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बुधवार, 10 जनवरी 2024

रवि रतलामी : एक विनम्र श्रद्धांजलि

वह 2007 का साल था। घर में पहला कम्प्यूटर आया था। बीएसएनएल का पहला इंटरनेट कनेक्शन लिया था। इन्टरनेट का संसार खुल गया था। सारी धरती वहाँ थी। मैं धरती के किसी कोने को खंगाल सकता था। हिन्दी साहित्य तलाश रहा कि मुझे हिन्दी ब्लागों की दुनिया नजर आयी। मैं ब्लॉग पढ़ने लगा, उन पर टिप्पणियाँ करने लगा। फिर अनूप शुक्ल ने सुझाव दिया कि मुझे ब्लॉग लिखना चाहिए। कुछ समझ नहीं आया कि क्या लिखूँ। मैंने ब्लॉगस्पॉट पर अपना पहला ब्लॉग “तीसरा खंबा” बनाया। यह कानून और न्याय व्यवस्था पर आधारित ब्लाग था। पर लगा कि ब्लाग पाठकों का उस पर ध्यान कम है। सीधे जीवन से जुड़ी चीजें पढ़ना पसंद करते हैं और तीसरा खंबा पर भी पाठकों को लाने के लिए अपना कोई सामान्य ब्लाग बनाना पड़ेगा, जो जीवन के अनुभवों से जुड़ा हो। कोई दो माह बाद अपना सामान्य ब्लॉग “अनवरत” बनाया।

रवि रतलामी

कंप्यूटर आने के बाद मैं क्रुतिदेव फॉण्ट में टाइप करने लगा था। उसी में अपना काम करता था। क्रुतिदेव का की बोर्ड वही था जो उन दिनों हिन्दी टाइप मशीनों का था। इंटरनेट पर केवल यूनिकोड फॉण्ट ही चलते थे। हिन्दी के लिए यूनिकोड फॉण्ट का इनस्क्रिप्ट की बोर्ड तैयार हो चुका था लेकिन उसका मूल की बोर्ड अलग था। लोगों ने अपने टाइपिंग अभ्यास के लायक (आईएमई) बना ली थीं। लेकिन वे प्रारंभिक अवस्था में थीं। आईएमई से टाइप करने पर ब्लागस्पॉट के ब्लाग में संयुक्ताक्षर और मात्रा वाले शब्द फट जाते थे। अक्षर, मात्रा और अर्धाक्षर अलग अलग दिखाई देते थे बीच में स्पेस आ जाती थी। बहुत बुरा लगता था। मैं परेशान हो गया। आखिर रवि रतलामी जी से पूछा क्या करूँ? इसका क्या उपाय है. तो वे बोले सबसे बेहतर उपाय तो इनस्क्रिप्ट की बोर्ड सीख लो।

उन दिनों इनस्क्रिप्ट की बोर्ड के लिए कोई ट्यूटर भी नहीं था। अभ्यास कैसे करूँ। मैं हिन्दी टाइपिंग सीखने वाली किताब बाजार से खरीद कर लाया। उसमें जिन कुंजियों का अभ्यास क्रम से किया जाता था। उन्हीं कुंजियों का अभ्यास क्रम से करने के लिए अपने खुद के अभ्यास बना लिए। उनसे अभ्यास करना शुरू कर दिया। एक सप्ताह उस तरह का अभ्यास करने के बाद मैंने टाइपिंग शुरू कर दी। मैं दस दिन में इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइप करने लगा। एक महीने बाद तो मेरी टाइप गति क्रुतिदेव की बोर्ड से बेहतर हो गयी, लगभग अंग्रेजी वाली गति के मुकाबले। आज मैं अंग्रेजी से अधिक गति से हिन्दी टाइप कर लेता हूँ। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने 2008 के बाद मेरी वकालत की तमाम प्लीडिंग मेरी खुद की टाइप की हुई है और मेरे कंप्यूटर में सुरक्षित है।

पहले टाइपिस्टों से टाइप कराने पर उनके फ्री होने का इंतजार करना पड़ता था और बहुत समय जाया होता था। मेरे यहाँ स्टेनो आता था। वह डिक्टेशन लेकर जाता था अगले दिन टाइप कर के लाता था। फिर करेक्शन के बाद दुबारा टाइप करता था। एक काम को कम से कम तीन दिन लग जाते थे। इन दोनों से मेरा पीछा छूटा। अपनी लगभग सारी प्लीडिंग खुद टाइप करने वाला हिन्दी बेल्ट का शायद मैं पहला वकील हूँ।

मुझे इस स्थिति में लाने का सारा श्रेय रवि रतलामी जी को है। मैं उनसे मिलना चाहता था। किन्तु उनसे न तो किसी ब्लागर मीट में भेंट नहीं हो सकी। मैं उनसे मिलने के लिए रतलाम या भोपाल भी न जा सका। 8 जनवरी, 2024 को सुबह अचानक समाचार मिला कि रवि रतलामी जी नहीं रहे।

५ अगस्त १९५८ को जन्मे, रवि रतलामी नाम से लिखने वाले रविशंकर श्रीवास्तव, रतलाम, मध्य प्रदेश, भारत से, मूलत: एक टेक्नोक्रैट थे, हिंदी साहित्य पठन और लेखन उनका शगल था। विद्युत यान्त्रिकी में स्नातक की डिग्री लेने वाले रवि इन्फार्मेशन टेक्नॉलाजी क्षेत्र के वरिष्ठ तकनीकी लेखक थे। उनके सैंकड़ों तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आई.टी. तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं।

हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन इसका शौक था और इस क्षेत्र में भी इनकी अनगिनत रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखकर रह चुके हैं।

रवि रतलामी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के हिंदी-करण के अवैतनिक - कार्यशील सदस्यों में से एक थे और उनके द्वारा जीनोम डेस्कटाप के ढेरों प्रोफ़ाइलों का अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद किया गया, लिनक्स का हिंदी संस्करण मिलन (http://www.indlinux.org) 0.7 उन्हीं के प्रयासों से जारी हो सका।

रवि रतलामी हिन्दी ब्लाग के उन आरंभिक लोगों में से थे जिन्होंने हिन्दी ब्लागिंग और इन्टरनेट पर हिन्दी को पहुँचाने में अपनी बहुत ऊर्जा लगायी। तकनीक की मदद के लिए जाने जाने वाले मेरे अभिन्न मित्र Bs Pabla बी.एस.पाबला जी पहले ही हमें छोड़ कर जा चुके हैं।

आज रवि जी के साथ साथ पाबला जी की भी बहुत याद आ रही है।

रवि जी को हार्दिक श्रद्धांजलि¡

रविवार, 16 जुलाई 2017

हिन्दी ब्लाग की उपलब्धि तीसरा खंबा को 5 वर्ष 6 माह 15 दिन में मिले 15 लाख विजिटर्स

हिन्दी ब्लागों को पढ़ते और टिपियाते हुए सुझाव आया कि मुझे भी ब्लाग लिखना चाहिए। 28 अक्टूबर 2007 को मेरा जो पहला ब्लाग सामने आया वह "तीसरा खंबा" था।


"तीसरा खंबा" के माध्यम से विधि के क्षेत्र में कुछ अलग करने का मन था। कुछ किया भी, लेकिन टिप्पणियों में यह फरमाइश होने लगी कि मैं लोगों को उन की समस्याओं के लिए कानूनी उपाय भी बताऊँ। मैं ने वह आरंभ किया तो। तीसरा खंबा पर समस्याएँ आने लगीं। तो मैं ने कम से कम एक समस्या का समाधान या उपाय हर रोज लिखना शुरू किया।  तो "तीसरा खंबा" नियमित ब्लाग हो गया।


उन्हीं दिनों बीएस पाबला जी ने "अदालत" ब्लाग शुरू किया था जिस में वे विधि से संबंधित समाचारों को लिखा करते थे। उन से संपर्क हुआ तो पक्की दोस्ती में बदल गया। 2011 की एक रात पाबला जी से फोन पर बात हो रही थी। उन का सुझाव था कि अपना डोमेन ले लिया  जाए। मैं ने कहा ले लो। पाबला जी से बात पूरी हुई थी कि 10 मिनट बाद फोन की घंटी बजी। पाबला जी थे बता रहे थे कि "तीसरा खंबा" के लिए  http://teesarakhamba.com/  डोमेन मिल गया है। अब उन का कहना था कि ब्लागर के स्थान पर वर्डप्रेस पर जा कर इसे एक वेबसाइट का  रूप दे दिया जाए। वह भी पूरा किया पाबला जी ने ही। आखिर वेबसाइट शुरू हो गयी। हम ने 1 जनवरी 2012 से उस का शुभारंभ मान कर उस की स्टेटिस्टिक्स शुरू की।

एक जनवरी 2012 से कल 15 जुलाई 2017 तक "तीसरा खंबा" ने 15 लाख विजिटर हासिल कर लिए हैं। बीते कल इस पर 4328 विजिटर थे। हिन्दी ब्लाग जगत के लिए इसे एक उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है।  

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

डाक्टर अमर को जीवन भर विस्मृत नहीं किया जा सकता

सुबह सुबह ही इंटरनेट पर जाते ही समाचार मिला कि डाक्टर अमर नहीं रहे। मेरे लिए यह अत्यन्त संघातिक समाचार था। उन के ब्लाग पर एक आलेख मुझे बहुत पसंद आया था और मैं ने उस आलेख और उन के ब्लाग का अनवरत पर उल्लेख किया था। उस के बाद उन से नेट संपर्क बना रहा। उन से रूबरू मिलने की तमन्ना पनपी। पर वह तभी संभव था जब वे मेरे घर आते या मैं उन के घर जाता या फिर किसी तीसरे स्थान पर हम मिलते। उन का इधर आना नहीं हो सका। मेरा जैसा व्यक्ति जो अपने काम के कारण भी और स्वभाव से भी गृहअनुरागी है, उन से मिलने नहीं जा सका। किसी तीसरे स्थान पर भी उन से भेंट नहीं हो सकी। उन से जीवन में नहीं मिल सकना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति है। मैं ने उन्हें सदैव अपना बड़ा भाई समझा। उन्हों ने मुझे एक बराबर के मित्र जैसा व्यवहार और स्नेह प्रदान किया। वे  अभिव्यक्ति में बहुत खरे थे, शायद अपने जीवन में भी वैसे ही रहे होंगे। दुनिया में बहुत कम इस प्रकार के खरे व्यक्ति होते हैं। विशेष रूप से चिकित्सक और वकील का इतना खरा होना संभव नहीं होता। लेकिन वे थे। मैं चाहते हुए भी शायद उतना नहीं हूँ। 

न का नहीं रहना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति है। मैं नहीं बता सकता कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ। लेकिन जीवन कभी नहीं रुकता है। इस विश्व के छोटे से छोटे कण और बड़े से बड़े पिण्ड की भाँति वह सतत गतिमय होता है। आज तीन दिनों के बाद अदालत खुली थी। मेरे पास आज काम भी बहुत अधिक था। मैं सुबह 11 बजे अदालत जाने के बाद शाम 5 बजे तक लगातार काम करता रहा। भागदौड़ भी बहुत अधिक हुई। शाम को भी अनायास ही मुझे अपने एक स्नेही की समस्या में शामिल होना पड़ा। वहाँ से अभी आधी रात को अपने घर पहुँचा हूँ। आज देश बहुत महत्वपूर्ण घटनाक्रम से गुजरा है। कल का दिन कैसा होगा? कोई अनुमान नहीं कर सकता। कल मेरा शहर कोटा बंद है। वकील भी कल काम बंद कर अन्ना के आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन करेंगे। कल के बाद क्या होगा। यह अनुमान नहीं किया जा सकता। आज बहुत कुछ कहना चाहता था। लेकिन डाक्टर अमर की क्षति के कारण कुछ लिखने का मन नहीं है।  

डाक्टर अमर को मेरी आत्मिक श्रद्धांजलि!!!

