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शनिवार, 13 जुलाई 2024

सड़ांध

उसकी शादी हुई एक लड़के से, वह उसके साथ शादी मेंं पाँच महीने रही।

वह काम पर था। इन पाँच महीनों में भी वह कितने दिन उसके साथ रहा। फिर वह जंग में मारा गया। चंद दिन जिस पुरुष के साथ वह रही, कुछ महीने उसके माता-पिता के साथ। कितना अटैचमेंट रहा होगा उसका इन सबसे?

फिर वह जंग मारा गया। सरकार ने मैडल दिया और कुछ धन जो पूरा एक करोड़ भी नहीं था। क्या होता है एक करोड़? मुम्बई दिल्ली को तो छोड़िए कोटा जैसे शहर में इस रकम में आप एक ढंग का घर तक नहीं खऱीद सकते। वह मैडल और धन के साथ पतिगृह छोड़ कर अपने माता पिता के साथ रहने आ गयी।

पति उसके लिए दुःस्वप्न से अधिक नहीं था। लेकिन किसी की पत्नी होने का बिल्ला पूरे जीवन उसके साथ रहेगा। उसका दूसरा जीवनसाथी यदि कोई हुआ तो हमेशा यह याद रखेगा। लाया हुआ धन तो खर्च होना ही है। एक मैडल उसके पास है जिसे वह अपने दुःस्वप्न को याद रखने के लिए ले गयी।
 
इस सब पर एक लाइन लगातार छापी जा रही है, "पत्नी मैडल साथ ले गयी" क्यों न ले जाए? उसे छोड़ कर क्यों जाए? जैसा की हिन्दू कानून में था पहले कि यदि पुरुष मर जाए तो वह केवल पति की संपत्ति का उपभोग कर सकती है। वर्ना उत्तराधिकार के बतौर वह पति के पिता को वापस मिल जाएगी। यानी विधवा पुत्रवधु यदि ससुराल में रहना चाहे तो उसे कमरा, कपड़ा और खाना मिलेगा। उसकी भी कोई गारंटी नहीं। माँ को तो वैसे भी कुछ नहीं मिलना था बेटे से। प्रेमचंद की कहानी बेटों 'वाली विधवा' साथ वाले लिंक में पढ़िए।

यदि 1956 में नेहरू सरकार हिन्दू उत्तराधिकार कानून न लायी होती तो पत्नी को कुछ नहीं था, माता का कुछ नहीं था, बेटी का कुछ नहीं था। उनको यह हक मिल जाने का हिन्दू पुरुष के अन्दर जो गुस्सा है उसे किसने अभी तक जीवित रक्खा है? तलाशिये उन्हें और उनके माथे पर पहचान का निशान छाप दीजिए।

"पत्नी मैडल ले कर मायके चली गयी", यह सहज वाक्य है? सारा मीडिया इसे किस्सा क्यों बना रहा है। मीडिया के चेहरे से हिन्दू पुरुष वाला गुस्सा क्यों चू रहा है? सड़ांध आ रही है इस पसीने से?
 
एक आदमी शादी करता है और तीन माह बाद पत्नी से कहता है गृहस्थ होना उसके बस का नहीं है, वह तो कुछ बड़ा करने को बना है और उसे हमेशा के लिए मायके चले जाने को कह देता है। वह स्त्री बरसों बाद भी उस पुरुष का नाम माथे पर चिपकाए बैठी है। क्या इस से किसी को सड़ांध नहीं आती। पूरी तरह सड़ गया है यह समाज, कीड़े बिलबिला रहे हैं।

शनिवार, 3 अगस्त 2013

राजनीति के विकल्प का साहित्य रचना होगा।

  -अशोक कुमार पाण्डे

"प्रेमचन्द जयन्ती पर साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द पर परिचर्चा" 

 

'विकल्प' जन-सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा  प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर आयोजित परिचर्चा रविवार 28 जुलाई को दोपहर बाद प्रेसक्लब भवन में आयोजित की गई थी। प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजित समारोह सदैव ही बरसात से व्यवधानग्रस्त  हो जाते हैं।  इस परिचर्चा के दिन भी दिन भर बरसात होती रही। लेकिन बरसात के बावजूद भी परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओँ और श्रोताओं की संख्या अच्छी  खासी थी। उस दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि मुख्य अतिथि अशोक पाण्डे जी के वापस लौटने की ट्रेन निरस्त हो गई और उन्हें स्टेशन से वापस लौटना पड़ा। सुबह बस से ही उन की वापसी संभव हो सकी।  



