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शुक्रवार, 27 मार्च 2020

कोविद-19 महामारी, चीन, अमरीका और दुनिया के देश



चीन पर कोविद-19 वायरस को जन्म देने के लिए चीन पर सन्देह व्यक्त करने के लिए चीन ने ट्रम्प को बुरी तरह लताड़ा है। सीएनए की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में  85505 लोग कोविद-19 से प्रमाणित रूप से संक्रमित हो चुके हैं। यह लेख लिखने तक उन की संख्या में और वृद्धि हो चुकी होगी। जहाँ संक्रमित लोगों के स्वस्थ होने वालों की संख्या 681 और मरने वालों की संख्या 1288 है। अमरीका की स्थिति से ऐसा प्रतीत होता है कि जल्दी ही कोविद-19 से प्रभावितों और मरने वालों की संख्या में वह दुनिया के सभी देशों के रिकार्ड को चन्द दिनों में ही पीछे छोड़ देगा। भले ही अमरीकी सरकार को जनता चुनती हो और दुनिया का सर्वोत्तम जनतन्त्र होने का लगातार ढोल पीटती हो। लेकिन अब कोविद-19 से निपटने के उसके तरीके से यह स्पष्ट हो रह है कि वहाँ की सरकार पर अमरीकी पूंजीपतियों का नियन्त्रण बहुत मजबूत है। वहाँ जनता के नहीं बल्कि पूंजीपतियों के हित सर्वोपरि हैं।

चीन से आने वाली रिपोर्टों से पता लगता है कि उन्हों ने कोविद-19 के संक्रमण को अच्छी तरह से नियन्त्रित कर लिया है। दस दिन पहले भारत से चीन लौटने वाले एक व्यापारी ने सोशल मीडिया पर अपना अनुभव शेयर करते हुए कहा है कि चीन में एयरपोर्ट से अपने फ्लैट तक पहुँचने तक उसे अनेक बार स्क्रीनिंग से गुजरना पड़ा। प्लेन से उतरते ही, बस में बैठने के पहले, बस से उतरते ही,  स्टेशन में घुसने के पहले, ट्रेन में बैठने के पहले, ट्रेन में, ट्रेन से उतरने के तुरन्त बाद स्टेशन पर, टैक्सी में बैठने के पहले, सोसायटी के प्रवेश द्वार पर, फिर अपनी बिल्डिंग में लिफ्ट में प्रवेश करने के पहले उसकी स्क्रीनिंग हुई। शायद किसी भी अन्य देश में इतनी बड़ी तादाद में होना संभव नहीं है। उन्हों ने कोविद-19 वायरस की जन्मस्थली वुहान शहर की ओद्योगिक गतिविधियाँ पुनः आरम्भ कर दीं हैं। उद्योगपति, व्यापारी, विद्यार्थी और अन्य लोग जो संक्रमण के कारण चीन छोड़ गए थे वापस चीन और वुहान वापस लौटने लगे हैं। चीन में रह रहे भारतीय सुभम पाल के अनुभव को आज राजस्थान पत्रिका ने अपने संपादकीय पृष्ठ के अग्रलेख का स्थान दिया है उसे पढ़ें और समझें कि चीन कैसे इस महामारी पर नियंत्रण किया है  और इस महामारी से लड़ने का सही तरीका क्या होना चाहिए।

कल मेरी बेटी ने मुझे बताया कि चीन में कोविद-19 के संक्रमण से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक होने की संभावना व्यक्त की जा रही है जिसका आधार यह है कि वहाँ दिसम्बर से अभी तक 70 लाख से अधिक सेलफोन और 8 लाख से अधिक बेसिक फोन कनेक्शन बन्द हुए हैं।  यह सन्देह खुद चीन सरकार द्वारा जारी किए गए अधिकारिक आँकड़ों पर आधारित हैं। चीन ने उस पर व्यक्त किए जा रहे इस सन्देह पर अभी तक कोई बयान नहीं दिया है। लेकिन अनेक विष्लेषकोंल ने  यह बताया है कि बन्द टेलीफोन कनेक्शनों की यह संख्या असाधारण नहीं है। चीन में बन्द हुए टेलीफोन कनेक्शनों की यह संख्या जो एक करोड़ से भी कम है वहाँ के कुल टेलीफोन कनेक्शनों की संख्या 162 करोड़ के मुकाबले मात्र आधा प्रतिशत है और नगण्य है। कोविद-19 से निपटने के क्रम में लाखों आप्रवासी मजदूर अपने काम के नगरों और प्रान्तों से अपने प्रान्तों में अपने गाँवों को लौट गए हैं और हजारों छोटी औद्योगिक इकाइयाँ और व्यापारिक प्रतिष्ठान बन्द हुई हैं। चीन में एक व्यक्ति को पाँच सेलफोन तक उपयोग करने की छूट है। आय के बन्द या कम होने और बचत किए जाने के लिए ये टेलीफोन बन्द किए गए हो सकते हैं।

आज सोशल मीडिया में कुछ पोस्टें ऐसे लोगों की हैं जो अमरीका को दुनिया में जनतंत्र का ईश्वर मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि यह वायरस चीन सरकार का षड़यन्त्र है। और यदि चीन के स्थान पर कोई साधारण देश होता तो अमरीका वहाँ डेमोक्रेसी लाने पहुँच चुका होता। तो अमरीका के डेमोक्रेसी का भगवान होने सच यह है कि उस ने अब तक कहीं जनतन्त्र नहीं बनाया। जहाँ भी उसने जनतंत्र के नाम पर हस्तक्षेप किया, वहाँ अपनी दलाल सरकार बना कर लौटा। हाल ही में अफगानिस्तान का उदाहरण देखें। वह उसे फिर से उन्हीं कबीलावादी तालिबान के हाथों सौंप चुका है और तालिबान की छाया के तले वहाँ आईएस ने सिखों को कत्ल कर दिया है।

अमरीका जहाँ भी जाता है उस देश को वह राजशाही में, कबीलाई हालत में फिर तानाशाही में बदल देता है। अमरीका के तथाकथित शासक खुद भी अपने जनतंत्र से कम नहीं डरते। ट्रम्प की जनतंत्र के प्रति बिलबिलाहट बार-बार प्रकट होती है और वैश्विक समाचार बन जाती है। ट्रम्प का बस चले तो वह अमरीका का फ्यूहरर बन जाए। अमरीका और उसके जनतंत्र पर मर मिटने की हद तक फिदा लोगों के सन्देह कम्युनिस्ट शब्द से उन के मन में साम्राज्यवादी-पूंजीवादी मीडिया द्वारा पैदा किए गए भय का परिणाम हैं। दुनिया के कुल मीडिया के 95 प्रतिशत पर साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों का कब्जा है। वे नए नए आँकड़े रचते हैं, अधिकारिक आँकड़ों का विश्लेषण मान्य स्टेटिकल रीति से करने के स्थान पर सन्देहपूर्ण तरीकों से करते हुए तमाम समाजवादी, साम्यवादी, जनप्रतिबद्ध ताकतों के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए करते हैं और दुनिया भर में झूठ फैलाते हैं। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतें यह काम पिछली सदी के आरंभ में हुए पहले विश्वयुद्ध के समय से खूब कर रहा है।

हम आज की बात करें तो कथित जनतंत्र के भगवान अमरीका के कोविद-19 से निपटने के तरीकों  के सामने आने के बाद मैं यह मानने लगा हूँ कि यह दुनिया का सौभाग्य और कौविद-19 का दुर्भाग्य था कि वह चीन में पैदा हो गया। यदि उसने इटली, स्पेन, अमरीका या किसी अन्य पूंजीवादी देश में जन्म लिया होता तो सारी दुनिया अब तक इससे उत्पन्न महामारी से घायल पड़ी होती। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में पूंजीवाद को समाजवाद की और धकेलते चीन ने इस वायरस के विरुद्ध लड़ाई को पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की और उस पर सफलता पूर्वक नियंत्रण पाया। दूसरा समाजवादी देश क्यूबा है जिस क्रूज को कोई देश अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की इजाजत नहीं दे रहा था उसे क्यूबा ने पनाह दी और संक्रमित लोगों का इलाज किया। अब जिस के डाक्टर्स अनेक देशों में जा कर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बनी केरल राज्य की सरकार है जिस ने भारत में सब से बेहतर तरीके से इस वायरस पर नियंत्रण पाया है।

जिन लोगों को जनतंत्र के भगवान अमरीका पर बहुत विश्वास है, और जो पहला अवसर मिलते ही तो वहाँ पलायन करने कौ तैयार बैठे रहते हैं। उसी अमरीका में कोविद-19 की महामारी से मरने वालों की संख्या बहुत तेजी से रिकार्ड तोड़ रही है। केवल साम्यवादी और समाजवादी ही हैं जो इस महामारी से सबसे बेहतर रीति से लड़ते हुए न केवल अपने अपने देशों की जनता की रक्षा कर रहे हैं। अपितु वे दूसरे देशों की मदद कर रहे हैं।  

गुरुवार, 5 मार्च 2020

मजदूर वर्ग के लिए न्याय की समाप्ति


न्याय की स्थिति बहुत बुरी है। विशेष रुप से मजदूर वर्ग के लिए। आज मेरी कार्यसूची में दो मुकदमे अंतिम बहस के लिए थे। इन दोनों मामलों में प्रार्थी मजदूर हैं, जिनके मुकदमे 2008 से अदालत में लंबित हैं। हालाँकि श्रम न्यायालय में जाने के पहले इन मजदूरों ने श्रम विभाग में अपनी शिकायत पेश की थी। वहाँ कोई समझौता न होने पर राज्य सरकार को रिपोर्ट भेजी गयी थी और तब ये मुकदमे सरकार ने श्रम न्यायालय को निर्णय के लिए भेजे। इस तरह इन्हें मुकदमा लड़ते-लड़ते 14 वर्ष से अधिक हो गए हैं।

इन दोनों मुकदमों में आज केवल इसलिए पेशी दे दी गई क्योंकि अभी भी अदालत में 20 वर्ष से पुराने अर्थात 1999 तक दायर किए गए अनेक मुकदमें लंबित हैं और पहले उनका निपटारा किया जाएगा। मुझे लगता है कि अभी इन दोनों मजदूरों को कम से कम साल 2-3 साल और इंतजार करना पड़ेगा तब जाकर उन्हें श्रम न्यायालय से निर्णय हासिल होगा।

श्रम न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। राज्य सरकार के अनुरोध पर इन न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय करता है। कोटा के श्रम न्यायालय में यह स्थिति अनेक वर्ष से बनी हुई है, यही स्थिति राजस्थान के अन्य न्यायालयों में भी कई सालों से बनी हुई है। इस स्थिति का लाभ पूंजीपतियों, सरकार और सार्वजिनिक क्षेत्र के उद्योगों को मिलता है। शीघ्र न्याय के लिए यह आवश्यक है कि यहां एक श्रम न्यायालय और स्थापित किया जाए। शीघ्र न्याय के लिए यह स्वयं सरकार को सोचना चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि इस अदालत में स्टेनो और रीडर दोनों 2 वर्ष पूर्व ही रिटायर हो चुके हैं। लेकिन उनके स्थान पर दूसरे व्यक्ति अभी पद स्थापित नहीं किए गए हैं और सेवानिवृत्त दोनों कर्मचारियों को ही एक्सपेंशन दिया हुआ है। यदि इस वर्ष इन्हें तीसरे वर्ष के लिए एक्सटेंशन नहीं दिया गया तो अदालत की स्थिति और बुरी हो जाएगी सरकार की सोच इस मामले में सिर्फ यह है कि सरकार और खर्च वहन करने में सक्षम नहीं है।

फिलहाल राजस्थान में कांग्रेस सरकार है। लेकिन यह स्थिति पिछले 15 वर्ष से बनी हुई है। इस बीच दो बार भाजपा सरकार और इस बार फिर दूसरी बार राज्य सरकार कांग्रेस की है। लेकिन दोनों को इसकी कभी कोई फ्रिक नहीं रही। दोनों ही पार्टियाँ मूलतः पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगी हैं। ऐसी पूंजीपति परस्त सरकारें जो न्याय के लिए पर्याप्त न्यायालय तक भी नहीं दे सकती हैं, क्या उन्हें बने रहने का अधिकार भी रह गया है?