ह हिन्दी ब्लाग जगत की तो भारी क्षति है ही। निश्चित रूप से उन के परिवार के लिए यह क्षति बहुत अधिक है। विशेष रूप से भाभी के लिए तो यह भारी आघात है। मैं समझ सकता हूँ कि उन के नगर के लोगों और उन के निकट के लोगों के लिए भी यह बहुत आघातकारी है। मैं सब के दुःख में अपने दुःख के साथ सब के साथ हूँ। हम जीवन भर उन्हें विस्मृत नहीं कर सकेंगे।

मंगलवार, 17 मई 2011

'सिरफिरा' की प्यारी प्यारी प्रति-टिप्पणियाँ

विचारमग्न
मैं ने अपनी पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता में रमेश कुमार जैन का उल्लेख किया था। इन का तखल्लुस 'सिरफिरा' है।  वे पत्रकार हैं, साथ में पुस्तकें विक्रय करने, विज्ञापन बुक करने, अखबार व पुस्तकें प्रकाशन का कार्य करते हैं। सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों में रुचि रखते हैं और उन का दखल मानवता के पक्ष में होता है। इस मामले में वे समझौता भी नहीं करते। बीच में कुछ व्यक्तिगत परिस्थितियों ने उन के इन कामों में बाधा पैदा की। वे निराश भी हुए। लेकिन अब उन के पास कुछ अच्छे साथियों का साथ है। वे बहुत कुछ इस निराशा से निकल चुके हैं। मुझे विश्वास है कि वे शेष निराशा को भी जल्दी ही यमुनाशरण भेज देंगे। इसी बीच उन्हों ने हिन्दी ब्लागरी को अपनाया और उस का एक अभिन्न हिस्सा बन गए। मुझे यह भी विश्वास है कि वे शीघ्र ही यहाँ कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं। उन के पत्रकारिता, प्रकाशन, विज्ञापन संग्रहण और पुस्तक विक्रय के अनुभव का ब्लागरी को लाभ मिलेगा। मेरा जो ब्लागरों के सहकारी प्रकाशन का विचार है, यदि उस ने मूर्तरूप लिया तो उस के सब से मजबूत स्तम्भों में रमेश जी एक होंगे। 
क्त पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता के एक-एक चरण के जो सटीक और तार्किक उत्तर दिए उन्हें मैं ने अनवरत की पोस्ट क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी में प्रस्तुत किया था।  इस पोस्ट को पढ़ने मात्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रमेश जी कैसे व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बस उन की चौथी टिप्पणी छूट गई थी, उसे आज पोस्ट कर रहा हूँ। उन्हों ने उस पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता पर आई  सभी टिप्पणियों पर अपनी प्रतिटिप्पणियाँ भी लिखीं हैं। वे उन्हें उसी पोस्ट पर प्रकाशित भी करना चाहते थे, लेकिन उस दिन ब्लागर के बंद रहने के कारण ये प्रति टिप्पणियाँ उन्हों ने मुझे  मेल कर दीं। उन प्रतिटिप्पणियों को भी मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-

पोस्ट पर चौथी टिप्पणी
अब कुछ लिखते हुए
गुरुवर:-अंत में सिरफिरा जी ने जो कहा वह बात जरूर दिल को लगने वाली है, लेकिन है बहुत जबर्दस्त। वे कहते हैं-किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. बोलो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? उन की ये बात बहुत सारे ब्लागरों को तीर सी चुभ कर उन्हें घायल कर सकती है। वे सोच सकते हैं कि " लो ये आया है कल का ब्लागर, जो अभी अजन्मा है, कह रहा है कि लिखना ऐसा चाहिए जिसे आम आदमी खरीद कर ले जाए। ये कौन होता है हमें सिखाने वाला? हम ब्लागर हैं, ब्लागर। बस कंप्यूटर चालू कर के बैठते हैं और की-बोर्ड पर उंगलियाँ चलने लगती हैं। जो टाइप कर देते हैं वही हमारा लेखन है। सोच समझ कर लिखा, तो क्या लिखा? खैर! आप कुछ भी सोचें मुझे तो सिरफिरा जी कह ही चुके हैं कि मेरी किताब वो छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी भी देंगे। तो मैं क्यों देर करूँ ? चलता हूँ अपनी पोस्टों को संभाल कर, उन का संपादन करने, उन की पाण्डुलिपि तैयार करने। उधर तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट भी लिखनी है। तब तक आप गिनते रहिए कि सहकारी की सौ की संख्या कब पूरी होती है। बस सौ हुए, और सहकारी शुरू।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपने कड़वी सच्चाई को इतनी बेबाकी से रखकर न जाने कितनों को मेरा दुश्मन बना दिया है.लगता है तीन-चार ब्लोगरों ने मान-हानि के नोटिस तो जरुर तैयार करवा दिए होंगे. एक-दो दिन आपके पास या मेरे पास आते ही होंगे. आज इतनी मंहगाई में आम आदमी बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरतों की चीज़ या पुस्तक खरीदता है. तब उसके पास हर दूसरी किताब खरीदने के लिए पैसे कहाँ होंगे? मैं आप (तीसरा खम्बा) की अंधिकाश नई व पुरानी पोस्टें पढ़ चुका हूँ. उपरोक्त किताब द्वारा जानकारी आम-आदमी तक अगर पहुंचती हैं.तब उसके लिए लाभदायक होगी, क्योंकि आम-आदमी ऐसी कई परेशानियों से रोज रूबरू होता है और सही जानकारी न मिलने पर शोषित होता है. यह मेरा आपसे पिछले नौ महीने से जुड़ने के बाद महसूस किया और कुछ भ्रष्टाचारियों की नाक में दम कर रखा है. तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट का बेसब्री से इन्तजार है.

गुरुवर:-रमेश कुमार जैन साहब किताब भी छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी देने को भी। लेकिन मेरे संपादन में समय तो लगेगा और उधर सहकारी शुरू होने में भी। तो तब तक सिरफिरा जी फालतू बैठ कर क्या करेंगे? बहुत सारे ब्लागर बीस-बीस हजार दे कर किताब छपवाने को तैयार बैठे हैं। मेरी जैन साहब को सलाह है कि तब तक उन से कुछ कम-ज्यादा कर-करा कर किताब प्रकाशन का काम तुरन्त शुरू करें। उद्यमी ठाला नहीं बैठता। उन्हें भी नहीं बैठना चाहिए।

सिरफिरा:- गुरुवर! जब तक समय लगता है। तब तक कुछ अपनी उलझनों से भी निकल लेता हूँ और कुछ प्रकाशन परिवार में फैली अव्यवस्था को ठीक कर लेता हूँ। साथ में कुछ यारे-प्यारे का डाटा भी तैयार कर लेता हूँ।  इसलिए ठाली बैठने का सवाल नहीं उठता है। मुझे 20-20 हजार रूपये लेकर किताबें छापनी होतीं तो अब तक प्रकाशन परिवार के 14 वर्षों में कम से कम 140 बुक छाप दी होती।  मुझे किसी को यह नहीं दिखाना कि देखो मैं इतना बड़ा प्रकाशक हूँ, या कोई इनाम/अवार्ड नहीं लेना है।  किताब एक-साल में एक या दो ही प्रकाशित हो, मगर उसकी सामग्री और बिक्री इतनी अच्छी हो कि एक साल में कम से कम दो बार उसका संस्करण प्रकाशित करने की जरूरत पड़े। थोड़े से चाँदी के कागजों के लिए, या यह कहूँ अपने आपको अमीर और गाड़ी वाला दिखाने के लिए "कुछ भी" छापना शुरू कर दूँ।  आज मुझे अपनी गरीबी पर अफ़सोस नहीं है। मगर ऊपर वाले के खाते में अमीरों की सूची में पहला नहीं तो दूसरा स्थान तो पक्का है। आपको हमेशा मेरे उपनाम "सिरफिरा" पर एतराज था।  अब बताइए कि न आधा और न उससे थोडा ज्यादा, हूँ पूरा का पूरा सिरफिरा हूँ कि नहीं?  रहता इस दुनिया में और ख्याब उस दुनिया के देखता है। अब थोडा-सा आपकी अनुमति से जरा टिप्पणीकर्त्ताओं को भी प्यारे-प्यारे जवाब दे दूँ।

 रमेश कुमार जैन 'सिरफिरा' की प्रति टिप्पणियाँ

@अविनाश वाचस्पति जी,  
भूमिगत होने का अनुभव भी है।
आपने कहा कि-  मतलब सिरफिरा तो वे खुद हैं, बीस बीस हजार लेकर सिर फिरा देंगे सब हिंदी ब्‍लॉगरों का। मेरे से एक लाख ले लें और अडवांस में रायल्‍टी दे दें।
सिरफिरा: आदरणीय अविनाश वाचस्पति जी!  वैसे आपकी टिप्पणी का जवाब मेरे गुरुवर दे दिया है. मगर यह नाचीज़ शिष्य अपने गुरुवर की डांट (प्यार) के लिए थोड़ी सी गुस्ताखी कर रहा है।  मेरी आपसे किसी प्रकार व्यक्तिगत लड़ाई या मेरे मन आपके प्रति द्वेष भावना नहीं है। अगर विश्वास न हो, पूर्व सूचना देकर मेहमान नवाजी का मौका देकर देख लें। मगर मेरी विचारों की भिन्नता को लेकर स्वस्थ मानसिकता से आपकी बात को लेकर बहस मात्र है और आपकी कथनी और करनी को जाने की इच्छा मात्र है।  मेरे पास आप जितना ज्ञान नहीं है,  मेरे लेख भी आप जितने प्रकाशित नहीं हुए हैं।  मेरे पास सम्मानों का बहुत बड़ा ढेर भी नहीं हैं। आप द्वारा प्रचारित तीनो हरियाणवीं फ़िल्में देख रखी हैं और गुलाबों के एक गाने के कुछ बोल आज भी याद हैं। जितनी पत्र-पत्रिकाओं के लिए आप लिखते हैं उनमें से एक-दो को छोड़कर, बाकी सब के लिए अपने अच्छे दिनों में विज्ञापन बुक किया करता था। मेरे ब्लागों पर लोग भी इतने नहीं आते हैं, जितने आपके ब्लॉग पर आते हैं। आपसे हर मामले में तुच्छ (नाचीज़) हूँ।  अब आप कह रहे हैं कि मेरे से एक लाख ले लें, चलिए आप बता दीजिये एक लाख रूपये नकद देंगे या चेक से देंगे।  इस पर ब्याज कितना लेंगे। मेरी हैसियत 9 प्रतिशत वार्षिक की है।  हर महीने बिना मांगे 750 रूपये का चेक आपके संतनगर वाले घर पर 11 तारीख को पहुँच जाया करेगा। अगर आप अपना किसी काम के लिए, या किसी विज्ञापन, या इन दिनों मेरी जरूरत के अनुसार कर्ज के बतौर आप एक लाख रूपये दे मुझे दे सकते हों तो अवश्य दें। वरना इन चंद कागज के टुकड़ों का आपकी सेफ में रहना ही बेहतर है।  आपको मेरी आप को तुच्छ सलाह है कि आप खुले आम किसी को रूपये देने का प्रस्ताव न करें।  किसी सिरफिरे ने जिद्द पकड ली, तब आपको देने में मुश्किल होगी। आप एक लाख रूपये की बात तो दूर छोडिये मेरी मेहनत की कमाई से लिये "कैमरे के सैल और उसका चार्जर ही ढूंढ़वाकर भिजवा दें। एक बात आप हमेशा ध्यान रखें कि भारत देश की धरती पर जब तक यह "सिरफिरा" पत्रकार जीवित रहेगा, उसे कोई माई का लाल चंद कागज के टुकड़ों से खरीद नहीं सकता। मुझे मरना मंजूर है, लेकिन बिकना मंजूर नहीं। बाकी रही अडवांस में रायल्‍टी देने की बात, तो पहले किताब या लेखक को हमारे मापदंड पूरे करने होंगे, फिर अनुबंध  होगा। उसके बाद आगे की प्रक्रिया शुरू होगी। वैसे भी गुरुदेव का कहना है कि रॉयल्टी का सम्बन्ध किताब की बिक्री से होता है। बिना किताब लिखे रायल्टी पाने वाले लोग दुनिया में बिरले ही मिलेंगे। मेरा आपका किसी प्रकार अपमान करने का इरादा नहीं है। अगर आप मानें तो ठीक, नहीं तो आप अपने ब्लागों पर किसी भी शैली (व्यंग, विरोध और द्वेष प्रेरित लेख) के माध्यम से हमारी टांग खिंचाई कर सकते है। आपके दर्शनों का अभिलाषी और अतिथि संस्कार का इच्छुक-सिरफिरा।

