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शुक्रवार, 13 मार्च 2020

नई पैकिंग


मान मेराज के घराने का नित्य का आहार था, जिसे वह मंडी में एक खास दुकान से लाता था। कभी वह मंडी की सब से बड़ी दुकान हुआ करती थी। उसका बाप भी उसी दुकान से लाता था। ऐसा नहीं कि मान केवल उसी दुकान पर मिलता हो। मंडी में और भी दुकानें थीं। उसकी बुआएँ दूसरी जगह से मान लेती थीं। बाप मर गया फिर भी वह उसी दुकान से सामान लेता रहा। दूसरी दुकानों वाले कम दाम पर मान देने की पेशकश कर के उसे बार बार आकर्षित करने की कोशिश करते थे। फिर अचानक उसकी वाली दुकान के ग्राहक कम होने लगे। उसने देखा कि मंडी में प्रतिद्वंदी दुकान वाले ने अपना सारा सैट-अप चेन्ज कर दिया है। दुकान का पूरी तरह आधुनिकीकरण कर दिया। यहाँ तक कि केवल फोन या एप पर आर्डर मिलते ही मान घर पहुंचने लगा। मेराज ने भी एप ट्राइ किया। उसे लगा कि पड़ोसी दुकानदार की दुकान पर भी कीमतें कमोबेश वही हैं जो वह अपनी स्थायी दूकान पर चुकाता है। पर उसके प्रतिद्वंदी की दुकान नवीकरण के बाद से चमकती है, पैकिंग चमकती है, दुकानदार भी खूब चमकता है।
कभी-कभी उसे लगता कि उसकी पुरानी दुकान को जितना दाम वह चुकाता है उस के मुकाबले उसे कम और दूसरों को अधिक मान दिया जा रहा है। कभी कभी उसकी बुआएँ भी कहती थीं अब वह दुकान छोड़ तू भी हमारी वाली दुकान पर आ जा। पर खून के रिश्तों पर व्यवसायिक रिश्ते भारी पड़ते ही हैं। वह मुस्कुरा कर बुआओं को जवाब दे देता कि उस दुकान से उसका रिश्ता बाप के वक्त से है, कैसे छोड़ दे? दुनिया बातें जो बनाएगी, लोग फजीहत करेंगे वगैरा वगैरा। लेकिन वह लगातार यह परखता रहता कि कहीं वह ठगा तो नहीं जा रहा है? जाँच करने पर पता लगता कि दाम में भी और मान में भी दोनों ही तरफ कोई खास फर्क नहीं है। वह पुरानी दुकान पर ही बना रहा।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: पक्षी
चित्र : सुरेन्द्र वर्मा से साभार
फिर एक दिन प्रतिद्वंदी दुकानदार ने पासा फैंका। अपने यहाँ उसे भोजन पर न्यौता। उस ने सोचा इतने मान से वह न्यौता दे रहा है तो जाने में क्या बुराई है। वह चला गया। उसे खूब मान मिला। यह आश्वासन भी मिला कि यदि वह उस की दुकान पर आ जाए तो निश्चित रूप से उसे विशिष्ट ग्राहक का मान मिलेगा। पुराना दुकानदार उस का मान तो करता है, लेकिन विशिष्ट नहीं। वह दूसरों का भी उतना ही मान करता है। वह वापस लौट कर पुराने दुकानदार के पास पहुँचा उस ने अपनी मांग रख दी कि उसे दूसरे ग्राहकों से अधिक मान मिलना चाहिए और मान भी कुछ डिस्काउंट के साथ मिलना चाहिए। दुकानदार ने उसे कहा कि हमने आप के मान में कभी कमी नहीं रखी। हम अपने स्थायी ग्राहकों को बराबर मान देते हैं। अब दूसरों से अधिक आपको देंगे तो दूसरों को लगेगा कि उनका अपमान कर रहे हैं। रहा सवाल डिस्काउंट का तो जिन जिन्सों में डिस्काउंट सम्भव है उनमें दिया ही जा रहा है, वे सभी ग्राहकों को देते हैं। उनको भी दे रहे हैं। यदि संभव होगा तो कुछ डिस्काउंट बढ़ा देंगे लेकिन देंगे सभी ग्राहकों को, वे ग्राहक-ग्राहक में भेद नहीं कर सकते।
बस फिर क्या था। मेराज की फौरन सटक गई। उसने कह दिया कि उसे प्रतिद्वंदी दुकानदार वह सब देने को तैयार है जो उस की मांग है। इसलिए वह सोचेगा कि वह इस दुकान से मान खऱीदना बंद कर प्रतिद्वंदी की दुकान से क्यों न खऱीदने लगे। उधर जिस दिन से वह न्यौते पर हो कर आया था उसी दिन बाजार में कानों-कान खबर उड़ गयी थी कि मेराज भी अब पुरानी वाली दुकान छोड़ नयी दुकान से मान लेने की सोच रहा है। मेराज शहर के बड़े आसामियों में से था तो खबर को खबरची ले उड़े। अखबारों में भी बात छप गयी। पुरानी दुकान के ग्राहक सतर्क हो गए। वे एक-एक कर दुकानदार के पास पहुँचकर बोलने लगे। मेराज को सुविधाएँ देने में उनको कोई आपत्ति नहीं है पर उन्हें भी वैसी ही सुविधाएँ चाहिए। पुराना दुकानदार सब को सहता रहा और कहता रहा। वह ऐसा नहीं कर सकता। वह सब ग्राहकों को समान समझता है और समान ही व्यवहार करेगा। इस के सिवा वह और कहता भी क्या? उसे पता था, प्रतिद्वंदी दुकानदार ने उस के व्यवसाय को खासा चोट पहुंचाई है। बाजार में नम्बर एक का स्थान तो उस से कभी का छिन चुका है। अभी भी वह नम्बर दो बना हुआ है तो इन्हीं पुराने ग्राहकों की बदौलत। उस के नए ग्राहक भी इन पुराने ग्राहकों की बदौलत ही आते हैं। वह इन ग्राहकों को कतई चोट नहीं पहुँचा सकता। उस ने मेराज को अलग से कोई सुविधा दी तो उसकी बची-खुची दुकानदारी को बत्ती लग जाएगी। वह चुप्पी खींच कर बैठ गया।
जल्दी ही मेराज पुरानी दुकान पहुँचा और उसका हिसाब-किताब कर आया। बाजार तो बाजार ठहरा। वहाँ चर्चाएँ चलीं। मेराज अब खुद की अपनी दुकान खोल लेगा। कुछ ने कहा उसे दुकानदारी करनी होती तो पहले ही कर लेता। उसका धंधा दूसरा है वह इस धंधे में क्यों पड़ेगा, वह जरूर नई दुकान पकड़ेगा। दो दिन तक ये सारी गपशप बाजारों, अखबारों, चैनलों के साथ साथ फेसबुक और व्हाट्सएप गलियारों में भी खूब चलीं। तीसरे दिन दोपहर को अचानक मेराज अपने घर से निकला और सीधे नई दुकान पर पहुंच गया। दुकान पर न नया दुकानदार था और न ही उसका मुनीम। बस कारिन्दे थे। लेकिन कारिन्दों ने उस का खूब जोर शोर से स्वागत किया। ये सब चैनलों ने लाइव दिखाया।
मेराज का दुकान बदलने का उत्साह ठंडा पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब वह दुकान पर पहुँचा तब दुकानदार को नहीं तो उस के मुनीम को तो वहाँ होना ही चाहिए था। दोनों नहीं थे, और यह सब चैनलों ने लाइव दिखा दिया। यह तो उस की भद्द हो गयी, डैमेज हो गया। नयी शुरुआत और वह भी डैमेज से। वह दुखी हुआ। उसने तुरन्त नए दुकानदार को काल लगवाई। पता लगा नए दुकानदार के सभी फोन एंगेज आ रहे हैं। मेराज के कारिन्दों ने मुनीम के फोन खंगाले तो उन पर घंटी जाती रही, किसी ने उठाया ही नहीं। थक हार कर कारिन्दे बैठ गए। सोचा कुछ देर बार फिर ट्राई करेंगे। कोई बीस मिनट ही बीते होंगे कि फोन आ गया। नई दुकान के मुनीम का था। फोन तुरन्त मेराज को पकड़ाया गया। मुनीम बोला- वो बाथरूम में था और किसी कारिन्दे को आप का फोन उठाने की हिम्मत न हुई। उसे मेराज के दुकान पर आने की खबर बहुत देर से हुई वर्ना दुकानदार और वह खुद दुकान पर ही उस का स्वागत करते। वे दोनों जहाँ थे वहाँ से दुकान पर तुरन्त पहुँचना मुमकिन नहीं था। अब वह खुद और दुकानदार फ्री हैं। वे चाहेँ तो मिलने आ सकते हैं।
मुनीम के फोन से मेराज की साँस में साँस आई। वह शाम को दोनों से मिलने गया। ध्यान रखा कि जब वह मिले वहाँ चैनल वाले जरूर हों। कुछ ही देर में चैनलों पर दुकानदार और मुनीम से मेराज की मुलाकात के वीडियो आ गए। कुछ हद तक डेमेज कंट्रोल हो चुका था। रात को मेराज ने अपने कारिन्दे को बुलाया और पूछा- नई दुकान से जो मान आया था उसके बिल चैक किए? मान चैक किया? कारिन्दे ने जवाब दिया- मान में तो कोई खास फर्क नहीं है, कुछ बीस है तो कुछ उन्नीस है। मान की कीमत कम लगाई है, पर पैकिंग अलग से चार्ज की है उसे मिला दें तो पुराने दुकानदार के मान से दाम कुछ अधिक ही लगे हैं। पर ये जरूर है कि मान जूट के बोरों की जगह खूबसूरत रंगे-पुते गत्तों  में आया है। ड्राइंगरूम में भी कुछ घंटे रखा रह जाए तो बुरा नहीं लगता।
मेराज सोच रहा था कि यह तो दो चार महीने के बाद पता लगेगा कि मान कैसा है और दाम कितने। दुकानदार और मुनीम दोनों मिल लिए हैं। चैनलों में वीडियो आ गए हैं। अभी तो मान की भर्ती पूरी हो गयी है। सुबह का डैमेज कंट्रोल कर लिया है। आगे की आगे देखेंगे।

शनिवार, 3 अगस्त 2013

राजनीति के विकल्प का साहित्य रचना होगा।

  -अशोक कुमार पाण्डे

"प्रेमचन्द जयन्ती पर साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द पर परिचर्चा" 

 

'विकल्प' जन-सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा  प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर आयोजित परिचर्चा रविवार 28 जुलाई को दोपहर बाद प्रेसक्लब भवन में आयोजित की गई थी। प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजित समारोह सदैव ही बरसात से व्यवधानग्रस्त  हो जाते हैं।  इस परिचर्चा के दिन भी दिन भर बरसात होती रही। लेकिन बरसात के बावजूद भी परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओँ और श्रोताओं की संख्या अच्छी  खासी थी। उस दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि मुख्य अतिथि अशोक पाण्डे जी के वापस लौटने की ट्रेन निरस्त हो गई और उन्हें स्टेशन से वापस लौटना पड़ा। सुबह बस से ही उन की वापसी संभव हो सकी।  



