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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

बदले का पाठ

कॉलेज की लाइब्रेरी में राधा ने पहली बार "फेमिनिज़्म" शब्द को किताब के पन्नों में देखा।

पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—

"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"

किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"

पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।

गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।

“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”

“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”

“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”

राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"



राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”

तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।

उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"

राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"

उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

जय जनतंत्र, जय संविधान¡


"लघुकथा"


दिनेशराय द्विवेदी

जिले के सबसे बड़े गाँव चमनगढ़ की आबादी दस हज़ार होने को थी, ग्राम पंचायत भी बड़ी थी। दो बरस पहले यहाँ ग्राम पंचायत ने सरकारी मदद से सामुदायिक भवन बनाया था, जिसका उद्देश्य था कि, जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय से परे उसका उपयोग कर सके। पहली बार एक दलित हरखू ने अपनी बेटी की शादी उसी भवन में करने का आवेदन दिया, और सचिव ने सरपंच पंडित शंकरलाल की अनुमति से निर्धारित शुल्क जमा कर के दलित परिवार को सामुदायिक भवन में शादी समारोह करने, बारात ठहराने की अनुमति दे दी।

यह खबर कानों कान गाँव के हर मोहल्ले, हर घर में पहुँच गयी। गाँव में विरोध के स्वर उठने लगे। सवर्णों और ओबीसी समुदायों का मत था कि यह नहीं हो सकता। सामुदायिक भवन दलितों को दिया जाने लगा तो सारी ऊँच-नीच खत्म होने लग जाएगी। कल से ये लोग निजी मंदिरों में भी घुसने लगेंगे, हमारे बीच खाने भी लगेंगे। पंचायत के अधिकांश पंच सरपंच के खिलाफ हो गए और सरपंच को पद से हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव ले आए।

पंडित शंकरलाल ने गांधीजी के अनुयायी अपने पिता से जनतंत्र के आधारभूत मूल्य आत्मसात किए थे। वे प्राण तज सकते थे लेकिन उन मूल्यों पर समझौता नहीं कर सकते थे। वे चिंतित हो उठे। सवाल था कि, “क्या पंचायत बहुमत के दबाव में जनतंत्र के मूल सिद्धांतों को तोड़ देगी, या स्थायी मूल्यों की रक्षा करेगी?

पंडित शंकरलाल पूर्व अध्यापक थे, वे पीछे न हट सकते थे। उनका शिष्य और युवा पंच अर्जुन उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा था। दोनों सलाह करके गाँव के घर-घर गए और एक-एक व्यक्ति को समझाया कि सामुदायिक भवन सब का है। उन्होंने बताया कि वर्षों के संघर्षों से सब ने एक साथ यह आजादी, जनतंत्र हासिल किए हैं। दलितों का उसमें योगदान कम नहीं था। देश ने एक संविधान को स्वीकार किया है, जो सब को बराबर का हक देता है, कहता है, “स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हर नागरिक का अधिकार है।

बहुत मेहनत के साथ यह काम करने के बाद भी उन्हें लगा कि वे लोगों को समझाने में सफल नहीं हुए। इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर कोई उन्हें आश्वासन नहीं दे सका। दोनों निराश होने लगे।

आखिर पंचायत की बैठक का निर्णायक दिन आ गया। पंचायत भवन के बाहर भीड़ जमा थी। नारे गूँज रहे थे, “जनमत ही सर्वोपरि है!, हम ये होने नहीं देंगे” दलित डरे हुए थे, अपने घरों में दुबके हुए, कोई-कोई छुप छुपा कर पंचायत की और नजर दौड़ा कर वापस घर में दुबक जाता। पंच भी दबाव में थे।

कार्यवाही आरंभ हुई, सरपंच ने कहा, “अगर हम बहुमत के दबाव में किसी को रोकते हैं, तो यह भवन सामुदायिक नहीं, जातिगत हो जाएगा। हमारा जनतंत्र और संविधान दोनों की आत्मा का वध हो जाएगा।”

अर्जुन ने साथ दिया, “जनमत क्षणिक है, लेकिन लोकतंत्र के मूल सिद्धांत स्थायी हैं। आज दलितों को रोकोगे, कल महिलाओं को रोकोगे। क्या हम हर बार संविधान को तोड़ देंगे, दुबारा फिर से गुलामी को न्यौता देंगे?”

भीड़ का शोर थम नहीं रहा था। तभी सरपंच का पुत्र रवि नगर के कॉलेज के अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ आगे आया। उसके कंधे पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लटका था। पंचायत भवन के सामने खड़ा हो कर ऊँचे स्वर में बोलने लगा।

“सोचो, अगर कल आपके बेटे या बेटी को सामुदायिक भवन में विवाह करने से रोका जाए, तो क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? यह भवन सरकार ने सबके लिए बनाया है। क्या हम इसे जाति का किला बना देंगे, या भाईचारे का प्रतीक बना रहने देंगे?” सोचिए इस का लोकार्पण किसने किया था? वह कलेक्टर भी एक दलित था। क्या उस दिन कोई विरोध में सामने आया था?

उसके दोस्तों ने भीड़ में जाकर समझाया, “यह भवन हमारे करों से बना है। इसमें हर नागरिक का हिस्सा है। अगर हम किसी को रोकते हैं, तो हम अपने ही अधिकारों को ही कमजोर कर देंगे।”

भीड़ का शोर धीमा पड़ने लगा। लोग सोच में पड़ गए। अब वे आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

अंदर पंचायत भवन में बैठक चल रही थी। आखिर पंडित शंकरलाल पंचायत भवन की छत पर आए। उनके साथ पंचायत के सभी पंच थे। उनके हाथ में पंचायत के लाउडस्पीकर का माइक था। वे निर्णय सुनाने लगे,

“हम सारे पंचों ने एक मत से निर्णय लिया है। हम सारे पंचों को विश्वास है कि पूरा गाँव, गाँव के सब लोग एकमत से हुए हमारे इस निर्णय को सम्मान देंगे। सामुदायिक भवन हर नागरिक के लिए है। गाँव के सभी निवासियों को उसके उपयोग का पूरा हक है। हरखू भाई की बेटी की शादी सामुदायिक भवन से ही होगी। यही जनतंत्र और हमारे संविधान का सम्मान है।”

  भीड़ में से किसी ने ताली बजाई, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने। तुरन्त ही तालियों की गड़गड़ाहट में हर किसी के हाथ शामिल हो गए। रवि और उसके दोस्त खुशी से उछल पड़े। रवि ने अपने लाउडस्पीकर पर घोषणा की हम सब अब हरखू चाचा के घर चलेंगे और उन्हें यह खुश खबर देंगे। हम संविधान जिन्दाबाद के नारे लगाते चलेंगे।

रवि ने लाउडस्पीकर पर नारा लगाया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”
भीड़ ने एक स्वर से उत्तर दिया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

भीड़ हरखू के घर की ओर जा रही थी, गाँव में नारा गूंज रहा था, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

गाँव के चंन्द लोग अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हुआ। वे चुपचाप अपने घरों को चल दिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

रुकने का साहस


खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।

एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”

पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।

उसका नाम था अभय। वह एक शिक्षक था। अगले दिन उसने अपने छात्रों को यह अनुभव सुनाया। बच्चों ने कहा—“सर, अगर आप रुक सकते हैं तो हम भी रुकेंगे।”

धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।

शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।









शनिवार, 29 नवंबर 2025

सत्यप्रार्थी वध

'लघुकथा'

एक समय की बात है, जब देश की आत्मा दो नगरों में बंटी हुई थी, एक था न्यायपुर, जहाँ दीवारें काली थीं, और दूसरा आस्थागढ़, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ हर पल गूंजती थीं।

 न्यायपुर की अदालतें अब युद्धभूमि बन चुकी थीं। वहाँ जज नहीं, सेनापति बैठते थे। उनके हाथों में न्याय की कलम नहीं, आदेश की मुहर थी। हर सुबह उन्हें एक सूची मिलती, "इन मुकदमों का आज एनकाउंटर करना है।"

मुकदमे अब जीवित नहीं थे, वे कागज़ी प्राणी थे, जिनके पास आँखें थीं, तर्क थे, और कभी-कभी आँसू भी।

 एक दिन, एक मुकदमा, नाम था सत्यप्रार्थी, काँपते हुए न्यायाधीश के सामने आया।

"महोदय, मेरा एक दस्तावेज़ अभी प्रतिवादी से नहीं आया है। कृपया मुझे थोड़ा समय दीजिए, अन्यथा मेरा वध हो जाएगा।"

 जज ने उसकी ओर देखा, जैसे कोई पत्थर किसी फूल को देखता है।

"यह टारगेट मुकदमा है। देरी नहीं चलेगी। हमें रोज़ ऊपर जवाब देना होता है।"

और फिर सत्यप्रार्थी का वध हो गया।

उसी दिन, आस्थागढ़ में उत्सव था। ध्वजारोहण की तैयारी थी। मंदिर के शिखर पर केसरिया पताका लहराने वाली थी।

राजा स्वयं आए थे, आरती की थाली लिए। गणेशजी की मूर्ति के सामने दीप जलाया गया।
घंटियाँ बजीं, पुष्पवर्षा हुई, और सोलह नगरों में रथयात्रा निकली।

न्यायपुर के एक वृद्ध दरबारी ने यह दृश्य देखा और बुदबुदाया,

"जब न्याय कालकोठरी में बंद हो, तब भी उत्सव तो हो ही सकता है।"

उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

एक ओर अंधेरा था, जहाँ सत्य का वध हो रहा था।

दूसरी ओर उजाला था, जहाँ आस्था का जयघोष हो रहा था।

और देश… ?

कुछ कहते थे, “उसका गौरव बढ़ रहा है”।

कुछ अंधेरे में आँसुओं के साथ कहते थे, “देश मर रहा है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

रामजी बेगा आज्यो

'हाडौ़ती लघुकथा'

दाज्जी
ने आता देख मोबाइल देखर्यो छोट्या ने मोबाइल पर गाणो लगाद्यो, " रामजी मेरे घर आना".

दाज्जी आया तो गोडे पड़ी खाट पे बैठ ग्या.

गाणो पूरो भी न होयो छो के, दाज्जी खेबा लाग्या, "रे छोट्या यो काँईं गाणो लगा मेल्यो छे. गाणा सुणणी होवे तो ढंग का सुणबू कर.

'काँई होग्यो दाज्जी? रामजी को ही तो गाणो लगा मेल्यो छे' छोट्या ने खी.

'काँई को छोखो गाणो छे? जे घर घर आबा लाग्या ने तो रामजी ही बावळ्या हो जाणा छे. बंद कर ईं गाणा ने. पीबा के कारणे एक गिलास पाणी ला, अर् थोड़ी देर चैन से लेटबा दे.

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

एन्काउन्टर

'लघुकथा'

शहर की अदालतों में इन दिनों अजीब सा माहौल था. हर जज की मेज़ पर मुकदमों की फाइलें ऐसे गिर रही थीं जैसे किसी युद्धभूमि में लाशें.

जजों को रोज़ वीडियो कॉन्फ़्रेंस पर हाईकोर्ट को जवाब देना पड़ता था—कितने मुकदमे निपटाए, कितने "टारगेट केस" खत्म किए.

एक दिन, एक मुवक्किल ने जज से कहा—

"महोदय, यह दस्तावेज़ तो प्रतिवादी से मंगवाया ही नहीं गया. अगर इसे देखे बिना फैसला हुआ तो हमारे साथ अन्याय होगा."

जज ने चश्मा उतारते हुए ठंडी आवाज़ में कहा—

"मैं कुछ नहीं जानता. अगर आपकी दरख़्वास्त मंज़ूर करूँगा तो मुकदमे में देरी होगी. यह टारगेट मुकदमा है."

और अगले ही दिन वह मुकदमा "एनकाउंटर" कर दिया गया.

इसी बीच शहर में खबर गूँजी—राम मंदिर पूरा हो गया है. कल वहाँ ध्वजारोहण होगा.

सोलह जिलों में रूट डायवर्जन होगा, लोग उमड़ेंगे, झंडा फहरेगा.

मुवक्किल ने अदालत से बाहर निकलते हुए सोचा—

"न्याय तो कालकोठरी में कैद है, लेकिन ध्वजारोहण तो समय पर हो ही जाएगा."

उसने आकाश की ओर देखा. मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और अदालत की दीवारें चुप थीं.

बुधवार, 10 मई 2023

अतिरिक्त योग्यताएँ





मैं उनसे किसी काम से मिलने पहुंचा। तब वे बैठे हुए किसी की जन्मकुंडली देख रहे थे। मैंने कहा, अरे आप तो कुंडली भी देखते हैं। तो कहने लगे, हां देखता हूं। मुझे उनकी एक अतिरिक्त योग्यता का पता लगा।

मैंने कहा, फिर तो मेरी भी देख दीजिए। एक कागज दीजिए, मैं बना देता हूँ। वे तो बोले उसकी जरूरत नहीं, आप हाथ ही दिखा दीजिए। मुझे उनकी दूसरी अतिरिक्त योग्यता का पता लगा।

मैंने उनकी तरफ दाहिना हाथ बढ़ा दिया। उन्होंने मेरा हाथ तीन चार जगह दबाकर देखा और फिर मुझे कहा, बायां हाथ भी दिखाइए। मैं ने अपना बायां हाथ भी आगे बढ़ा दिया। उन्होंने उसे भी गौर करके देखा फिर बोले, आप तो खुद मुझसे बड़े ज्योतिषी हैं। आपके सामने मेरी विद्या काम नहीं आएगी। मुझे उनकी तीसरी अतिरिक्त योग्यता का पता लगा।

... दिनेशराय द्विवेदी

रविवार, 12 मार्च 2023

शंख ज्ञान



ध्रु ने जब से होश संभाला विष्णु भक्ति में ही लीन रहा। राजा उत्तानपाद का औरस पुत्र होते हुए भी उसे अपने पिता से सौतेला व्यवहार मिला। फिर एक दिन विष्णु को ध्रुव पर पिता के सौतेले व्यवहार के कारण दया आ गयी या उसकी भक्ति से प्रसन्न हो गए। (जरूर भक्ति से ही प्रसन्न हुए होंगे नहीं तो अधिकतर लोगों के साथ दुनिया में सौतेला व्यवहार होता है पर विष्णु नहीं पसीजते। खैर!