@ उड़न  तश्तरी ब्लॉग के श्री समीर लाल जी! 
आपको भी बहुत शुभकामनाएँ! ...मुझे आपकी शुभकामनाएँ मिल गई है। अब आप लोगों की दुआएँ और साथ चाहिए।

@ज्ञानदत्त पाण्डेय,  
किंडल जैसे उपकरण मुझे जानकारी नहीं है। मगर मुझे नहीं लगता कि किताबों पर कभी चर्चा समाप्त होगी। यानि किताबों का आस्तित्व खत्म हो जायेगा। लेकिन छोटे बच्चों को अ.आ.इ और ए.बी.सी किताब से ही सिखाई जाती रहेंगी।
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@सतीश सक्सेना जी, 
 सूरज की किरणें जहाँ-जहाँ पड़ती है। वहीँ पर रौशनी होती है।  गुरु के ज्ञान के बिना शिष्य अधूरा रहता है।

@अख्तर  खान  अकेला जी, 
पहले पोल खोलक यंत्र एक व्यक्ति बजता था।  अब एक और एक, ग्यारह समझो या दो बजायेंगे। 

@अनूप शुक्ल जी, 
आपने सही कहा कि किताब अगर छपें तो दाम कम रखना सबसे अहम बात है। वर्ना किताब खपाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

@काजल  कुमार जी,  
आपने कहा कि-अनूप जी से असहमति...किताब खूब मंहगी होनी चाहिये, लेकिन उसके छपे मूल्य पर 80%-90% तक डिस्कांउट का फंडा रहना चाहिये ताकि जैसा मुंह देखें वैसे ही चिपका दें :) बहुत अधिक मूल्यों वाली किताबें कालर खड़े करने का भी मौक़ा देती हैं, लेखक भी 'बेचारा' नहीं दिखता :)
    सिरफिरा: ऐसी किताबें दोस्तों फ्री में बाटने के बाद लेखक या प्रकाशक की अलमारी में धूल फांकती है या कोई दस साल बाद कबाड़ी के पास 10-15 रूपये किलो बिक रही होती हैं। छपे मूल्य पर 80%-90% तक डिस्कांउट का फंडा किताब की छवि को धूमिल करने के सिवाय कुछ नहीं करता है। जैसा मुंह देखें वैसे ही चिपका दें,  हम यहाँ भी तिकडम या धोखाधडी के सोचते हैं। बिजनेस में अच्छी सोच रखने पर परिणाम भी अच्छे आते हैं।  किताबें कालर खड़े करने का भी मौक़ा देती हैं, एक अच्छी किताब लेखक के पास "कालर" खड़े करने के हजारों मौके पैदा करती है, लेखक भी 'बेचारा' नहीं दिखता।  हमारा इतिहास गवाह है लेखक बेचारा ही बनता हैं। अमीरों को नोट गिनने से फुर्सत कहाँ मिलती हैं?  अगर आपको जानकारी हो तो देना कि क्या किसी अमीर ने कभी कोई किताब (आत्मकथा और रविन्द्रनाथ टैगोर व टॉलस्टॉय जैसे अपवादों को छोड़कर) जनहित हेतु लिखी है?

@अरविन्द  मिश्र जी,  
आपने कहा कि-विचारणीय मुद्दा -कितनी ही बार तो इस विषय पर चर्चा हो चुकी है, मगर कोई निष्कर्ष नहीं दिखता!
    सिरफिरा: जरुर निकलेगा मगर बगैर किसी प्रकार की द्वेष भावना के स्वस्थ बहस की जाए तो निष्कर्ष निकलता है। 

@प्रवीण पाण्डेय जी,  
आपने कहा कि-पुस्तक छपाने की उत्कण्ठा सबमें होती है, पर आज से 10 वर्ष बाद का सोचें तो पुस्तकें उतनी उपयोग में नहीं रह जायेंगी। नेटीय साहित्य बहुत अधिक पढ़ना हो रहा है, अभी उर्वशी पढ़ी है।
    सिरफिरा: पुस्तक छपाने की उत्कण्ठा सबमें होती है, दोस्त आपने कहा है। आज से 10 वर्ष बाद का सोचें तो पुस्तकें उतनी उपयोग में नहीं रह जायेंगी, इसके लिए कम से कम 20 साल समय लग जायेगा। ऐसा हो सकता था, मगर हमारे देश के स्वार्थी नेताओं ने कभी विचार नहीं किया। नेटीय साहित्य में अभी आपने उर्वशी पढ़ी है। इन्टरनेट आज भी आम-आदमी के लिए बीरबल की खिचड़ी है। उसकी पहुँच के लिए देश की बहुत सी व्यवस्थाओं को ठीक करने की जरूरत है। आज जनता का अधिक समय तो छोटे-छोटे कार्यों में खर्च हो जाता है। जैसे-राशन कार्ड में अपना नाम या आयु सही करवानी है। उर्वशी का लिंक मुझे भी भेजें हम भी जरा पढ़ लें, अगर इन्टरनेट का नेटवर्क लगातार सही आता रहा तो।

@बड़े भाई श्री खुशदीप सहगल जी, 
आपके बारें में जानकारी प्राप्त हुई कि आप न्यूज चैनल में है। पिछले दिल्ली नगर निगम 2007 के चुनाव में प्रत्याशी की कवरेज (विज्ञापन) का रेट 25 हजार रूपये था। इस बार (मार्च 2012) आपकी मदद से मेरा काम सस्ते में हो सकता है।  आपका नारा (हमारा नेता कैसा हो, सिरफिरे भाई जैसा हो....) मेरा एक मतदाता 2007 और 2008 में भी लगा चुका है। इस बार आपके चैनल पर लगाया जाए तो कैसा रहे? अपने छोटे भाई का तीसरी बार फिर से चुनाव चिन्ह "कैमरा" याद रखना और अगर आपका पहचान पत्र नहीं बना हो तो ५०० रूपये कुछ लोग बना रहे हैं। जल्दी से बनवा लीजिए। इस बार आपकी वोट मुझे ही चाहिए होगी.जय हिंद...

@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी, 
अच्छी और सस्ती किताबों के वितरण में थोड़ी कम समस्या होती है।

@डा० अमर कुमार जी,  
आपकी तरह सब किस्मत के धनी नहीं होते।

@रवि कुमार स्वर्णकार जी, 
एक अच्छा उद्यमी कभी दूसरे उद्यमी को ठाला नहीं बैठने देता है।

@ राज भाटिय़ा जी, 
आपका पूरा ध्यान रखा जायेगा।  वैसे हमें कहाँ यह लिखना विखना आता है।  हम क.ख.ग... को बस जोड़ लेते हैं। बस, रेल में बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैसे आपकी  रिटायरमेंट कब हो रही है? और ब्लागरों ने अब तक फैसला लिया भी नहीं है कि ब्लागर की रिटायरमेंट कब होगी? क्या जब वो "सिरफिरा" हो जायेगा तब? चलिए अब बिजनेस की बात पर आते हैं, श्रीमान जी आप कितनी किताब लेना चाहते हैं? देखिये एक-दो किताब पर कमीशन देना संभव नहीं होगा।  अगर हर महीने कम से कम दस किताबें लेंगे तब आपको दो महीने के बाद ही अलग से बोनस भी दिया जायेगा। आपका चैक कब आ रहा है हमारे पास? जरुर बतायें?

@निर्मला कपिला जी,  
आपकी बधाई और शुभकामनायें मिल गई हैं, मगर रॉयल्टी लेने के लिए लेखक को मापदंड (रिश्वत कहे या पैसे और सिफारिश नहीं) पूरे करने होंगे। 

@हकीम  युनुस  खान जी,  
धन्यवाद! खुदा के फज़ल से कोशिशें ही सफल होती हैं। 

@सुनील  कुमार जी, 
आपने कहा कि-सिरफिरा जी ने सर घुमा दिया सवेरे-सवेरे, बात तो लगभग ठीक ही है।
   सिरफिरा: भाई आप अपना सर मत घुमाओ, अगर आप लोग साथ दो तो मैं हमारे देश के स्वार्थी नेताओं का सर घुमाना चाहता हूँ।  इनका सर घुमाने के बाद शायद ये घोटालों की न सोचकर देश के विकास की बात करें और सोचें। उसके बाद मजदूर की तरह उसमें जुट भी जाएँ। एक बार आप दुबारा बगैर "ही" का प्रयोग करें। कह दो न कि बात तो लगभग ठीक है। इस अजन्में बच्चे की जिद्द पूरी नहीं करोंगे भाई। 

@अख्तर खान अकेला जी,  
आपने कहा कि-वाह भाई जान सिरफिरा जी को समर्पित यह पोस्ट भी जीवंत है.
    सिरफिरा:जब से गुरु-चेले की बातचीत शुरू हुई है, तब से टिप्पणीकर्त्ताओं के सर घूम गए हैं और जिन पिछली 8 पोस्टों में गुरु-चेले नहीं थें, वहां टिप्पणी का औसत 18.25 था. गुरु-चेले की 2 पोस्टों में यह औसत सिर्फ 14 रह गया है।  लोग अपने सिरों के इलाज़ के लिए डाक्टरों की दवाइयां खा रहे हैं। आप मेरे गुरु को चने के झाड़ पर चढाओं नहीं, नहीं तो दोनों गुरु-चेला औंधे मुंह गिर जायेंगे।

@अरविन्द मिश्र जी, 
क्षमा चाहता हूँ.आपका सिर फिर गया है-गोल गोल, वैसे तो पृथ्वी घूमती गोल-गोल। मुझे क्या पता था आप लोगों के भी सिर "फिर" जायेंगे, मेरा लक्ष्य मछली की आँख (हमारे देश के स्वार्थी राजनीतिकज्ञ) थे। यानि मेरा तीर दिशाहीन हो गया।  अब गुरुवर के अनुभव का लाभ प्राप्त करके तीर सही निशाने पर लगाऊंगा। मेरे गुरुवर ने पूरी रामायण सुना दी आप पूछ (ये माजरा क्या है?) रहे हैं कि-सीता जी, राम की पत्नी थी या रावण की?

@बड़े भाई खुशदीप सहगल जी,  
आप श्री अरविंद जी वाला ही उत्तर पढ़ें, आपका हाल भी उनके जैसा लग रहा है. जय हिंद!
    ऐसे में...होठों को करके गोल, सीटी बजा के बोल...के भईया आल इज़ वैल......थ्री-इडियट आपने देखी, उसका उद्देश्य बहुत अच्छा था। काश! उसका संदेश पूरे देश में फ़ैल जाए तब भारत देश सबसे मजबूत होगा। आपका एक इडियट दोस्त कहूँगा। क्योंकि आपने छोटा भाई मानने के मंजूरी नहीं दी है.-आपका "सिरफिरा"

@डॉ. अनवर जमाल जी, 
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! ग़ज़ल के लिए भी, जो मैंने पूरी पढ़ ली है।

@प्रवीण पाण्डेय जी,  
आपने कहा कि-चौथी टिप्पणी भी पढ़ते हैं, आने के बाद। फिर देर किस बात की पढ़ लीजिये, आपकी खिदमत में हाजिर है टिप्पणियों पर आधारित उपरोक्त पोस्ट। मेरे हजूर!
@सतीश सक्सेना जी, 
सूरज की किरणें जहाँ-जहाँ पड़ती है, वहीँ पर रौशनी होती है। गुरु के ज्ञान के बिना शिष्य अधूरा रहता है। किसी गुरु-चेले में इतनी कहाँ हिम्मत होती जब तक आप जैसे दोस्त, भाई का साथ न मिले। अरे! आपने यह क्या कह दिया कि-सर मेरा भी घूम रहा है, भाई जल्दी से डॉ. साहब से इलाज कराओ, नहीं तो हमारे प्रकाशन की किताबों की बिक्री कौन करेंगा? फिर हमारा यह बिजनेस शुरू होने से पहले ही बंद न हो जाये। वैसे क्या आपको डॉ. अनवर जमाल जी की दवाइयां सूट करती है या नहीं?