इस परिचर्चा का विषय 'साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द' था। अतिथियों को स्वागत के बाद परिचर्चा का आरंभ करते हुए विकल्प के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य रचनाकारों-कलाकारों के बीच संवाद करते हुए शिक्षण और रचनाशीलता के लिए नई ऊर्जा का संचार करना तथा विचारहीनता के विरुद्ध मुहिम चलाते हुए समाज के अन्तर्विरोधों की समझदारी विकसित करना है। मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य और कला का एक मात्र स्रोत है। फिर भी साहित्य और कला में जीवन का प्रतिबिम्बित होना ही पर्याप्त नहीं है उसे वास्तविक जीवन से अधिक तीव्र, अधिक केंद्रित, विशिष्ठतापूर्ण, आदर्श के अधिक निकट और सांन्द्र होना चाहिए जिस से वह  पाठक और कला के भोक्ता को अधिक तीव्रता  के साथ प्रभावित कर सके। साहित्य और कलाएँ राजनीति से अछूते नहीं होते अपितु वे राजनीति के अधीन होते हैं, लेकिन वे राजनीति को प्रभावित भी करते हैं। वे जनता को जाग्रत करते हैं, उत्साह से भर देते हैं और वातावरण  को रूपान्तरित करने के लिए एकताबद्ध होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं।  कला और साहित्य को समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।   खुद प्रेमचन्द अक्सर कहते थे कि "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ।" वे कहते थे " साहित्य जीवन की आलोचना है।" "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिस में उच्च चिन्त हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे-सुलाए नहीं, क्यों कि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।" अपनी अर्धांगिनी शिवरानी देवी से उन्हों ने कहा कि "साहित्य, समाज और राजनीति तीनों एक ही माला के तीन अंग हैं, जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उस का समाज भी अच्छा होगा, समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। हमें आज की इस परिचर्चा में प्रेमचंद के साहित्य व जीवन के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज और राजनीति के अन्तर्सबंधों की छानबीन करनी है।

परिचर्चा का आरंभ करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि प्रेमचन्द समाज के चितेरे थे। हम आसपास के साधारण और विशिष्ठ चरित्रों के नजदीक रह कर भी जितना नहीं जान पाते उस से अधिक हमें प्रेमचन्द का साहित्य उन के बारे में बताता है। उन की रचनाएँ केवल यह नहीं बताते कि लोग कैसे हैं और कैसा व्यवहार करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं और ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। चरित्रों की वर्गीय और सामाजिक परिस्थितियाँ उन के जीवन और व्यवहार को निर्धारित करती हैं। प्रेमचन्द इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं और वे आज भी अपने साहित्य के उपभोक्ता को अन्य रचनाओं से अधिक दे रही हैं। आज का सामान्य व्यक्ति जब राजनीति को देखता, परखता है तो उस की प्रतिक्रिया होती है कि राजनीति दुनिया की सब से बुरी चीज है। सामान्य व्यक्ति का यह निष्कर्ष गलत नहीं हो सकता क्यों कि वह उस के जीवन के वास्तविक अनुभव पर आधारित सच्चा निष्कर्ष है।  सामान्य व्यक्ति जानता है कि राजनीति से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह नहीं सोच पाता कि यदि राजनीति सब से बुरी है तो फिर उस का विकल्प क्या है? लेकिन प्रेमचंद अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' में उस का विकल्प सुझाते हैं "गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खातमा हो जाता है" हम समझ सकते हैं कि प्रेमचन्द यहाँ समाज से वर्गों की समाप्ति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि राजनीति का विकल्प ऐसी नीति हो सकती है जिस से अंतत समाज से राज्य ही समाप्त हो जाए। 

डॉ. प्रेम जैन ने कहा कि प्रेमचन्द गांधी जी और स्वतंत्रता आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित थे। लेकिन उन की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि वे स्वतंत्रता के रूप में सामन्ती और पूंजीवादी शोषण से मुक्त समाज चाहते थे। 
शून्य आकांक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का काल कृषक सभ्यता के ह्रास और औद्योगिक सभ्यता के उदय का काल था। उन्हों ने उस काल के सामाजिक यथार्थ और अन्तर्विरोधों को अत्यन्त स्पष्टता के साथ अपने साहित्य में उजागर किया। सर्वाधिक संप्रेषणीय भाषा का प्रयोग किया। जीवन का यथार्थ चित्रण किया जिस के कारण वे संपूर्ण भारत में सर्वग्राह्य बने। 

प्रो. हितेष व्यास ने कहा कि प्रेमचन्द कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज के साहित्य को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द ने साहित्य और भाषा के माध्यम से राजनीति की। उन्हों ने अपने राजनैतिक विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन की भाषा उन की राजनीति थी। उन की साहित्यिक यात्रा एक विकास यात्रा है उन्हों ने गांधीवाद से समाजवाद तक का सफर तय किया। 
मुख्य वक्ता अशोक कुमार पाण्डे ने कहा कि साहित्य, समाज और राजनीति तीनों नाभिनालबद्ध हैं। कोई चीज राजनीति से परे नहीं होती, निष्पक्षता का भी अपना पक्ष होता है, राजनीति विहीनता की भी अपनी राजनीति है जो सदैव यथास्थिति के पक्ष में जाती है। हम जब प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो देखें कि उन के पास क्या परम्परा थी? साहित्य के नाम पर ऐयारी का साहित्य था। भाषा के नाम पर उर्दू फारसी भाषा की परंपरा थी। उन्हें बुनियाद भी रखनी थी और मंजिलें भी खड़ी करनी थीं। हलकू पहली बार साहित्य में नायक बना तो का्य वह फारसी शब्दों से लबरेज उर्दू बोलता या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी हिन्दी बोलता? तब हलकू की बोलचाल की भाषा उन के साहित्य की भाषा बनी। उन के साहित्य के पात्र अपनी जैसी भाषा बोलते हैं। उन का पात्र यदि पण्डित है तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता है, मौलाना है तो अरबी फारसी के शब्द उस की बोली में आते हैं। जैसा पात्र है वैसी भाषा है। उन की आरंभिक कहानियों में 'मंत्र' जैसी कहानियाँ भी हैंऔर 'कफन' भी। उन का साहित्य संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उन के साहित्य में गांधी के आन्दोलन का प्रभाव आना स्वाभाविक था।उन के कुछ साहित्य में टाल्सटाय का प्रभाव है लेकिन वे इन सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते हैं और समाजवाद तक पहुँचकर कहते हैं कि मैं बोल्शेविक विचारों का कायल हो गया हूँ। 