इस परिचर्चा का विषय 'साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द' था। अतिथियों को स्वागत के बाद परिचर्चा का आरंभ करते हुए विकल्प के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य रचनाकारों-कलाकारों के बीच संवाद करते हुए शिक्षण और रचनाशीलता के लिए नई ऊर्जा का संचार करना तथा विचारहीनता के विरुद्ध मुहिम चलाते हुए समाज के अन्तर्विरोधों की समझदारी विकसित करना है। मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य और कला का एक मात्र स्रोत है। फिर भी साहित्य और कला में जीवन का प्रतिबिम्बित होना ही पर्याप्त नहीं है उसे वास्तविक जीवन से अधिक तीव्र, अधिक केंद्रित, विशिष्ठतापूर्ण, आदर्श के अधिक निकट और सांन्द्र होना चाहिए जिस से वह  पाठक और कला के भोक्ता को अधिक तीव्रता  के साथ प्रभावित कर सके। साहित्य और कलाएँ राजनीति से अछूते नहीं होते अपितु वे राजनीति के अधीन होते हैं, लेकिन वे राजनीति को प्रभावित भी करते हैं। वे जनता को जाग्रत करते हैं, उत्साह से भर देते हैं और वातावरण  को रूपान्तरित करने के लिए एकताबद्ध होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं।  कला और साहित्य को समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।   खुद प्रेमचन्द अक्सर कहते थे कि "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ।" वे कहते थे " साहित्य जीवन की आलोचना है।" "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिस में उच्च चिन्त हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे-सुलाए नहीं, क्यों कि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।" अपनी अर्धांगिनी शिवरानी देवी से उन्हों ने कहा कि "साहित्य, समाज और राजनीति तीनों एक ही माला के तीन अंग हैं, जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उस का समाज भी अच्छा होगा, समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। हमें आज की इस परिचर्चा में प्रेमचंद के साहित्य व जीवन के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज और राजनीति के अन्तर्सबंधों की छानबीन करनी है।

परिचर्चा का आरंभ करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि प्रेमचन्द समाज के चितेरे थे। हम आसपास के साधारण और विशिष्ठ चरित्रों के नजदीक रह कर भी जितना नहीं जान पाते उस से अधिक हमें प्रेमचन्द का साहित्य उन के बारे में बताता है। उन की रचनाएँ केवल यह नहीं बताते कि लोग कैसे हैं और कैसा व्यवहार करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं और ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। चरित्रों की वर्गीय और सामाजिक परिस्थितियाँ उन के जीवन और व्यवहार को निर्धारित करती हैं। प्रेमचन्द इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं और वे आज भी अपने साहित्य के उपभोक्ता को अन्य रचनाओं से अधिक दे रही हैं। आज का सामान्य व्यक्ति जब राजनीति को देखता, परखता है तो उस की प्रतिक्रिया होती है कि राजनीति दुनिया की सब से बुरी चीज है। सामान्य व्यक्ति का यह निष्कर्ष गलत नहीं हो सकता क्यों कि वह उस के जीवन के वास्तविक अनुभव पर आधारित सच्चा निष्कर्ष है।  सामान्य व्यक्ति जानता है कि राजनीति से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह नहीं सोच पाता कि यदि राजनीति सब से बुरी है तो फिर उस का विकल्प क्या है? लेकिन प्रेमचंद अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' में उस का विकल्प सुझाते हैं "गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खातमा हो जाता है" हम समझ सकते हैं कि प्रेमचन्द यहाँ समाज से वर्गों की समाप्ति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि राजनीति का विकल्प ऐसी नीति हो सकती है जिस से अंतत समाज से राज्य ही समाप्त हो जाए। 

डॉ. प्रेम जैन ने कहा कि प्रेमचन्द गांधी जी और स्वतंत्रता आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित थे। लेकिन उन की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि वे स्वतंत्रता के रूप में सामन्ती और पूंजीवादी शोषण से मुक्त समाज चाहते थे। 
शून्य आकांक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का काल कृषक सभ्यता के ह्रास और औद्योगिक सभ्यता के उदय का काल था। उन्हों ने उस काल के सामाजिक यथार्थ और अन्तर्विरोधों को अत्यन्त स्पष्टता के साथ अपने साहित्य में उजागर किया। सर्वाधिक संप्रेषणीय भाषा का प्रयोग किया। जीवन का यथार्थ चित्रण किया जिस के कारण वे संपूर्ण भारत में सर्वग्राह्य बने। 

प्रो. हितेष व्यास ने कहा कि प्रेमचन्द कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज के साहित्य को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द ने साहित्य और भाषा के माध्यम से राजनीति की। उन्हों ने अपने राजनैतिक विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन की भाषा उन की राजनीति थी। उन की साहित्यिक यात्रा एक विकास यात्रा है उन्हों ने गांधीवाद से समाजवाद तक का सफर तय किया। 
मुख्य वक्ता अशोक कुमार पाण्डे ने कहा कि साहित्य, समाज और राजनीति तीनों नाभिनालबद्ध हैं। कोई चीज राजनीति से परे नहीं होती, निष्पक्षता का भी अपना पक्ष होता है, राजनीति विहीनता की भी अपनी राजनीति है जो सदैव यथास्थिति के पक्ष में जाती है। हम जब प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो देखें कि उन के पास क्या परम्परा थी? साहित्य के नाम पर ऐयारी का साहित्य था। भाषा के नाम पर उर्दू फारसी भाषा की परंपरा थी। उन्हें बुनियाद भी रखनी थी और मंजिलें भी खड़ी करनी थीं। हलकू पहली बार साहित्य में नायक बना तो का्य वह फारसी शब्दों से लबरेज उर्दू बोलता या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी हिन्दी बोलता? तब हलकू की बोलचाल की भाषा उन के साहित्य की भाषा बनी। उन के साहित्य के पात्र अपनी जैसी भाषा बोलते हैं। उन का पात्र यदि पण्डित है तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता है, मौलाना है तो अरबी फारसी के शब्द उस की बोली में आते हैं। जैसा पात्र है वैसी भाषा है। उन की आरंभिक कहानियों में 'मंत्र' जैसी कहानियाँ भी हैंऔर 'कफन' भी। उन का साहित्य संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उन के साहित्य में गांधी के आन्दोलन का प्रभाव आना स्वाभाविक था।उन के कुछ साहित्य में टाल्सटाय का प्रभाव है लेकिन वे इन सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते हैं और समाजवाद तक पहुँचकर कहते हैं कि मैं बोल्शेविक विचारों का कायल हो गया हूँ। 

उन्हों ने कहा कि यह सही है की प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है। लेकिन यह जितनी उनकी सफलता है, उससे कहीं अधिक हमारे समाज की असफलता भी है। प्रेमचन्द के बाद देश को साम्राज्यवदी शासन से मुक्ति मिली। हम ने अपनी सार्वभौम सरकार की स्थापना की, एक तथाकथित दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र स्थापित कर लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला। गाँवों में अभी भी वही शोषण बरकरार है, गाँव का किसान उतना ही मजबूर है और नगर में मजदूर भी उतना ही मजबूर है। बल्कि शोषण का दायरा बढ़ा है। अमीरों की संख्या और अमीरी बढ़ी है तो गरीबों की संख्या और गरीबी भी बढ़ गई है। इंसान की जिन्दगी और अधिक दूभर हुई है। जनतंत्र में वोट के जरिए परिवर्तन का विकल्प सामने रखा जाता है लेकिन वोट के जरिए जिसे हटा कर जो लाया जा सकता है उस में कोई अन्तर आज दिखाई नहीं देता।  ऐसे में मौजूदा राजनीति का विकल्प जरूरी हो गया है। एक विकल्पहीनता की स्थिति दिखाई देती है। लेकिन समाज में कभी विकल्पहीनता नहीं होती। विकल्प हमेशा होता है। आज के समय में भी विकल्प है। हमें साहित्य में मौजूदा राजनीति के उसी विकल्प को उजागर करना होगा। हमें उसी  विकल्प का साहित्य रचना होगा। 

हाड़ौती के गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ ने कहा। प्रेमचन्द को समझना अलग बात है। मैं गाँव का हूँ और गाँव में सभी को प्रत्यक्ष देखा है। लेकिन गाँव का यथार्थ तब समझा जब प्रेमचन्द को पढ़ा। उन्हों ने समाज के यथार्थ को समझाया कि राजनीति उन के दुखों का कारण है। कर दबे, कुचले लोगों को एक होने संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हमें उन की इसी साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

अम्बिकादत्त ने कहा कि प्रेमचन्द और उन की परम्परा को समझने के लिए हमें उन के साहित्य को फिर से पढ़ना चाहिए। उन्हों ने हिन्दी के साहित्य को चन्द्रकान्ता के तिलिस्म से आगे बढ़ाया और समाज के बीच ले गए।  डा. रामविलास शर्मा कहते हैं कि प्रेमचन्द कबीर के बाद सब से प्रखर व्यंगकार हैं। उन से सीखते हुए लेखकों को भद्रलोक के घेरे से बाहर निकल कर जीवन की यथार्थ छवियाँ अंकित करनी चाहिए। 
परिचर्चा के अध्यक्ष बशीर अहमद 'मयूख' ने कहा कि प्रेमचन्द सही अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। यह विवाद बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल होनी चाहिए या वह राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं हो सकती। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और वह राजनीति को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे को मार्ग दिखाते हैं। 

परिचर्चा का संचालन करते हुए उर्दू शायर शकूर अनवर ने कहा कि प्रेमचन्द हिन्दी के ही नहीं उर्दू के भी उतने ही महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। भाषा की सरलता के सम्बन्ध में जो कुछ वे हिन्दी में करते और कहते हैं उन्हों ने ही सब से पहले उर्दू में भी भाषा की सरलता के बिन्दु पर जोर दिया। 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

अपनी राजनीति खुद करनी होगी

दिन भर अदालत में रहना होता है। लगभग रोज ही जलूस कलेक्ट्री पर प्रदर्शन करने आते हैं। पर उन में अधिकतर बनावटी होते हैं।  उस रोज बहुत दिनों के बाद एक सच्चा जलूस देखा। वे सेमटेल कलर ट्यूब उद्योग के श्रमिक थे। ठीक दीवाली के पहले उन के कारखाने को प्रबंधन छोड़ कर भाग गया। श्रमिक उसे कुछ दिन चलाते रहे। लेकिन कच्चा माल और बिजली और गैस कनेक्शन कट जाने से कारखाना बंद हो गया। कारखाना अब श्रमिकों के कब्जे में है उद्योगपति कोटा आने से डर रहा है। कहता है वह अब उद्योग को चलाने की स्थिति में नहीं है। अर्थात उद्योग सदैव के लिए बंद हो गया है। कानून में प्रावधान है कि उद्योग बंद हो तो कंपनी या उद्योग का स्वामी श्रमिकों को बकाया वेतन, मुआवजा. ग्रेच्चूटी आदि का भुगतान करे और उन के भविष्य निधि खातों का निपटान करे। लेकिन उद्योगपति की नीयत ठीक नहीं है। इसे श्रमिक, सरकार और नगर के बहुत से लोग जानते हैं। उद्योगपति कहता है उसे कारखाने में पड़ा माल बेच लेने दिया जाए फिर वह श्रमिकों को बकाया दे देगा। लेकिन बहुत से उद्योगपति श्रमिकों का बकाया चुकाए बिना कारखाना बंद कर भाग चुके हैं और श्रमिक लड़ते रह गए।

श्रमिकों को बकाया दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की है। पर सरकार तो खुद पूंजीपतियों की है। उस का कहना है कोई कानून नहीं है जो कि श्रमिकों को उन का बकाया दिला सके। लेकिन सरकार के पास अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। वह चाहे तो उद्योग की संपत्ति कुर्क कर के कब्जा कर सकती है। करोड़ों रुपए कथित जनहित कामों में लुटा कर ठेकेदारो को अमीर बनाने वाली सरकार चाहे तो श्रमिकों का बकाया अपने पास से चुका कर उद्योग की संपत्ति कुर्क और नीलाम कर के उसे वसूल कर सकती है। बिना अनुमति कोई उद्योगपति कारखाने को बंद नहीं कर सकता, यह अपराध है। चाहे तो सरकार उद्योगपति के विरुद्ध अपराधिक मुकदमा चला सकती है। इस अपराध को संज्ञेय और अजमानतीय बना दिया जाए तो उन्हें गिरफ्तार भी कर सकती है। पर वह अपने ही आकाओं के खिलाफ ऐसा क्यों करने लगी?


