@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मई 2012

गुरुवार, 31 मई 2012

जनतंत्र का अव्वल नियम

ज कल हर कोई डेमोक्रेसी, मतलब जनतंत्र के हाथ धो कर पीछे पड़ा रहता है। जैसे जनतंत्र न हुआ एवरेस्ट की चुटिया हो गया, जिस पर चढ़ना बहुत ही टेड़ी खीर हो। नए नए मिनिस्टर बने हमारे मोहल्ले के छन्नू नेता ही देख लें। वे जनतंत्र को समझें या न समझें पर पूरा भाषण पेल सकते हैं। कोई उन से पूछ कर देखे कि आप जानते भी हैं डेमोक्रेसी कौन चिड़िया का नाम है? उन में तुरंत लक्ष्मण की आत्मा आ जाती है। सवाल पूछने वाला परशुराम लगने लगता है। हम को क्या समझा है? ‘बहु धनुहीं तोरीं लरिकाई’। हमने बचपन से कोई खोर थोड़े ही पीसी है। तावड़े में बाल धोले थोड़े ही किए हैं। पहली किलास से मानीटर रहे और तीसरी तक पहुँचते पहुँचते बालसभा के मंत्री हो गए। फिर तो मुड़ कर देखा ही नहीं। जनतंत्र की नब्ज नब्ज पहिचानते हैं। पिराईमरी में बच्चों को पानी बतासे और नारंगी की खट्टी मीठी गोलियाँ खिलाते थे। जो काबू नहीं आता था उस की नाक तोड़ देते थे। बस वही फारमूला वही है। पानी बतासे और नारंगी की गोलियाँ बदल गई हैं। कैसे भी हो कमान अपने हाथ रहनी चाहिए। डेमोकिरेसी कोई आज से है क्या हमारे मुलक में? भगवान बुद्ध से भी पहले गणतंत्र होते थे। हमारे देश की तो नस नस में जनतंत्र व्याप्त है।

अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, अपना संविधान बना, तब से डेमोक्रेसी बहुत आसान हो गई है। बस चुनाव जीतो, फिर जैसे तैसे जीते हुओं को पटाकर रखो। फिर गद्दी अपनी। गद्दी अपने पास हो तो डेमोक्रेसी क्या खा कर चलने से मना करेगी? वायरस पार्टी को देख लो कब से एक नेता के बल पर चल रही है। नेता मर जाए तो नेता चुनने का ज्यादा कुछ चक्कर ही नहीं । नेता के खानदान में जो भी मिले उसे पकड़ कर माला पहना देते हैं। कोई न भी मिले तो नेताजी के घर के अनावर-जनावर तक से काम चला लेते हैं। बड़े ठाठ से राज चल रहा है। कभी राज से बाहर हो भी गए तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। जैसे तैसे वापस लौट ही आते हैं। अब तो फिक्र करना ही बंद कर दिया है। सामने मैदान में कोई दमदार हो तो फिक्र हो।

हुत तो हैं मैदान में। ततैया पार्टी है, बर्र पार्टी है, कछुआ और खरगोश पार्टियाँ हैं, और क्या चाहिए? मच्छर, मक्खी पार्टियों को जश्न में अपनी टेबल पर बिठा कर खिलाने-पिलाने से जनतंत्र में गद्दी पक्की नहीं होने वाली। बहुत कुछ करना पड़ेगा। फिर बैक्टीरिया पार्टी से कैसे निपटोगे? देखा नहीं? तीन तीन प्रान्तों में भरपूर विकास के साथ पुख्तगी से जनतंत्र चला रहे हैं। कुछ दिन पहले तक लोग भले ही कहते हों, डेमोक्रेसी को हाँकने एक नेता तक नहीं है बैक्टीरिया पार्टी के पास। एक वेटिंग में चल रहा था. वह भी बूढ़ा हो चला है शेष जो हैं उन में किसी के पास लियाकत ही नहीं। अब कोई कह के देखे? आज बैक्टीरिया पार्टी का बच्चा बच्चा छाती ठोक कर कहता है, हमारे पास भी नेता है। अरब सागर के किनारे खड़ा हो कर हूँकार भरता है तो जमना का किनारा दहल जाता है। देखा नहीं कल टी.वी. पर, कैसे हूँकार भर रहा था? हफ्ते भर में पार्टी की बिसात बदल के रख दी। इसे कहते हैं, जनतंत्र का चलना और चलाना। लोग बेफालतू बकते रहते हैं। जनतंत्र कोई संविधान से चलता है। वह चलता है, तिकड़म से। संविधान तो बजाने का झुनझुना है, जब देखो कि झुनझुना किसी के आड़े आ रहा है तो उसे बदलवा डालो। रास्ता खुल जाता है, परंपरा पड़ जाती है। जब अपने आड़े आएगा तो परंपरा अपने काम आएगी। वोट की कीमत पहचानो। जब मौका आए तो पूरा ब्लेकमेल करो, विरोधियों को घर से बेदखल करवाओ। फिर खेलो खेल औरंगाबादी, अहमदाबादी। औरंगजेब से सीखो। बादशाह बनना कोई बच्चों का खेल नहीं। ये जनतंत्र का अव्वल नियम है। जो मुकाबले पर आए उसे कैद कर लो या कलम कर दो। ऐसा तुम न करोगे तो वे तुम्हें कलम कर देंगे, फिर चला लिया जंनतंत्र।

मंगलवार, 29 मई 2012

पेट्रोल की साढ़े साती


भारत की जनता को जब जब भी चुनाव से निजात मिलती है, वह अपनी हालत के बारे में सोचने लगती है। जब जनता सोचने लगे तो सरकार के दफ्तर में खतरे का अलार्म बजने लगता है। तभी जरूरी हो जाता है कि उसे फिर से औंधे मुहँ पटका जाए। इस के लिए कुछ अधिक करने की जरूरत नहीं। सरकार पेट्रोल, डीजल या फिर रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है। सेट फारमूला है। कहा ये जाता है कि मजबूरी है। दुनिया भर में खनिज तेल के दाम बढ़ रहे हैं कि कीमतें बढ़ानी पड़ीं। न बढ़ाएँ तो तेल कंपनियाँ औंधे मुहँ गिर जाएँ। फिर कौन तेल खरीदेगा, कौन शोधेगा, कौन उसे गोदामों में पहुँचाएगा और कौन पेट्रोल को पंपों तक, गैस को गैस एजेंसियो तक पहुँचाएगा। सारे वाहन रुक जाएंगे, गति थम जाएगी, गांवों में कैरोसीन नहीं होगा, अंधेरा होगा। लालू की लालटेन नहीं जलेगी, रसोइयों में गैस और केरोसीन नहीं होंगे तो रसोइयाँ रुक जाएंगी। जनता में त्राहि-त्राहि कर उठेगी। कुछ कुछ वैसा ही सीन होगा जैसा पिछले दिनों सीरियल ‘देवों के देव महादेव’ में देखने को मिला। पिता दक्ष ने सती के पति को यज्ञ का न्यौता नहीं दिया, सती बिना न्यौते गई, तो पति का घोर अपमान देखा, सती आत्मदाह पर उतारू हो गई, उसे किसी ने नहीं रोका, आत्मदाह करना पड़ा। शिव क्रोधित हो कर तांडव नृत्य करने लगे। सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मच उठा।  

