथि लिख देते हैं। इस तरह हर एक जुलाई को बहुत सारे लोग अपना जन्मदिन मनाते दिखाई देते हैं।

जब ब्लागिंग का बड़ा जोर था तब वहाँ ताऊ बड़े सक्रिय ब्लागर थे। वे रोज ही कोई न कोई खुराफात ले कर आते थे। फिर अचानक ताऊ गायब हो गए। जब से वे गायब हुए ब्लागिंग को खास तौर पर हिन्दी ब्लागिंग को बहुत बड़ा झटका लगा। उस में गिरावट दर्ज की जाने लगी और वह लगातार नीचे जाने लगी। बहुत से ब्लागर इस से परेशान हुए और फेसबुक जोईन कर ली। धीरे धीरे ब्लागिंग गौण हो गयी और लोग फेसबुक पर ही एक दिन में कई कई पोस्टें करने लगे।

पिछले दिनों ताऊ का फेसबुक पर पुनर्जन्म हो गया। तब से मुझे लगने लगा था कि ताऊ जल्दी ही कोई ऐसी खुराफात करने वाला है। अचानक कुछ दिन पहले ताऊ ने अचानक ब्लाग जगत का घंटा फिर से बजा दिया। ऐलान किया कि अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस मनया जाना चाहिए। हम ने ताऊ के कान में जा कर पूछा –मनाएँ तो सही पर किस दिन? ताऊ ने बताया कि 1 जुलाई पास ही है और वह तो भारत में ऐसा दिन है जिस दिन सब से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। यह सुनते ही मैं ने भी अपने पिताजी की स्टाइल में इतने जोर का ठहाका लगाया कि ताऊ तक को चक्कर आ गया।

लेकिन ताऊ ही अकेला ताऊ थोड़े ही है। हिन्दुस्तान में जिधर देखो उधर ताऊ ही ताऊ भरे पड़े हैं। अब इन दिनों देश में मोदी जी सब से बड्डे ताऊ हैं। उन के मंत्रीमंडल का वित्तमंत्री जेटली उन से भी बड़ा ताऊ है। उस ने भी जीएसटी लागू करने की तारीख 1 जुलाई तय कर दी। बहुत लोगों ने कहा जनाब अभी तो पूरी तैयारी नहीं है ऐसे तो लाखों लोग संकट में पड़ जाएंगे। पर जेटली बड़ा ताऊ आदमी है। उस ने किस की सुननी थी? वो बोला लोग संकट में पड़ें तो पड़ें पर जीएसटी तो 1 जुलाई को ही लागू होगा। जो भी परेशानियाँ और संकट होंगे उन्हें बाद में हल कर लिया जाएगा। नोटबंदी में भी बहुत परेशानियाँ और संकट थे। पर सब हुए कि नहीं अपने आप हल? अब इस बात का कोई क्या जवाब देता? सब ने मान लिया की ताऊ जो तू बोले वही सही। जेटली ताऊ ये देख कर भौत खुस हो गया। उस ने आधी रात को संसद में जश्न मनाने का प्रस्ताव रखा जिसे मोदी ताऊ ने तुरन्त मान लिया। उस प्लान में ये और जोड़ दिया कि ठीक रात के बारह बजे घण्टा भी बजाया जाएगा।


अब आज की ब्लागिंग को यहीं विराम दिया जाए। टैम हो चला है, जेटली ताऊ संसद में मोदी ताऊ का घंटा बजाने वाला है। 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

उपभोक्ता के रूप में क्या आप हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं?

दो दिन पहले सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी के शाखा कार्यालय जाना हुआ। बीमा कंपनी हर वर्ष 14 सितम्बर से एक सप्ताह तक हिन्दी सप्ताह मनाती है। इस के लिए कुछ बजट भी शाखा में आता है। इस सप्ताह में कर्मचारियों के बीच निबंध, हिन्दी लेखन, हिन्दी प्रश्नोत्तरी जैसी कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित कराई जाती हैं और अंतिम दिन पुरस्कार वितरण होता है। जिस के उपरान्त जलपान का आयोजन होता है और इस तरह हिन्दी को कुछ समृद्धि प्रदान कर दी जाती है। दो वर्षों से इस सप्ताह के अंतिम दिन जब हिन्दी प्रश्नोत्तरी और पुरस्कार वितरण का आयोजन किया जाता है तो वे मुझे बुलाते हैं। इस बार भी उन्हों ने मुझे आने को कहा। मैं ने उन्हें अपनी सहमति दे दी। इन प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुछ नवीनता आए और हिन्दी में काम करने के प्रति लोगों का रुझान पैदा हो इस के लिए मैं ने कुछ सुझाव भी दिए। सुझावों को गंभीरता से सुना तो गया। लेकिन उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जो उत्साह होना चाहिए वह वहाँ दिखाई नहीं दिया। मुझे लगा कि इस वर्ष फिर पिछले वर्षों की तरह ही बनी बनाई लकीर पर एक और लकीर खींच कर हिन्दी सप्ताह संपन्न हो लेगा।

कुछ देर और मुझे शाखा प्रबंधक के कक्ष में रुकना पड़ा तो मैं ने उन्हें बताया कि उन के कंप्यूटरों में हिन्दी भाषा का उपयोग करने की सुविधा है लेकिन उसे चालू नहीं किया हुआ है। यहाँ तक कि वे इस सुविधा को चालू कर के पूरे कंप्यूटर को हिन्दी रूप प्रदान कर सकते हैं। मैं ने उन के कंप्यूटर के डेस्कटॉप पर लगे आईकॉन के नाम देवनागरी में बदले। उन्हें बताया कि कैसे फाइल और फोल्डर्स के नाम नागरी में अंकित किए जा सकते हैं। उन्हों ने पूछा कि हिन्दी तो उन के कंप्यूटर पर पहले भी टाइप की जाती रही है, लेकिन जब वे उस पर हिन्दी फोन्ट में फाइल का नाम लिखते थे तो रोमन में अजीबोगरीब शब्द आ जाते थे, लेकिन आप ने यह सब कैसे लिखा? 

मैंने उन्हें बताने लगा कि उन का कंप्यूटर उन सब भाषाओं को समझ सकता है जो कि कंट्रोल पैनल के 'क्षेत्र और भाषा' विकल्प में दर्ज हैं, लेकिन वे उस विकल्प का उपयोग नहीं करते। वे केवल अंग्रेजी विकल्प का ही प्रयोग करते हैं जब कि उन का कंप्यूटर एक साथ अनेक भाषाओं और लिपियों में काम कर सकने की क्षमता रखता है। जब वे केवल अंग्रेजी के विकल्प का उपयोग भी आरंभ कर दिया जाता है तो जो कंप्यूटर केवल अंग्रेजी समझता था वह हिंदी भी समझने लगता है। लेकिन कंप्यूटर केवल यूनिकोड के हिन्दी फोन्ट को ही हिंदी के फोन्ट के रूप में मान्यता देता है, अन्य फोंट को नहीं। उस का कारण यह है कि अन्य फोंट वास्तव में अंग्रेजी कोड पर आधारित हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि उन में किसी खास रोमन अक्षर के स्थान पर देवनागरी के किसी अक्षर, अर्धाक्षर या मात्रा का चित्र विस्थापित कर दिया गया है जिस से देवनागरी के अक्षर को भी कंप्यूटर रोमन का ही कोई अक्षर समझता रहता है।

मेरे इतनी बात करने का लाभ यह हुआ कि शाखा प्रबंधक ने यूनिकोड हिन्दी टाइप करने के औजारों के संबंध में बात करना आरंभ किया। सब कुछ अल्प समय में बताना संभव नहीं था इसलिए मैं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे हिन्दी सप्ताह में कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करने के तरीकों के बारे में उन की शाखा में क्यों नहीं एक कक्षा आयोजित करते हैं? उन्हों ने आश्वासन दिया कि वे उस के लिए प्रयत्न करेंगे। मैं ने उन्हें यह भी बताया कि वे जो काम अंग्रेजी में करते आए हैं उसे हिन्दी में भी कर सकते हैं। जैसे ग्राहकों से हिन्दी में पत्र व्यवहार करना या भुगतान के चैक आदि हिन्दी में बनाना है। मैं ने उन्हें बताया कि मैं यह सब व्यवहार हिन्दी में ही करता हूँ और अंग्रेजी का उपयोग तभी करता हूँ जब कि वह अपरिहार्य हो जाता है। हिन्दी में चैक आदि बनाने पर राशियाँ लिखना बड़ा आसान है। इस बीच शाखा प्रबंधक ने एक ग्राहक को देने के लिए चैक बनाया तो उसे हिन्दी में लिखा और मुझे बताया। मैं ने उन्हें कहा कि यह चैक अंग्रेजी में लिखे गए चैक से अधिक सुंदर लग रहा है और गड़बड़ की गुंजाइश भी और कम हो गई है। जिस ग्राहक को यह चैक मिलेगा उसे भी हिन्दी में यह काम करने की प्रेरणा मिलेगी। शाखा प्रबंधक ने बताया कि वे प्रयत्न करेंगे कि अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। इस बीच सहायक ने उन्हें बताया कि बीमा पॉलिसी को हिन्दी में छापने की सुविधा भी उपलब्ध है। तो प्रबंधक जी कहने लगे कि जब तक ग्राहक अंग्रेजी में पॉलिसी छापने का खुद आग्रह न करे उसे पॉलिसी हिन्दी में छाप कर दी जानी चाहिए। उन्हों ने कहा कि मुझे अब तक खुद यह बात पता नहीं थी। लेकिन वे अब इस काम को भी हिन्दी में चालू करना चाहेंगे। 

गभग सभी व्यवसायिक संस्थाओं और उपक्रमों में हिन्दी में काम करने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं लोग परंपरा के कारण अंग्रेजी में का्म करते रहते हैं। यदि उपभोक्ता खुद हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो यह काम हिन्दी में हो सकते हैं। मैं तो हर स्थान पर हिन्दी में काम करने की मांग करता हूँ। आप चाहें तो आप भी कर सकते हैं। मुझे लगता है कि उपभोक्ता हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो हिन्दी को उस का उचित स्थान प्राप्त करने में वे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। क्या आप भी उपभोक्ता के रूप में हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं? यदि नहीं तो क्या अब करेंगे?