@रचना जी,  
आपने कहा कि-आजकल लगता हैं आपके पास समय बहुत हैं!!! एक आसान तरीका हैं स्पेममार्क करने का कमेन्ट में।
सिरफिरा: इसका जवाब आपको मेरे गुरुवर जी देंगे, क्योंकि उनका इस नाचीज़ शिष्य का तकनीकी ज्ञान अधूरा है। इसलिए क्षमा चाहता हूँ। 

@पटली-The -Village जी, और @संजय भास्कर जी,  
आप दोनों का बहुत-बहुत धन्यवाद! 
 रमेश कुमार जैन सिरफिरा द्वारा लिया गया चित्र

 शाहनवाज आँख बन्द कर मोबाइल पर नंबर डायल करते हैं

शनिवार, 14 मई 2011

क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी

 यह पोस्ट कल रात ब्लागर पर प्रकाशित हो चुकी थी। लेकिन मेंटीनेंस शट डाउन के दौरान वापस ड्राफ्ट में चली गई। इस में से चित्र भी गायब हो गया था उसे पुनः लगा कर नए सिरे से प्रकाशित की जा रही है। 
रमेश कुमार जैन 'सिरफिरा'
'अनवरत' को अनवरत होना चाहिए। लेकिन इसे अनवरत रखने वाला व्यक्ति एक है। कभी यह व्यक्ति अवकाश पर भी चला जाता है। कभी काम के बोझ से इतना थक जाता है कि उसे समय नहीं होता। नतीजा यह होता है कि यह अनवरतता बीच बीच में टूटती है। मसलन कल अभिभाषक परिषद कोटा में संगोष्ठी थी। साथ में वकालत के काम भी। शाम को इस व्यक्ति को एक विवाह में कोई आठ-दस किलोमीटर दूर हाजरी दर्ज करवानी थी। उधर ही एक कोचिंग ले रही परिचित छात्रा को भी मिलना था। ये सब काम कर के लौटा तो देर इतनी हो गई कि कुछ लिखने के स्थान पर कुमार शिव की एक ग़ज़ल से परिचित करवाना उचित समझा। आज भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। सुबह का निकला शाम पाँच बजे घर पहुंचा और तुरंत ही एक विवाह समारोह में जाना पड़ा। वहाँ से लौटते लौटते सा़ढ़े नौ बज गए। फिर वकालत का दफ्तर भी संभाला। वर्ना कल अदालत में यह व्यक्ति क्या करता? अब अनवरत को अनवरत रख पाना कठिन लग रहा था कि 'सिरफिरा' जी ने मुश्किल हल कर दी।
हुआ यूँ कि यह व्यक्ति परसों अनवरत पर पोस्ट बना कर निपटा तो पता लगा कि यह पोस्ट तो 'सिरफिरा' पर ही हो गई है। इस पर कुछ टिप्पणियाँ भी आईं। लेकिन खुद 'सिरफिरा' जी गायब रहे। पता लगा वे व्यस्त थे और इस पोस्ट को देख ही नहीं पाए थे। उन्हों ने आज ही इस पोस्ट को पढ़ा और प्रतिक्रिया में अपनी चार टिप्पणियाँ धड़ाधड़ चेप दीं। बहुत से पाठक इस पोस्ट को पढ़ चुके थे और 'सिरफिरा' की टिप्पणियों को पढ़ने शायद ही दुबारा इस पोस्ट पर आते। इसलिए उन की प्रतिक्रियाओं को अनवरत पर स्पेम बना दिया। (आदरणीय बड़े भाई अमर कुमार जी क्षमा करें) पर उन  टिप्पणियों को रोका नहीं है। यहाँ उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है। जरा आप भी पढ़ कर देखें ...

टिप्पणी नं. 1

गुरुवर जी, प्रणाम! आपने कमाल कर दिया पूरी पोस्ट ही इस नाचीज़(तुच्छ) सिरफिरा पर लिख डाली. अब बाकी लोगों को भी रश्क हो रहा होगा. आठ-आठ बार पोस्ट और टिप्पणियों में अब तक जिक्र हो चुका है. कुछ लोग अब इसमें राज की बात सोच-सोचकर परेशान हो रहे होंगे?

गुरुवर:-पढ़ने वाले जो हैं वो पूँछ पकड़ के लटक जाते हैं। अब हमने क्या लिख दिया था ऐसा, कि पहली पहली टिप्पणी ही मिली कि सौ में पहला नाम तो हमारा लिख लेना। एक ने तो ये भी कह दिया कि एक सौ एकवाँ नाम मेरा भी लिख लेना। देखिए ना पहले-पहले कहने वाला तो अतिभावुकता में कह गया। लेकिन सब से बाद वाला बहुत होसियार निकला। भैय्या कह रहा है कि पहले सौ तो पूरा कर लो। बीच में जितने लोग आए उन सब की गिनती कर ली है। अभी तो दहाई का आँकड़ा भी पूरा नहीं बनता। अब ऐसे तो सहकारी चलने से रही। अब लगता है कि बाकी के अस्सी-बयासी का आँकड़ा जुटाने में काफी समय लगने वाला है। तब तक किया क्या जाए?

सिरफिरा:-उपरोक्त पैराग्राफ बहुत अच्छा है. इसमें व्यंग भी है, कटाक्ष भी है और साथ में मज़बूरी भी है.

गुरुवर:-एक हमको गुरू कहने वाले रमेश कुमार जैन साहब हैं जो खुद को सिरफिरा कहे जाते हैं।
सिरफिरा:- उपरोक्त टिप्पणी पढ़कर सभी जान भी जायेंगे कि-हम कितने बड़े "सिरफिरे" हैं

गुरुवर:-सब से पहले तो सिरफिरा जी ने खुद को बेस्ट सेल्स मेन साबित कर के मुझे ही ग्राहक बनाने को काँटा डाल दिया है.
सिरफिरा:- गुरुवर! लोग बाल वाले को कंधी बेचना "कला" नहीं मानते बल्कि "गंजे" को कंधी बेचना ही कला हैं.किताब न खरीदने वाले को किताब बेचना ही कला होती है.

टिप्पणी नं. 2
गुरुवर:-हाँ हम ने ये मन जरूर बना लिया था कि ब्लागिंग वाली किताब जिसे अविनाश जी और रविन्द्र प्रभात जी ने संपादित किया है उसे जरूर खरीदेंगे। उस के खरीदने की कुछ अतिरिक्त वजहें भी हैं। जैसे उस किताब को नहीं खरीदूंगा तो लोग समझेंगे मैं ब्लागर ही नहीं हूँ। हूँ भी तो चलताऊ किसम का। दूसरी वजह ये थी कि इस बात को कौन जानता कि मैं ने किताब नहीं खरीदी। लेकिन ये पोल खुल सकती है। कभी कोई मेरे घर आ जाए और उस किताब को देखने की ख्वाहिश रखे तो मैं उसे क्या दिखाऊँ। एक वजह और थी, वह ब्लागरों के सामुहिक श्रम का नतीजा है। इसलिए मैं उसे पढ़ना ही नहीं अपने पास रेफेरेंस बुक के बतौर रखना भी चाहता हूँ। दूसरी किताब जो रविन्द्र जी का उपन्यास है उसे इसलिए खरीदना चाहता हूँ कि कहीं रविन्द्र जी नाराज न हो जाएँ।

सिरफिरा:- गुरुवर! कभी हमारा मन या जेब कहे किसी किताब को खरीदना नहीं चाहता है. मगर मात्र डर(लोग क्या कहेंगे), दिखावा(हमने इतनी किताबें पढ़ रखी हैं) और खुश(फँलाना लेखक नाराज न हो जाएँ) करने के लिए क्यों खरीदनी पड़ती है. ऐसा क्यों होता है ? शायद आजकल किताबों में आम-आदमी की जरूरत की चीजें गुम सी हो गई है. वैसे इस मामले में बहुत लक्की हूँ. पेशेगत अक्सर लेखक द्वारा मुझे "सप्रेम भेंट" कर दी जाती, क्योंकि किताब के विमोचन व समीक्षा गोष्टी में आमंत्रित किया जाता है.शायद लेखक इस लालच में देता हो उनका समाचार जरा फोटो-सोटो के साथ अच्छी-सी जगह छाप दूंगा.

गुरुवर:-अब ज्यादा क्या सोचना? ऑर्डर कर ही देता हूँ। सिरफिरा जी को मेल करता हूँ कि दोनों किताबें भिजवा दो और उन की कमीशन-उमीशन काट कर जो भी कीमत बनती है वह बता दो, जो उन के बैंक खाते में जमा करवा दूँ। वैसे मैं उन्हें मेल करना भूल जाऊँ तो वे इस पोस्ट को ही ऑर्डर मान कर मुझे किताबें भेज सकते हैं. कीमत के बारे में बताते ही उनके खाते में रुपए जमा करा दिए जाएंगे।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपकी ईमेल नहीं मिली है, मगर आपका ऑर्डर मिल गया है और "हिंदी साहित्य निकेतन" लिख भी दिया है. अब देखते हैं कि-कब तक भेजी जाती हैं. बाकी आपकी सभी शर्तें मंजूर हैं.

गुरुवर:-अभी तो वो लफड़ा और शेष है जो हमारे इस बीज वाक्य से पैदा हुआ कि सहकारी प्रकाशन चलाया जाए। इस बारे में अब हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। हमारे पास सब कुछ करने वाले सिरफिरा जी जो हैं। वे कहते हैं-"मैंने काफी समय........लेखक को रॉयल्टी देने को भी तैयार हूँ.

सिरफिरा:- गुरुवर! जो कह दिया वो पत्थर की लकीर है. मौखिक रूप से नहीं कहा है बल्कि मैंने अपना निर्णय लिखा है. स्वार्थी राजनीतिक कहते हैं, लिखते नहीं.

टिप्पणी नं. 3


गुरुवर:-मुझे और दूसरे ब्लागरों को अब कुछ करने की जरूरत ही नहीं है सिवाय इस के कि सौ का आँकड़ा पूरा कर लिया जाए। उन में से पाँच व्यक्तियों का एक निदेशक मंडल चुन दिया जाए जो इस बात को तय करे कि किस किताब को छापा जाना है और किस किताब को नहीं? कितनी किताबों का सैट एक साथ छापा जाए। उस की लागत क्या आएगी? और उस के लिए कितना धन चाहिए? समस्या केवल ये है कि उन किताबों को छाप कर क्या किया जाएगा। सब से पहली दस प्रतियाँ तो लेखक को मुफ्त में दे दी जाएँ। फिर उस से पूछा जाए कि वह अपने करीबी लोगों को बाँटने के लिए कितनी किताबें खरीदने की मंशा रखता है? उतनी और उसे नकद बेच दी जाएँ। अब जितनी किताबें बचें उन के विक्रय के लिए खुद सिरफिरा जी से यह कांट्रेक्ट कर लिया जाए कि वे कितने कमीशन पर उन को बेच-बाच कर ठिकाने लगा सकते हैं। मुझे लगता है कि सिरफिरा जी इस के लिए तैयार हो जाएंगे। उन से यह कांट्रेक्ट हो जाएगा तो हम अपने शहर के बुक सेलर को भी कहेंगे कि वह भी किताबें उन से मंगा कर ही बेचे। इस तरह सिरफिरा जी का धंधा भी चमकेगा और लगे हाथ सहकारी की किताबें भी दूसरी किताबों के साथ बेचने में सिरफिरा जी को आसानी होगी। यदि सिरफिरा जी जल्दी से किताबें बेच डालें और रकम वापस आ जाए तो फिर दूसरा सैट जल्दी निकालने की सोची जा सकती है।
मेरा मानना है कि सारी किताबों के केवल पैपरबैक ही छापे जाएँ। कवर पेज रंगीन और आकर्षक हो जिसे यदि रेलवे की व्हीलर की स्टाल पर रखा जाए तो भले ही ग्राहक खरीदे या न खरीदे, लेकिन एक बार हाथ से छू कर जरूर देखे। कुछ ब्लागर तो किसी रेलवे स्टाल पर अपनी पुस्तक देख कर ही अतिसंतुष्ट हो सकते हैं। इस में मेरा भी फायदा है वो ये कि कीमत कम होने से मैं उसे खरीद भी सकता हूँ और उस की कीमत देख कर अपनी पत्नी जी को उन की आँखें चौड़ी करने से बचा सकता हूँ।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपकी राय और योजना उचित होने के साथ तर्क संगत भी है. मेरा धंधा चमकाने की सोचने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! अगर रेलवे की स्टाल वाले को दूसरों से थोडा अधिक कमीशन मिलता है.तब उसकी बिक्री(हमारी किताबों की) दूसरों से ज्यादा होती हैं. यह आपकी नहीं, सब को अपनी पत्नियों से शिकायत (आँखें चौड़ी करने की) होती हैं.