पहले उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय इस सिद्धान्त पर चल रहे थे कि किसी को नौकरी से निकालना गलत पाया जाए तो उसे पिछले पूरे वेतन सहित सेवा में बहाल किया जाए। केवल नियोजक द्वारा यह साबित कर देने पर कि सेवा से हटाए जाने के बाद मजदूर लाभकारी नियोजन में रहा है तो उस के पिछले वेतन के लाभ को उसी अनुपात में कम किया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे इन बड़े न्यायालयों में उच्च मध्यवर्ग से आए जजों की संख्या बढ़ी है। इस सिद्धान्त को खारिज किए बिना ही नया सिद्धान्त यह स्थापित कर दिया गया है कि मुकदमे की लंबाई अधिक (10-20 वर्ष) हो जाने के कारण सेवा में पुनर्स्थापित किया जाना जरूरी नहीं है और केवल 1 से 2 लाख के बीच धनराशि दे देने से मजदूर को न्याय मिल जाएगा।

इस तरह एक तरह से मजदूर को न्याय देने का जो दिखावटी काम पूंजीवादी लोकतन्त्र करता है उसे भी कायदे से बत्ती लगा दी गयी है और उनके लिए तैयार न्याय व्यवस्था का पुतला धू-धू कर जल रहा है। यह तो मेहनतकश जनता के सोचने का विषय है कि वह ऐसे में क्या करे? इस स्थिति का उपाय यही है कि मजदूर वर्ग संगठित हो कर किसानों, छोटे दुकानदारो, बेरोजगार छात्रों आदि के साथ भाईचारा स्थापित करते हुए पूंजीपति वर्ग की सत्ता को उलट दे और अपने नेतृत्व में मेहनतकश जनता का जनतंत्र स्थापित करे।

रविवार, 8 सितंबर 2019

जज

सबसे बुरा तब लगता है जब जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने इजलास में किसी मजदूर से कहता है कि "फैक्ट्रियाँ तुम जैसे मजदूरों के कारण बन्द हुई हैं या हो रही हैं"।

40 साल से अधिक की वकालत में अनगिन मौके आए जब यह बात जज की कुर्सी से मेरे कान में पड़ी। हर बार मेरे कानों से गुजर कर मस्तिष्क तक पहुँचे ये शब्द अंदर एक विस्फोट कर डालते हैं। यह सोच भी तभी तुरन्त प्रतिक्रिया स्वरूप आती है कि इस विस्फोट की गर्मी को शान्त करो, तुम किसी जनतांत्रिक अदालत में नहीं बल्कि पूंजीपतियों, जमींदारों के पोषक राज्य की अदालत में खड़े हो। यह अदालत प्रतिवाद का उत्तर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के आरोप, सुनवाई और सजा से दे सकती है। गुस्सा कभी अदालत पर नहीं आता। आता है उस व्यक्ति पर जो सिर से ऊंची पीठ वाली कुर्सी पर बैठता है। जिस ने भले ही प्रेमचंद की "पंच परमेश्वर" कहानी पढ़ी हो, पर उस पंच जैसा बनने की खुद की कोशिश को जरा देर में नाकामयाब बना देता है। 

मैं यहाँ उन व्यक्तियों की बात नहीां करता जो उस उँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय का सौदा करते हैं, कैश में या काइंड में। लेकिन उन की बात कर रहा हूँ जो पूरी ईमानदारी से, पूरी शुचिता के साथ उस ऊँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय करना चाहते हैं। लेकिन वे अपनी वर्गीय स्थिति का क्या करें? वे ज्यादातर उच्च और उच्च मध्यवर्ग से आते हैं, कुछ निम्नमध्यवर्ग से भी। इन तमाम वर्गों के लोगों की सामान्य कोशिश यही रहती है कि किसी तरह मेहनत कर के, किसी तिकड़म से, और यहाँ तक कि परिवार की जमा पूंजी को बत्ती लगा कर, ऊपर से कर्जा लेकर भी अपने वर्ग से ऊपर के वर्ग में स्थान बना लें। बमुश्किल उन में से कुछ लोगों को कामयाबी मिलती है। वे डाक्टर, इंजीनयर, सरकारी अफसर, जज वगैरा बन पाते हैं। इस कोशिश में ज्यादातर पराजित हो कर निचले वर्ग में पहुँच जाते हैं। बहुत लोग मजदूर भी हो जाते हैं लेकिन वहाँ भी उन की मानसिकता उन्हीं टटपूंजिया वर्गों की जैसी बनी रहती है, जिन से वे आए हैं। हमारे पूंजीवादी सामंती समाज का सुपरस्ट्रक्चर उन्हें अपने पानी से भरे पूल में सतह से ऊपर सिर निकाल कर साँस लेने का अवसर ही नहीं देता। 

इस तरह के वाक्य जब ऊंची कुर्सी से कान में पड़ते हैं तो मैं तुरन्त जवाब देने से बचने की कोशिश करता हूँ। बाद में किसी मौके पर उसका प्रतिवाद भी करता हूँ। पर जब उस कुर्सी पर ईमानदारी से काम करते हुए व्यक्ति से ऐसा वाक्य सुनने को मिलता है, जिन से थोड़ी बहुत आशा मैं और मजदूर करने लगते हैं, तो चुप नहीं रहा जाता, भिड़न्त हो ही जाती है। कुछ दिन पहले फिर एक भिड़न्त हो गयी। मैंने कहा- आप ने तो वर्डिक्ट ही सुना दिया। पूरे वर्ग को दोषी ठहरा दिया। कोई गवाह नहीं, सबूत नहीं, बस हवा की सूली पर टांक दिया। अब जब तक वह मरेगा नहीें तब तक सोचता रहेगा कि यह केवल और केवल मजदूर वर्ग में पैदा होने का अभिशाप / कलंक है जो इस राज्य में कभी नहीां धुल सकता। आप किसी भी मुकदमे में इस बात को कभी साबित नहीं कर सकते कि किसी एक या अधिक मजदूरों के कारण कोई कारखाना बंद हुआ है। कारखाना पूंजीपति और उनकी सरकारों की इच्छा से खुलते हैं और उन्हीं की मर्जी से बन्द होते हैं। वे बस प्रोपेगण्डा करते हैं कि मजदूरों की वजह से कारखाने बंद होते हैं। खैर, भिड़न्त हो गयी। फिर कुर्सी ने उस विवाद से पल्ला झाड़ लिया। 

यह पूंजीवादी सामंती राज्य किसी हालत में मजदूरों, किसानों और मजलूमों के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता। उस की कोई अदालत उन के साथ इंसाफ नहीं कर सकती। वे बनी ही इसलिए हैं कि वे इन वर्गों के असंतोष को किसी तरह दबाए रखें, उलझाए रखें। उस की आँच उस के मालिकों तक पहुँचे ही नहीं। इस राज्य में मजदूरोे किसानों का न्याय प्राप्ति की आशा करना ही व्यर्थ है। इस व्यवस्था के जज अखबारों को "मजदूर को न्याय मिला" जैसी खबरों से भरने के लिए मसाला जरूर पैदा करते हैं। लेकिन वे मजदूरों किसानों के साथ न्याय कर के वे वर्ग स्वामियों को नुकसान कैसे पहुँचा सकते हैं? वे तो उनके सब से बहुमूल्य सेवक हैं। वे इस व्यवस्था की "शॉक एब्जोर्बर" मात्र हैं।
- दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?

भारतीय परिस्थितियों में एक सवाल हमेशा खड़ा किया जाता है कि क्या अब कम्युनिस्ट पार्टी का संसदीय गतिविधियों में भाग लेना उचित रह गया है? इस प्रश्न का उत्तर हमें सोवियत क्रांति के नेता ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन की वामपंथी कम्युनिज़्म को क्रान्ति के लिए ग़लत मानते हुए उस की व्याख्या और आलोचना करते हुए लिखी गयी चर्चित पुस्तिका "वामपंथी कम्यूुनिज़्म एक बचकाना मर्ज" के सातवें अध्याय में मिलता है। यहाँ इस पुस्तिका का सातवाँ अध्याय अविकल रूप से प्रस्तुत है-

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?
 (“वामपंथी कम्युनिज्म – बचकाना मर्ज पुस्तिका का सातवाँ अध्याय)
- ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन



जर्मन “वामपंथी" कम्युनिस्ट अत्यधिक तिरस्कार के साथ - और गम्भीरता के अत्यधिक प्रभाव के साथ - इस प्रश्न का जवाब देते हैं। 'उनके तर्क? ऊपर हम जो अंश उद्धृत कर चुके हैं। उसमें लिखा है।

"... संसदीय पद्धति के ऐतिहासिक और राजनैतिक दृष्टि से कालातीत संघर्ष रूपों की ओर वापसी को हमें सारी दृढ़ता के साथ त्याग देना चाहिए।

कितने बेतुके दर्प के साथ यह बात कही गयी है और यह बात स्पष्टतः गलत है। संसदीय पद्धति की ओर "वापसी!" क्या जर्मनी में सोवियत जनतंत्र कायम हो चुका है? ऐसा लगता तो नहीं! तो "वापसी का जिक्र कहां से आ गया? क्या यह एक खोखला फ़िकर नहीं है?

"ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत'' संसदीय पद्धति - प्रचार के खयाल से ऐसा कहना सही है। पर हर कोई जानता है कि व्यवहार में उसे पार करना अभी बहुत दूर है। पूंजीवाद के बारे में हम दसियों बरस पहले पूर्ण अधिकार के साथ यह घोषणा कर सकते थे कि वह "ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गया है, पर उससे बहुत लम्बे समय तक और बहुत डटकर पूंजीवाद की धरती पर लड़ने की आवश्यकता नहीं मिट जाती। संसदीय पद्धति “ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गई है - यह बात विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से सही है, अर्थात् पूंजीवादी संसदीय पद्धति का युग समाप्त हो गया है और सर्वहारा अधिनायकत्व का युग आरम्भ हो गया है। यह बात निर्विवाद है। परन्तु विश्व-इतिहास दशकों में हिसाब गाता है। विश्व-इतिहास के मापदंड से मापने पर दस-बीस वर्ष के देर सबेर से कोई अन्तर नहीं पड़ता, विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से वह इतनी छोटी अवधि होती है कि उसका मोटे तौर से भी हिसाब नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि व्यावहारिक राजनीति को विश्व-इतिहास के मापदंड से मापना एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक ग़लती है।

क्या संसदीय पद्धति "राजनीतिक दृष्टि से कालातीत' हो गयी है? यह एक बिलकुल दूसरा पहलू है। यदि यह बात सच होती, तो “वामपंथियों” की स्थिति बहुत मजबूत हो जाती। परन्तु इस बात को साबित करने के लिए बहुत खोजबीन के साथ विश्लेषण करना होगा और “वामपंथी” तो यह भी नहीं जानते कि विश्लेषण किस ढंग से किया जाये। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अमस्टर्डम के अस्थायी ब्यूरो की बुलेटिन (Bulletin of the Provisional Bureau in Amsterdam of the Communist Internationals, February* 1920) के अंक 1 में प्रकाशित * संसदीय पद्धति के बारे में कुछ प्रतिपत्तियाँ' शीर्षक लेख में जो विश्लेषण किया गया है, उसमें डच वामपंथियों या वामपंथी उचों की प्रवृत्ति स्पष्टतः दीख रही है और वह भी बहुत ही खराब है, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे।

