@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

एक उद्योगपति की मौत

एक खेत मजदूर अक्सर खेत मजदूर के घर या छोटे किसान के घर पैदा होता है, मजदूरी करना उसकी नियति है, वह वहीं काम करते हुए अभावों में जीवन जीता है। उसकी आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे जैसे तैसे कुछ पढ़ लिख जाएँ, खेत की मजदूरी करने के बजाए कहीं शहर में बाबू, या किसी कारखाने की नौकरी करें, वहीं घर वर बना लें और इस नर्क से निकल जाएँ। शहर के कारखानों में मशीनों पर काम करने वाले, लोडिंग अनलोडिंग में बोझा उठाने वाले, निर्माण में काम करने वालेे, खानों में काम करने वाले, मंडियों में बोझा ढोने वाले मजदूर चाहते हैं कि वे अपने इस नर्क से निकलें कोई सफेद कालर वाला काम कर लें। पर अधिकांश नहीं कर पाते और उसी नर्क में मर जाते हैं। किसान जिनके पास खेत हैं वे भी अपने खेतों में फसलें उगाते हुए , कर्जों और मौसम की मार झेलते हुए जीते रहते हैं उनमें से थोड़े बहुत निकल कर सफेदपोश भले ही हो जाएँ। पर रहते उसी किसानी में हैं।

इनके बाद आते हैं नगरीय टटपूंजिए वे हमेशा सपना देखते हैं कि डंडी मार कर या कोई तिकड़म कर के, या उनमें से कोई सरकारी नौकरी में लग गया हो तो रिश्वत खाते हुए थोड़ी बड़ी पूंजी इकट्ठा कर लें और ऐसा धंधा करें जिससे दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई कर लें और वे नहीं तो उनके बच्चे ही ऐश की जिन्दगी जी लें। पर ऊपर की पायदान पर चढ़ने की कोशिश करने वालों में से ज्यादातर दूसरी तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए ऊँचाई से गिर कर घायल होते हैं, या मर जाते हैं और उनकी संतानें उसी नगरीय मजूरों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं। कुछ जरूर ऐसे होते हैं जो बड़े पूंजीपतियों और अफसरों की चम्पी मारते हुए तीसरी चौथी मंजिल पर चढ़ने में कामयाब हो जाते है, पर उन्हें अपने ही लोगों की तरह नीचे गिरने और घायल हो कर पड़े रहने या मर जाने का भय हमेशा सताता रहता है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो ऊंचाई चढ़ने का स्वप्न नहीं देखते बस चाहते हैं किसी तरह उनके बच्चे उनसे थोड़ा बेहतर कर लें या उन्हीं की तरह जी लें और नीचे न गिरें।

इनके बाद बड़े सरकारी अफसर हैं जिन्हें आप ब्यूरोक्रेट्स कहते हैं इनसे नाभिनालबद्ध नेता हैं जो कभी इस और कभी उस सरकार में बने रहते हैं, या लगातार सरकार में होने का प्रयत्न करते रहते हैं। ये सभी इस मौके में लगे रहते हैं कि अपना कोई बड़ा उद्योग या बिजनेस स्थापित कर लें और नीचे की पायदान के लोगों के श्रम का उपयोग करते हुए अतिरिक्त श्रम का दोहन करते हुए टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपतियों की श्रेणी में पहुँच जाएँ।

सबसे ऊपर ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपति हैं, जो बाकी सबको हाँकते रहते हैं, देश की जमीन के ऊपर की और जमीन के नीचे की तमाम संपदा को निचोड़ते रहते हैं। इनकी सारी ताकत इस बात में लगी रहती है कि कैसे उनकी पूंजी दिन चौगुनी और रात अठगुनी होती रहे। इनमें कौन लोग शामिल हैं ये हर कोई जानता है।

मंदिर का एक निर्धन संपत्तिहीन पुजारी, ज्योतिषी और कथावाचक जो टटपूंजिए बनियों की बिरादरी के मंदिर की पूजा करने की नौकरी करता था, उसके दोनों बेटे सरकारी अध्यापक हो गए थे। बड़े बेटे के घर दूसरे बच्चे ने जन्म लिया। पहली बेटी थी जो पैदा होने के चंद दिन बाद मर गयी। दूसरे के बाद अनेक बच्चे पैदा हुए लेकिन चार बेटे और दो बेटियाँ जीवित रहे। बड़े बेटे को जब गणित और भाषा पढ़ने हुनर आ गया तो घर में रखी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला। स्कूल में भर्ती होने के साथ ही विज्ञान से साबका पड़ा। वह दोनों के बीच झूलता हुआ जब इस हालत में पहुँचा कि उसे जीवन जीने के लिए कुछ करना पड़ेगा, तब उसने बहुत सपने देखे। कभी कलट्टर जैसा अफसर बनने का, वैज्ञानिक बनने का पर वह पुजारी, ज्योतिषी, कथावाचक और अध्यापक कतई नहीं बनना चाहता था, क्योंकि इन पेशों की हकीकत जान चुका था।

उसका ध्यान इंजिनियरिंग की तरफ था लेकिन उसे जीवविज्ञान पढ़ना पड़ा। कुछ दिन उसके आसपास के लोग उसे डाक्टर कहते रहे कि शायद बन जाए। लेकिन वह लोगों को सचाई बताने के चक्कर मेंं पत्रकार हो गया। भीतर घुस कर देखने पर पता लगा कि वे अर्धसत्य के वाहक भर हैं। ज्यादातर सच वह होता है जो अखबारों के मालिक बताना चाहते हैं। क्रूर सच तो शायद कभी बाहर ही नहीं आता। तब उसने सब कुछ छोड़ कर वकील बनना चुना जो मजदूरों की पैरवी करना चाहता था। वकालत करते हुए उसे 45 साल से ज्यादा हो गया है।

रतन टाटा मर गया। वकील की पत्नी कल रात काम से निपटने के बाद मोबाइल पर कोई वीडियो देख रही थी। वकील के पूछने पर उसने बताया कि रतन टाटा के बारे में बता रहे हैं, बहुत बड़ा उद्योगपति था। वकील बोला, वह देश के टॉप के उद्योगपति घराने का बेटा था, उससे ऊपर जाने की इस दुनिया में कोई जगह नहीं थी। उसने दुनिया के टॉप उद्योगपतियों में शामिल होने की कोशिश जरूर की होगी, पर सफल नहीं हुआ। लेकिन नीचे गिरने से बचता रहा, इस तरह गिरने से बचना ही उसकी सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। हम अपने पिता दादा से बेहतर स्थिति में आ सके और अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के साथ जो अन्याय होता है उस को थोड़ा बहुत कम करने की कोशिश करते हुए, अपने जीवन के लिए जीने के साधन जुटाते हुए जी रहे हैं। हमारे बच्चे हम से बेहतर मजदूरी करते हुए जी रहे हैं और चाहते हैं कि समाज एक ऐसी शक्ल ले ले जिसमें सभी यथाशक्ति काम करें और उन्हें अपनी जरूरत की तमाम चीजें मिलती रहें। जिससे समाज के तमाम लोग बराबरी महसूस करते हुए जी सकें। न कोई छोटा हो न महान हो। न कोई टाटा बिरला, डालमिया, अम्बानी, अडानी हो और न कोई बोझा ढोते हुए या मशीन चलाते हुए बीमार हो कर बिना इलाज और भोजन, कपड़ा और छत के अभाव में जिए। हम थोड़ा बहुत हमारे इस लक्ष्य से काम करते भी हैं। मुझे लगता है हम बेहतर हैं और थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। ये अखबार, ये मीडिया कभी नहीं छापता कि कोई मजदूर अभावों में मर गया। कभी किसी दुर्घटना में मजदूर मर जाते हैं तो उनकी केवल संख्या छपती है इस तरह कोई विरुदावली नहीं गाता। ये उन्हीं टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोगों के चाकर हैं। ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोग समाज में न रहें, एक वर्ग के रूप में हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएँ। मेरी सोच में दुनिया में कोई वर्ग ही नहीं रहे, हमारा समाज वर्गहीन हो जाए तो साँस में साँस आए। मनुष्य और प्रकृति दोनों साँस लेते हुए चैन से जी सकें।

इति संवाद:।।
11.10.2024 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

भारत के संवैधानिक जनतंत्र और कानून के शासन के प्रति वकीलों का दायित्व

यह  लेख  त्रेमासिक  पत्रिका   "एक और अंतरीप"  के अप्रेल-जून 2024 के न्यायपालिका पर केन्द्रित अंक   में प्रकाशित हुआ है- 
-दिनेशराय द्विवेदी

कानून के शासन (Rule of Law) का सिद्धान्त बहुत पुराना है। पुरातन काल में इसके सूत्र देखे जा सकते हैं। यह एक राजनीतिक आदर्श है जिसके अंतर्गत किसी देश, राज्य या समुदाय के सभी नागरिक और संस्थान एक समान कानूनों के प्रति उत्तरदायी हैं, जिसमें विधि निर्माता और नेता भी शामिल हैं। इसे कभी-कभी इस तरह भी कहा जाता है कि "कोई भी कानून से ऊपर नहीं है"। यह कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता का समर्थन करता है तथा सरकार के एक गैर-मनमाने रूप को सुरक्षित करते हुए अधिक सामान्य रूप से सत्ता के मनमाने उपयोग को रोकता है। कानून के शासन को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि न्यायालय हों, कानूनों के उल्लंघन को रोकें और जनता को न्याय प्रदान करें। न्याय प्रशासन में न्यायालय के समक्ष व्यक्तियों के पक्ष को रखने के लिए कानूनी समझ वाले पेशेवर व्यक्ति ‘वकील’ की आवश्यकता होती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि जब से जहाँ जहाँ कानून का शासन अस्तित्व में आया होगा तब से लोगों की पैरवी के लिए वकीलों की उपलब्धता अवश्य रही होगी। एक वकील को कानून की जानकारी के साथ साथ सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी मामलों की भी जानकारी होना जरूरी है, क्योंकि उसके बिना वह किसी भी न्यायार्थी की पैरवी करने में सक्षम नहीं हो सकता। कानून के अतिरिक्त इन सब विषयों का ज्ञान वकील को एक विशिष्ट व्यक्ति में परिवर्तित कर देता है जो समाज में अनेक रूप से अपनी भूमिका अदा करते हुए अपने दायित्वों को निभा सकता है।