तो विष्णु प्रकट हुए और अपना शंख ध्रुव के सिर के इर्द-गिर्द घुमाया। बस बेपढ़े लिखे, अशिक्षित ध्रुव को दुनिया का सारा ज्ञान प्राप्त हो गया।

इससे यह शिक्षा मिलती है कि पढ़ने लिखने में कुछ नहीं धरा। बस विष्णु की आराधना करो। एक दिन विष्णु प्रकट होकर सिर के इर्द-गिर्द अपना शंख घुमाएंगे और भक्त को दुनिया का सारा ज्ञान प्राप्त हो जाएगा।

डिसक्लेमर : 

इस कहानी की शिक्षा पर भरोसा मत करना। मैंने ध्रुव की कथा पढ़ी और चित्र देखे तो मुझे भी चार साल की उम्र में एक दो सप्ताह तक यही इलहाम रहा। सोचता रहा कि विष्णु की भक्ति करेंगे। लेकिन इस कहानी को पढ़ाने वाले मेरे पिताजी ने ही मुझसे कहा कि पढ़ने लिखने से ही ज्ञान आएगा, विष्णु की भक्ति से नहीं। सो मैं पढने लिखने लगा। इसलिए तुम भी खूब दिल लगा कर पढ़ना। भक्ति-वक्ति में कुछ नहीं धरा। यह पुराण कथा है, पूरी तरह काल्पनिक है। बुहत पुरानी है। इतनी पुरानी कि तब तक किसी के दिमाग में विष्णु के अवतारों की कल्पना तक नहीं उपजी थी। देवराज इन्द्र अपने कारनामों से बदनाम हो गया था। देवताओं को नया नायक चाहिए था। उन्होंने इन्द्र के छोटे भाई विष्णु को प्रमोट करना शुरु कर दिया। सारे अवतारों की कहानियाँ भी बाद में उपजी। ये कथा बस आनन्द लेने के लिए है। आनन्द लो और भूल जाओ।

शनिवार, 7 जनवरी 2023

राजमिस्त्री

दिसम्बर का तीसरा सप्ताह था। मुझे बाराँ से कोटा आना था। काम निपटाने के बाद घर पर माँ से मिलने में समय हो गया और मुझे रात सात बजे की बस मिली। सूर्यास्त हुए डेढ़ घंटा हो चुका था और पूस के माह की सर्दी ने काटना शुरु कर दिया था। कोटा पहुँचने में दो घण्टे की दूरी थी। बस चली और बस स्टेण्ड के बाहर निकलते ही रुकी। बदहवासी की दशा में एक बन्दा बस में चढ़ा और बस चल दी। वह एक साधारण सूरत का मेहनतकश इन्सान लगता था। जैसे कोई राजमिस्त्री या फिर किसी गैराज का सिद्धहस्त मैकेनिक हो। हम उसे इस किस्से के लिए राजमिस्त्री कह सकते हैं। सीढ़ी चढ़ कर जैसे ही वह बस के फ्लोर पर पहुँचा उसने बस में एक नजर दौड़ाई। बस में कुल जमा 11 सवारियाँ थी और वह बारहवाँ था। बस के पीछे की पाँच पंक्तियाँ पूरी तरह से खाली थी। वह पीछे गया और पीछे से चौथी लाइन की ड्राइवर साइड की तीन सीटों में बीच वाली पर जा बैठा। शहर छोड़ने के पहले बस दो एक जगह और रुकी, सवारियाँ बैठाईं और फिर चल दी। शहर के बाहर निकलने के बाद एक जगह और रुकी। यहाँ कुछ वीराना था, लेकिन यहाँ भी दो सवारियाँ मिल गयीं। राजमिस्त्री ने इस बार खड़े हो कर कण्डक्टर से पूछा कि क्या वह नीचे उतर कर पेशाब कर के आ सकता है? कण्डकर ने पलट कर कहा, -क्या वह दस बीस मिनट नहीं रुक सकता। अगले स्टाप पर यह काम करना।

राजमिस्त्री के आगे की सीट पर सवारियाँ आ गयी थीं। वह अपनी सीट से निकला और पीछे तीसरी पंक्ति में बीच की सीट पर बैठ गया। उसके आगे की पंक्ति फिर खाली थी। अगला अधिकारिक स्टाप पंद्रह किलोमीटर पर था। मुश्किल से बीस बाईस मिनट का रास्ता। लेकिन दस मिनट बाद राजमिस्त्री फिर खड़ा हुआ और कंडक्टर से फिर पूछा कि बस कब रुकेगी?

कंडक्टर अब सवारियों के टिकट बना रहा था। उसने फिर कहा दस मिनट बाद अगला स्टाप है। राजमिस्त्री फिर बैठ गया। पाँच मिनट बाद वह फिर खड़ा हुआ और इस बार उसने पूछा, अगला स्टाप कितनी दूर है। कंडक्टर ने जवाब दिया कि बस तीन चार मिनट में आ जाएगा। उसके बाद अगले स्टाप तक राजमिस्त्री चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा।

बस ने अंता कस्बे में प्रवेश किया और बस स्टैंड पर रुकी। ड्राइवर ने इंजन बन्द किया और नीचे उतर गया। बस की सारी सवारियों का ध्यान उसी राजमिस्त्री पर था कि वह अब अपनी सीट से खड़ा होगा, तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ेगा और पेशाब करके वापस लौटेगा। बस से तीन सवारियाँ उतर गयीं और दो वहाँ से बैठ गयीं। लेकिन राजमिस्त्री अपनी जगह से नहीं हिला। कंडक्टर ने राजमिस्त्री से कहा, -उठ भाई¡ उतर कर तेरा काम कर आ। तब तक हम चाय पी लेंगे।

राजमिस्त्री ने कुछ देर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कंडक्टर ने फिर से जोर से कहा, - अब क्या हो गया? रास्ते में तो बार बार पूछ रहा था।

राजमिस्त्री ने बड़ी शान्ति से जवाब दिया, -अब जरूरत नहीं रही। रुक नहीं रहा था तो यहीँ कर लिया।

कंडक्टर ने पीछे जा कर टार्च की रोशनी में देखा तो सीट के नीचे बहुत गीला हो रहा था। वह राजमिस्त्री पर बरस पड़ा, -पहले नहीं कह सकता था कि यहीं निकल जाएगा। बस गंदी कर दी। अब इसे क्या तेरा बाप धोएगा?