पहली बात यह है कि जैसा कि मालूम है रोजा लक्जेमबुर्ग तथा कार्ल लोकनेत जैसे महान राजनैतिक नेताओं के मत के विपरीत जर्मन “वामपंथियों ने जनवरी, 1916 में ही माना कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी थी। हम यह भी जानते हैं कि *वामपंथियों का यह मत ग़लत था। यह अकेला तथ्य एक ही बार में इस पूरे विचार को एकदम नष्ट कर देता है कि संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" हो गयी है। अब वामपंथियों की जिम्मेदारी है कि वे यह साबित करें कि जो बात उस वक्त अकाट्य रूप से गलत थी, अब क्यों गलत नहीं है। इसका वे जरा सा भी सबूत नहीं देते और न दे सकते हैं। किसी राजनैतिक पार्टी में कितनी लगन है, अपने वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के प्रति अपने कर्तव्यों का वह व्यवहार में कैसे पालन करती है। इसे जांचने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अचूक तरीक़ा यह देखना है कि उस पार्टी का स्वयं अपनी गलतियों के प्रति क्या रवैया है। गलती को खुले-आम स्वीकार करना, उसके कारणों का पता लगाना, जिन परिस्थितियों में वह ग़लती हुई थी उनकी छानबीन करना और उसे सुधारने के उपायों पर ध्यानपूर्वक विचार करना - यही गम्भीर पार्टी के लक्षण हैं, यही उसका अपना कर्तव्य पालन करने का मार्ग है, यही पहले वर्ग और फिर जनसाधारण का प्रशिक्षण है। अपने इस कर्तव्य का पालन न करके, अपनी स्पष्ट भूलों का अधिक से अधिक ध्यान, सावधानी तथा गम्भीरता से अध्ययन न करके, जर्मनी (और हालैंड) के 'वामपंथियों ने यह साबित कर दिया है कि वे वर्ग की पार्टी नहीं हैं, बल्कि मंडली मात्र हैं, कि वे जनसाधारण पार्टी नहीं हैं, बल्कि बुद्धिजीवियों तथा चन्द ऐसे मजदूरों का दल है जो बुद्धिजीवियों के सबसे खराब अवगुणों की नक़ल करते हैं।

दूसरे, फ्रैंकफुर्ट के “वामपंथियों की उसी पुस्तिका में, जिसमें से कुछ अंश हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं, यह भी लिखा है :
"... जो लाखों मज़दूर आज भी मध्य मार्ग "(कैथोलिक "मध्यमार्गीय" पार्टी)" की नीति का समर्थन करते हैं, वे क्रान्तिविरोधी हैं। गांवों के सर्वहारागण में से क्रान्ति-विरोधी सैनिकों की पलटनें भरती की जाती हैं' (उपरोक्त पुस्तिका का तीसरा पृष्ठ)।
हर वाक्य यही बताता है कि इस कथन में बड़ी अतिशयोक्ति से काम लिया गया है। पर इसमें कही गयी बुनियादी बात निर्विवाद रूप से सच है और “वामपंथियों ने इसे मानकर साफ़ तौर से अपनी गलती साबित कर दी है। जब “लाखों" सर्वहारागण उनकी पूरी की पूरी "पलटनें" अभी तक न सिर्फ संसदीय पद्धति के पक्ष में हैं, बल्कि एकदम "क्रान्ति विरोधी" है तब कोई यह कैसे कह सकता है कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी है! ? जाहिर है कि जर्मनी में अभी भी संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है। जाहिर है कि जर्मनी में “वामपंथियों ने अपनी इच्छा को, अपने राजनैतिक सैद्धान्तिक रुख को, यथार्थ वास्तविकता मान लिया है। यह क्रान्तिकारियों के लिए सबसे खतरनाक ग़लती है। रूस में बहुत ही लम्बे काल तक जारशाही का खूंखार और बर्बर शासन विविध प्रकार के क्रान्तिकारियों के लिए सब से खतरनाक गलती करता रहा है और इन क्रान्तिकारियों ने आश्चर्यजनक साधना, उत्साह, वीरता और दृढ़ता का परिचय दिया है। इसलिए रूस में हमने क्रान्तिकारियों की यह गलती बहुत निकट से देखी है, बड़े ध्यानपूर्वक उसका अध्ययन किया है और हमें उसका प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसलिए दूसरों में भी हम इस दोष को बहुत जल्दी और साफ़ देख सकते हैं। बेशक, जर्मनी में कम्युनिस्टों के लिए संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत” हो गयी है, लेकिन असली बात यह है कि हमारे लिए जो कुछ कालातीत पड़ गया है हम उसे वर्ग के लिए, जनसाधारण के लिए कालातीत न समझें। यहां हम फिर देखते हैं कि वामपंथी' लोग तर्क करना नहीं जानते, वे वर्ग की पार्टी की तरह, जनसाधारण की पार्टी की तरह काम करना नहीं जानते। आपको जनसाधारण के स्तर पर, वर्ग के पिछड़े हुए भाग के स्तर पर नहीं पहुंच जाना चाहिए। यह बात निर्विवाद है। आपको जनता को कटु सत्य बताना चाहिए। आपको उसके पूंजीवादी-जनवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों को पूर्वाग्रह ही कहना चाहिए। परन्तु साथ ही आपको इस बात को भी बड़ी गम्भीरता के साथ देखना चाहिए कि पूरे वर्ग की (केवल उसके कम्युनिस्ट हिरावल की ही नहीं) और सारे मेहनतकश जनसाधारण की (केवल आगे बढ़े हुए प्रतिनिधियों की ही नहीं) वर्ग-चेतना और तैयारी की वास्तविक हालत क्या है। 

"लाखों" और "पलटनों” की बात जाने दीजिये, यदि औद्योगिक, मजदूरों का एक अच्छा खासा अल्पमत भी कैथोलिक पादरियों के पीछे चलता है और उसी प्रकार यदि देहाती मजदूरों का एक खासा अल्पमत जमींदारों और कुलकों (Grossbauern) के पीछे चलता है, इससे निस्सन्देह यह निष्कर्ष निकलता है कि जर्मनी में संसदीय पद्धति अभी भी राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है, कि संसद के चुनावों में तथा संसार के मंत्र से होनेवाले संघर्षों में भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए ठीक इसलिए आवश्यक है कि वह अपने बर्ग के पिछड़े हुए लोगों को शिक्षित कर सके और देहातों के अविकसित, दलित तथा अज्ञान-ग्रस्त जनसाधारण में जागृति और ज्ञान का प्रकाश फैला सके। जब तक आप पूंजीवादी संसद और दूसरी हर प्रकार की प्रतिक्रियावादी संस्थाओं को भंग नहीं कर सकते, तब तक आपके लिए उन संस्थाओं के अन्दर काम करना लाज़िमी है और ठीक इस कारण से कि वहां अभी ऐसे मज़दूर हैं, जिन्हें पादरियों ने और देहाती जीवन की नीरसता ने धोखे में डाल रखा है। यदि आप ऐसा नहीं करते, तो केवल गाल बजानेवाले बनकर रह जायेंगे।

तीसरे, 'वामपंथी' कम्युनिस्ट हम वोल्शेविकों की तारीफ़ में बहुत कुछ कहते हैं। कभी-कभी मन में आता है कि इनसे यह कहा जाए कि हमारी तारीफ़ कम करो और बोल्शेविकों की कार्यनीति को समझने की कोशिश ज्यादा करो, उसे जानने की कोशिश ज्यादा करो! हम लोगों ने सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में रूस की पूंजीवादी संसद के, संविधान सभा के चुनाव में भाग लिया था। उस समय हमारी कार्यनीति सही थी या नहीं? यदि नहीं, तो साफ़-साफ़ कहिये और सावित कीजिये, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म की सही कार्यनीति बनाने के लिए यह करना अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन यदि यह कार्यनीति सही थी, तो उससे भी कुछ निष्कर्ष निकालिये। जाहिर है कि रूस की परिस्थितियों को पश्चिमी यूरोप की परिस्थितियों के बराबर नहीं रखा जा सकता। फिर भी, जहां तक इस विशेष प्रश्न का सम्बन्ध है कि इस अवधारणा का क्या अर्थ है कि “संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत हो गयी है”, तो इस सिलसिले में हमारे अनुभव पर ध्यानपूर्वक विचार करना आवश्यक है। कारण कि यदि ठोस अनुभव को ध्यान में नहीं रखा जाता, तो ऐसी अवधारणाएँ बड़ी आसानी से खोखले वाक्य बनकर रह जाती हैं। क्या सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में हम रूसी बोल्शेविकों को पश्चिम के किन्हीं भी कम्युनिस्टों से कहीं अधिक यह समझने का अधिकार नहीं था कि संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से रूस में कालातीत पड़ गयी है? बेशक, हमें यह अधिकार था, क्योंकि यहां सवाल यह नहीं है कि पूजीवादी संसद बहुत दिनों से कायम है या कम दिनों से, बल्कि यह है कि व्यापक मेहनतकश जनसाधारण सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए और पूंजीवादी-जनवादी संसद को भंग कर देने के लिए (या उसे भंग हो जाने देने के लिए) किस हद तक (सैद्धान्तिक, राजनैतिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से) तैयार है। यह बात बिलकुल निर्विवाद एवं पूर्णतः सिद्ध ऐतिहासिक सत्य है कि कई विशेष कारणों से रूस के शहरी मजदूर और सैनिक तथा किसान, सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने तथा अधिक से अधिक जनवादी-पूंजीवादी संसद को भी भंग कर देने के लिए विशेष रूप से तैयार थे। फिर भी बोल्शेविकों ने संविधान सभा का बहिष्कार नहीं किया, बल्कि सर्वहारा वर्ग के राजनैतिक सत्ता पर अधिकार करने के पहले और बाद में भी उसके चुनावों में भाग लिया। मैं आशा करने का साहस करता हूँ कि मैंने अपने उपरोक्त लेख में, जिसमें रूस की संविधान सभा के चुनावों के आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण है, यह बात साबित कर दी है कि इन चुनावों से बहुत ही मूल्यवान (और सर्वहारा वर्ग के लिए बहुत ही लाभदायक) राजनैतिक नतीजे निकले थे।

इससे जो निष्कर्ष निकलता है वह एकदम निर्विवाद है। यह साबित हो गया है कि सोवियत जनतंत्र की विजय के चन्द हफ्ते पहले भी और उसके बाद भी, एक पूंजीवादी-जनवादी संसद में भाग लेने से क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचता, बल्कि वास्तव में उससे पिछड़े हुए जनसाधारण के सामने यह साबित करने में मदद मिलती है कि ऐसी संसदें क्यों भंग कर देने योग्य हैं; उससे इन संसदों को सफलतापूर्वक भंग करने में मदद मिलती है। उससे पूजीवादी संसदीय पद्धति को "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" बना देने में मदद मिलती है। इस अनुभव को नजरअंदाज करना और फिर भी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबंध रखने का दावा करना - उस इंटरनेशनल से, जिसे अंतर्राष्ट्रीय ढंग से अपनी कार्यनीति (संकुचित, एकतरफ़ा राष्ट्रीय कार्यनीति नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कार्यनीति) निर्धारित करनी है - दुनिया में सबसे बड़ी गलती करना है। यह अंतर्राष्ट्रीयतावाद को शब्दों में मानना, पर वास्तव में उसे तिलांजलि दे देना है।

