@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: 2025

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

बदले का पाठ

कॉलेज की लाइब्रेरी में राधा ने पहली बार "फेमिनिज़्म" शब्द को किताब के पन्नों में देखा।

पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—

"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"

किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"

पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।

गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।

“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”

“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”

“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”

राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"



राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”

तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।

उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"

राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"

उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

जय जनतंत्र, जय संविधान¡


"लघुकथा"


दिनेशराय द्विवेदी

जिले के सबसे बड़े गाँव चमनगढ़ की आबादी दस हज़ार होने को थी, ग्राम पंचायत भी बड़ी थी। दो बरस पहले यहाँ ग्राम पंचायत ने सरकारी मदद से सामुदायिक भवन बनाया था, जिसका उद्देश्य था कि, जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय से परे उसका उपयोग कर सके। पहली बार एक दलित हरखू ने अपनी बेटी की शादी उसी भवन में करने का आवेदन दिया, और सचिव ने सरपंच पंडित शंकरलाल की अनुमति से निर्धारित शुल्क जमा कर के दलित परिवार को सामुदायिक भवन में शादी समारोह करने, बारात ठहराने की अनुमति दे दी।

यह खबर कानों कान गाँव के हर मोहल्ले, हर घर में पहुँच गयी। गाँव में विरोध के स्वर उठने लगे। सवर्णों और ओबीसी समुदायों का मत था कि यह नहीं हो सकता। सामुदायिक भवन दलितों को दिया जाने लगा तो सारी ऊँच-नीच खत्म होने लग जाएगी। कल से ये लोग निजी मंदिरों में भी घुसने लगेंगे, हमारे बीच खाने भी लगेंगे। पंचायत के अधिकांश पंच सरपंच के खिलाफ हो गए और सरपंच को पद से हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव ले आए।

पंडित शंकरलाल ने गांधीजी के अनुयायी अपने पिता से जनतंत्र के आधारभूत मूल्य आत्मसात किए थे। वे प्राण तज सकते थे लेकिन उन मूल्यों पर समझौता नहीं कर सकते थे। वे चिंतित हो उठे। सवाल था कि, “क्या पंचायत बहुमत के दबाव में जनतंत्र के मूल सिद्धांतों को तोड़ देगी, या स्थायी मूल्यों की रक्षा करेगी?

पंडित शंकरलाल पूर्व अध्यापक थे, वे पीछे न हट सकते थे। उनका शिष्य और युवा पंच अर्जुन उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा था। दोनों सलाह करके गाँव के घर-घर गए और एक-एक व्यक्ति को समझाया कि सामुदायिक भवन सब का है। उन्होंने बताया कि वर्षों के संघर्षों से सब ने एक साथ यह आजादी, जनतंत्र हासिल किए हैं। दलितों का उसमें योगदान कम नहीं था। देश ने एक संविधान को स्वीकार किया है, जो सब को बराबर का हक देता है, कहता है, “स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हर नागरिक का अधिकार है।

बहुत मेहनत के साथ यह काम करने के बाद भी उन्हें लगा कि वे लोगों को समझाने में सफल नहीं हुए। इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर कोई उन्हें आश्वासन नहीं दे सका। दोनों निराश होने लगे।

आखिर पंचायत की बैठक का निर्णायक दिन आ गया। पंचायत भवन के बाहर भीड़ जमा थी। नारे गूँज रहे थे, “जनमत ही सर्वोपरि है!, हम ये होने नहीं देंगे” दलित डरे हुए थे, अपने घरों में दुबके हुए, कोई-कोई छुप छुपा कर पंचायत की और नजर दौड़ा कर वापस घर में दुबक जाता। पंच भी दबाव में थे।

कार्यवाही आरंभ हुई, सरपंच ने कहा, “अगर हम बहुमत के दबाव में किसी को रोकते हैं, तो यह भवन सामुदायिक नहीं, जातिगत हो जाएगा। हमारा जनतंत्र और संविधान दोनों की आत्मा का वध हो जाएगा।”

अर्जुन ने साथ दिया, “जनमत क्षणिक है, लेकिन लोकतंत्र के मूल सिद्धांत स्थायी हैं। आज दलितों को रोकोगे, कल महिलाओं को रोकोगे। क्या हम हर बार संविधान को तोड़ देंगे, दुबारा फिर से गुलामी को न्यौता देंगे?”

भीड़ का शोर थम नहीं रहा था। तभी सरपंच का पुत्र रवि नगर के कॉलेज के अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ आगे आया। उसके कंधे पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लटका था। पंचायत भवन के सामने खड़ा हो कर ऊँचे स्वर में बोलने लगा।

“सोचो, अगर कल आपके बेटे या बेटी को सामुदायिक भवन में विवाह करने से रोका जाए, तो क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? यह भवन सरकार ने सबके लिए बनाया है। क्या हम इसे जाति का किला बना देंगे, या भाईचारे का प्रतीक बना रहने देंगे?” सोचिए इस का लोकार्पण किसने किया था? वह कलेक्टर भी एक दलित था। क्या उस दिन कोई विरोध में सामने आया था?