हुत दिनों से पेट्रोल के दाम बढ़ने की खबर थी। पर कच्चे तेल के दाम गिर गए। सरकार में घबराहट में आ गई।  न आई होती तो कब के बढ़ा चुकी होती। पर रुपए ने रिकार्ड स्तर पर गिर कर सरकार की घबराहट को थाम लिया, दाम बढ़ा दिए। दाम बढ़ने की खबर जंगल में आग की तरह फैली, वाहनों ने पंपों पर कतारें लगा दीं। पेट में जितना समा सकता हो आधी रात तक समा लो, उस के बाद तो बढ़ा हुआ दाम देना ही है। पंपों पर लगी कतारों से सरकार की साँस में साँस आ गई। वह समझ गई, अभी वाहन वालों में बहुत दम है, न होता तो वे पंप के बजाए सरकार की तरफ दौड़ते।  नेतागणों ने नवीन वस्त्र पहने और मेकप करवा कर तैयार हो गए, चालकों को वाहन हमेशा तैयार रहने की हिदायत दे दी गई। टेलीफोन की घंटी बजने का इंतजार होने लगा। कब मीडिया का बुलावा आए और वे कैमरे के  सामने जा कर खड़े हों।

स्टूडियो में बहस चल रही है। विपक्ष कह रहा है -सरकार जनता का तेल निकाल रही है। सरकारी नेता बोला –दाम बढ़ाने में हमारा कोई रोल नहीं। कच्चे तेल के दाम बढ़े, कंपनियों ने पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए। इस में हम क्या कर सकते थे। नीति को विपक्षी जब सरकार में थे तो उन्हों ने तय किया था, हम तो उन का अनुसरण कर रहे हैं। इधर छोटे परदे के दर्शकों को समझ नहीं आ रहा है कि आखिर गलती सरकार की है या विपक्ष की? बहस के बीच ही तेल के दाम और टैक्सों के गणित की क्लास शुरु हो जाती है। सवाल पूछा जा रहा है -35 का तेल जनता को 75 में, 40 कहाँ गए? लोग सवाल का उत्तर तलाश रहे हैं। जवाब नहीं आ रहा है। दर्शकों को पता है, चालीस कहाँ गए? पर उन से कोई नहीं  पूछता। उन्हें 75 देने हैं तो देने हैं। जनतंत्र है भाई, जनता से पूछने लगे तो कैसे चलेगा?

नतंत्र धन से चलता है, जनता से नहीं। सरकार के पास धन नहीं होगा तो वह कैसे चलेगी? अस्पताल कैसे चलेंगे? मनरेगा कैसे चलेगा? पोषाहार ... वगैरा वगैरा  कैसे चलेंगे? घोटाले कैसे चलेंगे? नेतागण कैसे चलेंगे? नेता न चले तो सरकार कैसे चलेगी? जनतंत्र कैसे चलेगा? पेट्रोल, डीजल, गैस और केरोसीन के बिना जनता कैसे चलेगी? जनता को चलना है तो उसे ये सब खरीदना पड़ेगा, किसी कीमत पर। वह जरूर कोई परम विद्वान रहा होगा जिस ने तेल के साथ सरकार का टैक्स चिपकाया और जनतंत्र चलाने का स्थाई समाधान कर दिया। 35 का तेल, 5 की ढुलाई और डीलर कमीशन, बाकी बचे 35 तो उस से सरकार चलती है, जनतंत्र चलता है।  ये 35 सीधे जनता की जेब से आता है, किसी धनपति की  जेब से नहीं। कोई हिम्मतवाला नहीं, जो कहे कि भारत का जनतंत्र धनपति चलाते हैं, कोई हो भी तो कैसे? भारत का जनतंत्र जनता की जेब से चलता है।

क चैनल बता रहा है चीन की मुद्रा 0.6 प्रतिशत कमजोर हूई और वहाँ 9 मई को पेट्रोल की कीमतें घटाई गईं। पाकिस्तानी रुपया एक साल में 4.5 प्रतिशत कमजोर हुआ, दाम 8.5 प्रतिशत बढ़े, लेकिन अब घटाने की चर्चा है। इस घड़ी में भारत की तुलना उस के शत्रु मुल्कों से करने वाले चैनल को तुरंत देशद्रोही घोषित कर देना चाहिए था। दक्ष ने तो शिव की चर्चा तक पर प्रतिबंध लगा रखा था और उसे चाहने वाली अपनी सब से प्रिय पुत्री तक को त्याग दिया था। इस चैनल ने इतना भी ध्यान न रखा कि भारत दुनिया का सब से बड़ा जनतंत्र है जब कि इन शत्रु देशों में जनतंत्र का नामलेवा तक नहीं। इन से भारत की तुलना करना अब तक अपराध क्यों नहीं।  लेकिन भारत सरकार रहम दिल है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से तुलना पर भी इस चैनल पर प्रतिबंध नहीं लगा कर उस ने फिर से साबित कर दिया कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं।

क्ष को अनुमान नहीं था कि शिव तांडव करेंगे, दुनिया पर कहर ढा देंगे। उसे कुछ-कुछ अनुमान रहा भी हो तो उसे दुनिया से कोई लेना देना नहीं था। वैसे ही जैसे नेताओं को जनता से। उस ने दुनिया की नहीं, खुद की सुरक्षा देखी, पालनहार विष्णु का भरोसा किया।  दक्ष का अहंकारी मस्तक धड़ से अलग हो यज्ञकुंड में गिरा और फटाफट भस्म हो गया। पालनहार कुछ नहीं कर पाए, शिव से गुहार लगाई, महादेव¡ कुछ करो, वरना दुनिया कैसे चलेगी? दक्ष को बकरे का सिर मिला, वह फिर से मिमियाने लगा।