राजमिस्त्री ने बहुत शान्ति से जवाब दिया, -उस्ताद नाराज मत होओ। मैं ने दो बार तुम्हें कहा था। तुम न समझे तो मेरी क्या गलती है। दोस्तों के बीच ज्यादा बीयर पी ली थी। निकलनी तो थी ही। मैंने बहुत रोका पर फिर भी निकल गयी तो मैं क्या करता। कोटा पहुँचने पर फर्राश से धुलवा लेना उसकी मजूरी मैं दे दूंगा।

कंडक्टर ने राजमिस्त्री को माफ नहीं किया और बस के अन्ता से चलने तक उसे गालियाँ देता रहा। बाकी सवारियाँ मन ही मन मुस्कुरा रही थीं।

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

दूध का जला


‘एक लघुकथा’

दिनेशराय द्विवेदी


नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा था। सरवर खाँ को जीतना ही था, उसका कोई कसूर न होते हुए भी बिना कारण नौकरी से निकाला गया था। पर फैसले का दिन धुकधुकी का होता है। सुबह सुबह जज ने सरवर खाँ के वकील को चैम्बर में बुलाया और बोला, “आप मुकदमा लड़ रहे हैं, बता सकते हैं आज क्या फैसला होने वाला है।” वकील ने जवाब दिया,“मेरे मुवक्किल को जीतना ही चाहिए।” 

जज ने बताया कि, “आप सही हैं वकील साहब। आपके मुवक्किल ने मुझे मेरे एक रिश्तेदार से सिफारिश करवाई है, इसलिए मैं अब इस मामले का फैसला नहीं करूंगा।” आगे की पेशी पड़ गयी। वकील ने मुवक्किल को कहा, “तेरी किस्मत में पत्थर लिखा है, अच्छा खासा जीतने वाला था, सिफारिश की क्या जरूरत थी, वह भी मुझे बिना बताए, अब भुगत।

जज का ट्रांसफर हो गया, दूसरा जज आ गया। उसने बहस सुनी और फैसला सुना दिया। सरवर खाँ मुकदमा हार गया। उसने अपने वकील को बताया कि, “पहले उसने सिफारिश उसके दिवंगत मित्र की पत्नी से कराई थी जो जज की निकट की रिश्तेदार थी। इस बार उसने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। पर एक बन्दा आया था उसके पास, जो कह रहा था कि नया जज उसका मिलने वाला है, चाहो जैसा फैसला कर देगा। पर कुछ धन खर्च होगा। पर साहब दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है। मैंने उसे साफ इन्कार कर दिया। 

सरवर खाँ ने  हाईकोर्ट में फैसले की अपील कर रखी है। 


शनिवार, 16 मई 2020

निक नेम


मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“


कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

निक नेम

मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“

कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

सोमवार, 23 मार्च 2020

लंगोटों वाला देश



धरती पर कर्क रेखा के आसपास एक देश था। उस देश के लोगों के पास एक बहुत पुरानी  किताब थी। जिसकी भाषा उनके लिए अनजान थी। वह उनके पूर्वजों की भाषा रही होगी। वे ऐसा ही मानते थे। उस किताब की लिपि तो वही थी जो वे इस्तेमाल करते थे। किताबो को वे पढ़ तो सकते थे, लेकिन समझ नहीं सकते थे।  जिन्हों ने पढ़ने की कोशिश की उन की समझ में कुछ नहीं आया। उन्हों ने थोड़ी ही देर में अपना माथा पीट लिया और किताब पढ़ना छोड़ दिया। लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उन्हें अज्ञानी कहा जाए।

उन्हों ने किताब को सबसे अच्छे खूब अच्छी तरह सजे हुए कपड़ों में बांध कर रख दिया और उसकी पूजा करने लगे। उन्हों ने लोगों को कहा कि ये किताबें आसमानी हैं, अबूझ हैं। इन्हीं में संसार का सारा ज्ञान भरा पड़़ा है। लोग उन्हें ज्ञानी कहने लगे।  वे नहीं जानते थे कि किस मंत्र का क्या मतलब है? लेकिन उन्होंने उनका उपयोग तलाश लिया। फिर उन्होंने उन किताबों के पन्नों की लंगोटें बना लीं। पहनने वाली नहीं, घुमाने वाली।

जब भी किसी को बहुत बुखार होता। कोई शरीर में  हो रहे दर्द से तड़पता रहता। किसी को साँप या कीड़े ने काट लिया होता। किसी की बीवी भाग गयी होती। किसी की फसल नष्ट हो गयी होती। किसी के पालतू खो गए होते या चोरी हो गए होते। वे सब बीमार को, पीड़ित को लेकर किसी ज्ञानी के पास जाते।  ज्ञानी उन्हें गंभीरता से सुनता। बहुत से ऊल-जलूल सवाल पूछता। फिर एक लंगोट निकालता और उसे घुमा कर बताते। फिर कहता: इसे ले जाओ। सुबह-शाम छत के बारजे पर खड़े होकर इसे घुमाना, फिर वापस दीवार पर अपनी छाती से ऊँची जगह पर खूंटी पर लटका देना। तुम ठीक हो जाओगे,  तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी। लोग ठीक हो जाते। बहुत से लंगोट घुमाते घुमाथे मर जाते। जो मर जाता वह ज्ञानी के पास कभी नहीं लौटता। इस तरह ज्ञानियों के घर आने वाले लोगों को पता नहीं लगा कि लंगोट असफल भी होती है। देश में ज्ञानियों का डंका बजने लगा। तब से देश के लोग समझते हैं कि लंगोट घुमाना हर बीमारी का इलाज है, हर समस्या का हल है।