उसके दोस्तों ने भीड़ में जाकर समझाया, “यह भवन हमारे करों से बना है। इसमें हर नागरिक का हिस्सा है। अगर हम किसी को रोकते हैं, तो हम अपने ही अधिकारों को ही कमजोर कर देंगे।”

भीड़ का शोर धीमा पड़ने लगा। लोग सोच में पड़ गए। अब वे आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

अंदर पंचायत भवन में बैठक चल रही थी। आखिर पंडित शंकरलाल पंचायत भवन की छत पर आए। उनके साथ पंचायत के सभी पंच थे। उनके हाथ में पंचायत के लाउडस्पीकर का माइक था। वे निर्णय सुनाने लगे,

“हम सारे पंचों ने एक मत से निर्णय लिया है। हम सारे पंचों को विश्वास है कि पूरा गाँव, गाँव के सब लोग एकमत से हुए हमारे इस निर्णय को सम्मान देंगे। सामुदायिक भवन हर नागरिक के लिए है। गाँव के सभी निवासियों को उसके उपयोग का पूरा हक है। हरखू भाई की बेटी की शादी सामुदायिक भवन से ही होगी। यही जनतंत्र और हमारे संविधान का सम्मान है।”

  भीड़ में से किसी ने ताली बजाई, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने। तुरन्त ही तालियों की गड़गड़ाहट में हर किसी के हाथ शामिल हो गए। रवि और उसके दोस्त खुशी से उछल पड़े। रवि ने अपने लाउडस्पीकर पर घोषणा की हम सब अब हरखू चाचा के घर चलेंगे और उन्हें यह खुश खबर देंगे। हम संविधान जिन्दाबाद के नारे लगाते चलेंगे।

रवि ने लाउडस्पीकर पर नारा लगाया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”
भीड़ ने एक स्वर से उत्तर दिया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

भीड़ हरखू के घर की ओर जा रही थी, गाँव में नारा गूंज रहा था, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

गाँव के चंन्द लोग अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हुआ। वे चुपचाप अपने घरों को चल दिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

रुकने का साहस


खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।

एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”

पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।

उसका नाम था अभय। वह एक शिक्षक था। अगले दिन उसने अपने छात्रों को यह अनुभव सुनाया। बच्चों ने कहा—“सर, अगर आप रुक सकते हैं तो हम भी रुकेंगे।”

धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।

शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।









रविवार, 30 नवंबर 2025

चढ़ावा


गाँव के चौक में भीड़ थी. चुनाव का मौसम था. नेता जी की गाड़ी आई और लोगों में हलचल मच गई.

रामलाल, दिनभर दिहाड़ी पर काम करता था, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया.

नेता जी ने मुस्कराकर कहा, “रामलाल, वोट देना मत भूलना.“ फिर एक थैला देकर कहने लगे, “देखो यह महीने पन्द्रह दिन का राशन है और कुछ दिन का शाम का इन्तजाम भी है.”

रामलाल ने सामान उठाया और मन ही मन सोचा, “भगवान नाराज़ हैं तभी तो मैं गरीब हूँ. शायद नेता जी ही भगवान के भेजे हुए दूत ही हैं. अगर खुश कर दूँ तो मेरी हालत सुधर जाएगी.”

नेताजी गाँव में प्रचार के लिए आए थे. उन्हें गाँव के लोगों की जरूरत थी जो उनके साथ पूरे गाँव में तब तक घूमता. वह नेताजी के पीछे पीछे हो लिया. वह दिन भर नेताजी से चिपका रहा जब तक कि गाँव में सब से मिल कर अगले गाँव के लिए न निकल लिए. नेताजी ने जाते जाते भी रामलाल से कहा, “चुनाव तक तुम ध्यान रखना. कोई खराब खबर हो तो बताना.“

नेताजी से इतनी सी बात सुन रामलाल गदगद हो गया. वह घर की ओर चल दिया. रास्ते में मंदिर मिला. उसने सोचा चलते चलते भगवान जी को ढोक दे चलूँ. आज का दिन अच्छा है. वे खुश हो जाएँ तो जिन्दगी कुछ और सुधर जाए.
मंदिर में भगवान की मूर्ति के सामने प्रसाद, फूलमाला के ढेर लगा था. भगवान के सामने रखे एक थाल में बहुत सारे सिक्के पड़े थे, उनमें कुछ बड़े नोट भी थे. पुजारी इन सब को देख बहुत खुश हो रहा था. वह जानता था कि किसी दिन कोई अमीर आएगा और सोने चांदी जैसे चढ़ावे भी चढ़ाएंगे.

रामलाल भगवान के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया. उन्हें मन ही मन धन्यवाद देने लगा. उस ने प्रार्थना भी की. फिर उसे ध्यान आया कि भगवान उसकी नहीं उन लोगों की प्रार्थना पर अधिक ध्यान देंगे जिन्होंने वहाँ चढ़ावा चढ़ाया है. उसका हाथ फौरन अपने कुर्ते की जेब में गया. वहाँ बस एक रुपया पड़ा था. उसने वही थाली में चढ़ा दिया. उसके रुपया चढ़ाते ही पुजारी जी ने उस के माथे पर तिलक लगाया और चरणामृत दिया. फिर प्रसाद की थाली में से मिसरी के दो टुकड़े उसके हाथ पर रख बोला, “ईश्वर जरूर तुम पर भी कृपा करेगा, तुम्हारे दिन भी फिरेंगे”. उसने सोचा, “भगवान खुश गए तो जरूर उसकी गरीबी दूर होगी. वह आज से रोज मंदिर आया करेगा.