नतंत्र में किसी का सिर तो नहीं काटा जा सकता न? सरे आम आग्नेयास्त्रों से कत्लेआम करने वाले कसाब तक का नहीं। उसे भी सुनवाई का, अपील का और दयायाचिका का अवसर देना पड़ता है, जनतंत्र जो है। फिर सरकार तो सरकार है, पाँच बरस के लिए चुन कर आती है, उस से पहले उस का कोई क्या बिगाड़ सकता है?  दिल्ली की सड़कों को तिरंगों से पाट कर भी अन्ना ने क्या बिगाड़ लिया? हो तो वही रहा है न, जो सरकार चाह रही है। इसलिए जो होना है वह पाँच बरस पूरे होने पर ही, उस के पहले कुछ भी नहीं।

चैनलों और अखबारों ने दो दिन सरकार को खूब आड़े हाथों लिया। फिर कहने लगे -सब से बड़े जनतंत्र की सरकार ऐसी वैसी नहीं हो सकती। उसे रहमदिल होना चाहिए, वह है भी। शनि की तरह बेरहम नहीं कि एक बार साढ़े साती चढ़ जाए तो साढ़े सात से पहले उतरें ही नहीं। उस का रहम से भरपूर दिल सोच रहा है, क्यों न औंधे मुहँ पड़ी जनता को सीधा कर दिया जाए, कुछ फर्स्ट एड दी जाए। साढ़े साती को ढैया से नहीं बदला जाए तो कम से कम एक ढैया तो कम कर ही दी जाए। हो सकता है सरकार को दो साल बाद का मंजर सताने लगे, जैसे कभी कभी शनि को लंका का कैदखाना याद हो आता है। लेकिन अखबारों, चैनलों का यह प्रयास भी व्यर्थ हो गया। सरकार का बयान आया कि वह बढ़ाई गई कीमतें कम नहीं कर सकती। शायद दो बरस का समय बहुत लंबा होता है और जनता को इतने समय तक  कहाँ कुछ याद रहता है?

शुक्रवार, 25 मई 2012

थमा हुआ इंकलाब


 विचित्र दृश्य हैं।  रुपया गिर रहा है, लगातार गिर रहा है।  कब तक गिरेगा? किसी को पता नहीं है। प्रणब दा कहते हैं कि उधर यूरोप में किसी देश में जबर्दस्त आर्थिक संकट चल रहा है, उसे देख कर रुपया गिर रहा है। रुपया रुपया न हुआ कोई लड़की हो गई जो किसी लड़के को आते देख कर गिर जाए और इंतजार करे कि वह आएगा और उसे उठा लेगा।

सोना चढ़ रहा था कि रुपए की गिरावट को देख अचानक गिरा और लगातार तीन दिनों तक गिरा। लोगों ने सोचा डालर बेचो, रुपया खूब मिलेगा। मिले रुपए से सोना खरीद लो। लोग सोना खरीदने बाजार तक पहुँच भी न सके थे कि सोना एकदम चढ़ा और वापस अटारी पर जा पहुँचा।

चपन में मैं सोचता था कि जीव जंतु ही चढ़ते उतरते हैं। जैसे गिलहरी, तपाक से पेड़ पर चढ़ जाती है, उस का मन हुआ और उतर गई। फिर अखबार पढ़ने लगे तो पता लगा कि दूसरी चीजें भी चढ़ती उतरती हैं। किसी दिन तेल चढ़ता है तो किसी दिन मिर्च चढ़ जाती है। चीनी, तिलहन, दलहन, अनाज वगैरा सभी चढ़ते उतरते हैं। इस चढ़ने उतरने में सब से ज्यादा दुर्गति तिलहन,दलहन, अनाज और मसालों की होती है। जब जब फसल आती है ये गिर पड़ते हैं जैसे ही फसल मंडी से उठ कर गोदामों में पहुँचती है वे चढ़ने लगते हैं। लेकिन फसल आने के ठीक पहले फिर से गिर पड़ते हैं।

किसान सोचता है पिछले साल प्याज में अच्छी कमाई हुई थी। इतना चढ़ा, इतना चढ़ा कि सरकार तक बदल गई थी। वह सोचता है इस साल गेहूँ करने के बजाये प्याज करो। इतना प्याज कर डालता है कि प्याज जमीन पर आ जाता है। कोई खरीदने वाला नहीं मिलता। पिछले साल लहसुन ने चढ़ने में बाजी मार ली। लोगों ने प्याज को छोड़ा लहसुन कर डाला। अब लहसुन इतना हुआ कि रखने को जगह नहीं बची। बिचारा गिरने लगा तो हाल यह हो गया कि मंडी में दो रुपए किलो में कोई लेने वाला नहीं रहा। उधर अखबार में खबर पढ़ कर गृहणियाँ सोचने लगीं। कल वे जरूर दस किलो लहसुन ले कर घर में डाल लेंगी। पर जब सब्जी वाला आया तो दस रुपए किलो का भाव बोल रहा था। उस से बहस की तो कहने लगा साहब मंडी में दो रुपए किलो ही बिकता है, पर पूरा ट्रेक्टर खरीदना पड़ता है। वह न तो मैं खरीद सकता हूँ और न आप खरीद सकते हैं। हमें तो पाँच रुपए किलो खरीदना पड़ता है माशाखोर से। फिर उस में से अच्छा अच्छा छाँट कर आप के लिए लाते हैं उस में भी आप छाँट लेती हैं। अब दस रुपए किलो से कम में कैसे बेच सकते हैं।? श्रीमती जी लहसुन खरीदने के लिए बोरा लेकर गई थीं। प्लास्टिक की थैली में दो किलो लेकर घर में लौटीं।

स साल बरसात अच्छी हुई थी। खरीफ की फसल भी अच्छी हुई। फिर रबी की फसल पकी तो लगा कि धरती पर सोना ही सोना उग आया है।  दस-बीस साल पहले सोना उगता था तो पहले कटता था। फिर बैलों के पैरों तले रोंदा जाता था। फिर हवा में बरसाया जाता था तब गेहूँ का दाना तैयार होता था। पूरा महिने दो महिने यह चलता रहता था। अब वो सब नहीं होता। पंजाब के लोग कम्बाइन ले कर आते हैं हैं और एक दो सप्ताह में ही खेत के खेत काट कर गेहूँ निकाल कर चल देते हैं। कुछ ही दिनों में सारा सोना सिमट जाता है। किसान के पास सोना रखने की जगह नहीं। वह ट्रेक्टर ट्राली पर सोना लाद कर चलता है मंडी की और रुपया खरीदने। जिस से उसे बेटी-बेटे ब्याहने हैं, बैंक-साहूकार के कर्जे उतारने हैं। बच जाए तो छप्पर ठीक कराना है, फिर बच्चे पढ़ाने हैं.. आदि आदि।