अब "डच वामपंथियों' के उन तर्कों पर विचार करें, जो उन्होंने संसदों में भाग न लेने के पक्ष में दिये हैं। यह “डच" प्रतिपत्तियों में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपत्ति नं. ४ है, जो अंग्रेजी से अनूदित है:
 "जब उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था टूट गयी हो और सभा क्रान्ति की अवस्था में हो, तब संसदीय सरगर्मी का महत्व खुद जनसाधारण की कार्रवाइयों की तुलना में धीरे-धीरे कम होता जाता है। इसलिए, जब ऐसी परिस्थितियों में संसद क्रान्ति-विरोध का केन्द्र और साधन बन जाती है और दूसरी ओर, जब मजदूर वर्ग सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर लेता है, तब यह भी आवश्यक हो सकता है कि हम हर तरह की संसदीय कार्रवाई से अलग रहें और उसमें भाग न लें।"
 जाहिर है कि पहला वाक्य गलत है, क्योंकि जनसाधारण की कार्रवाई - उदाहरण के लिए एक बड़ी हड़ताल - केवल क्रान्ति के दौरान में या क्रान्तिकारी परिस्थिति में ही नहीं, बल्कि हर समय संसदीय कार्रवाई से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यह स्पष्टतः असंगत और ऐतिहासिक तथा राजनैतिक दृष्टि से गलत तर्क इस बात को बिलकुल साफ़ कर देता है कि इन वक्तव्यों के लेखकगण, जहां तक गैर-कानूनी संघर्ष के साथ कानूनी संघर्ष को मिलाने का महत्त्व है, न तो आम यूरोपीय अनुभव को (1848 पौर 1870 की क्रान्तियों के पहले के फ्रांसीसी अनुभव ; 1878-1860 के जर्मन अनुभव, इत्यादि को) ध्यान में रखते हैं, न रूसी अनुभव को (देखिये ऊपर)। यह सवाल आम तौर से और खास तौर से भी बहुत महत्व का है क्योंकि अब सभी सभ्य एवं उन्नत देशों में वह समय बहुत तेजी से नजदीक आ रहा है, जब इन दोनों प्रकार के संघर्षों को इस तरह से मिलाना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए अधिकाधिक आवश्यक होता जायेगा - बल्कि आंशिक रूप से अभी ही आवश्यक हो गया है- क्योंकि सर्वहारा वर्ग तथा पूंजीपति वर्ग के बीच गृहयुद्ध की स्थिति परिपक्व होती जा रही है, उसके छिड़ने की घड़ी निकट आती जा रही है, क्योंकि जनतांत्रिक सरकारें और आम तौर से पूँजीवादी सरकारें कम्युनिस्टों का भीषण दमन करती हैं और कानून को हर तरह तोड़ती हैं। (पहले अमरीका की ही मिसाल देखिये), इत्यादि। इस बहुत महत्वपूर्ण सवाल को डचों और आम तौर से सभी बामपंथियों ने बिलकुल नहीं समझा है।


जहां तक दूसरे वाक्य का प्रश्न है, पहली बात यह है कि इतिहास की दृष्टि से वह गलत है। हम बोल्शेविकों ने घोर से घोर प्रतिक्रियावादी संसदों में भाग लिया है और अनुभव ने इसे साबित कर दिया है कि उनमें भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए न केवल लाभदायक बल्कि आवश्यक भी था। इसकी आवश्यकता रूस की पहली पूंजीवादी क्रान्ति (1905) के ठीक बाद प्रतीत हुई थी, ताकि दूसरी पूंजीवादी क्रान्ति (फ़रवरी, 1917) के लिए और फिर समाजवादी क्रान्ति (नवम्बर, 1917) के लिए तैयारी की जा सके। दूसरे, यह वाक्य आश्चर्यजनक हद तक तर्कहीन है। यदि संसद क्रान्ति-विरोध का साधन और “केन्द्र” बन गये हैं (वास्तव में संसद न कभी "केन्द्र" बनी है और न बन सकती है, पर जाने दीजिये इस बात को) और मजदूर सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर रहे हैं, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी परिस्थिति में मजदूरों को संसद के खिलाफ़ सोवियतों के संघर्ष के लिए, सोवियतों द्वारा संसद के भंग किये जाने के लिए, सैद्धान्तिक, राजनैतिक और तकनीकी तैयारी करनी चाहिए। परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि क्रान्ति-विरोधी संसद के अन्दर किसी सोवियत विरोध-पक्ष के रहने से इस संसद को भंग करने में अड़चन पड़ेगी, या उसमें सहायता नहीं मिलेगी। देनीकिन और कोल्चोक के खिलाफ़ हमारे विजयी संघर्ष के दौरान हमें कभी यह नहीं प्रतीत हुआ था कि दुश्मनों के खेमे में एक सोवियत विरोध-पक्ष। सर्वहारा विरोध-पक्ष के अस्तित्व का हमारी सफलता के लिए कोई महत्व नहीं था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि 5 जनवरी, 1918 को संविधान सभा भंग करने में इस बात से कोई अड़चन पड़ना तो दूर, सचमुच बड़ी मदद मिली कि क्रान्ति-विरोधी संविधान सभा में, जिसे भंग किया जानेवाला था, एक सुसंगत, बोल्शेविक, सोवियत विरोध-पक्ष के साथ ही एक असंगत, वामपंथी समाजवादी क्रान्तिकारी, सोवियत विरोध-पक्ष भी था। इस प्रतिपत्ति के लेखकगण उलझकर यदि सभी नहीं, तो कम से कम अनेक क्रान्तियों का यह अनुभब बिलकुल भूल गये हैं कि क्रान्ति के समय प्रतिक्रियावादी संसद के बाहर होनेवाले जन-संघर्षों के साथ ही यदि संसद के अन्दर भी क्रान्ति से सहानुभूति रखनेवाला (या बेहतर यह कि प्रत्यक्ष रूप से क्रान्ति का समर्थक) कोई विरोधी दल हो, तो वह कितना उपयोगी होता है। डच और आम तौर से सभी "वामपंथी" यहां उन लकीर पीटनेवाले क्रान्तिकारियों की तरह तर्क करते हैं, जिन्होंने कभी किसी वास्तविक क्रान्ति में भाग नहीं लिया है, या जिन्होंने कभी क्रान्तियों के इतिहास पर गम्भीरता से सोचा नहीं है, अथवा जिन्होंने किसी प्रतिक्रियावादी संस्था के आत्मपरक ढंग से “अस्वीकार किए जाने” को भोलेपन के साथ यह मान लिया है, मानो वह बहुत से बाह्य कारणों के सम्मिलित प्रहार के कारण सचमुच नष्ट हो गयी हो। किसी नये राजनैतिक (और केवल राजनैतिक ही नहीं) विचार को बदनाम करने और नुकसान पहुंचाने का सबसे कारगर तरीका यह है। समर्थन करने के नाम पर उसे मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया जाये। कारण यह है कि प्रत्येक सत्य को (जैसा कि बड़े डीयेट्ज़गेन ने कहा था) अति बड़ा बनाकर और उसकी वास्तविक उपयोगिता की सीमा से बाहर ले जाकर मूर्खता में बदला जा सकता है, बल्कि कहना चाहिये कि ऐसा करने से प्रत्येक सत्य लाजिमी तौर से मूर्खता में बदल जाता है। सोवियत सत्ता पूँजीवादी-जनवादी संसद से बेहतर है - इस नवीन सत्य का डच और जर्मन वामपंथी इसी तरह अपकार कर रहे हैं। इतनी बात तो समझ में आती हैं कि यदि कोई पुराने विचार का समर्थन करता है, या आम तौर से यह मानता है कि पूंजीवादी संसदों में किसी भी हालत में भाग लेने से इनकार करना अनुचित है, तो वह ग़लती करता है। मैं यहाँ उन परिस्थितियों को नहीं बता सकता, जिनमें बहिष्कार करना लाभदायक होता है, क्योंकि इस पुस्तिका का उद्देश्य इससे कहीं छोटा है : यहाँ हम अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट कार्यनीति के कुछ तात्कालिक प्रश्नों के सम्बन्ध में ही रूसी अनुभव का अध्ययन करना चाहते हैं। रूसी अनुभव में हमें बोल्शेविकों द्वारा बहिष्कार का एक सही और सफल उदाहरण (1905) में और एक गलत उदाहरण (1906 में) मिलता है। पहले उदाहरण का विश्लेषण कीजिये तो पता चलता है कि एक ऐसी परिस्थिति में जब जनसाधारण की गैर-संसदीय क्रान्तिकारी कार्रवाइयां (विशेषकर हड़तालें) असामान्य तेजी से बढ़ रही थीं, जब सर्वहारा वर्ग और किसानों का कोई भी हिस्सा किसी भी रूप में प्रतिक्रियावादी सरकार का समर्थन नहीं कर सकता था और जब आम पिछड़ी जनता के ऊपर हड़तालों तथा किसान-आन्दोलन के द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का असर बढ़ रहा था, हमने प्रतिक्रियावादी सरकार को एक प्रतिक्रियावादी संसद बुलाने से रोकने में सफलता प्राप्त की थी। बिलकुल साफ़ है कि इस अनुभव को आज के यूरोप की हालत पर लागू नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी बिलकुल साफ़ है - और ऊपर की बहस से यह बात साबित हो जाती है कि संसदों में भाग लेने से इनकार करने की नीति का समर्थन करके इन तथा अन्य “वामपंथी" - भले ही वे शर्तों के साथ ऐसा करते हों - बुनियादी तौर से ग़लत और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के हेतु के लिए हानिकारक काम कर रहे हैं।

पश्चिमी यूरोप और अमरीका में मजदूर वर्ग के आगे बढ़े हुए क्रान्तिकारी सदस्यों के लिए संसद विशेष रूप से घृणा की वस्तु बन गयी है। यह बात निर्विवाद और आसानी से समझ में आनेवाली है, क्योंकि युद्ध के दिनों में तथा उसके बाद संसदों के अधिकांश समाजवादी तथा सामाजिक-जनवादी सदस्यों का जैसा व्यवहार रहा, उससे अधिक नीच, घृणित और विश्वासघाती व्यवहार की कल्पना करना भी कठिन है। परन्तु इस सामान्यतः स्वीकृत बुराई से लड़ने के तरीके का फैसला करते समय यदि हम इस भावना के वशीभूत हो गये, तो वह न केवल गलत, बल्कि मुजरिमाना हरकत होगी। पश्चिमी यूरोप के बहुत से देशों में आजकल क्रान्तिकारी भावना, हम कह सकते हैं कि एक "नयी चीज", एक ऐसी “अनोखी चीज़" के रूप में सामने आयी है, जिसका लोग अधीर होकर बहुत दिनों से व्यर्थ ही इन्तजार कर रहे थे और शायद यही कारण है कि लोग इतनी आसानी से भावना के वशीभूत हो जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जनता में क्रांतिकारी भावना के बिना, इस भावना के बढ़ने में सहायता पहुंचानेवाली परिस्थितियों के अभाव में क्रान्तिकारी कार्यनीति को कभी कार्य-रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। परन्तु रूस में हमने एक बहुत लम्बे , तकलीफ़देह और खूनी अनुभव से यह सचाई सीखी है कि क्रान्तिकारी कार्यनीति केवल क्रान्तिकारी भावना के सहारे नहीं बनायी जा सकती। कार्यनीति निर्धारित करने के लिए पहले उस राज्य-विशेष की (उसके आस-पास के राज्यों की तथा संसार भर के राज्यों की) सारी वर्ग-शक्तियों का और साथ ही क्रान्तिकारी आन्दोलनों के अनुभव का गंभीर तथा सर्वथा वस्तुपरक मूल्यांकन करना आवश्यक है। संसदीय अवसरवाद पर केवल गालियों की बौछार करके, केवल संसदों में भाग लेने का विरोध करके अपना “क्रान्तिकारीपन' साबित कर देना बहुत आसान है और बहुत आसान होने की वजह से ही यह एक कठिन और कठिनतम समस्या का हल नहीं हो सकता। यूरोपीय संसदों में एक सचमुच क्रान्तिकारी संसदीय दल तैयार करना रूस से कहीं ज्यादा कठिन काम है। यह बात ठीक है। पर वह इस आम सत्य की ही एक विशेष अभिव्यक्ति है कि 1617 की ठोस , इतिहास की दृष्टि से बहुत ही विशेष परिस्थिति में रूस के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू कर देना आसान था, परन्तु क्रान्ति को जारी रखना और उसे पूर्णता तक पहुंचाना रूस के लिए यूरोपीय देशों से अधिक कठिन होगा। 1918 के आरम्भ में ही मैंने इस बात की ओर संकेत किया था और पिछले दो वर्ष के अनुभव ने उसे पूरी तरह साबित कर दिया है। रूस की कुछ विशेष परिस्थितियाँ इस समय पश्चिमी यूरोप में मौजूद नहीं हैं और ऐसी या इनसे मिलती-जुलती परिस्थितियां दुबारा आसानी से उत्पन्न नहीं होंगी। वे परिस्थितियां ये है:
1) सोवियत कान्ति को इस क्रान्ति के फलस्वरूप साम्राज्यवादी युद्ध को समाप्त कर देने के सवाल के साथ जोड़ने की संभावना, जिसने मजदूरों और किसानों का एकदम कचूमर निकाल दिया था; 
2) साम्राज्यवादी डाकुओं के दो बड़े संसार-व्यापी दलों के आपसी सांघातिक संघर्ष से कुछ वक्त तक फायदा उठाने की सम्भावना, जो अपने सोवियत शत्रु के खिलाफ़ एक होने में असमर्थ थे;