बस तब से लोग उस देश को लंगोटों वाला देश कहने लगे।

कोटा, 23.03.2020

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

नई पैकिंग


मान मेराज के घराने का नित्य का आहार था, जिसे वह मंडी में एक खास दुकान से लाता था। कभी वह मंडी की सब से बड़ी दुकान हुआ करती थी। उसका बाप भी उसी दुकान से लाता था। ऐसा नहीं कि मान केवल उसी दुकान पर मिलता हो। मंडी में और भी दुकानें थीं। उसकी बुआएँ दूसरी जगह से मान लेती थीं। बाप मर गया फिर भी वह उसी दुकान से सामान लेता रहा। दूसरी दुकानों वाले कम दाम पर मान देने की पेशकश कर के उसे बार बार आकर्षित करने की कोशिश करते थे। फिर अचानक उसकी वाली दुकान के ग्राहक कम होने लगे। उसने देखा कि मंडी में प्रतिद्वंदी दुकान वाले ने अपना सारा सैट-अप चेन्ज कर दिया है। दुकान का पूरी तरह आधुनिकीकरण कर दिया। यहाँ तक कि केवल फोन या एप पर आर्डर मिलते ही मान घर पहुंचने लगा। मेराज ने भी एप ट्राइ किया। उसे लगा कि पड़ोसी दुकानदार की दुकान पर भी कीमतें कमोबेश वही हैं जो वह अपनी स्थायी दूकान पर चुकाता है। पर उसके प्रतिद्वंदी की दुकान नवीकरण के बाद से चमकती है, पैकिंग चमकती है, दुकानदार भी खूब चमकता है।
कभी-कभी उसे लगता कि उसकी पुरानी दुकान को जितना दाम वह चुकाता है उस के मुकाबले उसे कम और दूसरों को अधिक मान दिया जा रहा है। कभी कभी उसकी बुआएँ भी कहती थीं अब वह दुकान छोड़ तू भी हमारी वाली दुकान पर आ जा। पर खून के रिश्तों पर व्यवसायिक रिश्ते भारी पड़ते ही हैं। वह मुस्कुरा कर बुआओं को जवाब दे देता कि उस दुकान से उसका रिश्ता बाप के वक्त से है, कैसे छोड़ दे? दुनिया बातें जो बनाएगी, लोग फजीहत करेंगे वगैरा वगैरा। लेकिन वह लगातार यह परखता रहता कि कहीं वह ठगा तो नहीं जा रहा है? जाँच करने पर पता लगता कि दाम में भी और मान में भी दोनों ही तरफ कोई खास फर्क नहीं है। वह पुरानी दुकान पर ही बना रहा।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: पक्षी
चित्र : सुरेन्द्र वर्मा से साभार
फिर एक दिन प्रतिद्वंदी दुकानदार ने पासा फैंका। अपने यहाँ उसे भोजन पर न्यौता। उस ने सोचा इतने मान से वह न्यौता दे रहा है तो जाने में क्या बुराई है। वह चला गया। उसे खूब मान मिला। यह आश्वासन भी मिला कि यदि वह उस की दुकान पर आ जाए तो निश्चित रूप से उसे विशिष्ट ग्राहक का मान मिलेगा। पुराना दुकानदार उस का मान तो करता है, लेकिन विशिष्ट नहीं। वह दूसरों का भी उतना ही मान करता है। वह वापस लौट कर पुराने दुकानदार के पास पहुँचा उस ने अपनी मांग रख दी कि उसे दूसरे ग्राहकों से अधिक मान मिलना चाहिए और मान भी कुछ डिस्काउंट के साथ मिलना चाहिए। दुकानदार ने उसे कहा कि हमने आप के मान में कभी कमी नहीं रखी। हम अपने स्थायी ग्राहकों को बराबर मान देते हैं। अब दूसरों से अधिक आपको देंगे तो दूसरों को लगेगा कि उनका अपमान कर रहे हैं। रहा सवाल डिस्काउंट का तो जिन जिन्सों में डिस्काउंट सम्भव है उनमें दिया ही जा रहा है, वे सभी ग्राहकों को देते हैं। उनको भी दे रहे हैं। यदि संभव होगा तो कुछ डिस्काउंट बढ़ा देंगे लेकिन देंगे सभी ग्राहकों को, वे ग्राहक-ग्राहक में भेद नहीं कर सकते।
बस फिर क्या था। मेराज की फौरन सटक गई। उसने कह दिया कि उसे प्रतिद्वंदी दुकानदार वह सब देने को तैयार है जो उस की मांग है। इसलिए वह सोचेगा कि वह इस दुकान से मान खऱीदना बंद कर प्रतिद्वंदी की दुकान से क्यों न खऱीदने लगे। उधर जिस दिन से वह न्यौते पर हो कर आया था उसी दिन बाजार में कानों-कान खबर उड़ गयी थी कि मेराज भी अब पुरानी वाली दुकान छोड़ नयी दुकान से मान लेने की सोच रहा है। मेराज शहर के बड़े आसामियों में से था तो खबर को खबरची ले उड़े। अखबारों में भी बात छप गयी। पुरानी दुकान के ग्राहक सतर्क हो गए। वे एक-एक कर दुकानदार के पास पहुँचकर बोलने लगे। मेराज को सुविधाएँ देने में उनको कोई आपत्ति नहीं है पर उन्हें भी वैसी ही सुविधाएँ चाहिए। पुराना दुकानदार सब को सहता रहा और कहता रहा। वह ऐसा नहीं कर सकता। वह सब ग्राहकों को समान समझता है और समान ही व्यवहार करेगा। इस के सिवा वह और कहता भी क्या? उसे पता था, प्रतिद्वंदी दुकानदार ने उस के व्यवसाय को खासा चोट पहुंचाई है। बाजार में नम्बर एक का स्थान तो उस से कभी का छिन चुका है। अभी भी वह नम्बर दो बना हुआ है तो इन्हीं पुराने ग्राहकों की बदौलत। उस के नए ग्राहक भी इन पुराने ग्राहकों की बदौलत ही आते हैं। वह इन ग्राहकों को कतई चोट नहीं पहुँचा सकता। उस ने मेराज को अलग से कोई सुविधा दी तो उसकी बची-खुची दुकानदारी को बत्ती लग जाएगी। वह चुप्पी खींच कर बैठ गया।
जल्दी ही मेराज पुरानी दुकान पहुँचा और उसका हिसाब-किताब कर आया। बाजार तो बाजार ठहरा। वहाँ चर्चाएँ चलीं। मेराज अब खुद की अपनी दुकान खोल लेगा। कुछ ने कहा उसे दुकानदारी करनी होती तो पहले ही कर लेता। उसका धंधा दूसरा है वह इस धंधे में क्यों पड़ेगा, वह जरूर नई दुकान पकड़ेगा। दो दिन तक ये सारी गपशप बाजारों, अखबारों, चैनलों के साथ साथ फेसबुक और व्हाट्सएप गलियारों में भी खूब चलीं। तीसरे दिन दोपहर को अचानक मेराज अपने घर से निकला और सीधे नई दुकान पर पहुंच गया। दुकान पर न नया दुकानदार था और न ही उसका मुनीम। बस कारिन्दे थे। लेकिन कारिन्दों ने उस का खूब जोर शोर से स्वागत किया। ये सब चैनलों ने लाइव दिखाया।
मेराज का दुकान बदलने का उत्साह ठंडा पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब वह दुकान पर पहुँचा तब दुकानदार को नहीं तो उस के मुनीम को तो वहाँ होना ही चाहिए था। दोनों नहीं थे, और यह सब चैनलों ने लाइव दिखा दिया। यह तो उस की भद्द हो गयी, डैमेज हो गया। नयी शुरुआत और वह भी डैमेज से। वह दुखी हुआ। उसने तुरन्त नए दुकानदार को काल लगवाई। पता लगा नए दुकानदार के सभी फोन एंगेज आ रहे हैं। मेराज के कारिन्दों ने मुनीम के फोन खंगाले तो उन पर घंटी जाती रही, किसी ने उठाया ही नहीं। थक हार कर कारिन्दे बैठ गए। सोचा कुछ देर बार फिर ट्राई करेंगे। कोई बीस मिनट ही बीते होंगे कि फोन आ गया। नई दुकान के मुनीम का था। फोन तुरन्त मेराज को पकड़ाया गया। मुनीम बोला- वो बाथरूम में था और किसी कारिन्दे को आप का फोन उठाने की हिम्मत न हुई। उसे मेराज के दुकान पर आने की खबर बहुत देर से हुई वर्ना दुकानदार और वह खुद दुकान पर ही उस का स्वागत करते। वे दोनों जहाँ थे वहाँ से दुकान पर तुरन्त पहुँचना मुमकिन नहीं था। अब वह खुद और दुकानदार फ्री हैं। वे चाहेँ तो मिलने आ सकते हैं।
मुनीम के फोन से मेराज की साँस में साँस आई। वह शाम को दोनों से मिलने गया। ध्यान रखा कि जब वह मिले वहाँ चैनल वाले जरूर हों। कुछ ही देर में चैनलों पर दुकानदार और मुनीम से मेराज की मुलाकात के वीडियो आ गए। कुछ हद तक डेमेज कंट्रोल हो चुका था। रात को मेराज ने अपने कारिन्दे को बुलाया और पूछा- नई दुकान से जो मान आया था उसके बिल चैक किए? मान चैक किया? कारिन्दे ने जवाब दिया- मान में तो कोई खास फर्क नहीं है, कुछ बीस है तो कुछ उन्नीस है। मान की कीमत कम लगाई है, पर पैकिंग अलग से चार्ज की है उसे मिला दें तो पुराने दुकानदार के मान से दाम कुछ अधिक ही लगे हैं। पर ये जरूर है कि मान जूट के बोरों की जगह खूबसूरत रंगे-पुते गत्तों  में आया है। ड्राइंगरूम में भी कुछ घंटे रखा रह जाए तो बुरा नहीं लगता।
मेराज सोच रहा था कि यह तो दो चार महीने के बाद पता लगेगा कि मान कैसा है और दाम कितने। दुकानदार और मुनीम दोनों मिल लिए हैं। चैनलों में वीडियो आ गए हैं। अभी तो मान की भर्ती पूरी हो गयी है। सुबह का डैमेज कंट्रोल कर लिया है। आगे की आगे देखेंगे।