उन्हों ने कहा कि यह सही है की प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है। लेकिन यह जितनी उनकी सफलता है, उससे कहीं अधिक हमारे समाज की असफलता भी है। प्रेमचन्द के बाद देश को साम्राज्यवदी शासन से मुक्ति मिली। हम ने अपनी सार्वभौम सरकार की स्थापना की, एक तथाकथित दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र स्थापित कर लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला। गाँवों में अभी भी वही शोषण बरकरार है, गाँव का किसान उतना ही मजबूर है और नगर में मजदूर भी उतना ही मजबूर है। बल्कि शोषण का दायरा बढ़ा है। अमीरों की संख्या और अमीरी बढ़ी है तो गरीबों की संख्या और गरीबी भी बढ़ गई है। इंसान की जिन्दगी और अधिक दूभर हुई है। जनतंत्र में वोट के जरिए परिवर्तन का विकल्प सामने रखा जाता है लेकिन वोट के जरिए जिसे हटा कर जो लाया जा सकता है उस में कोई अन्तर आज दिखाई नहीं देता।  ऐसे में मौजूदा राजनीति का विकल्प जरूरी हो गया है। एक विकल्पहीनता की स्थिति दिखाई देती है। लेकिन समाज में कभी विकल्पहीनता नहीं होती। विकल्प हमेशा होता है। आज के समय में भी विकल्प है। हमें साहित्य में मौजूदा राजनीति के उसी विकल्प को उजागर करना होगा। हमें उसी  विकल्प का साहित्य रचना होगा। 

हाड़ौती के गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ ने कहा। प्रेमचन्द को समझना अलग बात है। मैं गाँव का हूँ और गाँव में सभी को प्रत्यक्ष देखा है। लेकिन गाँव का यथार्थ तब समझा जब प्रेमचन्द को पढ़ा। उन्हों ने समाज के यथार्थ को समझाया कि राजनीति उन के दुखों का कारण है। कर दबे, कुचले लोगों को एक होने संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हमें उन की इसी साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

अम्बिकादत्त ने कहा कि प्रेमचन्द और उन की परम्परा को समझने के लिए हमें उन के साहित्य को फिर से पढ़ना चाहिए। उन्हों ने हिन्दी के साहित्य को चन्द्रकान्ता के तिलिस्म से आगे बढ़ाया और समाज के बीच ले गए।  डा. रामविलास शर्मा कहते हैं कि प्रेमचन्द कबीर के बाद सब से प्रखर व्यंगकार हैं। उन से सीखते हुए लेखकों को भद्रलोक के घेरे से बाहर निकल कर जीवन की यथार्थ छवियाँ अंकित करनी चाहिए। 
परिचर्चा के अध्यक्ष बशीर अहमद 'मयूख' ने कहा कि प्रेमचन्द सही अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। यह विवाद बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल होनी चाहिए या वह राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं हो सकती। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और वह राजनीति को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे को मार्ग दिखाते हैं। 

परिचर्चा का संचालन करते हुए उर्दू शायर शकूर अनवर ने कहा कि प्रेमचन्द हिन्दी के ही नहीं उर्दू के भी उतने ही महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। भाषा की सरलता के सम्बन्ध में जो कुछ वे हिन्दी में करते और कहते हैं उन्हों ने ही सब से पहले उर्दू में भी भाषा की सरलता के बिन्दु पर जोर दिया। 