3) देश के बहुत ही विस्तृत प्रकार के कारण और संचार के साधनों के बहुत पिछड़ेपन की वजह से एक अपेक्षाकृत लम्बा गृहयुद्ध चलाना सम्भव था;

4) किसानों में एक इतने गहरे पूजीवादी-जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन का अस्तित्व कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी ने किसानपार्टी (समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टी, जिसके अधिकतर सदस्य निश्चित रूप से बोल्शेविज्म के विरोधी थे) की क्रान्तिकारी मांगों को लेकर, राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के अधिकार करने के फलस्वरूप, उन्हें तुरन्त पूरा कर दिया।

कुछ और कारणों के अलावा, इन परिस्थितियों के अभाव में पश्चिमी यूरोप के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू करना उससे कठिन है, जितना हमारे लिए था। क्रान्तिकारी उद्देश्यों के लिए प्रतिक्रियावादी संसदों का उपयोग करने के कठिन काम को "फलांगकर इस कठिनाई से बचने की कोशिश करना सरासर बचपना है। आप एक नया समाज बनाना चाहते हैं? फिर भी प्रतिक्रियावादी संसद में पक्के, वफ़ादार और बहादुर कम्युनिस्टों का एक अच्छा संसदीय दल बनाने की कठिनाइयों से घबराते हैं! यह बचपना नहीं, तो और क्या है? यदि जर्मनी में कार्ल लीव्कनेख्त और स्वीडन में ज़ेट हेगलुंड नीचे से जनता का समर्थन न मिलने पर भी प्रतिक्रियावादी संसदों के सचमुच क्रान्तिकारी उपयोग की मिसालें पेश कर सके, तो कोई कैसे कह सकता है कि एक तेजी से बढ़ती हुई क्रान्तिकारी जन-पार्टी युद्ध के बाद की उस परिस्थिति में, जब जनता के भ्रम टूट रहे हों और उसका क्रोध बढ़ रहा हो, खराब से खराब संसद में भी एक तपा-तपाया कम्युनिस्ट दल नहीं बना सकती? । पश्चिमी यूरोप के पिछड़े हुए आम मजदूर और उनसे भी ज्यादा-छोटे किसान रूस की तुलना में पूंजीवादी-जनवादी तथा संसदीय पूर्वाग्रहों के कहीं अधिक वशीभूत है। ठीक यही कारण है कि केवल पूंजीवादी संसद जैसी संस्थाओं के अन्दर से ही कम्युनिस्ट एक लम्बा और अनवरत तथा कठिनाइयों के सामने कभी सिर न झुकानेवाला संघर्ष चला सकते हैं (और उन्हें ज़रूर चलाना चाहिए), ताकि उन पूर्वाग्रहों का पर्दाफ़ाश किया जा सके, उनको छिन्न-भिन्न किया जा सके और उनपर विजय प्राप्त की जा सके। 

जर्मन “वामपंथी अपनी पार्टी के बुरे" नेताओं की शिकायतें करते हैं, निराश हो जाते हैं और यहां तक कि “नेताओं को मानने से इनकार करने की बेहूदगी तक करने लगते हैं। परन्तु जब परिस्थितियां ऐसी हैं कि "नेताओं को अक्सर छिपाकर रखना पड़ता है, तब अच्छे, भरोसे के, अनुभवी और प्रभावशाली नेताओं की तैयारी बहुत कठिन हो जाती है और इन कठिनाइयों को सफलतापूर्वक तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि क़ानूनी और गैर-कानूनी कामों को मिलाया नहीं जाता और जब तक अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ संसद के क्षेत्र में भी “नेताओं को परखा नहीं जाता। आलोचना - सख्त से सख्त और अधिक से अधिक निर्मम आलोचना - संसदीय पद्धति या संसदीय काम की नहीं, बल्कि उन नेताओं की करनी चाहिए, जो संसद के चुनावों का और संसद के मंच का क्रान्तिकारी ढंग से, कम्युनिस्ट ढंग से उपयोग करने में असमर्थ है - और जो लोग यह करना चाहते भी नहीं, उनकी तो और भी ज्यादा आलोचना होनी चाहिए। ऐसी आलोचना मात्र ही और उसके साथ-साथ अयोग्य नेताओं को निकालकर उनकी जगह योग्य नेताओं को रखना ही - ऐसा उपयोगी तथा लाभप्रद क्रान्तिकारी काम होगा, जिससे “नेता" मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के विश्वासभाजन बनना सीखेंगे और जनसाधारण राजनैतिक परिस्थिति को और उससे पैदा होनेवाली अक्सर बहुत पेचीदा और उलझी हुई समस्याओं को ठीक ढंग से समझना सीखेंगे।"
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* इटली के “वामपंथी' कम्युनिज्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने का मुझे बहुत कम अवसर मिला है। कामरेड बोदिंगा और उनका " कम्युनिस्ट-बहिष्कारवादियों' (Comunista asternsiortista) का गुट संसद में भाग न लेने का समर्थन करके निश्चय ही एक गलत काम कर रहे हैं। परन्तु मुझे लगता है कि एक बात पर कामरेड बोदिंगा का मत सही है - कम से कम, उनके पत्र 'सोवियत' के (6// Society, 18 जनवरी और 1 फ़रवरी, 1920 के अंक 3 और 4) दो अंकों से, कामरेड सेती की बहुत उम्दा पत्रिका 'कम्युनिज्म' के Cottaraisriow, 1 अक्तूबर से 30 नवम्बर, 1916 तक के 1- 4अंक) चार अंकों से और इटली के पूंजीवादी पत्रों के उन इक्के-दुक्के अंकों से, जो मुझे मिल सके हैं, मुझे ऐसा ही लगता है। कामरेड वोदिंगा और उनका गुट तुराती और उनके अनुयायियों पर इस बात के लिए हमला करते हुए सही है कि वे लोग एक ऐसी पार्टी के सदस्य बने रहे हैं, जो सोवियत सत्ता मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व को स्वीकार कर चुकी है, पर संसद के सदस्यों की हैसियत से अब भी अपनी पुरानी घातक और अवसरवादी नीति चला रहे हैं। बेशक, इस बात को सहन करके कामरेड सेती और इटली की पूरी समाजवादी पार्टी ऐसी गलती कर रही है। जिससे उतना ही ज्यादा नुकसान होने पर वैसे ही खतरों के पैदा होने की आशंका है। जैसे खतरे ऐसी ही एक गलती से हंगरी में पैदा हो गये थे, जहां हंगरी के तुरातियों ने पार्टी और सोवियत सरकार दोनों के खिलाफ़ अन्दर से तोड़-फोड़ की थी। संसद के अवसरवादी सदस्यों के प्रति ऐसे ग़लत, असंगत या दुलमुल रवैये से एक ओर तो वामपंथी कम्युनिज्म पैदा होता है, दूसरी और कुछ हद तक उसके अस्तित्व को औचित्य प्रदान किया जाता है। अब कामरेड सेती संसद के सदस्य तुराती पर "असंगत व्यवहार” का आरोप लगाते हैं (<<Comunismo>>, अंक ३), तो वे स्पष्ट ही गलती करते हैं, क्योंकि "असंगत व्यवहार” वास्तव में इटली की समाजवादी पार्टी कर रहीं है कि वह तुराती और उनके साथियों जैसे संसद के अवसरवादी सदस्यों को अभी तक अपने अंदर स्थान दिये हुए है।


गुरुवार, 2 जून 2011

छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है

बरों में सब से ऊपर आज बाबा रामदेव हैं। वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरे बैठे हैं। जिस तामझाम के साथ उन्हों ने तैयारी की है, उस से सरकार घबराई हुई भी है और किसी तरह उन्हें अपना सत्याग्रह टालने को मनाने पर तुली है। बाबा रामदेव हैं कि मान ही नहीं रहे हैं। उन की आवाज हर बार और तेज होती जाती है। हालांकि वे कह रहे हैं कि सरकार से उन की कोई लड़ाई नहीं है। सरकार किसी की भी हो उस से उन को कोई मतलब नहीं है, वे तो व्यवस्था बदलना चाहते हैं। अब उन्हें यह कौन समझाए कि सरकार व्यवस्था का मुखौटा होती है। सब से पहले उसी को नोंचना पड़ता है, तभी व्यवस्था के दर्शन होते हैं। वैसे हम तो राजनीति में पढ़ते आए कि पहले समाज में दास व्यवस्था थी, फिर सामंती व्यवस्था आयी और फिर पूंजीवादी व्यवस्था का पदार्पण हुआ। भारत में पूंजीवादी व्यवस्था आई तो, पर तब तक श्रमजीवी जनता के अहम् हिस्से किसानों और श्रमिकों के आंदोलन जोर पकड़ चुके थे। भारत का सुकुमार पूंजीवाद भयभीत भी था। उस ने सामंतवाद से हाथ मिला लिया। कहा- देखो यदि आपस में लड़े तो दोनों मारे जाएंगे। इसलिए समझौते के साथ दोनों जीते हैं। अब पिछले 64 बरस से दोनों दोस्ती निभा रहे हैं। हालांकि जहाँ मौका मिलता है वहाँ एक दूसरे की टांग खींचने का मौका नहीं चूकते। जहाँ श्रमजीवी जनता से मुकाबला करना होता है या उन्हें बेवकूफ बनाना होता है तो दोनों ही एक पायदान पर खड़े दिखाई देते हैं।

म ने मजदूरों और किसानों की समाजवादी व्यवस्था के बारे में भी सुना था। पर समाजवाद शब्द का इस्तेमाल इतनी डिजाइन के लोगों ने किया है कि उस का असली मतलब ही गुम हो चुका है। फिर सातवें दशक में जनता के जनतंत्र का नारा बुलंद हुआ। पर उस नारे को लगाने वाले अगले ही दशक में भूल कर तीन राज्यों की सरकारों में उलझ गए। उन के नेता और कॉडर दोनों ही जनता के जनतंत्र के स्थान पर समाजवाद की दुहाई देते रहे। सरकारों से अंदर बाहर होते-होते इस बार आखिरी सरकार भी खो बैठे। वे अभी भी आस लगाए बैठे हैं कि सरकार में वापस लौट आएंगे। पर हमें लगता है कि जनता अब उन्हें शायद ही फिर से उतनी तरजीह दे। सही कहा है कि काठ की हाँडी दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ती।

बाबा रामदेव सामंतों, देशी पूंजीपतियों और उन के परदेसी खैरख्वाहों की इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं ऐसा लगता नहीं है। वह ट्रस्ट जिस के वे सर्वेसर्वा हैं, खुद पूंजीवाद का एक बढ़िया नमूना है। यदि वे इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो सब से पहले उन्हें अपने ट्रस्ट के हितों को त्यागना होगा। जो वे नहीं कर सकते। वैसे व्यवस्था परिवर्तन के इस पहले दौर में सत्याग्रह के लिए उन की मांगे इस प्रकार हैं - 

