@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: राजनीति
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शुक्रवार, 13 मार्च 2020

नई पैकिंग


मान मेराज के घराने का नित्य का आहार था, जिसे वह मंडी में एक खास दुकान से लाता था। कभी वह मंडी की सब से बड़ी दुकान हुआ करती थी। उसका बाप भी उसी दुकान से लाता था। ऐसा नहीं कि मान केवल उसी दुकान पर मिलता हो। मंडी में और भी दुकानें थीं। उसकी बुआएँ दूसरी जगह से मान लेती थीं। बाप मर गया फिर भी वह उसी दुकान से सामान लेता रहा। दूसरी दुकानों वाले कम दाम पर मान देने की पेशकश कर के उसे बार बार आकर्षित करने की कोशिश करते थे। फिर अचानक उसकी वाली दुकान के ग्राहक कम होने लगे। उसने देखा कि मंडी में प्रतिद्वंदी दुकान वाले ने अपना सारा सैट-अप चेन्ज कर दिया है। दुकान का पूरी तरह आधुनिकीकरण कर दिया। यहाँ तक कि केवल फोन या एप पर आर्डर मिलते ही मान घर पहुंचने लगा। मेराज ने भी एप ट्राइ किया। उसे लगा कि पड़ोसी दुकानदार की दुकान पर भी कीमतें कमोबेश वही हैं जो वह अपनी स्थायी दूकान पर चुकाता है। पर उसके प्रतिद्वंदी की दुकान नवीकरण के बाद से चमकती है, पैकिंग चमकती है, दुकानदार भी खूब चमकता है।
कभी-कभी उसे लगता कि उसकी पुरानी दुकान को जितना दाम वह चुकाता है उस के मुकाबले उसे कम और दूसरों को अधिक मान दिया जा रहा है। कभी कभी उसकी बुआएँ भी कहती थीं अब वह दुकान छोड़ तू भी हमारी वाली दुकान पर आ जा। पर खून के रिश्तों पर व्यवसायिक रिश्ते भारी पड़ते ही हैं। वह मुस्कुरा कर बुआओं को जवाब दे देता कि उस दुकान से उसका रिश्ता बाप के वक्त से है, कैसे छोड़ दे? दुनिया बातें जो बनाएगी, लोग फजीहत करेंगे वगैरा वगैरा। लेकिन वह लगातार यह परखता रहता कि कहीं वह ठगा तो नहीं जा रहा है? जाँच करने पर पता लगता कि दाम में भी और मान में भी दोनों ही तरफ कोई खास फर्क नहीं है। वह पुरानी दुकान पर ही बना रहा।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: पक्षी
चित्र : सुरेन्द्र वर्मा से साभार
फिर एक दिन प्रतिद्वंदी दुकानदार ने पासा फैंका। अपने यहाँ उसे भोजन पर न्यौता। उस ने सोचा इतने मान से वह न्यौता दे रहा है तो जाने में क्या बुराई है। वह चला गया। उसे खूब मान मिला। यह आश्वासन भी मिला कि यदि वह उस की दुकान पर आ जाए तो निश्चित रूप से उसे विशिष्ट ग्राहक का मान मिलेगा। पुराना दुकानदार उस का मान तो करता है, लेकिन विशिष्ट नहीं। वह दूसरों का भी उतना ही मान करता है। वह वापस लौट कर पुराने दुकानदार के पास पहुँचा उस ने अपनी मांग रख दी कि उसे दूसरे ग्राहकों से अधिक मान मिलना चाहिए और मान भी कुछ डिस्काउंट के साथ मिलना चाहिए। दुकानदार ने उसे कहा कि हमने आप के मान में कभी कमी नहीं रखी। हम अपने स्थायी ग्राहकों को बराबर मान देते हैं। अब दूसरों से अधिक आपको देंगे तो दूसरों को लगेगा कि उनका अपमान कर रहे हैं। रहा सवाल डिस्काउंट का तो जिन जिन्सों में डिस्काउंट सम्भव है उनमें दिया ही जा रहा है, वे सभी ग्राहकों को देते हैं। उनको भी दे रहे हैं। यदि संभव होगा तो कुछ डिस्काउंट बढ़ा देंगे लेकिन देंगे सभी ग्राहकों को, वे ग्राहक-ग्राहक में भेद नहीं कर सकते।
बस फिर क्या था। मेराज की फौरन सटक गई। उसने कह दिया कि उसे प्रतिद्वंदी दुकानदार वह सब देने को तैयार है जो उस की मांग है। इसलिए वह सोचेगा कि वह इस दुकान से मान खऱीदना बंद कर प्रतिद्वंदी की दुकान से क्यों न खऱीदने लगे। उधर जिस दिन से वह न्यौते पर हो कर आया था उसी दिन बाजार में कानों-कान खबर उड़ गयी थी कि मेराज भी अब पुरानी वाली दुकान छोड़ नयी दुकान से मान लेने की सोच रहा है। मेराज शहर के बड़े आसामियों में से था तो खबर को खबरची ले उड़े। अखबारों में भी बात छप गयी। पुरानी दुकान के ग्राहक सतर्क हो गए। वे एक-एक कर दुकानदार के पास पहुँचकर बोलने लगे। मेराज को सुविधाएँ देने में उनको कोई आपत्ति नहीं है पर उन्हें भी वैसी ही सुविधाएँ चाहिए। पुराना दुकानदार सब को सहता रहा और कहता रहा। वह ऐसा नहीं कर सकता। वह सब ग्राहकों को समान समझता है और समान ही व्यवहार करेगा। इस के सिवा वह और कहता भी क्या? उसे पता था, प्रतिद्वंदी दुकानदार ने उस के व्यवसाय को खासा चोट पहुंचाई है। बाजार में नम्बर एक का स्थान तो उस से कभी का छिन चुका है। अभी भी वह नम्बर दो बना हुआ है तो इन्हीं पुराने ग्राहकों की बदौलत। उस के नए ग्राहक भी इन पुराने ग्राहकों की बदौलत ही आते हैं। वह इन ग्राहकों को कतई चोट नहीं पहुँचा सकता। उस ने मेराज को अलग से कोई सुविधा दी तो उसकी बची-खुची दुकानदारी को बत्ती लग जाएगी। वह चुप्पी खींच कर बैठ गया।
जल्दी ही मेराज पुरानी दुकान पहुँचा और उसका हिसाब-किताब कर आया। बाजार तो बाजार ठहरा। वहाँ चर्चाएँ चलीं। मेराज अब खुद की अपनी दुकान खोल लेगा। कुछ ने कहा उसे दुकानदारी करनी होती तो पहले ही कर लेता। उसका धंधा दूसरा है वह इस धंधे में क्यों पड़ेगा, वह जरूर नई दुकान पकड़ेगा। दो दिन तक ये सारी गपशप बाजारों, अखबारों, चैनलों के साथ साथ फेसबुक और व्हाट्सएप गलियारों में भी खूब चलीं। तीसरे दिन दोपहर को अचानक मेराज अपने घर से निकला और सीधे नई दुकान पर पहुंच गया। दुकान पर न नया दुकानदार था और न ही उसका मुनीम। बस कारिन्दे थे। लेकिन कारिन्दों ने उस का खूब जोर शोर से स्वागत किया। ये सब चैनलों ने लाइव दिखाया।
मेराज का दुकान बदलने का उत्साह ठंडा पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब वह दुकान पर पहुँचा तब दुकानदार को नहीं तो उस के मुनीम को तो वहाँ होना ही चाहिए था। दोनों नहीं थे, और यह सब चैनलों ने लाइव दिखा दिया। यह तो उस की भद्द हो गयी, डैमेज हो गया। नयी शुरुआत और वह भी डैमेज से। वह दुखी हुआ। उसने तुरन्त नए दुकानदार को काल लगवाई। पता लगा नए दुकानदार के सभी फोन एंगेज आ रहे हैं। मेराज के कारिन्दों ने मुनीम के फोन खंगाले तो उन पर घंटी जाती रही, किसी ने उठाया ही नहीं। थक हार कर कारिन्दे बैठ गए। सोचा कुछ देर बार फिर ट्राई करेंगे। कोई बीस मिनट ही बीते होंगे कि फोन आ गया। नई दुकान के मुनीम का था। फोन तुरन्त मेराज को पकड़ाया गया। मुनीम बोला- वो बाथरूम में था और किसी कारिन्दे को आप का फोन उठाने की हिम्मत न हुई। उसे मेराज के दुकान पर आने की खबर बहुत देर से हुई वर्ना दुकानदार और वह खुद दुकान पर ही उस का स्वागत करते। वे दोनों जहाँ थे वहाँ से दुकान पर तुरन्त पहुँचना मुमकिन नहीं था। अब वह खुद और दुकानदार फ्री हैं। वे चाहेँ तो मिलने आ सकते हैं।
मुनीम के फोन से मेराज की साँस में साँस आई। वह शाम को दोनों से मिलने गया। ध्यान रखा कि जब वह मिले वहाँ चैनल वाले जरूर हों। कुछ ही देर में चैनलों पर दुकानदार और मुनीम से मेराज की मुलाकात के वीडियो आ गए। कुछ हद तक डेमेज कंट्रोल हो चुका था। रात को मेराज ने अपने कारिन्दे को बुलाया और पूछा- नई दुकान से जो मान आया था उसके बिल चैक किए? मान चैक किया? कारिन्दे ने जवाब दिया- मान में तो कोई खास फर्क नहीं है, कुछ बीस है तो कुछ उन्नीस है। मान की कीमत कम लगाई है, पर पैकिंग अलग से चार्ज की है उसे मिला दें तो पुराने दुकानदार के मान से दाम कुछ अधिक ही लगे हैं। पर ये जरूर है कि मान जूट के बोरों की जगह खूबसूरत रंगे-पुते गत्तों  में आया है। ड्राइंगरूम में भी कुछ घंटे रखा रह जाए तो बुरा नहीं लगता।
मेराज सोच रहा था कि यह तो दो चार महीने के बाद पता लगेगा कि मान कैसा है और दाम कितने। दुकानदार और मुनीम दोनों मिल लिए हैं। चैनलों में वीडियो आ गए हैं। अभी तो मान की भर्ती पूरी हो गयी है। सुबह का डैमेज कंट्रोल कर लिया है। आगे की आगे देखेंगे।

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

आतंक पैदा करने वाली व्यवस्था . . .