द्योग बंद होने का कारण स्पष्ट है। बाजार में कलर पिक्चर ट्यूबों का स्थान एलईडी आदि ने ले लिया है उन की मांग कम होती जा रही है, मुनाफा कम हो गया है। उद्योगपति को मुनाफा चाहिए। वह इस उद्योग से पूंजी निकाल चुका है। बाकी को निकालने में सरकार उस की मदद करेगी। लेकिन मजदूरों की नहीं।


जदूर समझने लगे हैं कि उन की किसी को परवाह नहीं। कभी साथ लगते भी हैं तो इलाके के छोटे किसान उन का साथ देते हैं जो उन के स्वाभाविक परिजन हैं। उन्हें अपने जीवन सुधारने हैं तो खुद ही कुछ करना होगा। यह सब वे अपनी एकता के बल पर ही कर सकते हैं। उन्हें खुद अपनी एकता का निर्माण करना होगा और फिर किसानों की। उन्हें अपने नेता खुद बनाने होंगे जो उन के साथ दगा न करें। बिना मजदूर किसानों की एकता का निर्माण कर सत्ता पर कब्जा किेए वे अपने जीवन में तिल मात्र सुधार नहीं ला सकते। उन्हें खुद अपनी राजनीति खुद करनी होगी।

शनिवार, 5 मई 2012

बोलने की हदें?


नतंत्र है तो वाक स्वातंत्र्य भी। सब को अपनी बात कहने का अधिकार भी है। अब सरकार अभिनेत्री रेखा और क्रिकेटर सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे, सिफारिश मानने को बाध्य राष्ट्रपति उस पर मुहर लगा दें, अधिसूचना भी जारी कर दी जाए और देश उसे चुपचाप स्वीकार कर ले तो सिद्ध हो जाएगा कि देश मे जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र का होना सिद्ध होता रहे इसलिए यह जरूरी है कि सरकार के हर कदम की आलोचना की जाए, सरकारी पार्टी की आलोचना की जाए और मनोनीत व्यक्तियों की आलोचना की जाए।

यूँ तो देश में जनतंत्र होना सिद्ध करने की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की है। सरकारी पार्टी की पिछली पारी में मैदान के बाहर से समर्थन देने वाली सब से बड़ी वामपंथी पार्टी ने इस काम की आलोचना नहीं की सिर्फ इतना भर कहा कि सचिन के पहले गांगुली को यह सम्मान मिलना चाहिए था, इस तरह उन्हों ने साबित किया कि  फिलहाल अखिल भारतीय पार्टी बनने का सपना देखना उन के ऐजेंडे पर नहीं है, वे अभी अपने दक्षिणपंथी विचलन को त्यागने पर भी कोई विचार नहीं कर रहे हैं, अभी उन का इरादा केवल और केवल अपनी क्षेत्रीय पार्टी की इमेज की रक्षा करने में जुटे रहना है। अभी-अभी रुस्तम-ए-लखनऊ का खिताब जीतने वाली पार्टी ने भी इस की आलोचना करने के बजाए प्रशंसा करना बेहतर समझा और सिद्ध किया कि वह अपनी नवअर्जित छवि को केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए भुनाना चाहती है। पूर्व रुस्तम-ए-लखनऊ की कुर्सी छिन जाने और अभी अभी राज्य सभा में कुर्सी कबाड़ लेने वाली बहन जी ने जनतंत्र की रक्षा करने के स्थान पर सस्पेंस खड़ा करने की कोशिश करते हुए बयान किया कि वे जानती हैं कि इन लोगों को राज्य सभा में लाने के पीछे सरकारी पार्टी की मंशा क्या है।

राठा सरदार की पार्टी ने सरकार के इस कदम की आलोचना की तो लगा कि कोई तो जनतंत्र को बचाने के लिए सामने आया। पर वे भी इतना ही कह कर रह गए कि सरकारी पार्टी ध्यान बांटने का काम कर रही है, उस का मन कभी पवित्र नहीं रहा, वह हमेशा कोई न कोई लाभ उठाने के चक्कर में रहती है। इस बार वह सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। इस बयान से भी जनतंत्र को कोई लाभ नहीं हुआ उन्हें जनतंत्र बचाने से अधिक इस बात का अफसोस था कि एक महाराष्ट्रियन का लाभ कांग्रेस कैसे उठा ले जा रही है।  सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब जनतंत्र साबित करने की जिम्मेदारी केवल अपने कंधों पर उठाने का दावा करने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी आलोचना करने के स्थान पर सरकार के इस कदम की प्रशंसा कर दी। करती भी क्या। उस के पूर्व अध्यक्ष पर चल रहे रिश्वत लेने के मुकदमे का फैसला आने वाला था और वह इस मामले में इतनी सी रियायत चाहती थी कि सरकारी पार्टी उस की आलोचना न करे।  

ब सब ओर से जनतंत्र खतरे में दिखाई दिया तो ऐसे दुष्काल में विदेश से कालाधन वापस लाने की जिद पर अड़े बाबा काम आए, उन्हों ने जम कर सरकार की आलोचना की।  सरकारी पार्टी डूबता जहाज है, वह जहाज को डूबने से बचाने के लिए सचिन-रेखा का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन यह प्रयोग भी उसे नहीं बचा पाएगा। बल्कि डूबते जहाज में बिठा कर वह इन दोनों की साख को भी डुबा देगा। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि ये दोनों जब राज्यसभा में जाएंगे तो वहाँ काले धन के मामले पर क्या बोलेंगे।

बाबा ने जनतंत्र की प्राण रक्षा की।  लेकिन उन की खुद की सुरक्षा इस से खतरे में पड़ गई है। पिछले कुछ बरसों से उनका झंडा उठाए उठाए घूमने वाली सब से बड़ी विपक्षी पार्टी बाबा से घोर नाराज हो गई। उस ने चेतावनी दे डाली कि बाबा को उन की हद में रहना चाहिए। जनतंत्र सोच में पड़ गया है कि आखिर बाबा की हदें कब, कहाँ, क्यों और कैसे तय की गई थीं? और तय की गई थीं तो अब तक मीडिया वालों को उन की हदों का पता क्यों नहीं लगा? यदि किसी को लग भी गया था तो जनता को क्यों नहीं बताया गया?

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सैक्स-सीडी और जनता-इश्क

सेक्स (करना) सभी एकलिंगी जीवधारियों का स्वाभाविक कृत्य है और बच्चों की पैदाइश सेक्स का स्वाभाविक परिणाम। जब भी स्वाभाविक परिणाम को रोकने की कोशिश की जाती है तो अस्वाभाविक परिणाम सामने आने लगते हैं। बच्चों की पैदाइश रोकी जाती है तो सीडी पैदा हो जाती हैं। बच्चों को पैदा होते ही माँ की गोद मिलती है। लेकिन जब सीडी पैदा होती है तो उसे सीधे किसी अखबार या वेब पोर्टल का दफ्तर मिलता है। अदालत की शरण जा कर उसे रुकवाओ तो वह यू-ट्यूब पर नजर आने लगती है, वहाँ रोको तो फेसबुक पर और वहाँ भी रोको तो उस की टोरेंट फाइल बन जाती है। आराम से डाउनलोड हो कर सीधे कंप्यूटरों में उतर जाती है। रिसर्च का नतीजा ये निकला कि सेक्स के परिणाम को रोकने का कोई तरीका नहीं, वह अवश्यंभावी है। 

रिणाम जब अवश्यंभावी हो तो उसे रोकने की कोशिश करना बेकार है। उस से मुँह छुपाना तक बेकार है। एक सज्जन ने परिणाम रोकने की कोशिश नहीं की बच्चे को दुनिया में आने दिया। पर उस से मुहँ छुपा गए। बच्चा बालिग हुआ तो अपनी पहचान बनाने को अदालत जा पहुँचा। वहाँ भी सज्जन मुहँ छुपा गए तो अदालत ने डीएनए टेस्ट करने का आर्डर जारी कर दिया। उस के लिए मना किया तो अदालत ने फैसला दे दिया कि बच्चे की बात सही है। पुरानी पीढ़ी के इस अनुभव से नए लोगों को सीख लेनी चाहिए। वे बच्चे न चाहते हों तो कोई बात नहीं, पर उन्हें आने वाले परिणामों से बचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। बचने के परिणाम गंभीर होते हैं।

रकार भले ही एकवचन हो पर इस का आचरण बहुवचनी होता है। वह एक साथ अनेक के साथ सेक्स कर सकती है। वह एक और तो वित्तीय सुधार करते हुए वर्ड बैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स के साथ सेक्स कर सकती है, दूसरी ओर शहरी और ग्रामीण विकास योजनाएँ चला कर जनता के साथ इश्क फरमा सकती है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब जनता के साथ इश्क फरमाने से वर्डबैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स नाराज हो जाते हैं। उधर उन के साथ सेक्स करने की खबर से जनता नाराज हो जाती है।

 
 जब वर्ड बैंक वगैरा वगैरा नाराज होते हैं तो सरकार को उन्हें मनाने के लिए आर्थिक सलाहकार भेजना पड़ता है। वहाँ जा कर वह समझाता है कि जनता के साथ इश्क फरमाना सरकार की मजबूरी है, आम चुनाव सर पर हैं, जनता के साथ इश्क का नाटक न किया तो सरकार सरकार ही नहीं रहेगी, फिर आप किस के साथ सेक्स करेंगे? आप तो जानते ही हैं कि हम सब से कम बदबूदार सरकार हैं। कोई और सरकार हो गया तो बदबू के कारण उस के पास तक जाना दूभर होगा, सेक्स तो क्या खाक कर पाएंगे? आप सवाल न करें, हमारा साथ दें। इस बार बिना रिश्तेदारों की सरकार बनाने में हमारी मदद करें तो सेक्स में ज्यादा आनंद आएगा।

धर मान मनौवल चल ही रही थी कि सीडी बन कर देस पहुँच गई। सरकार को घेर लिया गया। आर्थिक विकास की गाड़ी गड्ढे में क्यों फँसी पड़ी है? क्या जनता के साथ सरकार का इश्क झूठा नहीं है? सरकार इश्क में धोखा कर रही है। इश्क जनता से, और सेक्स परदेसी से? इधर सरकार की भी सीडी बनने लगी। उधर सलाहकार देस लौटा। कहता है उस की परदेस में बनाई गई सीडी नकली है, फर्जी है। असली तो खुद उस के पास है, देख लो। सरकार के पैरों से सिर तक के अंग सफाई देने लगे। जनता के साथ उस का इश्क सच्चा है, वह किसी और के साथ सेक्स करती है तो वो भी जनता के फायदे के लिए। जनता सोच रही है कि ये सरकार इश्क के काबिल रही भी या नहीं? अब इस से नहीं तो इश्क किस से किया जाए?