बुधवार, 15 सितंबर 2010

हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति

हिन्दी के बारे में स्वयं हिन्दी भाषियों में बहुत से भ्रम स्थापित हैं। जरा निम्न तथ्यों पर गौर कीजिए। शायद आप के कुछ भ्रम दूर हो जाएँ, जैसे मेरे हुए।


१. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है,
२. वह सबसे अधिक सरल भाषा है,
३. वह सबसे अधिक लचीली भाषा है,
४, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं।
५. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है।
६. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।
७. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासमार्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
८. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।
९. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।
१०. हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही।
११. हिन्दी भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन है।
१२. हिन्दी भारत की सम्पर्क भाषा है।
१३. हिन्दी भारत की राजभाषा है।


  • यह पोस्ट पूरी तरह से विकिपीडिया से उड़ाई गई सामग्री पर आधारित है।  

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है, वह मुझे कभी ओछी नहीं पड़ती

म हिन्दी भाषी हैं, हमें हिन्दी से अनुराग है और स्वयं को इस भाषा में सब से अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं। हम में से अनेक हैं जो अंग्रेजी और दूसरी अन्य भाषाओं को जानते हैं और बहुत से उन भाषाओं में पारंगत है। कोई कोई तो इतने अधिक पारंगत हैं कि उन्हें हिन्दी ओछी पड़ने लगती है। वे समझते हैं कि वे स्वयं को हिन्दी से भी अच्छी तरह से अंग्रेजी या दूसरी भाषा में अभिव्यक्त कर सकते हैं। फिर वे अंग्रेजी की वकालत और हिन्दी के ओछे पन की बातें करते हैं। कभी वे कहते हैं कि हिन्दी में तकनीकी काम कर पाना संभव नहीं है, अदालतों का काम हिन्दी में संभव नहीं है, एक अच्छे उपन्यास का अच्छा अनुवाद हिन्दी में संभव नहीं है आदि आदि......
मुझे हिन्दी कभी ओछी नहीं पड़ती। मैं हिन्दी में कुछ भी कह सकता हूँ। यह भी हो सकता है मैं किसी दूसरी भाषा में पारंगत नहीं हो सकने के कारण ऐसा समझता होऊँ। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मैं चाहूँगा कि मैं कभी भी किसी अन्य भाषा में पारंगत नहीं होऊँ। यदि हो भी गया तब भी मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को कभी भी अपनी भाषा के मुकाबले किसी भी अन्य भाषा में सहज रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
मैं वकील हूँ। अदालत में हिन्दी भाषा का प्रयोग करता हूँ। मुझे हिन्दी का उपयोग करने में कभी भी परेशानी नहीं आई। चाहे कानून  की किताबें अंग्रेजी में हैं। कभी मुझे अंग्रेजी के कुछ खास शब्दों के पारिभाषिक हिन्दी शब्द नहीं मिलते। लेकिन मैं अधिक परेशान नहीं होता। वहाँ अंग्रेजी के शब्दों से काम चला लेता हूँ। यदि में कुछ सौ शब्द अंग्रेजी के उपयोग में लेता हूँ तो इस से मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती और न ही मेरी हिन्दी भ्रष्ट हो जाती है। मेरा मूल उद्देश्य यह होता है कि मैं अपनी बात को कैसे बेहतरीन तरीके से कह सकता हूँ। मुझे इस बात से भी कोई परेशानी नहीं है कि मेरी हिन्दी में कुछ शब्द अरबी, फारसी या किसी और मूल के हैं। मैं यह जानता हूँ कि मेरी भाषा हिन्दी है। मैं न्यायाधीश महोदय को जज साहब बोलता हूँ तो मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती वह हिन्दी ही रहती है।
कुछ लोग अंग्रेजी का साहित्य पढ़ते हैं बहुत आनंदित होते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसी किताब हिन्दी में नहीं लिखी जा सकती या उस खास किताब का अनुवाद हिन्दी में नहीं किया जा सकता, यदि किया भी जाए तो वह उतना अच्छा नहीं हो सकता जैसा कि मूल है। लेकिन यह तो उन की सोच है। एक व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता या कम जानता है। वह उस पुस्तक को या तो पढ़ नहीं सकता। पढ़े तो भी उतना आनंदित शायद न हो जितना वे सज्जन खुद हुए हैं। लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है? दुनिया में किसी के आनंदित होने के लिए और भी बहुत सी पुस्तकें और दूसरी चीजें हैं। यदि वह पुस्तक कुछ अनुभव या ज्ञान बांटती है तो एक हिन्दी भाषी को उस का खराब अनुवाद भी आनंदित करेगा। यह भी हो सकता है कि उस पुस्तक का खराब अनुवाद किसी अच्छे अनुवादक को अच्छा अनुवाद करने को प्रेरित कर दे। यह भी हो सकता है कि अनुवादक एक मूल पुस्तक को उस से भी अच्छे तरीके से अनुवाद में प्रस्तुत कर दे।
हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है। मैं उसे सब से अच्छे तरीके से बोल, पढ़, लिख और समझ सकता हूँ, स्वयं को उस के माध्यम से सब से अच्छे तरीके से अभिव्यक्त कर सकता हूँ। मुझे गुड़ पसंद है, चीनी नहीं। मुझे आप श्रेष्ठतम चीनी ला कर खिला भी देंगे तो भी मुझे गुड़ ही अच्छा लगेगा।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन

ज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। वे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने भारतीय जन जीवन, उस की पीड़ाओं को गहराई से जाना और अभिव्यक्त किया। उन की कृतियाँ हमें उन के काल के उत्तर भारतीय जीवन का दर्शन कराती हैं। 
न का बहुत सा साहित्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। लेकिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख 'महाजनी सभ्यता' अभी तक अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है। मैं ने सोचा था कि उन के इस जन्मदिन पर मैं इसे अंतर्जाल पर चढ़ा दूंगा। लेकिन जब कल तलाशने लगा तो वह आलेख जिस पुस्तक में उपलब्ध था नहीं मिली। मुझे उस पुस्तक के न मिलने का भी बहुत अफसोस हुआ, मैं ने उसे करीब पिछले तीस वर्षों से सहेजा हुआ था। 
मुझे कुछ तलाशते हुए परेशान होते देख पत्नी शोभा ने पूछा -क्या तलाश रहे हो? मैं ने बताया कि कुछ किताबें और पत्रिकाएँ नहीं मिल रही हैं। रद्दी में तो नहीं दे दीं? तब उस ने कहा कि कोई किताब और पत्रिका रद्दी में नहीं दी गई है। हाँ, दीपावली पर सफाई के वक्त कुछ किताबें ऊपर दुछत्ती में जरूर रखी हैं। मैं तुरंत ही दुछत्ती से उन्हें निकालना चाहता था। लेकिन वहाँ पहुँचने का एक मात्र साधन स्टूल टूट कर चढ़ने लायक नहीं रहा है। खैर महाजनी सभ्यता को इस जन्मदिन पर अंतर्जाल पर नहीं चढ़ा पाया हूँ। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक मेरे पल्ले पड़ी इसे अविलंब चढ़ाने का काम करूंगा। प्रेमचंद जी के अगले जन्मदिन का इंतजार किए बिना।