प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है? 
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है- 
“मैं डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।

मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।

अंत में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं, वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।

ही पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”

कानून का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं। जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति का जनाजा निकल चुका होता है।

स हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

. . . यह भविष्य का युद्ध है।

ये अध्यादेश में अटक कर लटके रह गए। उस ने बिल पास करा लिया। कुछ भी हो, वह कह सकता है – "हम ने कोई कसर ना छोड़ी। बड़ा अच्छा विधेयक है, उस से अच्छा अधिनियम बनेगा। अब हाईकोर्ट चीफ जस्टिस का कोई पंगा नहीं होगा। हम रिटायर्ड या वर्तमान किसी भी हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जज को लोकायुक्त बना सकेंगे। पांच साल से पुराने मामले की लोकायुक्त जांच नहीं कर सकेगा। अब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। उठाएगा भी तो कहां उठाएगा? क्या कहा मीडिया में? उस की हम कहां परवाह करते हैं! बहुत सारा मीडिया तो अपने खैरख्वाहों ने खरीद ही लिया है। बाकी का जो है वह प्रीज्यूडिस्ड है, बेईमान है। हमने उस की नाक में नकेल डाल दी है।  लोकायुक्त जांच के दौरान अगर किसी खबरची ने उससे संबंधित खबर छापी या दिखाई तो हम उसे दो साल तक के लिए अन्दर कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर तो अपने पैदल मैदान में छाए हैं, वे हर एक उंगली वाले से निपट लेंगे। अब कोई कह के देखे, हमारे यहां लोकायुक्त नहीं है।"

"अब हम होंगे, हमारा स्पीकर होगा, हमारा एक मंत्री होगा, हमारे द्वारा नियुक्त हाईकोर्ट का जज होगा, हमारा अपना सतर्कता आयुक्त होगा। होने को तो विपक्ष का नेता भी होगा। पर वह अकेला क्या कर लेगा? अब कोई नहीं, जो हमे चुनौती दे सके। यही है नया रास्ता, जिस पर हम देश चलाएंगे और उस को चलना होगा।"

ल जाएगा देश . . . ?

“क्यो नहीं चलेगा? हम ने अपने प्रान्त की पार्टी चलाई। क्या छोटा, और क्या बड़ा जो भी हम से टकराया चूर चूर हो गया। अब है कोई इधर हम को कुछ बोलने वाला? फिर हम ने प्रान्त चलाया, जो बोला उस की जुबान बन्द कर दी। बोलने वाले बहुत बोले देश भर में, हाथ पैर पटके, सिर पटके, विदेश में पटके। पर हुआ क्या? इधर अपने प्रान्त में कोई है बोलने वाला? हम काउन्टर को एनकाउंटर करना जानते हैं। कोई नहीं बचा। जो है, उस की हिम्मत नहीं जो जबान को होठों के बाहर निकाले, खाने के लिए चुपचाप इधर-उधर घुमा लेता है वही बहुत है। वह जानता है, जरा भी चूं-चपड़ की कि जुबान से गया। जब इधर हो गया तो पार्टी में डंका बजाने वाले पैदा किए। बहुत उठ उठ कर पड़ रहे थे न वे बुजुर्गवार। क्या हुआ, आ गए न लाइन पर? है अब कोई बोलने वाला उधर पार्टी में? नहीं, न?"

र, सर लोग बात बनाने लगे हैं। सब कुछ खुद ही कर लेंगे, तो बाकी लोग क्या करेंगे?

“हम क्या करेंगे? करेंगे तो वे ही, हम थोड़े ही करेंगे। अब इस पोजीशन पर आ कर हम करते ही थोड़े रहेंगे! पर करेंगे वे ही जो हमारी मर्जी समझेंगे, जो न समझेंगे, वे न रहे हैं, और न अब रहेंगे।  हम सिर्फ कहेंगे, कहेंगे और कहेंगे। जैसे अभी कहते हैं वैसे ही कहेंगे और लोग करेंगे। जैसे अब तक प्रान्त में, पार्टी में करते रहे हैं, वैसे देश में करेंगे। और ना करेंगे, तो तुम्हें पता नहीं? सर हिटलर से मिला हथियार है हमारे पास, वह कभी असफल नहीं होता  ". . . आश्चर्य, आतंक, तोड़फोड़, हत्या से शत्रु की हिम्मत तोड़ कर रख देना, यह भविष्य का युद्ध है।"

शनिवार, 10 अगस्त 2013

क्या लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही नहीं चाहते हैं?

म लोग आम भाषा में बात करते हैं। भारत में रावण बुराइयों का प्रतीक है। लेकिन आम लोग आप को उस की बढ़ाई करते मिल जाएंगे। यह कहते हुए मिल जाएंगे कि वह बहुतों से अच्छा था। लेकिन जब वे इस तरह की बात करते हैं तो वे रावण के किसी एक गुण की बात कर रहे होते हैं जो तुलना किए जाने वाले व्यक्तित्व में नहीं होता। या वे उस दुर्गुण की बात कर रहे होते हैं जो रावण में नहीं था और आज कल के नेताओं में होता है। मसलन रावण ने सीता का अपहरण तो किया लेकिन उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाने की तो क्या उस के निकट आने की कोशिश तक नहीं की। वह भय और प्रीत दिखा कर ही सीता को अपना बनाने के प्रयत्न करता रहा। खैर! यह तो एक मिथकीय चरित्र था। लेकिन आम लोग सामान्य जीवन में क्रूरतम शासकों की तारीफ भी करते दिखाई दे जाते हैं। 
मेरे एक पड़ौसी अक्सर आज के जनतंत्र के मुकाबले राजाओं और अंग्रेजों के राज की तारीफ करते नहीं थकते थे। मुझे लगता था कि वे सिरे से ही जनतंत्र के विरुद्ध हैं और मैं उन से अक्सर बहस में उलझ जाता था। लेकिन धीरे धीरे मुझे पता लगा कि वे वास्तव में जनतंत्र के विरुद्ध नहीं हैं। लेकिन इस जनतंत्र के नाम पर जो छद्म चल रहा है, जिस तरह पूंजीपति-भूस्वामी एक वर्ग की तानाशही चल रही है और जिस तरीके से सत्ता में बने रहने के लिए इन वर्गों की पार्टियाँ और उन के नेता जनता को बेवकूफ बनाते हैं उस के वे सख्त खिलाफ थे और चाहते थे कि कानून का राज होना चाहिए न कि व्यक्तियों का। कानून का व्यवहार सब के साथ समान होना चाहिए। यदि अतिक्रमियों के विरुद्ध कार्यवाही हो तो सब के विरुद्ध समान रूप से हो न कि कुछ के विरुद्ध हो जाए और बाकी लोगों को छोड़ दिया जाए। 
स तरह के लोग वास्तव में यह प्रकट कर रहे होते हैं कि जनतंत्र तो ठीक है,  लेकिन आम जनता के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले लोगों और कानून का पालन न करने वाले लोगों के विरुद्ध तानाशाह जैसी सख्ती बरतनी चाहिए। लेकिन वे इसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाते और इतिहास के बदनाम तानाशाहों का हवाला दे कर कहने लगते हैं कि इन शासकों से तो वही अच्छा था। साधारण और गैर राजनैतिक लोगों से यह चूक इस कारण से होती है कि वे शासन के वर्गीय चरित्र और जनतांत्रिक पद्धति में सरकारों की भूमिका को नहीं समझ पाते। हम उन्हें इस चीज को समझाने के स्थान पर उन से बहस में उलझ पड़ते हैं। 
ज ही फेसबुक पर मेरे एक सूत्र पर टिप्पणी करते हुए राज भाटिया जी ने टिप्पणी कर दी कि "चोर लुटेरो से तो अच्छा हिटलर ही हे..." तब मैं ने उस का तुरन्त प्रतिाद किया कि "राज जी, आप गलत हैं, वह किसी से अच्छा न था। इंसानियत के नाम पर कलंक था।" मैं उन से इस बात पर वहाँ बहस नहीं करना चाहता था, क्यों कि मैं समझ रहा था कि राज जी हिटलर को अच्छा बता कर क्या कहना चाहते थे। लेकिन फिर मसिजीवी जी ने टिप्पणी की- "जरा बताए कि हिटलर चोर-लुटेरों या किसी से भी कैसे अच्‍छा हो सकता है ? खेद है कि आपका कथन शर्मनाक है।"
इस पर राज जी नाराज हो गए उन्हों ने टिप्पणी की -"जी आप को कोई अधिकार नही मुझ से प्रशन करने का, आप जैसे हालात मे खुश हे भगवान आप को उन्ही हालात मे रखे..."
राज जी ने उस के बाद मेरी टिप्पणी का उत्तर भी दिया "दिनेशराय द्विवेदी मानता हू आप की बात हिटलर इंसानियत के नाम पर कलंक हे, लेकिन उसे वहां तक लाया कोन था..? उसे वो सब करने पर मजबुर किस ने किया।....गंदी को साफ़ करने के लिये गंदी मे उतरना पडता हे, तो लोग उसे ही गंदा कहते हे, पहले सोचे वो इतना नीच कैसे हो गया... जो आम आदमी था." खैर!
स पोस्ट की बात छोडें। अपनी बात पर आएँ। वास्तव में लोग जनतंत्र भी चाहते हैं और जनहित के विरुद्ध काम कर रहे तत्वों पर सख्त तानाशाही भी। लेकिन जिस तरह का तंत्र वे चाहते हैं उसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पातेष उस के लिए उन के पास उदाहरण भी नहीं हैं। वैसे हालातों में वे बदनाम और क्रूर तानाशाहों तक का उदाहरण दे बैठते हैं। 
हाँ तक मैं समझता हूँ कि वे यह चाहते हैं कि आम श्रमजीवी जनता के लिए जनतंत्र होना चाहिए लेकिन उन्हें समाज के नियम और कानून के साथ चलाने के लिए सख्ती भी चाहिए। मौजूदा पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग राजनेताओं और नौकरशाहों को भ्रष्ट कर के जिस तरह से अपनी तानाशाही चलाता है उस से निजात भी चाहिए वह निजात इन वर्गों पर तानाशाही के चलते ही संभव हो सकती है। वस्तुतः ऐसे लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही चाहते हैं। जिस में आम श्रमजीवी जनता को लोकतांत्रिक अधिकार मिलें, लेकिन उन्हें अनुशासित रखने के लिए सख्ती भी हो साथ ही पूंजीपति-भूस्वामियों के लुटेरे वर्गों और उन के सहयोगी राजनेताओं व नौकरशाहों पर तानाशाही भी हो।