मंडी अनाज से भरी है, मंडी के बाहर किलोमीटरों तक सड़कें सोने से भरी ट्रालियों से पट गई हैं, जाम लग गया है। व्यापारी के पास इतना पैसा ही नहीं कि खरीद ले। किसान के सोने का दाम गिरने लगता है। सरकार ने निर्धारित मूल्य पर खरीद का इंतजाम किया है। लेकिन कारकून कम हैं वे एकदम नहीं खरीद सकते उन्हें तौलना पड़ेगा, फिर बोरों में भरना पड़ेगा। किसानों को सड़क पर ट्रेक्टर लिए पड़े दो चार दिन हो गए हैं। जितना गेहूँ खरीदा जाता है उस से ज्यादा फिर आ जाता है। सरकारी खरीद केंद्र के कारकूनों के चेहरे खिल उठे हैं। सरकारी खरीद में दाम तो ऊँचे नीचे नहीं हो सकते लेकिन वे किसी का तुरन्त खरीद सकते हैं किसी को कुछ दिनों का इंतजार करा सकते हैं। वे किसानों से मोल भाव कर रहे हैं। गेहूँ बेचना है? एक ट्रॉली पर हमें कितना दोगे? दाम लगने लगे हैं। एक ट्रॉली पर हजार, दो हजार, तीन हजार, साढ़े तीन हजार ... किसान हिसाब लगा रहे हैं कि तीन दिन रुकेंगे तो कितना खर्चा होगा? कारकून को ले-दे कर तुलवा देंगे तो कितना नुकसान होगा? आखिर कारकून का भाव दो हजार तय होता है। दो दिन गेहूँ तुलता है। तीसरे दिन खबर आती है कि बोरे खत्म हो रहे हैं, उन के आने तक इंतजार करना पड़ेगा। कारकूनों का भाव दो हजार से तीन हजार हो जाता है।

लाल-पीले झंडे वाले आते हैं, बोलते हैं। बोरे ऐसे नहीं आएंगे, कलेक्ट्री पर जा कर इंकलाब जिन्दाबाद करना पड़ेगा। इधर राजस्थान में कलेक्ट्रियों पर दुरंगा इंकलाब हो रहा है तो मध्यप्रदेश की कलेक्ट्रियों पर तिरंगा इंकलाब हो रहा है। कलेक्टर बताता है कि वे बारदाने की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिना बोरों के भी गेहूँ खरीदा जाएगा। दुरंगा-तिरंगा इंकलाब थम जाता है। किसान वापस मंडी की तरफ लौटने लगते हैं। उधर डालर हँस रहा है।

देश के वित्तमंत्री बूढ़े हो चले हैं, थक गए हैं, कह रहे हैं अगली बार चुनाव नहीं लडेंगे। उन से पूछा जाता है कि राष्ट्रपति का चुनाव तो लड़ सकते हैं? वे जवाब नहीं देते, मुस्कुरा भर देते हैं।

सोमवार, 21 मई 2012

स्त्री के साथ छल से किया गया यौन संसर्ग पुलिस हस्तक्षेप लायक गंभीर अपराध नहीं


पुलिस के सामने इस तरह के मामले अक्सर आते हैं जिन में किसी महिला द्वारा यह शिकायत की गई होती है किसी पुरुष ने उस के साथ विवाह करने का विश्वास दिला कर यौन संसर्ग किया। पुरुष अब उस के साथ धोखा कर किसी दूसरी महिला के साथ विवाह कर लिया है या करने जा रहा है। शिकायत आने पर पुलिस भी इस तरह के मामले में कुछ न कुछ कार्यवाही करने के लिए तत्पर हो उठती है। मुंबई पुलिस ने इसी तरह के एक मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 420 तथा 376 के अंतर्गत दर्ज कर लिया। ऐसी अवस्था में आरोपी गिरीश म्हात्रे को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। बंबई उच्च न्यायालय ने इस मामले में गिरीश म्हात्रे को अग्रिम जमानत का आदेश प्रदान कर दिया। इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना कि विवाह का वायदा कर के किसी व्यक्ति के साथ यौन संसर्ग करना न तो बलात्कार की श्रेणी में आता है और न ही कोमार्य को संपत्ति माना जा सकता है जिस से इस मामले को धारा 420 के दायरे में लाया जा सके।

धारा 420 दंड संहिता के अध्याय 17 का एक भाग है जो संपत्ति के विरुद्ध अपराधों और चोरी के संबंध में है। इस कारण यह केवल मात्र संपत्ति से संबधित मामलों में ही लागू हो सकती है। इस धारा के अंतर्गत छल करना और संपत्ति हथियाने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करने के लिए दंड का उपबंध किया गया है। हालांकि धारा 415 में छल की जो परिभाषा की गई है उस में शारीरिक, मानसिक, ख्याति संबंधी या सांपत्तिक क्षतियाँ और अपहानि सम्मिलित है। लेकिन छल का यह कृत्य धारा 417 में केवल एक वर्ष के दंड से दंडनीय है और एक असंज्ञेय व जमानतीय अपराध है। जिस के अंतर्गत पुलिस कार्यवाही आरंभ करने के लिए सक्षम नहीं है केवल न्यायालय ही उसे की गई शिकायत पर उस का प्रसंज्ञान ले सकता है और उसे भी जमानत पर छोड़ना होगा।

दंड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत किसी पुरुष द्वारा किसी 16 वर्ष की आयु प्राप्त स्त्री के साथ उस की असहमति से स्थापित किए गए यौन संसर्ग को अपराध ठहराया गया है यदि सहमति उस स्त्री के समक्ष उसे या उस के किसी प्रिय व्यक्ति को चोट पहुँचाने या हत्या कर देने का भय उत्पन्न कर के प्राप्त की गयी हो, या ऐसी सहमति उस स्त्री के समक्ष यह विश्वास उत्पन्न कर के प्राप्त की गई हो कि वह व्यक्ति उस का विधिपूर्वक विवाहित पति है, या ऐसी सहमति प्रदान करने के समय स्त्री विकृत चित्त हो, या किसी प्रकार के नशे में हो जिस से वह सहमति के फलस्वरूप होने वाले परिणामों के बारे में न सोच सके तो भी वह इस धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। लेकिन किसी स्त्री को उस के साथ विवाह करने का या किसी भी अन्य प्रकार का कोई लालच दे कर उस के साथ यौन संसर्ग करने को बलात्कार का अपराध घोषित नहीं किया गया है।