स ..... बस....... अब बहुत हो चुका। हालाँ कि अभी टिप्पणी नं. 4 शेष है। लेकिन आज के लिए ये तीन टिप्पणियाँ पर्याप्त हैं। वैसे चौथी टिप्पणी में खुद 'सिरफिरा' जी ने कहा है कि टिप्पणियाँ आगे भी हैं। इसलिए चौथी टिप्पणी को रोक दिया है। सिर्फ एक दिन के लिए। उन की अगली टिप्पणी के साथ उसे भी पढ़ लीजिएगा।

मंगलवार, 10 मई 2011

उद्यमी ठाला नहीं बैठता

ब से दिल्ली हो के आए हैं, बस अपनी यात्रा कथा ही गाए जा रहे हैं।  जो लोग सोचे हैं कि हम परिकल्पना सम्मान के बारे में लिख रहे हैं,  वे गलत नहीं सोचे हैं।  लिखते-लिखते कल तक हम भी यही सोचने लगे थे कि हम उसी के बारे में लिख रहे हैं। कल जब लिखने लगे थे तो सोचे थे कि ये किस्सा आज खतम ही किए देते हैं। पर बाम्भन हैं ना, तो जब भी बोलेंगे या लिखेंगे ऐसे कौने छोड़ जाएंगे जो न पढ़ने वाले का पीछा छोड़े न बोलने लिखने वाले का। पढ़ने वाले जो हैं वो पूँछ पकड़ के लटक जाते हैं। अब हमने क्या लिख दिया था ऐसा, कि पहली पहली टिप्पणी ही मिली कि सौ में पहला नाम तो हमारा लिख लेना। एक ने तो ये भी कह दिया कि एक सौ एकवाँ नाम मेरा भी लिख लेना। देखिए ना पहले-पहले कहने वाला तो अतिभावुकता में कह गया। लेकिन सब से बाद वाला बहुत होसियार निकला। भैय्या कह रहा है कि पहले सौ तो पूरा कर लो। बीच में जितने लोग आए उन सब की गिनती कर ली है। अभी तो दहाई का आँकड़ा भी पूरा नहीं बनता। अब ऐसे तो सहकारी चलने से रही। अब लगता है कि बाकी के अस्सी-बयासी का आँकड़ा जुटाने में काफी समय लगने वाला है। तब तक किया क्या जाए?

क हमको गुरू कहने वाले रमेश कुमार जैन साहब हैं जो खुद को सिरफिरा कहे जाते हैं। वो तो पूरी की पूरी प्रकाशन फेक्ट्री खोले बैठे हैं। वो सब से पहले कहते हैं- 

"आप जो-जो किताब नहीं खरीद पाए थें. मुझे उन किताबों की सूची भेजें. आपका नाचीज़ शिष्य डायमंड पाकेट बुक्स के साथ ही कई प्रकाशकों का बिक्री एजेंट है. आपनी सेवा करने का अवसर प्रदान करें. मुझे जो कमीशन प्राप्त होता है, उसी के माध्यम से आपको सबसे बेस्ट कोरियर सेवा से एक-दो दिन में किताबें पहुँचाने का मेरा पक्का और अटल वादा है"

ब से पहले तो सिरफिरा जी ने खुद को बेस्ट सेल्स मेन साबित कर के मुझे ही ग्राहक बनाने को काँटा डाल दिया है और उन किताबों की लिस्ट मांगी है जिन्हें मैं नहीं खरीद पाया था। अब उन्हें कैसे बताऊँ कि मैं बिना देखे किताब नहीं खरीदता? पहले देखता हूँ कि किताब खरीदने लायक है कि नहीं। फिर ये देखता हूँ कि उस किताब की कीमत मेरी जेब को फिट होती है कि नहीं। फिर ये सोचता हूँ कि जेब हलकी की जाए तो खरीद में कीमत वसूल होगी या नहीं। हम न तो हम सब किताबें देख पाए और न ही उन की कीमत। अब फैसला करें भी तो क्या करें? हाँ हम ने ये मन जरूर बना लिया था कि ब्लागिंग वाली किताब जिसे अविनाश जी और रविन्द्र प्रभात जी ने संपादित किया है उसे जरूर खरीदेंगे। उस के खरीदने की कुछ अतिरिक्त वजहें भी हैं। जैसे उस किताब को नहीं खरीदूंगा तो लोग समझेंगे मैं ब्लागर ही नहीं हूँ। हूँ भी तो चलताऊ किसम का। दूसरी वजह ये थी कि इस बात को कौन जानता कि मैं ने किताब नहीं खरीदी। लेकिन ये पोल खुल सकती है। कभी कोई मेरे घर आ जाए और उस किताब को देखने की ख्वाहिश रखे तो मैं उसे क्या दिखाऊँ। एक वजह और थी, वह ब्लागरों के सामुहिक श्रम का नतीजा है। इसलिए मैं उसे पढ़ना ही नहीं अपने पास रेफेरेंस बुक के बतौर रखना भी चाहता हूँ। दूसरी किताब जो रविन्द्र जी का उपन्यास है उसे इसलिए खरीदना चाहता हूँ कि कहीं रविन्द्र जी नाराज न हो जाएँ। पर इस इच्छा की तुलना में उस की कीमत कुछ ज्यादा है। मेरा मन हुआ कि इस का हार्डबाउंड के बजाय पैपरबैक होता तो मुझे इतना नहीं सोचना पड़ता। तुरन्त खरीद लेता। आखिर कीमत आधी से भी कम हो जाती और महंगी नहीं पड़ती। 

ब ज्यादा क्या सोचना? ऑर्डर कर ही देता हूँ। सिरफिरा जी को मेल करता हूँ कि दोनों किताबें भिजवा दो और उन की कमीशन-उमीशन काट कर जो भी कीमत बनती है वह बता दो, जो उन के बैंक खाते में जमा करवा दूँ। वैसे मैं उन्हें मेल करना भूल जाऊँ तो वे इस पोस्ट को ही ऑर्डर मान कर मुझे किताबें भेज सकते हैं. कीमत के बारे में बताते ही उनके खाते में रुपए जमा करा दिए जाएंगे। 

म ने  किताबें खरीदने का निर्णय भी ले लिया और उन को खरीद भी लिया। अब आगे की सोची जाए। अभी तो वो लफड़ा और शेष है जो हमारे इस बीज वाक्य से पैदा हुआ कि सहकारी प्रकाशन चलाया जाए। इस बारे में अब हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। हमारे पास सब कुछ करने वाले सिरफिरा जी जो हैं। वे कहते हैं- 

"मैंने काफी समय पहले ही आपके ब्लॉग "तीसरा खम्बा" पर आपकी एक "क़ानूनी सलाह" पुस्तक प्रकाशित करने का प्रस्ताव रखा था. तब आपको कहा भी था कि-गुरु दक्षिणा(रोयल्टी) से वंचित नहीं करूँगा. तब किसी प्रकाशक को क्यों 20-22 हजार रूपये दिए जा रहे हैं. आज प्रकाशक लेखक का इसी प्रकार शोषण करता है. मेरे पास किताबों की बिक्री का अनुभव भी और मार्केटिंग को लेकर बहुत अच्छी योजना भी है. बस "रॉयल्टी" पर थोडा-सा क़ानूनी ज्ञान नहीं है. अगर आप उपरोक्त विषय पर एक पोस्ट प्रकाशित कर दें. तब रॉयल्टी को लेकर अपने प्रकाशन परिवार की रणनीति व नियम/शर्ते बनाने में आसानी हो जाये. आपके सौ के करीब ब्लागर सहमत हो जाएँ तो आपसी सहयोग से एक सहकारी प्रकाशन अवश्य खड़ा किया जा सकता है वाली बात पर 101 वें स्थान पर मुझे भी रख लें, क्योंकि 101 वां स्थान इसलिए मेरा ब्लॉग अभी "अजन्मा बच्चा" है. इसके साथ ही अगर सौ ब्लागर मुझे योग्य माने तब मैं प्रत्येक पुस्तक पर केवल दो रूपये का लाभ प्राप्त कर प्रकाशित करने का सहयोग करने को तैयार हूँ. जैसे- श्री खुशदीप सहगल की किताब "देशनामा" की 1000 प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं. तब मुझे लाभ के केवल दो हजार रूपये दे दिए जाएँ. इससे मेरी जानकारी का लाभ प्राप्त करके किताब बहुत सस्ती प्रकाशित की जा सकती हैं और पाठकों तक बहुत कम दामों में पहुंचाई जा सकती है. यदि किसी किताब की पांडुलिपि 
मेरे "प्रकाशन परिवार" के मापदंडों (समाज व देशहित और आमआदमी को जागरूक करने का उद्देश्य) को पूरा करती है और मेरे प्रकाशन परिवार द्वारा प्रकाशित किए जाने के लिए कोई ब्लागर सहमत हो जाता है. तो मैं लेखक को रॉयल्टी देने को भी तैयार हूँ.




मुझे और दूसरे ब्लागरों को अब कुछ करने की जरूरत ही नहीं है सिवाय इस के कि सौ का आँकड़ा पूरा कर लिया जाए। उन में से पाँच व्यक्तियों का एक निदेशक मंडल चुन दिया जाए जो इस बात को तय करे कि किस किताब को छापा जाना है और किस किताब को नहीं?  कितनी किताबों का सैट एक साथ छापा जाए। उस की लागत क्या आएगी? और उस के लिए कितना धन चाहिए? 

मस्या केवल ये है कि उन किताबों को छाप कर क्या किया जाएगा। सब से पहली दस प्रतियाँ तो लेखक को मुफ्त में दे दी जाएँ। फिर उस से पूछा जाए कि वह अपने करीबी लोगों को बाँटने के लिए कितनी किताबें खरीदने की मंशा रखता है? उतनी और उसे नकद बेच दी जाएँ। अब जितनी किताबें बचें उन के विक्रय के लिए खुद सिरफिरा जी से यह कांट्रेक्ट कर लिया जाए कि वे कितने कमीशन पर उन को बेच-बाच कर ठिकाने लगा सकते हैं। मुझे लगता है कि सिरफिरा जी इस के लिए तैयार हो जाएंगे। उन से यह कांट्रेक्ट हो जाएगा तो हम अपने शहर के बुक सेलर को भी कहेंगे कि वह भी किताबें उन से मंगा कर ही बेचे। इस तरह सिरफिरा जी का धंधा भी चमकेगा और लगे हाथ सहकारी की किताबें भी दूसरी किताबों के साथ बेचने में सिरफिरा जी को आसानी होगी। यदि सिरफिरा जी जल्दी से किताबें बेच डालें और रकम वापस आ जाए तो फिर दूसरा सैट जल्दी निकालने की सोची जा सकती है। 

स सारे हिसाब-किताब में मेरा अपना मंतव्य तो रखना ही भूल गया हूँ। मेरा मानना है कि सारी किताबों के केवल पैपरबैक ही छापे जाएँ। कवर पेज रंगीन और आकर्षक हो जिसे यदि रेलवे की व्हीलर की स्टाल पर रखा जाए तो भले ही ग्राहक खरीदे या न खरीदे, लेकिन एक बार हाथ से छू कर जरूर देखे। कुछ ब्लागर तो किसी रेलवे स्टाल पर अपनी पुस्तक देख कर ही अतिसंतुष्ट हो सकते हैं। इस में मेरा भी फायदा है वो ये कि कीमत कम होने से मैं उसे खरीद भी सकता हूँ और उस की कीमत देख कर अपनी पत्नी जी को उन की आँखें चौड़ी करने से बचा सकता हूँ। 

अंत में सिरफिरा जी ने जो कहा वह बात जरूर दिल को लगने वाली है, लेकिन है बहुत जबर्दस्त। वे कहते हैं-

किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. 