शनिवार, 3 अगस्त 2013

राजनीति के विकल्प का साहित्य रचना होगा।

  -अशोक कुमार पाण्डे

"प्रेमचन्द जयन्ती पर साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द पर परिचर्चा" 

 

'विकल्प' जन-सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा  प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर आयोजित परिचर्चा रविवार 28 जुलाई को दोपहर बाद प्रेसक्लब भवन में आयोजित की गई थी। प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजित समारोह सदैव ही बरसात से व्यवधानग्रस्त  हो जाते हैं।  इस परिचर्चा के दिन भी दिन भर बरसात होती रही। लेकिन बरसात के बावजूद भी परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओँ और श्रोताओं की संख्या अच्छी  खासी थी। उस दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि मुख्य अतिथि अशोक पाण्डे जी के वापस लौटने की ट्रेन निरस्त हो गई और उन्हें स्टेशन से वापस लौटना पड़ा। सुबह बस से ही उन की वापसी संभव हो सकी।  



इस परिचर्चा का विषय 'साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द' था। अतिथियों को स्वागत के बाद परिचर्चा का आरंभ करते हुए विकल्प के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य रचनाकारों-कलाकारों के बीच संवाद करते हुए शिक्षण और रचनाशीलता के लिए नई ऊर्जा का संचार करना तथा विचारहीनता के विरुद्ध मुहिम चलाते हुए समाज के अन्तर्विरोधों की समझदारी विकसित करना है। मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य और कला का एक मात्र स्रोत है। फिर भी साहित्य और कला में जीवन का प्रतिबिम्बित होना ही पर्याप्त नहीं है उसे वास्तविक जीवन से अधिक तीव्र, अधिक केंद्रित, विशिष्ठतापूर्ण, आदर्श के अधिक निकट और सांन्द्र होना चाहिए जिस से वह  पाठक और कला के भोक्ता को अधिक तीव्रता  के साथ प्रभावित कर सके। साहित्य और कलाएँ राजनीति से अछूते नहीं होते अपितु वे राजनीति के अधीन होते हैं, लेकिन वे राजनीति को प्रभावित भी करते हैं। वे जनता को जाग्रत करते हैं, उत्साह से भर देते हैं और वातावरण  को रूपान्तरित करने के लिए एकताबद्ध होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं।  कला और साहित्य को समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।   खुद प्रेमचन्द अक्सर कहते थे कि "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ।" वे कहते थे " साहित्य जीवन की आलोचना है।" "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिस में उच्च चिन्त हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे-सुलाए नहीं, क्यों कि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।" अपनी अर्धांगिनी शिवरानी देवी से उन्हों ने कहा कि "साहित्य, समाज और राजनीति तीनों एक ही माला के तीन अंग हैं, जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उस का समाज भी अच्छा होगा, समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। हमें आज की इस परिचर्चा में प्रेमचंद के साहित्य व जीवन के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज और राजनीति के अन्तर्सबंधों की छानबीन करनी है।

परिचर्चा का आरंभ करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि प्रेमचन्द समाज के चितेरे थे। हम आसपास के साधारण और विशिष्ठ चरित्रों के नजदीक रह कर भी जितना नहीं जान पाते उस से अधिक हमें प्रेमचन्द का साहित्य उन के बारे में बताता है। उन की रचनाएँ केवल यह नहीं बताते कि लोग कैसे हैं और कैसा व्यवहार करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं और ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। चरित्रों की वर्गीय और सामाजिक परिस्थितियाँ उन के जीवन और व्यवहार को निर्धारित करती हैं। प्रेमचन्द इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं और वे आज भी अपने साहित्य के उपभोक्ता को अन्य रचनाओं से अधिक दे रही हैं। आज का सामान्य व्यक्ति जब राजनीति को देखता, परखता है तो उस की प्रतिक्रिया होती है कि राजनीति दुनिया की सब से बुरी चीज है। सामान्य व्यक्ति का यह निष्कर्ष गलत नहीं हो सकता क्यों कि वह उस के जीवन के वास्तविक अनुभव पर आधारित सच्चा निष्कर्ष है।  सामान्य व्यक्ति जानता है कि राजनीति से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह नहीं सोच पाता कि यदि राजनीति सब से बुरी है तो फिर उस का विकल्प क्या है? लेकिन प्रेमचंद अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' में उस का विकल्प सुझाते हैं "गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खातमा हो जाता है" हम समझ सकते हैं कि प्रेमचन्द यहाँ समाज से वर्गों की समाप्ति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि राजनीति का विकल्प ऐसी नीति हो सकती है जिस से अंतत समाज से राज्य ही समाप्त हो जाए। 

डॉ. प्रेम जैन ने कहा कि प्रेमचन्द गांधी जी और स्वतंत्रता आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित थे। लेकिन उन की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि वे स्वतंत्रता के रूप में सामन्ती और पूंजीवादी शोषण से मुक्त समाज चाहते थे। 
शून्य आकांक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का काल कृषक सभ्यता के ह्रास और औद्योगिक सभ्यता के उदय का काल था। उन्हों ने उस काल के सामाजिक यथार्थ और अन्तर्विरोधों को अत्यन्त स्पष्टता के साथ अपने साहित्य में उजागर किया। सर्वाधिक संप्रेषणीय भाषा का प्रयोग किया। जीवन का यथार्थ चित्रण किया जिस के कारण वे संपूर्ण भारत में सर्वग्राह्य बने। 

प्रो. हितेष व्यास ने कहा कि प्रेमचन्द कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज के साहित्य को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द ने साहित्य और भाषा के माध्यम से राजनीति की। उन्हों ने अपने राजनैतिक विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन की भाषा उन की राजनीति थी। उन की साहित्यिक यात्रा एक विकास यात्रा है उन्हों ने गांधीवाद से समाजवाद तक का सफर तय किया। 
मुख्य वक्ता अशोक कुमार पाण्डे ने कहा कि साहित्य, समाज और राजनीति तीनों नाभिनालबद्ध हैं। कोई चीज राजनीति से परे नहीं होती, निष्पक्षता का भी अपना पक्ष होता है, राजनीति विहीनता की भी अपनी राजनीति है जो सदैव यथास्थिति के पक्ष में जाती है। हम जब प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो देखें कि उन के पास क्या परम्परा थी? साहित्य के नाम पर ऐयारी का साहित्य था। भाषा के नाम पर उर्दू फारसी भाषा की परंपरा थी। उन्हें बुनियाद भी रखनी थी और मंजिलें भी खड़ी करनी थीं। हलकू पहली बार साहित्य में नायक बना तो का्य वह फारसी शब्दों से लबरेज उर्दू बोलता या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी हिन्दी बोलता? तब हलकू की बोलचाल की भाषा उन के साहित्य की भाषा बनी। उन के साहित्य के पात्र अपनी जैसी भाषा बोलते हैं। उन का पात्र यदि पण्डित है तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता है, मौलाना है तो अरबी फारसी के शब्द उस की बोली में आते हैं। जैसा पात्र है वैसी भाषा है। उन की आरंभिक कहानियों में 'मंत्र' जैसी कहानियाँ भी हैंऔर 'कफन' भी। उन का साहित्य संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उन के साहित्य में गांधी के आन्दोलन का प्रभाव आना स्वाभाविक था।उन के कुछ साहित्य में टाल्सटाय का प्रभाव है लेकिन वे इन सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते हैं और समाजवाद तक पहुँचकर कहते हैं कि मैं बोल्शेविक विचारों का कायल हो गया हूँ। 