स स्थिति का अर्थ है कि कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से जो 16 वर्ष की हो चुकी है छल करते हुए यौन संसर्ग स्थापित करे तो उसे अधिक से अधिक एक वर्ष के कारावास और अर्थदंड से ही दंडित किया जा सकता है। उस में भी कार्यवाही तब आरंभ की जा सकती है जब कि वह स्त्री स्वयं न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो कर शिकायत प्रस्तुत करे और उस का और उस के गवाहों का बयान लेने के उपरान्त न्यायालय यह समझे कि कार्यवाही के लिए उपयुक्त आधार मौजूद है। उस के उपरान्त साक्ष्य से यह साबित हो कि ऐसा छल किया गया था। इसे कानून ने कभी गंभीर अपराध नहीं माना है। यदि समाज यह समझता है कि इसे गंभीर अपराध होना चाहिए तो उस के लिए यह आवश्यक है कि छल करके किसी स्त्री के साथ किए गए यौन संसर्ग को संज्ञेय, अजमानतीय और कम से कम तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध बनाया जाए।

र्तमान उपबंधों के होते हुए भी कोई पुलिस थाना धारा 420 और धारा 376 के अंतर्गत इस कृत्य को अपराध मानते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करता है तो इस का अर्थ यही लिया जाना चाहिए कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का आशय मात्र आरोपी को तंग करना और उस से धन प्राप्त करना रहा होगा। क्या इसे एक भ्रष्ट आचरण मान कर रिपोर्ट दर्ज करने वाले पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करनी चाहिए?दर्ज करने का आशय मात्र आरोपी को तंग करना और उस से धन प्राप्त करना रहा होगा। क्या इसे एक भ्रष्ट आचरण मान कर रिपोर्ट दर्ज करने वाले पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करनी चाहिए?

शुक्रवार, 18 मई 2012

डर के जो हाँ भर रहा, वह भी घोंघा बसन्त

घोंघा एक विशेष प्रकार का जंतु है जो अपने जीवन को एक कड़े खोल में बिता देता है। इस के शरीर का अधिकांश हिस्सा सदैव ही खोल में बंद रहता है। जब इसे आहार आदि कार्यों के लिए विचरण करना होता है तो यह शरीर का निचला हिस्सा ही बाहर निकालता है जिस में इस के पाद (पैर) होते हैं और जिन की सहायता से यह चलता है। जैसे ही किसी आसन्न खतरे का आभास होता है यह अपने शरीर को पूरी तरह से खोल में छिपा लेता है। खतरे के पल्ले केवल कड़ा खोल पड़ता है। खतरे की संभावना मात्र से खोल में छिपने की इस की प्रवृत्ति पर अनेक लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। इसे आधार बना कर सब से खूबसूरत कहानी महान रूसी कथाकार अंतोन चेखोव की ‘दी मेन इन दी केस’ है जिस के हिन्दी अनुवाद का शीर्षक ही ‘घोंघा’ है। इस कहानी को पढ़ कर मनुष्य की घोंघा प्रवृत्ति का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

तरे से बचने के लिए कड़े खोल का निर्माण करने और खतरे की आशंका मात्र से खोल में छुप जाने की इस घोंघा प्रवृत्ति को व्यंग्य की धार बनाने का उपयोग साहित्य में अनेक लोगों ने किया, लेकिन घोंघे की चाल की विशिष्ठता का उपयोग बिरले ही देखा गया है। विभिन्न प्रजाति के स्थलीय घोंघों की चाल नापे जाने पर प्राप्त परिणामों के अनुसार उन की न्यूनतम चाल 0.0028 मील प्रतिसैकंड और अधिकतम चाल 0.013 मील प्रति सैंकंड है। इस अधिकतम चाल से कोई भी घोंघा एक घंटे में 21 मीटर से अधिक दूरी नहीं चल सकता। पिछली सदी के महान भारतीय व्यंग्य चित्रकार केशव शंकर पिल्लई ने घोंघे की चाल का अपने व्यंग्य चित्र में जिस तरह से उपयोग किया उस का कोई सानी नहीं है। इस व्यंग्य चित्र में भारतीय राजनीति की दो महान हस्तियाँ सम्मिलित थीं। इस व्यंग्य चित्र को सामाजिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित किए जाने को कुछ लोगों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और उसे पुस्तक से हटाने की मांग को ले कर संसद में हंगामा खड़ा किया। सरकार इस विवाद के सामने बेदम नजर आई। विभागीय मंत्री जी को खेद व्यक्त करते हुए उस व्यंग्य चित्र को पाठ्यपुस्तक से हटाने की घोषणा करनी पड़ी।


केशव शंकर पिल्लई द्वारा रचित व्यंग्य चित्र
भारतीय संसद नित नए प्रहसनों के लिए पहले ही कम ख्यात नहीं है। इस नए प्रहसन ने संसद की छवि में चार चांद और लगा दिए। इस व्यंग्य चित्र में घोंघे को निर्मित होते हुए संविधान के रूप में दिखाया गया है। संविधान के इस घोंघे पर संविधान सभा के सभापति डा. भीमराव अम्बेडकर सवार हैं और चाबुक चला रहे हैं, जिस से घोंघा दौड़ने लगे और शीघ्रता से अपनी मंजिल तय कर सके। घोंघे की इस चाल से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी प्रसन्न नहीं हैं और वे भी चाबुक ले कर घोंघे पर पिले पड़े हैं। सारे भारत की जनता इन दोनों महान नेताओं की इस चाबुकमार पर हँस रही है। इस व्यंग्य चित्र से प्रदर्शित हो रहा है कि दोनों महान नेताओं को संविधान का निर्माण संपन्न होने की इतनी व्यग्रता है कि वे यह भी विस्मृत कर गए कि यह जल्दी का काम नहीं अपितु तसल्ली और गंभीरता से करने का काम है, जिस के महत्व से देश की पढ़-अपढ़ जनता तक परिचित है।  इसीलिए संविधान को इस व्यंग्य-चित्र में घोंघे के रूप में दिखाया गया है। चाहे कितने ही चाबुक बरसाए जाएँ घोंघा तो अपनी चाल से ही चलेगा, उसे दौड़ाया नहीं जा सकता। ऐसे में घोंघे को चाबुक मार कर दौड़ाने का प्रयत्न तो एक मूर्खतापूर्ण कृत्य ही कहा जा सकता है। वास्तव में कोई ऐसा करे और उसे देखने वाला उस पर हँसे न तो क्या करे? इस व्यंग्य चित्र में दोनों महान नेताओं के इस कृत्य पर जनता का हँसना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया है।