वकीलों ने देश और समाज में सदैव उच्चस्तरीय भूमिका अदा की है और अपने सामाजिक दायित्व को निभाया है। यही कारण है कि हमारे देश की आजादी के आंदोलन में, संविधान के निर्माण और भारत में लोकतंत्र की स्थापना में वकील समुदाय का बड़ा योगदान रहा है। आजादी के आंदोलन में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व किया, स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाल गंगाधर तिलक, जी.के.गोखले, लाला लाजपत राय, देशबंधु चितरंजन दास, सैफुद्दीन किचलू, मोतीलाल नेहरू, राधा बिनोद पाल, भूलाभाई देसाई आदि का प्रमुख योगदान रहा है। संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर के साथ समिति के सदस्य अलादी कृष्ण स्वामी अय्यर, एन. गोपलास्वामी अय्यंगार, बी. आर. आमदकर, के. मुंशी, मोहम्मद सादुल्ला, बीएल माइनर, एन. माधव राव, तथा टीटी कृष्णमाचारी आदि व्यापक विशेषज्ञता वाले प्रतिष्ठित वकील थे। इन सबका प्रयास था कि हम एक आदर्श जनतांत्रिक संविधान का निर्माण कर पाएँ, जिसके फलस्वरूप देश में जनतांत्रिक व्यवस्था संभव हो। आजादी के बाद भी देश के राज्य प्रशासन में वकीलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। न्याय प्रशासन में तो उनके बिना न्याय की परिकल्पना अकल्पनीय है। यही कारण है कि वकील समुदाय को देश के संविधान और जनतंत्र का संरक्षक कहा जा सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि, क्या आज वकील समुदाय अपनी यह भूमिका को ठीक से निभा रहा है? इसके लिए हमें समूची दुनिया की राज्य व्यवस्थाओं, जनतंत्र की स्थापना उसके विकास आदि पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

पिछले दिनों भारत में 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचन सम्पन्न हुए। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनाव अभियान भारत को दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने और राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दों के साथ आरम्भ किया। वहीं विपक्ष ने एक गठबंधन संक्षिप्त नाम इंडिया (I.N.D.I.A.) के साथ आरंभ किया, जिसके घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे के मामले में मतभेद थे। इंडिया ने अपने मुद्दे जनता की वास्तविक समस्याओं के इर्द-गिर्द खड़े किए। उन्होंने अपना प्रचार बेरोजगारी, और महंगाई की समस्याओं के साथ साथ अमीरी गरीबी की तेजी से बढ़ती हुई खाई और गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासियों को राहत देने के मुद्दों के साथ साथ संविधान बचाओ जनतंत्र बचाओ के मुद्दे से आरंभ किया। इंडिया गठबंधन ने अपना एक सामान्य घोषणा पत्र जारी किया, इसके सभी घटक दलों ने भी अपने विशिष्ट मुद्दों के साथ इन गठबंधन के मुद्दों को अपने-अपने दलों के घोषणा पत्रों में स्थान दिया। इससे जनता के बीच यह संदेश गया कि ये दल जनता के मुद्दों पर विभाजित नहीं, अपितु एक हैं।

देश का लगभग सारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रेस सत्ताधारी दल भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए के साथ नजर आये। उनका प्रचार ही उनमें छाया रहा। विपक्ष के समाचारों को इस मुख्य धारा के मीडिया और प्रेस ने या तो स्थान ही नहीं दिया और स्थान दिया तो ऐसे कि वह सत्ताधारी दल के गठबंधन के प्रचार के पीछे छुपा रहे। सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल ने बाकायदा आईटी सेल के जरिए अपना प्रचार जारी रखा। दूसरी ओर सोशल मीडिया का गैर मुख्य धारा वाला किन्तु सबसे अधिक पढ़ा, सुना, देखा जाने वाला हिस्सा इंडिया के साथ खड़ा हो गया और सही तथ्यों को जनता के बीच पहुँचाने लगा। इंडिया गठबंधन के दलों ने अपने सीमित साधनों से जनता के बीच पहुँचने के भरपूर प्रयास किए। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि विपक्ष की लड़ाई गठबंधन के साथ जनता खुद लड़ रही है। इन स्थितियों में भाजपा का प्रचार विकास और अपनी सरकार की उपलब्धियों के मुद्दों को पीछे छोड़ पूरी तरह साम्प्रदायिक मुद्दे पर उतर आया। जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया वह भारत के चुनाव इतिहास में सबसे निचले स्तर का था।

चुनाव के नतीजे आने के पहले आए मुख्य धारा के मीडिया के एक्जिट पोल नतीजे भाजपा की 370 से अधिक स्थानों पर और गठबंधन के चार सौ से अधिक स्थानों पर कब्जा करने के दावों की पुष्टि कर रहे थे। तीन दिनों तक सत्ताधारी पार्टी और गठबंधन की भारी जीत का माहौल बना रहा, वहीं इंडिया ब्लाक एक्जिट पोल को बनावटी बताता रहा। लेकिन जैसे ही वास्तविक नतीजे आने शुरु हुए तो परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिला, वह 240 सीटों पर सिमट गयी और गठबंधन तीन सौ के आँकड़े तक नहीं पहुँच पाया।

नतीजों से स्पष्ट हुआ कि देश की जनता का बहुमत भाजपा और उसके गठबंधन के समर्थन में नहीं है। अपितु जनता तक पहुँचने के साधनों की हीनता के बावजूद विपक्षी गठबंधन इंडिया को खूब समर्थन मिला। यह साफ हो गया कि जनता बढ़ती हुई अमीरों की अमीरी और गरीबों की गरीबी के कारण उत्पन्न आर्थिक खाई से चिंतित है। जनता ने इस बात का भी नोटिस लिया कि पिछले दस सालों में जनता के जिन हिस्सों ने अपनी आवाज सत्ता तक पहुँचाने के लिए आंदोलन का सहारा लिया उनका कानून और सुरक्षा बलों की ताकत से दमन किया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तेजी से अंकुश कसा गया। जनता ने देश में जनतंत्र और संविधान दोनों को वास्तविक खतरा महसूस किया। इस चुनाव ने भारत में जनतंत्र और संविधान के महत्व को पुनर्स्थापित किया। इससे देश में संविधान और जनतंत्र बचाने का आंदोलन संगठित और तेज हुआ। लगभग पूरे देश में Save Democracy और जनतंत्र बचाओ के नाम पर नागरिकों के स्थानीय फोरम खड़े हुए, जिन्होंने इसके लिए लगातार काम करने के संकल्प लिए। यदि हम पूरे विश्व पर एक नजर दौड़ाएँ तो देखते हैं कि जनतंत्र बचाओ आंदोलन लगभग प्रत्येक जनतांत्रिक देश में मौजूद है। हर देश की जनता के कुछ हिस्से जनतंत्र के विरुद्ध लगातार खतरा महसूस करते हैं।

हम इतिहास में झाँकें तो पाते हैं कि चार-पाँच सदी पहले पूरी दुनिया में राजा-महाराजाओं का राज्य था। दुनिया भर में अर्थ व्यवस्था कृषि के इर्दगिर्द घूमती थी। कृषि उपज को मानवोपयोगी बनाने के लिए जो उद्योग करना पड़ता था वे सभी काम हस्तशिल्पी किया करते थे। एक वर्ग व्यापारियों का था जो जरूरत से अधिक उत्पादन को कम उत्पादन करने वाले क्षेत्रों में पहुँचाया करता था। आबादी बढ़ने के साथ मनुष्य निर्मित वस्तुओं की मांग भी बढ़ती गयी जिससे वस्तुओं का मेन्युफेक्चर आरंभ हुआ। छोटे-छोटे कारखाने खड़े हुए जहाँ एक मालिक के अधीन अनेक लोग काम करते थे। तकनीक के विस्तार, भाप के इंजन के आविष्कार ने उद्योग क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। बड़ी मात्रा में उत्पादन संभव होने लगा। तेजी से कारखाने खड़े होने लगे जिनमें काम करने के लिए मानव श्रम की आवश्यकता थी। यह मानव श्रम उद्योगों के स्वामी पूंजीपतियों को केवल कृषि क्षेत्र से ही मिल सकता था। लेकिन लोग वहाँ अपनी जमीन और जमीन के मालिकों से बंधे थे। इस मानव श्रम को इन बंधनों से मनुष्य की मुक्ति ही उपलब्ध करा सकती थी और इसके लिए जनतंत्र की जरूरत थी। इस तरह जनतंत्र प्रारंभिक रूप से पूंजीपतियों की आवश्यकता थी। इससे किसानों और खेतों में काम करने वाले मेहनतकशों को बंधन मुक्ति मिल रही थी, व्यापारियों के लिए मुक्ताकाश खुल रहा था। यहीं से उस सामंती दुनिया में जनतंत्र की खिड़की खुली और उससे बाहर निकली हवा पूरी दुनिया में फैल गयी।

पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में जनतंत्र का दुनिया में विस्तार हुआ। जनतंत्र लाने में पूंजीपतियों का साथ किसानों और मजदूरों ने दिया था। इसने उन्हें जमीन और बंधुआ श्रम से मुक्ति दी, किन्तु कारखानों में जिस तरह से उनसे कम से कम मजदूरी में अधिक से अधिक काम लिया जाता था। सारी पूंजीवादी दुनिया में काम के घंटे कम करने और जीने लायक मजदूरी पाने के लिए मजदूरों के स्वतः स्फूर्त आंदोलनों ने जोर पकड़ना आरंभ कर दिया। मजदूर संगठित होने लगे। समाजवाद की विचारधारा ने जोर पकड़ना आरंभ किया।