मंदिर से वह बाहर निकला. मंदिर के नीचे ही पास में उसका दोस्त शंकर मोची बैठता था, लोगों के जूते चप्पल दुरुस्त करता था, कोई कहता तो उसके लिए जूते जूती भी बना देता. शाम हो चली थी शंकर अपनी दुकान समेट रहा. रामलाल ने शंकर से राम- राम की, शंकर ने भी राम-राम कह कर जवाब दिया.

“अपनी दुकान समेट रहे हो?” रामलाल ने पूछा.

“ हाँ, शाम हो गयी है अब कोई ग्राहक नहीं आएगा, रुक कर भी क्या करूँगा. शंकर ने उत्तर दिया.

“ठीक है, मैं भी नेताजी के साथ घूम घूम कर थक गया हूँ, मैं भी घर ही जाता हूँ.“ इतना कह कर रामलाल भी वहाँ से चल दिया.

उस दिन के बाद रामलाल रोज शाम के समय मंदिर जाने लगा. कभी फूलमाला, कभी प्रसाद तो कभी रुपया चढ़ा कर आता. शंकर से उससे रोज राम-राम होती. इस तरह कई दिन हो गए. चुनाव भी बीत गया. नेताजी चुनाव जीत गए थे. एक शाम वह मंदिर से निकला तो शंकर अपनी दुकान पूरी तरह समेट चुका था और घर जाने को तैयार था. दोनों का घर एक ही ओर था तो दोनों साथ घर की ओर चले.

“तुम आज कल रोज मंदिर आते हो?” शंकर ने बात छेड़ी.

“हाँ, भाई आता तो हूँ. रोज कुछ न कुछ चढ़ाता भी हूँ. शायद किसी दिन भगवान सुन लें और जिन्दगी कुछ सुधर जाए.” रामलाल की आवाज में बहुत उदासी थी. वह आगे कहने लगा. नेताजी चुनाव में आए थे, महीने भर का राशन दे गए थे. चुनाव खत्म होते ही वह भी खत्म हो गया. तुम जानते हो आज कल काम तो कम ही मिलता है. घर चलाना मुश्किल हो चला है. रोज आता हूँ कि भगवान प्रसन्न हो गए तो दिन सुधर जाएंगे.“

उसकी बात सुनते ही शंकर हँसा और बोला, “ तुम बेवकूफ हो. रोज मंदिर आने और नेताजी के पीछे पीछे घूमने, थोड़े दिन के राशन और दारू के बदले वोट बेचना ही हमें और गरीब बनाता है. मैं तो कई साल से मंदिर के पास ही बैठता हूँ और जूते बनाता हूँ. रोज मंदिर आने जाने वाले लोगों को देखता हूँ. मंदिर आने से कभी किसी का कुछ न सुधरा. भगवान भी पैसे वालों और समर्थों का ही साथ देता है.“

“बात तो तुम्हारी सही लगती है. पर समझ नहीं आता कि करें तो क्या करें? भगवान ही चाहें तो जीवन सुधर सकेगा.”
“असल में हमारी गरीबी का कारण भगवान की नाराजगी नहीं है, भगवान को चढ़ावा चढ़ाना. चुनाव के वक्त इस या उस उम्मीदवार से राशन-पानी ले कर अपना वोट फैंक देना रिवाज बन गए हैं. इनसे कुछ नहीं बदला है न बदलेगा. हमारी गरीबी का कारण यह शोषणकारी व्यवस्था है. पैसे वालों ने ही सारे कमाई और रोजगार के साधन हथिया रखे हैं. जब तक हम अपने हक़ की लड़ाई नहीं लड़ेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा.” शंकर ने कहा.

रामलाल चुप रहा. उसे लग तो रहा था कि शंकर की बात सही है. रोज-रोज और हर बार हम यही तो करते रहे हैं लेकिन बदलता कुछ भी नहीं.

शंकर कुछ रुक कर फिर कहने लगा, “ छोटा भाई किशन शहर की मिल में काम करता है. उसने देखा है, जब तक मजदूर अपनी मांगें कंपनी के सामने न रखें, उन्हें मनवाने के लिए हड़ताल न करें तब तक उनकी तनखा बढ़ती ही नहीं. वह कहता है कि ये मिल वाले ही नेताओं को चन्दा देते हैं. उसी से उनकी पार्टियाँ चलती हैं और कैसे भी बहला फुसला कर नेता लोग चुनाव में जीत जाते हैं और फिर उन्हीं का भला करते हैं. हम बैंक से लोन ले लें और भर न पाएँ तो बैंक वाले घर खेत सब नीलाम करने को तैयार रहते हैं, लेकिन पैसे वालों की कोई कंपनी घाटे में चली जाए और बैंक से लिए लाखों करोड़ों का लोन न चुका पाएँ तो नेता लोग उन्हें माफ करवा देते हैं या फिर लाखों के लोन के बदले हजारों में चुकता करवा देते हैं. इसलिए जब तक पैसे वालों की सरकार बनती रहेगी कुछ नहीं होगा.