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं

कोई पाँच बरस पहले ब्लागिरी शुरु हुई थी। पहले ब्लाग तीसरा खंबा आरंभ हुआ और लगभग एक माह बाद अनवरत। धीरे धीरे गति बढ़ी और हर तीन दिन में कम से कम दो पोस्टें लिखने लगा। लेकिन 2011 में आ कर गति कम हुई,  सप्ताह में तीन चार पोस्टें रह गईं। 2012 में केवल 53 पोस्टें हुई, औसत सप्ताह में केवल एक पर आ कर टिक गया। इस वर्ष तो जनवरी निकला जा रहा है लेकिन एक भी पोस्ट न हो सकी। कहा जा सकता है कि ब्लागिरी से मोह टूट रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। अखबार, पत्रिकाएँ और पुस्तकें जिस तरह लेखन और विचारों को प्रकाश में लाने के माध्यम है उसी तरह ब्लागिरी भी है। सब से अच्छा तो यह है कि यह एक स्वयं प्रकाशन माध्यम है। जिस पर आप केवल खुद ही नियंत्रण रखते हैं। 
ब्लागिरी की गति कम होने के अनेक कारण रहे हैं। जिन में कुछ तो मेरे अपने स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं। दिसंबर 2011 में हर्पीज जोस्टर का शिकार होने के बाद, दाँतों ने कष्ट दिया और उस के तुरंत बाद ऑस्टिओ आर्थराइटिस ने जकड़ा जिस के कारण एक पैर में लिगामेंट का स्ट्रेन भुगतना पड़ा। ऑस्टियो आर्थराइटिस नियंत्रण में है पर उस ने दोनों घुटनों के कार्टिलेज को जो क्षति पहुँचाई है उस की भरपाई में समय लगेगा। जब किसी व्यक्ति के चलने फिरने में बाधा आती है तो उस की सभी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। आय के साधन जो व्यक्ति और परिवार को चलाने के लिए महत्वपूर्ण हैं उन्हें नियमित रूप से चलाए रखना आवश्यक होता है।  उन कामों को करने के उपरान्त समय इतना कम शेष रहता है कि अन्यान्य गतिविधियों मंद हो जाती हैं। यही मेरे साथ भी हुआ।
र्ष 2011 के अंत में तीसरा खंबा ब्लाग को एक स्वतंत्र वेबसाइट में परिवर्तित किया गया था। यह साइट कानूनी विषयों पर है और जोर इस बात पर है कि कानूनी मामलों पर पाठकों का विधिक शिक्षण हो तथा अधिक से अधिक मामलों पर आम पाठक की सहायता की जा सके। तीसरा खंबा अनेक बाधाओं के बावजूद लगभग निरंतर है। वर्ष 2012 में उस पर 330 पोस्टें लिखी गईं। यदि सप्ताह का एक दिन अवकाश का समझ लें तो औसतन प्रतिदिन एक पोस्ट से अधिक इस साइट पर लिखी गई है। अधिकांश पोस्टों में पाठकों को उन की कानूनी समस्याओं के हल सुझाए गए हैं। एक समस्या का हल सुझाने और उसे वेबसाइट पर लाने में कम से कम एक से दो घंटे तो लगते ही हैं।  मैं समझता हूँ कि एक व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन के लिए इतना समय व्यतीत करना पर्याप्त है।
तीसरा खंबा का एक खास उद्देश्य है। लेकिन अनवरत ब्लाग अपने विचारों व लेखन को और अपनी मनपसंद रचनाओं को सामने लाने का माध्यम बना। उसी से हिन्दी के ब्लाग जगत में मेरी पहचान बनाई।  पाँच वर्ष की ब्लागिरी की ओर पीछे मुड़ कर झाँकता हूँ तब महसूस होता है कि बिना किसी योजना के बहुत कुछ कर डाला गया।  लेकिन जो कुछ किया गया उसे कुछ योजना बद्ध रीति से और तरतीब से भी किया जा सकता था। पिछले दो माह इसी विचार में निकले कि वहाँ क्या किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह समय भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। जब समाज पूरी तरह से बदलाव चाहता है। लेकिन प्रश्न यही हैं कि समाज में किस तरह का बदलाव कैसे संभव है।  समाज कोई एक  व्यक्ति या समूहों की इच्छा से नहीं बदलता। समाज की भौतिक आर्थिक परिस्थितियाँ उसे बदलती हैं।  वे ही नए शक्ति समूह खड़े करती हैं जो समाज को बदलते हैं। निश्चित रूप से यह अध्ययन का विषय है।  इस समय में मुझे क्या करना चाहिए? अनवरत ब्लाग का उपयोग किस तरह करना चाहिए? यही सोच रहा हूँ।  पर सोच की इस प्रक्रिया के बीच अनवरत का यह ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है। अनवरत को अनवरत रहना चाहिए। इस लिए यह तय किया है कि सप्ताह में कम से कम एक बार पोस्ट अवश्य लिखी जाए और इस की गति को बढ़ा कर सप्ताह में 3-4 पर लाया जाए।
 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

राज्य, उत्पीड़ित वर्ग के दमन का औजार : बेहतर जीवन की ओर -16

स श्रंखला की छठी कड़ी में ही हम ने यह देखा था कि मानव गोत्र समाज वर्गों की उत्पत्ति के उपरान्त वर्गों के बीच ऐसे संघर्ष को रोकने के लिए एक नई चीज सामने आती है। यह नई चीज आती समाज के भीतर से ही है लेकिन वह समाज के ऊपर स्थापित हो जाती है और स्वयं को समाज से अलग चीज प्रदर्शित करती है। यह नई चीज राज्य था। राज्य की उत्पत्ति इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि समाज ऐसे अन्तर्विरोधों में फँस गया है जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, जिन का समाधान असंभव है। विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों व्यर्थ के संघर्ष में पूरे समाज को नष्ट न कर डालें इस लिए इस संघर्ष को व्यवस्था की सीमा में रखे जाने का कार्यभार यह राज्य उठाता है, यही राज्य की ऐतिहासिक भूमिका है। इस तरह हम देखते हैं कि राज्य असाध्य वर्गविरोधों की उपज और अभिव्यक्ति है। राज्य उसी स्थान, समय और सीमा तक उत्पन्न होता है जहाँ, जिस समय, जिस सीमा तक वर्गविरोधों का  समाधान असम्भव हो जाता है। 