दुनिया भर में जनतंत्र को लाने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध थे। पूंजीपतियों के बीच तेजी से उत्पादन बढ़ाने और अधिक से अधिक लाभ कमाने की होड़ बढ़ गयी थी। हर पूंजीवादी देश चाहने लगा कि दुनिया का अधिक से अधिक बाजार उनके कब्जे में रहे जिससे उनकी अर्थ व्यवस्था हमेशा प्रगति करती रहे। उत्पादन को खपाने के लिए नए बाजारों की जरूरत हमेशा बनी रहती थी जो उपनिवेशों में उपलब्ध थे। उपनिवेशों पर उनका कब्जा बना रहे यह प्रतिस्पर्धा पूंजीवादी देशों के बीच बढ़ती रही। पूंजीवाद की एक खामी यह भी है कि यह मजदूरों को कम से कम वेतन देता था और अपनी पूंजी बढ़ाता रहता था। एक वक्त ऐसा आ जाता था कि उत्पादन तो खूब होता था लेकिन उत्पादों को खरीदने के लिए जनता के पास धन की कमी हो जाती थी। बाजार मालों से भरे रहते थे लेकिन खरीददारों का अभाव होता था। इस तरह बाजार में मंदी प्रकट होती और अनेक छोटे उद्योगों को बरबाद करती और बड़े उद्योग पनपते रहते। उद्योगों की बर्बादी से उत्पादन सिकुड़ता और मंदी कम होती। लेकिन वह हर 10-12 सालों में लौट आती। अपने माल को खपाने के लिए नए बाजारों की तलाश आरंभ हो गयी। इसी के साथ पूंजीवाद ने साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर लिया। पूंजीवादी देशों के बीच बाजार कब्जाने की इस होड़ ने दुनिया को प्रथम विश्वयुद्ध में झोंक दिया। जुलाई 1914 से नवंबर 1918 तक दुनिया विश्वयुद्ध की ज्वाला में जलती रही।

मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” के प्रकाशन के साथ एक नारा दिया था, ‘दुनिया के मजदूरों एक हो¡’ मार्क्सवाद ने वैज्ञानिक समाजवाद और साम्यवाद के आदर्श लक्ष्य दिए थे। मजदूर आंदोलन के विकास के साथ ही मार्क्सवाद पर दुनिया भर में बहस तेज हो गयी। लेनिन ने मार्क्सवाद और मार्क्स के बाद पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में विकसित होने का अध्ययन कर बताया कि मजदूर क्रान्ति एक देश में भी हो सकती है और साम्राज्यवादी युद्ध के बीच यह पूरी तरह संभव है। लेनिन के नेतृत्व में रूस के मजदूर वर्ग ने किसानों की मदद से यह कर भी दिखाया। पहली मजदूर क्रान्ति रूस में सम्पन्न हुई। इस क्रान्ति से पहला मजदूर-किसान राज्य सोवियत संघ अस्तित्व में आया। उन दिनों भारत में आजादी का आंदोलन प्रारंभिक रूप में था। रूसी क्रान्ति ने तमाम उपनिवेशों में आजादी के आंदोलनों को प्रेरित किया। मजदूर किसान आजादी के आंदोलनों से जुड़ने लगे। भारत के आजादी के आंदोलन पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ। भगतसिंह और उसके साथियों का क्रान्तिकारी आंदोलन पूरी तरह साम्यवादी आदर्शों से प्रभावित था और उनका दल भारत में मजदूर किसानों का राज्य चाहता था।

पहले विश्वयुद्ध ने दुनिया के बाजारों का साम्राज्यवादी देशों के बीच बँटवारा कर लिया था। इसके समापन से दुनिया ने चैन की साँस ली। लेकिन मंदी तो पूंजीवाद का अभिन्न लक्षण है। वह निश्चित अंतराल के बाद लौटती है। पूंजीवाद पूंजीपतियों को और अमीर बनाता चला जाता है, जनता संसाधन हीन हो कर गरीबी के समुद्र में डूबने लगती है। किसी भी देश का यह आंतरिक आर्थिक अंतर्विरोध जनता में लगातार असंतोष उत्पन्न करता है और जन आंदोलन जन्म लेते हैं। ये आंदोलन सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग को बैचेन करते हैं और जनतंत्र जो वास्तव में पूंजीपतियों के कब्जे में होता है इसका कोई वास्तविक स्थायी हल नहीं देता। हम हमारे देश के अनुभव से जानते हैं कि लोकतंत्र में पूंजीवाद भ्रष्टाचार के अंडर करंट का जन्मदाता है। इस भ्रष्टाचार के जरीए पूंजीपति जनतंत्रों की तमाम राजकीय मशीनरी को अपने हक में इस्तेमाल करने की ताकत पाता है। वह अपने धन-बल पर राजनेताओं की बड़ी फौज खड़ी करता है जो लगातार उसके लिए काम करते हैं। धन के बल पर वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर लेता है। मेहनतकश जनता हाथ मलते रहती है। धीरे-धीरे अपने अनुभव से जनता सीखती है और जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जनतांत्रिक देशों की पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रही सरकारों के विरुद्ध बड़े आंदोलन खड़े करने लगती है। सरकार को जनता के पक्ष में काम करने को बाध्य करती है। यह सब पूंजीपतियों को रास नहीं आता। सरकारें इन आंदोलनों के दमन पर उतर आती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार जनतंत्र का मूल है, लेकिन यही आजादी जनता के आंदोलनों की ताकत भी है। सरकार को इस अधिकार को सीमित करना पड़ता है। लेकिन जनतंत्र में सरकार की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे चार-पाँच साल के अंतराल से जनता द्वारा चुना जाता है। जनता की नाराजगी इन चुनावों में अभिव्यक्त होती है और सरकारों के बदले जाने के रूप में प्रकट होती है।

जनतंत्र में पूंजीवादी दलों को चुनाव का बार बार सामना करना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि पूंजीवादी दल जनता को आर्थिक मुद्दों पर संगठित होने से दूर रखे। इसके लिए जनता को अन्यान्य मुद्दों पर बाँटे रखने का काम ही उन्हें और पूंजीवाद को सुरक्षित रख सकता है। वे नस्ल, राष्ट्रीयता, धर्म और अन्य आधारों पर अपनी राजनीति खड़ी करते हैं, उसके लिए सिद्धान्त गढ़ते हैं। उनके आधार पर जनता के समूहों को एक दूसरे के प्रति नफरत सिखाते हैं और उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं।

पूंजीवाद की जनता को बाँटे रखने की राजनीति ने यूरोप में एक नयी विचारधारा फासीवाद को जन्म दिया बेनिटो मुसोलिनी को इसके जन्म का श्रेय जाता है और एडॉल्फ हिटलर को इसे पूरी तरह विकसित करने का। फासीवादी विचारधारा उदारवाद, साम्यवाद,और रूढ़िवाद का विरोध करती है अपनी नयी रूढ़ियाँ कायम करती है। फासीवाद का लक्ष्य एक राष्ट्रवादी तानाशाही का निर्माण है जो एक राष्ट्र को एक साम्राज्य में बदलने के लिए एक आधुनिक, स्वनिर्धारित संस्कृति के तहत अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना और संबंधों को विनियमित करती है। फासीवाद रोमांटिक प्रतीकवाद, जन-लामबंदी, हिंसा के सकारात्मक दृष्टिकोण और सत्तावादी नेतृत्व को बढ़ावा देने, और पड़ोसी देशों को शत्रु घोषित कर उनके प्रति आक्रामक रुख के प्रदर्शन के माध्यम से समर्थन एकत्र करता है। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों का लाभ उठाने और सत्ता पर काबिज होने के उद्देश्य के प्रतिफल में यह विचार पहले इटली और बाद में जर्मनी में पनपा और इसने दो पड़ोसी देशों में दो जग प्रसिद्ध तानाशाह दिए। दूसरे विश्वयुद्ध को भड़काने में इन दोनों देशों ने प्रमुख भूमिका अदा की। इसने दुनिया भर को दहला दिया। अंत में समाजवादी सोवियत संघ की मदद से पूंजीवादी देशों ने इन दोनों तानाशाहियों का अंत किया। जिन जिन देशों पर इन दोनों ने कब्जा किया था। उन देशों को सोवियत सेनाओं ने फासीवादी दमन से मुक्त किया, जिससे वहाँ चल रहे मजदूर किसानों के आंदोलनों और कम्युनिस्ट पार्टियों को बल मिला और इन देशों में एक नयी जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, जो व्यवहार में पूंजीवादी थी। लेकिन वह पूंजीपतियों को असीमित लूट की छूट नहीं देती थी। इस व्यवस्था में मजदूर-किसान वर्गों के प्रतिनिधि साम्यवादी थे। यह एक नयी परिस्थिति थी, जिसमें यह सोचा गया कि किसी समाजवादी क्रान्ति के बिना भी वहाँ पूंजी के विकास के साथ साथ समाजवाद का विकास किया जा सकता है। इस व्यवस्था को सोवियत संघ के प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने जनवादी जनतंत्र का नाम दिया।

वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में राज्य के तीन प्ररूप समाने आए। जनतंत्र, जनवादी जनतंत्र और फासीवादी राज्य । बड़े जनतंत्रों में साम्राज्यवादी पूंजीवाद प्रमुख अर्थव्यवस्था होती है, जिसमें बड़े पूंजीपति लगातार प्रगति करते रहते हैं। इस जनतंत्र का स्वरूप इतना उदार रहता है कि वह अधिकांश जनता को जीने की सामान्य सुविधाएँ देता रह सकता है। लेकिन उसमें यह क्षमता दूसरे देशों के शोषण की कमाई से उत्पन्न होती है। ऐसे देशों में बड़े जन आन्दोलनों का अभाव रहता है। यह यदा कदा संकटों से जूझते और उन्हें हल करते हुए जीवित रहते हैं। इस तरह के देशों की अर्थव्यवस्था का बड़ा भाग हथियारों के उत्पादन पर टिका रहता है जिसे वे दूसरे देशों को बेचते हैं। दुनिया में युद्धों का बने रहना इन उद्योगों के जीवित रहने का प्रमुख आधार बना रहता है। विकासशील पूंजीवादी देशों में जनतंत्र की स्थिति भिन्न होती है। इनकी अर्थव्यवस्था को हमेशा मदद की जरूरत रहती है, जिसके लिए वे साम्राज्यवादी देशों की ओर देखते हैं, और उनके शोषण का शिकार बने रहते हैं। जनता में असंतोष बना रहता है। जिसके कारण जन आन्दोलन पनपते रहते हैं और पूंजीवाद की प्रगति बाधित होती है। इन देशों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद अपनी जड़ें जमाने कोशिश में रहता है और जनतंत्र को खतरा बना रहता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिन देशों ने जनवादी जनतंत्र को अपनाया उनमें से आज भी चीन, क्यूबा और वियतनाम जैसे देश इस व्यवस्था को बनाए रखे हैं। इनमें चीन ने अपनी राज्य व्यवस्था को जनवादी जनतांत्रिक तानाशाही का नाम दिया। क्योंकि वह पूंजी-निगमों को असीमित स्वतंत्रता नहीं देता अपितु उन्हें अपनी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में दखल देने से रोकता है। इन देशों में पूंजीवाद की प्रगति धीमी और अर्थव्यवस्था अन्य पूंजीवादी दुनिया की अपेक्षा सुस्त रहती है। लेकिन जनता को जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कमी नहीं रहती। उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा का कोई अभाव नहीं होता। जनता शोषण मुक्त जीवन जीती है। हालाँकि पिछले कुछ दशकों में चीन ने अपनी व्यवस्था को कुछ उदार बनाते हुए उत्पादन को जो गति दी है। उससे पूंजीवादी विश्व चौंक गया है और डरा हुआ है कि वह वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर न बन जाए।

फासीवाद का उदय इटली और जर्मनी में हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध ने इन दोनों देशों में फासीवाद का अंत कर दिया। फासीवादी शासन में इन दोनों देशों ने जिस तरह अपनी और युद्ध के द्वारा कब्जाए गए पड़ोसी देशों की जनता का दमन किया, लाखों लोगों का नरसंहार किया, वह आज भी दुनिया को आतंक और भय से दहला देता है। फासीवाद को दुनिया ने नकार दिया। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था हमेशा फासीवाद में अपनी समस्याओं का समाधान देखती है। जिसके कारण फासीवादी प्रवृत्ति को मरने नहीं देती और उसे खाद-पानी और जमीन मुहैया कराती रहती है। इतिहास का अनुभव बताता है कि मेहनतकश वर्गों मजदूरों और किसानों ने ही हमेशा फासीवाद का मुकाबला कर उसे नाकों चने चबवाए हैं, परास्त किया है। यही कारण है कि आर्थिक संकटों के समय पूंजीवादी देशों में फासीवादी प्रवृत्ति सर उठाती रहती है। फासीवाद के इस खतरे ने जनतंत्र को हानि पहुँचाई है और लगातार पहुँचाता रहता है। विगत दो दशकों से इस फासीवादी प्रवृत्ति ने पूरी दुनिया में जनतंत्र को संकट में डाला हुआ है। यही कारण है कि पूंजीवादी देशों की जनता हमेशा जनतंत्र को खतरे में पाती है। लगभग सभी पूंजीवादी जनतांत्रिक देशों में इसी कारण जनतंत्र बचाओ आंदोलन उठ खड़े हुए हैं और धीरे-धीरे आपस में संयोजित हो कर एक वैश्विक आंदोलन के रूप में संगठित होने की ओर आगे बढ़ रहे हैं।

भारत के संविधान ने इसे एक जनतांत्रिक गणतंत्र बनाया है और नागरिकों को समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धर्म की स्वतंत्रता, संस्कृति और शिक्षा संबंधी तथा संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकार दिए हैं। इसके साथ ही राज्य के लिए नीति निदेशक सिद्धांत दिए हैं। जो संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावित आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु राज्य का मार्गदर्शन करते हैं और भारत में परिकल्पित सामाजिक क्रांति के लक्ष्य हैं जो भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। इन कारणों से हमारा संविधान हमारे जनतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दस्तावेज है जो सभी अन्य ग्रन्थों और विधियों से ऊपर है।

हम समझ सकते हैं कि पिछले दस वर्षों का शासन हमारे जनतंत्र को उस दिशा की ओर ले जा रहा था, जिसमें जनता के जनतांत्रिक अधिकार सीमित होते जा रहे थे। शासन तंत्र फासीवादी लक्षणों वाले सर्वसत्तावाद की ओर आगे बढ़ रहा था। जनता की तकलीफें बढ़ रही थीं और उसके जीवन पर संकट बढ़ते जा रहे थे। सत्ताधारी दल के चार सौ पार के नारे ने स्पष्ट कर दिया था कि केवल जनतांत्रिक अधिकार ही नहीं पूरा संविधान ही खतरे में है। जनता के एक बड़े हिस्से ने इस खतरे को पहचाना और सत्ताधारी दल को बहुमत प्राप्त करने से रोक दिया। फिर भी वह अपने सहयोगी दलों की मदद से पुनः सत्तासीन है। 18वीं लोकसभा का पहला सत्र आयोजित करने के पहले ही सरकार और उसके मंत्रियों ने जो निर्णय लिए हैं, उनसे नहीं लगता कि सत्ताधारी दल ने इन चुनाव नतीजों से कोई सबक सीखा है। नयी गठबंधन सरकार अपने किसी पुराने फैसले फिरने को तैयार नहीं है।

आज जब हमारे संविधान और जनतंत्र पर खतरा आसन्न स्पष्टतः दिखाई दे रहा है वकील समुदाय में अनेक लोग संविधान और जनतंत्र को बचाने की लड़ाई में आगे दिखाई देते हैं। वे अपने सामाजिक दायित्व को ठीक से निभा रहे हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। वकील समुदाय के एक बड़े हिस्से में अवसरवाद का विचार बहुत गहरे पैठा हुआ है। यह उन्हें तात्कालिक लाभों के लिए संविधान और जनतन्त्र को खतरा बनी शक्तियों के खेमे में ले जा कर खड़ा कर देता है तथा जनतंत्र और संविधान की रक्षा की लड़ाई को कमजोर बनाता है। ऐसे ही अवसरवादी तत्वों के प्रभाव में हमारी बार कौंसिलें और बार एसोसिएशन गैर जनतांत्रिक निर्णय ले बैठती हैं। ऐसे लोगों को यह समझने समझाने की आवश्यकता है कि वकील का व्यवसाय भी तभी जीवित और असीमित बना रह सकता है जबकि जनतंत्र और संविधान बचे रहें। कानून का शासन बचा रहे। इसी संविधान और जनतंत्र ने हमें अपने मुवक्किलों की पैरवी का अधिकार दिया है। हमारा यह अधिकार भी तभी बचा रह सकता है जब संविधान, जनतंत्र और कानून का शासन बचा रहे। जो वकील जनतंत्र और संविधान की इस लड़ाई का हिस्सा बन चुके हैं उनका एक कर्तव्य यह भी बनता है कि वे अपने समुदाय के भीतर जागरूकता अभियान चलाएँ और अधिक से अधिक अपने वकील साथियों को जनतंत्र, संविधान और कानून के शासन को बचाए रखने के इस संघर्ष के पक्ष में खड़ा करें।

(समाप्त)

शनिवार, 13 जुलाई 2024

सड़ांध

उसकी शादी हुई एक लड़के से, वह उसके साथ शादी मेंं पाँच महीने रही।

वह काम पर था। इन पाँच महीनों में भी वह कितने दिन उसके साथ रहा। फिर वह जंग में मारा गया। चंद दिन जिस पुरुष के साथ वह रही, कुछ महीने उसके माता-पिता के साथ। कितना अटैचमेंट रहा होगा उसका इन सबसे?

फिर वह जंग मारा गया। सरकार ने मैडल दिया और कुछ धन जो पूरा एक करोड़ भी नहीं था। क्या होता है एक करोड़? मुम्बई दिल्ली को तो छोड़िए कोटा जैसे शहर में इस रकम में आप एक ढंग का घर तक नहीं खऱीद सकते। वह मैडल और धन के साथ पतिगृह छोड़ कर अपने माता पिता के साथ रहने आ गयी।

पति उसके लिए दुःस्वप्न से अधिक नहीं था। लेकिन किसी की पत्नी होने का बिल्ला पूरे जीवन उसके साथ रहेगा। उसका दूसरा जीवनसाथी यदि कोई हुआ तो हमेशा यह याद रखेगा। लाया हुआ धन तो खर्च होना ही है। एक मैडल उसके पास है जिसे वह अपने दुःस्वप्न को याद रखने के लिए ले गयी।
 
इस सब पर एक लाइन लगातार छापी जा रही है, "पत्नी मैडल साथ ले गयी" क्यों न ले जाए? उसे छोड़ कर क्यों जाए? जैसा की हिन्दू कानून में था पहले कि यदि पुरुष मर जाए तो वह केवल पति की संपत्ति का उपभोग कर सकती है। वर्ना उत्तराधिकार के बतौर वह पति के पिता को वापस मिल जाएगी। यानी विधवा पुत्रवधु यदि ससुराल में रहना चाहे तो उसे कमरा, कपड़ा और खाना मिलेगा। उसकी भी कोई गारंटी नहीं। माँ को तो वैसे भी कुछ नहीं मिलना था बेटे से। प्रेमचंद की कहानी बेटों 'वाली विधवा' साथ वाले लिंक में पढ़िए।

यदि 1956 में नेहरू सरकार हिन्दू उत्तराधिकार कानून न लायी होती तो पत्नी को कुछ नहीं था, माता का कुछ नहीं था, बेटी का कुछ नहीं था। उनको यह हक मिल जाने का हिन्दू पुरुष के अन्दर जो गुस्सा है उसे किसने अभी तक जीवित रक्खा है? तलाशिये उन्हें और उनके माथे पर पहचान का निशान छाप दीजिए।

"पत्नी मैडल ले कर मायके चली गयी", यह सहज वाक्य है? सारा मीडिया इसे किस्सा क्यों बना रहा है। मीडिया के चेहरे से हिन्दू पुरुष वाला गुस्सा क्यों चू रहा है? सड़ांध आ रही है इस पसीने से?
 