रामलाल सुन कर अचम्भित था कि ऐसा भी होता है. फिर सोचा शंकर कह रहा है तो सही ही होगा. फिर वह सोचने लगा लेकिन पैसे वालों की सरकार न बनेगी तो किनकी बनेगी. गरीब मजदूरों किसानों की तो बन नहीं सकती. वे कैसे चुनाव लड़ेंगे और कैसे जीतेंगे? प्रचार तो पैसे से ही होता है. उसे सोचता देख शकर आगे कहने लगा.

“किशन तो यह भी कहता है कि ऐसे देश भी हैं जहाँ मजदूर किसानों की सरकारें हैं. कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ देश भर में दस में दो आदमी से ज्यादा कोई भगवान को मानता ही नहीं, और ये देश दुनिया के सबसे खुशहाल देश हैं. उससे भी बड़ी बात ये कि सबसे ज्यादा गरीबी उन्हीं देशों में हैं जिन देशों के सबसे ज्यादा लोग भगवान को मानते हैं.”

“ये मजदूर किसानों की सरकार बनती कैसे है? और अपने यहाँ कैसे बन सकती है?”

शंकर मन ही मन खुश हो रहा था। उसे लगा था कि अब रामलाल उसकी बात समझ रहा है। उसने अपनी बात जारी रखी, “हमारे देश में मजदूर-किसान कितने होंगे? उनकी संख्या चार में से तीन से कम नहीं अधिक ही होगी। अगर ये सब एक हो जाएँ तो क्या नहीं हो सकता?”

“हाँ, बात तो सही है। लेकिन सब एक कैसे होंगे? ये तो मेंढकों को तौलने जैसा लगता है.”

“अरे, सीधी सी बात है. तुम मकान बनाने की मजदूरी करते हो. एक दम तो मकान नहीं बनता. पहले नींव खोद कर भरनी होती है. फिर आहिस्ता आहिस्ता दीवारें उठती हैं, पहली मंजिल बनती है फिर दूसरी, तीसरी और चौथी. ऐसे ही दस-दस बीस-बीस मंजिल के मकान तक खड़े हो जाते हैं. कहीं से तो शुरुआत करनी ही होती है. तुम रुपया रोज मंदिर में खर्च कर आते हो. महीने भर बचाओ तो तीस होते हैं. तुम इसका आधा मजदूर किसानों की एकता बनाने के लिए खर्च कर सकते हो और आधे से अपने लिए कुछ कर सकते हो. ऐसे ही बहुत से लोग मिल जाएँ तो अपनी सरकार बनाने के लिए काम कर सकते हैं. शहरों और कई गाँवों में तो कर भी रहे हैं. किशन भी कहता है कि उसकी यूनियन वाले ग्रामीण किसान मजदूर सभा भी बनाते हैं, उससे कह रहे थे कि अपने गाँव में मजदूरों किसानों की मीटिंग रखो तो यहाँ भी किसान मजदूर सभा बना देंगे. फिर हम खुद अपने भले बुरे के बारे में मिल कर सोच सकते हैं.”

“ऐसा?” रामलाल यह सब सुन कर चकित हो गया था। वह सोच रहा था कि, “यदि किशन की यूनियन वाले मजदूर किसान सभा बनाते हैं तो अब तक किशन ने गाँव में मीटिंग क्यों नहीं की और क्यों नहीं यहाँ भी सभा बनाई? उसने अपनी यही बात शंकर के सामने रखी.

“भाई, यूनियन वाले मजदूरी भी करते हैं, अपनी यूनियन भी चलाते हैं. उसके भी बहुत काम होते हैं। हाँ, आजकल वे महीने में एक दो बार जरूर किसी गाँव में सभा बनाने के लिए जाते हैं. शंकर भी कह रहा था कि हमारे यहाँ भी इसी महीने या अगले महीने आएंगे.”

“बढ़िया शंकर भाई, यदि ऐसी कोई मीटिंग हो तो मुझे मत भूल जाना मैं जरूर आऊंगा. मैं सभा का मेम्बर जरूर बनूंगा और हर महीने पन्द्रह रुपए भी दूंगा। मुझे किसी ने अब तक ऐसा कुछ बताया ही नहीं. भगवान को किसने देखा है. ऐसे लोग तो खुद प्रत्यक्ष हैं. मैं जरूर आऊंगा, मुझे मत भूलना. मेरा घर आ गया है, फिर कल मिलते हैं.”
“कल मंदिर आओगे?” शंकर ने पूछा तो रामलाल हँस पड़ा.

‘’कल मंदिर आऊंगा या नहीं यह तो पता नहीं, अभी सोचूंगा. पर तुम से मिलने जरूर आऊंगा.”

“राम-राम.” शंकर ने कहा.

रामलाल ने जवाब दिया, “राम-राम.”