स व्यंग्य चित्र से न तो डाक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिष्ठा को कोई आँच पहुँचती है और न ही नेहरू के सम्मान पर। हाँ उन की स्वाभाविक व्यग्रता जनता के सामने हँसी का कारण अवश्य बनती है। यह व्यंग्य चित्र दोनों नेताओं की व्यग्रता को जनता के प्रति उन की प्रतिबद्धता और कर्तव्यनिष्ठता के रूप में प्रदर्शित करता है। मुझे तो लगता है कि यदि किसी पाठ्य पुस्तक में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति को समझाने की कोशिश की जाए तो इस व्यंग्य चित्र को अवश्य ही उस में शामिल होना चाहिए। पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने भी यही किया भी था। गाँव का एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति और किसी महान देश का राष्ट्रपति यदि कर्तव्यबोध से ग्रस्त हो कर अनजाने में कोई मूर्खता कर बैठे। तो पता लगने पर वह उस पर स्वयं भी ठठा कर हँस सकता है। प्रसिद्ध लेखक और कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नम्बूद्रीपाद जो बोलने में हकलाते थे से एक दिन जवाहरलाल नेहरू ने पूछा था -क्या आप हमेशा हकलाते हैं। तब नम्बूद्रीपाद ने उत्तर दिया था -नहीं केवल बोलते समय हकलाता हूँ। जवाहरलाल नेहरू अपने मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर स्वयं ही ठहाका लगा कर हँसे थे। 
व्यंग्य चित्र प्रसिद्ध व्यंग्यकार 'इरफान' के सौजन्य से
संसद में जब यह प्रश्न उठा तो सरकार को उस का सामना करना चाहिए था और उस मुद्दे पर हंगामा नहीं बहस होनी चाहिए थी। सदन में उपस्थित विद्वान सांसदों को इस मामले की विवेचना को सदन के समक्ष रखना चाहिए था। यदि फिर भी संतुष्टि नहीं होती तो इस मामले को साहित्य और कला के मर्मज्ञों की एक समिति बना कर उस के हवाले करना चाहिए था और उस की समालोचना की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। डा. भीमराव अम्बेडकर को भगवान का दर्जा दे कर अपनी राजनीति भाँजने वाले लोगों का खुद डा. अम्बेडकर से क्या लेना देना? उन का मकसद तो संसद में हंगामे की तलवारें भांज कर वीर कहाना मात्र था। सरकारी पक्ष ने बाँकों के इस प्रहसन को एक गंभीर चुनौती के रूप में स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी गलती के रूप में स्वीकार करते हुए सीधे सीधे आत्मसमर्पण कर दिया। जैसे जूता मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता, वैसे ही व्यंग्य चित्र का पाठ्य पुस्तक में क्या काम? मंदिर में जूते के प्रवेश नही पा सकने से उस का महत्व कम नहीं हो जाता। अपितु जो व्यक्ति जूते को बाहर छोड़ कर जाता है उसका ध्यान भगवान की प्रार्थना में कम और जूते में अधिक रहता है।

पहले भी कम नहीं थे, घर में घोंघा बसन्त।
फिर फिर चुने जाते हैं, घर में घोंघा बसन्त।।
चाबुक जिस के हाथ है, वह भी घोंघा बसन्त।  

डर के जो हाँ भर रहा, वह भी घोंघा बसन्त।।

गुरुवार, 10 मई 2012

न्याय की भ्रूण हत्या

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ पहले ही एपीसोड से हिट हो जाने के बाद आमिर से मिलने की आतुरता प्रदर्शित की। आमिर इसी शो में पहले ही कह चुके थे कि वे राजस्थान सरकार को चिट्ठी लिखेंगे कि कन्या भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए राजस्थान में एक विशेष न्यायालय स्थापित करें, जिस से उन का निर्णय शीघ्र हो सके और गवाहों को अधिक परेशानी न हो। राजस्थान सरकार के एक अधिकारी ने यह भी कहा कि सरकार ने इस तरह के मामलों के लिए विशेष न्यायालय की स्थापना के लिए विचार किया है और जल्दी ही यह अदालत आरंभ की जा सकती है। कल शाम अभिनेता आमिर खान अशोक गहलोत से मिलने जयपुर पहुँचे और बाद में संयुक्त रूप से प्रेस से मिले गहलोत ने कहा कि वे ‘भ्रूण हत्या’ के मामलों के लिए विशेष न्यायालय खोलने की व्यवस्था कर रहे हैं इस के लिए उन्हों ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है।



निस्सन्देह राजस्थान सरकार ने इस मामले में त्वरित गति से अपनी रुचि दिखा कर अच्छा काम किया है। जब एक टीवी शो देश की हिन्दी भाषी जनता को पहली ही प्रस्तुति में भा गया हो तब उस से मिली प्रशंसा को भुनाना राजनीतिक चतुराई का अव्वल नमूना ही होगा। वैसे भी इस विशेष न्यायालय की स्थापना से व्यवस्था के किसी अंग को कोई चोट नहीं पहुँचने वाली है। बस कुछ चिकित्सकों की आसान कमाई रुक जाएगी, हो सकता है कुछ चिकित्सकों और उन के सहायकों को दंडित किया जा सके तथा पुरुष संतान चाहने वाले कुछ लोग कुछ परेशान हों जाएँ। लेकिन इस से किसी बड़े थैलीशाह के मुनाफे या राजनीतिज्ञ के राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला है। गहलोत सरकार को इस कदम से वाहवाही ही मिलनी है। स्वयं को राजस्थान का गांधी कहाने वाले इस राजनेता की न्यायप्रियता का डंका भी पीटा जा सकता है।  