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को जनतांत्रिक राजनैतिक संगठन में बदलना ही होगा

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कोर कमेटी के दो सदस्यों पी वी राजगोपालन और राजेन्द्र सिंह ने अपने आप को टीम से अलग करने का निर्णय लिया है, उन का कथन है कि अब आंदोलन राजनैतिक रूप धारण कर रहा है। हिसार चुनाव में कांग्रेस के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय कोर कमेटी का नहीं था। उधर प्रशान्त भूषण पर जम्मू कश्मीर के संबंध में दिए गए उन के बयान के बाद हुए हमले की अन्ना हजारे ने निन्दा तो की है लेकिन इस बात पर अभी निर्णय होना शेष है कि जम्मू-कश्मीर पर उन के अपने बयान पर बने रहने की स्थिति में वे कोर कमेटी के सदस्य बने रह सकेंगे या नहीं। इस तरह आम जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होने पर भी इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नेतृत्वकारी कमेटी की रसोई में बरतन खड़कने की आवाजें देश भर को सुनाई दे रही हैं। 

न्ना हजारे जो इस टीम के सर्वमान्य मुखिया हैं, बार बार यह तो कहते रहे हैं कि उन की टीम किसी चुनाव में भाग नहीं लेगी, लेकिन यह कभी नहीं कहते कि वे राजनीति नहीं कर रहे हैं। यदि वे ऐसा कहते भी हैं तो यह दुनिया का सब से बड़ा झूठ भी होगा। राजनीति करने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि राजनीति करने वाला कोई भी समूह चुनाव में अनिवार्य रूप से भाग ले। यदि कोई समूह मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध या उस के किसी दोष के विरुद्ध जनता को एकत्र कर सरकार के विरुद्ध आंदोलन का संगठन करता है तो तरह वह राज्य की नीति को केवल प्रभावित ही नहीं करता अपितु उसे बदलने की कोशिश भी करता है तथा इस कोशिश को केवल और केवल राजनीति की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि विगत अनेक वर्षों से अन्ना हजारे जो कुछ कर रहे हैं वह राजनीति ही है। 

दि कोई समूह या संगठन राजनीति में आता है तो उस संगठन या समूह को एक राजनैतिक संगठन का रूप देना ही होगा। उस की सदस्यता, संगठन का जनतांत्रिक ढांचा, उस के आर्थिक स्रोत, आय-व्यय का हिसाब-किताब, उद्देश्य और लक्ष्य सभी स्पष्ट रूप से जनता के सामने होने चाहिए। लेकिन इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथ ऐसा नहीं है, वहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यदि इंडिया अगेंस्ट करप्शन को अपना जनान्दोलन संगठित करना है तो फिर उन्हें अपने संगठन को जनता के संगठन के रूप में संगठित करना होगा, उस संगठन का संविधान निर्मित कर उसे सार्वजनिक करना होगा, उस के आर्थिक स्रोत और हिसाब किताब को पारदर्शी बनाना होगा। संगठन के उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट करने होंगे। इस आंदोलन को एक राजनैतिक स्वरूप ग्रहण करना ही होगा, चाहे उन का यह संगठन चुनावों में हिस्सा ले या न ले। यदि ऐसा नहीं होता है तो इस आंदोलन को आगे विकसित कर सकना संभव नहीं हो सकेगा।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

बुधवार, 21 जुलाई 2010

बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण , अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है

जरा नवभारत टाइम्स की ये खबर देखें....
स खबर में कहा गया है कि, "वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएएआई) द्वारा अधिकृत टोल प्लाजा पर काम कर रहे 25,000 पूर्व सैनिक  हैं, टोल प्लाजा पर साजो-सामान के साथ ही रणनीतिक सहयोग देने वाले ऐसे ही 10,000 पूर्व सैनिकों को अब इस काम पर से हटा कर बेरोजगार कर दिया जाएगा। अब इस काम को ठेके पर दे दिया जाएगा। एनएचएआई ने बीते 22 जून को इस फैसले के संबंध में एक आदेश पारित किया था। इस आदेश को लागू किए जाने के पहले चरण में देश भर के 50 टोल प्लाजा के लिए सरकारी टेंडर भी जारी कर दिए गए हैं। वर्ष 2004 से इन टोल प्लाजा पर पूर्व सैनिक काम कर रहे हैं। इन्हें नियोजित करने के बाद से टोल संग्रह की दर 15 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है। देशभर की विभिन्न टोल प्लाजा से सरकार को 1700 करोड़ रुपये का रेवेन्यू मिलता है। इसके चलते पूर्व सैनिकों को एक सम्मानजनक रोजगार मिल रहा है। उन्हें वेतन के अतिरिक्त राजस्व का 10 फीसदी कमिशन भी मिलता है।
ब इस काम को ठेके पर दिया जाएगा।बहुराष्ट्रीय या उसी स्तर की कोई कंपनी यह काम करेगी। तब टोल टैक्स के काम को करने के लिए तमाम  असामाजिक तत्व भरती किए जाएँगे जिन्हें न्यूनतम वेतन भी दिया जाएगा या नहीं इस की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन उन्हें पूरी छूट होगी कि वे निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन लोगों से भी टोल लें जिन पर यह नहीं लगता है। जनता को परेशान करें। उन्हें अपनी आय बढ़ाने के भी अवसर होंगे। फिर जो लाभ आज पूर्व सैनिकों को मिल रहा है वह मुनाफे के रूप में कंपनी के पास जाए या फिर कमीशन के माध्यम से नेताओं, अफसरों की जेब में जाए। हो सकता है राजनैतिक पार्टियों को चुनाव लड़ने का चंदा भी इसी मुनाफे से मिले वर्तमान शासक दल को इस लिए कि उन्होंने ठेके की यह व्यवस्था लागू की और दूसरों को इस लिए कि वे सत्ता में आ जाएँ तो इस व्यवस्था को चालू रखें। बेरोजगार पूर्व सैनिकों के परिवार भूखे मरें तो मरें, उस से क्या? आखिर हमारा भारतीय राज्य एक कल्याणकारी है, बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण, अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है।

हालाँकि एनएचएआई के इस फैसले का पूर्व सैनिक विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों रिटायर्ड कर्नल एच. एस. चौधरी के नेतृत्व में पूर्व सैनिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी से मुलाकात की थी और इस पर रोक लगाने की मांग की थी। एंटनी ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह सड़क व परिवहन मंत्री कमलनाथ से इस संबंध में चर्चा करेंगे। इन सैनिकों ने कमलनाथ से भी भेंट की और उनसे आग्रह किया कि पूर्व सैनिकों के परिवार के दो लाख सदस्यों को मुसीबत में डालने वाले अपने फैसले की वह फिर से समीक्षा करें।  पर ए.के. एंटनी और कमलनाथ क्या कर पाएंगे? यदि कुछ कर सके तो फिर नेताओँ अफसरों की जेबें कैसे भरेंगी?  अगला चुनाव लड़ने के लिए पार्टियों को चंदा कहाँ से मिलेगा? विपक्ष भी इस मामले में चुप है। आखिर उसे भी तो अगला चुनाव लड़ने के लिए चंदा चाहिए।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए

ल रात शोभा (श्रीमती द्विवेदी) ने पूछा, गाड़ी में पेट्रोल तो है ना? मैं चौंका। एक तो पिछले ही दिनों पेट्रोल की कीमतें बढ़ी हैं फिर अक्सर वे ये सवाल तभी करती हैं जब वे मेरे साथ कार में ऐसी जगह की यात्रा करती हैं जहाँ एक-दो किलोमीटर में पेट्रोल पम्प न हो और कोई सवारी भी न मिलती हो। मैं ने तत्काल पूछा, क्यों? कहीं जाना है क्या? वे बोलीं, नहीं मैं तो इस लिए कह रही थी कि कल भारत बंद है, सुबह जरूरत पड़ेगी तो क्या करोगे? नहीं हो तो अभी जा कर भरवा लाओ। -कल तक के लिए पर्याप्त होगा। इतना कह कर मैं ने अपनी जान छुड़ाई। चलो इस बहाने हमें भारत बंद का तो पता लगा। वरना हमें तो सुबह अखबार या टीवी समाचार से ही यह पता लगता। वैसे भी कल किसी टीवी वाले को धोनी की शादी से ही फुरसत नहीं थी।
सुबह अखबार आया तो पता लगा कि बंद के कारण यातायात की अस्तव्यस्तता रहने से अधिवक्ता परिषद ने घोषणा कर दी है कि वे भी काम लंबित रखेंगे। हम कुछ रिलेक्स हो गए। हमें पता था कि आज कोई अदालत परेशान नहीं करेगी। क्यों कि अधिवक्ताओं के काम न करने से आज का दिन उन के काम के कोटे की गणना से अलग हो गया है। यह न्यायिक अधिकारियों के लिए बोनस का दिन है। इस दिन जितना काम वे अपने अपने चैंबर में करते हैं वह उन के कोटे को सुधार देता है। हम भी आराम से निबटे। बस भोजन करना शेष था कि बंगलूरू से बेटे का फोन आ गया। बता रहा था कि वह जल्दी ही नीचे जा कर कुछ नाश्ता ले आया है वरना दिन भर भोजन से वंचित रहना पड़ता। यूँ तो वह अपना भोजन खुद बनाता रहा है। लेकिन अभी इसे के लिए वहाँ पर्याप्त साधन नहीं जुटा पाने के कारण चाय आदि के अलावा वह बाजार पर ही निर्भर रहता है। उस ने बताया कि यहाँ सारी कंपनियाँ आज बंद रहेंगी। ट्रेफिक भी बंद रहेगा। सुबह सुबह ही पुलिस वालों की टोलियाँ सड़क पर आ निकली थीं। जिस किसी ने दुकान खोल दी थी उसे बंद करवा रहे थे। कह रहे थे अपना नुकसान करवाओगे और हमारे कलंक लगाओगे, कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। मैं ने उसे कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है पुलिस बंद करवा रही है? तो उस का जवाब था कि यहाँ बीजेपी की सरकार जो है। 
म अदालत के लिए निकले तो ट्रेफिक रोज की तरह चलता नजर आया। हाँ ऑटो इक्का दुक्का नजर आ रहे थे। सिटी बसें नहीं थीं और दुकानें एक सिरे से बंद थीं। हम बड़े मजे में गाड़ी चलाते हुए अदालत पहुँचे तो दूर से हमारा पार्किंग पूरी तरह खाली देख प्रसन्नता हुई, कि आज किसी पेड़ की छाया के  नीचे कार पार्क कर सकेंगे। लेकिन यह खुशी पास जाने पर टूट गई। पुलिस वाले अस्पताल और अदालत के बीच वाली सड़क के किनारे वाले पार्किंग में गाड़ी पार्क करने ही नहीं दे रहे थे। हमने पार्किंग के लिए दूसरी जगह तलाशी तो सभी पार्किंग  पहले से भरे हुए थे। फिर परेशान हुए तो एक जूनियर साथी ने हमें सलाम ठोकी। हम ने गाड़ी रोक दी। उस ने कहा कि आज उस की कार अंदर पार्किंग में फँस गई है। मुझे पत्नी को अस्पताल ले जाना है। मैं गाड़ी से उतर गया और अपनी गाड़ी की चाबी उसे दे दी। मुझे पार्किंग तलाशने से मुक्ति मिली। 
दालत में जा कर अपना काम संभाला। अदालतों में गए। कुछ अदालतों ने मुकदमों में तारीखें बदल दी थीं। कुछ अदालतें जहाँ नए न्यायिक अधिकारी तबादला हो कर आए थे, तारीखें नहीं बदल रही थीं। शायद नए अधिकारी मुकदमों की पत्रावलियों से परिचित होना चाह रहे थे, या फिर वे कोटा की उस परंपरा से वाकिफ न थे, जिस के अनुसार अधिवक्ता परिषद की काम लंबित होने की चिट्ठी आने पर उन्हें प्रसन्न होना था। पर मैं जानता था कि उन की यह असामान्यता सिर्फ दोपहर के विश्राम तक ही टिकेगी। क्यों कि तब चाय पर वे पुराने अधिकारियों से मिलेंगे और उन से मिली सीख उन्हें सामान्य कर देगी। बंद के दिन भी कुछ तो मुवक्किल आ ही गए थे। कुछ उन से बातचीत की, कुछ उन्हें सलाहें दीं, कुछ टाइप का काम करवाया। एक नया मुकदमा मिला तो फीस भी मिली। इस के अलावा दो बार बैठ कर कॉफी भी पी। कुल मिला कर शाम के साढे़ चार बज गए। तब तक शहर में कुछ भी असामान्य होने की खबर नहीं थी। सब कुछ वैसे ही चल रहा था जैसे हर बंद में चलता है। दुकानें स्वतः ही बंद थीं। कुछ नुकसान होने के डर से और कुछ इस लिए कि व्यापारियों को रूटीन में सप्ताह में एक ही अवकाश मिलता है। जब कभी बंद की घोषणा होती है तो वे बड़े खुश होते हैं कि उन्हें एक दिन का अवकाश और मिला और पहले से ही पिकनिक का कार्यक्रम बना लेते हैं। फिर आज तो मौसम इस के लिए बहुत अनुकूल था। पिछले दो-तीन दिनों हुई बरसात ने वातावरण को भीगा-भीगा और कुछ कुछ सर्द तो कर ही दिया था। आज नगर के आस-पास के सभी पिकनिक स्पॉट आबाद थे। सभी महाराज भोजन बनाने के लिए पहले से बुक थे। 
शाम घर पहुँचने पर टीवी खोला तो न्यूज चैनलों पर बहसें चल रही थीं। विपक्ष इसे जनता का बंद साबित करने पर तुला हुआ था तो कांग्रेस कह रही थी कि विपक्ष सरकार में होता तो इस से भी बुरी हालत होती। विपक्षी दलों के प्रतिनिधि सोच रहे थे कि रोना ही यही है कि वे सरकार में नहीं हैं। यदि होते तो काँग्रेसी ये सब कर रहे होते जो उन्हें करना पड़ रहा है। जनता टीवी देखने में व्यस्त थी। हम सोच रहे थे कि गाड़ी कीचड़ में फँस गई है। निकाले नहीं निकल रही है। निकालने में एक और खतरा है कि कहीं टूट नहीं जाए। कोई एकाध पहिया कीचड़ में फंसा रह जाए तो और मुश्किल हो जाए। दूसरी कोई गाड़ी दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है कि इसे छोड़ उस में सफर किया जाए। अब ऐसे में क्या किया जाए?  कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए। कीचड़ सूखे शायद उस से पहले कोई अच्छा वाहन ही नजर आ जाए।

रविवार, 13 जून 2010

विधि मंत्री मोइली देश और सु्प्रीमकोर्ट से माफी मांगे और अपने पद से त्यागपत्र दें

भोपाल गैस त्रासदी संबंधित अदालत के निर्णय और उस के बाद जिस तरह से परत-दर-परत तथ्यों का रहस्योद्घाटन हुआ है उस ने मौजूदा शासकवर्ग (भारतीय पूंजीपति-भूस्वामी-और साम्राज्यी पूंजीपति) को संकट में डाल दिया है। भारत में उन का सब से बड़ा पैरोकार राजनैतिक दल कांग्रेस संकट में है। बचने की गुंजाइश न देख कर उन की सरकार के विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने अब अपनी पार्टी के गुनाहों को न्यायपालिका के मत्थे थोपना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस पार्टी इस संकट से पूरी तरह बौखला गई है। क्यों कि उन के पूर्व प्रधानमंत्री मिस्टर क्लीन स्व. राजीवगांधी पर उंगलियाँ उठ रही हैं।  उन के पास इस का कोई जवाब नहीं है। एंडरसन को फरार करने के लिए जिम्मेदार तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपना मुहँ सिये बैठे हैं। 
चाई को छुपाने के लिए इस जमाने के शासक कथित जनतंत्र की जिस धुंध का निर्माण करते हैं, उसे जनतंत्र के एक अंग पत्रकारिता ने पूरी तरह छाँट दिया है। किस तरह राजनेता न केवल देशी पूंजीपतियों की चाकरी करते हैं बल्कि उन के बड़े आकाओं की सेवा करते हैं, यह सामने आ चुका है। मध्यप्रदेश पुलिस ने भोपाल मामले में मुकदमा धारा 304 भाग-2 में दर्ज किया था जो कि संज्ञेय और अजमानतीय अपराध है, जिस का विचारण केवल सेशन न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है। परंपरा के अनुसार सेशन न्यायालय से नीचे का कोई न्यायालय अभियुक्त की जमानत नहीं ले सकता। पुलिस तो कदापि नहीं। 
स अपराध में यूनियन कार्बाइड के चेयरमेन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार दिखाया और फिर खुद ही जमानत पर रिहा कर दिया। इतना ही नहीं खुद पुलिस कप्तान और जिला कलेक्टर उसे छोड़ने हवाईअड्डे ही नहीं गए, अपितु कार की ड्राइविंग भी खुद ही की, शायद इसलिए कि कहीं कोई ड्राइवर देश के लिए की जा रही  गद्दारी का गवाह न बन जाए। तत्कालीन पुलिस कप्तान और कलेक्टर जो इस देश की जनता से वेतन प्राप्त करते थे, उन्हों ने उस की कोई अहमियत नहीं समझी, वे केवल राजनेताओं के हुक्म की तामील करते रहे।  राजनेताओं ने वारेन एंडरसन से प्रमाण पत्र हासिल किया "गुड गवर्नेस"।  यह एक दिन में नहीं हो जाता। यह वास्तविकता है कि अधिकांश आईएएस और आईपीएस अफसर जनता के धन पर राजनेताओं की चाकरी करते हैं, उन से भी अधिक वे वारेन एंडरसन जैसे लोगों की चाकरी करते हैं, उस के बदले उन को क्या मिलता है? इस से जनता अब अनभिज्ञ नहीं है।
पुलिस द्वारा वारेन एंडरसन की जमानत तभी ली जा सकती थी जब कि उस के विरुद्ध लगाए गए आरोपों को दंड संहिता की धारा 304 भाग-2 से 304-ए के स्तर पर ले आया जाता। पुलिस इस हकीकत को जानती थी कि दंड संहिता में 304-ए के अतिरिक्त कोई और उपबंध ऐसा नहीं कि जिस का आरोप भोपाल त्रासदी के अभियुक्तों लगाया जा सके। जनता के दबाव के सामने कानून की इस कमी को छिपाया गया। वारेन एंडरसन को तो फरार दिखा दिया गया, शेष अभियुक्तों के विरुद्ध धारा 304 भाग-2 और कुछ अन्य धाराओं के अंतर्गत अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर दिया गया। एक ऐसा आरोप जिस में से धारा-304 भाग-2 को हटना ही था। आरोपी सक्षम थे और सुप्रीमकोर्ट तक अपना मुकदमा ले जा सकते थे। देश के सब से बड़े वकीलों की सेवाएँ प्राप्त कर सकते थे। उन्हों ने अशोक देसाई, एफ.एस. नरीमन और राजेन्द्र सिंह जैसे देश के नामी वरिष्ट वकीलों की सेवाएँ प्राप्त कीं और आरोप दंड संहिता की धारा धारा-304 भाग-2 के अंतर्गत नहीं ठहर सका। (यह पूरा निर्णय यहाँ पढ़ा जा सकता है) आज मोइली जी कह रहे हैं कि सुप्रीमकोर्ट ने गलती की। हजारों लोगों की जानें लील लेने और हजारों को अपंग बना देने वाली त्रासदी को ट्रक एक्सीडेंट बना दिया गया। लेकिन जब सुप्रीमकोर्ट ने ऐसा किया तब केन्द्र सरकार के अधीन चलने वाली सीबीआई क्या सो रही थी? न्यायमूर्ति अहमदी के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल क्यों नहीं की गई? क्या मोइली साहब इस सवाल का उत्तर देना पसंद करेंगे? शायद नहीं? क्यों कि तब उंगली फिर उन की ही और उठेगी। स्पष्ट है सरकार की नीयत अपराधियों को सजा दिलाने की नहीं अपितु उन्हें बचाने की थी। राजद सरकार ने तो इस से भी आगे बढ़ कर एक कदम यह उठाया कि वारेन एंडरसन के बाद सब से जिम्मेदार अभियुक्त केशव महिंद्रा को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की पेशकश कर दी। न पक्ष और न ही विपक्ष, राजनीति का कोई हिस्सेदार इस त्रासदी की कालिख से अपने मुहँ को नहीं बचा सका। यह कालिख हमेशा के लिए उन के मुहँ पर पुत चुकी है, जिस से वे पीछा नहीं छुड़ा सकते।
भोपाल मेमोरियल अस्पताल ट्रस्ट की स्थापना सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से की गई थी, सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से ही न्यायमूर्ति अहमदी को उस का आजीवन मुखिया बनाया गया था। पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के समक्ष वे इस ट्रस्ट में अपने पद से त्यागपत्र प्रस्तुत कर चुके थे जो कि अभी तक सु्प्रीमकोर्ट की रजिस्ट्री के पास कार्यवाही के लिए मौजूद है, वे पुनः उस पद को छोड़ देने की पेशकश कर चुके हैं। अदालत में दिए गए एक निर्णय के लिए उन्हें या न्यायपालिका को मोइली द्वारा दोषी बताना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। उस स्थिति में तो बिलकुल भी नहीं जब कि केंद्र सरकार के पास उस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अवसर उपलब्ध था, जिस का उसने कोई उपयोग नहीं किया। मोइली विधि मंत्री हैं, न्यायपालिका को सक्षम और मजबूत बनाए रखने की जिम्मेदारी उन की है। उन्हों ने कांग्रेस को बचाने के लिए न्यायपालिका के विरुद्ध जो बयान दिया है वह न्यायपालिका के सम्मान और गरिमा को चोट पहुँचाता है। इस के लिए उन्हें तुरंत अपने पद से त्यागपत्र दे कर सर्वोच्च न्यायालय और देश से क्षमा याचना करनी चाहिए। 