उन्हों ने कहा कि यह सही है की प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है। लेकिन यह जितनी उनकी सफलता है, उससे कहीं अधिक हमारे समाज की असफलता भी है। प्रेमचन्द के बाद देश को साम्राज्यवदी शासन से मुक्ति मिली। हम ने अपनी सार्वभौम सरकार की स्थापना की, एक तथाकथित दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र स्थापित कर लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला। गाँवों में अभी भी वही शोषण बरकरार है, गाँव का किसान उतना ही मजबूर है और नगर में मजदूर भी उतना ही मजबूर है। बल्कि शोषण का दायरा बढ़ा है। अमीरों की संख्या और अमीरी बढ़ी है तो गरीबों की संख्या और गरीबी भी बढ़ गई है। इंसान की जिन्दगी और अधिक दूभर हुई है। जनतंत्र में वोट के जरिए परिवर्तन का विकल्प सामने रखा जाता है लेकिन वोट के जरिए जिसे हटा कर जो लाया जा सकता है उस में कोई अन्तर आज दिखाई नहीं देता।  ऐसे में मौजूदा राजनीति का विकल्प जरूरी हो गया है। एक विकल्पहीनता की स्थिति दिखाई देती है। लेकिन समाज में कभी विकल्पहीनता नहीं होती। विकल्प हमेशा होता है। आज के समय में भी विकल्प है। हमें साहित्य में मौजूदा राजनीति के उसी विकल्प को उजागर करना होगा। हमें उसी  विकल्प का साहित्य रचना होगा। 

हाड़ौती के गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ ने कहा। प्रेमचन्द को समझना अलग बात है। मैं गाँव का हूँ और गाँव में सभी को प्रत्यक्ष देखा है। लेकिन गाँव का यथार्थ तब समझा जब प्रेमचन्द को पढ़ा। उन्हों ने समाज के यथार्थ को समझाया कि राजनीति उन के दुखों का कारण है। कर दबे, कुचले लोगों को एक होने संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हमें उन की इसी साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

अम्बिकादत्त ने कहा कि प्रेमचन्द और उन की परम्परा को समझने के लिए हमें उन के साहित्य को फिर से पढ़ना चाहिए। उन्हों ने हिन्दी के साहित्य को चन्द्रकान्ता के तिलिस्म से आगे बढ़ाया और समाज के बीच ले गए।  डा. रामविलास शर्मा कहते हैं कि प्रेमचन्द कबीर के बाद सब से प्रखर व्यंगकार हैं। उन से सीखते हुए लेखकों को भद्रलोक के घेरे से बाहर निकल कर जीवन की यथार्थ छवियाँ अंकित करनी चाहिए। 
परिचर्चा के अध्यक्ष बशीर अहमद 'मयूख' ने कहा कि प्रेमचन्द सही अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। यह विवाद बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल होनी चाहिए या वह राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं हो सकती। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और वह राजनीति को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे को मार्ग दिखाते हैं। 

परिचर्चा का संचालन करते हुए उर्दू शायर शकूर अनवर ने कहा कि प्रेमचन्द हिन्दी के ही नहीं उर्दू के भी उतने ही महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। भाषा की सरलता के सम्बन्ध में जो कुछ वे हिन्दी में करते और कहते हैं उन्हों ने ही सब से पहले उर्दू में भी भाषा की सरलता के बिन्दु पर जोर दिया। 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

अपनी राजनीति खुद करनी होगी

दिन भर अदालत में रहना होता है। लगभग रोज ही जलूस कलेक्ट्री पर प्रदर्शन करने आते हैं। पर उन में अधिकतर बनावटी होते हैं।  उस रोज बहुत दिनों के बाद एक सच्चा जलूस देखा। वे सेमटेल कलर ट्यूब उद्योग के श्रमिक थे। ठीक दीवाली के पहले उन के कारखाने को प्रबंधन छोड़ कर भाग गया। श्रमिक उसे कुछ दिन चलाते रहे। लेकिन कच्चा माल और बिजली और गैस कनेक्शन कट जाने से कारखाना बंद हो गया। कारखाना अब श्रमिकों के कब्जे में है उद्योगपति कोटा आने से डर रहा है। कहता है वह अब उद्योग को चलाने की स्थिति में नहीं है। अर्थात उद्योग सदैव के लिए बंद हो गया है। कानून में प्रावधान है कि उद्योग बंद हो तो कंपनी या उद्योग का स्वामी श्रमिकों को बकाया वेतन, मुआवजा. ग्रेच्चूटी आदि का भुगतान करे और उन के भविष्य निधि खातों का निपटान करे। लेकिन उद्योगपति की नीयत ठीक नहीं है। इसे श्रमिक, सरकार और नगर के बहुत से लोग जानते हैं। उद्योगपति कहता है उसे कारखाने में पड़ा माल बेच लेने दिया जाए फिर वह श्रमिकों को बकाया दे देगा। लेकिन बहुत से उद्योगपति श्रमिकों का बकाया चुकाए बिना कारखाना बंद कर भाग चुके हैं और श्रमिक लड़ते रह गए।

श्रमिकों को बकाया दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की है। पर सरकार तो खुद पूंजीपतियों की है। उस का कहना है कोई कानून नहीं है जो कि श्रमिकों को उन का बकाया दिला सके। लेकिन सरकार के पास अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। वह चाहे तो उद्योग की संपत्ति कुर्क कर के कब्जा कर सकती है। करोड़ों रुपए कथित जनहित कामों में लुटा कर ठेकेदारो को अमीर बनाने वाली सरकार चाहे तो श्रमिकों का बकाया अपने पास से चुका कर उद्योग की संपत्ति कुर्क और नीलाम कर के उसे वसूल कर सकती है। बिना अनुमति कोई उद्योगपति कारखाने को बंद नहीं कर सकता, यह अपराध है। चाहे तो सरकार उद्योगपति के विरुद्ध अपराधिक मुकदमा चला सकती है। इस अपराध को संज्ञेय और अजमानतीय बना दिया जाए तो उन्हें गिरफ्तार भी कर सकती है। पर वह अपने ही आकाओं के खिलाफ ऐसा क्यों करने लगी?


द्योग बंद होने का कारण स्पष्ट है। बाजार में कलर पिक्चर ट्यूबों का स्थान एलईडी आदि ने ले लिया है उन की मांग कम होती जा रही है, मुनाफा कम हो गया है। उद्योगपति को मुनाफा चाहिए। वह इस उद्योग से पूंजी निकाल चुका है। बाकी को निकालने में सरकार उस की मदद करेगी। लेकिन मजदूरों की नहीं।


जदूर समझने लगे हैं कि उन की किसी को परवाह नहीं। कभी साथ लगते भी हैं तो इलाके के छोटे किसान उन का साथ देते हैं जो उन के स्वाभाविक परिजन हैं। उन्हें अपने जीवन सुधारने हैं तो खुद ही कुछ करना होगा। यह सब वे अपनी एकता के बल पर ही कर सकते हैं। उन्हें खुद अपनी एकता का निर्माण करना होगा और फिर किसानों की। उन्हें अपने नेता खुद बनाने होंगे जो उन के साथ दगा न करें। बिना मजदूर किसानों की एकता का निर्माण कर सत्ता पर कब्जा किेए वे अपने जीवन में तिल मात्र सुधार नहीं ला सकते। उन्हें खुद अपनी राजनीति खुद करनी होगी।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जिस दिन देश के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में किसी न किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार का समाचार प्रकाशित न होता हो। घरों, कार्यस्थलों, विद्यालयों, रेलों, बसों, मनोरंजन स्थलों और मार्गों पर कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे लिंगभेद के कारण उत्पीड़न का शिकार न होती हों। स्त्रियाँ आम तौर पर इस उत्पीड़न को सहती हैं और अक्सर दरकिनार करती हैं। लोग कह सकते हैं कि वे उस का प्रतिकार क्यों नहीं करतीं? लेकिन कब तक वे प्रतिकार करें? कोई दिन तो ऐसा नहीं जब उन्हें यह सब न सहना पड़ता हो। वे बाजार के लिए निकलती हैं, दफ्तरों, स्कूलों आदि को आती-जाती हैं तो उन्हें मार्ग में नाना प्रकार की फब्तियों, छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर ये लोग समूह में तेजी से आते हैं और निकल जाते हैं। फिर पुरुषों की भीड़ से भरे स्थानों पर वे स्वयं को अकेली और असहाय महसूस करती हैं। उन्हें इन मार्गों पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वे सहती चली जाती हैं। जब वे शिकायत करती हैं तो सब से पहली मुसीबत उन्हीं पर टूट पड़ती है। उन का पुरुष प्रधान परिवार उन के घर से बाहर निकलने को प्रतिबंधित करने को उतारू हो जाता है। जिस से समाज में वे जो अपना स्थान बनाना चाहती हैं उस में बाधा उत्पन्न होती है। उन की पढ़ाई छुड़ा दी जा सकती है, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है। यदि वे मौके पर उत्पीड़न का प्रतिकार करें तो उन्हें उस से अधिक का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि अभी हाल में गौहाटी में हुआ।

नीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?

भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?

त्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संपत्ति या स्वतंत्र मनुष्य?