शनिवार, 29 नवंबर 2025

सत्यप्रार्थी वध

'लघुकथा'

एक समय की बात है, जब देश की आत्मा दो नगरों में बंटी हुई थी, एक था न्यायपुर, जहाँ दीवारें काली थीं, और दूसरा आस्थागढ़, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ हर पल गूंजती थीं।

 न्यायपुर की अदालतें अब युद्धभूमि बन चुकी थीं। वहाँ जज नहीं, सेनापति बैठते थे। उनके हाथों में न्याय की कलम नहीं, आदेश की मुहर थी। हर सुबह उन्हें एक सूची मिलती, "इन मुकदमों का आज एनकाउंटर करना है।"

मुकदमे अब जीवित नहीं थे, वे कागज़ी प्राणी थे, जिनके पास आँखें थीं, तर्क थे, और कभी-कभी आँसू भी।

 एक दिन, एक मुकदमा, नाम था सत्यप्रार्थी, काँपते हुए न्यायाधीश के सामने आया।

"महोदय, मेरा एक दस्तावेज़ अभी प्रतिवादी से नहीं आया है। कृपया मुझे थोड़ा समय दीजिए, अन्यथा मेरा वध हो जाएगा।"

 जज ने उसकी ओर देखा, जैसे कोई पत्थर किसी फूल को देखता है।

"यह टारगेट मुकदमा है। देरी नहीं चलेगी। हमें रोज़ ऊपर जवाब देना होता है।"

और फिर सत्यप्रार्थी का वध हो गया।

उसी दिन, आस्थागढ़ में उत्सव था। ध्वजारोहण की तैयारी थी। मंदिर के शिखर पर केसरिया पताका लहराने वाली थी।

राजा स्वयं आए थे, आरती की थाली लिए। गणेशजी की मूर्ति के सामने दीप जलाया गया।
घंटियाँ बजीं, पुष्पवर्षा हुई, और सोलह नगरों में रथयात्रा निकली।

न्यायपुर के एक वृद्ध दरबारी ने यह दृश्य देखा और बुदबुदाया,

"जब न्याय कालकोठरी में बंद हो, तब भी उत्सव तो हो ही सकता है।"

उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

एक ओर अंधेरा था, जहाँ सत्य का वध हो रहा था।

दूसरी ओर उजाला था, जहाँ आस्था का जयघोष हो रहा था।

और देश… ?

कुछ कहते थे, “उसका गौरव बढ़ रहा है”।

कुछ अंधेरे में आँसुओं के साथ कहते थे, “देश मर रहा है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

रामजी बेगा आज्यो

'हाडौ़ती लघुकथा'

दाज्जी
ने आता देख मोबाइल देखर्यो छोट्या ने मोबाइल पर गाणो लगाद्यो, " रामजी मेरे घर आना".

दाज्जी आया तो गोडे पड़ी खाट पे बैठ ग्या.

गाणो पूरो भी न होयो छो के, दाज्जी खेबा लाग्या, "रे छोट्या यो काँईं गाणो लगा मेल्यो छे. गाणा सुणणी होवे तो ढंग का सुणबू कर.

'काँई होग्यो दाज्जी? रामजी को ही तो गाणो लगा मेल्यो छे' छोट्या ने खी.

'काँई को छोखो गाणो छे? जे घर घर आबा लाग्या ने तो रामजी ही बावळ्या हो जाणा छे. बंद कर ईं गाणा ने. पीबा के कारणे एक गिलास पाणी ला, अर् थोड़ी देर चैन से लेटबा दे.

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

एन्काउन्टर

'लघुकथा'

शहर की अदालतों में इन दिनों अजीब सा माहौल था. हर जज की मेज़ पर मुकदमों की फाइलें ऐसे गिर रही थीं जैसे किसी युद्धभूमि में लाशें.

जजों को रोज़ वीडियो कॉन्फ़्रेंस पर हाईकोर्ट को जवाब देना पड़ता था—कितने मुकदमे निपटाए, कितने "टारगेट केस" खत्म किए.

एक दिन, एक मुवक्किल ने जज से कहा—

"महोदय, यह दस्तावेज़ तो प्रतिवादी से मंगवाया ही नहीं गया. अगर इसे देखे बिना फैसला हुआ तो हमारे साथ अन्याय होगा."

जज ने चश्मा उतारते हुए ठंडी आवाज़ में कहा—

"मैं कुछ नहीं जानता. अगर आपकी दरख़्वास्त मंज़ूर करूँगा तो मुकदमे में देरी होगी. यह टारगेट मुकदमा है."

और अगले ही दिन वह मुकदमा "एनकाउंटर" कर दिया गया.

इसी बीच शहर में खबर गूँजी—राम मंदिर पूरा हो गया है. कल वहाँ ध्वजारोहण होगा.

सोलह जिलों में रूट डायवर्जन होगा, लोग उमड़ेंगे, झंडा फहरेगा.

मुवक्किल ने अदालत से बाहर निकलते हुए सोचा—

"न्याय तो कालकोठरी में कैद है, लेकिन ध्वजारोहण तो समय पर हो ही जाएगा."

उसने आकाश की ओर देखा. मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और अदालत की दीवारें चुप थीं.