लेकिन क्या गहलोत वास्तव में इतने ही न्याय प्रिय हैं? क्या उन के राजस्थान में जरूरत के माफिक अदालतें हैं? और क्या वे ठीक से काम कर रही हैं? राजस्थान में 2001 में जब गहलोत मुख्यमंत्री थे तब उन की सरकार ने राजस्थान किराया नियंत्रण अधिनियम 2001 पारित कराया था। उन के इस कदम को एक प्रगतिशील कदम कहा गया था। इस के द्वारा पुराने किराया नियंत्रण कानून को समाप्त कर दिया गया था जिस के अंतर्गत कोई भी राहत प्राप्त करने के लिए दीवानी दावा करना पड़ता था। इस अधिनियम के द्वारा किराया अधिकरण और अपील किराया अधिकरणों की स्थापना की व्यवस्था की गयी थी। जब इस अधिनियम को लागू करने और इन अधिकरणों को की स्थापना करने की स्थिति आई तो राजस्थान उच्च न्यायालय ने उस के लिए भवन, साधन और पदों के सृजन की आवश्यकता बताई। जिस पर राजस्थान सरकार ने तुरंत असमर्थता व्यक्त की और राजस्थान सरकार के इस वायदे पर कि वह शीघ्र ही इन अधिकरणों के लिए भवनों, साधनों और पदों की व्यवस्था करेगी, लेकिन अभी तात्कालिक आवश्यकता के अधीन उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाए। राजस्थान उच्च न्यायालय ने सरकार की बात मानते हुए कुछ वरिष्ठ खंड के अपर सिविल न्यायाधीश एवं अपर मुख्य न्यायाधीशों के न्यायालयों को जो कि पहले से अपराधिक और दीवानी मुकदमों की सुनवाई भी कर रहे थे किराया अधिकरणों की तथा जिला न्यायाधीशों को अपील किराया अधिकरणों की शक्तियाँ प्रदान कर दीं। इस उहापोह में किराया नियंत्रण कानून-2001 को 1 अप्रेल 2003 को ही लागू किया जा सका। उस के बाद आज नौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं राजस्थान में किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से एक भी अधिकरण या अपील अधिकरण स्थापित नहीं किया जा सका है।
राजस्थान में परिवार न्यायालय स्थापित हैं, लेकिन कुछ ही जिलों में। वहाँ भी मुकदमों की इतनी भरमार है कि एक वैवाहिक विवाद के निपटारे में चार-पाँच वर्ष लगना स्वाभाविक है वह भी तब जब कि इन न्यायालयों में वकीलों द्वारा पैरवी पर पाबंदी है। न्यायाधीश अपने हिसाब से न्यायालय चलाते हैं। अपने हिसाब से गवाहियाँ दर्ज करते हैं। न्यायार्थी गवाहों की प्रतिपरीक्षा करने में असमर्थ रहता है तो जज खुद दो चार प्रश्न पूछ कर इति श्री कर देते हैं। सचाई सामने खुल कर नहीं आती और इसी तरह के बनावटी सबूतों के आधार पर निर्णय पारित होते हैं। इन मुकदमों के निपटारे में लगने वाली देरी से अनेक दंपतियों की गृहस्थियाँ सदैव के लिए कुरबान हो जाती हैं। अनेक लोग जो शीघ्र तलाक मिलने पर अपनी नई गृहस्थी बसा सकते थे। मुकदमों के निर्णय होने की प्रतीक्षा में बूढ़े हो जाते हैं। इस का एक नतीजा यह भी हो रहा है कि वैवाहिक विवादों से ग्रस्त अनेक पुरुष चोरी छिपे इस तरह के विवाह कर लेते हैं जो अपराध हैं लेकिन जिन्हे साबित नहीं किया जा सकता। इस तरह पारिवारिक न्यायालयों की कमी एक ओर तो वैवाहिक अपराधों के लिए प्रेरणा बन रही है, दूसरी ओर परित्यक्ता स्त्रियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।  

राजस्थान के प्रत्येक जिले में जिला उपभोक्ता अदालतें स्थापित है, जिन में एक न्यायाधीश के साथ दो सदस्य बैठते हैं। अक्सर इन दो सदस्यों की नियुक्ति राजनैतिक आधार पर की जाती है। न्यायाधीश के पद पर अक्सर किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है। लेकिन न्यायपालिका के अपने कार्यकाल में थके हुए ये न्यायाधीश उपभोक्ता न्यायालय के अपने कार्यकाल में सुस्त पड़ जाते हैं और इस पद को अपना विशेषाधिकार समझ कर केवल अधिकारों का उपभोग करते हैं। अनेक स्थानों पर न्यायाधीश नियुक्त ही नहीं हैं वहाँ सदस्य और न्यायालय के कर्मचारी बिना कोई काम किए वेतन उठाते रहते हैं। यदि किसी न्यायालय में सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो पाती है जो कि राजनैतिक कारणों से विलम्बित होती रहती है तो जज सहित न्यायालय के सभी कर्मचारी सरकारी वेतन पर पिकनिक मनाते रहते हैं और अदालत मुकदमों से लबालब हो जाती है। इन न्यायालयों में सेवा निवृत्त न्यायाधीशों के स्थान पर जिला न्यायालयों के वरिष्ठ वकीलों को भी नियुक्त किया जा सकता है और न्यायालय को सुचारु रूप से चलाया जा सकता है, लेकिन राजनीति उस में अड़चन बनी हुई है।

राजस्थान के हर जिले में कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त, वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, ग्रेच्युटी अधिनियम आदि के अंतर्गत एक एक न्यायालय स्थापित है जिस में राजस्थान के श्रम विभाग के श्रम कल्याण अधिकारियों या उस से उच्च पद के अधिकारियों को पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। लेकिन सरकार के पास इतने सक्षम श्रम कल्याण अधिकारी ही नहीं है कि आधे न्यायालयों में भी उन की नियुक्ति की जा सके। जिस के कारण एक एक अधिकारी को दो या तीन न्यायालयों और कार्यालयों का काम देखना पड़ता है। वे एक जिला मुख्यालय से दूसरे जिला मुख्यालय तक सप्ताह में दो-तीन बार सफर करते हैं और अपना यात्रा भत्ता बनाते हैं। न्यायालय और कार्यालय सप्ताह में एक या दो दिन खुलते हैं बाकी दिन उन में ताले लटके नजर आते हैं क्यों कि कई कार्यालयों में लिपिक और चपरासी भी नहीं हैं जो कार्यालयों को नित्य खोल सकें। जो हैं, उन्हें भी अपने अधिकारी की तरह ही इधर से उधर की यात्रा करनी पड़ती है।

राजस्थान के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों का हाल इस से भी बुरा है। पुराने स्थापित श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों मे जो कर्मचारी नियुक्त किए गए थे वे रिटायर होते गए। नई नियुक्तियों के लिए वित्त विभाग स्वीकृति प्रदान नहीं करता। इस से सब न्यायालयों में स्टाफ की कमी होती गई। अनेक न्यायालयों में आधे भी कर्मचारी नहीं हैं। कंप्यूटरों और ऑनलाइन न्यायालयों के इस युग में राजस्थान के अनेक श्रम न्यायालयों में अभी भी तीस तीस साल पुराने टाइपराइटरों  को बार बार दुरुस्त करवा कर काम चलाया जा रहा है हालाँकि उन के मैकेनिक तक मिलना कठिन हो चला है। कुछ जिला और संभाग मुख्यालयों में नए श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं वहाँ तीन-चार सौ मुकदमे निपटाने के लिए एक न्यायाधीश और पूरा स्टाफ नियुक्त है तो पुराने न्यायालयों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और स्टाफ जरूरत का आधा भी नहीं है।  श्रमिकों के मुकदमों के निपटारे में बीस से तीस साल तक लग रहे हैं जिस से मुकदमे का निर्णय होने के पहले ही अधिकांश श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है। कुछ स्थानों पर एक के स्थान पर तीन तीन न्यायालयों की आवश्यकता है लेकिन उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ राजनैतिक तुष्टिकरण के आधार पर न्यायालय स्थापित कर दिये गए हैं। इन न्यायालयों में जहाँ समझदार जजों की नियुक्ति की आवश्यकता है वहाँ अक्षम और श्रम कानून से अनभिज्ञ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा रही है जिस का परिणाम यह हो रहा है कि हर मामले में निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट की जा रही है जिस से उच्च् न्यायालय का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है। इस मामले में मामूली प्रबंधन की आवश्यकता है। लेकिन राजस्थान सरकार के लिए शायद कर्मचारियों के मामले उद्योगपतियों और सरकारी विभागों से अधिक महत्ता नहीं रखते। जनता समझती भी है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालयों को राजस्थान सरकार कचरे का डब्बा समझती है। शायद अशोक गहलोत भूल गए हैं कि राजस्थान के कर्मचारी ही एक बार उन्हें कचरे के डब्बे की यात्रा करवा चुके हैं।