1- सरकार करप्शन के खिलाफ अगस्त 2011 तक एक प्रभावी जन लोकपाल बिल पास करे।
2- विदेशों में जमा ब्लैक मनी को वापस लाने के लिए कानून बने।
3- विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा ब्लैक मनी को तुरंत राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए।
4- बाहर पैसा जमा कराने वालों पर देशद्रोह का केस दर्ज हो। सरकार इसमें पूरी पारदर्शिता बरते। भ्रष्टाचारियों के नाम इंटरनेट पर अपलोड हों, ताकि देश की जनता उसे देख सके।
5- भ्रष्टाचारियों के खिलाफ मृत्युदंड का प्रावधान हो।
6- देश के हर हिस्से से ब्रिटेन पर आधारित सिस्टम को खत्म किया जाए।
7- सरकार यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन( UNCAC) पर तुरंत साइन करे।
8- करप्शन को रोकने के लिए बड़े नोट बंद किए जाएं। सरकार 1000, 500, 100 के नोट वापस मंगाए।


कुल मिला कर इन मांगों में पहले दर्जे की मांगें तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद और बचा-खुचा सामंतवाद शुचिता का व्यवहार करे, लेकिन बना रहे। इन दोनों चाहतों में जबर्दस्त टकराहट है। यह वैसे ही है जैसे किसी इंसान का दिल निकाल लिया जाए और फिर यह इच्छा व्यक्त की जाए कि वह जीवित रहेगा। उन की दूसरे दर्जे की मांगें काम की कम और प्रचारात्मक अधिक हैं, जैसे देश के हर हिस्से ब्रिटिश सिस्टम को समाप्त किया जाए, उच्च स्तर तक की शिक्षा और परीक्षा मातृभाषा में होने लगे आदि आदि। इस से ऐसा लगता है कि जिस कदर पिछले सालों में बहुराष्ट्रीय पूंजी ने भारत में आ कर कोहराम मचाया है और राष्ट्रीय पूंजी को अपना ऐजेंट भर बनाने पर तुली है उस से राष्ट्रीय पूंजीपति की साँसे रुक रही हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति अब देश की व्यवस्था में अधिक बड़ा हिस्सा चाहता है। बाबा रामदेव के मुहँ से वही बोल रहा है। तो यह लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की नहीं, अपितु व्यवस्था में छोटे भाई द्वारा बड़े भाई से बराबर का हिस्सा चाहने की लड़ाई है। पूंजीवाद के अंदर का अंतर्विरोध हल होना चाहता है। भ्रष्टाचार पर कहर तो इसलिए टूट रहा है कि छोटे भाई पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए वह सब से बड़े हथियार के रूप में काम करता है। अब छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है। अभी तो हथियार जमीन पर रखवाने की लड़ाई आरंभ हुई है।

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-2

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। कल आप ने प्रथम भाग पढ़ा आज दूसरा और अंतिम भाग प्रस्तुत है। 

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
 स सभ्यता का दूसरा सिद्धांत है - 'Business is business' अर्थात व्यवसाय व्यवसाय है। उस में भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं है। पुराने जीवन सिद्धान्त में वह लट्ठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन देन का सवाल है, रुपये पैसे का मामला है, वहाँ न दोस्ती का गुजर है, न मुरौवत का, न इन्सानियत का, बिजनेस में दोस्ती कैसी, जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए, फिर आप की जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन जरूरत से लाचार हो कर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं और चाहते हैं कि वह कुछ मदद करे। यह भी आशा रखते हैं कि शायद दर में वह कुछ रियायत कर दे, पर जब देखते हैं कि यह सहानुभूति मेरे साथ भी वही कारोबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भर कर बड़े करुण स्वर में कहते हैं- महाराज,  मैं इस समय बड़ा परेशान हूँ, नहीं तो आप को कष्ट नहीं देता, ईश्वर के लिए मेर हाल पर रहम कीजिये। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त ..... वहीं बात काट कर आज्ञा के स्वर में फरमाया जाता है लेकिन जनाब, आप 'बिजनेस इज बिजनेस' भूल जाते हैं। उस दिन कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उस के पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठ कर वह अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय सिद्धान्त के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।
हाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति नीतियाँ चलाई हैं, उस में सब से अधिक और रक्त पिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीबी में बिजनेस; बाप-बेटे में बिजनेस; गुरू-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवी, आध्यात्मिक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त, आदमी-आदमी के बीच बस कोई लगाव है, तो बिजनेस का। लानत है इस बिजनेस पर !  लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गयी और अपनी जीविका का कोई उपाय न निकाल सकी तो बाप के घर में ही लोंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में काम-काज करते ही हैं, पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता, पर इस महाजनी सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लोंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृभक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने सपूत की टहलुई, स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में ही नहीं। भाई भी भाई के घर आए तो मेहमान है। अक्सर तो उसे उस मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आपस्वार्थी बनें, सब कुछ अपने लिए करें।
र यहाँ भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों के गुजर का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, और वह हल नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उस का भविष्य अन्धकारमय है।
अब तक दुनिया के लिए इस सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई उपाय न था, उसे झक मार कर उस के आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम में फूला फिरता था। सारी दुनिया उस के चरणों पर नाक रगड़ रही थी, बादशाह उस का बन्दा वजीर उस के गुलाम, सन्धि-विग्रह की कुंजी उस के हाथ में, दुनिया उस की महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाये हुए, हर मुलक में उस का बोल बाला।
रन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिस ने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोद कर फैंक दी है, जिस का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत कर के कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का कोई हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं, महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न हो कर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शमिल आवाज इस ई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है, व्यक्ति स्वातंत्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आजादी-वह इन सब की घातक, गला घोंट देने वाली बताई जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ हैं, काम ले कर उस के विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई जो इस सारे अंधकार को चीर कर दुनिया में य़अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है। 
निस्सन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के पंजे, नाखून  और दांत तोड़ दिए हैं। उस के राज्य में एक पूंजीपति लाखों मजदूरों का खून पी कर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बना कर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इस की स्वाधीनता ही स्वाधीनता है तो निस्सन्देह नई सभ्यता में स्वाधीनता नहीं पर यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गाँव, मनोरंजन और व्यायाम सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्य सुलभ  न्याय की प्राप्ति हो तो इस समजा की व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोरी जमात के दंभमय उपदेशों और अन्ध विश्वास-जनित रूढ़ियों का अनुसरण है तो वहाँ निस्सन्देह वहाँ पर इस स्वातंत्र्य का अभाव है। पर धर्म स्वातंत्र्य का अर्थ यदि लोक सेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और देश को उस के दर्शन भी नहीं हो सकते।
हाँ धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक जैसी स्थिति में हैं, वहाँ जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो और सतीत्व-विक्रय क्यों हो, झूठे मुकदमे क्यों चलें, और चोरी डाके की वारदातें क्यों हों। यह सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इन की सृष्टि की है। वही इन को पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझ कर अपनी स्थिति से सन्तुष्ट रहें। उन की ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उन के सिर कुचलने के लिए पुलिस है, अदालत है, कालापानी है। आप शराब पी कर उस के नशे से बच नहीं सकते। आग लगा कर चाहें लपट न उठे, असम्भव है। पैसा अपने साथ यह सारी चीजें लाता है, जिन्हों ने दुनिया को नर्क बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने आप मिट जायेंगी, जड़ खोद कर केवल फुनगी की पत्तियाँ तोड़ना बेकार है। यह नयी सभ्यता धनाड्यता को हेय, लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है, गहनों से लदकर कोई स्त्री सुंदर नहीं बनती, घृणा का पात्र बनती है। साधारण जनसमाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती है। शराब पी कर वहाँ बहका नहीं जा सकता, अधिक मद्यपान वहाँ दोष समझा जाता है, धार्मिक दृष्टि से नहीं, किन्तु शुद्ध सामाजिक दृष्टि से, क्यों कि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अध्यवसाय और श्रमशीलता का अंत हो जाता है।
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह-तरह के बहानों से उन की मेहनत का फायदा उठाए या सरकारी पद प्राप्त कर के मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूँछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से उँचे अधिकारी की तनख्वाह भी उतनी ही है, जितनी एक कुशल कारीगर की, वह गगन-चुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर-बसर करना पड़ता है। उस की श्रीमती जी रानी साहिबा या बेगम बनी हुई स्कूलों में ईनाम बाँटती नहीं फिरतीं, बल्कि अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पा कर वह अपने को लाटसाहब नहीं बल्कि जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिस से उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चांदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं है ? पूंजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उन की जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं पर जब वह लोग भी उस की खिल्ली उड़ाने और उस पर फब्तियाँ कसने लगते हैं तो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उन की दास-मनोवृत्ति पर हँसी आती है। जिस में मनुष्यता, आध्यात्मिकता, उच्चता और सौंदर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिस की नींव लोभ-स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की सम्पत्ति दी है तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उश से जन समाज पर हुकूमत चलाओ, उस का खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।
न्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है और जल्दी ही या देर से दुनिया उस का, पदानुसरण अवश्य करेगी, यह सभ्यता अमुक देश की समाज रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, यह तर्क नितांत असंगत है। ईसाई मजहब का पौधा यरूसलम में उगा और सारी दुनिया उस के सौरभ से बस गयी, बौद्ध धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरूदक्षिणा दी। मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी। हाँ महाजनी सभ्यता और उस के गुर्गे अपनी शक्ति भर उस का विरोध करेंगे, उस के बारे में भ्रमजनक प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकायेंगे, उस की आँखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है, एक न एक दिन उस की विजय होगी और अवश्य होगी। (समाप्त)  