शनिवार, 12 जून 2010

साँप सालों पहले निकल गया, लकीर अब तक पीट रहे हैं

साँप तो निकल कर जा चुका है, और जिसे मौका लग रहा है वही लकीर पीट रहा है। जब मामले में अदालत का निर्णय आया तो न्यायपालिका को कोसा जा रहा था, साथ ही दंड संहिता की खामियाँ गिनाई जा रही थीं। निश्चित ही न्यायपालिका का इस में कोई दोष नहीं। उस का काम सरकार द्वारा उस के सामने अभियोजन (पुलिस) द्वारा लाए गए सबूतों और कानून के अनुसार आरोप विरचित करना, मुकदमे की सुनवाई करना और सबूतों के अनुसार दोषी पाए जाने पर अपराधियों को देश के दंड कानून के मुताबिक निर्णय और दंड प्रदान करना है। निश्चित ही न्यायालय ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। उस के माथे पर केवल एक कलंक मंढ़ा जा सकता है कि उस ने फैसला करने में 23 साल क्यों लगाए? इस के लिए भी न्यायालय या न्यायपालिका को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह सर्वविदित तथ्य है कि देश में आवश्यकता के चौथाई अधीनस्थ न्यायालय भी नहीं हैं। जिस मामले में 25000 लोगों की मौत हुई हो और उन से कई गुना अधिक बीमार हुए हों, जिस से देश भर की जनता की संवेदनाएँ जुड़ी हों उस मामले में  एक विशेष अदालत का गठन किया जा सकता था, जो केवल इसी मुकदमे की सुनवाई करती। केवल और केवल एक वर्ष में यह निर्णय हासिल किया जा सकता था। इसी तरह एक दो वर्ष में अपील आदि की प्रक्रिया पूर्ण कर दोषियों को दंड दिया जा सकता था। पर लगता है कि सरकार की नीयत ही ठीक नहीं थी। शायद वह चाहती थी कि मामले को जितना हो सके लंबा किया जाए। इतने महत्वपूर्ण मामले को देश में चल रहे लाखों सामान्य फौजदारी मुकदमों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। यदि कोई पत्रकार चाहे तो इस मुकदमे के प्रारंभ से ले कर अभी तक की सभी पेशियों की आदेशिकाओं की नकल प्राप्त कर दुनिया को बता सकता है कि 25000 हजार मौतों के लिए जिम्मेदार अभियुक्तों के विरुद्ध मुकदमा किस साधारण तरीके चलाया गया था। 
स फैसले ने साबित किया है कि हमारे देश की संसद और विधानसभाएँ, देश की जनता की सुरक्षा के लिए कितनी चिंतित हैं? उन की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून इतने खोखले हैं कि किसी को इस बात का भय ही नहीं है कि वे उन सुरक्षा नियमों की पालना करें। लेकिन वे क्यों बनाएँ ऐसे कानून जो किसी उद्योगपति को मुनाफा कमाने में रोड़ा पैदा करते हों? आखिर वे ही तो हैं जो सांसदों और विधायकों को चुने जाने के लिए धन उपलब्ध कराते हैं। पूरे पाँच वर्षों तक उन्हें हथेलियों पर बिठाते हैं। फिर क्यों न सांसद और विधायक उन की रक्षा करें। जनता का क्या उस के पास पाँच बरस में एक वोट की ताकत भर है। जिसे किसी भी तरह खरीदा जा सकता है। अब तो उस की भी उतनी जरूरत नहीं है। हालात यह हैं कि किसी पार्टी का उम्मीदवार विधायक बने उन का तो चाकर ही होगा न? यही है हमारे जनतंत्र की हकीकत। यही है हमारा जनतंत्र। देशी-विदेशी पूंजीपतियों और भूपतियों का चाकर। 
क्या था एंडरसन? एक अमरीकन कंपनी का सीईओ ही न। कहते हैं तीस से अधिक कमियाँ पायी गई थी भोपाल युनियन कार्बाइड कारखाने में जो जनहानि के लिए जिम्मेदार हो सकती थीं, इन सब की सूचना एंडरसन साहब को थी। यही कमियाँ इसी कंपनी के अमरीका स्थित कारखाने में भी थीं। अमरीका स्थित कारखाने की कमियों को दूर किया गया लेकिन भारत स्थित कारखाने पर इन कमियों को दूर करने की कोशिश तक नहीं की गई। करे भी क्यों। भारतीय जनता अमरीकी थोड़े ही है, आखिर उस की कीमत ही क्या है? दुर्घटना के बाद एंडरसन भारत आया पकड़ा गया, उसी दिन उस की जमानत भी हो गई और फिर ....... राज्य सरकार के विमान में मेहमान बन कर दिल्ली पहुँचा और वहाँ से अमरीका पहुँच गया। अमरीका ने उसे मुकदमे का सामना करने के लिए भारत भेजने से इनकार कर दिया। अमरीका इनकार क्यों न करे? आखिर एंडरसन का कसूर ही क्या था? 
मरीका की सरकार में इतनी ताकत थी कि उस ने एंडरसन से कारखाने की कमियों को दूर करवा लिया। लेकिन हमारे देश की सरकार और व्यवस्था में इतनी ताकत कहाँ कि वह एंडरसन से यह सब करा सकता। और करा लेता तो शायद 25000 जानें नहीं जातीं और हजारों आजीवन बीमारी से लड़ने को अभिशप्त न होते। यदि एंडरसन रत्ती भर भी जिम्मेदार है तो हमारी सरकारें सेर भर की दोषी हैं, भोपाल हादसे के लिए। 
आज कांग्रेस पर उंगलियाँ उठ रही हैं, उठनी भी चाहिए, वह इस के दोष से नहीं बच सकती। लेकिन उस के बाद की सरकारें और मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। दो बार से मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। उस ने क्या किया इस मुकदमे में जल्दी निर्णय कराने के लिए? क्यों नहीं वह एक विशेष अदालत इस काम के लिए गठित कर सकती थी। उस ने क्या किया एंडरसन को भारत लाने के लिए। एंडरसन के लिए अदालत ने स्थाई वारंट जारी किया था। मध्यप्रदेश सरकार ने एंडरसन को ला कर अदालत के सामने पेश करने के क्या प्रयास किए? 
म यूँ लकीर पीटते रहे तो कभी जान नहीं सकते कि हमारे उन 25000  भाई-बहनों की मौत और हजारों को जीवन भर बीमार कर देने के लिए कौन जिम्मेदार था। हमें जान लेना चाहिए कि वास्तविक अपराधी कौन है। वास्तविक अपराधी हमारी यह व्यवस्था है जो जनता की सुरक्षा की परवाह नहीं करती। वह उन लोगों की  चिंता करती है जो पूंजी के सहारे जनता की बदहाली और जानों की कीमत पर मुनाफा कूटते हैं, वे चाहे देशी लोग हों या विदेशी। यह व्यवस्था उन की चाकर है। हमें वह व्यवस्था चाहिए जो जनता की परवाह करे, और इन मुनाफाखोरों और उस में अपना हिस्सा प्राप्त करने वाले लोगों पर नियंत्रित रखे।

गुरुवार, 10 जून 2010

श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

ज भास्कर में श्रवण गर्ग की विशेष टिप्पणी  "डर त्रासदी का नहीं भरोसा उठ जाने का है", मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। आप इस टिप्पणी को उस के शीर्षक पर चटका लगा कर पूरा पढ़ सकते हैं। यहाँ उस का अंतिम चरण प्रस्तुत है--

हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एंडरसन को भोपाल छोड़ने के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।
मुझे लगता है कि श्रवण जी ने अपनी बात कहने में बहुत कंजूसी बरती है। क्या इतने सारे तथ्य जनता के सामने आ जाने पर भी भरोसा कायम रह सकता है?  जनता का भरोसा तो बहुत पहले ही उठ चुका है। वह जानती है कि सरकारें उन की रत्ती भर भी परवाह नहीं करती हैं। जब भी बड़े पूंजीपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहीं उद्योग लगाती हैं तो वे केन्द्र और राज्य सरकारों से पहले अपनी शर्तें तय कर लेती हैं। सरकारें ये सब शर्तें इसलिए मानती हैं कि उन्हें चुनाव के पहले अपने इलाके के लोगों को एक तोहफा देना है। जिस से जनता में भ्रम रहे कि उद्योग लगेगा तो क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों को रोजगार मिलेंगे, उन पर आधारित धंधों में वृद्धि होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार तरक्की और रोजगार के आभासी पैकिंग में जनता को मौत और वर्षों की बीमारी बांट रही होती है। भोपाल हादसे के प्याज की जिस तरह परत दर परत खुलती जा रही है, देखने वालों की आँखें उसी तरह लाल होती जा रही हैं, कुछ अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्मों को देख कर और कुछ क्रोध से। बदबू फैल रही है, इतनी की नाक खुली रखना संभव नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस के सिवा दूसरे दलों के नेता खुश हैं कि हादसे के वक्त राज्य या केंद्र में उन की सरकार नहीं थी। वे इस की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के मत्थे मढ़ देना चाहते हैं। कुछ गली कूचे के राजनीति करने वाले विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि, और दो कांग्रेस को वोट, देख लिया उस का नतीजा। पर क्या केवल कांग्रेस ही इस के लिए जिम्मेदार है। क्या विपक्षी दलों का यह दायित्व नहीं था क्या कि वे शासन में बैठी कांग्रेस पर ठीक से निगरानी रखते। एक जिम्मेदार विपक्ष के होते ऐसा कदापि नहीं हो सकता था कि एक हजारों जानों के लिए घातक कारखाना सुरक्षा इंतजामों की परवाह किए बिना एक प्रदेश के राजधानी क्षेत्र के मध्य चल रहा था। हो सकता हो कि विपक्षी राजनेता इस से अनभिज्ञ रहे हों। लेकिन जब उसी शहर का एक सजग पत्रकार राजकुमार केसरवानी चाहे छोटे अखबारों में ही सही कारखाने की सचाई उजागर कर रहा था तो विपक्ष चुप क्यों बैठा था? उस ने आवाज क्यों नहीं उठाई। विपक्ष में इतना दम था कि वह सरकार को मजबूर कर सकता था कि कारखाने को सुरक्षा इंतजामत कर लेने तक बंद कर दिया जाए। बाद में जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय अखबार में भी वे रिपोर्टें छपीं लेकिन किसी पर उस का असर नहीं हुआ। वे रिपोर्टें तो केवल हादसे का इंतजार कर रही थीं। 
विपक्षी राजनैतिक दलों का यह चरित्र यूँ ही नहीं बन गया है। वास्तविकता यह है कि चाहे सरकार में बैठा दल हो या फिर विपक्ष में बैठे राजनेता। सभी जानते हैं कि सरकार तक पहुँचने के लिए यूनियन कार्बाइड के मालिकों जैसे उद्योगपति ही उन्हें सत्ता में पहुँचा सकते हैं। जनता के वोट का क्या उसे तो खरीदा जा सकता है जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता उन्हें बहकाया जा सकता है। यही हमारे लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। हम रोज देख रहे हैं कि नरेगा में पैसा आ रहा है। फर्जी मस्टररोलों के माध्यम से सरपंच उसे हड़प रहे हैं। पकड़े भी जा रहे हैं। उन में केवल सत्ताधारी दल के ही लोग नहीं हैं विपक्षी दलों के भी हैं और विपक्षी दलों के नेतृत्व उन्हें बचा रहे हैं। विपक्षी जानते हैं कि देश में निजि क्षेत्र के शायद ही किसी उद्योग में सुरक्षा इंतजामात पूरी तरह सही हैं। लेकिन किसी की सरकार हो उन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती। जब कारखाने के मजदूर या क्षेत्र की जनता आवाज उठाती है तो उन की आवाजों को दबा दिया जाता है। 1983 में छंटनी हुए कारखाना मजदूरों के मामलों में मजदूर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ कर जीत चुके हैं। अंतिम फैसला हुए आठ बरस हो चुके हैं। लेकिन उद्योगपति इस बीच अपना कारोबार समेट कर कंपनी को घाटे की दिखा कर उन के हक देने को मना कर रहे हैं और कंपनी के बची खुची संपत्ति को ठिकाने लगा कर उस से अपनी जेबें गरम करने में लगे हैं। इस की खबर विपक्षी को है। विपक्ष की सरकार रही है बीच में पाँच साल पर उस ने इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया। अब वह विपक्ष में है तो आवाज उठा रही है। जो आज सरकार में हैं वे पहले विपक्ष में थे तो वे आवाज उठा रहे थे। ये सरकार भोग रहे थे।  
तने पर भी जनता भरोसा करे तो किस पर करे? कोई तो दूध का धुला नहीं दिखाई देता है। वह असमंजस में है उस व्यक्ति की तरह जो किसी के भरोसे परदेस में आ गया है और वही उसे छोड़ कर गायब हो गया है। श्रवण जी!  भरोसा तो उठ चुका है, और किसी एक सरकार या राजनैतिक दल पर से नहीं। अब समूची व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है। आप को दिखाई नहीं देता, तो देख लें किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं, आदिवासी  नक्सलियों के साथ हथियार बंद हो, एक दल को नहीं समूचे मौजूदा भारतीय राज्य को चुनौती दे रहे हैं। यह भरोसे का उठ जाना नहीं तो क्या है?
वाल उठता है कि जब राजनीति में कीचड़ के सिवा कुछ न बचे तो कपड़े कैसे बचाएँ जाएँ, दलदल से कैसे बचा जाए?  मौजूदा राजनीति से कुछ निकलेगा यह संभव भी नहीं लगता। हमें राजनीति को परखते परखते साठ बरस होने को आए। हर बार भरोसा किया जाता है और हर बार भरोसा टूटता है। अब तो जनता के पास सिर्फ और सिर्फ अपना भरोसा शेष रहा है, उसे ही अपने भरोसे कुछ करना होगा। व्यवसायों के स्थान पर और मुहल्ला मुहल्ला अपने जनतांत्रिक संगठन खड़े करने होंगे। दगाबाज नेताओं को ठुकरा कर अपने नेता खुद खड़े करने होंगे। मौजूदा व्यवस्था से एक लंबी लड़ाई की शुरूआत करनी होगी। जनतांत्रिक संगठनों की लड़ाई ही इस कीचड़ में से हीरे निकाल कर वापस ला सकती है।
2. ब्लागवाणी पंसद लगाया या न लगाया?

शनिवार, 5 जून 2010

मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

विगत आलेख जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा पर आई टिप्पणियों ने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं, और मैं महसूस करता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर बात किया जाना चाहिए।  लेकिन पहले बात उन टिप्पणियों की जो विभिन्न ब्लागों पर की गईँ। लेकिन अपने सोच के आधार वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती हैं और बहुत मूल्यवान हैं। मैं 'समय' के ब्लाग "समय के साये में" की बात कर रहा हूँ। उन्हों ने दूसरे ब्लागों पर की गई कतिपय टिप्पणियों को अपने ब्लाग पर एकत्र कर एक नई पोस्ट लिखी है  - "टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४" आप चाहें तो वहाँ जा कर इन्हें पढ़ सकते हैं। वास्तव में दिमाग को कुछ न कुछ खुराक अवश्य ही प्राप्त होगी। 

डॉ. अरविंद मिश्र की टिप्पणी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए, उन की टिप्पणी इस प्रकार है-

 Arvind Mishra,  4 June 2010 6:11 AM
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
न की टिप्पणी की पहली पंक्ति ही इस प्रकार है -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
स का अली भाई ने उत्तर देने का प्रयास करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा -    किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो? धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
ली भाई ने वाद को पहले दर्शन और फिर धर्म से जोड़ा है। अब यह तो डॉ. अरविंद जी ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं कि उन का वाद शब्द का तात्पर्य क्या था। लेकिन वाद शब्द का जिस तरह व्यापक उपयोग देखने को मिलता है उस का सीधा संबंध दर्शन और धर्म से है। दर्शन इस जगत और उस के व्यवहार को समझने का तार्किक और श्रंखलाबद्ध दृष्टिकोण है। हम उस के माध्यम से जगत को समझते हैं कि वह कैसे चलता है। उस की अब तक की ज्ञात यात्रा क्या रही है? क्या नियम और शक्तियाँ हैं जो उस की यात्रा को संचालित करती हैं? इन सब के आधार पर जगत के बारे में व्यक्ति की समझ विकसित होती है जो उस की जीवन शैली को प्रभावित करती है। धर्म का आधार निश्चित रूप से एक दर्शन है जो एक विशिष्ठ जीवन शैली उत्पन्न करता है। लेकिन व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझ विकसित हो उस के पहले ही, ठीक उस के जन्म के साथ ही उस का संबंध एक जीवन शैली से स्थापित होने लगता है जो उस के परिवेश की जीवन शैली है। उसी जीवन शैली से वह अपनी प्रारंभिक समझ विकसित करता है। लेकिन एक अवस्था ऐसी भी उत्पन्न होती है जब वह अनेक दर्शनों के संपर्क में आता है, जो उसे यह विचारने को विवश करते हैं कि वह अपने परिवेश प्राप्त समझ में परिवर्तन लाए और उसे विकसित करे। यह विकसित होने वाली जीवन शैली पुनः व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करती है। इस तरह जीवन शैली और दर्शन के मध्य एक द्वंदात्मक संबंध मौजूद है।
डॉ. अरविंद मिश्र ने आगे पुनः कहा है - -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं। 
पहले उन्हों ने कहा था -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
मेरे विचार में वे दोनों स्थान पर एक ही बात कह रहे हैं। उन्हों ने यहाँ दो प्रकार की नीतियों का उल्लेख उल्लेख किया है, और जिस तरह किया है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि नीतियों के और भी प्रकार हो सकते हैं। उन के बारे में तो डॉ. अरविंद जी ही बता पाएँगे। लेकिन यहाँ जिस वाद शब्द का प्रयोग किया है उस का अर्थ कोई भी विचारधारा हो सकती है जिसे व्यक्तियों के समूहों ने अपनाया हो। वह धर्म भी हो सकता है और राजनैतिक विचारधारा भी। वस्तुतः धार्मिक और राजनैतिक विचारधाराओं में भेद करना कठिन काम है। ये दोनों एक दूसरे से नालबद्ध दिखाई पड़ते हैं। जहाँ तक राजनैतिक सोच और वाद का प्रश्न है ये दोनों एक ही हैं। उन पर आधारित अभियान या उन नीतियों पर चलने में कोई भेद नहीं है। भटकने और लंबे समय तक नहीं चल पाने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ये दोनों वाक्य इस बात को उद्घाटित करते हैं कि समय के साथ बदलती दुनिया में पुरानी विचारधारा अनुपयुक्त सिद्ध होती है और व्यक्ति और उन के समूह उस में परिवर्तन या विकास चाहते हैं।
डॉ. अरविंद जी ने यहाँ प्रायोजित शब्द का भी प्रयोग किया है। इस का अर्थ है कि कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं। राजनैतिक शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी इस बात को बहुत आसानी से समझता है कि सारी की सारी राजनीति वस्तुतः व्यक्तियों के समूहों के प्रायोजित अभियान ही हैं। प्रश्न सिर्फ उन समूहों के वर्गीकरण का है। कुछ लोग इन समूहों का वर्गीकरण धर्म, भाषा, लिंग आदि के आधार पर करते हैं, हालांकि हमारा संविधान यह कहता है कि इन आधारों पर राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन यह संविधान की लिखित बात है, पर्दे के पीछे और पर्दे पर यह सब खूब दिखाई देता है। एक दर्शन, विचारधारा और राजनीति वह भी है जो इन समूहों को आर्थिक वर्गों का नाम देती है। समाज में अनेक आर्थिक वर्ग हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति है, अंतराष्ट्रीय और विदेशी पूंजीपति है। जमींदार वर्ग है, औद्योगिक श्रमिक वर्ग है, एक सफेदपोश कार्मिकों का वर्ग है। किसानों में पूंजीवादी किसान है, साधारण किसान है और कृषि मजदूर हैं।  भिन्न भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पृथक-पृथक राजनीति भी है। सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक विचारधारा या दल नहीं हो सकता। क्यों कि विभिन्न वर्गों के स्वार्थ एक दूसरे के विपरीत हैं। स्वयं को सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सब के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल वस्तुतः मिथ्या भाषण करते हैं, और जनता के साथ धोखा करते हैं। वे वास्तव में किसी एक वर्ग या वर्गों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि जनता उन के झूठ को नहीं पहचानती है। इस झूठ का उद्घाटन भी व्यक्तियों को अपने विचार में परिवर्तन करने के लिए प्रभावित करता है।
डॉ. अरविंद जी ने आगे जो बात कही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं - मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। 
हाँ, उन से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है। किसी भी मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें ही वे मूल चीज हैं जो उस के विचारों और उन पर आधारित अभियानों को संचालित करती हैं। लेकिन अभियान एक व्यक्ति का तो नहीं होता। वास्तव में एक आर्थिक वर्ग के सदस्यों की ये मूलभूत जैवीय जरूरतें एक जैसी होती हैं जो उन में विचारों की समानता उत्पन्न करती हैं, एक दर्शन और एक राजनैतिक अभियान को जन्म देती हैं। इस तरह हम पाते हैं कि समूची राजनीति का आधार वर्ग  हैं, उस का चरित्र वर्गीय है। जब तक समाज में शासक वर्ग ही अल्पसंख्यक शोषक वर्गों से निर्मित है वह शोषण को बरकरार रखने के लिए उस का औचित्य सिद्ध करने वाली विचारधारा को प्रायोजित करता है। उस का यह छद्म अधिक दिनों तक नहीं टिकता और उसे अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विचारधारा के विभिन्न रूप उत्पन्न करने होते हैं।
डॉ अरविंद जी की टिप्पणी पर बात इतनी लंबी हो गई है कि शेष मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर बात फिर कभी।