हो सकता है स्वयं को राजस्थान का गांधी कहलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की घोषणा के अनुरूप भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों के लिए विशेष अदालत कुछ सप्ताह में काम करना आरंभ कर दे और न्याय प्रिय कहलाए जाएँ लगें। लेकिन जहाँ रोज न्याय की भ्रूण हत्या हो रही हो वहाँ राजस्थान की जनता के लिए यह महज एक और चुटकुला होगा यदि वे राज्य सरकार द्वारा संचालित दूसरे न्यायालयों की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं करते।

शनिवार, 5 मई 2012

बोलने की हदें?


नतंत्र है तो वाक स्वातंत्र्य भी। सब को अपनी बात कहने का अधिकार भी है। अब सरकार अभिनेत्री रेखा और क्रिकेटर सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे, सिफारिश मानने को बाध्य राष्ट्रपति उस पर मुहर लगा दें, अधिसूचना भी जारी कर दी जाए और देश उसे चुपचाप स्वीकार कर ले तो सिद्ध हो जाएगा कि देश मे जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र का होना सिद्ध होता रहे इसलिए यह जरूरी है कि सरकार के हर कदम की आलोचना की जाए, सरकारी पार्टी की आलोचना की जाए और मनोनीत व्यक्तियों की आलोचना की जाए।

यूँ तो देश में जनतंत्र होना सिद्ध करने की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की है। सरकारी पार्टी की पिछली पारी में मैदान के बाहर से समर्थन देने वाली सब से बड़ी वामपंथी पार्टी ने इस काम की आलोचना नहीं की सिर्फ इतना भर कहा कि सचिन के पहले गांगुली को यह सम्मान मिलना चाहिए था, इस तरह उन्हों ने साबित किया कि  फिलहाल अखिल भारतीय पार्टी बनने का सपना देखना उन के ऐजेंडे पर नहीं है, वे अभी अपने दक्षिणपंथी विचलन को त्यागने पर भी कोई विचार नहीं कर रहे हैं, अभी उन का इरादा केवल और केवल अपनी क्षेत्रीय पार्टी की इमेज की रक्षा करने में जुटे रहना है। अभी-अभी रुस्तम-ए-लखनऊ का खिताब जीतने वाली पार्टी ने भी इस की आलोचना करने के बजाए प्रशंसा करना बेहतर समझा और सिद्ध किया कि वह अपनी नवअर्जित छवि को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भुनाना चाहती है। पूर्व रुस्तम-ए-लखनऊ की कुर्सी छिन जाने और अभी अभी राज्य सभा में कुर्सी कबाड़ लेने वाली बहन जी ने जनतंत्र की रक्षा करने के स्थान पर सस्पेंस खड़ा करने की कोशिश करते हुए बयान किया कि वे जानती हैं कि इन लोगों को राज्य सभा में लाने के पीछे सरकारी पार्टी की मंशा क्या है।

राठा सरदार की पार्टी ने सरकार के इस कदम की आलोचना की तो लगा कि कोई तो जनतंत्र को बचाने के लिए सामने आया। पर वे भी इतना ही कह कर रह गए कि सरकारी पार्टी ध्यान बांटने का काम कर रही है, उस का मन कभी पवित्र नहीं रहा, वह हमेशा कोई न कोई लाभ उठाने के चक्कर में रहती है। इस बार वह सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। इस बयान से भी जनतंत्र को कोई लाभ नहीं हुआ उन्हें जनतंत्र बचाने से अधिक इस बात का अफसोस था कि एक महाराष्ट्रियन का लाभ कांग्रेस कैसे उठा ले जा रही है।  सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब जनतंत्र साबित करने की जिम्मेदारी केवल अपने कंधों पर उठाने का दावा करने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी आलोचना करने के स्थान पर सरकार के इस कदम की प्रशंसा कर दी। करती भी क्या। उस के पूर्व अध्यक्ष पर चल रहे रिश्वत लेने के मुकदमे का फैसला आने वाला था और वह इस मामले में इतनी सी रियायत चाहती थी कि सरकारी पार्टी उस की आलोचना न करे।  

ब सब ओर से जनतंत्र खतरे में दिखाई दिया तो ऐसे दुष्काल में विदेश से कालाधन वापस लाने की जिद पर अड़े बाबा काम आए, उन्हों ने जम कर सरकार की आलोचना की।  सरकारी पार्टी डूबता जहाज है, वह जहाज को डूबने से बचाने के लिए सचिन-रेखा का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन यह प्रयोग भी उसे नहीं बचा पाएगा। बल्कि डूबते जहाज में बिठा कर वह इन दोनों की साख को भी डुबा देगा। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि ये दोनों जब राज्यसभा में जाएंगे तो वहाँ काले धन के मामले पर क्या बोलेंगे।

बाबा ने जनतंत्र की प्राण रक्षा की।  लेकिन उन की खुद की सुरक्षा इस से खतरे में पड़ गई है। पिछले कुछ बरसों से उनका झंडा उठाए उठाए घूमने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी बाबा से घोर नाराज हो गई। उस ने चेतावनी दे डाली कि बाबा को उन की हद में रहना चाहिए। जनतंत्र सोच में पड़ गया है कि आखिर बाबा की हदें कब, कहाँ, क्यों और कैसे तय की गई थीं? और तय की गई थीं तो अब तक मीडिया वालों को उन की हदों का पता क्यों नहीं लगा? यदि किसी को लग भी गया था तो जनता को क्यों नहीं बताया गया?