हाँ यह भ्रम उत्पन्न किए जाने की पूरी संभावना है कि यह कहना आरंभ कर दिया जाए कि वस्तुतः राज्य वर्गीय समन्वय के लिए एक औजार है। इस संभावना का इतिहास में अनेक राजनीतिकों ने भरपूर उपयोग किया और लगातार किया भी जा रहा है। लेकिन यह केवल भ्रम मात्र ही है कि राज्य वर्गीय समन्वय का औजार है। यदि उसे औजार मान भी लिया जाए तो यह बिलकुल इस्पात की उस आरी की तरह है जिस से हीरे को तराशने का काम लिया जा रहा हो। अव्वल बात तो यह है कि वर्गीय समन्वय बिलकुल असंभव है, यदि यह संभव होता तो राज्य के उत्पन्न होने और कायम रहने की आवश्यकता ही नहीं थी। वस्तुतः राज्य वर्ग प्रभुत्व का औजार है और एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पी़ड़न का अस्त्र है।  वह ऐसी व्यवस्था का सृजन है जो वर्गीय टकरावों को मंद कर के इस उत्पीड़न को कानूनी रूप प्रदान कर मजबूत बनाती है। कानूनी उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए उसे सशस्त्र संगठनों की आवश्यकता होती है। 

गोत्र समाज में आबादी के स्वतः कार्यकारी सशस्त्र संगठन बनते थे। ये संगठन बाहरी लोगों से झगड़ों को सुलझाने के अंतिम उपकरण के रूप में उत्पन्न हो कर कार्य संपादन करते थे और जैसे ही कार्य संपादित हो चुका होता था .ये संगठन आम लोगों में परिवर्तित हो जाते थे। लेकिन जैसे ही वर्ग उत्पन्न हो गए इस तरह के स्वतः कार्यकारी संगठन असंभव हो गए। वैसी स्थिति में एक सार्वजनिक सत्ता की स्थापनी की गई जिस में न केवल सशस्त्र दल ही नहीं, जेलखाने, पुलिस, विभिन्न प्रकार की दमनकारी संस्थाएँ और भौतिक साधन भी सम्मिलित किए गए जिन का गोत्र समाज में कोई स्थान नहीं था। स्थाई फौज और पुलिस राज्य सत्ता के मुख्य उपकरण हो गए। 

लेकिन अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी का सशस्त्र संगठन क्या संभव रह गया था? समाज के वर्गों में बँट जाने से जिस सभ्य समाज की स्थापना हुई थी वह शत्रुतापूर्ण बल्कि असाध्य रूप से शत्रुतापूर्ण वर्गों में बँटा हुआ था जिस में अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी की हथियार बंदी से वर्गों के बीच सशस्त्र संघर्ष छिड़ जाता। इसी चीज को रोकने के लिए तो समाज के भीतर से राज्य की उत्पत्ति हुई थी। इस कारण राज्य को ऐसा संगठन चाहिए था जो अपनी पहल पर काम करने के स्थान पर उस के इशारे पर काम करे। लेकिन बावजूद इस के कि राज्य के पास फौज, पुलिस, जेलें और अन्यान्य दमनकारी संस्थाएँ थी, वह कभी भी वर्ग समन्वय में कामयाब नहीं हो सका। समय समय पर समाज में क्रांतियाँ हुईं जिन्हों ने समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के इशारे पर काम करने वाले राज्य के उस ढाँचे को तोड़ डाला। लेकिन जो भी नया वर्ग प्रभुत्व में आया उसी ने फिर से अपनी सेवा करने वाले हथियारबंद लोगों के संगठनों को फिर से कायम करने के प्रयत्न किए और उन्हें कायम किया। केवल यह अकेली बात ही यह साबित करती है कि राज्य वस्तुतः उत्पीड़क वर्ग/वर्गों का उत्पी़ड़ित वर्गों पर प्रभुत्व बनाए रखने का औजार मात्र है। 

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

राज्य पूर्व के समाज : बेहतर जीवन की ओर-8

स श्रंखला के पिछले आलेख में मैं ने कहा था कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया ... और कि राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। लेकिन इस के विपरीत धारणाएँ रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे कहते हैं- बिना किसी राज्य के जीवन कैसे संभव है? राज्य न होगा तो मनुष्य आपस में लड़-खप कर खुद ही नष्ट हो जाएगा। पर जब राज्य न था तब भी मनुष्य समाप्त नहीं हुआ। हमारी समस्या यह है कि हम ने उन समाजों के बारे में लगभग कुछ नहीं जाना जिन में राज्य नहीं था।

