@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अब नहीं लौटना

बुधवार, 17 दिसंबर 2025

अब नहीं लौटना

लघुकथा

दिनेशराय द्विवेदी

महानगर की ऊँची गगनचुम्बी इमारतों के बीच यदि झुग्गियों का दरिया न बह रह रहा हो तो शायद महानगर की अबाध गति यकायक थम जाए. लाखों लोगों की सेवा करने वाले और जीवन के लिए कम दामों में वस्तुएँ उपलब्ध कराने वाले लोगों से ले कर शहर से कचरा बीनने वाले लोग यहीं से तो आते हैं. ऐसी ही झुग्गियों के बीच की तंग गलियों में रीमा का बचपन बीता. उस रात जब माई ने उसे मामा की लड़की को छोड़कर आने को कहा, तब वह बुखार और चक्कर से जूझ रही थी. लौटते समय सड़क किनारे बैठ जाना उसकी मजबूरी थी, लेकिन घर पहुँचने में हुई देरी उसके लिए अभिशाप बन गई.

घर पहुँचते ही माई चीखी-
"कहाँ मर गई थी? एक घंटा लग गया! सच बता, कहाँ से आ रही है?"
"गलत काम में उलझ जाती है, तभी देर करती है." बाप ने माई के सुर में सुर मिलाया.
और फिर गालियाँ और मारपीट शुरू हो गई.
घर का माहौल पहले से ही जहरीला था. माँ-बाप दोनों आपस में झगड़ते रहते. बाप को जरा भी कसर पड़ती तो वह माँ को रण्डी कहने और उसकी खाल खिंचाई में बिलकुल नहीं झिझकता. माई भी उस पर जो दिखता फेंकने लगती. उसने माँ के न जाने कितने यार घोषित कर रखे थे. वे फिर लड़ने लगे-
माँ चीख कर बाप से बोली, "तेरी वजह से यह सब बर्बाद हुआ है."
"तू ही बच्चों को बिगाड़ रही है." बाप क्या कम था, उसे जवाब देना जरूरी था.
रीमा जो बुखार में तप रही थी, उसकी किसी को फिक्र नहीं थी.

उन दोनों की लड़ाई का अंत हमेशा बच्चों पर होता. बरसों से बच्चों को माँ-बाप का प्यार नसीब नहीं हुआ था. लोग कुत्ता पालते हैं तो उससे भी दुलार जताते हैं, लेकिन रीमा तो उस दुलार से भी महरूम थी. माँ-बाप काम पर जाते तो उसे राहत मिलती. माँ बाप की लड़ाई के बीच छठी कक्षा तक ही वह पढ़ पायी थी. फिर दिन में वह वहीं झुग्गियों के बीच एक लिफाफे बनाने वाली वर्कशॉप में काम करने लगी, जहाँ उसकी तरह अधिकांश नाबालिग काम किया करते थे. वहीं वह जीतू से मिली, दोनों दोस्त बने. एक दूसरे के दर्द साझा करने लगे.

रीमा तीन दिन तक घर में बुखार से तपती रही. कमजोर थी तो चौथे दिन भी काम पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी. पाँचवें दिन काम पर पहुँची तो जीतू ने पूछा-
“चार दिन किधर रही.”
“बुखार से तपती रही. पर तुझे क्या? तूने तो खबर तक नहीं ली.”
“खबर कैसे लेता? तूने ही तो तेरी झुग्गी के आसपास नहीं दिखने का आर्डर दे रखा है.”
“तो क्या करूँ, बिना किसी के साथ देखे भी माई चमड़ी उधेड़ लेती है. तेरे साथ किसी दिन देख लेगी तो मार ही डालेगी.”
"मैं जानता हूँ, तेरे घर में क्या होता है. पर तू अकेली नहीं है, मैं हूँ न तेरे साथ. तू हिम्मत तो कर. छोड़ माई बाप को मेरे साथ निकल ले."

जीतू उसकी आँखों में का दर्द पढ़ लेता था जो उसके माई-बाप कभी नहीं देख पाए. लड़की ने पहली बार सोचा—जीतू के साथ निकल लेना ही शायद मुक्ति है. वह जीतू के साथ निकल ली.
दो नाबालिगों पर संदेह हुआ तो पुलिस ने रेल में बैठते बैठते दोनों को पकड़ लिया. पुलिस ने दोनों की कहानी सुनी. दोनों को चेतावनी मिली कि बालिग होने तक ऐसे नहीं भागना. रीमा को फिर से उसके माई-बाप को थाने बुला कर लौटा दिया. बोले अपनी लड़की का काबू में रखो. उस रात माई बाप ने कुछ नहीं कहा. लेकिन अगले दिन से फिर से पहले वाला सिलसिला शुरू हो गया.

चार महीने नहीं हुए थे कि माई ने लिफाफा फैक्ट्री के बाहर रीमा को जीतू के हाथ में हाथ पकड़े देख लिया. इस बार माई और बाप दोनों ने उसकी खाल खिंचाई की. चार दिन तक झुग्गी में बन्द रखा. पर जहाँ खाने के लाले पड़े हों वहाँ जवान होती बेटी को कितने दिन ताले में रखते. रीमा को छोड़ा और काम पर जाने को बोला.
इन चार दिनों में रीमा के भीतर एक टीस लगातार बढ़ती रही, वह सोचती रही कि, “क्या यही जीवन है? जहाँ माई-बाप अपनी ही बेटी को संदेह और हिंसा से देखते हैं, उसके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार करने लगते हैं. रोटी कपड़े की लड़ाई ने ही उसके माई बाप को संवेदनाहीन बना दिया कि, वे अपने ही रक्त-मांस को दुश्मन समझने लगते हैं.

इस बार उसने ठान लिया-अब लौटना नहीं. तीन महीने चुपचाप रहेगी. कारखाने में काम के वक्त के अलावा कहीं बाहर किसी लड़के के साथ नहीं दिखेगी. तब तक वह अठारह की हो जाएगी. फिर न पुलिस उसे पकड़ सकेगी और न उसे माई बाप के पास लौटा सकेगी.
 
चौथे महीने एक दिन रीमा वापस अपनी माई बाप की झुग्गी में वापस नहीं लौटी. माई-बाप उसे तलाश करते करते थक गए. वे समझ गये कि अब लड़की उन्हें नहीं मिलेगी. और मिलेगी भी तो वे उसका कुछ नहीं कर सकते. दोनों को अब उसके साथ किया गया अमानवीय व्यवहार याद आता तो खुद की आँखों से पानी निकलने लगता.
 
वह पगार का दिन था. रीमा और जीतू ने अपनी सारी पगार ली और कारखाने से निकल गए. रीमा तो खाली हाथ थी. दोनों जीतू की झुग्गी पहुँचे. जीतू ने अपना सामान लिया और दोनों रेलवे स्टेशन पहुँचे. पहली लंबी दूरी वाली ट्रेन में चढ गए. ट्रेन का आखिरी स्टेशन एक दूसरा महानगर था. वहाँ उन्होंने शादी कर ली. यह शादी उसके लिए केवल प्रेम नहीं थी, बल्कि अपने अस्तित्व की घोषणा थी.

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