एक आदमी शादी करता है और तीन माह बाद पत्नी से कहता है गृहस्थ होना उसके बस का नहीं है, वह तो कुछ बड़ा करने को बना है और उसे हमेशा के लिए मायके चले जाने को कह देता है। वह स्त्री बरसों बाद भी उस पुरुष का नाम माथे पर चिपकाए बैठी है। क्या इस से किसी को सड़ांध नहीं आती। पूरी तरह सड़ गया है यह समाज, कीड़े बिलबिला रहे हैं।

सोमवार, 11 मार्च 2024

जी.एन. साईबाबा को बरी किए जाने के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इन्कार किया।

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार 11 मार्च 2024 को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईबाबा और पांच अन्य को "भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने" और माओवादी संबंध रखने के आरोपों से बरी करने वाले बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के लिए महाराष्ट्र सरकार की याचिका को खारिज कर दिया।

"यह एक कठिन अर्जित बरी है ... कितने वर्षों के बाद वह [साईबाबा] इसे अर्जित कर सका? इस मामले में बरी करने के दो आदेश हैं। उच्च न्यायालय की दो अलग-अलग बेंचों ने उन्हें बरी कर दिया है। न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा, ''प्रथम दृष्टया, हम पाते हैं कि फैसला बहुत तर्कपूर्ण है।
G.N. Saibaba

दो साल में यह दूसरी बार था जब न्यायपालिका ने व्यापक रूप से देखे गए मामले में आरोप हटा दिए। अक्टूबर 2022 में पहली बार उच्च न्यायालय द्वारा आरोपों को खारिज कर दिया गया था। लेकिन सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसने शनिवार को विशेष सुनवाई की और नए सिरे से निर्णय लेने का निर्देश देते हुए उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया। उच्च न्यायालय ने पांच मार्च को साईबाबा और पांच अन्य को बिना सबूत के मामले में बरी कर दिया था.

राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) एसवी राजू ने सोमवार को बताया कि राज्य साईबाबा और अन्य के खिलाफ ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित दोषसिद्धि आदेश को पलटने के खिलाफ अपील कर रहा था।

लेकिन पीठ ने जवाब दिया: "हमने उच्च न्यायालय के फैसले का अध्ययन किया है और यह एक अच्छी तरह से तर्कसंगत निर्णय है ... कानून यह है कि हमेशा निर्दोषता का अनुमान होता है। और एक बार बरी होने का आदेश आने के बाद, यह अनुमान दृढ़ हो जाता है।

अदालत ने यह भी कहा कि राज्य ने एक आवेदन दायर कर बरी करने के आदेश पर रोक लगाने की मांग की थी, भले ही एएसजी ने याचिका पर जोर नहीं दिया। उन्होंने कहा, 'यह सुना नहीं गया कि बरी किए जाने पर रोक लगा दी गई है. चलो किसी भी ढीले सिरों को नहीं छोड़ते हैं। हम नहीं चाहते कि इस एप्लिकेशन को फिर से पुनर्जीवित किया जाए। हम आपके आवेदन को खारिज कर रहे हैं।

पीठ ने राज्य की अपील में साईबाबा और अन्य को नोटिस जारी करते हुए कहा कि उसे सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश का सम्मान करना चाहिए जब उसने राज्य की अपील पर विचार किया और कुछ निर्देश जारी किए। साथ ही, पीठ ने कहा कि इस मामले को पुरानी आपराधिक अपीलों के बाद तक इंतजार करना चाहिए और इसे सुनने की कोई आवश्यकता नहीं है।

पीठ ने कहा, ''बरी करने के आदेश को पलटने की कोई जल्दबाजी नहीं की जा सकती... सामान्य तरीके से, हम इस अपील पर विचार नहीं करते। लेकिन हम इसे स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि पहले एक अवसर पर हमने हस्तक्षेप किया था, और हमें इसका सम्मान करना होगा, "पीठ ने मामले में अनुमति देते हुए कहा क्योंकि उसने अपील में तेजी लाने के लिए राजू के अनुरोध को ठुकरा दिया।

7 मार्च, 2017 को गढ़चिरौली सत्र अदालत ने साईबाबा (57) और चार अन्य लोगों को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. छठे व्यक्ति विजय तिर्की को 10 साल जेल की सजा सुनाई गई थी। साईबाबा के साथ दोषी ठहराए गए पांच लोगों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र हेम मिश्रा, पूर्व पत्रकार प्रशांत राही और रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के तीन कार्यकर्ता महेश तिर्की, पांडु पोरा नरोटे और विजय नान तिर्की शामिल हैं.

जबकि बॉम्बे हाईकोर्ट में अपनी अपील के निपटारे की प्रतीक्षा में नरोटे की 2022 में जेल में मृत्यु हो गई, तिर्की को लगभग दो साल पहले जमानत दे दी गई थी। शेष चार, साईबाबा सहित, नागपुर सेंट्रल जेल में बंद थे।

बचपन में पोलियो से संक्रमित होने के बाद से व्हीलचेयर पर बैठे साईबाबा को मई 2014 में दिल्ली स्थित उनके घर से गिरफ्तार किया गया था. अपनी कैद के बाद, उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में अपनी नौकरी खो दी। यह भारत में सबसे प्रसिद्ध आतंकी मामलों में से एक रहा है, जिसमें कार्यकर्ताओं ने सरकार पर अधिकारों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया है और सरकार ने तर्क दिया है कि आरोपों की गंभीरता के लिए सबसे सख्त सजा संभव है।

न्यायमूर्ति विनय जोशी और न्यायमूर्ति वाल्मीकि एसए मेनेजेस की खंडपीठ ने पांच मार्च को निचली अदालत के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा और आरोपी के साथ न तो कोई कानूनी जब्ती और न ही कोई अन्य आपत्तिजनक सामग्री जुड़ी हो सकती है।

पीठ ने कहा, ''निचली अदालत का फैसला कानून के हाथों में टिकाऊ नहीं है। इसलिए, हम अपील की अनुमति देते हैं और आक्षेपित निर्णय को रद्द करते हैं। उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि सभी आरोपियों को बरी किया जाता है। उस दिन, राज्य ने अदालत से अपने बरी करने के आदेश को कुछ समय के लिए स्थगित करने के लिए भी कहा। उच्च न्यायालय ने इनकार कर दिया, यह देखते हुए कि यह आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है। बाद में राज्य सरकार ने फैसले को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का रुख किया।

महाराष्ट्र सरकार ने साईबाबा के कंप्यूटर में इलेक्ट्रॉनिक रूप में मौजूद सामग्री की बरामदगी का हवाला देते हुए उनका संबंध प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) से जोड़ा था. इसमें कहा गया है कि सामग्री से पता चलता है कि वह संगठन की गतिविधियों के बारे में जानता था। इन सामग्रियों में सीपीआई (माओवादी) के पर्चे, सीपीआई (माओवादी) के कथित अग्रणी संगठन, रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (आरडीएफ) के उपाध्यक्ष के रूप में उनका साक्षात्कार आदि शामिल थे।

एक लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला के रूप में बौद्धिक स्वतंत्रता पर अपने फैसले को आधार बनाते हुए, उच्च न्यायालय ने जोर देकर कहा कि 'किसी भी व्यक्ति द्वारा पढ़े और समझे गए इन दस्तावेजों की सामग्री को गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) या भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत अपराध नहीं माना जाएगा.'

'इन दस्तावेजों की सामग्री को अगर संचयी रूप से देखा जाता है, तो शायद यह प्रदर्शित होगा कि आरोपी माओवादी दर्शन के समर्थक थे या कुछ आदिवासी समूहों या कुछ लोगों के कारण के प्रति सहानुभूति रखते थे, जिन्हें हाशिए पर या वंचित माना जाता था... और इस तरह के साहित्य का कब्ज़ा, अपने आप में एक विशेष राजनीतिक और सामाजिक दर्शन होना, यूएपीए के तहत अपराध के रूप में नहीं माना जाता है, "डिवीजन बेंच ने कहा।

उच्च न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिए कि कोई नागरिक कुछ सामग्री डाउनलोड करता है या यहां तक कि किसी विशेष दर्शन के साथ सहानुभूति रखता है, तब तक यह अपने आप में अपराध नहीं होगा जब तक कि अभियोजन पक्ष के नेतृत्व में आरोपी द्वारा दिखाई गई सक्रिय भूमिका को हिंसा और आतंकवाद की विशेष घटनाओं से जोड़ने के लिए विशिष्ट सबूत न हों। उच्च न्यायालय ने कहा कि इस मामले में अभियोजन पक्ष साईबाबा को किसी घटना, आतंकी हमले या हिंसा की घटना से जोड़ने के लिए कोई सबूत पेश नहीं कर सकता है, न तो इसकी तैयारी में भाग लेकर और न ही किसी भी तरह से इसके आयोग को सहायता प्रदान करके.