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-1

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रथम भाग प्रस्तुत है।

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओं में परिगणित थे और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उन के आवश्यक साधन थे, पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लु्प्त नहीं हुए थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से प्यास बुझाता था, तो अक्सर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उस की अवज्ञा को कदापि सहन नहीं कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था। दूसरे के देश पर चढ़ाई या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम रखने के लिए या फिर देश विजय और राज्य विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उस की विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को स्वार्थसाधन और धन शोषण की भट्टी का ईंधन न समझते थे, किन्तु उन के दुख-सुख में शरीक होते थे और उन के गुण की कद्र करते थे। 
गर इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों-पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रुरियायत नहीं। उस का अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यहग है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिस का फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उस का शिकार है समाज। वह खुद समाज से बिलकुल अलग है, अगर कोई संबंध है तो यह कि किसी या युक्ति से बस समाज को उल्लू बनाये और उस से जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।
न लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने आधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा है।  जिस के पास पैसा है, देवता स्वरूप है, उस का अंतःकरण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत, कला सभी धघन की देहली पर  माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी जहरीली हो गयी है कि इस में जीवित रहना कठिन होता जा रहा है। डॉक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी फीस लिए बात नहीं करता। वकील और बैरिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता है। गुण और योग्यता की सफलता उस के आर्थिक मूल्य के हिसाब से मानी जा रही है। मौलवी साहब और पण्डित जी भी पैसे वालों के बिना पैसों के गुलाम हैं, अखबार उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलो-दिमाग पर इतना कब्जा जमा लिया है  कि उस के राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। वह दया और स्नेह, सचाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममता शून्य जड़ यन्त्र बन कर रह गया है।  इस महाजनी सभ्यता ने नये नये नीति नियम गढ़ लिए हैं जिन पर आज समाज व्यवस्था चल रही है, उन में एक यह है कि समय ही धन है, पहले समय जीवन था, उस का सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उस का सब से बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डॉक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर, उन का एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर एक अशर्फी नजर की है तो वह उसे मिनट से ज्यादा वक्त नहीं दे सकते, रोगी अपनी दुखगाथा सुनाने के लिए बैचेन है, पर डॉक्टर साहब का उधर बिलकुल ध्यान नहीं, उस से उन्हें जरा भी दिलचस्पी नहीं। उन की निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है, कि वह उन्हें फीस देता है। वह जल्द से जल्द नुस्खा लिखेंगे औऱ दूसरे रोगी को देखने चले जाएंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उन का एक घंटा वक्त बंधा है। वह घड़ी सामने रख लेते हैं। जैसे ही घंटा पूरा हुआ, वह उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया है तो रह जाय, उन की बला से, वह घंटे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं? क्यों कि समय रूपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी या लड़कों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और सम्बन्धी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बात करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा, कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ समय का नाश है। बिना खाए-सोये काम नहीं चलता, बेचारा लाचार है और इतना समय नष्ट करना पड़ता है। 
प का कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए, उस के यहाँ आप की रसाई मुमकिन नहीं। आप को उस के दरे दौलत पर जा कर कार्ड भेजना होगा, उन महाशय को बहुत से काम होंगे, मुश्किल से आप से एक दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुरसत नहीं है। अब वे पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
प का कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकदमे में फँस गए हैं, तो उस से किसी तरह की सहायता की आशा न रखिए, अगर वह मुरौवत को गंगा में न डुबो चुका है, तो आप से लेन-देन की बात शायद न करेगा, परक आप के मुकदमे की ओर तनिक भी ध्यान न देगा, इस से तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास चले जाँय और उस की पूरी फीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज में कमाल हासिल हो जाय, फिर मनुष्यता नाम को न रह जायेगी, उस का एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा। 
स का अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय, पर यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता-मित्रता-स्नेह-सहानुभूति सब को निकाल बाहर करे। 
र आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कह सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है, मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अभ्यास अर्जन करते थे। जब धन उस का एक मात्र उपाय है तब मनुष्य मजबूर है कि एक निष्ठ भाव से उसी की उपासना करे। वह कोई साधु-महात्मा-सन्यासी-उदासी नहीं, वह देख रहा है कि उस के तपेशे में जो सौभाग्यशाली सफळता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं, वह उसी राज-मार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का, वह इस सिद्धान्त का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पद चिन्हों का अनुसरण करता है, तो उस का क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से गिरायी नहीं जा सकती। वह देख रहा कि जिन के पास दौलत नहीं और जिन्हों ने वक्त को दौलत नहीं समझा, उन को कोई पूछने वाला नहीं। वह अपने पेशे में उस्ताद है फिर भी उन की कहीं पूछ नहीं। जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है, वह तो उपेक्षा की स्थिति को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौवत, दोस्ती और सौजन्य को धता बता कर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और यह इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उस के मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गयी है कि उसे धनार्जन के सिवा और किसी कार्य से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घंटा बैठना पड़े, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उस की सारी मानसिक, भावगत और सास्कृतिक दिलचस्पियाँ इसी केन्द्र बिन्दु पर आ कर एकत्रित हो गयी हैं, और क्यों न हों? वह देख रहा है, कि पैसे के सिवा उस कोई अपना नहीं, स्नेही मित्र भी अपनी गरज ले कर ही उस के पास आते हैं, स्वजन सम्बन्धी भी उस के पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता तो वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उस में एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता, उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, लड़कों के लिए कुछ कर जाना है जिस से उन्हें दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति शून्य स्थिति का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में पड़ने नहीं देना चाहता, जो सारी आशाओं उमंगों पर पाला गिरा देती हैं, हिम्मत-हौंसले को तोड़ कर रख देती हैं। उसे वह सारी मंजिलें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होंगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्तों पर चलाये बिना वह इन में से एक भी मंजिल पार नहीं कर सकता।  

गुरुवार, 17 जून 2010

लीलना ही है, तो मुनाफे की भूखी डायन को लीलो

क-एक कर अफसर बोलते जा रहे हैं, पोल खोलते जा रहे हैं। अर्जुन चुप हैं, जो बोल रहे थे उन्हें चुप रहने के लिए बोला गया है। अधिकारिक घोणणा के लिए मंत्रियों का समूह गठित हो चुका है। वह कागजातों की जाँच करेगा, फिर बोलेगा। लेकिन इस से क्या?

 जो बोल रहे हैं वे तो बोल रहे हैं। लोग बोल रहे हैं। उस समय के अखबार बोल रहे हैं, अदालतों के फैसले बोल रहे हैं, मुकदमों की फाइलें बोल रही हैं। सब कुछ खोल कर रख दिया गया है। पहले बात थी कि अर्जुन सिंह ने एंडरसन को भगाया। फिर बात चली कि राजीव गांधी की भी उस में सहमति थी। अब बोला जा रहा है कि नरसिम्हाराव भी शामिल थे। समझ यह नहीं आ रहा है कि लोग क्यों इस बात के पीछे पड़े हैं कि किसी न किसी व्यक्ति को दोषी ठहरा कर मामले की छुट्टी कर दी जाए। जब कि मामला बिलकुल साफ है।
एंडरसन साहब के पास पहले रिपोर्ट गई कि प्लांट में सुरक्षा की कमियाँ हैं। उन्हों ने देखा कि इस में बहुत खर्चा है। कारखाने में घाटा दिखाया और उसे बेचने की तरकीब भिड़ाने लगे। मामला यह भी था कि कारखाना मजदूरों को हस्तांतरित कर दिया जाए। यानी कारखाना खतरनाक हो चुका था। कभी भी हजारों जानें लील सकता था। पर पूंजी प्यारी थी। कारखाना कैसे बंद कर देते। उस से जितना वसूल हो सकता था वसूल क्यों न किया जाए। यह पूंजी के इस युग का चरित्र है। लेकिन इस से पहले कि कारखाना किसी और के हाथ में जाता उस ने जानें लील लीं। पापों का प्रायश्चित तो करना ही था, करना नहीं अपितु करते हुए दिखाना था। सो मौतों पर आँसू टपकाने के लिए एंडरसन साहब भारत आना चाहते थे। पर उन्हें भय था कि यहाँ वे धर न लिए जाएँ। उन्हें खबर थी कि भोपाल के थाने में उन का नाम दर्ज हो चुका है। 
सूख वाले थे, या यूँ कहें कि वे उन में से एक थे जो दुनिया के सब से शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति को चुनने में सब से बड़ी भूमिका अदा करते हैं। उन्हों ने अपनी सरकार के विदेश मंत्रालय से संपर्क किया। विदेश मंत्रालय ने भारत के विदेश मंत्रालय से संपर्क किया। अब यह हो सकता है क्या कि अमरीका का विदेश मंत्रालय भारत के विदेश मंत्रालय से सिर्फ एक आदमी को आँसू टपकाने भारत आने देने और उसे वापस अमरीका जाने देने की बात कहे और मना कर दिया जाए।  ये तो सम्राट के दरबार में ख़ता करना जैसा होता। जिस की सजा कब मिलती इस का भी पता नहीं लगता। सो एंडरसन साहब आए। उन्हों ने चंद आँसू टपकाए और उन्हें जाने दिया गया। अब देश के लोगों को दिखाने के लिए उन्हें गिरफ्तार भी दिखाया गया और जमानत पर छोड़ भी दिया गया। यह सब प्रहसन हुआ, सब  ने देखा और इतिहास में दर्ज हो गया। पर इतने से ही बस होती तो बहुत था। आखिर हजारों लोग मरे थे, हजारों घायल हो तड़प रहे थे। सरकार की जिम्मेदारी थी उन्हें राहत पहुँचाने की। सरकार ठहरी गरीब देश की गरीब सरकार। कैसे करती यह सब? 
स ने हाथ फैलाए अमरीका के सामने, एंडरसन के सामने। उन्हों ने सरकार की झोली में डाल दिए पत्रम्-पुष्पम्। जैसा याची वैसा दान। पर वह भी बिना शर्त नहीं। शर्त थी कि कंपनी के तमाम लोगों के खिलाफ मुकदमे खत्म कर दिए जाएँ। शर्त मान ली गई। सब अपराधी मुक्त हो गए, जैसे हरिद्वार में गंगा स्नान हो गया हो। फिर लोग सु्प्रीमकोर्ट पहुँचे, समझौता हो सकता है दीवानी दायित्व पर, अपराधिक दायित्व पर नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने मुकदमा सुना और कहा कि मुकदमे चलेंगे। बस यहीं से असली मुसीबत शुरू हुई। गंगा नहाए अपराधी फिर से अदालत में मुलजिम बने खड़े हो गए। फिर कानून लचर निकला। अदालतें तो जितनी हैं उतनी हैं ही। आप लोगों ने आज टीवी पर देख ही लिया होगा कि जहाँ भारत की जरूरत 10 लाख पर 50 अदालतों की है वहाँ हैं केवल ग्यारह। इतनी ही आबादी पर अमरीका में 111 और कनाडा में 86 हैं। हमें न्याय मिलता है अमरीका के मुकाबले दस परसेंट। अब आप हिसाब लगाएंगे तो पाएंगे कि इस मामले में दस परसेंट से कुछ ज्यादा ही मिल गया है। 
दोष किसी एक व्यक्ति का नहीं है, न सरकारों का है और न ही किसी पार्टी का है। सरकार में कांग्रेस न होती भाजपा होती तो भी यही होता। आखिर वाजपेयी जी भी महिंद्रा को ईनाम से नवाज ही चुके थे। राजनेताओं,  अफसरों और राजनैतिक दलों को दोष देना सरासर गलत है। वे वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए, वे आगे भी वही करते रहेंगे। कोई गारंटी नहीं अगला भोपाल देश के किसी इलाके में हो सकता है और भारत में ही नहीं दुनिया के किसी कोने में हो सकता है। असल में दोष तो उस व्यवस्था का है जो मुनाफे पर चलती है। ये सब तो कारकून हैं उस के। जब तक इन कारकूनों की माँ, यह मुनाफे की भूखी डायन व्यवस्था जीवित है तब तक लोगों को लीलती रहेगी इसी तरह। इस से बचना है तो इसे लीलना पड़ेगा।