बोलो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? उन की ये बात बहुत सारे ब्लागरों को तीर सी चुभ कर उन्हें घायल कर सकती है। वे सोच सकते हैं कि " लो ये आया है कल का ब्लागर, जो अभी अजन्मा है, कह रहा है कि लिखना ऐसा चाहिए जिसे आम आदमी खरीद कर ले जाए। ये  कौन होता है हमें सिखाने वाला? हम ब्लागर हैं, ब्लागर। बस कंप्यूटर चालू कर के बैठते हैं और की-बोर्ड  पर उंगलियाँ चलने लगती हैं। जो टाइप कर देते हैं वही हमारा लेखन है। सोच समझ कर लिखा, तो क्या लिखा? खैर! आप कुछ भी सोचें मुझे तो सिरफिरा जी कह ही चुके हैं कि मेरी किताब वो छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी भी देंगे। तो मैं क्यों देर करूँ ? चलता हूँ अपनी पोस्टों को संभाल कर, उन का संपादन करने, उन की पाण्डुलिपि तैयार करने। उधर तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट भी लिखनी है। तब तक आप गिनते रहिए कि सहकारी की सौ की संख्या कब पूरी होती है। बस सौ हुए, और सहकारी शुरू।  

मेश कुमार जैन साहब किताब भी छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी देने को भी। लेकिन मेरे संपादन में समय तो लगेगा और उधर सहकारी शुरू होने में भी। तो तब तक सिरफिरा जी फालतू बैठ कर क्या करेंगे? बहुत सारे ब्लागर बीस-बीस हजार दे कर किताब छपवाने को तैयार बैठे हैं। मेरी जैन साहब को सलाह है कि तब तक उन से कुछ कम-ज्यादा कर-करा कर किताब प्रकाशन का काम तुरन्त शुरू करें। उद्यमी ठाला नहीं बैठता। उन्हें भी नहीं बैठना चाहिए। 

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

बताइए किस ख्यातनाम ब्लागीर ने किया है ये हाल अपने घर का?

पूरा एक सप्ताह गुजर चुका है, इस ब्लाग पर एक शब्द भी नहीं लिख सका हूँ। हुआ यूँ कि पिछले शुक्रवार को एक विवाह में जाना हुआ। शनिवार को लौटा तो थका हुआ था। रविवार को इस सप्ताह में होने वाला अदालत का काम देखा, तो लगा कि कैसे इतना सब कर पाऊंगा? तुरंत काम में लगना पड़ा। इसी सप्ताहान्त में होली का त्यौहार आ रहा है। बेटा तो इस होली पर नहीं आ पाएगा, लेकिन बिटिया आ रही है। उस की आवश्यकताएँ पूछी गईं। उस के बाद पत्नी जी को भी तुरंत काम में लग जाना पड़ा। उन्हें बाजार से अपनी तैयारियों के लिए बहुत कुछ लाना था, सो कल और आज की शाम खरीददारी में उन के साथ जाना पड़ा। वापस लौटीं तो कहने लगी, दो दिन बहुत समय खराब हो गया। इस से अच्छा तो यह था कि मैं ऑटोरिक्शा से चली जाती। कम से कम आप का ऑफिस का समय तो खराब न होता। 
ल अदालत में काम कम है। कुछ फुरसत मिली है, तो टिपियाने बैठ गया हूँ। पिछले सप्ताह एक लंबी कहानी आरंभ की थी। दो किस्तें लिखीं और प्रकाशित भी कर दीं, लेकिन आगे ब्रेक लग गया।  विवाह में जाने ने सब क्रम तोड़ दिया। अब होली के पहले उस क्रम को आरंभ कर पाना संभव नहीं। इधर हिन्दी ब्लागजगत में होली आरंभ हो चुकी है। लोग फगुनाए मूड में हैं। मैं ने भी सोचा, देखा जाए ब्लागरों के घरों का क्या हाल है? तो चल दिया। एक ख्यात नाम ब्लागीर के घर पहुँचा, वे तो काम पर गए हुए थे। भाभी जी से मुलाकात हुई। हमने पूछा भाई साहब के क्या हाल हैं? 
भाभी बताने लगीं, मैं क्या बताऊँ? आप खुद ही देख लीजिए। वे मुझे एक कमरे में ले गईं। वहाँ देखा तो बहुत बुरा हाल था, पूरा कमरा कबाड़ से अटा पड़ा था। मैं हैरान रह गया। आखिर कोई कैसे अपने घर का ऐसा हाल बना कर रख सकता है। मैं ने जल्दी से अपने मोबाइल से दो चित्र लिए और कमरे से बाहर निकल आया। अब आप ही देख लिजिए कोई अपने घर का ऐसा हाल बना सकता है भला? अब आप इस चित्र को देख कर खुद ही समझ जाएंगे कि ये ख्यातनाम ब्लागीर कौन हैं? समझ गए हों, तो झट से टिपियाइये और बता दीजिए कि ये ख्यातनाम ब्लागीर कौन हैं? सही सही बताने वालों का धुलेंडी की सुबह नौ बजे खतरनाक वाला सम्मान किया जाएगा। सब से पहले सही जवाब देने वाले को उस दिन का सब से बड़ा सरदार ब्लागीर घोषित किया जाएगा। 


बताइए किस ख्यातनाम ब्लागीर ने किया है ये हाल अपने घर का?

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

वर्तमान में श्रेष्ठ हिन्दी ब्लाग संकलक 'हमारी वाणी'

जून 18, 2010 को ब्लागवाणी अचानक तंद्रा में चली गई। बहुत हंगामा हुआ, लोगों ने तरह-तरह के सुझाव दिए कि किसी भी तरह ब्लागवाणी की तंद्रा टूटे और वह वापस सजग हो मैदान में आ जाए। लेकिन छह माह से अधिक समय हो चुका है,  अभी तक ब्लागवाणी तंद्रा में है। फिर दिसम्बर 2010 के अंत तक चिट्ठाजगत ने बिना कुछ कहे विदाई ले ली। इस बार बहुत हो हल्ला नहीं हुआ। लेकिन अचानक दो सब से महत्वपूर्ण संकलकों की अनुपस्थिति इन दिनों ब्लागर बहुत शिद्दत के साथ महसूस कर रहे हैं। प्रतिदिन ही कहीं न कहीं यह बात सामने आती है कि एक अच्छा संकलक होना चाहिए। हालाँकि ब्लागवाणी अभी जहाँ रुकी थी वहाँ अभी भी नजर आती है और इस पर सदस्य लोगिन भी हो रहा है। कभी भी इस की तंद्रा टूट सकती है।

संकलक की इस कमी को पूरा करने के लिए पहले तो हिन्दी ब्लाग जगत सामने आया। यह ब्लागस्पॉट की कुछ सुविधाओं का उपयोग कर बनाया गया एक संकलक जैसा ब्लाग है। इस के कुछ दिन बाद ही जर्मनी के लोकप्रिय ब्लागर राज भाटिया जी ब्लाग परिवार नाम से हिन्दी ब्लाग जगत जैसा ही एक ब्लाग ले कर सामने आए। अब राज भाटिया जी चाहते हैं कि वे एक एग्रीगेटर बनाना चाहते हैं, लेकिन उन के पास तकनीकी जानकारी की कमी है। उन्हें कोई तकनीकी सहयोग करे तो वे एक ऐसा संकलक लाना चाहते हैं जिस का अपना खुद का डोमेन हो, जिस के बारे में उन का आश्वासन है कि वह उन के जीतेजी बन्द नहीं होगा। राज जी बहुत बड़ा काम हाथ में ले रहे हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि वे इस काम को करने में सफल हो सकेंगे और हिन्दी ब्लाग जगत को एक अच्छा संकलक मिल जाएगा।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि एक अच्छा संकलक मौजूद ही न हो। ब्लागवाणी बन्द होने के उपरांत कुछ हिन्दी ब्लागरों के प्रयास से ही हमारी-वाणी आरंभ हुआ और वह बहुत अच्छे तरीके से काम करते हुए अधिकांश उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहा है जिन की पूर्ति ये दोनों महत्वपूर्ण संकलक कर रहे थे। यह संकलक इस के विकास के लिए लगातार सुझाव भी आमंत्रित कर रहा है। यदि किसी ब्लॉगर को कोई कमी इस में दिखाई देती है तो वह सुझाव दे सकता है। इन सुझावों के आधार पर इस का विकास होता रहे तो हमारी-वाणी एक संपूर्ण हिन्दी/भारतीय संकलक का स्थान ले सकता है। अभी इस संकलक के लिंक 'ताजा ताजा ' ताजा पोस्टें विवरण सहित देखी जा सकती हैं। यदि कोई विवरण न देख कर ब्लागपोस्ट का शीर्षक ही देखना चाहे तो  'ताजा 100 ' लिंक पर जा कर देख सकता है। इस के अतिरिक्त ब्लागर 'मेरा पन्ना' लिंक पर जा कर स्वयं की प्रोफाइल देख सकता है तथा 'हमारे साथी' पर जा कर इस संकलक पर सदस्य ब्लागीरों की सूची देख सकता है। इस के अतिरिक्त इस संकलक पर अधिक 'पसंद' और ज्यादा पढ़े गए ब्लागों की सूची भी क्रमवार उपलब्ध है। एक विशेषता यह भी है कि यदि कोई ब्लागपोस्ट किसी समाचार पत्र में स्थान पाती है तो उसे अलग से दिखाया गया है, जैसे दैनिक जागरण में आज ही छपी तीसरा खंबा की पोस्ट के बारे में यहाँ सूचित किया  गया है और लिंक को क्लिक करने पर 'ब्लाग इन मीडिया' की लिंक खुलती है। यही नहीं यहाँ नये जुड़े ब्लागों को अलग  से सूची भी उपलब्ध है। इस तरह यह संकलक ब्लागीरों की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ती करता है।
र्तमान में यदि कोई कमी दिखाई देती है तो वह यह है कि इस संकलक पर कुल 892 ब्लाग के ही लिंक उपलब्ध हैं, अर्थात इन्हीं ब्लागों की पोस्टों की सूचनाएँ इस संकलक पर उपलब्ध हो पाती हैं। जब कि हिन्दी ब्लागों की संख्या इस से लगभग 12 गुना अधिक तक जा चुकी है। इस कमी को भी पूरा किया जा सकता है। इस के दो तरीके हैं, पहला तो यह कि स्वयं संकलक संचालक शेष हिन्दी ब्लागों को इस से जोड़ दें, दूसरा यह कि स्वयं ब्लाग संचालक अपने ब्लाग को इस संकलक पर पंजीकृत कराएँ। दूसरा मार्ग अधिक उचित प्रतीत होता है कि जो भी ब्लागीर अपने ब्लाग को इस संकलक पर दिखाना चाहता है,  पहले स्वयं सदस्य बने और फिर ब्लाग को पंजीकृत कराए। 
मेरी दृष्टि में 'हमारी वाणी' एक अच्छे संकलक की लगभग सभी जरूरतें पूरी करता है और हिन्दी ब्लागों के लिए बहुपयोगी संकलक है। जिन ब्लागीर साथियों ने अभी इस संकलक पर खुद को सदस्य नहीं बनाया है, तुरंत इसकी सदस्यता ग्रहण करें और अपने ब्लागों को इस पर पंजीकृत कराएँ। 