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

सिक्के और डाक टिकट

मेरे पर्स में एक-दो-पाँच-दस-बीस वाले सिक्कों की कुल संख्या छह-सात से अधिक नहीं होती। उसे भी तुरन्त ही पाँच के नीचे लाना पड़ता है। वर्ना पर्स की उम्र पर संकट आ जाता है। उसे अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ जाता है। जेबों के साथ भी यही संकट है। अब सिक्के कौन अपने पास रखता है। अपने पर्स में कुछ नकद रखना हो तो 500 से ले कर पाँच दस रुपए के नोट रखना पसंद करता है। सिक्के अब आउट ऑफ डेट हो चले हैं। वैसे भी आज कल जमीन के ऊपर नकद भुगतान जितना होता है उससे बहुत अधिक यूपीआई हो चला है। नकद भुगतान पूरा का पूरा जमीन के नीचे का मामला हो चला है। जैसे रिश्वत देनी हो या चुनाव में वोटों के लिए नोट बाँटने हों। हालाँकि बिहार ने उसकी भी जरूरत खत्म करना शुरू कर दिया है। अब नोट सीधे वोटरों के बैंक खातों में भेजे जा रहे हैं जैसे स्त्रियों को और बेरोजगारों को। खैर!

लगभग यही किस्सा डाकटिकटों का है। एक वक्त हुआ करता था जब डाक टिकट रखे होते थे पर्स में। अब वे गायब हैं दो-चार रख भी लें तो रखे रखे खराब हो जाते हैं किसी लिफाफे चिट्ठी पर चिपकाने के काम नहीं आते। वैसे भी डाक कौन भेजता है। केवल जरूरी चीजें जैसे कानूनी और सरकारी कागजात। बाकी तो सब अब कूरियर सर्विस वालों के हवाले है। डाक टिकट की महत्ता घटाने में प्राइवेट कूरियर वालों की भूमिका महान है। सरकार भी यही चाहती है कि कम से कम लोग डाक के भरोसे रहें। डाक अब स्पीड पोस्ट हो गयी है उसे चाहो जो करवा लो, चाहे तो पार्सल, चाहे तो रजिस्टर्ड वगैरा वगैरा। अब डाक विभाग डाक में भेजे जाने वाले सामान के वजन और दूरी के हिसाब से फीस वसूल करता है।
 
तो मित्रो!
शताब्दी सिक्के और डाक टिकट पर अधिक उछलने की जरूरत नहीं है। कारपोरेट सेवा में जब जिन्दगी झंड होने लगती है तो बीच बीच में ऐसे जश्न करने पड़ते हैं जिससे अपने वाले झण्डू उछलते रहें।

-दिनेशराय द्विवेदी

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

सामाजिक जीवन में बकवास का स्थान - दिनेशराय द्विवेदी

अच्छी बातें कोई भी कर सकता है। यहाँ तक कि बुरा से बुरा से व्यक्ति भी अच्छी बातें कर सकता है। इसी तरह कोई भी व्यक्ति बकवास भी कर सकता है। अच्छी और बकवास बातों पर किसी का एकाधिकार नहीं है।
 
बकवास बातों पर लोग कह देते हैं कि, अरे, छोड़ो यार! उससे कहाँ मुहँ लगना, बकवास कर रहा है, कभी कभी यह भी कह देते हैं कि कहाँ उस बकवास आदमी से उलझ रहे हो।
 
बकवास बहुत लोगों को जिन्दा रखे हुए है। उनमें सभी तरह के लोग हैं। उनमें साधारण लोग हैं, उनमें डाक्टर, वकील, इंजिनियर जैसे पेशेवर लोग हैं। उसमें अध्यापक और पुलिस वालेे हैं, दुकानदार और उत्पादक हैं। विज्ञापन बनाने वालों ने तो सिद्ध कर दिया है कि बकवास करने से बुरा से बुरा माल भी बाजार में खूब बेचा जा सकता है। इन लोगों में राजनीति करने वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सभी स्तरों पर पहुँच चुके हैं। विश्व के बहुत सारे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेनापति वगैरा वगैरा अत्यन्त महत्वपूर्ण लोग भी कम नहीं हैं।

बकवास के अनेक प्रकार हैं, लेकिन वे सभी प्रकार इस तरह घुले मिले हैं कि बकवास करना भानुमति के कुनबे का महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होने लगता है। वहाँ थोक से बकवादी लोग मिलेंगे। अभी तक किसी ने बकवासों का कोई वर्गीकरण नहीं किया है। यदि रामचन्द्र शुक्ल साहित्य का इतिहास लिखते समय यह नहीं समझ पाए कि साहित्य में बकवादी धारा और बकवादी युग भी हो सकते हैं तो मेरा बूता तो बिलकुल नहीं है कि मैं बकवादी धारा और बकवादी युगों की बात कर सकूँ। वैसे रामचंद्र शुक्ल ने हर युग के बकवादी साहित्य की पहचान भी की होती तो वे अधिक महान हो सकते थे। उनकी कीर्ति पताका साहित्य के बाहर भी फहराती नजर आती। 75 वर्ष के होने पर स्वर्ण जयन्ती मना लेने के बाद भी हमारे भक्तानांप्रियदर्शी प्रधानमंत्री जी ने कभी उनका नाम तक नहीं लिया। यदि शुक्ल जी ने बकवादी साहित्य की पहचान कर ली होती तो जब भी किसी स्कूल विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का प्रवचन होता तो वे शुक्ल जी को महान घोषित करते और बताते कि देश को और कम से कम प्नोफेसरों को उनके आदर्शों पर चलना चाहिए। वे रामचंद्र शुक्ल के नाम का कोई स्मारक भी बनवा सकते थे।