बुधवार, 16 जून 2010

हिन्दी ब्लागीर पर हिंसक हमला, पुलिस और विधायक गुंडो के साथ

क इंजिनियर पाँच वर्ष पूर्व कंप्यूटर ले कर अपने गाँव जा बसा। इस लक्ष्य को ले कर कि वह अपने गाँव को बदलने से अपने अभियान को आरंभ करेगा। कंप्यूटर के उपयोग से पहली समस्या आरंभ हुई। गाँव में वैध बिजली कनेक्शन नाम के थे। नतीजा ये कि वोल्टता 230 के स्थान पर 50 से 100  ही रहती थी। इस वोल्टता पर तो कंप्यूटर काम नहीं कर सकता था। उन्हों ने बिजली विभाग से अपना काम आरंभ किया। बिजली विभाग चेता तो उस ने गाँव में बहुत लोगों के अवैध कनेक्शनों को हटाया, उन के विरुद्ध कार्यवाही की। नतीजा यह कि गाँव में बिजली की वोल्टता का संकट सुलझा। लेकिन जिन लोगों को वैध कनेक्शन हटाने पड़े वे शत्रु हो गए। गाँव में वोल्टता में सुधार के कारण बहुत से लोग इस इंजिनियर के समर्थक भी बने। इन इंजिनियर साहब ने गाँव में अन्य सुधार के काम भी किए। 
गाँव में गुंडों की एक गेंग भी है, जिसे ये सुधार के काम परेशान करते हैं। ये ही वे लोग हैं जो गाँव की पंचायत चुनाव में हावी रहते हैं और किसी भी तरह से पंचायत पर कब्जा कर लेते हैं। इंजिनियर के कामों से गाँव के लोगों में यह चर्चा हुई कि इस बार प्रधान उन्हें बनाया जाए। इंजिनियर साहब तैयार भी हो गए और गाँव वालों ने कानों-कान उन का प्रचार भी आरंभ कर दिया। खुद इंजिनियर साहब के मुताबिक गाँव के सत्तर प्रतिशत लोग उन्हें प्रधान बनाना चाहते हैं। इस आलम को देख कर गुंडा गेंग परेशान हो उठी। उस ने इंजिनियर साहब को परेशान करना आरंभ कर दिया, जिस से वे गाँव छोड़ दें। जब साधारण कार्यवाहियों से काम न चला तो गुंडों ने इन पर हमला कर दिया। ये पुलिस के पास पहुँचे, गाँव के लोगों का प्रतिनिधि मंडल ले कर भी मिले।  लेकिन पुलिस ने कार्यवाही नहीं की। कारण कि गुंडों की गेंग के पुलिस से गहरे रिश्ते हैं और क्षेत्र के विधायक से भी। खुद विधायक ने इन के मामले में कार्यवाही न करने का निर्देश पुलिस को दे दिया है।
इस तरह एक बहुत छोटे स्तर पर व्यवस्था में परिवर्तन की कोशिश पर भी व्यवस्था ने (गुंडे, पुलिस और राजनेता) सीधे हिंसा का प्रयोग किया है। इस का प्रतिरोध आवश्यक है। इस के लिए इंजिनियर साहब को गाँव के सुधार और विकास के समर्थकों को संगठित करना पड़ेगा, हिंसा का मुकाबला करने के लिए भी तैयार करना पड़ेगा।
ये इंजिनियर साहब और कोई नहीं, हिन्दी ब्लाग मेरा गाँव मेरा देश के ब्लागीर राम बंसल हैं, आप उन की आप बीती जानने के लिए उन के ब्लाग की ताजा पोस्ट  गुंडागर्दी और पुलिस की लापरवाही पर जा कर पढ़ सकते हैं। मेरा मानना है कि समाज में राम बंसल जी के सकारात्मक प्रयासों के कारण उन पर हुए इन हिंसक हमलों के विरुद्ध तमाम हिन्दी ब्लागीरों को समुचित कार्यवाही करनी चाहिए। कम से कम इलाके के पुलिस अधीक्षक को इस घटना के अपराधियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए ई-मेल करना चाहिए साथ ही राम बंसल जी को सुरक्षा प्रदान करने की मांग भी करनी चाहिए।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?


'कहानी'
आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?  

  • दिनेशराय द्विवेदी 
भाई साहब ने दो दिन पहले फोन किया था कि मैं रविवार की रात को उपलब्ध रहूँगा या नहीं? बताया कि उन्हों ने विनय को फोन किया था, लेकिन वह गाँव गया हुआ है, तब तक लौटेगा नहीं। उन्हें नागपुर बेटे के पास जाना है और कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है। मैं ने कहा वासु के बेटे की शादी है उस के संगीत कार्यक्रम में रहना होगा। पर नौ बजे तक छूट लूंगा। जब कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है तो मेरे पास कोई विकल्प  नहीं रह गया था मैं ने कहा मैं आ जाउंगा आप को ट्रेन पर छोड़ दूंगा।
भाई साहब अध्यापक थे। फिर प्रिंसिपल और इंस्पेक्टर भी रहे। हमेशा सादगी भरा जीवन रहा उन का। अब भी शिष्य उन्हें पूछते रहते हैं। भाभी जी का देहांत हो चुका है। बेटी ससुराल में है। बेटा नागपुर में व्यवसाय कर रहा है। यहाँ के वे रहने वाले नहीं हैं। लेकिन उन के बहुत रिश्तेदार यहीँ रहते हैं। उन्हों ने भी कभी एक बड़ा सा भूखंड ले कर कुछ हिस्से पर मकान बना लिया था। वक्त गुजरने के साथ कौड़ियों के मोल लिया भूखंड लाखों, करोड़ से भी ऊपर का हो चुका है।  तीन सप्ताह बेटे के पास और पाँच  सप्ताह अकेले घऱ में रहते हैं। दो कमरे किराए पर दे रखे हैं। किराएदार से मकान की सुरक्षा रहती है। साल भर पहले बीमार हुए, रीढ़ की हड़्डी में बीमारी है, चार माह तो बिलकुल बिस्तर पर रहे। डाक्टर ने कुछ चलने फिरने की छूट दी तो अब पाँच सप्ताह बेटे के पास और तीन सप्ताह यहाँ मकान में रहने लगे हैं। अभी भी बेल्ट बांध कर रहना पड़ता है।
मैं भूल गया मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना है। मैं वासु के बेटे की शादी की संगीत पार्टी में था। तभी वहाँ विनय पत्नी सहित दिखाई दिया। मुझे याद आया भाई साहब को छो़ड़ने जाना है। मुझे आश्चर्य हुआ कि विनय तो गांव गया हुआ था। उस ने मुझे देख अभिवादन किया। मैं ने पूछा गाँव नहीं जाते आज कल। तो कहा वहीं से आ रहा हूँ अभी, इस शादी के कारण। खाना आरंभ हो गया था। मैं ने पत्नी को इशारा किया और खुद खाना आरंभ कर दिया। कुछ देर में ही पत्नी भी आ गई। हम वहाँ से विदा ले घर पहुँचे। साढ़े नौ बज चुके थे। मैं ने रेलवे को फोन कर पूछा पता लगा ट्रेन सही समय 9.55 आ रही है। तभी भाई साहब का फोन आ गया। हम तुरंत रवाना हो गए। उन के साथ एक सूटकेस और एक बड़ा बैग था। दोनों का वजन पंद्रह-पंद्रह किलो से कम न था, एक पानी की कैटली थी। मैं ने सामान कार में रखा और हम रवाना हो गए। रास्ते में भाई साहब ने बताया कि उन्हों ने शादी में विनय की मदद की थी। विनय ने पिछले महिने ही रकम वापस उन के खाते में जमा करा दी है। सूटकेस और बैग में वजन अधिक है पुल पार कर प्लेटफार्म तक जाने में कठिनाई होगी। कुली कर लें तो बेहतर होगा। पर कुली ट्रेन में सामान चढ़ाने तक नहीं रुकेगा।

हाँ कार पार्क की वहाँ कुली नहीं था। मैं ने सूटकेस और बैग को उन में लगे पहियों पर खींचा और पुल तक ले गया। वे वाकई वजनी थे और आसानी से खिंच भी नहीं रहे थे। भाई साहब उन्हें खींचते तो रीढ? वापस आठ माह पुरानी स्थति में पहुँच जाती। मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई मैं ने एक हाथ में बैग और एक में सूटकेस उठाया और पुल पर चढ़ गया। इसी तरह दूसरे प्लेटफार्म पर उतरा। हम करीब आधे घंटे पहले प्लेटफार्म पर थे।  अच्छी खासी सर्दी के बावजूद में पसीने में नहा गया था।  मैं ने कहा आजकल स्लीपर में परेशानी होती है। कई बार सवारियां अधिक हो जाती हैं। वे बताने लगे बेटा तो हमेशा एसी के लिए बोलता है पर मुझ से एसी बर्दाश्त नहीं होता, और फिर इस सर्दी में?
ट्रेन वक्त पर ही आ गई। उन्हे और उन का सामान चढाया। उन की बर्थ पर कोई सोया हुआ था और बर्थों के बीच फर्श पर भी। सीटों के नीचे सामान रखने को स्थान बिलकुल रिक्त न था। सोये हुए को जगाया गया। उसने तुरंत बर्थ खाली कर दी। सोये हुए के बारे में पूछा तो वह बताने लगा उन के साथ है। उन्हों ने छह टिकट कराए थे लेकिन दो वेटिंग में रह गए। उन्हों ने सामान को किसी तरह रखवाया। भाई साहब को लेटने की जगह मिल गई। गाड़ी चल दी तो हम वापस चले आए।
ह सब कल की बात थी। मैं सुबह काम पर चला गया। वापस लौटते हुए वासु के घर गया। कल वजन उठाने का करतब करने का नतीजा आने लगा था। हाथ, पैर और पीठ तीनों अकड़ना आरंभ कर चुके थे। मैं ने वासु को बताया कि मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना पड़ा था। स्लीपर में बर्थ रिजर्व होते हुए भी मुश्किल से सफर किया होगा उन्हों ने। वासु कह रहा था। एसी में क्यों नहीं जाते? और बार बार यहाँ आने की जरूरत क्या है? बेटे के साथ क्यों नहीं रहते? आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?

शनिवार, 7 नवंबर 2009

कंप्यूटर के लिए पुराना रेमिंग्टन हिन्दी की-बोर्ड कहाँ मिलेगा?