रविवार, 10 जनवरी 2010

राजनीति और कूटनीति के सबक सीखती जनता

सुबह ग्यारह बजे कोर्ट परिसर के टाइपिस्टों की यूनियन के चुनाव थे। मुझे चुनाव में सहयोग करने के लिए ग्यारह बजे तक क्षार बाग पहुँच जाना था। लेकिन कई दिनों से टेलीफोन में हमिंग आ रही थी। दो दिनों से शाम से ही वह इतनी बढ़ जाती थी कि बात करना मुश्किल हो जाता था।  इसी लाइन पर ब्रॉडबैंड के पैरेलल एक टेलीफोन और था। जिस का उपयोग करने पर ब्रॉडबैंड का बाजा बज जाता था जो आसानी से बंद नहीं होता था। कल रात ही मैं ने शिकायत दर्ज करवा दी थी। सुबह साढ़े दस बजे जब क्षारबाग जाने के लिए निकलने वाला था तो टेलीफोन विभाग वालों का फोन आ गया। मैं ने यूनियन से अनुमति ली कि यदि मैं देरी से आऊँ तो चलेगा? उन्हों ने अनुमति दे दी। मैं ने दस वर्ष पहले मकान में बिछाई गई छिपी हुई लाइन का मोह छोड़ अपनी टेलीफोन लाइन टेलीफोन तक सीधी खुली प्रकार की लगवा दी और दोनों फोन उपकरण ब्रॉडबैंड के फिल्टर के बाद लगवा दिए।  दोनों उपकरण काम करने लगे। टेलीफोन को चैक किया तो हमिंग नहीं थी। मैं क्षार बाग चल दिया।

हाँ मत डालने का काम आरंभ हो चुका था। तीन बजे तक मत डालने का समय था। इस बीच आमोद-प्रमोद चलता रहा। पकौड़ियाँ बनवा कर खाई गईं। कुल 65 मतदाता थे। ढाई बजे तक सब ने मत डाल दिए। तो मतों की गिनती को तीन बजे तक रोकने का कोई अर्थ नहीं था। हमने मत गिने। तो जगदीश भाई केवल पंद्रह मतों से जीत गए। वे कम से कम पैंतालीस मतों से विजयी होने का विश्वास लिए हुए थे। वे कई वर्षों से अध्यक्ष चले आ रहे हैं। पर परिणाम ने बता दिया था कि परिवर्तन की बयार चल निकली है। 25 और 40 मतों का ध्रुवीकरण अच्छा नहीं था। किसी बात पर मतभेद यूनियन को सर्वसम्मत रीति से चलाने में बाधक हो सकता था। सभी मतदाताओं में राय बनने लगी कि 25 मत प्राप्त करने का भी कोई तो महत्व होना चाहिए। कार्यकारिणी में एक पद वरिष्ठ उपाध्यक्ष का और सृजित किया गया जिस पर सभी 65 मतदाताओं ने स्वीकृति की मुहर लगा दी। मैं चकित था कि अब राजनीति के साथ साधारण लोग भी कूटनीति को समझने लगे हैं।
स घटना ने समझाया कि कैसे किसी संस्था को चलाया जाना चाहिए। इस तरह अल्पमत वाले 25 लोग भी संतुष्ट हो गए थे। जिस से यूनियन के मामलों में सर्वसम्मति बनाने में आसानी होगी। क्षार बाग  किशोर सागर सरोवर की निचली ओर है। इस विशाल बाग के एक कोने में कोटा के पूर्व महाराजाओं की अंतिम शरणस्थली है जहाँ उन की स्मृति में कलात्मक छतरियाँ बनी हैं। यहीं कलादीर्घा और संग्रहालय हैं। इसी में  एक कृत्रिम झील  बनी है जो सदैव पानी से भरी रहती है। हम लोगों का मुकाम इसी झील के इस किनारे पर बने एक मंदिर परिसर में था जो बाग का ही एक भाग है। झील में पैडल बोटस्  थीं, बाग में घूमने वाले लोग उस का आनंद ले रहे थे। झील में 15 बत्तखें तैर रही थीं। कि किनारे पर एक कुत्ता आ खड़ा हुआ बत्तखों को देखने लगा। उसकी नजरों में शायद खोट देख कर सारी बत्तखें किनारे के नजदीक आ कर चिल्लाने लगीं। कुत्ता कुछ ही देर में वहाँ से हट गया। बत्तखें फिर से स्वच्छन्द तैरने लगीं। सभी इन दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि भोजन तैयार हो गया। मैं ने भी सब के साथ भोजन किया और घर लौट आया।

र लौट कर फोन को जाँचा तो वहाँ फिर हमिंग थी और इतनी गहरी कि कुछ भी सुन पाना कठिन था।  साढ़े चार बजे थे। मैं ने टेलीफोन विभाग में संपर्क किया तो पता लगा अभी सहायक अभियंता बैठे हैं। कहने लगे फोन उपकरण बदलना पड़ेगा। यदि संभव हो तो आप आ कर बदल जाएँ। कल रविवार का अवकाश है। मैं पास ही टेलीफोन के दफ्तर गया और कुछ ही समय में बदल कर नया उपकरण ले आया। उसे लाइन पर लगाते ही हमिंग एकदम गायब हो गई। उपकरण को देखा तो  प्रसन्नता हुई कि यह मुक्तहस्त भी  है। अब मैं काम करते हुए भी बिना हाथ को या अपनी गर्दन को कोई तकलीफ दिए टेलीफोन का प्रयोग कर सकता हूँ। शाम को कुछ मुवक्किलों के साथ कुछ वकालती काम निपटा कर रात नौ बजे दूध लेने गया तो ठंडक कल से अधिक महसूस हुई। वापसी पर महसूस किया कि कोहरा जमने लगा है। स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला कि शायद कल लगातार तीसरी सुबह फिर  अच्छा कोहरा देखने को मिलेगा। सुखद बात यह है कि कोहरा दिन के पूर्वार्ध में छट जाता है और शेष पूर्वार्ध में धूप खिली रहती है। जिस में बैठना, लेटना, खेलना और काम करना सुखद लगता है। आज की योजना ऐसी ही है। कल दोपहर के भोजन के बाद छत पर सुहानी धूप में शीत का आनंद लेते हुए काम किया जाए, और कुछ आराम भी।

चित्र  1- किशोर सागर सरोवर में बोटिंग, 2- क्षार बाग की छतरियाँ

सोमवार, 16 नवंबर 2009

किस ने दिया कीचड़ उछालने का अवसर?


चिन तेंदुलकर के ताजा बयान से  निश्चित रूप से शिवसेना  और मनसे  की परेशानी बढ़नी  थी। दोनों ही दलों की  राजनीति जनता  को किसी भी रूप में बाँटने  उन में एक  दूसरे  के प्रति  गुस्सा पैदा कर अपने हित साधने  की  रही है। दोनों दल इस  से कभी बाहर नहीं निकल सके, और न ही कभी निकल पाएँगे। बाल ठाकरे का  सामना में लिखा  गए  आलेख  से सचिन का तो क्या बनना बिगड़ना है? पर उन का यह आकलन तो सही सिद्ध  हो ही गया कि  पिटी हुई शिवसेना को  और ठाकरे को  इस  से मीडिया बाजार में कुछ भाव मिल जाएगा। मीडिया ने  उन्हें यह भाव दे  ही  दिया।  इस बहाने मीडिया काँग्रेस और कुछ अन्य  दलों के जिन जिन नेताओं  को भाव देना चाहती थी उन्हें भी उस का अवसर मिल गया। लेकिन जिन कारणों से तुच्छ  राजनीति करने वाले लोगों को  अपनी राजनीति  करने का अवसर मिलता है, उन पर मीडिया चुप ही रहा।
  
भारत  देश, जिस के पास अपार प्राकृतिक संपदा है, दुनिया के  श्रेष्ठतम  तकनीकी लोग हैं, जन-बल  है, वह अपने इन साधनों के सुनियोजन से दुनिया की किसी भी शक्ति को चुनौती दे सकता  है।  वह पूँजी के लिए दुनिया की तरफ कातर निगाहों से देखता है। क्या देश के अपने साधन दुनिया  की पूँजी का मुकाबला नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं। आजादी के 62 वर्षों के बाद  भी हम अपने लोगों के लिए पर्याप्त  रोजगार उपलब्ध  नहीं करा सके। वस्तुतः हमने इस ओर ईमानदार प्रयास ही नहीं किए। अब पिछले 20-25 वर्षों  से तो हम ने इस काम को पूरी तरह से निजि पूँजी और बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर दिया  है। यदि हमारे कथित राष्ट्रीय दलों ने जो केंद्र की सत्ता  में भागीदारी कर चुके हैं और आंज भी भागीदार  हैं, बेरोजगारी की समस्या को हल करने में अपनी पर्याप्त रुचि दिखाई होती तो देश को बाँटने वाली इस तुच्छ राजनीति का  कभी का पटाक्षेप  हो गया होता। यह देश में  बढ़ती बेरोजगारी  ही है जो देश की जनता को जाति, क्षेत्र, प्रांत,  धर्म  आदि के आधार पर बाँटने का अवसर  प्रदान  करती है।

चिन जैसे व्यक्तित्वों पर कीचड़ उलीचने की जो हिम्मत  ये तुच्छ राजनीतिज्ञ कर पाते हैं उस के लिए काँग्रेस और भाजपा जैसे हमारे कथित  राष्ट्रीय दल अधिक जिम्मेदार  हैं।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

नूरा कुश्ती!

उद्धव ठाकरे!
भाग्यशाली हैं!

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अनपेक्षित असफलता ने उन्हें बे-काम कर दिया था।
'जमीयत उलेमा ए हिंद' द्वारा वंदेमातरम् को इस्लाम के खुदा के अतिरिक्त किसी की वंदना न करने के सिद्धांत के विपरीत घोषित करने के निर्णय ने उन्हें काम दे दिया है। 

अब महाराष्ट्र में वंदे मातरम् के बोर्ड लगेंगे।

वंदे मातरम् तो मराठी भाषा में नहीं है।

राज ठाकरे कैसे बर्दाश्त कर पाएँगे?

फिर नूरा कुश्ती की तैयारी है,
देखते हैं आगे आगे होता है क्या?