उच्च न्यायालय ने अक्टूबर 2022 में पहली बार साईबाबा और पांच अन्य व्यक्तियों को दोषमुक्त कर दिया क्योंकि राज्य दो आवश्यक प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को पूरा करने में विफल रहा- मुकदमा चलाने की मंजूरी और गंभीर आतंकी आरोपों को लागू करने से पहले मंजूरी का एक स्वतंत्र मूल्यांकन। अप्रैल 2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले को नए सिरे से तय करने के लिए कहा गया, उच्च न्यायालय 5 मार्च को उसी निष्कर्ष पर पहुंचा।

उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि साईबाबा सहित छह लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी अवैध थी क्योंकि समीक्षा निकाय ने न केवल दिमाग के आवेदन की कमी का प्रदर्शन किया था, बल्कि इसलिए भी कि किसी भी स्वतंत्र प्राधिकरण ने अपने निष्कर्ष का समर्थन करने के लिए कोई सामग्री प्रदान नहीं की थी। अदालत ने कहा, 'संक्षिप्त आधे पृष्ठ के संवाद को रिपोर्ट नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला जिससे यह पता चले कि प्राधिकरण ने एकत्र किए गए साक्ष्यों की समीक्षा की और उसके आधार पर एक विशेष राय बनाई.' इसमें कहा गया है कि अनिवार्य पूर्व-आवश्यकता के अनुपालन के अभाव में दी गई मंजूरी को यूएपीए के अर्थ के भीतर वैध मंजूरी नहीं कहा जा सकता है.

उच्च न्यायालय ने मामले में गिरफ्तारी और जब्ती को भी अमान्य ठहराया, यह देखते हुए कि पुलिस आरोपियों के खिलाफ इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य साबित करने में विफल रहने के अलावा, यूएपीए के तहत निर्धारित मानदंडों का पालन करने में विफल रही.

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

शीघ्र न्याय : एक दुःस्वप्न

संसद और विधानसभाएँ कानून बनाती रहती हैं। लेकिन जब उनका पालन नहीं होता तो साधारण चालानों का जिनमें लोग जुर्माना भर कर निजात पा लेते हैं हजारों अवसर ऐसे होते हैं जब मुकदमा अदालत में जाता है। इसका एक उदाहरण आप चैक बाउंस के मामलों को ले लें। चैक बाउंस को अपराधिक बनाने के बाद इसके लिए अतिरिक्त अदालतें स्थापित करनी पड़ीं। कोटा नगर में चार अतिरिक्त अदालतें इन्हीं मामलों के लिए हैं। हर अदालत में हजारों मुकदमे लंबित हैं और जितने मुकदमे वे साल में निर्णीत करते हैं उससे डेढ़ दुगने मुकदमे रोज पेश होते हैं। कुल मिला कर नए कानूनों का सारा बोझा अदालतों पर आता है।

तीन मुख्य अपारिधिक कानून बदल दिए गए हैं। कल राजस्थान पत्रिका में गृहमंत्री अमित शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसका पहला प्रश्न यही था कि "देश की न्यायिक प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि समय पर लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। अदालतों में सालों साल तक सुनवाई चलती रहती है और न्याय की उम्मीद में लोगों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। इन अपराधिक कानूनों में समय पर न्याय के लिए क्या प्रयास किए गए हैं?
उत्तर में गृहमंत्री का जवाब था कि, "हमने 35 अलग-अलग जगह सेक्शनों में टाइम लाइन जोड़ी है। ... जिनमें समय की मर्यादा को सीमित करने का प्रयास किया है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब पूरे देश में ये नए कानून लागू हो जाएंगे, दतो उसके बाद अपराध होने के तीन साल के अंदर पीड़ित को न्याय मिल पाएगा। पहले सालों तक न्याय नहीं मिलता था, अपराधी इससे खौफ भी नहीं खाते थे।"

पहले भी अनेक कानूनों में टाइम लाइन निर्धारित की गयी है। उदाहरण के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 (2-ए) में टाइम लाइन है कि किसी भी विवाद को श्रम न्यायालय को रेफरेंस करते समय उचित सरकार निर्देश करेगी कि उसे कितने समय में निर्णीत करना है और यदि वह किसी एक मजदूर से संबंधित हो तो तीन माह में उसे निर्णीत करना होगा। यदि किसी मजदूर को अपने नियोजक से प्राप्त करना हो और उसे धनराशि में संगणित किया जा सकता हो तो वह मजदूर धारा 33 सी (2) में आवेदन दे सकता है। ऐसा आवेदन का निर्णय तीन माह में किया जाएगा।
 
इस कानून में यह टाइम लाइन 1982 से जुड़ी हुई है। चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन इन आवेदनों और विवादों में जो पहली तारीख पड़ती है वही तीन माह से अधिक की होती है, और उसके बाद भी तारीखें पड़ती रहती हैं। कोई अदालत इसका बोझा नहीं ढोती। अदालतें जानती हैं कि उन्हें एक-दो मुकदमे निर्णीत करने हैं। उससे अधिक वे कर भी नहीं सकते। क्यों कि उन्हें उस मुकदमे में जवाब लेने हैं, दस्तावेज पेश करने के आवेदनों का निस्तारण करना है, दोनों पक्षों की साक्ष्य लेनी है और फिर दोनों पक्षों की बहस सुन कर फैसला करना है। इस सब में स्वाभाविक रूप से एक मुकदमे में एक दिन का समय लगता है। इस कारण यह टाइम लाइनें तब तक बेमानी हैं, जब तक अदालतों की संख्या दो तीन गुना नहीं बढ़ा दी जाती है। आप पत्रिका की ही एक पुरानी खबर की कटिंग देखिए। क्या केन्द्र सरकार ने इतने जज नियुक्त करने और नयी अदालतें स्थापित करने के लिए भी कुछ किया है?
गृहमंत्री केवल इस बात पर विश्वास प्रकट कर रहे हैं। वे आश्वासन देने लायक भी नहीं हैं कि इन कानूनों से त्वरित न्याय मिलने लगेगा। इसके लिए अदालतें बढ़ानी पड़ेंगी। जो केन्द्र सरकार टैक्सों में राज्यों का हिस्सा तक देने में आनाकानी करती है, वह नयी अदालतें खोलने के लिए सीधे कहेगी यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अब जहाँ जहाँ भाजपाई नेतृत्व की सरकारेंं हैं वे तो डबल इंजन की सरकारें हैं। उन राज्यों में तो तत्काल अदालतें दुगनी कर सकती हैं।

आज न्यायपालिका की हालत यह है कि एक दो रोटी बनाने वालों को हजार लोगों को रोटी बना कर खिलाने का जिम्मा दे दिया जाए। आप कितने ही कानून नियम बना दें कि रोटी पत्तल पर बैठने के बाद पाँच मिनट में मिलेगी।  आप पत्तल लेकर बैठे रहना रोटी तो तभी मिलेगी बेचारे रोटी बनाने वालों को तो एक एक ही बना कर ही परोसनी पड़ेगी। ज्यादातर लोग इंतजार करके पत्तल छोड़ भाग लेंगे। जैसे मुकदमा करने वाला मुकदमे को बीच में छोड़ भागता है। बाकी तो ये सब देख कर अदालत जाने से ही डरते हैं। भारत के जवान होने के पहले ही सड़ रहे पूंजीवाद में शीघ्र न्याय सदा सपना ही बना रहेगा। 
 
कुल मिला कर इन तीन नए कानूनों से शीघ्र न्याय की आशा करना बेमानी है। बल्कि ऐसे प्रावधान किए हैं जिनसे जनता के दमन के बहुत अधिकार पुलिस और सरकारों को दे दिए गए हैं जिनसे दमन और बढ़ेगा।

कुछ माह से बहुत शोर है की रामजी आ रहे हैं। भ्रम हो रहा है कि रामराज भी आ रहा है। पर रामराज में और कुछ होता हो या नहीं पर न्याय के नाम पर तपस्वी (पढ़ लिख कर योग्यता हासिल करने की कोशिश करने वाला) दलित तपस्या के घोर अपराध के लिए दंड के नाम पर शंबूक मारा जाता है।






बुधवार, 10 जनवरी 2024

भारत सम्राट अकबर का श्रीराम-प्रेम या रामनिष्ठा! -बोधिसत्व


देश में श्रीराम पर सिक्का जारी करने वाले अकेले बादशाह हैं अकबर

मुग़ल सम्राट अकबर की श्रीराम निष्ठा आज तक के भारतीय इतिहास के सभी शासकों और राष्ट्र प्रमुखों से विशेष रही है! यह दावा राम पर अकेले दावा करने वालों को अखर सकती है! भला बाबर के पौत्र और हुमायूँ-हमीदा बानो के पुत्र की राम निष्ठा कैसी? वह सम्राट परधर्मी है! जिस लोगों की दृष्टि में अकबर के लिये राम काफिरों के देवता हैं! उसके मन में राम प्रीति कैसी! राम निष्ठा कैसी! प्रश्न उठता है इतिहास प्रमाण से निर्धारित हो या अफ़वाह से?

अफ़वाह से राजनीति की जा सकती है! इतिहास नहीं लिखा जा सकता! अकबर का इतिहास बोलता है! उसकी सर्व धर्म निष्ठा उसे सम्राट अशोक के बाद का सर्वोच्च शासक बनाती है जहां वह अपने निजी धर्म से बाहर निकल कर प्रजा के धर्म-समुदायों को मान महत्त्व देकर उसने वास्तविक सम्राट की गरिमा हासिल की!

अपने जीवन के लगभग अंतिम वर्षों में अकबर ने तीन ऐसे सिक्के जारी किए जिसने भारत के इतिहास में उसे अव्वल मुकाम पर पहुँचा दिया! ये सिक्के थे ‘सीयराम’ सिक्के! इनके जारी किए जाने के पीछे संभव है अकबर के जीवन पर उसकी हिंदू रानियों का प्रभाव भी रहा हो! इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता!