ब भी हम भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं तो  हमारा श्रीगणेश सैंधव सभ्यता के नगरों से होता है जिन का अस्तित्व बिना किसी राज्य व्यवस्था के संभव नहीं था। लेकिन ये नगर तो यकायक इतिहास के पृष्ठों से गायब हो गए और एक लंबा काल ऐसा निकल गया, जिन के बारे में हमें निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं पता। फिर हमारी भेंट इस बीच के काल में रचे हुए वैदिक श्रुति ग्रंथों से होती है जिन में हमें जन की उपस्थिति मिलती है।  उस के बाद हम यकायक बुद्ध और महावीर के काल में आ जाते हैं। इस काल में हमें कुछ राज्य भी मिलते हैं और कुछ गण भी।  ये जन और गण  क्या थे? ये निश्चित रूप से एक निश्चित भूभाग पर निवास करते मानव समाज थे जिन के पास राज्य नहीं था। लेकिन ऐसी व्यवस्था थी जिस में वे मनुष्य जीवन को व्यवस्थित रख सकते थे।

ग्वेदिक काल के जन के बारे में हमें ऋग्वेद से सांकेतिक जानकारी मिलती है। यह समाज की सर्वोच्च इकाई होती थी। ऋग्वेद में जन शब्द का प्रयोग 275 बार हुआ है। समाज कुल, ग्राम, विश् तथा जन में संगठित था। कुल सब से छोटी इकाई होते थे। कुलों से ग्राम निर्मित होते थे। ग्राम स्वशासी और आत्मनिर्भर होते थे। यह संगठन निश्चित रूप से गोत्रीय संगठन थे। इन की व्यवस्था किस प्रकार की रही होगी उस के कुछ स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलते। लेकिन वहाँ राज्य जैसी व्यवस्था का अभाव दिखाई देता है। क्यों कि कोई स्थाई सशस्त्र इकाई वहाँ नहीं है। अर्थव्यवस्था निर्वाह अर्थव्यवस्था थी जिस में अधिशेष के बचे रहने लायक गुंजाइश नहीं थी। अधिशेष के अभाव में राज्य की आवश्यकता ही नहीं थी। बाद के काल के गणों के मुखिया का पद भी आनुवंशिक नहीं था। उसे कोई अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। सभी निर्णय समाज के सामने परिषदें किया करती थीं। जिस में हर व्यक्ति को अपना मत रखने का अधिकार होता था। सब की राय को ध्यान में रख कर ही परिषदें निर्णय किया करती थीं। हमें भारत में राज्यों की स्थापना के पूर्व की समाज व्यवस्था के बारे में संकेत तो अवश्य मिलते हैं लेकिन उन से संपूर्ण रूपरेखा स्पष्ट नहीं होती।

विश्व की कुछ ऐसी व्यवस्थाओं का अध्ययन भिन्न-भिन्न लोगों ने किया है जो गोत्रों पर आधारित थीं। उन में अमेरिका की इरोक्वाई समुदाय का नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन द्वारा किया गया अध्ययन महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन भारतीय स्थितियों को समझने के लिए भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम भारत के जातीय समाजों में उसी की भांति की गोत्र व्यवस्था पाते हैं। आज भी अनेक मामलों में हमारे भारतीय राज्य को इस गोत्र व्यवस्था से जूझना पड़ रहा है।

गुरुवार, 23 जून 2011

कैसी होगी, नई आजादी?

पिछली पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आशा के अनुरूप सकारात्मक रहीं। एक तथ्य बहुमत से सामने आया कि इस तरह की यह अकेली नहीं है और समाज में ऐसा बहुत देखने में आ रहा है। जिस से हम इस परिणाम पर पहुँच सकते हैं कि यह गड़बड़ केवल किसी व्यक्ति-विशेष के चरित्र की नहीं, अपितु सामाजिक है। समाज में कोई कमी पैदा हुई है, कोई रोग लगा है, सामाजिक तंत्र का कोई भाग ठीक से काम नहीं कर रहा है या फिर बेकार हो गया है। यह भी हो सकता है कि समाज को कोई असाध्य रोग हुआ हो। निश्चित रूप से इस बात की सामाजिक रूप से पड़ताल होनी चाहिए। ग़ालिब का ये शैर मौजूँ है ...

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है


... तो दर्द की दवा तो खोजनी ही होगी। पर दवा मिलेगी तब जब पहले यह पता लगे कि बीमारी क्या है? उस की जड़ कहाँ है? और जड़ को दुरुस्त किया जा सकता है, या नहीं? यदि नहीं किया जा सकता है तो ट्रांसप्लांट कैसे किया जा सकता है?