गुआहाटी में लड़कों के समूह द्वारा लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उस के कपड़े फाड़ देने का प्रयास करने की घटना, फौजियों द्वारा जंगल में एक लड़की के साथ छेड़खानी का प्रयत्न, लखनऊ में पुलिस दरोगा द्वारा मुकदमे में फँसाने का भय दिखा कर महिला के साथ संबंध बनाने की कोशिश, बेगूँसराय में मंदिर में दलित महिला के साथ सार्वजनिक मारपीट यही नहीं इस के अलावा घरों में खुद परिजनों द्वारा महिलाओं और बच्चियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपराधों की अनेक घटनाएँ लगातार मीडिया में आती रही हैं। मीडिया में आने वाली इन घटनाओं की संख्या हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति का नमूना भर हैं। इस तरह की सभी घटनाएँ रिपोर्ट होने लगें तो पुलिस थानों के पास इन से निपटने का काम ही इतना हो जाए कि वे अन्य कोई काम ही न कर सकें। स्थिति वास्तव में भयावह है।

ड़बड़ी हमारे समाज में है, हमारी व्यवस्था और राजनीति में है। अधिकांश लोग परम्परा और रिवाजों के बहाने स्त्रियों को समानता का अधिकार देने के हिमायती नहीं हैं। वे स्त्रियों को मनुष्य नहीं अपनी संपत्ति समझते हैं। बेटी उन के लिए पराया धन है जिस से वे जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहते हैं, तो बहू परिवार की बिना वेतन की मजदूर और बेटे के लिए उपभोग की वस्तु है। दीगर महिलाएँ उन के लिए ऐसी संपत्ति हैं जिन्हें अरक्षित अवस्था में देख कर इस्तेमाल किया जा सकता है वहीं अपने घर की महिलाओं के प्रति उन में जबर्दस्त असुरक्षा का भाव है जो उन्हें बंद दीवारों के पीछे रखने को बाध्य करता है। लेकिन आजादी के बाद जिस संविधान को हम ने अपनाया और जो देश का सर्वोपरि कानून है वह स्त्रियों को समानता प्रदत्त करता है। समाज की वास्तविक स्थितियों और कानून के बीच भारी अंतर है। समाज का एक हिस्सा आज भी स्त्रियों को संपत्ति बनाए रखना चाहता है तो एक हिस्सा ऐसा भी है जो उन की समानता का पक्षधर ही नहीं है अपितु व्यवहार में समानता प्रदान भी करता है।

कानून और समाज के बीच भेद को समाप्त करने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो यह कि संविधान और कानून को समाज के उस हिस्से के अनुरूप बना दिया जाए जो महिलाओं को मनुष्य नहीं संपत्ति मान कर चलता है। दूसरा यह कि समाज को संविधान की भावना के अनुसार ऐसी स्थिति में लाया जाए जहाँ स्त्रियों और पुरुषों के समान अधिकार हों दोनों एक स्वतंत्र मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत कर सकें। बीच का कोई उपाय नहीं है। पहला उपाय असंभव है। स्वतंत्र मनुष्य की तरह जी रही स्त्रियों को फिर से संपत्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। हमें समाज को ही उस स्थिति तक विकसित करना होगा जिस में स्त्रियाँ स्वतंत्र मनुष्य की भाँति जी सकें। इस बड़े परिवर्तन के लिए समाज को एक बड़ी क्रांति से गुजरना होगा। लेकिन यह कैसे हो सकेगा? उस परिवर्तन के लिए वर्तमान में कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं? कौन सी शक्तियाँ इस परिवर्तन के विरुद्ध काम कर रही हैं। हमारी राज्य व्यवस्था और राजनीति की उस में क्या भूमिका है? और क्या होनी चाहिए? इसे जाँचना होगा और भविष्य के लिए मार्ग तय करना होगा।

शनिवार, 2 जून 2012

शिखंडी! गलत जवाब है

लत, गलत, बिलकुल गलत जवाब है!

च्चे¡ तुम ने सवाल का उत्तर गलत दिया है। चाहते हुए भी तुम्हें नम्बर नहीं दे सकता। तुम्हारे लिए मेरे पास सिर्फ अंडा है। मुर्गी का, या फिर अबाबील का, तोते, का या फिर चील का। बस¡ तुम्हारे पास यही एक च्वाइस है, जिस का चाहो, ले लो। बस एक ही मिलेगा।

मानता था, मैं तुम्हें श्रेष्ठ विद्यार्थी। चाहता था, अव्वल आओ तुम। लेकिन  सब गुड़ गोबर कर दिया। तुमने नहीं पढ़ी महाभारत। फिर भी उस के उदाहरण देने चले? केवल सुन सुना कर, और लोगों से, पोंगा-पण्डितों से। देखा, क्या निकला नतीजा? अंधेरी रात में लालटेन भभक उठा।

ब, पिटोगे तुम। जरूर पिटोगे। तुम ने अपराध ही ऐसा ही किया है। होता कोई ऐरा गैरा, नत्थू खैरा तो बच भी निकलता। पर तुमने तो कानून पढ़ा है। तुम कैसे बचोगे? बच गए लाठियों से, बंदूक से, तोप से तमंचे से तो कानून से घेरे जाओगे। कहाँ जाओगे? कहाँ भागोगे? बच नहीं पाओगे।

क्या सोच कर? क्या सोच कर तुमने कहा? उस मितभाषी, विनम्र, दुबले-पतले, दाढ़ी-पगड़ी वाले, सिर झुकाए, मौन रह कर कार-सेवा कर रहे शालीन बूढ़े को। क्या सोच कर कहा तुमने शिखंडी? तुम जानते नहीं, कौन था, या थी शिखंडी? बिना जाने ही उसे, चस्पा कर दिया तुम ने, उस के नाम पर। तो अब जान लो कौन था, या थी शिखंडी?

भीष्म को तो जानते हो? उस ने किया था अपहरण जिन तीन बहनों का, उन मे से एक थी जो प्यार करती थी किसी से? और रचाना चाहती थी अपना ब्याह उसी से। हर लिया उसे, भीष्म ने, अपने भाई, विचित्रवीर्य के लिए। लेकिन जो प्रेम करती थी किसी और से, कैसे बनाता वह भाभी उसे। मुक्त कर दिया भीष्म ने। किन्तु अपहरण तो दाग था, स्त्री के लिए, कौमार्य उस का हो चका था, अब वह थी कलंकित, भीष्म  के सानिध्य से। त्याग दिया, अपनाया नहीं प्रेमी ने भी उसे। जल उठे उस के क्रुद्ध नयन, बदला लेने को हो गई कृत संकल्प। अबला से बनी सबला। वही थी, बदले की आग ने उसे ही बनाया था शिखंडी। बाप बदला, वेष बदला, की प्रतीक्षा युद्ध के घोष की। तब तान सीना वह खड़ी थी, शत्रु की पाँत में, ठीक भीष्म के सामने। पाप के बोझ से दबे भीष्म ने देखा उसे, शस्त्र अपने धरा पर डाल दिए। फिर तभी लगा छोड़ने तीर, अपने ही  पितामह पर अर्जुन, वीर?

ब बताओ¡ क्यों कहा था? जाने बिना ही, उस बूढ़े को शिखंडी? अब जान कर भी कथा मिथक की। क्या फिर कहोगे? उसे शिखंडी?
और  कहा तो ...
लाओगे कहाँ से वह भीष्म, जिस ने किया हो अपहरण उस बूढ़े का? कौन  है, जिस के सामने खड़ा है? बूढ़ा, बन शिखंडी। कौन है जो उस का प्रेमी बना है? किस ने उसे प्रेम से वंचित किया है? कौन  है जो शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन बना वार करता है?

हाँ तो आड़ ले कर वार करने दुर्योधन खड़ा है।  फिर आड़ जिस का ली गई है, वह क्यों कर शिखंडी हो सकता है?

तो बच्चे? इस बार मिलेगा तुम्हें मात्र अंडा। उत्तीर्ण तुम को कर सकता नहीं। जो ढूंढ लो कोई नयी उपमा, ठीक से पढ़ पढ़ा कर मिथक को। पूरक में बैठ जाना। तब देख लेंगे काबीलियत तुम्हारी, हो सके भी हो या नहीं, उत्तीर्ण होने लायक तुम? 

शुक्रवार, 18 मई 2012

डर के जो हाँ भर रहा, वह भी घोंघा बसन्त

घोंघा एक विशेष प्रकार का जंतु है जो अपने जीवन को एक कड़े खोल में बिता देता है। इस के शरीर का अधिकांश हिस्सा सदैव ही खोल में बंद रहता है। जब इसे आहार आदि कार्यों के लिए विचरण करना होता है तो यह शरीर का निचला हिस्सा ही बाहर निकालता है जिस में इस के पाद (पैर) होते हैं और जिन की सहायता से यह चलता है। जैसे ही किसी आसन्न खतरे का आभास होता है यह अपने शरीर को पूरी तरह से खोल में छिपा लेता है। खतरे के पल्ले केवल कड़ा खोल पड़ता है। खतरे की संभावना मात्र से खोल में छिपने की इस की प्रवृत्ति पर अनेक लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। इसे आधार बना कर सब से खूबसूरत कहानी महान रूसी कथाकार अंतोन चेखोव की ‘दी मेन इन दी केस’ है जिस के हिन्दी अनुवाद का शीर्षक ही ‘घोंघा’ है। इस कहानी को पढ़ कर मनुष्य की घोंघा प्रवृत्ति का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

तरे से बचने के लिए कड़े खोल का निर्माण करने और खतरे की आशंका मात्र से खोल में छुप जाने की इस घोंघा प्रवृत्ति को व्यंग्य की धार बनाने का उपयोग साहित्य में अनेक लोगों ने किया, लेकिन घोंघे की चाल की विशिष्ठता का उपयोग बिरले ही देखा गया है। विभिन्न प्रजाति के स्थलीय घोंघों की चाल नापे जाने पर प्राप्त परिणामों के अनुसार उन की न्यूनतम चाल 0.0028 मील प्रतिसैकंड और अधिकतम चाल 0.013 मील प्रति सैंकंड है। इस अधिकतम चाल से कोई भी घोंघा एक घंटे में 21 मीटर से अधिक दूरी नहीं चल सकता। पिछली सदी के महान भारतीय व्यंग्य चित्रकार केशव शंकर पिल्लई ने घोंघे की चाल का अपने व्यंग्य चित्र में जिस तरह से उपयोग किया उस का कोई सानी नहीं है। इस व्यंग्य चित्र में भारतीय राजनीति की दो महान हस्तियाँ सम्मिलित थीं। इस व्यंग्य चित्र को सामाजिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित किए जाने को कुछ लोगों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और उसे पुस्तक से हटाने की मांग को ले कर संसद में हंगामा खड़ा किया। सरकार इस विवाद के सामने बेदम नजर आई। विभागीय मंत्री जी को खेद व्यक्त करते हुए उस व्यंग्य चित्र को पाठ्यपुस्तक से हटाने की घोषणा करनी पड़ी।