ज की यह पोस्ट एक मित्र की जरूरत पर लिख रहा हूँ।  मेरे एक मित्र हैं जगदीश गुप्ता, उम्र है तिरेसठ वर्ष लेकिन अब भी बिलकुल जवान हैं। वे मेरे शहर के बेहतरीन हिन्दी टाइपिस्ट हैं और पिछले चालीस साल से अधिक से टाइप कर रहे हैं। अस्सी शब्द प्रति मिनट उन की टाइप करने की गति है। उन के पास लगभग चालीस साल पुराना ही मैकेनिकल रेमिंग्टन टाइपराइटर है। जिस में उस जमाने में चलने वाला की बोर्ड बना हुआ है। वे उसी पर काम करते आ रहे हैं। पिछले कुछ बरसों से हम उन के पीछे पड़े थे कि अब तो कंप्यूटर ले लो। वे कंप्यूटर का लगातार मजाक उड़ाते रहे। लेकिन आखिर उन को सद्बुद्धि आ ही गई और पंद्रह दिन पहले एक अदद कंप्यूटर उन्हों ने खरीद लिया। कंप्यूटर भी हम ने ही खरीदवाया।


ब उन की मुसीबत मेरे सर आ गई है। वे चाहते हैं कि उन के पुराने रेमिंग्टन टाइपराइटर पर जो ले-आउट है उस का कोई हिंदी फोंट मिल जाए या इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग के लिए कोई की-बोर्ड मिल जाए। ऐसा सुना है कि कुछ फोंट उस की बोर्ड के लिए बनाए भी गए हैं। हम उस फोंट/या की-बोर्ड को तलाश कर रहे हैं, लेकिन अभी तक असमर्थ रहे हैं। यदि कोई साथी बता सके कि यह फोंट कहाँ मिल सकता है? या यह की-बोर्ड कहाँ बन सकता है और कितने खर्च पर तो न केवल हमारे जगदीश जी को सुविधा होगी और वे तुरंत कंप्यूटर पर हिन्दी टाइप कर सकेंगे, अपितु कंप्यूटर पर अधिकतम गति से टाइप करने वाला एक साथी तुरंत मिल जाएगा।

रेमिंग्टन का पुराना हिंदी की-बोर्ड ले-आउट इस प्रकार है ....





पुराना रेमिंग्टन की बोर्ड


गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

नए जन्म की तैयारी, रसीदी हिन्दी और दशहरा मेला

इधर दीवाली जैसे-जैसे नजदीक आती है, घरों में भूचाल के हलके-भारी झटके चलते ही रहते हैं। सफाई अभियान सारी चीजों को इधर-उधर करता रहता है। परसों अदालत में था तो घर से फोन मिला कि कबाड़ी आया है, कूलर उसे दे दिया जाए। कुछ समझ नहीं आया, क्या जवाब दिया जाए? फिर  साथियों से सलाह की तो निष्कर्ष निकला कि उस की आत्मा, पंखा और पम्प निकाल कर बाकी की जर्जर देह दे दी जाए। बेटे और उस की माँ ने यही किया। जर्जर देह के सवा-दोसौ रुपए खड़े हो गए, देह भूतों में जा मिली। अब फरवरी के अंत में पंखे और पम्प के लिए नई देह की तलाश शुरू की होगी। उस की भी सलाह मिल चुकी है कि आजकल कूलर के लिए स्टील के शरीर बनने लगे हैं। फरवरी में किसी स्टील-देह में पंखे और पम्प की आत्मा रख दी जाएगी। कूलर का एक  और जन्म हो जाएगा।  पर यह आत्मा अजर-अमर नहीं, हो सकता है दो-चार बरस बाद स्टील देह में नयी आत्मा डालनी पड़ जाए।



बेटी आई है, उसे  कुछ कपड़े खरीदने थे, दशहरे का मेला घूमना था। अपने घर के पास से जिस तरह यातायात निकल रहा था, जाने की हिम्मत न हुई। किसी फिल्मी कलाकार की कला का प्रदर्शन था, भीड़ क्यों न होती? आखिर फरिश्तों को प्रत्यक्ष देखने का अनुभव लोग हाथ से थोड़े ही जाने देते। कल का दिन का समय बाजार के लिए और शाम का मेले के लिए तय हुआ। बाजार गए तो हमारी हैसियत मात्र कार-चालक की थी। बेटी ने अपने लिए कुछ कपड़े पसंद किए। भुगतान किया तो रसीद बना दी गई। कपड़े फिटिंग के लिए अभी चौबीस घंटे दुकानदार के पास रहने थे। रसीद दिखाने पर ही कपड़े मिलते। इस कारण खरीददार का नाम पूछा गया। दुकानदार ने नाम लिखा तो स्पेलिंग में चक्कर खा गया। झुंझला कर उस ने नाम हिन्दी में लिखा। हस्तलिपि सुंदर थी। मैं ने कहा, कितना खूबसूरत लिखा है? आप ने हिन्दी में। आप रसीद हिन्दी में ही क्यों नहीं बनाते? जवाब मिला -साहब! ऐसी ही फैशन है। मैं ने बताया कि मैं चैक हिन्दी में भरता हूँ, पत्र हिन्दी में लिखता हूँ। अधिकतर डाक्टर अंग्रेजी में पर्चा लिखते हैं,कोई-कोई हिन्दी में भी लिखते हैं। आप को कौन सा अच्छा लगता है? वह बोला, हिन्दी वाला अच्छा लगता है और समझ में भी आता है। मैं ने उसे कहा कि आप कुछ दिन हिन्दी में रसीद बनाइए, और देखिए ग्राहकों को कैसा लगता है? मुझे लगता है, उसे अधिक पसंद किया जाएगा। वह तैयार हो गया। आज उस के यहाँ कपड़े लेने जाना है।   देखता हूँ, वह अपने वायदे पर कितना कायम है?



शाम साढ़े पाँच हम मेले में निकले। आगे आगे शोभा और पूर्वा दोनों थीं, और पीछे मैं।  पूर्वा अपनी माँ से कोई छह-सात इंच लम्बी है, पर जिस तरह वह अपनी माँ के बाजू में बाजू डाले चल रही थी, पंद्रह साल पहले की याद आ गई। जैसे उसे भय लग रहा हो की मम्मी कहीं बिछड़ न जाए।  कैमरा साथ होता तो  बहुत भला चित्र लिया जा सकता था। पूर्वा को सोफ्टी खानी थी। हमें वह पसंद नहीं, उस ने अकेले ही खाई। दो बरस पहले जिस सोफ्टी के छह रुपए दिए थे, उसी के दस देने पड़े।  आगे सुरेश कुल्फी वाले की दुकान देख  हमारे मुहँ में पानी आया तो वहाँ जा बैठे। बंद हवा में दो मिनट में ही पसीना आने लगा।  उस की कुल्फी अभी पकी नहीं थी। हम वहाँ इंतजार करने के स्थान पर मेले में टहलने चल दिए।  माँ-बेटी ने दो-एक स्थान पर बैगों के भाव कराए, लेकिन सौदा नहीं पटा। एक दुकान से ढाई सौ ग्राम ओरेंज कैंडी खरीदी गईँ। कुछ प्रदर्शनियाँ देखीं। पुस्तकें देखीं तो वहाँ सारी धार्मिक पुस्तक वालों की प्रदर्शनियाँ  मौजूद थीं, इक्का-दुक्का लोग अंदर जा तो रहे थे, लेकिन पुस्तक खरीदी नाम मात्र की थी।  पुराना  सोवियत पुस्तकों वाला जरूर मौजूद था, पर अब केवल पुस्तक प्रदर्शनी  का बोर्ड लगा था। वहाँ अभी भी स्टॉक में बची सोवियत पुस्तकें बेची जा रही थीं। बाकी सब पुस्तकें वही थीं, जो बाजार की स्टॉलों और दुकानों पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं।  प्रदर्शनी में सब से नयी जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी पुस्तक थी। प्रदर्शनी में भीड़ बरकरार थी। यहां लोग पुस्तकें खरीद भी रहे थे। आठ बजने वाले थे। कुछ ही देर में एक अखबार की ओर से कराई जाने वाली आतिशबाजी आरंभ होने वाली थी। भीड़ का रैला मेले में प्रवेश करने लगा था। हम ने वापसी की राह ली। पूर्वा ने मक्का की फूली (पॉपकॉर्न) के दो पैकेट खरीदे, एक मेरे पल्ले पड़ा। एक-एक मक्का मुहँ में डालते रहे। दूसरा पैकेट खोलने की बारी आती तब तक घर पहुँच चुके थे।

सोमवार, 12 अक्टूबर 2009

अपना घर खुद साफ करें; मोहल्ले की स्वच्छता मिल बैठ तय करें


दीवाली के पहले का सप्ताह आरंभ हो गया है। या तो लोग अपने-अपने घरों की सफाई कर चुके हैं या फिर यह काम जोरों पर है। आखिर दीवाली के पहले सब को अपने-अपने घर चमकाने हैं। देवी लक्ष्मी का स्वागत जो करना है। हमारे घर में यह वार्षिक स्वच्छता अभियान कोई बीस दिन पहले ही आरंभ हो चुका था। श्राद्ध समाप्त हुए, नवरात्र के पहले दिन से ही सफाई का काम आरंभ हो गया। पहले सोने के कमरे को जाँचा गया, पाया कि रंगरोगन अभी ठीक है, वर्ष भर चलेगा, केवल सफाई से काम चल सकता है। उस की सफाई की गई। उस के बाद हमारे बाहर की बैठक की बारी थी। कहने को यह बैठक जरूर है। पर हमारे वकालत के दफ्तर का दरवाजा सुबह छह बजे मुख्य दरवाजे के पहले खुलता है तो रात ग्यारह के बाद मुख्य द्वार पर ताला पड़ने के बाद ही वह बंद होता है। नतीजा ये कि हमारे घर सभी का पहला प्रवेश दफ्तर से होता है। बैठक साफ की गई। इस में वक्त लगा। यहीँ हमारी गैर-वकालती किताबें हैं। सब की सफाई कर वापस जमाया गया। इस तरह दशहरा आ गया।