राम कथा के विद्वान स्वर्गीय भगवती प्रसाद सिंह ने अपने ग्रंथ ‘राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन’ में अकबर की राम निष्ठा पर कुछ रोचक निष्कर्ष निकाले हैं! उनका कहना है कि ‘राजपूताने में रसिकसाधकों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा और अवध में तुलसी साहित्य के व्यापक प्रचार का प्रभाव उदारमना अकबर पर भी पड़ा । उसके द्वारा प्रचारित 'रामसीय' भाँति की स्वर्ण एवं रजत मुद्राओं से यह स्पष्ट हो जाता है।’

काशी वासी विद्वान राय आनंद कृष्ण के हवाले से वे बताते हैं कि ‘अब तक इस भाँति के तीन सिक्कों का पता चला है-दो सोने की अर्धमोहरें और एक चाँदी की अठन्नी । इनमें एक सोने की अर्धमोहर, कैबिनेट डे फ्रांस में है, दूसरी ब्रिटिश म्युजियम में और तीसरी चाँदी की अठन्नी भारत कलाभवन, काशी में संग्रहीत है।
 
लेखक : बोधिसत्व

भारत कला भवन वाली यह (तीसरी मुद्रा) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी को लखनऊ के किसी व्यापारी से प्राप्त हुई थी । दोनों साँचों में एक ओर राम- सीता की आकृति अंकित है और दूसरी और उनका प्रचलन काल दिया हुआ है, जिससे पता चलता है कि उपर्युक्त दोनों भाँति की मुद्रायें भिन्न काल में और दो भिन्न साँचों में ढाली गयी थीं- बाबू भगवती प्रसाद सिंह और श्रीयुत राय आनन्दकृष्णजी के लेख के आधार पर अकबर द्वारा जारी किए गये सीय-राम सिक्के का विवरण यहाँ दे रहा हूँ! इस विवरण का आधार राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन में अकबर की राम निष्ठा नामक आलेख है:

( 1) सोने की दो अर्धमुहरें ( ब्रिटिश म्यूजियम और कैबिनेट डे फ्रांस ) इनमें राम प्राचीन वेश में उत्तरीय तथा धोती धारण किये हुए और सीता लहंगा, ओढ़नी और चोली पहने, अवगुंठन यानी घूँघट को सम्हालती हुई अंकित की गई हैं। इस सिक्के के जारी करने का काल ५० इलाही, परवरदीन उत्कीर्ण है । ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित अर्धमोहर में चित ओर 'रामसीय' नागरी अभिलेख मिट गया है किंतु 'कैबिनेट डे फाँस' की अर्धमुहर में वह ज्यों का त्यों बना हुआ है ।

(2) चाँदी की अठन्नी (भारत कलाभवन, काशी)का विवरण : इसमें सीताराम अकबरकालीन वेश में दिखाये गये हैं। राम सिर पर तीन कंगूरे वाला मुकुट, (जैसा अकबर के समय के ब्राह्मण देवताओं के चित्रों में भी प्राप्त, होता है) घुटने तक जामा, दुपट्टा, जिसके दोनों छोर इधर-उधर लटक रहे हैं बायें हाथ में धनुष की कमानी की मध्य, जिसकी प्रत्यंचा भीतर की ओर है, पीठ पर तूणीर और दाहिने हाथ में धनुष पर चढ़ा हुआ बाण धारण किया है। राम की अनुगामिनी सीता चोली या अँगिया, लहंगा, ओढ़नी और हाथों में चूड़ियाँ पहने हैं। सीता का बायाँ हाथ सामने उठा हुआ है और दाहिना पीछे लटकता हुआ अंकित है । उनके दोनों हाथों में फूल का गुच्छा है। ‘रामसीता’ के ऊपर बीच में नागरी अक्षरों में 'रामसीय' अंकित है इसके पट की ओर 50 इलाही अमरदाद लिखा हुआ है।

इससे यह बात पता चलती है कि ये दोनों मुद्रायें, अकबर की मृत्यु के पहले एक वर्ष के भीतर, उनके द्वारा प्रचलित इलाही सम्वत् के 50वें वर्ष के दो भिन्न महीनों में प्रचलित की गई थीं ।

भगवती बाबू के अनुसार यह प्रश्न उठता है कि 'रामसीय' भाँति की ये दो भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्रायें उनके जीवन की किस स्थिति की परिचायक हैं। मोटे तौर से सीताराम का दांपत्य जीवन तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

पहला- विवाह के पश्चात् और वनगमन के पूर्व अयोध्या में व्यतीत होने वाला उनका गार्हस्थ्य जीवन

दूसरा- चौदहवर्षीय वनवास में सीताहरण से पूर्व का जीवन और
 
तीसरा- लंका विजय के पश्चात् उनके पुनर्मिलन के समय से लेकर सीता के द्वितीय वनवास के पहले तक उनका अयोध्या का राजैश्वर्यपूर्ण जीवन।
 
इन तीनों के अन्तर्गत ही किसी अवस्था में उनकी स्थिति का अंकन उपर्युक्त दोनों प्रकार की मुद्राओं में सम्राट अकबर द्वारा अंकित और जारी करवाया हुआ है। यह स्पष्ट ही है कि इन तीनों समयों में में प्रथम तथा तृतीय दाम्पत्य की अवधि या क्रीड़ाभूमि अयोध्या रही है और दूसरी अवस्था राम-सीता की 'वनलीला' की है।

राय आनंद कृष्ण जी कहते हैं कि सोने की मुहरों में दंपति की जिस मुद्रा का चित्रण हुआ है वह उनके गार्हस्थ्य जीवन के अधिक मेल में है। पति के पीछे चलती हुई सीता का दाहिना हाथ कमर पर रखना और बायें हाथ से घूँघट संभालना, उनके दांपत्य जीवन के आारंभिक काल की मुद्रा प्रतीत होती है। सीता में नव दाम्पत्य का भाव प्रबलता से परिलक्षित होता है! लज्जा का जो भाव इससे व्यक्त होता है, उसकी व्याप्ति इसी नव दाम्पत्य की अवस्था में अधिक संगत जान पड़ती है। यह भी असंभव नहीं कि यह उनके चित्रकूट के वन-विहार की किसी स्थिति का द्योतक हो । अतः इसे प्रथम तथा द्वितीय अवस्था के अन्तर्गत मानना उचित होगा यानी वनवास के पूर्व या वनवास की अवधि को अंकित किया गया है!

भारत कलाभवन काशी की अठन्नी में अंकित सीताराम की मुद्रा के विषय में भगवती प्रसाद सिंह जी का विचार है कि इसमें उनके चित्रकूट अथवा पंचवटीवास के समय किये आखेट एवं वन-विहार का दृश्य अंकित है। यह स्मरणीय है कि पंचवटी वास के समय यह उस स्थिति का द्योतक नहीं माना जा सकता, जब सीता ने राम को सुवर्णमृग दिखाया था और उनकी प्रेरणा से वे उसके आखेट में प्रवृत्त हुए थे । यदि उस स्थिति से इसका सम्बन्ध होता तो सीता मृग को इंगित करती हुई दिखाई जातीं, किन्तु प्रस्तुत चित्र में ऐसा कुछ लक्षित नहीं होता। सीता का, निःसंकोच भाव से दोनों हाथों में फूल के गुच्छे लिये हुए पत्ति का अनुगमन वन-विहार का द्योतक हो सकता है।

भगवती बाबू का अनुमान है कि इस लीला का क्षेत्र माने जाने की संभावना पंचवटी से चित्रकूट की अधिक है । कारण यह है कि राम- भक्ति साहित्य में 'अहेरी' राम की मुख्य क्रीड़ा-भूमि तथा सीताराम की बिहार स्थली के रूप में इसी स्थल की सर्वाधिक प्रतिष्ठा है । रसिक-साहित्य में चित्रकूट-वासी राम तापस नहीं, राजैश्वर्यपूर्ण और नित्यरासलीलारत चित्रित किये गये हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस, गीतावली और विनयपत्रिका में चित्रकूट का स्मरण दम्पति की विहार भूमि के रूप में किया है।

उनके परवर्ती राम चरित रसिकों ने भी उसे इसी रूप में देखा है। भगवती प्रसाद सिंह जी के शब्दों में ‘इस प्रकार दोनों भाँति की मुद्राओं में सीताराम की श्रृंगारी भावना प्रकट होती है । उदार अकबर को इन माधुर्यव्यंजक दृश्यों के सिक्कों पर उत्कीर्ण करने की प्रेरणा रामभक्ति में बढ़ती हुई रसिक भावना से प्राप्त हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।’
राय आनन्दकृष्ण जी ने इन सिक्कों के प्रचलित करने का कारण, जीवन के अंतिम दिनों में उद्बुद्ध, अकबर की रामभक्ति बताया है। इनका प्रचलन उसने जिस किसी भाव से भी प्रेरित होकर कराया हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि उसकी 'रामसीय' में निष्ठा थी और उनके 'स्वरूप-प्रचार' में वह प्रजा और राजा दोनों का हित देखता था । अकबर के मन में राम-प्रीति या राम निष्ठा न रही होती तो वह ‘रामसीय’ जारी करने पर विचार ही नहीं करता!

शताब्दियों पहले से भारतीय शासकों द्वारा शिलालेखों और मूतियों में प्रतिष्ठित विष्णु और कृष्ण को छोड़कर अन्य धर्मी अकबर का 'रामसीय' के नाम पर सिक्का चलाना इस देश के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। भगवती बाबू दावे से कहते हैं कि ‘जहाँ तक उनको याद है किसी हिन्दू सम्राट ने भी शासन अवधि में सीताराम को इतना महत्त्व नहीं दिया था । इससे तत्कालीन समाज पर रामभक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

मुगल शासकों के बारे में भ्रम फैलाने का लाभ किसे मिलना है और हानि किसे होनी है इस चक्कर में बिना पड़े यादव बात की जाये तो अकबर और अशोक द्वारा स्थापित शासन के नियम शासक की उदारता और प्रजा को बराबर मानने की पैरवी करते हैं! चार सौ इक्कीस से अधिक वर्ष बीत गये अकबर की राम भक्ति पर मुख्य धारा के इतिहास कार चुप रहे! उस पर चर्चा की तो साहित्य और संस्कृति के दो धुरन्धरों ने! एक राम कथा के बेजोड़ मर्मज्ञ बाबू भगवती प्रसाद सिंह जी और दूसरे संस्कृति और कला मर्मज्ञ राय आनंद कृष्ण जी ने!
 