सोमवार, 29 नवंबर 2010

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

पिछली 29 अक्टूबर की पोस्ट में मैं ने ब्लागीरी में पिछले दिनों हुई अपनी अनियमितता का उल्लेख करते हुए दीपावली तक नियमित होने की आशा व्यक्त की थी। मैं ने अपने प्रयत्न में कोई कमी नहीं रखी। उसी पोस्ट पर ठीक एक माह बाद भाई सतीश सक्सेना जी की टिप्पणी ने मुझे स्मरण कराया कि मुझे अपने काम का पुनरावलोकन करना चाहिए, कम से कम नियमितता के मामले में अवश्य ही। तो अनवरत पर मेरी अब तक 15 पोस्टें हो चुकी हैं और यह सोलहवीं है। इस तरह मैं ने अनवरत पर हर दूसरे दिन एक पोस्ट लिखी है। तीसरा खंबा पर इस एक माह में 18 पोस्टें हुई हैं। मुझे लगता है कि इन दिनों जब कि कुछ व्यक्तिगत कामों में व्यस्तता बढ़ गई है, यह गति ठीक है। हालांकि इस बीच हर उस दिन जब कि मैं ने कोई पोस्ट इस ब्लाग पर नहीं की यह लगता रहा कि आज मुझे यह बात लिखनी थी, लेकिन समय की कमी से मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ। लगता है कि ब्लागीरी मेरे लिए एक ऐसा कर्म हो गई है, जिस के बिना दिन ढल जाना क्षय तिथि की तरह लगने लगा है जो सूर्योदय होने के पहले ही समाप्त हो जाती है। 
ल से ही अचानक व्यस्तता बढ़ गई। शोभा की बहिन कृष्णा जोशी के पुत्र का विवाह है, और उस के पिता को वहाँ भात (माहेरा) ले जाना है। शोभा उसी की तैयारियों के लिए मायके गई थी, कल सुबह लौटी। चार दिन में घर लौटी तो, सब से पहले उस ने घर को ठीक किया। मुझे भी चार दिन में अपने घर का भोजन नसीब हुआ। वह कल शाम फिर से अपनी बहिन के यहाँ के लिए चल देगी और फिर विवाह के संपन्न हो जाने पर ही लौटेगी। इन दो दिनों में उसे बहुत काम थे। उसे घर को तैयार करना था जिस से उस में मैं कम से कम एक सप्ताह ठीक से रह सकूँ। उसे ये सब काम करने थे। इन में कुछ काम ऐसे थे जो मुझ से करवाए जाने थे। मैं भी उन्हीं में व्यस्त रहा। आज मुझे अदालत जाना था और वहाँ से वापस लौटते ही शोभा के साथ बाजार खरीददारी के लिए जाना था। शाम अदालत से रवाना हुआ ही था कि संदेश आ गया कि अपने भूखंड पर पहुँचना है वहाँ बोरिंग के लिए मशीन पहुँच गई है। मुझे उधर जाना पड़ा। वहाँ से लौटने में देरी हो गई। वहाँ से आते ही बाजार जाना पड़ा। जहाँ से लौट कर भोजन किया है। अभी अपनी वकालत का कल का काम देखना शेष है। फिर भी चलते-चलते एक व्यसनी की तरह यह पोस्ट लिखने बैठ गया हूँ।
ल फिर व्यस्त दिन रहेगा। आज जो नलकूप तैयार हुआ है उसे देखने अपने भूखंड पर जाना पड़ेगा, कल शायद नींव खोदने के लिए रेखाएँ भी बनाई जाएंगी। वहाँ से लौट कर अदालत भी जाना है और शोभा को भी बाजार का काम निपटाने में मदद करनी है। कल उस की एक बहिन और आ जाएगी, एक यहां कोटा ही है। कल रात ही इन्हें ट्रेन में भी बिठाना है। कल भी समय की अत्यंत कमी रहेगी। इस के बाद पाँच दिसम्बर सुबह से ही मैं भी यात्रा पर चल दूंगा। उस दिन जयपुर जाना है, शाम को लौटूंगा और अगले दिन सुबह फिर यात्रा पर निकल पड़ूंगा। इस बार यात्रा में मेरी अपनी ससुराल झालावाड़ जिले में अकलेरा, फिर सीहोर (म.प्र.) और भोपाल रहेंगे। विवाह के सिलसिले में सीहोर तो मुझे तीन दिन रुकना है। एक या दो दिन भोपाल रुकना होगा। मेरा प्रयत्न होगा कि यात्रा के दौरान अधिक से अधिक ब्लागीरों से भेंट हो सके। 
ब आप समझ ही गए होंगे कि मैं 12 दिसम्बर तक व्यस्त हो गया हूँ। दोनों ही ब्लागों पर भी 4 दिसंबर के बाद अगली पोस्ट शायद 13 दिसम्बर को ही हो सकेगी। इस बीच मुझे अंतर्जाल पर आप से अलग रहना और अपनी बात आप तक नहीं पहुँचाने का मलाल रहेगा। लेकिन क्या किया जा सकता है? 
फ़ैज साहब ने क्या बहुत खूब कहा है ....
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

उन्हें जज नहीं, तोते चाहिए

ख़्तर खान अकेला (हालांकि फोटो बता रहा है कि वे अकेले नहीं) को आप द्रुतगामी ब्लागीर कह सकते हैं। वे वकील हैं और पत्रकारिता से जुड़े हैं। दिन भर अदालत में वकालत का काम करना और फिर दफ्तर करना। दफ्तर में जब भी वक़्त मिल जाए ब्लागीरी करना। ज़नाब ने 7 मार्च 2010 को अपने ब्लाग की पहली पोस्ट ठेली थी, आज यह पोस्ट लिखने तक उन की 1517वीं पोस्ट प्रकाशित हो चुकी थी। यदि वे दफ़्तर से निकल न चुके होंगे तो आज की तारीख में अभी और पोस्ट आने की संभावना पूरी पूरी है, यह पोस्ट लिखने तक यह संख्या 1518 ही नहीं 1520 भी हो सकती है। नवम्बर के 25 दिनों में पूरी 160 पोस्टें ठेली हैं ज़नाब ने। कब पाँच सौ, कब हजार और कब डेढ़ हजार पोस्टें डाल चुके पर चूँ तक भी नहीं की। कोई स्वनामधन्य होता तो अब तक के हर शतक पर एक-एक पोस्ट और ठेल कर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ प्राप्त कर चुका होता। पर अख़्तर भाई हैं कि उन से कुछ कहो तो कभी मुस्कुरा कर और कभी हँस कर टल्ली मार जाते हैं। 
ब हम कोटा के वकील हड़ताल कुछ ज्यादा करते हैं। यह भी एक कारण है कि जो जो वकील ब्लागीर (मुझ समेत) हुआ सफल हो गया।  चार दिन पहले अख़्तर भाई ने लिखा, -कोटा के वकीलों की हड़ताल बनी मजबूरी। अब ये कोटा के वकीलों की मजबूरी थी या फिर हमारे मौजूदा नेताओं की। पर तीन दिन से अदालत में काम बंद है। आज मैं अदालत से जल्दी खिसक आया था। शाम होते होते पता लगा कि हड़ताल लंबी चलने वाली है, हो सकता है ये साल हड़ताल में पूरा हो जाए। इस साल की तरह फिर से हड़ताल को खत्म करने के लिए वकीलों के नेता बहाना तलाशने लगें।
ब हमारे यहाँ अभिभाषक परिषद के चुनाव हर साल होते हैं और विधान के मुताबिक 15 दिसंबर तक चुनाव होने जरूरी हैं और नए साल के पहले कार्यदिवस पर नयी कार्यकारिणी परिषद का कामकाज सम्भाल लेती है। इस बार प्रस्ताव आया कि चूँकि पिछले साल हमें चार माह की हड़ताल करनी पड़ी थी, मुख्य मंत्री ने कुछ आश्वासन दिए थे वे अब तक पूरे नहीं किये हैं। इस कारण से हमें लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। मौजूदा कार्यकारिणी अच्छा संघर्ष चला रही है इस लिए संघर्ष के समापन तक चुनाव स्थगित कर दिया जाए। यूँ कहा जाता है कि वर्तमान कार्यकारिणी पर भाजपा के लोग शामिल हैं। पर ये इंदिरागांधी से सीधे प्रेरणा ले रहे थे। कि आपातकाल बता कर अपनी उमर बढ़वा लो। प्रस्ताव असंवैधानिक था और वकीलों की आमसभा ने उस पर बहस से ही इन्कार कर दिया। चुनाव होना तय हो गया। लेकिन कार्यकारिणी ने दूसरे दिन से ही तीन दिन की सांकेतिक हड़ताल की घोषणा कर दी। दबे स्वर में लोग कह रहे हैं कि कार्यकारिणी का सोच यह है कि पिछली ने चार माह हड़ताल कर के नयी कार्यकारिणी को सौंप गए थे। अब मौजूदा कार्यकारिणी नयी को हड़ताल का कार्यभार न सोंप कर जाएँ तो कहीं ऐसा न हो उन्हें ग़बन का आरोप झेलना पड़े। 
यूँ मुझे व्यक्तिगत तौर पर भारत के समाजवादी या हिन्दू राष्ट्र होने तक की हड़ताल मंजूर है। वकालत के अलावा और भी बहुत जरीए हैं खाने-कमाने के। पर आखिर हड़ताल से काम बंद होता है और पहले से ही चींटी की चाल से चल रही न्याय की गाड़ी और धीमी हो जाती है। मैं जब ये बात कहता हूँ तो वकील मित्र कहते हैं पहले ही कौन न्याय हो रहा है जो रुक जाएगा, नुकसान तो हमें हो रहा है, जेब में पैसे आने ही बंद हो जाते हैं। मैं उन्हें कहता हूँ कि वकालत की गाड़ी दौड़ाने का एक तरीका है। जितनी अदालतों में जज नहीं है वहाँ जजों की नियुक्ति के लिए लड़ो, अदालतों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे इकट्ठे हो रहे हैं, अधिक अदालतें खोलने के लिए लड़ो। जल्दी फैसले होंगे तो अदालतों की साख बढ़ेगी, ज्यादा मुकदमे आएंगे। सरकारें फिजूल का बहाना बनाती है कि जजों के लिए काबिल लोग नहीं मिलते। वकीलों में तलाश करने जाएँ तो बहुत काबिल मिल जाएंगे। पर उन्हें काबिल वकील नहीं चाहिए। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि कोई कामकाजी वकील उत्तीर्ण ही न हो। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि वे ही उत्तीर्ण होते हैं जो साल-छह महीने से वकालत छोड़ कर सिर्फ किताबें रट रहा हो। उन्हें तोते चाहिए, जज नहीं। 
धर हड़ताल शुरू होने के पहले दिन से श्रीमती जी मायके चली गई हैं। मैं ने तो घर संभाल लिया है। आज हड़ताल समाप्त होने की खबर सुन कर वापस लौटने की उम्मीद थी। पर कल सुबह का अखबार जो कुछ बतायेगा उस से मैं ने तो उम्मीद छोड़ दी है। अब अख़्तर भाई इन दिनों क्या कर रहे हैं ये तो वही बताएंगे। चाहें तो आप पूछ कर देख लें।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