अब दफ्तर की बारी थी। उस के लिए गांधी जयन्ती नियत है। वह दीवाली के पहले मुकम्मल अवकाश का दिन होता है। उस दिन उस से निपटा गया। इस के बाद बचा सिर्फ बीच का हॉल, रसोई और बाहर का पोर्च बनाम बरामदा। रसोई और बरामदा रंगाई मांग रहे थे। उस के लिए एक भवन निर्माता मुवक्किल से पुताई वाले को भेजने को कहा था। लेकिन सब पुताई वाले अपनी सालाना कमाई में लगे थे, जिस से वे अपने कर्जे चुका कर दीवाली मनाएँगे। कोई खाली न मिला। एक दिन पान की दुकान पर फिटर बाबूलाल नजर न आया तो मैं ने पान वाले बाबूलाल जी से पूछा कि आज बाबूलाल नहीं दिखा। इतने में बाबूलाल आ गया। कहने लगा दुकान के पड़ौस के मकान की पुताई कर रहा हूँ। 1500 रुपए में मजदूरी तय हुई है। मैं ने तुरंत उसे पकड़ा। भाई मेरे मकान में भी कुछ पुताई है, कर दोगे? उस ने हाँ कर दी।

पान वाला और फिटर, दोनों बाबूलाल

बाबूलाल दोहरे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति है। अधिक पढ़ा लिखा नहीं है। अपनी धुन में मस्त रहता है। सुबह नौ बजे बाबूलाल पान वाले की दुकान पर आ जाता है। जिसे भी उस से काम कराना होता है उसे वहीं से पकड़ता है और काम करवा कर वहीं छोड़ देता है। काम में कोई नुक्स नहीं। मुस्कुरा कर बात करता है।  उस से बात करो तो बहुत ज्ञान की बातें करेगा। वह ज्ञान की बातें ही नहीं करता, उन पर अमल भी करता है। पर उस के कुछ परिजनों के लगातार सताने से उस के अंदर एक और व्यक्तित्व विकसित हो गया है, जो दुनिया की सभी बुरी चीजों से घृणा करता है। वह उन्हें समाप्त तो नहीं कर सकता, लेकिन उन्हें बुरा कह सकता है, उन के साथ गाली गलौच कर सकता है, उन्हें शाप दे सकता है। बस कुछ फुरसत हुई, उसे अपने साथ हुए बुरे बर्ताव का स्मरण हुआ, और उस की त्योरियाँ चढ़ जाती हैं, वह पान की दुकान के सामने फुटपाथ पर इधर से उधर तेजी से चक्कर लगाने लगता है। साथ ही कुछ शाप बड़बड़ाने लगता है। फिर ऊंचे फुटपाथ पर सड़क की ओर मुहँ कर के खड़ा हो जाता है। उसे वे सब बुरे लोग सामने दिखाई देने लगते हैं। वह उन्हें खूब दुत्कारता है, शाप देता है। कभी कभी इसी हालत में मैं पहुँच जाता हूँ। जोर से उसे बुलाता हूँ -बाबूलाल ! राम! राम! उस का दूसरा व्यक्तित्व तुरंत गायब हो जाता है और वह हमारा प्यारा बाबूलाल बन जाता है। मैं  और पानवाले बाबूलाल जी चाहते हैं कि उस में से प्रतिशोधी व्यक्तित्व समाप्त हो जाए और वह हमारा प्यारा सा बाबूलाल बन कर रहे।  लेकिन राजस्थान में कहावत है 'रांड रंडापा तो काट ले, पर रंडवे काटने दें तब ना!' उसे भी लोग मजा लेने के लिए छेड़ते हैं और उस का दूसरा व्यक्तित्व उभर आता है।

खैर! हमने सफेदी का सामान खरीदा और बाबूलाल को पान की दुकान से पकड़ लाए। उस ने परसों बरांडे की छत और हमारी रसोई पर सफेदी की और कल बरांडे की दीवारों पर रंग किया।  उस से भोजन के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया कि वह सुबह आठ बजे भोजन कर के ही घर से निकलता है। चाय वह दिन में चार बार पी लेता है। उसे दिन भर यह खुराक समय-समय पर बिना कहे मिल गई। उस ने अपनी मजदूरी पहले नहीं बताई थी। आधा काम करने के बाद उस ने पाँच सौ रुपया बताया, वह उसे दे दिया गया। जाते वक्त बाबूलाल खुश था। इन दो दिनों में उस के दूसरे व्यक्तित्व के एक बार भी दर्शन न हुए।


हमारे घर पर सफेदी होते देख एक पड़ौसन भी पूछने आईँ। हमने बाबूलाल को काम देख आने को कहा। वह देख भी आया। उस ने उन्हें भी वाजिब मजदूरी बताई, लेकिन सौदा तय नहीं हुआ।  हमने भी उस में अधिक रुचि नहीं ली। हमारी रुचि अपने घर की सफाई में थी, पड़ौसी के घर की सफाई में नहीं।  हमें पता भी नहीं कि उन  के घर में कितनी गंदगी है?  जिस की सफाई की जरूरत है और पता हो भी तो हम क्या करें? आखिर उन के घर की चिंता उन्हें करनी चाहिए।  वे अपने घऱ को जैसा रखना चाहेँ रखें। हाँ उन के घर की गंदगी हमारे घर में आए, या हमें प्रभावित करने लगे, या वे हमारे घर की सफाई में जबरन रुचि लेने लगें, या वे हमारे घर के नुक्स निकालने लगें तो हम जरूर आपत्ति करेंगे। वे खुद अपने घर की सफाई में जुटें और मदद मांगें तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।  इस से उन के और हमारे बीच भाईचारा बना रहेगा।  हम सोचते हैं कि चिट्ठा-जगत में भी यही हो तो यहाँ भी भाईचारा बना रहे। हाँ घरों के बाहर मुहल्ले की बात करें तो सब मिल कर बैठ लें, और बात करें कि मोहल्ले में स्वच्छता बनाए रखने के लिए क्या करें?

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिन्दी इनस्क्रिप्ट टाइपिंग सीखें, हिन्दी में काम की गति और शुद्धता बढ़ाएँ और अधिक काम करें

मनुष्य  प्रजाति को अपने संरक्षण और विकास के लिए यह आवश्यक था कि वह जाने कि  जिस दुनिया में वह रहता है उस में क्या है जो उस के श्रेष्ठ जीवन और उस की निरंतरता के लिए सहायक है, और क्या घातक है। कौन सी वनस्पतियाँ हैं जो जीवन के लिए पोषक हैं और कौन सी हैं जो घातक हैं? शिकार, भोजन संग्रह और मौसम से संबंधित वे क्या जानकारियाँ हैं जो उस के जीवन को सुरक्षित बनाती हैं। इन  जानकारियों के प्राप्तकर्ता के लिए यह भी आवश्यक था कि उन्हें वह अपने समूह को संप्रेषित करे। जिस से समूह को इन्हें  जुटाने में अपना समय जाया न करना पड़े।  जानकारियों और सूचनाओं के संप्रेषण की आवश्यकता ने बोली के विकास का मार्ग प्रशस्त किया और जब मनुष्य ने इन्हें संकेतों के माध्यम से संप्रेषित करने का आविष्कार कर लिया तो भाषा ने आकार ग्रहण किया।
अलग अलग समूहों ने अपनी अपनी भाषाएँ और लिपियाँ विकसित कीं।  जैसे जैसे समूहों में आपसी संपर्क हुए भाषाओं का विकास हुआ और आज की आधुनिक भाषाएँ अस्तित्व में आईं। भाषाएँ कभी जड़ नहीं होतीं। वे लगातार विकासशील होती है। जिस भाषा में विकासशीलता का गुण नष्ट हो जाता है, जड़ता  आ जाती है वह शनैः शनैःअस्तित्व खोने लगती है। भाषा की आवश्यकता के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है कि उस की मनुष्य को कितनी और क्यों आवश्यकता थी और है? जो भाषा मनुष्य की  वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करती रहेगी, और भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिएविकसित होती रहेगी। उसे अधिकाधिक लोग अपनाते रहेंगे। किसी भी भाषा की उन्नति इस बात पर निर्भर करती है कि वह मनुष्य समाज की कितनी आवश्यकता की पूर्ति करती है। यदि कोई ऐसी भाषा विकसित हो सके जो  पूरी मनुष्य जाति की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दे और नई उत्पन्न हो रही आवश्यकताओं की पूर्ति करती रहे तो लगातार विकसित होती रहेगी और उस का अस्तित्व बना रहेगा।  इस तरह हम कह सकते हैं कि भाषा मनुष्य द्वारा आविष्कृत वह उपकरण है जिस की उसे संप्रेषण के लिए आवश्यकता थी। इस उपकरण का मनुष्य की नवीनतम आवश्यकताओं के लिए विकसित होते रहना आवश्यक है। 