लिए वापस उसी खबर पर चलते हैं, जहाँ से पिछला आलेख आरंभ हुआ था। श्रीमती प्रेमलता, जी हाँ, यही नाम था उस बदनसीब महिला का जिसे उस की ही संतान ने कैद की सज़ा बख़्शी थी। तो प्रेमलता की बेटी सीमा और दामाद जो ब्यावर में निवास करते हैं खबर सुन कर मंगलवार कोटा पहुँचे और प्रेमलता को संभाला। बेटी सीमा ने घर व मां के हालात देखे तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। वह देर तक मां से लिपटकर रोती रही। कुछ देर तक तो प्रेमलता  को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन, इसके बाद वह भी रो पड़ी। उसने बेटी को सारे हालात बताए। मां-बेटी के इस हाल पर पड़ौसी भी खुद के आंसू नहीं रोक सके। बाद में पड़ोसियों ने उनको ढांढस बंधाया और चाय-नाश्ता कराया। चित्र इस बात का गवाह है, (यह हो सकता है कि खबरी छायाकार ने इस पोज को बनाने का सुझाव दिया हो, जिस से वह इमोशनल लगे) ख़ैर, प्रेमलता को किसी रिश्तेदार ने संभाला तो। बुधवार को बेटी और दामाद प्रेमलता को ले कर अदालत पहुँचे, एक वकील के मार्फत उन्हों ने घरेलू हिंसा की सुनवाई करने वाली अदालत में बेटे-बहू के विरुद्ध प्रेमलता की अर्जी पेश करवाई। इस अर्जी में कहा गया है  ...

1. सम्भवत: बेटे-बहू ने मकान की फर्जी वसीयत बना ली है तो उसे उसका हिस्सा दिलाया जाए;
2. लॉकर में जेवर रखे हैं, लॉकर की चाबी दिलाई जाए;
3. खाली चेकों पर हस्ताक्षर करवा रखें हो तो उन्हें निरस्त समझा जाए; और
4. पेंशन लेने में बेटा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करे।

  
दालत ने अगले सोमवार तक के लिए प्रेमलता को बेटी-दामाद के सुपूर्द कर दिया। बेटे के नाम नोटिस जारी किया गया कि वह भी सोमवार को अदालत में आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करे। मकान को बंद कर पुलिस ने चाबी बेटे के एक रिश्तेदार के सुपुर्द कर दी। शाम को प्रेमलता अपनी बेटी-दामाद के साथ ब्यावर चली गईं। बेटे-बहू का पता लगा है कि वे शिरड़ी में साईं के दर्शन कर रहे थे और अब खबर मिलने पर घर के लिए रवाना हो चुके हैं। अखबारों के लिए प्रेमलता सुर्ख ख़बर थी। तीन दिनों तक अखबार उन्हें फोटो समेत छापते रहे। आज के अखबार में उन का कोई उल्लेख नहीं है। अब जब जब मुकदमे की पेशी होगी और कोई ख़बर निकल कर आएगी तो वे फिर छपेंगी। अखबारों को नई सुर्खियाँ मिल गई हैं। मुद्दआ तक अख़बार से गायब है। ऐसी ही कोई घटना फिर किसी प्रेमलता के साथ होगी तो वह भी सुर्ख खबर हो कर अखबारों के ज़रीए सामने आ जाएगी। 

प्रेमलता के पति बैंक मैनेजर थे, उन का देहान्त हो चुका है, लेकिन प्रेमलता को पेंशन मिलती है जो शायद बैंक में उन के खाते में जमा होती हो और जिसे उन का पुत्र उन के चैक हस्ताक्षर करवा कर बैंक से ले कर आता हो। इसलिए खाली चैकों का विवाद सामने आ गया है। पति मकान छोड़ गये हैं, हो सकता है उन्हों ने बेटे के नाम सिर्फ इसलिए वसीयत कर दी हो कि बेटी अपना हक न मांगने लगे। अब बेटी-दामाद के आने पर वह वसीयत संदेह के घेरे में आ गई है और माँ ने तो अपना हक मांग ही लिया है, जो बँटवारे के मुकदमे के बिना संभव नहीं है, वह हुआ तो बेटी भी उस में पक्षकार होगी। प्रेमलता जी के जेवर लॉकर में हैं, जिस की चाबी बेटे के पास है उसे मांगा गया है। पेंशन प्राप्त करने में बेटा बाधा है यह बात भी पता लग रही है। कुल मिला कर प्रेमलता के पास संपत्ति की कमी नहीं है। उस के बावजूद भी उन की हालत यह है। मेरा तो अभिमत यह है कि इस संपत्ति के कारण ही बेटा-बहू प्रेमलता जी पर काबिज हैं और शायद यही वह वज़ह भी जिस के कारण वे उन्हें किसी के साथ छोड़ कर जाने के ताला बंद मकान में छोड़ गए। लेकिन इस एक घटना ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

हते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध  बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?

चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -

हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है

बुधवार, 22 जून 2011

मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है

ज मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है। हो भी क्यों न? मेरे ही नगर के एक ऐसे मुहल्ले से जिस में आज से तीस वर्ष पूर्व मुझे भी दो वर्ष रहना पड़ा था, समाचार मिला है कि एक बेटे-बहू मुम्बई गए और पीछे अपनी 65 वर्षीय माँ को अपने मकान में बन्द कर ताला लगा गए। तीन दिन बाद ताला लगे मकान के अन्दर से आवाजें आई और मोहल्ले वालों की कोशिश पर पता लगा कि महिला अंदर बंद है तो उन्होंने महिला से बात करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस पर महिला एवं बाल विकास विभाग, पुलिस और एकल नारी संगठन को सूचना दी गई। पुलिस ने दिन में महिला एवं बाल विकास विभाग की टीम के साथ पहुँच कर महिला से रोशनदान से बात करने का प्रयास किया, लेकिन वह घर से बाहर आने को राजी नहीं हुई। इस पर पुलिस लौट गई। तब कुछ लोगों ने जिला कलेक्टर को शिकायत की इस पर देर रात उन के निर्देश पर पुलिस ने घर का ताला तोड़ा गया। पुलिस ने उस से पूछताछ की, लेकिन वह घर पर ही रहना चाह रही थी। पुलिस यह जानने का प्रयास करती रही कि आखिर मामला क्या है? पुलिस ने उससे बेटे-बहू के खिलाफ शिकायत देने को भी कहा, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। पड़ोसियों ने बताया कि महिला को बेटे-बहू प्रताड़ित करते हैं और इसी कारण वह सहमी हुई है और शिकायत नहीं कर रही है।
 