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

शट-अप


एक सच्ची सी 'लघुकथा'

मारे मुहल्ले की एक औरत बहुत लड़ाकू और गुस्सैल थी। अक्सर घर में सब से लड़ती रहती। सास, पति, ननद, देवर, बेटे, बेटी कोई भी उस की लड़ाई से महरूम नहीं था। अब इस आदत की औरत पड़ौसियों से कैसा व्यवहार करताी होगी इस का अनुमान तो आप लगा सकते हैं। उस के दोनों पड़ौसियों से रिश्ते सिर्फ और सिर्फ लड़ाई के थे। हमारा घर उस के घर से दो घर छोड़ कर था। इस कारण इस लड़ाई की मेहरबानी से हम बचे हुए थे। कभी राह में मिलती तो मैें तो भाभीजी प्रणाम कर के खिसक लेता। कभी कभी मेरी उत्तमार्ध शोभा को मिल जाती तो बातें करती। एक बार उसे लगा कि शोभा ने किसी से उस की बुराई कर दी है। तो वह तुरन्त लड़ने हमारे घर पहुँच गयी।

ये वो वक्त था जब मैं अदालत गया हुआ था और शोभा घर पर थी। वह आई और गेट पर हमारी घंटी बजा दी। जैसे ही शोभा ड्राइंग रूम से बाहर पोर्च में आयी उस ने अपना गालियों का खजाना उस पर उड़ेल दिया। शोभा को न तो गाली देना आता है और न ही लड़ना। वह यह हमला देख कर स्तब्ध रह गयी। उसे कुछ भी न सूझ पड़ा कि वह इस मुसीबत का सामना कैसे करे। गालियां सुन कर गुस्सा तो आना ही था गुस्से में उस ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी पड़ोसन को दिखाई और जोर से बोली शट-अप।

पड़ोसन शट-अप सुन कर हक्की बक्की रह गयी। शोभा से उसे ऐसी आशा न थी। वह तुरन्त मुड़ी और सड़क पर जा कर चिल्लाने लगी। मुझे फलाँनी ने शट-अप कह दिया, वह ऐसा कैसे कह सकती है? ऐसा उसे आज तक किसी ने नहीं कहा। वह बहुत बदतमीज है। उस की इस तरह चिल्लाने की आवाज सुन कर मोहल्ले की औरतें बाहर आ कर पड़ोसन को देखने लगी। सारा वाकया समझ कर सब हँसने लगी। यहाँ तक कि जब बाद में उस के परिजनों को पता लगा तो उन का भी हँसने का खूब मन हुआ। पर लड़ाई के डर से हंसी को पेट में ही दबा गए। आखिर उस लड़ोकनी पड़ोसन को किसी ने शट-अप तो कहा।

मुझे शाम को यह खबर शोभा ने सुनाई तो मुझे भी खूब हँसी आई। इस घठना ने मेरी ही नहीं बल्कि उस मुह्ल्ले के लगभग सभी लोगों की स्मृति में स्थायी स्थान बना लिया है।

  • दिनेशराय द्विवेदी

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

वे देेर तक हाथ हिलाते रहे


___________________ लघुकथा




हिन को शाम को जाना था। छुट्टी का दिन था। वह स्टेशन तक छोड़ने जाने वाला था।

तभी कंपनी से कॉल आ गई। नए लांचिंग में कुछ प्रोब्लम है। फोन पर सोल्व नहीं हो सकी। कंपनी जाना पड़ा। बहिन को मकान मालिक को किराया नकद में देना है, पर नोटबंदी के युग में नकदी इत्ती तो नहीं। बहिन ने सिर्फ जिक्र किया था। यह भी कहा था कि वह खुद जा कर लेगी। भाई ने सोचा कहाँ परेशान होती रहेगी। उसने इधर उधर से थोड़ा इन्तजाम किया।

बहिन के घर से निकलने का समय हो गया। वह निकल ली। भाई ने देखा वह कोशिश करे तो बहिन के पास स्टेशन तक पहुँच सकता है। कैब बुक की और उसे तेजी से चलाने को कहा।

ट्रेन छूटने के ठीक कुछ सैकंड पहले वह प्लेटफार्म पर पहुँच गया। बहिन उसी की राह देख रही थी। भाई को देखते ही उस की आँखें चमक उठीं। भाई ने कुछ भी कहने के पहले जेब से नोट निकाले और बहिन को थमाए।

-तो तू इस लिए लेट हो गया? मैं ने तो पहले ही कहा था। मैं कर लूंगी।
-नहीं लेट तो मैं इसलिए हुआ कि कंपनी का काम देर से निपटा। वर्ना नोट तो मैं ने पहले ही कबाड़ लिए थे।

तभी ट्रेन चल दी। बहिन कोच के दरवाजे में खड़ी हाथ हिलाने लगी, और भाई प्लेटफार्म पर खड़े खड़े। दोनों के बीच दूरी बढ़ती रही। दोनों एक दूसरे की आंखों से ओझल हो गए। फिर भी दोनों देर तक हाथ हिलाते रहे।

रविवार, 11 दिसंबर 2016

अब तो मैं यहीं निपट लिया

'लघुकथा'

        बस स्टैंड से बस रवाना हुई तब 55 सीटर बस में कुल 15 सवारियाँ थीं। रात हो चुकी थी। शहर से बाहर निकलने के पहले शहर के आखिरी कोने पर रोडवेज की एक बुकिंग विण्डो थी। वहाँ कुछ सैकण्ड्स के लिए बस रुकी बुकिंग विण्डो बन्द थी। कण्डक्टर कम ड्राइवर ने  सीट से उतर कर देखा। वहाँ से 2 सवारियाँ और चढ़ीं। कुल मिला कर बस में 17 सवारियाँ हो गयीं। अब बस में कैपेसिटी की लगभग 31% सवारियाँ थीं। ड्राइवर जो कण्डक्टर भी था वापस अपनी सीट पर आ बैठा। बस में बैठी एक सवारी ने खड़े हो कर ड्राइवर को आवाज लगाई और हाथ खड़ा कर के अपनी कनिष्ठिका दिखाई। ड्राइवर समझ गया कि उसे पेशाब करना है। तब तक ड्राइवर गियर लगा कर एक्सीलेटर दबा चुका था। उस ने ड्राइविंग सीट से ही चिल्ला कर कहा। बस थोड़ी देर में आगे बस रुकेगी तब कर लेना।