पूर्व में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के श्रीराम भक्ति अंक में ‘रामसीय’ सिक्के का एक विवरण प्रकाशित किया गया था! जिसमें विद्वान लेखक श्री ठाकुर प्रसाद वर्मा जी ने ‘रामसीय’ सिक्कों के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है! श्री ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में इन सिक्कों पर लिखते हुए अकबर की मानसिक आध्यात्मिक स्थिति पर एक महत्व की टिप्पणी की है! वे लिखते हैं ‘यह राम सीय मुद्रा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि राम और सीता की आकृतियों को पुरोभाग पर अंकित किया गया है, जो सदैव केवल कलमा के लिए ही सुरक्षित समझा जाता है। यह बात इस तथ्य को उजागर करती है कि अकबर ने राम की आकृति को पूरोभाग में स्थान देकर उनकी ईश्वरीय महत्ता को स्वीकार किया था’! इसी बात के आकलन में मैं इस बात को अलग से कहना चाहूँगा कि अकबर ने श्रीराम प्रेम और निष्ठा में कलमा त्याग कर राम रूप को स्वीकार किया!

श्रीराम अंक का वह आलेख पूरा पढ़ा जाना चाहिए! ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने सिक्कों की बनावट और राम सीता के परिधान पर अलग ढंग से प्रकाश डाला है! (कल्याण श्रीराम भक्ति अंक, पृष्ठ 400)

कुछ अन्य लेखकों ने भी अकबर की राम भक्ति को रेखांकित किया है! अपनी पुस्तक ‘हमारे देश के सिक्के’ में डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त ने भी बादशाह अकबर के ‘रामसीय’ सिक्कों को एक महत्त्व की घटना माना है! (हमारे देश के सिक्के, पृष्ठ 36)

लेकिन अकबर की उदारता को प्रचारित करने के पक्ष में बहुधा इतिवृत्त और इतिहास लेखक लोग मौन रहे! उस मौन से अकबर की सर्व धर्म उदारता वाले उसके महान चरित्र पर तो आँच नहीं आई लेकिन इतिहास लेखकों का चरित्र अवश्य लांछित होता दिखा!
 
अंत में एक बात फिर कहूँगा! श्रीराम पर मुद्रा या सिक्का जारी करने वाला अकबर अब तक का अकेला बादशाह या सम्राट है! समय बिता लेकिन उसकी राम निष्ठा अछूती और बेजोड़ बनी रही!
 
नोट: लेख के शीर्षक में ‘अकबर की राम निष्ठा’ वाला पद भगवती बाबू का दिया हुआ है!
 
संदर्भ पुस्तकें :
 
*राम काव्यधारा
अनुसंधान और अनुचिंतन
लेखक: भगवती प्रसाद सिंह
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन
इलाहाबाद
प्रकाशन वर्ष: 1976

*श्रीरामभक्ति अंक
कल्याण कार्यालय
गीता प्रेस, गोरखपुर

*हमारे देश के सिक्के
लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त
प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन
वाराणसी

रवि रतलामी : एक विनम्र श्रद्धांजलि

वह 2007 का साल था। घर में पहला कम्प्यूटर आया था। बीएसएनएल का पहला इंटरनेट कनेक्शन लिया था। इन्टरनेट का संसार खुल गया था। सारी धरती वहाँ थी। मैं धरती के किसी कोने को खंगाल सकता था। हिन्दी साहित्य तलाश रहा कि मुझे हिन्दी ब्लागों की दुनिया नजर आयी। मैं ब्लॉग पढ़ने लगा, उन पर टिप्पणियाँ करने लगा। फिर अनूप शुक्ल ने सुझाव दिया कि मुझे ब्लॉग लिखना चाहिए। कुछ समझ नहीं आया कि क्या लिखूँ। मैंने ब्लॉगस्पॉट पर अपना पहला ब्लॉग “तीसरा खंबा” बनाया। यह कानून और न्याय व्यवस्था पर आधारित ब्लाग था। पर लगा कि ब्लाग पाठकों का उस पर ध्यान कम है। सीधे जीवन से जुड़ी चीजें पढ़ना पसंद करते हैं और तीसरा खंबा पर भी पाठकों को लाने के लिए अपना कोई सामान्य ब्लाग बनाना पड़ेगा, जो जीवन के अनुभवों से जुड़ा हो। कोई दो माह बाद अपना सामान्य ब्लॉग “अनवरत” बनाया।

रवि रतलामी

कंप्यूटर आने के बाद मैं क्रुतिदेव फॉण्ट में टाइप करने लगा था। उसी में अपना काम करता था। क्रुतिदेव का की बोर्ड वही था जो उन दिनों हिन्दी टाइप मशीनों का था। इंटरनेट पर केवल यूनिकोड फॉण्ट ही चलते थे। हिन्दी के लिए यूनिकोड फॉण्ट का इनस्क्रिप्ट की बोर्ड तैयार हो चुका था लेकिन उसका मूल की बोर्ड अलग था। लोगों ने अपने टाइपिंग अभ्यास के लायक (आईएमई) बना ली थीं। लेकिन वे प्रारंभिक अवस्था में थीं। आईएमई से टाइप करने पर ब्लागस्पॉट के ब्लाग में संयुक्ताक्षर और मात्रा वाले शब्द फट जाते थे। अक्षर, मात्रा और अर्धाक्षर अलग अलग दिखाई देते थे बीच में स्पेस आ जाती थी। बहुत बुरा लगता था। मैं परेशान हो गया। आखिर रवि रतलामी जी से पूछा क्या करूँ? इसका क्या उपाय है. तो वे बोले सबसे बेहतर उपाय तो इनस्क्रिप्ट की बोर्ड सीख लो।

उन दिनों इनस्क्रिप्ट की बोर्ड के लिए कोई ट्यूटर भी नहीं था। अभ्यास कैसे करूँ। मैं हिन्दी टाइपिंग सीखने वाली किताब बाजार से खरीद कर लाया। उसमें जिन कुंजियों का अभ्यास क्रम से किया जाता था। उन्हीं कुंजियों का अभ्यास क्रम से करने के लिए अपने खुद के अभ्यास बना लिए। उनसे अभ्यास करना शुरू कर दिया। एक सप्ताह उस तरह का अभ्यास करने के बाद मैंने टाइपिंग शुरू कर दी। मैं दस दिन में इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइप करने लगा। एक महीने बाद तो मेरी टाइप गति क्रुतिदेव की बोर्ड से बेहतर हो गयी, लगभग अंग्रेजी वाली गति के मुकाबले। आज मैं अंग्रेजी से अधिक गति से हिन्दी टाइप कर लेता हूँ। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने 2008 के बाद मेरी वकालत की तमाम प्लीडिंग मेरी खुद की टाइप की हुई है और मेरे कंप्यूटर में सुरक्षित है।

पहले टाइपिस्टों से टाइप कराने पर उनके फ्री होने का इंतजार करना पड़ता था और बहुत समय जाया होता था। मेरे यहाँ स्टेनो आता था। वह डिक्टेशन लेकर जाता था अगले दिन टाइप कर के लाता था। फिर करेक्शन के बाद दुबारा टाइप करता था। एक काम को कम से कम तीन दिन लग जाते थे। इन दोनों से मेरा पीछा छूटा। अपनी लगभग सारी प्लीडिंग खुद टाइप करने वाला हिन्दी बेल्ट का शायद मैं पहला वकील हूँ।

मुझे इस स्थिति में लाने का सारा श्रेय रवि रतलामी जी को है। मैं उनसे मिलना चाहता था। किन्तु उनसे न तो किसी ब्लागर मीट में भेंट नहीं हो सकी। मैं उनसे मिलने के लिए रतलाम या भोपाल भी न जा सका। 8 जनवरी, 2024 को सुबह अचानक समाचार मिला कि रवि रतलामी जी नहीं रहे।

५ अगस्त १९५८ को जन्मे, रवि रतलामी नाम से लिखने वाले रविशंकर श्रीवास्तव, रतलाम, मध्य प्रदेश, भारत से, मूलत: एक टेक्नोक्रैट थे, हिंदी साहित्य पठन और लेखन उनका शगल था। विद्युत यान्त्रिकी में स्नातक की डिग्री लेने वाले रवि इन्फार्मेशन टेक्नॉलाजी क्षेत्र के वरिष्ठ तकनीकी लेखक थे। उनके सैंकड़ों तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आई.टी. तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं।

हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन इसका शौक था और इस क्षेत्र में भी इनकी अनगिनत रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखकर रह चुके हैं।

रवि रतलामी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के हिंदी-करण के अवैतनिक - कार्यशील सदस्यों में से एक थे और उनके द्वारा जीनोम डेस्कटाप के ढेरों प्रोफ़ाइलों का अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद किया गया, लिनक्स का हिंदी संस्करण मिलन (http://www.indlinux.org) 0.7 उन्हीं के प्रयासों से जारी हो सका।

रवि रतलामी हिन्दी ब्लाग के उन आरंभिक लोगों में से थे जिन्होंने हिन्दी ब्लागिंग और इन्टरनेट पर हिन्दी को पहुँचाने में अपनी बहुत ऊर्जा लगायी। तकनीक की मदद के लिए जाने जाने वाले मेरे अभिन्न मित्र Bs Pabla बी.एस.पाबला जी पहले ही हमें छोड़ कर जा चुके हैं।

आज रवि जी के साथ साथ पाबला जी की भी बहुत याद आ रही है।

रवि जी को हार्दिक श्रद्धांजलि¡