घूम-फिर कर, फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।

एक दिन के वकील
ज 18 नवम्बर हो गई है पिछली 15 नवम्बर के बाद अनवरत पर पोस्ट नहीं हुई। इसे समय की कमी कहा जा सकता है कुछ भौतिक और कुछ मानसिक व्यस्तताएँ रहीं। पिछली पोस्ट डॉ. अरविंद मिश्रा जी को डरावनी लगी, क्यों लगी? यह शोध का विषय है। 16 नवम्बर की दोपहर ललित शर्मा कोटा पहुँचे, ठीक 12 बज कर 3 मिनट पर कोटा की धरती  पर उन के कदम पड़े। मैं तो उन के इंतजार में था ही प्रकृति ने भी उन के स्वागत की तैयारी की हुई थी। बरसात कुछ उन्हों ने पहले ही यहाँ भेज दी थी, कुछ साथ ले कर आए थे। हमारी कार कई दिनों से सेवा की मांग कर रही थी। लेकिन ललित जी के आगमन के एक दिन पहले सेल्फ स्टार्टर ने अपना रंग दिखाया और रूँऊँऊँ......... कर के रह गया। हम ने बाइक से काम चलाया। उन के आने के दिन तो बारिश हो गयी। घर के नजदीक की सड़क के किनारे कुछ दिन पहले सीवर लाइन के पाइप डाले गये थे। मिट्टी ऊपर आई हुई थी, बरसात से वह सड़क पर आ गई। काली चिकनी मिट्टी ने फिसलने का पूरा-पक्का इंतजाम कर दिया। हम ने कार को अस्पताल पहुँचाया पूरी सेवा के लिए। बाइक पर अपना आत्मविश्वास वैसा ही रहता है जैसे साक्षात्कार देते वक्त नौकरी पाने वाले का रहता है। इस लिए बाइक को घर में ही रखा और बीस साल पुराना स्कूटर उठा कर अदालत पहुँचे। सोचा अपने जूनियर को कहेंगे कार ले चलेगा और ललित शर्मा जी को घर ले आएगा। पर ऐन वक्त जूनियर अदालत में फँस गया। 
अधरशिला
खैर, वकील मित्र राघवेंद्रपाल काम आए, अपनी स्विफ्ट डिजायर से ललित जी को स्टेशन से ला कर हमारे घर छोड़ा। रास्ते से हम कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ और खम्मन लेते आए थे, ललित जी को उन्हीं का नाश्ता कराया गया, यह बताते हुए कि अमिताभ बच्चन इन्हें खा कर कोलाइटिस के शिकार हो चुके हैं। हालांकि उन की गलती थी कि वे बासी कचौड़ी को गर्म कर के खाए थे, एक दम ताजा है। हम इस नाश्ते में शामिल नहीं थे।  बाद में राघवेंद्र बता रहे थे कि आप के मित्र बड़े इन्फोर्मल हैं, वे मेजबान की तरह मुझे कचौड़ियाँ परोसते रहे। हमें कुछ मुकदमे और निपटाने थे, हम अदालत चले गए। कम्प्यूटर पर मोर्चा संभाला ललित शर्मा ने और एक दिन के वकील हो गए। शाम को चार बजे तक लौटे तब तक न जाने क्या-क्या कर चुके थे। साढ़े पाँच बजे कार अस्पताल से फोन आया कि कार तैयार है। मैं और ललित जी पैदल ही जा कर कार ले आए। अब घूमने का कार्यक्रम था।  
मुक्तिधाम
रसात, भरमार शादियों के पहले का दिन और शहर में कीचड़। कोटा के ब्लागरों को इकट्ठा करने का अवसर ही नहीं था। कुल मिला कर केवल अख़्तर खान अकेला नजर आए, उन्हें टेलीफोन कर बुलाया। ललित जी की चंबल देखने की इच्छा थी। हमने उन्हें कई किनारे सुझाए, पर उन्हें मुक्तिधाम वाला स्थान ही रुचिकर लगा। रात के अंधेरे में हम कोटा के सब से सुंदर शमशान में पहुँचे तो वहाँ सिस्टम पर संगीत बज रहा था। निकट ही अधर शिला थी, अख़्तर ने उस का उल्लेख किया तो हम वहाँ पहुँचे। वहाँ भी कब्रिस्तान निकला। वहाँ से चौपाटी पर कुल्फी और पान खा कर अख्त़र के वकालत दफ्तर में पहुँचे जहाँ भेंट में ललित शर्मा को कोटा की जानकारी देने वाली एक पुस्तक और मुझे कुऱआन की हिन्दी प्रति भेंट में मिली। मैं ने अख़्तर भाई के कान में बोला। यार! ये ललित शर्मा को हमने क्या दिखाया? शमशान और कब्रिस्तान जैसे कह रहे हों, बेटे सारी दुनिया घूम आओ, घूम फिर कर फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।
ललित शर्मा, मैं और अख़्तर
र लौटते ही अख्त़र खिसक लिए, अगले दिन ईद थी और उन्हें  उस की तैयारियाँ भी करनी थीं। हम  ने ललित जी के साथ भोजन किया और उन्हें हिदायत दी कि वे कुछ समय बिस्तर पर बिताएँ। रात दो बजे स्टेशन के लिए निकले। ट्रेन लेट थी। चित्तौड़ जाने वाली इस ट्रेन ने तीन बज कर सात मिनट पर प्लेटफॉर्म छोड़ा। हम घर लौट कर बिस्तरशरण हुए तो सुबह साढ़े नौ बजे आँख खुली। ललित जी को फोन लगाया तो तसल्ली हुई कि वे सुबह छह बजे ही चित्तौड़ पहुँच चुके थे और अब इन्दु गोस्वामी की हिरासत में हैं और मौज कर रहे हैं।
ज फिर समय की कमी है। अदालत की छुट्टी करनी पड़ेगी। हमारे नए मकान के लिए जो भूखंड़ देखा गया है उस पर निर्माण के आरंभ का दिन है। श्रीमती शोभा भूमि पूजा की तैयारी कर रही हैं, हमें हिदायत है कि तुरंत नहा लिया जाए और बाजार से सारा सामान लाया जाए। मुहूर्त पर सब कुछ यथावत हो जाना चाहिए। अच्छा तो टा! टा!  बाय! बाय! फिर मिलते हैं...................

सोमवार, 1 नवंबर 2010

क्या है ब्लागीरी ?

पिछली पोस्ट में मैं ने अपनी व्यस्तता  और अपनी अनुपस्थिति का जिक्र किया था। जिस से बेकार में मित्रों और पाठको के मन में संदेह जन्म न लें। सोचा था फिर से नियमित हो लूंगा। लेकिन प्रयत्न कभी भी परिणामों को अंतिम रूप से प्रभावित नहीं करते, असल निर्णायक परिस्थितियाँ होती हैं। कल सुबह से ही जिस मसले में उलझा, अभी तक नहीं सुलझ पाया। कल सुबह से व्यस्त हुआ तो रात एक बज गया। सुबह थकान पूरी तरह दूर न हो पाने के बावजूद समय पर उठ कर आज के मुकदमों की तैयारी की और नये कार्यभारों को पूरा करता हुआ अदालत पहुँचा। अभी शाम को घर पहुँचा हूँ जबरन पाँच मिनट आँखें मूंद कर लेटा। सोचता था कम से कम पन्द्रह मिनट ऐसे ही लेटा रहूँ। लेकिन तब तक शोभा ने कॉफी पकड़ा दी। मैं उठ बैठा। बेटे को तीन माह बाद बंगलूरू से घर लौटे दो दिन हो गये हैं लेकिन उस से बैठ कर फुरसत से बात नहीं हो सकी है। बेटी घंटे भर बाद कोटा पहुँच रही है उसे लेने स्टेशन जाना है। कॉफी के बाद बचे समय में यह टिपियाना पकड़ लिया है।
म सोचते हैं कि हमें ब्लागीरी के लिए फुर्सत होनी चाहिए, मन को भी तैयार होना चाहिए और शायद मूड भी। पर यदि इतना सब तामझाम जरूरी हो तो मुझे लगता है कि वह ब्लागीरी नहीं रह जाएगी। ब्लागीरी तो ऐसी होना चाहिए कि जब कुंजी-पट मिल जाए तभी टिपिया लो, जो मन में आए। बनावटी नहीं, खालिस मन की  बात हो, तो वह ब्लागीरी है। 
प का क्या सोचना है? 

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

अनियमितता के लिए .......

ल सुबह श्री विष्णु बैरागी जी का संदेश मिला -
कई दिनों से मुझे 'अनवरत' नहीं मिला है। कोई तकनीकी गडबड है या कुछ और - बताइएगा। 
शाम  को सतीश सक्सेना  जी ने 'अनवरत' की पोस्ट "ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंप...": पर संदेश छोड़ा -
कहाँ अस्तव्यस्त हो भाई जी ! नया मकान तो अब तक ठीक ठाक हो चुका होगा...? 
 दैव मेरा प्रयत्न यह रहा है कि प्रतिदिन दोनों ही ब्लागों पर कम से कम एक-एक प्रकाशन हो जाए। मैं ने बैरागी जी को उत्तर दिया  -कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनी हैं कि मैं चाहते हुए भी दोनों ब्लागों पर नियमित नहीं हो पा रहा हूँ, लेकिन शीघ्र ही नियमितता बनाने का प्रयत्न करूंगा। मुझे उन का त्वरित प्रत्युत्तर मिला -
......सबसे पहली बात तो यह जानकर तसल्‍ली हुई कि आप सपरिवार स्‍वस्‍थ-प्रसन्‍न हैं। ईश्‍वर सब कुछ ऐसा ही बनाए रखे। आपकी व्‍यस्‍तता की कल्‍पना तो थी किन्‍तु इतने सारे कारण एक साथ पहली ही बार मालूम हुए। निपटाने ही पडेंगे सब काम और आप को ही निपटाने पडेंगे। मित्र और साथी एक सीमा तक ही साथ दे सकते हैं ऐसे कामों में। 
मैं ने बैरागी जी को तो उत्तर दे दिया, लेकिन सतीश जी को नहीं दिया। सिर्फ इसलिए कि सभी ब्लागर मित्रों और पाठकों के मन में भी यह प्रश्न तैर रहा होगा तो क्यों न इस का उत्तर ब्लाग पर ही दिया जाए।
मेरी गैर-हाजरी के कारण अज्ञात नहीं हैं। 19 सितंबर 2010 को मैं ने अपना आवास बदला, एक अक्टूबर को  बहुमूल्य साथी और मार्गदर्शक शिवराम सदा के लिए विदा हो लिए। आवास बदलने के साथ बहुत कुछ बदला है। और 40 दिन हो जाने पर भी दिनचर्या स्थिर नहीं हो सकी है। पुराने आवास से आए सामानों में से कुछ को अभी तक अपनी पैकिंग में ही मौजूद हैं। अभी मैं जिस आवास में आया हूँ वह अस्थाई है। संभवतः मध्य नवम्बर तक नए मकान का निर्माण आरंभ हो सकेगा जो अप्रेल तक पूरा हो सकता है। तब फिर एक बार नए आवास में जाना होगा। इन्हीं अस्तव्यस्तताओं के कारण दोनों ब्लागों पर अनियमितता बनी है। मैं इस अनियमितता से निकलने का प्रयत्न कर रहा हूँ। संभवतः दीवाली तक दोनों ब्लाग नियमित हो सकें। 
ब भी कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच पर नियमित रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है तो वह बहुत से लोगों के जीवन में शामिल होता है और उस का दायित्व हो जाता है कि जो काम उस ने अपने जिम्मे ले लिए हैं उन्हें निरंतर करता रहे। मसलन कोई व्यक्ति सड़क के किनारे एक प्याऊ स्थापित करता है। कुछ ही दिनों में न केवल राहगीर अपितु आसपास के बहुत लोग उस प्याऊ पर निर्भर हो जाते हैं। प्याऊ स्थापित करने वाले और उस सुविधा का उपभोग करने वाले लोगों को इस का अहसास ही नहीं होता कि उस प्याऊ का क्या महत्व है। लेकिन अचानक एक दिन वह प्याऊ बंद मिलती है तो लोग सोचते हैं कि शायद प्याऊ पर बैठने वाले व्यक्ति को कोई काम आ गया होगा। लेकिन जब वह कुछ दिन और बंद रहती है तो लोग जानना चाहते हैं कि हुआ क्या है? यदि प्याऊ पुनः चालू हो जाती है तो लोग राहत की साँस लेते हैं। लेकिन तफ्तीश पर यह पता लगे कि प्याऊ हमेशा के लिए बंद हो चुकी है। तो लोग या तो उस प्याऊ को चलाने के लिए एक जुट हो कर नई व्यवस्था का निर्माण कर लेते हैं, अन्यथा वह हमेशा के लिए बंद हो जाती है। एक बात और हो सकती है ,कि प्याऊ स्थापित करने वाला व्यक्ति खुद यह समझने लगे कि इस के लिए स्थाई व्यवस्था होनी चाहिए और वह स्वयं ही प्याऊ को एक दीर्घकाल तक चलाने की व्यवस्था के निर्माण का प्रयत्न करे और ऐसा करने में सफल हो जाए।
फिलहाल अनवरत और तीसरा खंबा फिर से नियमित होने जा रहे हैं। लेकिन यह विचार तो बना ही है कि इन्हें नियमित ही रहना चाहिए और उस की व्यवस्था बनाना चाहिए। इस विचार को संभव बनाने के लिए मेरा प्रयत्न  सतत रहेगा।
सार्वजनिक मंच पर स्वेच्छा से लिए गए दायित्वों को यदि किसी अपरिहार्य कारणवश भी कोई व्यक्ति पूरा नहीं कर पाए तो भी वह लोगों को किसी चीज से वंचित तो करता ही है। ऐसी अवस्था में उस के पास क्षमा प्रार्थी होने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं हो सकता।  अनवरत और तीसरा खंबा के प्रकाशन में हुई इन अनियमितताओं के लिए सभी ब्लागर मित्रों और अपने पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूँ, यह अनियमितता यदि अगले छह माहों में लौट-लौट कर आए तो उस के लिए भी मैं पहले से ही क्षमायाचना करता हूँ। आशा है मित्र तथा पाठक मुझे क्षमा कर देंगे, कम से कम इस बात को आत्मप्रवंचना तो नहीं ही समझेंगे।