केशव शंकर पिल्लई द्वारा रचित व्यंग्य चित्र
भारतीय संसद नित नए प्रहसनों के लिए पहले ही कम ख्यात नहीं है। इस नए प्रहसन ने संसद की छवि में चार चांद और लगा दिए। इस व्यंग्य चित्र में घोंघे को निर्मित होते हुए संविधान के रूप में दिखाया गया है। संविधान के इस घोंघे पर संविधान सभा के सभापति डा. भीमराव अम्बेडकर सवार हैं और चाबुक चला रहे हैं, जिस से घोंघा दौड़ने लगे और शीघ्रता से अपनी मंजिल तय कर सके। घोंघे की इस चाल से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी प्रसन्न नहीं हैं और वे भी चाबुक ले कर घोंघे पर पिले पड़े हैं। सारे भारत की जनता इन दोनों महान नेताओं की इस चाबुकमार पर हँस रही है। इस व्यंग्य चित्र से प्रदर्शित हो रहा है कि दोनों महान नेताओं को संविधान का निर्माण संपन्न होने की इतनी व्यग्रता है कि वे यह भी विस्मृत कर गए कि यह जल्दी का काम नहीं अपितु तसल्ली और गंभीरता से करने का काम है, जिस के महत्व से देश की पढ़-अपढ़ जनता तक परिचित है।  इसीलिए संविधान को इस व्यंग्य-चित्र में घोंघे के रूप में दिखाया गया है। चाहे कितने ही चाबुक बरसाए जाएँ घोंघा तो अपनी चाल से ही चलेगा, उसे दौड़ाया नहीं जा सकता। ऐसे में घोंघे को चाबुक मार कर दौड़ाने का प्रयत्न तो एक मूर्खतापूर्ण कृत्य ही कहा जा सकता है। वास्तव में कोई ऐसा करे और उसे देखने वाला उस पर हँसे न तो क्या करे? इस व्यंग्य चित्र में दोनों महान नेताओं के इस कृत्य पर जनता का हँसना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया है।

स व्यंग्य चित्र से न तो डाक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिष्ठा को कोई आँच पहुँचती है और न ही नेहरू के सम्मान पर। हाँ उन की स्वाभाविक व्यग्रता जनता के सामने हँसी का कारण अवश्य बनती है। यह व्यंग्य चित्र दोनों नेताओं की व्यग्रता को जनता के प्रति उन की प्रतिबद्धता और कर्तव्यनिष्ठता के रूप में प्रदर्शित करता है। मुझे तो लगता है कि यदि किसी पाठ्य पुस्तक में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति को समझाने की कोशिश की जाए तो इस व्यंग्य चित्र को अवश्य ही उस में शामिल होना चाहिए। पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने भी यही किया भी था। गाँव का एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति और किसी महान देश का राष्ट्रपति यदि कर्तव्यबोध से ग्रस्त हो कर अनजाने में कोई मूर्खता कर बैठे। तो पता लगने पर वह उस पर स्वयं भी ठठा कर हँस सकता है। प्रसिद्ध लेखक और कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नम्बूद्रीपाद जो बोलने में हकलाते थे से एक दिन जवाहरलाल नेहरू ने पूछा था -क्या आप हमेशा हकलाते हैं। तब नम्बूद्रीपाद ने उत्तर दिया था -नहीं केवल बोलते समय हकलाता हूँ। जवाहरलाल नेहरू अपने मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर स्वयं ही ठहाका लगा कर हँसे थे। 
व्यंग्य चित्र प्रसिद्ध व्यंग्यकार 'इरफान' के सौजन्य से
संसद में जब यह प्रश्न उठा तो सरकार को उस का सामना करना चाहिए था और उस मुद्दे पर हंगामा नहीं बहस होनी चाहिए थी। सदन में उपस्थित विद्वान सांसदों को इस मामले की विवेचना को सदन के समक्ष रखना चाहिए था। यदि फिर भी संतुष्टि नहीं होती तो इस मामले को साहित्य और कला के मर्मज्ञों की एक समिति बना कर उस के हवाले करना चाहिए था और उस की समालोचना की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। डा. भीमराव अम्बेडकर को भगवान का दर्जा दे कर अपनी राजनीति भाँजने वाले लोगों का खुद डा. अम्बेडकर से क्या लेना देना? उन का मकसद तो संसद में हंगामे की तलवारें भांज कर वीर कहाना मात्र था। सरकारी पक्ष ने बाँकों के इस प्रहसन को एक गंभीर चुनौती के रूप में स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी गलती के रूप में स्वीकार करते हुए सीधे सीधे आत्मसमर्पण कर दिया। जैसे जूता मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता, वैसे ही व्यंग्य चित्र का पाठ्य पुस्तक में क्या काम? मंदिर में जूते के प्रवेश नही पा सकने से उस का महत्व कम नहीं हो जाता। अपितु जो व्यक्ति जूते को बाहर छोड़ कर जाता है उसका ध्यान भगवान की प्रार्थना में कम और जूते में अधिक रहता है।

पहले भी कम नहीं थे, घर में घोंघा बसन्त।
फिर फिर चुने जाते हैं, घर में घोंघा बसन्त।।
चाबुक जिस के हाथ है, वह भी घोंघा बसन्त।  

डर के जो हाँ भर रहा, वह भी घोंघा बसन्त।।

शनिवार, 5 मई 2012

बोलने की हदें?


नतंत्र है तो वाक स्वातंत्र्य भी। सब को अपनी बात कहने का अधिकार भी है। अब सरकार अभिनेत्री रेखा और क्रिकेटर सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे, सिफारिश मानने को बाध्य राष्ट्रपति उस पर मुहर लगा दें, अधिसूचना भी जारी कर दी जाए और देश उसे चुपचाप स्वीकार कर ले तो सिद्ध हो जाएगा कि देश मे जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र का होना सिद्ध होता रहे इसलिए यह जरूरी है कि सरकार के हर कदम की आलोचना की जाए, सरकारी पार्टी की आलोचना की जाए और मनोनीत व्यक्तियों की आलोचना की जाए।

यूँ तो देश में जनतंत्र होना सिद्ध करने की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की है। सरकारी पार्टी की पिछली पारी में मैदान के बाहर से समर्थन देने वाली सब से बड़ी वामपंथी पार्टी ने इस काम की आलोचना नहीं की सिर्फ इतना भर कहा कि सचिन के पहले गांगुली को यह सम्मान मिलना चाहिए था, इस तरह उन्हों ने साबित किया कि  फिलहाल अखिल भारतीय पार्टी बनने का सपना देखना उन के ऐजेंडे पर नहीं है, वे अभी अपने दक्षिणपंथी विचलन को त्यागने पर भी कोई विचार नहीं कर रहे हैं, अभी उन का इरादा केवल और केवल अपनी क्षेत्रीय पार्टी की इमेज की रक्षा करने में जुटे रहना है। अभी-अभी रुस्तम-ए-लखनऊ का खिताब जीतने वाली पार्टी ने भी इस की आलोचना करने के बजाए प्रशंसा करना बेहतर समझा और सिद्ध किया कि वह अपनी नवअर्जित छवि को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भुनाना चाहती है। पूर्व रुस्तम-ए-लखनऊ की कुर्सी छिन जाने और अभी अभी राज्य सभा में कुर्सी कबाड़ लेने वाली बहन जी ने जनतंत्र की रक्षा करने के स्थान पर सस्पेंस खड़ा करने की कोशिश करते हुए बयान किया कि वे जानती हैं कि इन लोगों को राज्य सभा में लाने के पीछे सरकारी पार्टी की मंशा क्या है।

राठा सरदार की पार्टी ने सरकार के इस कदम की आलोचना की तो लगा कि कोई तो जनतंत्र को बचाने के लिए सामने आया। पर वे भी इतना ही कह कर रह गए कि सरकारी पार्टी ध्यान बांटने का काम कर रही है, उस का मन कभी पवित्र नहीं रहा, वह हमेशा कोई न कोई लाभ उठाने के चक्कर में रहती है। इस बार वह सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। इस बयान से भी जनतंत्र को कोई लाभ नहीं हुआ उन्हें जनतंत्र बचाने से अधिक इस बात का अफसोस था कि एक महाराष्ट्रियन का लाभ कांग्रेस कैसे उठा ले जा रही है।  सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब जनतंत्र साबित करने की जिम्मेदारी केवल अपने कंधों पर उठाने का दावा करने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी आलोचना करने के स्थान पर सरकार के इस कदम की प्रशंसा कर दी। करती भी क्या। उस के पूर्व अध्यक्ष पर चल रहे रिश्वत लेने के मुकदमे का फैसला आने वाला था और वह इस मामले में इतनी सी रियायत चाहती थी कि सरकारी पार्टी उस की आलोचना न करे।  

ब सब ओर से जनतंत्र खतरे में दिखाई दिया तो ऐसे दुष्काल में विदेश से कालाधन वापस लाने की जिद पर अड़े बाबा काम आए, उन्हों ने जम कर सरकार की आलोचना की।  सरकारी पार्टी डूबता जहाज है, वह जहाज को डूबने से बचाने के लिए सचिन-रेखा का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन यह प्रयोग भी उसे नहीं बचा पाएगा। बल्कि डूबते जहाज में बिठा कर वह इन दोनों की साख को भी डुबा देगा। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि ये दोनों जब राज्यसभा में जाएंगे तो वहाँ काले धन के मामले पर क्या बोलेंगे।

बाबा ने जनतंत्र की प्राण रक्षा की।  लेकिन उन की खुद की सुरक्षा इस से खतरे में पड़ गई है। पिछले कुछ बरसों से उनका झंडा उठाए उठाए घूमने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी बाबा से घोर नाराज हो गई। उस ने चेतावनी दे डाली कि बाबा को उन की हद में रहना चाहिए। जनतंत्र सोच में पड़ गया है कि आखिर बाबा की हदें कब, कहाँ, क्यों और कैसे तय की गई थीं? और तय की गई थीं तो अब तक मीडिया वालों को उन की हदों का पता क्यों नहीं लगा? यदि किसी को लग भी गया था तो जनता को क्यों नहीं बताया गया?