भले ही बकवासों का वर्गीकरण न हुआ फिर भी लोग बकवासों को पहचान लेते हैं। तनिक देर में ही पहचान कर बता देते हैं कि क्या चीज बकवास है। कुछ पारखी लोग तो यह भी पहचान लेते हैं कि बकवास किस तरह टाइप की है। वह अस्थायी है या स्थायी है, वह क्षण भंगुर है या फिर सनतान टाइप की है। इस तरह बकवास का वर्गीकरण भी हो लेता है। किसी शोधार्थी ने ध्यान दिया होता तो अब तक इन स्वाभाविक वर्गीकरणों पर अध्ययन करता, शोध करता और एक नहीं अनेक शोध पत्र लिख सकता था। साहित्य में इन दिनों शीर्ष बहसें सनातन बकवास पर हो रही होती। कोई न कोई अवश्य सनातन बकवास के साहित्य का इतिहास जैसे महत्वपूर्ण विषय पर पीएचडी किए लोगों के वीसी बनने का चांस सबसे उत्तम होता।

मुझे तो लगता है कि साहित्यिक गोष्ठियों में साल की किसी गोष्ठी का विषय बकवास साहित्य होना चाहिए। जैसे "मोदी युग में बकवास साहित्य का स्थान" या यह भी रखा जा सकता है, भक्ति या रीतिकाल में बकवास साहित्य। प्रकाशक चाहें तो इन नामों की किताबें भी प्रकाशित कर सकते हैं। यहाँ तक कि बकवास साहित्य के इतिहास तक लिखे जा सकते हैं।जैसे हिन्दी के बकवास साहित्य का इतिहास"। अंग्रेजी में लिखना हो तो "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ बकवास" जैसा टाइटल रखा जा सकता है। पता नहीं अब तक किसी प्रोफेसर या विद्यार्थी को यह क्यों न सूझा कि बकवास साहित्य विषय पर अनेक शोधें की जा सकती हैं। प्राथमिक शोध विषय "समाज में बकवास का स्थान" हो सकता है।

खैर, बकवास करते बहुत समय बीत चुका है, आपको भी इसे पढ़ते हुए कोई जोर नहीं पड़ा होगा, सर्र से पढ़ा होगा और बकवास दिमाग से होते हुए किसी नर्व के रास्ते पेट में उतर चुकी होगी। बकवास के पेट में उतर जाने से वह पेट को कभी खराब नहीं करती। यदि आपको यह अहसास होने लगे कि बकवास ने पेट में गैस टाइप कुछ उपद्रव किया है तो उसे सीधे रास्ते से निकालने की कोशिश कभी न करें, बल्कि सबसे अच्छा और सटीक उपाय यह है कि उसे मुहँ के रास्ते पहला पात्र मिलते ही उसके कान में उड़ेल दें।

शनिवार, 6 सितंबर 2025

भारतीय समाज में जाति, भाषा और राष्ट्रीयता का सवाल : दिनेशराय द्विवेदी

जोधपुर में हो रही आरएसएस की समन्वय बैठक में आरएसएस ने देश में जाति, भाषा, प्रांत और पंथ के नाम पर भेदभाव पैदा करने के षड्यंत्रों पर चिंता जताई। आरएसएस ने कहा कि देश में एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां लगातार सक्रिय हैं, जो देश के लिए हितकारी नहीं हैं। इस तरह उनका मानना है कि जाति, भाषा, स्थानीय राष्ट्रीयता (प्रान्तीयता) और धर्म (पंथ) का उद्भव भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियों से नहीं उपजा है बल्कि यह कृत्रिम है और इन सब भेदों के जनक तथाकथित षडयंत्रकारी शक्तियाँ हैं। इन षडयंत्रकारी शक्तियों से उनका तात्पर्य मुस्लिमों, ईसाइयों, सिख आतंकवादियों, सेक्युलर लोगों और कम्युनिटों से है। यही कुल मिला कर भारत में विपक्ष का निर्माण करते हैं। यदि ये सब षडयंत्र कर रहे हैं तो उससे उनका सीधा अर्थ यह है कि राज्य को उनका दमन करने का अधिकार है।


असल में संघ की यह दृष्टि ही एक कृत्रिम दृष्टि है। उसके नजरिए का आधार यह मिथ्या धारणा प्राचीन भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, उस पर इतिहास में बहुत दमन हुए और अब यह वक्त उस दमन का बदला लेने का है और उसे फिर से हिन्दू राष्ट्र बनना चाहिए। संघ का यह दृष्टिकोण ही उसे एक खतरनाक फासीवादी संगठन बना देता है। भारतीय समाज की संरचना ऐतिहासिक रूप से जटिल और बहुआयामी रही है। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय पहचानों के अंतर्संबंधों ने एक ऐसा सामाजिक ताना-बाना बुना है जिसकी व्याख्या बिना वर्गीय विश्लेषण के अधूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना और जाति, भाषा व प्रान्तीयता को "षड्यंत्र" के रूप में प्रस्तुत करना, एक प्रतिक्रियावादी परियोजना है जो सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखने का काम करती है।