बस कोई आठ--8-10 किलोमीटर आगे आई तो फिर उसी सवारी ने खड़े हो कर पूछा -ड्राईवर साहब! बस कब रुकेगी?
- बस थोड़ी देर में रुकेगी।

5 किलोमीटर बाद फिर वह सवारी उठ खड़ी हुई उस ने फिर ड्राईवर से पूछा -ड्राईवर साहब! बस कितनी देर बाद रुकेगी?
ड्राईवर ने फिर अपनी सीट से चिल्ला कर कहा बस थोड़ी देर में रोकेंगे। 

बस जब 20वें किलोमीटर पर पहुँची तो फिर वह सवारी उठ खड़ी हुई और जोर से कहा -ड्राईवर साहब! कित्ती देर और लगेगी?
ड्राईवर साहब ने जोर से कहा -बस दो किलोमीटर और। 

22वें किलोमीटर पर कस्बे का बस स्टेैंड था। ड्राईवर ने बस रोकी और उतर कर बुकिंग विण्डो की और जाते हुए चिल्ला कर कहा जिस को पानी पेशाब करना हो कर ले। आगे बस कोटा जा कर रुकेगी। ड्राईवर बुकिंग विण्डो पर बस बुक कराने चला गया। वह सवारी अपनी सीट से नहीं उठी तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं ने पीछे मुड़ कर उसे कहा -तुम्हें पेशाब करना था, कर आओ। ड्राईवर कह कर गया है कि आगे न रोकेगा।

-अब तो मैं यहीं निपट लिया। बाराँ से बीयर की बोतल पी कर चला था। जोर की लगी थी, नहीं रुकी तो क्या करता। सवारियाँ जिन ने सुना वे सब हँस पड़े। एक ने कहा वहीं कह दिया होता तो हम ही ड्राइवर से बस रुकवा देते। कुछ सवारियाँ जो उस सवारी के ठीक अगली सीट पर बैठी थीं। उन्हों ने सीट बदल ली। कोटा आने पर सब सवारियाँ बस से उतर गईं। उस सवारी को नीन्द लग गयी थी उसे जगा कर उतारना पड़ा।

रविवार, 4 दिसंबर 2016

वर्ना सुखा दूंगा

ˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍ एक लघुकथा
रामचन्दर कई दिन से कमान पर तीर चढ़ा कर समन्दर को ललकार रहा था।
-देख! सीधाई से रस्ता दे दे वर्ना सुखा दूंगा।

समन्दर था कि उस पर कोई असर ही नहीं हो रहा था। वह तो पहले की तरह लहर लहर लहरा रहा था। न तो उसे रामचन्दर दिखाई दे रहा था, न उस के साथ के लोग। रामचन्दर की आवाज तो लहरों की आवाज में दबी जा रही थी।

अचानक कहीं से बाबा तुलसी आ निकला। रामचन्दर के कानों में गाने की आवाज पहुँची........
-विनय न मानत जलधि जड़ गए कई दिन बीत ......

रामचन्दर के हाथों से तीर छूट गया। समन्दर का पानी सूखने लगा। हा हाकार मच गया। समंदर के जीवजंतु मरने लगे। कुछ ही घंटों में समंदर की तलहटी दिखाई देने लगी। ऐसी ऊबड़ खाबड़ और नुकीले पत्थर, बीच बीच के गड्ढों में बदबू मारता कीचड़। इंसान और बन्दर तो क्या उड़ने वाले पंछी भी अपने पैर वहाँ न जमा सकें।

रामचन्दर माथा पकड़ वहीं चट्टान पर बैठ गया।

लंका का रस्ता भी न मिला, लाखों की हत्या और गले बंध गई।


  • दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

भण्डारा

'लघुकथा'


भिखारियों को भोजन के लिए बाजार वालों ने भण्डारा किया। बाजार को कनातें लगा कर बन्द कर दिया गया था। सड़क को नगर निगम से टैंकर मंगवा कर धुलवाया गया। जब वह सूख ली तो उस पर टाट पट्टियाँ बिछाई गयीं। भोजन के लिए आए भिखारी यह सब कार्रवाई बाजार के कोने में भीड़ लगाए टुकुर टुकुर देखते रहे। जब हलवाई ने बताया कि इतना भोजन तैयार है कि भिखारियों को भोजन के लिए बिठाया जा सकता है। भिखारी आए और टाटपट्टियों पर बैठ गए। उन में से एक-दो ही थे जिन्हों ने पालथी मारी हो। अधिकांश उकड़ूँ बैठे थे। उन्हें देख कर एक हाथियाए व्यापारी ने कहा, 'बेकार ही टाट पट्टियाँ मंगाईं, ये तो सब उकड़ूँ बैठगए'।

मोटे पेट वाले एक व्यापारी ने उन्हें पत्तलें परोसीं, दूसरे पूरी, सब्जी, नुक्ती और सेव परसने लगे। ये वही थे जो और दिनों भिखारियों के कुछ मांगने पर एक सैंकड़ा गाली देकर भगा दिया करते थे। कभी कभी किसी जिद्दी भिखारी के सामने तो डंडे का उपयोग भी कर लेते थे। भिखारीगण भोजन करने लगे। एक पंगत उठती तो दूसरी बैठ जाती। भिखारी आते जा रहे थे उन का कोई वारापार न था।

दोपहर बाद एक अच्छे कपडे पहने नौजवान आया और भिखारियों की पंक्ति में बैठ गया। परोसने वाले चौंके ये भिखारियों के बीच कौन आ गया। व्यापारियों में खुसुर फुसुर होने लगी। तभी एक नौजवान व्यापारी ने उसे पहचान लिया। वह तो नगर के सब से ज्यादा चलने वाले महंगे ग़ज़ब रेस्टोरेंट के मालिक का बेटा था। व्यापारियों ने कुछ तय किया और तीन चार उस के नजदीक गए। बोले -तुम तो ग़ज़ब के मालिक के बेटे हो न? तुम्हें यहाँ भिखारियों के साथ खाने को बैठने की क्या जरूरत?


मुझे बाप के रेस्टोरेंट का खाना पसंद नहीं। रेस्टोरेंट का धन्धा भी कोई धन्धा है। बहुत परेशानियाँ हैं। मैने बाप से कहा तो उस ने घर से निकाल दिया। अब भिखारी जैसा ही हूँ, इस लिए भंडारे के भोजन का अधिकारी भी।

व्यापारियों ने विचार किया कि बाप ने नाराज हो कर घर से निकाला है हम ने भंडारे में खाने दिया तो इस का बाप नाराज हो जाएगा, दूसरे भिखारियों को भी ये पसन्द न आएगा। उन्हों ने उसे उठा दिया।

उसे गुस्सा आ गया। गुस्से में भर कर उस ने मुट्ठियाँ तानीं और भाषण देने लगा -तुम ने मेरा अपमान किया है। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे यहाँ से उठाने की। मेरे दोस्तों और फॉलोवरों की कमी नहीं है।अभी सब को साथ ले कर आता हूँ। देखता हूँ कैसे करते हो भंडारा। यह कहते हुए वह वहाँ से चला गया। व्यापारी भंडारा करते रहे।

आधे घंटे बाद हाथों मेे हॉकियाँ और बेसबॉल के डंडे लिए बाइकों पर 20-30 नौजवान आए। भंडारे की भट्टियाँ बुझा दीं। तेल के कड़ाह और भोजन भरे बरतन उलट दिए। जिस ने रोका उस का सिर फोड़ दिया। कुल तीन मिनट लगे। वे सब कुछ तहस नहस कर के दफा हो गए। पूरे बाजार में हाहाकार मच गया।

यह पिछले साल की बात थी। इस साल फिर भंडारे का दिन नजदीक आ रहा है। व्यापारी सोच रहे हैं कि भंडारा करें कि नहीं?