हिन्दी हमारी मातृभाषा है। वह हमारे लिए सर्वाधिक संप्रेषणीय है और संज्ञेय भी।  हम अधिकांशतः उसी का उपयोग करते हैं। हमारी आवश्यकता की पूर्ति उस से न होने पर हम अन्य भाषाओं को सीखने की ओर आगे बढ़ते हैं। यदि हिन्दी हमारी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे तो क्यों कर हम अन्य भाषाओं को सीखने की जहमत क्यों उठाएँगे। लेकिन हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरी दूसरी भाषाओं को सीखना पड़ता है। जिस का सीधा सीधा अर्थ है कि हिन्दी को अभी मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकसित होना है।  यदि किसी दिन हिन्दी इतनी विकसित हो जाए कि वह मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे तो अधिकाधिक लोग हिन्दी सीखने लगेंगे और एक दिन वह हो सकता है जब कि वह मनुष्य जाति द्वारा सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली भाषा बन जाए। 
हम मन से चाहते हैं कि हिन्दी एक विश्व भाषा हो जाए। सारी दुनिया हिन्दी बोलने लगे। उस का दुनिया में एक छत्र साम्राज्य हो। दूसरी भाषाएँ संग्रहालय की वस्तु बन कर रह जाएँ। लेकिन ऐसा तभी हो सकता है कि हम हिन्दी को इस योग्य बनाएँ। दुनिया में जितना भी ज्ञान है वह हिन्दी में संग्रहीत हो। हम अपना नवअर्जित ज्ञान हिन्दी में सहेजना आरंभ करें। हिन्दी का भविष्य इस पर निर्भर है कि हम हिन्दी वाले  नए ज्ञान को अर्जित करने मे कितना आगे बढ़ पाते हैं? अभी तो हालात यह हैं कि जो भी नया ज्ञान  हम हिन्दी वाले अर्जित करते हैं उसे सब से पहले अंग्रेजी में अभिव्यक्त  करते हैं। हम अंग्रेजी में सोचते हैं और फिर हिन्दी में अनुवाद करते हैं। कुछ लोग हिन्दी को भी उस दिशा में डाल रहे हैं कि एक हिन्दी भाषी को भी उसे समझने के लिए पहले अंग्रेजी में समझना पड़े।

 देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कुंजीपट
आज हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं क्यों कि 14 सितम्बर को इसे भारत की राजभाषा घोषित किया गया।  लेकिन वस्तुतः यह हिन्दी दिवस नहीं है अपितु हमारा राजभाषा दिवस है। हम हमेशा रोना रोते हैं कि सरकार इस के लिए कुछ नहीं करती, या करती है तो बहुत कम करती है और दिखावे भर के लिए करती है।  लेकिन हम खुद उस के लिए क्या कर रहे हैं। सरकार ने कंप्यूटर पर देवनागरी और तमाम भारतीय भाषाएं लिखने के लिए इन्स्क्रिप्ट कुंजीपट विकसित करने के काम को कराया, उस के लिए  टंकण शिक्षक बनवाया जिस से केवल एक सप्ताह में  ही हिन्दी टाइपिंग सीखी जा सकती है। लेकिन हम  हिन्दी वाले जो कंप्यूटर पर काम करते हैं वे ही नहीं सीख पा रहे हैं।  उस के लिए हम हजारों लाखों हिन्दी शब्दों की रोमन वर्तनी सीखने को तैयार हैं लेकिन एक सप्ताह उंगलियों को कसरत कराने को तैयार नहीं हैं।

 आसान हिन्दी कम्प्यूटर-टंकण शिक्षक
यदि हिन्दी को विश्वभाषा बनना है तो वह हिन्दी की अंदरूनी ताकत से बनेगी। उस की अंदरूनी ताकत हम हिन्दी वाले हैं। हम कितना ज्ञान हिन्दी में सहेज पाते हैं? हम कितना नया ज्ञान हिन्दी में, सिर्फ और सिर्फ हिन्दी में अभिव्यक्त करते हैं। इसी पर हिन्दी का विकास निर्भर करेगा। इस बात को हिन्दी के शुभेच्छु जितना शीघ्र हृदयंगम कर लें और अपने पथ पर चलने लगें उतना ही इस का विकास तीव्र हो सकेगा। फिलहाल तो मेरा एक निवेदन है कि हम जो कंप्यूटर और इंटरनेट पर हिन्दी का काम कर रहे हैं, कम से कम अपना इनस्क्रिप्ट कुंजीपट का प्रयोग सीख लें। यह सीखने पर ही पता लग सकता है कि यह कितना आसान है और कितना उपयोगी और कितनी ही परेशानियों से एक बार में छुटकारा दिला देता है।  इस से हिन्दी में काम करने की गति और शुद्धता बढ़ेगी और हम हिन्दी का अधिकाधिक काम कर सकेंगे।   मैं आशा कर सकता हूँ कि अगले साल जब हम राजभाषा दिवस मनाएँ तो इन्स्क्रिप्ट कुंजीपट से टंकण कर रहे हों।

बुधवार, 19 नवंबर 2008

पहली वर्षगाँठ की पूर्व संध्या

आज पहली वर्षगांठ की पूर्व संध्या है। कल साल गिरह होगी अनवरत की। एक साल, महज एक साल कोई लंबा अर्सा नहीं होता लेकिन लगता है कि बहुत-बहुत दूर निकल आया हूँ। इतनी दूर कि वह छोर जहाँ से चला था, नजर नहीं आता, या किसी धुंध में छिप गया है। आगे आगे चलता हुआ नजर आता है तीसरा खंबा मेरा पहला प्रयास।

यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया। 28 अक्टूबर 2007 को तीसरा खंबा का प्रारंभ हुआ था। मन में बात थी कि जिस न्याय-व्यवस्था में एक अधिवक्ता के रुप में 29 साल जिए हैं, उस की तकलीफों को एक स्वर दूं, जो लोगों को जा कर बताए कि जिसे वे बहुत आशा के साथ देखते हैं उस की खुद की तकलीफें क्या हैं? लेकिन एक पखवाड़ा भी न गुजरा था कि एक बात तकलीफ देने लगी कि कानून और न्याय व्यवस्था एक नीरस राग है और इस के माध्यम से शायद मैं अपने पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकूँ। इस के लिए मुझे खुद को खोल कर अपने पाठकों के बीच रखना पडे़गा। तभी वे शायद यह समझ पाएँ कि तीसरा खंबा लिखने वाला कोई काला कोट पहने वकील नहीं बल्कि एक उन जैसा ही साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो उन की जिन्दगी को समझ सकता है, उन की तकलीफें एक जैसी हैं। यही कारण अनवरत के पैदा होने का उत्स बना।

20 नवम्बर 2007 को अनवरत जन्मा तो उस का स्वागत हुआ। वह धीरे धीरे पाठकों में घुल मिल गया। जब निक्कर पहनता था, जब मैं काफी कुछ पढ़ने भी गया था तभी कभी यह इच्छा जनमी थी कि मैं लिखूँ और लोग पढ़ें। फिर कुछ कहानियां लिखीं कुछ लघु कथाएँ। उन दिनों शौकिया संवाददाता भी रहा, और कानून पढ़ते हुए दैनिक का संपादन भी किया। लेकिन जैसे ही वकालत में आया। सब कुछ भूल जाना पड़ा। यह व्यवसाय ऐसा था जिस का सब के साथ ताल्लुक था, लेकिन समय नहीं था। रोज कानून पढ़ना, रोज दावे और दरख्वास्तें लिखना रोज बहस करना और नतीजे लाना। एक वक्त था जब साल में दिन 365 थे और निर्णीत मुकदमों की संख्या 400 या उस से अधिक। इस बीच बहुत लोगों को सुना, पढ़ा। लेकिन कोशिश करते हुए भी खुद को अभिव्यक्त करने का अवसर ही नहीं था, सिवाय उन दस महिनों के जब एक दैनिक के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखा।

नाम के अनुरूप तीसरा खंबा को न्याय-प्रणाली के इर्द गिर्द ही रखा जाना था। उस से विचलित होना नाम और उस की घोषणा का मखौल हो जाता। अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया अनवरत ने। यहाँ जो चाहा वह सब लिखा। कुछ साथियों 'यकीन', 'महेन्द्र', 'शिवराम' और आदरणीय भादानी जी की एकाधिक रचनाओं को भी रखा। लोगों ने उसे सराहा भी, आलोचना भी हुई। पर  समालोचना कम हुई। लेखन की निष्पक्ष समालोचना का अभी ब्लागरी में अभाव है। लेकिन ऐसी समालोचना की जरूरत है जो लोगों के लेखन को आगे बढ़ा सके, उन्हें उन के अंतस में दबे पड़े उजास और कालिख को बाहर लाने में मदद करे। उन्हें हर आलेख के साथ एक सीढ़ी ऊपर उठने का अवसर दे।

