@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: रैंप और गंगा

गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

रैंप और गंगा

लघुकथा
सभागार में रोशनी झिलमिला रही थी.
रैंप पर कदमों की खटखटाहट, जैसे सदियों की चुप्पी पर चोट.

दरवाज़ा धड़ाम से खुला.
कुछ पुरुष भीतर घुसे, आवाज़ें गूँजीं गूंजने लगीं.

पहली पुरुष आवाज थी, "मॉडलिंग खत्म, घर जाओ. संस्कृति बचाओ."
यह आवाज गंगा की धारा को रोकने की कोशिश थी.

प्रतियोगी एक ने मुस्कराकर उत्तर दिया, "संस्कृति इतनी नाज़ुक है अगर, तो दुकानों से पश्चिमी कपड़े हटाइए."

तभी दूसरे पुरुष की आवाज गूंजी, उसमें गुस्सा भरा था. "सभ्यता ऐसे कपड़ों से टूटती है."

प्रतियोगी दो की आँखें चमकी और उसने अपने महीन स्वर में कहा, "और आप कौन हैं यह तय करने वाले, कि सभ्यता किससे टूटेगी?"

हॉल में सन्नाटा छा गया.

पुरुषों की आवाज़ें धीरे-धीरे खोने लगीं.

प्रतियोगी तीन का दृढ़ स्वर गूंजा, "हम यहाँ कपड़े दिखाने नहीं आए, हम अपने सपने सुनाने आए हैं."

रैंप अब लकड़ी का फर्श भर नहीं था.
अब वह एक पुल था, जिस पर से महिलाएँ अपने सपनों को समाज के उस पार ले जा रही थीं.
ऊँची एड़ी की खटखटाहट गूंजी, वह थी साहस की ऊँचाई.
हर कदम एक घोषणा, "हम पीछे नहीं हटेंगे."

बाहर गंगा बह रही थी, उसकी लहरें गा रही थी,
"संस्कृति वही है जो बहती रहती है ...
रुकती नहीं."

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