शनिवार, 11 जुलाई 2015

'घड़ीसाज'



'लघुकथा'

'घड़ीसाज'

- दिनेशराय द्विवेदी


- कुछ सुना तुमने?
- क्या?
- अरे! तुमने रेडियो नहीं सुना? टीवी नहीं देखा?
- देखा है, सब देखा है। उस में तो न जने क्या क्या होता है। मुझे कैसे पता कि तुम किस के लिए बोल रहे हो?
- मैं वो बड़े साहब की बात कर रहा था।
- कौन बड़े साहब?
- अरे? वही शेरखान साहब!
- अच्छा, अच्छा!
- अच्छा अच्छा क्या? वही अपने सरकस के नए मनीजर साहब!
- हाँ हाँ वही न? जो बात बात में जो बात बात में राष्ट्र बनाने की बात करते हैं?
- हाँ, वही। अब समझे तुम! उन ने बोला है कि राष्ट्र बनाना है।
- क्या मतलब? क्या राष्ट्र अभी तक बना हुआ नहीं था?
- नहीं नहीं, उन का ये मतलब नहीं था। राष्ट्र तो बना हुआ है। पर जरा बिगड़ा हुआ है न! उसे फिर से बनाना है। जैसे घड़ी चलते चलते आगे या पीछे चलने लगती है तो उसे घड़ीसाज के पास ले जाना पड़ता है, वह बना देता है।
- अच्छा तो बड़े साहब घड़ीसाज भी हैं?
- तुम्हें कितना ही समझाओ। तुम रहोगे चुगद के चुगद ही। राष्ट्र कोई घड़ी थोड़े ही है जिसे बनाने के लिए घड़ीसाज की जरूरत होगी।
- हाँ, वो भी सही है। आज कल घड़ी कौन बनवाता है। थोड़ी भी इधर उधऱ होने लगी कि फेंक दी और नयी ले आए। वैसे भी यूज एण्ड थ्रो का जमाना है। यार! तुम्हारे साहब इस खराब राष्ट्र को फेंक क्यों नहीं देते। नया खरीद लें। बिलकुल कंपनी की गारण्टी वारण्टी वाला। सारा खेल खतम।
- तुम नहीं सुधरोगे! समझना ही नहीं चाहते तो वैसे कह दो।
- नहीं नहीं? ऐसी कोई बात नहीं। मैं समझना चाहता हूँ। पर उदाहरण से समझें तो अच्छा समझ आता है।
- ठीक है, ठीक है। उदाहरण ही सही। पर उदाहरण तो सही दिया करो। अब ये घड़ी और घड़ीसाज का उदाहरण सही नहीं है। कोई और अच्छा सा होना चाहिए था। चल! छोड़। हम भी कहाँ उलझ गए। ..... तो मैं बता रहा था कि साहब ने सब को संदेश दिया है।
- क्या?
- कि गैस सब्सिडी छोड़ दो, राष्ट्र बनाना है।
- गैस सब्सिडी?
- वही पैसा न जो सिलेंडर का पैसा देने के बाद अब खाते में आ जाता है, उस के लिए लिख दो कि वो हमें नहीं चाहिए।
- ओह! तो साहब को पैसा चाहिए?
- क्यों नहीं चाहेगा पैसा? साहब राष्ट्र जो बनाएंगे।
- तब तो मेरा उदाहरण बिलकुल सही था। घड़ीसाज भी तो घड़ी बनाने का पैसा लेता है।

शनिवार, 13 जून 2015

फर्जी डिग्री

'लघुकथा'
रामदास सरकारी टीचर हो गया। वह स्कूल में मुझ से चार साल पीछे था। एक साधारण विद्यार्थी जो हमेशा पास होने के लिए जूझता रहता था।  मैं स्कूल से कालेज में चला गया। फिर पता लगा कि वह दसवीं क्लास में दो बार फेल हो जाने पर पढ़ने मध्यप्रदेश चला गया। कुछ साल बाद जानकारी मिली कि उस ने वहाँ से न केवल हायर सैकण्डरी बल्कि बीए भी कर लिया और बीएड भी। कुछ दिन उस ने निजी स्कूलों में भी पढाया।

सरकारी नौकरी मिलने पर उस की पहली पोस्टिंग किसी गाँव के स्कूल में हुई थी। वह एक जीप से रोज शहर से गाँव जाता। इसी जीप से बहुत टीचर और टीचरनियाँ रोज शहर से गाँवों के स्कूल जाया करते थे। एक टीचरनी से उस की दोस्ती हो गयी। दोस्ती भी ऐसी कि धीरे धीरे प्यार में बदल गयी। दोनों ने शादी कर ली। 

शादी हो जाने के बाद दोनों ने कोशिश कर के अपनी पोस्टिंग जिला मुख्यालय पर करवा ली। दोनों कमाते और बचाते। फिर जिला मुख्यालय के शहर की ही एक बस्ती में प्लाट ले लिया। धीरे धीरे उस पर दो मंजिला मकान बना लिया। उन्हीं दिनों पडौस में कोचिंग इंस्टीट्यूट खुले तो पढ़ने वाले बच्चे कमरे ढूंढने लगे। रामदास ने बैंक से लोन ले कर दो मंजिलें और बना लीं और कमरे कोचिंग स्टूडेण्ट्स को किराए पर चढ़ा दिए। 

फिर एक दिन पता लगा कि रामदास की हायर सैकण्डरी का प्रमाण पत्र फर्जी निकला। उसे आरोप पत्र मिला और आखिर उसे नौोकरी से निकाल दिया गया। पर इस से रामदास के जीवन पर कोई बड़ा असर नहीं हुआ। रामदास की पत्नी अब भी सरकारी टीचर है। वह नौकरी पर जाती है। घर का सारा काम रामदास देख लेता है। खाना भी अक्सर दोनों वक्त का खुद ही बनाता है और बच्चों को भी संभाल लेता है। आमदनी की कोई कमी नहीं। जितना वेतन टीचर की नौकरी से मिलता था उस से दुगना तो वह मकान के किराए से कमा लेता है। रामदास सुखी है, उस की पत्नी अब भी खुश है। बेटा इंजिनियर हो गया है, बंगलौर में नौकरी कर रहा है। रामदास के पास बेटे के लिए खूब रिश्ते आ रहे हैं अच्छे खासे दहेज के प्रस्ताव के साथ।