यथार्थ तो यह है कि जाति और भाषाई राष्ट्रीयताओं का उदय और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, न कि कोई "षड्यंत्र"। ये पहचानें भारत में उत्पादन के खास तरीकों और सामाजिक संबंधों की उपज हैं। जाति व्यवस्था, जो मूल रूप से श्रम के विभाजन का एक रूप थी, शोषण के एक सुदृढ़ तंत्र में तब्दील हो गई। यह सामंती और पूर्व-सामंती उत्पादन प्रणालियों का अभिन्न अंग बन गई, जहाँ शासक वर्गों ने श्रमिक जनता के शोषण और दमन के लिए इन्हें एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।


इसी तरह, भाषाई और क्षेत्रीय पहचानें लंबे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास की परिणति हैं। पंजाबी, बंगाली, तमिल आदि राष्ट्रीयताओं का अस्तित्व एक सामाजिक यथार्थ है। इन्हें "उभारा" नहीं जा रहा, बल्कि ये पहले से मौजूद हैं। सवाल यह है कि इन पहचानों के साथ किस तरह का राजनीतिक-सामाजिक व्यवहार किया जाए।


आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना एक अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी परियोजना है। यह परियोजना भारत की वास्तविक, भौतिक समस्याओं—जैसे आर्थिक असमानता, शोषण, बेरोजगारी, गरीबी—से ध्यान भटकाने का काम करती है। एक कृत्रिम "हिन्दू" एकता का निर्माण करके, यह सामंती और पूंजीवादी ताकतों के हितों की रक्षा करती है, जिनके लिए जातिगत, धार्मिक और भाषाई विभाजन शोषण की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।

सरसंघचालक का यह कहना कि जाति और भाषा के भेद एक "षड्यंत्र" हैं, वास्तव में इन गहरी जड़ें जमाए सामाजिक विभाजनों और शोषण के इतिहास को नकारना है। यह बयानबाजी शासक वर्गों के हित में है, क्योंकि यह मेहनतकश जनता की वास्तविक एकता—जो कि जाति, धर्म और भाषा की दीवारों को तोड़कर ही संभव है—को रोकती है। इसका उद्देश्य शोषितों और दलितों को एक ऐसी काल्पनिक एकता में बाँधना है जो वास्तव में शोषकों के वर्चस्व को ही मजबूत करती है।

आज हम जाति, भाषा या क्षेत्रीय पहचानों के अस्तित्व को नकारता नहीं सकते। बल्कि इन पहचानों के आधार पर होने वाले उत्पीड़न और शोषण का अंत करने के लिए इन्हें मान्यता देना और इनके खिलाफ संघर्ष करना जरूरी है। जाति और भाषाई उत्पीड़न, वर्गीय शोषण से अलग नहीं हैं, बल्कि उसी के विशेष रूप हैं। समाधान इन पहचानों के "दमन" में नहीं, बल्कि इनके आधार पर होने वाले भेदभाव और शोषण के उन्मूलन में निहित है। इसके लिए आवश्यक है कि जाति व्यवस्था, जो श्रम के विभाजन और शोषण का एक साधन है, का पूर्ण उन्मूलन जरूरी है। यह केवल सामाजिक जागरूकता और एक जनवादी और समाजवादी क्रांति से ही संभव है।

राष्ट्रीयताओं (प्रान्तीयताओं) और भाषा के अधिकार को सम्मान देना आवश्यक है। भाषाई और सांस्कृतिक राष्ट्रीयताओं की स्वायत्तता के अधिकार को मान्यता देना और उसे बढ़ावा देना आवश्यक है। एक स्वैच्छिक और वास्तविक संघ ही विभिन्न राष्ट्रीयताओं की एकता को मजबूत कर सकता है।

अंततः, सभी शोषितों—चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के हों—की वर्गीय एकता ही सामंती-पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष में जीत दिला सकती है। "हिन्दू राष्ट्र" का भ्रम इस वर्गीय एकता को तोड़ने का काम करता है।

आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परियोजना और जाति-भाषा के भेद को "षड्यंत्र" बताने की कोशिश, भारत के शोषक वर्गों की एक राजनीतिक चाल है। इसका उद्देश्य जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं—पूंजीवादी शोषण, सामंती अवशेष, और साम्राज्यवादी नियंत्रण—से हटाकर काल्पनिक दुश्मनों की ओर मोड़ना है। एक यथार्थवादी दृष्टिकोण इन विभाजनों को नकारता नहीं, बल्कि उनके ऐतिहासिक और भौतिक आधार को समझते हुए, शोषण के इन सभी रूपों के खिलाफ मेहनतकश जनता की वर्गीय एकता को मजबूत करने पर जोर देता है।

सोमवार, 11 अगस्त 2025

नागरिकता की कसौटी पर लोकतंत्र: बिहार की मतदाता-सूची पर उठते सवाल

बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।

 

लोकतंत्र की नींव पर प्रहार

 

बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने क निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया है।

 

लाखों मतदाता सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?


1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़ मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89 करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?

 


नागरिकता साबित करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़

 

अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11 दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है। अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था) भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति, सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।

 

मनमानी का खतरा और लोकतंत्र की गिरती साख

 

निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।

 

यह सिर्फ बिहार नहीं, पूरे देश की चिंता है

 

यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?

 

मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर करना है।

इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित बचाने का है।