पुलिस व लोगों को देखकर वृद्धा की रुलाई फूट पड़ी। उसने बताया कि बेटे-बहू पांच दिन के लिए बाहर गए हैं और पांच दिन का खाना एक साथ बनाकर गए हैं। तीन दिनों में खाना पूरी तरह सूख चुका था और खाने लायक नहीं रहा था। दही भी था जो गर्मी के इस मौसम में बुरी तरह बदबू मार रहा था। पुलिस से शिकायत करने पर रुंधे गले से सिर्फ यही निकल रहा था, मैं अपनी मर्जी से रह रही हूँ। मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है। कलेक्टर ने बताया कि सूचना मिलते ही उन्होंने महिला एवं बाल विकास विभाग तथा पुलिस को इसकी जानकारी दी। महिला अपने बेटे-बहू के बारे में कुछ नहीं बोल रही। यदि वह किसी प्रकार की शिकायत देती है तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। इस महिला के पति की चार वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है जो एक बैंक में मैनेजर थे। महिला के एक पुत्री भी है लेकिन वह अपनी माँ से मिलने यहाँ आती नहीं है। एक ओर संतानें इस तरह का अपराध अपने बुजुर्गों के साथ कर रहे हैं। दूसरी ओर एक माँ है जो अपनी दुर्दशा पर आँसू बहा रही है लेकिन अपनी संतानों के विरुद्ध शिकायत तक नहीं करना चाहती। यहाँ तक कि उस मकान से हटना भी नहीं चाहती। उसे पता है कि उस के इस खोटे सिक्के के अलावा उस का दुनिया में कोई नहीं। उन के विरुद्ध शिकायत कर के वह उन से शत्रुता कैसे मोल ले?
 
स घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज में वृद्धों की स्थिति क्या है? सब से बुरी बात तो यह है कि कलेक्टर यह कह रहा है कि यदि महिला ने शिकायत की तो कार्यवाही होगी। जब सारी घटना सामने है। एक महिला के साथ उस के ही बेटे-बहु ने निर्दयता पूर्वक क्रूर व्यवहार किया है और वह घरेलू हिंसा का शिकार हुई है। जिस के प्रत्यक्ष सबूत सब के सामने हैं, इस पर भी पुलिस और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह महिला शिकायत देगी तब वे कार्यवाही करेंगे। इस से स्पष्ट है कि हमारी सरकार, पुलिस और प्रशासन जो उस के अंग हैं। इस हिंसा और अपराध को एक व्यक्ति के प्रति अपराध मान कर चलते हैं और बिना शिकायत किए अपराधियों के प्रति कार्यवाही नहीं करना चाहते। जब कि यह भा.दंड संहिता की धारा 340 में परिभाषित सदोष परिरोध का अपराध है। तीन दिनों या उस से अधिक के सदोष परिरोध के लिए दो वर्ष तक की कैद का दंड दिया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार यह संज्ञेय अपराध है जिस में पुलिस बिना शिकायत के कार्यवाही कर सकती है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत यह उपबंध है कि हिंसा की ऐसी घटना पाए जाने पर संरक्षा अधिकारी इस तरह का आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर महिला को राहत दिला सकता है। लेकिन इन बातों की ओर न पुलिस का और न ही प्रशासन का ध्यान है। इस से पुलिस व प्रशासन की संवेदनहीनता अनुमान की जा सकती है। 

ब से बड़ी बात तो यह है कि बच्चों, बुजुर्गों और असहाय संबंधियों के प्रति इस तरह का अमानवीय और क्रूरतापूर्ण व्यवहार को अभी तक दंडनीय, संज्ञेय और अजमानतीय अपराध नहीं बनाया गया है। जिस से लोग इस तरह का व्यवहार करने से बचें और करें तो सजा भुगतें। इस तरह के उपेक्षित और असहाय लोगों के लिए सरकार और समाज द्वारा कोई वैकल्पिक साधन भी नहीं उपलब्ध कराए गए हैं कि वे अपने संबंधियों की क्रूरतापूर्ण व्यवहार की शिकायत करने पर उन से पृथक रह सकें। आखिर हमारा समाज कहाँ जा रहा है? क्या समाज को इस दिशा में जाने से रोकने के समुचित प्रयास किए जा रहे हैं और क्या हमारी सरकारें और राजनेता वास्तव में इन समस्याओं पर गंभीरता से सोचते भी हैं?

सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।