शनिवार, 12 जून 2010

साँप सालों पहले निकल गया, लकीर अब तक पीट रहे हैं

साँप तो निकल कर जा चुका है, और जिसे मौका लग रहा है वही लकीर पीट रहा है। जब मामले में अदालत का निर्णय आया तो न्यायपालिका को कोसा जा रहा था, साथ ही दंड संहिता की खामियाँ गिनाई जा रही थीं। निश्चित ही न्यायपालिका का इस में कोई दोष नहीं। उस का काम सरकार द्वारा उस के सामने अभियोजन (पुलिस) द्वारा लाए गए सबूतों और कानून के अनुसार आरोप विरचित करना, मुकदमे की सुनवाई करना और सबूतों के अनुसार दोषी पाए जाने पर अपराधियों को देश के दंड कानून के मुताबिक निर्णय और दंड प्रदान करना है। निश्चित ही न्यायालय ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। उस के माथे पर केवल एक कलंक मंढ़ा जा सकता है कि उस ने फैसला करने में 23 साल क्यों लगाए? इस के लिए भी न्यायालय या न्यायपालिका को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह सर्वविदित तथ्य है कि देश में आवश्यकता के चौथाई अधीनस्थ न्यायालय भी नहीं हैं। जिस मामले में 25000 लोगों की मौत हुई हो और उन से कई गुना अधिक बीमार हुए हों, जिस से देश भर की जनता की संवेदनाएँ जुड़ी हों उस मामले में  एक विशेष अदालत का गठन किया जा सकता था, जो केवल इसी मुकदमे की सुनवाई करती। केवल और केवल एक वर्ष में यह निर्णय हासिल किया जा सकता था। इसी तरह एक दो वर्ष में अपील आदि की प्रक्रिया पूर्ण कर दोषियों को दंड दिया जा सकता था। पर लगता है कि सरकार की नीयत ही ठीक नहीं थी। शायद वह चाहती थी कि मामले को जितना हो सके लंबा किया जाए। इतने महत्वपूर्ण मामले को देश में चल रहे लाखों सामान्य फौजदारी मुकदमों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। यदि कोई पत्रकार चाहे तो इस मुकदमे के प्रारंभ से ले कर अभी तक की सभी पेशियों की आदेशिकाओं की नकल प्राप्त कर दुनिया को बता सकता है कि 25000 हजार मौतों के लिए जिम्मेदार अभियुक्तों के विरुद्ध मुकदमा किस साधारण तरीके चलाया गया था। 
स फैसले ने साबित किया है कि हमारे देश की संसद और विधानसभाएँ, देश की जनता की सुरक्षा के लिए कितनी चिंतित हैं? उन की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून इतने खोखले हैं कि किसी को इस बात का भय ही नहीं है कि वे उन सुरक्षा नियमों की पालना करें। लेकिन वे क्यों बनाएँ ऐसे कानून जो किसी उद्योगपति को मुनाफा कमाने में रोड़ा पैदा करते हों? आखिर वे ही तो हैं जो सांसदों और विधायकों को चुने जाने के लिए धन उपलब्ध कराते हैं। पूरे पाँच वर्षों तक उन्हें हथेलियों पर बिठाते हैं। फिर क्यों न सांसद और विधायक उन की रक्षा करें। जनता का क्या उस के पास पाँच बरस में एक वोट की ताकत भर है। जिसे किसी भी तरह खरीदा जा सकता है। अब तो उस की भी उतनी जरूरत नहीं है। हालात यह हैं कि किसी पार्टी का उम्मीदवार विधायक बने उन का तो चाकर ही होगा न? यही है हमारे जनतंत्र की हकीकत। यही है हमारा जनतंत्र। देशी-विदेशी पूंजीपतियों और भूपतियों का चाकर। 
क्या था एंडरसन? एक अमरीकन कंपनी का सीईओ ही न। कहते हैं तीस से अधिक कमियाँ पायी गई थी भोपाल युनियन कार्बाइड कारखाने में जो जनहानि के लिए जिम्मेदार हो सकती थीं, इन सब की सूचना एंडरसन साहब को थी। यही कमियाँ इसी कंपनी के अमरीका स्थित कारखाने में भी थीं। अमरीका स्थित कारखाने की कमियों को दूर किया गया लेकिन भारत स्थित कारखाने पर इन कमियों को दूर करने की कोशिश तक नहीं की गई। करे भी क्यों। भारतीय जनता अमरीकी थोड़े ही है, आखिर उस की कीमत ही क्या है? दुर्घटना के बाद एंडरसन भारत आया पकड़ा गया, उसी दिन उस की जमानत भी हो गई और फिर ....... राज्य सरकार के विमान में मेहमान बन कर दिल्ली पहुँचा और वहाँ से अमरीका पहुँच गया। अमरीका ने उसे मुकदमे का सामना करने के लिए भारत भेजने से इनकार कर दिया। अमरीका इनकार क्यों न करे? आखिर एंडरसन का कसूर ही क्या था? 
मरीका की सरकार में इतनी ताकत थी कि उस ने एंडरसन से कारखाने की कमियों को दूर करवा लिया। लेकिन हमारे देश की सरकार और व्यवस्था में इतनी ताकत कहाँ कि वह एंडरसन से यह सब करा सकता। और करा लेता तो शायद 25000 जानें नहीं जातीं और हजारों आजीवन बीमारी से लड़ने को अभिशप्त न होते। यदि एंडरसन रत्ती भर भी जिम्मेदार है तो हमारी सरकारें सेर भर की दोषी हैं, भोपाल हादसे के लिए। 
आज कांग्रेस पर उंगलियाँ उठ रही हैं, उठनी भी चाहिए, वह इस के दोष से नहीं बच सकती। लेकिन उस के बाद की सरकारें और मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। दो बार से मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। उस ने क्या किया इस मुकदमे में जल्दी निर्णय कराने के लिए? क्यों नहीं वह एक विशेष अदालत इस काम के लिए गठित कर सकती थी। उस ने क्या किया एंडरसन को भारत लाने के लिए। एंडरसन के लिए अदालत ने स्थाई वारंट जारी किया था। मध्यप्रदेश सरकार ने एंडरसन को ला कर अदालत के सामने पेश करने के क्या प्रयास किए? 
म यूँ लकीर पीटते रहे तो कभी जान नहीं सकते कि हमारे उन 25000  भाई-बहनों की मौत और हजारों को जीवन भर बीमार कर देने के लिए कौन जिम्मेदार था। हमें जान लेना चाहिए कि वास्तविक अपराधी कौन है। वास्तविक अपराधी हमारी यह व्यवस्था है जो जनता की सुरक्षा की परवाह नहीं करती। वह उन लोगों की  चिंता करती है जो पूंजी के सहारे जनता की बदहाली और जानों की कीमत पर मुनाफा कूटते हैं, वे चाहे देशी लोग हों या विदेशी। यह व्यवस्था उन की चाकर है। हमें वह व्यवस्था चाहिए जो जनता की परवाह करे, और इन मुनाफाखोरों और उस में अपना हिस्सा प्राप्त करने वाले लोगों पर नियंत्रित रखे।

गुरुवार, 10 जून 2010

श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

ज भास्कर में श्रवण गर्ग की विशेष टिप्पणी  "डर त्रासदी का नहीं भरोसा उठ जाने का है", मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। आप इस टिप्पणी को उस के शीर्षक पर चटका लगा कर पूरा पढ़ सकते हैं। यहाँ उस का अंतिम चरण प्रस्तुत है--

हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एंडरसन को भोपाल छोड़ने के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।
मुझे लगता है कि श्रवण जी ने अपनी बात कहने में बहुत कंजूसी बरती है। क्या इतने सारे तथ्य जनता के सामने आ जाने पर भी भरोसा कायम रह सकता है?  जनता का भरोसा तो बहुत पहले ही उठ चुका है। वह जानती है कि सरकारें उन की रत्ती भर भी परवाह नहीं करती हैं। जब भी बड़े पूंजीपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहीं उद्योग लगाती हैं तो वे केन्द्र और राज्य सरकारों से पहले अपनी शर्तें तय कर लेती हैं। सरकारें ये सब शर्तें इसलिए मानती हैं कि उन्हें चुनाव के पहले अपने इलाके के लोगों को एक तोहफा देना है। जिस से जनता में भ्रम रहे कि उद्योग लगेगा तो क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों को रोजगार मिलेंगे, उन पर आधारित धंधों में वृद्धि होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार तरक्की और रोजगार के आभासी पैकिंग में जनता को मौत और वर्षों की बीमारी बांट रही होती है। भोपाल हादसे के प्याज की जिस तरह परत दर परत खुलती जा रही है, देखने वालों की आँखें उसी तरह लाल होती जा रही हैं, कुछ अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्मों को देख कर और कुछ क्रोध से। बदबू फैल रही है, इतनी की नाक खुली रखना संभव नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस के सिवा दूसरे दलों के नेता खुश हैं कि हादसे के वक्त राज्य या केंद्र में उन की सरकार नहीं थी। वे इस की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के मत्थे मढ़ देना चाहते हैं। कुछ गली कूचे के राजनीति करने वाले विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि, और दो कांग्रेस को वोट, देख लिया उस का नतीजा। पर क्या केवल कांग्रेस ही इस के लिए जिम्मेदार है। क्या विपक्षी दलों का यह दायित्व नहीं था क्या कि वे शासन में बैठी कांग्रेस पर ठीक से निगरानी रखते। एक जिम्मेदार विपक्ष के होते ऐसा कदापि नहीं हो सकता था कि एक हजारों जानों के लिए घातक कारखाना सुरक्षा इंतजामों की परवाह किए बिना एक प्रदेश के राजधानी क्षेत्र के मध्य चल रहा था। हो सकता हो कि विपक्षी राजनेता इस से अनभिज्ञ रहे हों। लेकिन जब उसी शहर का एक सजग पत्रकार राजकुमार केसरवानी चाहे छोटे अखबारों में ही सही कारखाने की सचाई उजागर कर रहा था तो विपक्ष चुप क्यों बैठा था? उस ने आवाज क्यों नहीं उठाई। विपक्ष में इतना दम था कि वह सरकार को मजबूर कर सकता था कि कारखाने को सुरक्षा इंतजामत कर लेने तक बंद कर दिया जाए। बाद में जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय अखबार में भी वे रिपोर्टें छपीं लेकिन किसी पर उस का असर नहीं हुआ। वे रिपोर्टें तो केवल हादसे का इंतजार कर रही थीं। 
विपक्षी राजनैतिक दलों का यह चरित्र यूँ ही नहीं बन गया है। वास्तविकता यह है कि चाहे सरकार में बैठा दल हो या फिर विपक्ष में बैठे राजनेता। सभी जानते हैं कि सरकार तक पहुँचने के लिए यूनियन कार्बाइड के मालिकों जैसे उद्योगपति ही उन्हें सत्ता में पहुँचा सकते हैं। जनता के वोट का क्या उसे तो खरीदा जा सकता है जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता उन्हें बहकाया जा सकता है। यही हमारे लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। हम रोज देख रहे हैं कि नरेगा में पैसा आ रहा है। फर्जी मस्टररोलों के माध्यम से सरपंच उसे हड़प रहे हैं। पकड़े भी जा रहे हैं। उन में केवल सत्ताधारी दल के ही लोग नहीं हैं विपक्षी दलों के भी हैं और विपक्षी दलों के नेतृत्व उन्हें बचा रहे हैं। विपक्षी जानते हैं कि देश में निजि क्षेत्र के शायद ही किसी उद्योग में सुरक्षा इंतजामात पूरी तरह सही हैं। लेकिन किसी की सरकार हो उन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती। जब कारखाने के मजदूर या क्षेत्र की जनता आवाज उठाती है तो उन की आवाजों को दबा दिया जाता है। 1983 में छंटनी हुए कारखाना मजदूरों के मामलों में मजदूर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ कर जीत चुके हैं। अंतिम फैसला हुए आठ बरस हो चुके हैं। लेकिन उद्योगपति इस बीच अपना कारोबार समेट कर कंपनी को घाटे की दिखा कर उन के हक देने को मना कर रहे हैं और कंपनी के बची खुची संपत्ति को ठिकाने लगा कर उस से अपनी जेबें गरम करने में लगे हैं। इस की खबर विपक्षी को है। विपक्ष की सरकार रही है बीच में पाँच साल पर उस ने इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया। अब वह विपक्ष में है तो आवाज उठा रही है। जो आज सरकार में हैं वे पहले विपक्ष में थे तो वे आवाज उठा रहे थे। ये सरकार भोग रहे थे।  
तने पर भी जनता भरोसा करे तो किस पर करे? कोई तो दूध का धुला नहीं दिखाई देता है। वह असमंजस में है उस व्यक्ति की तरह जो किसी के भरोसे परदेस में आ गया है और वही उसे छोड़ कर गायब हो गया है। श्रवण जी!  भरोसा तो उठ चुका है, और किसी एक सरकार या राजनैतिक दल पर से नहीं। अब समूची व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है। आप को दिखाई नहीं देता, तो देख लें किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं, आदिवासी  नक्सलियों के साथ हथियार बंद हो, एक दल को नहीं समूचे मौजूदा भारतीय राज्य को चुनौती दे रहे हैं। यह भरोसे का उठ जाना नहीं तो क्या है?
वाल उठता है कि जब राजनीति में कीचड़ के सिवा कुछ न बचे तो कपड़े कैसे बचाएँ जाएँ, दलदल से कैसे बचा जाए?  मौजूदा राजनीति से कुछ निकलेगा यह संभव भी नहीं लगता। हमें राजनीति को परखते परखते साठ बरस होने को आए। हर बार भरोसा किया जाता है और हर बार भरोसा टूटता है। अब तो जनता के पास सिर्फ और सिर्फ अपना भरोसा शेष रहा है, उसे ही अपने भरोसे कुछ करना होगा। व्यवसायों के स्थान पर और मुहल्ला मुहल्ला अपने जनतांत्रिक संगठन खड़े करने होंगे। दगाबाज नेताओं को ठुकरा कर अपने नेता खुद खड़े करने होंगे। मौजूदा व्यवस्था से एक लंबी लड़ाई की शुरूआत करनी होगी। जनतांत्रिक संगठनों की लड़ाई ही इस कीचड़ में से हीरे निकाल कर वापस ला सकती है।
2. ब्लागवाणी पंसद लगाया या न लगाया?