संकेत रूप में कुन्नू सिंह का उल्लेख करना चाहूंगा। वे नैट के क्षेत्र में जो कुछ नया करते हैं, उसे पूरे उत्साह के साथ सब के सामने रखते हैं, बिलकुल निस्संकोच। उन का दोष यह है कि हिन्दी लिखने में उन से बहुत सी वर्तनी की अशुद्धियाँ होती हैं। हो सकता है लोगों को उन के इस वर्तनी दोष के कारण उन का लेखन कुरूप लगता हो। जैसा कि कुछ दिन पहले किसी ब्लागर साथी ने अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया। लेकिन रूप ही तो सब कुछ नहीं। किसी भी रूप में आत्मा कैसी है यह भी तो देखें। आज जब कुन्नू भाई ने तीसरा खंबा पर टिप्पणी की तो उस में हिज्जे की केवल दो त्रुटियाँ थीं। कुछ दिनों के पहले उन्होंने घोषणा की थी कि वे जल्दी ही हिन्दी लिखना भी सीख लेंगे। कुछ ही दिनों  में उन की यह प्रगति अच्छे अच्छे लिक्खाडों से बेहतर है। लोग चाहें तो मेरे इस कथन पर आज हंस सकते हैं, लेकिन मैं कह रहा हूँ कि वे इसी तरह प्रगति करते रहे और नियमित रूप से लिखते रहे तो वे चिट्ठाजगत की रैंकिंग में किसी दिन पहले स्थान पर हो सकते हैं।

शास्त्री जी ने खेमेबंदी का उल्लेख किया। जहाँ बहुत लोग होते हैं उन्हें एक खेमे में तो नहीं रखा जा सकता। हम जब स्काउटिंग के केम्पों में जाते थे तो वहाँ बहुत से तम्बू लगाने पड़ते थे। अलग अलग तम्बुओं में रह रहे लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती थी, लेकिन प्रतिद्वंदिता नहीं। सब लोग एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते थे। लक्ष्य होता था हर प्रकार के जीवन को बेहतर बनाना। वही हमारा भी लक्ष्य क्यों न हो? हो सकता है लोग अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हों। एक को अन्यों से बेहतर मानते हों। लेकिन राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों का भी कुछ लक्ष्य तो होगा ही। यदि वह लक्ष्य मानव जीवन को ही नहीं सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन को बेहतर बनाना हो तो राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों के ये भेद एक दिन समाप्त हो ही जाएँगे। अगर यह एक लक्ष्य सामने हो तो सारे रास्ते चाहे वे समानांतर ही क्यों न चल रहे हों एक दिन कहीं न कहीं मिल ही जाएँगे और गणित के नियमों को भी गलत सिद्ध कर देंगे।

शनिवार, 19 जुलाई 2008

नीन्द की साँकळ उतारो, किरन देहरी पर खड़ी है।

पिछले आलेख पर अब तक जो टिप्पणियां मिलीं हैं, उन से एक बात पर सहमति दिखाई दी, कि अभी हिन्दी ब्लागिरी का शैशवकाल ही है। अनेक को तो पता भी नहीं कि हिन्दी ने भी एक ब्लागीर बालक को जन्म दे दिया है। लेकिन यह संकेत भी इन टिप्पणियों से मिला कि इस बालक ने अपने शैशवकाल में ही जितनी ख्याति अर्जित की है उस से उस के लच्छन पालने में ही दिखाई पड़ने लगे हैं। हमारे ब्लागीरों ने जो नारे उछाले हैं, जिन शब्दों में साहस बढ़ाने और ढाँढस बंधाने के प्रयत्न किए हैं वे कमजोर नहीं हैं। उन्हें प्रेरणा वाक्यों के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जैसे......

  • ब्लॉग्गिंग आएगा और जब ये आएगा तो लोग इसी में पिले रहेंगे जैसे हम ब्लॉगर पिले हुए हैं..... :)
  • जल्द ही वह दिन आएगा जब आप ब्लागिंग पर अपने इंटरव्यू में बताएँगे ..धीरे धीरे इसका नशा सब पर होगा ..:)
  • अजी उन्हे छोड़िए. हम है ना ब्लॉगिंग के बारे में सवाल पूछने के लिए..
  • वो सुबह कभी तो आएगी...जब ब्लोगिगं धूम मचाएगी।
  • जल्द ही एक बडी संख्या इसे जानने लगेगी।
  • सुबह होगी जल्द ही।


ये सभी अच्छे संकेत हैं। अंतरजाल तेजी से बढ़ने वाला है और ब्लागिरी भी। जरूरत है लोगों की जरूरत को समझने की। अगर ब्लागिरी आम लोदों की जरूरत को पूरा करने लगती है तो धीरे-धीरे यह जीवन का आवश्यक अंग बन जाएगी और अच्छे व सिद्धहस्त ब्लागर लोगों को बताने लायक कमाई भी कर सकेंगे।  जिस तेजी से हिन्दी ब्लागीरों की संख्या बढ़ रही है। (औसतन 10 चिट्ठे प्रतिदिन) उस से लगता है। कि पाठकों की संख्या भी बढ़ेगी।
जमाना वह नहीं रहा कि हम में काबिलियत है, जिस को जरूरत होगी हमारे पास आएगा। जमाना इस से बहुत आगे जा चुका है। अब लोगों को जरूरत पैदा की जाती है और अपना माल बेचा जाता है। ब्लागीरों को भी जरूरत पैदा कर पाठक पैदा करने पड़ेंगे। एक ब्लागर चाहे तो कम से कम दस नए पाठक ब्लागिरी के लिए नए ला सकता है और उसे लाना चाहिए। उसे इस के लिए सतत प्रयास करना चाहिए। ब्लागीरों को अपने स्तर को भी सभी प्रकार से उन्नत करते रहना चाहिए, तकनीकी रूप से भी और अपने माल के बारे में भी।

सभी ब्लागीरों को ब्लागिरी से एक लाभ जो हो रहा है वह यह कि वे आपस में जबर्दस्त अन्तरक्रिया कर रहे हैं जिस से उन की क्षमताएँ तेजी से विकसित हो रही हैं। वे लेखन की हों या अपने अपने क्षेत्र की जानकारियों की हों।

आज मेरे स्टूडियों से निकलने के बाद मैं ने कुछ मित्रों को संदेश दिया कि मेरा साक्षात्कार केबल पर प्रसारित होने वाला है। उन में से कुछ ने उसे देखा भी। जिस ने भी देखा उसे खूब सराहा भी। कुछ लोगों ने उसे अनायास देखा। आज अदालत मे अनेक वरिष्ठ वकीलों ने मुझे बधाई भी दी और यह भी कहा कि मेरी क्षमताएँ बहुत विकसित हैं और इस की उन्हें जानकारी नहीं थी। इस साक्षात्कार को सांयकालीन पुनर्प्रसारण में बहुत लोगों ने देखा। पूरे प्रसारण के दौरान और उस के बाद मुझे अनेक मित्रों और परिचितों के फोन आते रहे। आज के एक दिन ने मुझे बहुत बदल दिया। मैंने महसूस किया कि लोगों ने आज मुझे एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। कल जब मैं अदालत पहुँचूंगा तो मुझे और भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाएगा।

लेकिन क्या यह आज से दस माह पूर्व हो सकता था? बिलकुल नहीं क्यों कि तब में एक वकील मात्र था। इस ब्लागिरी ने मुझे एक नया आयाम प्रदान किया, एक नया रूप दिया। यदि मैं ने इन दस माहों में 162 आलेख न लिखे होते उन पर आई सैकड़ों टिप्पणियों और दूसरे ब्लागीरों की सैंकड़ों पोस्टों को पढ़ कर सैंकड़ों टिप्पणियाँ नहीं की होतीं तो यह सब नहीं हो सकता था। ब्लागिरी ने मेरी क्षमताओं को विकसित किया। वह लगातार सभी ब्लागीरों की क्षमताओं को विकसित कर रही है।

ब्लागीरों को समाचार पत्रों में स्थान मिलने लगा है। अनेक ब्लागीरों की रचनाएँ समाचार पत्र पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दी ही वह समय भी आने वाला है कि जब ब्लागिरी और ब्लागीरों की चर्चा टीवी और अन्य प्रचार माध्यमों के लिए एक स्थाई स्तंभ होंगे। ब्लाग आज भी ज्ञान और जानकारी के स्रोत हैं इन का दायरा भी बढ़ेगा और वे प्रचार के माध्यम भी बनेंगे। अभी कुछ अभिनेता ब्लागिरी में आए हैं। लालू जैसे नेता इस में आए हैं। समय आने वाला है जब सभी प्रोफेशन के लोगों के लिए ब्लागिरी एक जरूरी चीज बनेगी। उन की ब्लागिरी से ही उन की क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

अंत में मैं लावण्या दीदी की टिप्पणी यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ जिस में वे कहती हैं.......

आपसे मेरा सविनय अनुरोध है कि आप ब्लोगिंग पर और सिंदुर पर और अन्य विषयों पर दूसरों की चिन्ता किये बिना लिखिये -"वीकिपीडीया की तरह या डिक्शनरी की तरह ये जानकारियाँ आज नहीं आनेवाले समय तक नेट पर कायम रहेंगी और काम आयेंगी- जब आम का नन्हा बिरवा उगा ही था तब किसे पता था कि यही घना पेड बनेगा जिस के रसीले आम बरसोँ तक खाये जायेँगे -ये मेरा मत है ..कोई विषय ऐसा भी होता है जो भविष्य मेँ आकार लेता है, और वर्तमान उसे हैरत से देखता है ..कम से कम, यह मेरा विश्वास है....                           

- लावण्या
18 July, 2008 10:39 PM

और अब मुझे स्मरण हो रही हैं राजस्थानी के कवि हरीश 'भादानी' के एक गीत की मुख्य पंक्तियाँ जो सभी ब्लागीरों को कह रही हैं.....