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को जनतांत्रिक राजनैतिक संगठन में बदलना ही होगा

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कोर कमेटी के दो सदस्यों पी वी राजगोपालन और राजेन्द्र सिंह ने अपने आप को टीम से अलग करने का निर्णय लिया है, उन का कथन है कि अब आंदोलन राजनैतिक रूप धारण कर रहा है। हिसार चुनाव में कांग्रेस के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय कोर कमेटी का नहीं था। उधर प्रशान्त भूषण पर जम्मू कश्मीर के संबंध में दिए गए उन के बयान के बाद हुए हमले की अन्ना हजारे ने निन्दा तो की है लेकिन इस बात पर अभी निर्णय होना शेष है कि जम्मू-कश्मीर पर उन के अपने बयान पर बने रहने की स्थिति में वे कोर कमेटी के सदस्य बने रह सकेंगे या नहीं। इस तरह आम जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होने पर भी इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नेतृत्वकारी कमेटी की रसोई में बरतन खड़कने की आवाजें देश भर को सुनाई दे रही हैं। 

न्ना हजारे जो इस टीम के सर्वमान्य मुखिया हैं, बार बार यह तो कहते रहे हैं कि उन की टीम किसी चुनाव में भाग नहीं लेगी, लेकिन यह कभी नहीं कहते कि वे राजनीति नहीं कर रहे हैं। यदि वे ऐसा कहते भी हैं तो यह दुनिया का सब से बड़ा झूठ भी होगा। राजनीति करने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि राजनीति करने वाला कोई भी समूह चुनाव में अनिवार्य रूप से भाग ले। यदि कोई समूह मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध या उस के किसी दोष के विरुद्ध जनता को एकत्र कर सरकार के विरुद्ध आंदोलन का संगठन करता है तो तरह वह राज्य की नीति को केवल प्रभावित ही नहीं करता अपितु उसे बदलने की कोशिश भी करता है तथा इस कोशिश को केवल और केवल राजनीति की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि विगत अनेक वर्षों से अन्ना हजारे जो कुछ कर रहे हैं वह राजनीति ही है। 

दि कोई समूह या संगठन राजनीति में आता है तो उस संगठन या समूह को एक राजनैतिक संगठन का रूप देना ही होगा। उस की सदस्यता, संगठन का जनतांत्रिक ढांचा, उस के आर्थिक स्रोत, आय-व्यय का हिसाब-किताब, उद्देश्य और लक्ष्य सभी स्पष्ट रूप से जनता के सामने होने चाहिए। लेकिन इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथ ऐसा नहीं है, वहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यदि इंडिया अगेंस्ट करप्शन को अपना जनान्दोलन संगठित करना है तो फिर उन्हें अपने संगठन को जनता के संगठन के रूप में संगठित करना होगा, उस संगठन का संविधान निर्मित कर उसे सार्वजनिक करना होगा, उस के आर्थिक स्रोत और हिसाब किताब को पारदर्शी बनाना होगा। संगठन के उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट करने होंगे। इस आंदोलन को एक राजनैतिक स्वरूप ग्रहण करना ही होगा, चाहे उन का यह संगठन चुनावों में हिस्सा ले या न ले। यदि ऐसा नहीं होता है तो इस आंदोलन को आगे विकसित कर सकना संभव नहीं हो सकेगा।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

शिवराम जी के बाद, उन के घर .....

जीवनसाथी शोभा परसों से मायके गई हुई है। आज लौटना था, लेकिन सुबह फोन आ गया, अब वह कल सुबह आएगी। कल-आज और कल अवकाश के दिन हैं। मैं घर पर अकेला हूँ। चाहता तो था कि इन दिनों में मैं मकान बदलने से बिखरी अपने पुस्तकालय और कार्यालय को ठीक करवा लेता। पर अकेले यह भी संभव नहीं था। जिन्हें इस काम में साथ देना था वे भी अवकाश मना रहे हैं। शिवराम जी के बाद ब्लागीरी पर जो विराम लगा था, कल उसे तोड़ने का प्रयास किया। आज पूरे पाँच दिन के अन्तराल के बाद आज शिवराम जी के घर जाना हुआ। भाभी पहले तीन दिनों तक खुद को संभाल नहीं पा रही थीं। आज कुछ सामान्य दिखाई पड़ीं। मुझ से बात कर के  फिर से उन का अवसाद गहरा न जाए इस कारण उन से बात नहीं की। वे अपनी तीनों बहुओं और ननद के साथ बैठी बातें कर रही थीं और साथ दे रही थीं।
न के ज्येष्ठ पुत्र ब्लागर रवि कुमार और कनिष्ट पुत्र पवन से मुलाकात हुई। रवि बहुत सयाना है, उस में एक बड़ा कलाकार जीता है। सभी कोण से वह शिवराम जी से कम प्रतिभाशाली नहीं है। उसी से कुछ देर बात करता रहा। उसी ने बताया कि माँ अब अवसाद से धीरे-धीरे बाहर आ रही हैं। मैं ने पत्रिका अभिव्यक्ति की बात छेड़ दी। आपातकाल के ठीक पहले शिवराम जी से मेरी मुलाकात हुई थी। हम बाराँ में दिनकर साहित्य समिति चलाते थे और एक पत्रिका प्रकाशन की योजना बना रहे थे। शिवराम जी ने उसे आसान कर दिया। पत्रिका आरंभ हुई तो अनियमित रूप से प्रकाशित होती रही। लेकिन वह चल रही है और लघुपत्रिकाओं में अपना विशिष्ठ स्थान रखती है। शिवराम जी ही इस का संपादन करते रहे, सहयोग कई लोगों का रहा। लेकिन मूल काम और जिम्मेदारियाँ वही देखते थे। मैं ने रवि से अभिव्यक्ति में अपना योगदान बढ़ाने को कहा। उस ने बताया कि वह भी इस बारे में सोच रहा है। अभी तो वह शिवराम जी के कागजों को संभाल रहा है जिस से पता लगे कि वे कितने कामों को अधूरा छोड़ गए हैं, और उन्हें कैसे संभाला जा सकता है।
मैं ने रवि से उल्लेख किया कि घर आर्थिक रूप से तो संभला हुआ है। इस लिए पटरी पर जल्दी आ जाएगा, लेकिन जो सामाजिक जिम्मेदारियाँ शिवराम जी देखते थे, सब से बड़ा संकट वहाँ उत्पन्न हुआ है। उसे पटरी पर लाने में समय लगेगा। रवि ने प्रतिक्रिया दी कि यह तो मैं भी कह रहा हूँ कि अपने परिवार और घर के लिए तो वे सूचना मात्र रह गए थे, उन का सारा समय और जीवन तो समाज को ही समर्पित था। रवि ने ही बताया कि कुछ सांस्कृतिक संगठन कल शोक-सभा रख रहे हैं, जिस में कोटा के बाहर के कुछ महत्वपूर्ण लोग भी होंगे। यह मेरे लिए सूचना थी। मेरा मन तो कर रहा है कि इस सभा में रहूँ,  शिवराम जी के बाद उन से साक्षात्कार का यह अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन मुझे पहले से तय जरूरी काम से जयपुर जाना होगा। रवि ने कल की सभा की छपी हुई सूचना मुझे दी। हरिहर ओझा की एक कविता इस पर छपी है, जो महत्वपूर्ण है।  मैं उस सूचना का चित्र यहाँ लगा रहा हूँ।  आर्य परिवार संस्था कोटा ने शिवराम को एक आँसू भरी श्रद्धांजलि पर्चे के रूप में छाप कर वितरित की है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शिवराम ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले कम्युनिस्ट थे, लेकिन धर्मावलंबी जो उन के संपर्क में थे किस तरह सोचते थे, यह श्रद्धांजलि पर्चा उस की एक मिसाल है। दोनों को ही आप चित्र पर चटका लगा कर बड़ा कर के पढ़ सकते हैं।
 

 


शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम न रुके थे।

मैं जानता हूँ कि जो मंजिल मेरा लक्ष्य है वह बहुत दूर है, मैं इस जीवन में वहाँ नहीं पहुँच सकूंगा। लेकिन वह मंजिल मेरी अकेले की तो नहीं। वह तो पूरी मानव जाति की मंजिल है। मनुष्य के पास दो ही मार्ग हैं, या तो वह निजी स्वार्थों और लालच के वशीभूत हो कर जीवन जिए और लड़-झगड़ कर इस धरती को बरबाद करे और स्वयं इस मानव जाति को नष्ट कर डाले, या फिर वह एक ऐसे मानव समाज की रचना करे जो संपूर्ण मानव-समाज के सामुहिक हित की सोचे। सामाजिक हित सर्वोपरि हों। धरती को हम खूबसूरत बनाएँ। जिएँ और जीने दें, लगातार उन्नति करते जाएँ। इस दूसरे रास्ते पर  चलने वाले दुनिया में लाखों नहीं करोड़ों लोग हैं। उन में बहुत लोग हैं जो मंजिल की ओर जा रहे काफिले की अगुवाई करते हैं। निश्चय ही वे मानवजाति के श्रेष्ठतम  लोग हैं। उन का पूरा जीवन काफिले की इस यात्रा को समर्पित है। वे जानते हैं कि वे मंजिल तक नहीं पहुँच पाएंगे, लेकिन फिर भी उन का सब कुछ इस मानव-समाज के लिए है। वे सोचते हैं कि वे नहीं उन की कोई आगामी पीढ़ी अवश्य ही मंजिल पा लेगी। यदि उन्हों ने कोताही की तो निश्चित ही मंजिल तक पहुँचने के पहले मानव जाति नष्ट हो जाएगी और हमारी यह खूबसूरत धरती भी जिस का कोई जोड़ अभी तक मनुष्य इस ब्रह्मांड में तलाश नहीं कर सका है।
शिवराम ऐसे ही व्यक्तित्व थे। सोचा न था कि वे चलते-चलते यूँ काफिला छोड़ जाएंगे। जब उन के जाने की खबर मिली तो हर कोई हतप्रभ रह गया। मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं अदालत में था। जल्दी से अदालत से अपना काम समेट, घर पहुँचा। नेट पर सूचना चस्पा की और उन के घर पहुँच गया। वे घर के नीचे के कमरे में दरी पर विश्राम कर रहे थे, चादर ओढ़े। वह विश्राम जो उन्हों ने जीवन भर नहीं किया। चेहरा भी चादर से ढका था। इच्छा हुई कि चादर हटा कर देखूँ इस चिरविश्रांति में वे कैसे लग रहे हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। चेहरे से चादर हटी तो शायद मैं अपने आप पर काबू नहीं रख सकूंगा, कहूँगा- कामरेड! तुम अभी से सो गए। उठो अभी तो बहुत काम बाकी है। वे उठेंगे नहीं। मैं निराश सा, क्या कर लूंगा? सिवा रोने और विलाप करने के, जो मैं नहीं करना चाहता था। मैं कमरे के बाहर चला आया। 
शिवराम ने जीवन के इकसठ वर्ष पूरे नहीं किए। लेकिन इस जीवन में उन्हों ने सैंकड़ों जीवन जिए। विद्यार्थी जीवन के बाद नौकरी की तलाश के दिनों में ही उन्हों ने पहचान लिया था कि दुनिया और समाज जिस अवस्था में है, वह  निराश करता है ,जीने लायक नहीं है। उसे बदलना होगा, जीने लायक बनाना होगा। न जीने लायक उस दुनिया के बारे में वे लिखते हैं-
"मैं खुद बेरोजगारी के दौर में किसी तरह भटकता फिरता था. असहायता के अहसास से मैं भी गुजरा था। लेकिन रोटी के लिए वेश्यावृत्ति। आठ-दस साल  का बेटा अपनी माँ के लिए ग्राहक ढूंढेगा। यह स्साली कोई जिन्दगी है। लानत है। 
शायद इन्हीं दिनों हम पांडिचेरी गए। वहाँ भी हम ने यह सब देखा। आप को एक तौलिया खरीदना हो और दूकानदार आप के सामने दस तरह के तौलिए पटक दे। जो पसन्द हो छांट लो, वैसे ही साधारण से होटलों में लड़कियों की लाइन लगा दी जाती थी। सब की दरें बता दी जाती थीं। जो पसन्द हो ले कर अपने कमरे में चले जाओ। हमारा समूह भी एक होटल में पहुँच गया और यह सब दृष्य अपनी आँखों से देखा। औरों का मुझे पता नहीं, मेरे लिए यह भयानक अनुभव था। यह सब विद्यमान व्यवस्था की देन है। यह व्यवस्था क्यों है? गरीबी-अमीरी का मामला क्या है? भगवान इस सब को ठीक क्यों नहीं करता? पांडिचेरी में एक ओर इतना बड़ा आध्यात्मिक केन्द्र और दूसरी ओर यह गंदगी। आध्यात्मिकता और इस गंदगी का चोली दामन का साथ तो नहीं? इस आध्यात्मिक केंद्र की वजह से और इस शहर की खूबसूरती की वजह से यहाँ पर्यटक आने लगे होंगे तो यह धंधा फला-फूला होगा। पर्यटन और वेश्यावृत्ति क्या एक ही हिस्से के दो पहलू हैं?"
रोजगार की तलाश खत्म हुई, नौकरी लगी। प्रशिक्षण में स्वयं प्रकाश से भेंट हुई। वे भी ऐसे ही मोड़ पर थे। छह महिने की ट्रेनिंग पूरी होने पर जोधपुर में दो माह का प्रायोगिक प्रशिक्षण आरंभ हुआ। स्वयंप्रकाश के साहित्यिक लोगों से संबंध थे। वहीं मिले पारस अरोड़ा जिन के घर ज्ञानोदय के अंकों का ढेर और बहुत सी किताबें थीं। शिवराम इतनी किताबें देख चकित थे। इतना पढ़ते हैं ये लोग! हम चार स्कूली किताबें पढ़ कर, वो भी पास होने के लिए, खुद को पढ़ा लिखा समझते हैं। हम काहे के पढ़े लिखे हैं? जिन्दगी और दुनिया को समझना है तो किताबें पढ़नी होंगी। एक पुस्तकालय में विवेकानंद का साहित्य पढ़ने को मिला। उसे पढ़ा तो लगा विवेकानंद का बताया रास्ता सही है। सब बुराइयों की जड़ अज्ञान है, अशिक्षा है। बच्चों में उच्च मानवीय मूल्यों के संस्कार देने वाला साहित्य प्रचारित प्रसारित करो। दो माह यूँ ही गुजर गए। रामगंज मंडी  (जिला कोटा राजस्थान) में पोस्टिंग हुई। शिवराम नौकरी के अलावा वहाँ बच्चों के लिए निशुल्क स्कूल भी चलाने लगे कमरा निशुल्क मिल गया। वहाँ आर.एस.एस भी था और सोशलिस्ट पार्टी भी। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तकें और लोहिया की जीवनी पढ़ी। गीता का अंग्रेजी अनुवाद करने पर काम करने लगे। कुछ न कुछ लिखने भी लगे। स्वयं प्रकाश का पत्र मिला - क्या पढ़ रहे हो कार्ल मार्क्स की पूँजी पढ़ो। शिवराम का जवाब था -कम्युनिस्टों के चक्कर में पड़ गए लगते हो। मैं लोहिया पढ़ रहा हूँ पर संतुष्ट हूँ। स्वयं प्रकाश का उत्तर था -तुम्हें हक है कि जो तुम्हें ठीक  न लगे उसे खारिज कर दो, पर पहले उसे जानो, समझो तो सही। तुमने मार्क्स की पूंजी को चलताऊ तरीके से खारिज कर दिया। पत्र की भाषा बहुत सख्त थी। प्रतिक्रिया हुई -ठीक है मार्क्स को पढूंगा और फिर इसे बताउंगा मैं ने मार्क्स को क्यों खारिज किया। करौली बस स्टैंड पर प्रगतिशील साहित्य भंडार से मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबें और भगतसिंह की जीवनी खरीदी।  पैसे कम पड़ गए, दुकानदार से कहा कुछ किताबें निकाल दो, तो दुकानदार शर्मा जी ने एक किताब और मिलाई और बोले -फिर दे देना।  शिवराम कुछ महीने बाद पैसे लौटाने पहुँचे तो दुकान बंद थी। पता चला शर्मा जी नहीं रहे। उन का कर्ज रह गया। शिवराम ने मार्क्सवाद पढ़ा, समझा और वर्ग-संघर्ष के मार्ग पर चल पड़े। चलते-चलते सैंकड़ों-हजारों लोग साथ होते गए। काफिला बनता चला गया। आज वही शिवराम काफिले में नहीं हैं, चुपचाप सड़क के किनारे बैठ गए हों और कह रहे हों। जीवन ने यहीं तक साथ दिया, मैं आगे नहीं जा सकता। लेकिन ध्यान रहे! काफिला कम न हो और रुके नहीं।

स्वयंकथ्य 
शिवराम के जाने ने अंदर तक आहत किया है। एक सप्ताह से की-बोर्ड पर उंगलियाँ चल ही नहीं पा रही थीं। आज हिम्मत कर के वापस बैठा हूँ। यह हिम्मत भी शिवराम की दी हुई है। कह रहे हों कि मैं छूट गया तो क्या सफर छोड़ दोगे? ऐसा ही था तो क्यों चले थे मेरे साथ? सफर छूटे ना, मंजिल अभी दूर है, बहुत चलना है, रुको मत! चलते रहो! मुड़ कर मत देखो!
ह सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम  न रुके  थे। 
शिवराम के जाने ने जो रिक्तता पैदा की है, उसे एक या कुछ लोग नहीं भर सकते।  उस के लिए बहुत लोगों को सामने आना होगा। साहित्य, संस्कृति, रंगमंच, ट्रेड यूनियनें, मोहल्ला संगठन, किसान सभाएँ और पार्टी, सब जगह अनेक लोगों को वे मोर्चे संभालने होंगे, जिन्हें अकेले शिवराम संभाले थे। शिवराम का न होना, लगातार पीछा कर रहा है। 'अनवरत' भी अभी कुछ दिन शिवराम-मय ही रहेगा।