भोर का तारा उगा है,
जाग जाने की घड़ी है।
नीन्द की साँकळ उतारो,
किरन देहरी पर खड़ी है।

शनिवार, 5 जुलाई 2008

अफरोज 'ताज' की बगिया के आम

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी पर पाठकों की भरपूर टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। इस से इस विषय की व्यापकता और सामयिकता तो सिद्ध हो ही गई। साथ ही इस बात को भी समर्थन मिला कि लिपि और शब्द चयन के भिन्न स्रोतों के चलते भी आम हिन्दुस्तानी ने शब्द चयन की स्वतंत्रता का त्याग नहीं किया है। उस की भाषा में नए शब्द आते रहे, और शामिल होते रहे। नए शब्द आज भी आ रहे हैं और भाषा के इस सफर में शामिल हो रहे हैं। वे कहीं से भी आएँ, लेकिन जब एक बार वे शामिल हो जाते हैं तो फिर हिन्दुस्तानी शक्ल अख्तियार कर लेते हैं।
ल चिट्ठाकार समूह पर एक साथी ने लेपटाप के लिए हिन्दी में सुंदर सा शब्द सुझाया। लेकिन अधिकांश लोग उसे कुछ और कहने को तैयार ही न थे। लेपटापों की किस्मत कि वे हिन्दुस्तानी में इस तरह रम गए हैं कि अब उन का बहुवचन लेपटाप्स नहीं होता, यही हाल कम्प्यूटरों का हुआ है। कम्पाउण्डर की पत्नी तो बहुत पहले से ही कम्पोटरनी और खाविंद कम्पोटर जी हो चुके हैं। न्यायालय लिखने में बहुत खूबसूरत हैं, लेकिन बोलने में अदालत, कचहरी ही जुबान की शोभा बढ़ाते नजर आते हैं। भले ही न्याय को सब जानते हों, लेकिन अद्ल अभी भी अनजाना लगता है। साहिब चार शताब्दी पहले ही तुलसी बाबा की जीभ ही नहीं कलम पर चढ़ चुका था, और अपने आराध्य राम को इस से निवाज चुके थे।
ज-कल हिन्दी न्यूज चैनलों पर छाई हुई उड़न तश्तरी ने 'बेहतरीन आलेख के लिए बधाई' का बिण्डल हमें पकड़ाया और टिपिया कर उड़न छू हो गई। उस के लौट कर आने की प्रतीक्षा है। कुश भाई एक सार्थक मारवाड़ी कहावत भेंट कर गए। सिद्धार्थ जी को आलेख के विश्लेषण से अपनी धारणा को मजबूती मिली। उन्हों ने बताया भी कि कैसे बीबीसी की हिन्दुस्तानी सर्वि्स यकायक दो भागों में विभाजित हो कर हिन्दी और उर्दू सर्विसों में बदल गई। लावण्या जी ने अमरीका से कि वे कैसे अमरीकियों की बोली से पहचान लेती हैं कि बोलने वाला किस प्रांत से है। उन्हों ने ही 'ताज' के आलेख को पुष्ट करते हुए यह भी बताया कि 'उर्दू को "छावनी" या फौज की भाषा भी कहा जाता था'। सजीव सारथी ने आलेख को बढिया बताया तो संजय जी पूछते रह गए कि उर्दू हिन्दी एक हुई या दोनों अलग अलग रह गईं। (या दोनों खिलाड़ी आउट?)
ज्ञान भाई हम से पंगा लेने से चूक गए। यह अच्छा मौका था, फिर मिले न मिले? वैसे हमारा उन से वादा रहा कि हम ऐसे मौके बार-बार देते रहेंगे। हमें उन का इन्डिस्पेंसीबल समझ ही नहीं आ रहा था, शब्दकोष तक जाना अपरिहार्य हो गया। हम उन से सहमत हैं कि भाषा का उद्देश्य संम्प्रेषण है, और कोई भी गन्तव्य तक जाने का लम्बा रास्ता नहीं चुनना चाहता। चाहे राजमार्ग छोड़ कर पगडण्डी पर, या चौबदार की नज़र बचा कर गोरे साहब के बंगले से गुजरने की जोखिम ही क्यों न उठानी पड़े। जोखिम उठाए बगैर जिन्दगी में मजा भी क्या? बाजार से खरीद कर खाया आम वह आनंद नहीं देता जो पेड़ पर चढ़, तोड़ कर खाया देता है। जिन आमों का आप सब ने आनंद प्राप्त किया वे हम अफरोज 'ताज' की बगिया से तोड़ कर लाए थे, बस आप को अपने पानी में धो कर जरूर पेश किए हैं। अब जब सब ने इसे मीठा बताया है, तो इस का श्रेय बाग के मालिक को ही क्यों न मिले? स्पेक्ट्रम खूब चलता है, और चलेगा। यूँ तो आवर्त-सारणी के पहले हाइड्रोजन से ले कर आखिरी 118वें प्रयोगशालाई तत्व उनूनोक्टियम तक का अपना वर्णक्रम है। लेकिन स्पेक्ट्रम कान में पड़ते ही कानों में न्यूटन की चकरी की चक-चक, आषाढ़ की बरसात की पहली बूंदों की जो झमाझम गूंजती है और आँखों के सामने जो इन्द्रधनुष नाचता है उस का आनंद कहीं और नहीं।
स आलेख को अफलातून जी की सहमति भी मिली और शिव भाई को भी अच्छा लगा। अभय तिवारी ने भी व्याकरण को ही भाषा का मूलाधार माना लेकिन उन्हें मलाल है कि दुनियाँ में दूसरी सब से ज्यादा बोले जाने वाली भाषा की हालत निहायत मरियल क्यों है। हम उन को कहते हैं आगे के दस साल देखिए, फिर कहिएगा। अभिषेक ओझा ने विश्लेषण को बढ़िया बताया, अजित वडनेरकर का शब्दों का सफर इसे पहले से ही हिन्दुस्तानी कहता आ रहा है। उन्हें तो अफसोस इस बात का है कि बोलने वाले तो इसे विकसित करते रहे लेकिन लिखने वाले भाषा के शुद्धतावादियों के संकीर्णता ने इसे अवरुद्ध कर दिया। पूनम जी ने बधाई के साथ शुक्रिया भेंट किया। दीपक भारतदीप ने हमारे आप के लिखे को निस्सन्देह रूप से हिन्दुस्तानी ही कहा और गेयता को पहली शर्त भी।
घोस्ट बस्टर जी बहस में पड़ना नहीं चाहते, उन की तरफ से हिन्दी हो या उर्दू काम चलना चाहिए। कुल मिला कर उन का वोट हिन्दुस्तानी के खाते में ड़ाल दिया गया। जर्मनी से राज भाटिया जी ने अपनी हिन्दी में बहुत गलतियाँ बताते हुए चुपचाप हमारी हाँ में हाँ मिलाई, तो डाक्टर अनुराग चौंक गए। मनीष भाई को विषय पसंद आया। अरविंद जी को उर्दू प्रिय है संप्रेषणीयता के लिए। वैसे भी प्रवाहपूर्ण संभाषण में उर्दू हिन्दी का भेद कहाँ टिक पाता है? एक और डाक्टर अमर कुमार जी शरबत छोड़ने को तैयार नहीं। आप करते रहें गिलास पकड़ कर तब तक इन्तजार कि जब तक शक्कर और पानी अलग अलग न हो जाएँ। अलबत्ता उन के शब्द भंडार में सभी शब्द हिन्दुस्तानी ही पाए गए। उन के लिए यह बहस बेकार ही थी। लेकिन टिप्पणी उन की कारगर निकली।
अब इस आलेख में भी हमारा कुछ नहीं है। हमने बस आरती उतार दी है, बतर्ज ते..रा तुझको... अरपण क्या... ला...गे मे....रा।
अब आप बताइये कि इस आलेख की भाषा हिन्दी है, या उर्दू या फिर हिन्दुस्तानी?
यह भी बताइएगा कि अगर हिन्दी-उर्दू में प्रयोग में आने वाले तमाम शब्दों का एक हिन्दुस्तानी शब्दकोष इस जन-जाल पर आ जाए तो किसी को असुविधा तो नहीं होगी?
हाँ उड़न तश्तरी के चालक महाराज समीर लाल जी अब तक आत्मसात कर चुके होंगे। उन का इंतजार है।
कबीर बाबा कह गए हैं ....
लाली तेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
स का मतलब समझ जाएँ तो आप बताइयेगा
या फिर पढ़िएगा गीता .....
नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत्।

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

चिट्ठाकार समूह पर कल भाई अविनाश गौतम ने पूछा कि 'संस्करण' के लिए उर्दू शब्द क्या होगा तो अपने अनुनाद सिंह जी ने जवाब में जुमला थर्राया कि अपने दिनेशराय जी कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषाएँ हैं और आप संस्करण के लिए उर्दू शब्द पूछ रहे हैं। मेरे खयाल से आप को समानार्थक अरबी या फारसी शब्द चाहिए। और अविनाश जी का आग्रह पुनः आया कि अरबी हो या फारसी या बाजारू आप को पता हो तो बता दीजिए। आग्रह माना गया और शब्द खोज पर शब्द बरामद हुआ वह "अशीयत" या "आशियत" था। इस के साथ ही और भी कुछ खोज में बरामद हुआ।
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर Afroz Taj अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:

दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है।  कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह  लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं।  यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली  में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक  इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है?  जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?



क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।  

तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।  

हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।

लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया।  उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा। 

विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।

यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है।  आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।