@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: हादसा
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गुरुवार, 17 जून 2010

लीलना ही है, तो मुनाफे की भूखी डायन को लीलो

क-एक कर अफसर बोलते जा रहे हैं, पोल खोलते जा रहे हैं। अर्जुन चुप हैं, जो बोल रहे थे उन्हें चुप रहने के लिए बोला गया है। अधिकारिक घोणणा के लिए मंत्रियों का समूह गठित हो चुका है। वह कागजातों की जाँच करेगा, फिर बोलेगा। लेकिन इस से क्या?

 जो बोल रहे हैं वे तो बोल रहे हैं। लोग बोल रहे हैं। उस समय के अखबार बोल रहे हैं, अदालतों के फैसले बोल रहे हैं, मुकदमों की फाइलें बोल रही हैं। सब कुछ खोल कर रख दिया गया है। पहले बात थी कि अर्जुन सिंह ने एंडरसन को भगाया। फिर बात चली कि राजीव गांधी की भी उस में सहमति थी। अब बोला जा रहा है कि नरसिम्हाराव भी शामिल थे। समझ यह नहीं आ रहा है कि लोग क्यों इस बात के पीछे पड़े हैं कि किसी न किसी व्यक्ति को दोषी ठहरा कर मामले की छुट्टी कर दी जाए। जब कि मामला बिलकुल साफ है।
एंडरसन साहब के पास पहले रिपोर्ट गई कि प्लांट में सुरक्षा की कमियाँ हैं। उन्हों ने देखा कि इस में बहुत खर्चा है। कारखाने में घाटा दिखाया और उसे बेचने की तरकीब भिड़ाने लगे। मामला यह भी था कि कारखाना मजदूरों को हस्तांतरित कर दिया जाए। यानी कारखाना खतरनाक हो चुका था। कभी भी हजारों जानें लील सकता था। पर पूंजी प्यारी थी। कारखाना कैसे बंद कर देते। उस से जितना वसूल हो सकता था वसूल क्यों न किया जाए। यह पूंजी के इस युग का चरित्र है। लेकिन इस से पहले कि कारखाना किसी और के हाथ में जाता उस ने जानें लील लीं। पापों का प्रायश्चित तो करना ही था, करना नहीं अपितु करते हुए दिखाना था। सो मौतों पर आँसू टपकाने के लिए एंडरसन साहब भारत आना चाहते थे। पर उन्हें भय था कि यहाँ वे धर न लिए जाएँ। उन्हें खबर थी कि भोपाल के थाने में उन का नाम दर्ज हो चुका है। 
सूख वाले थे, या यूँ कहें कि वे उन में से एक थे जो दुनिया के सब से शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति को चुनने में सब से बड़ी भूमिका अदा करते हैं। उन्हों ने अपनी सरकार के विदेश मंत्रालय से संपर्क किया। विदेश मंत्रालय ने भारत के विदेश मंत्रालय से संपर्क किया। अब यह हो सकता है क्या कि अमरीका का विदेश मंत्रालय भारत के विदेश मंत्रालय से सिर्फ एक आदमी को आँसू टपकाने भारत आने देने और उसे वापस अमरीका जाने देने की बात कहे और मना कर दिया जाए।  ये तो सम्राट के दरबार में ख़ता करना जैसा होता। जिस की सजा कब मिलती इस का भी पता नहीं लगता। सो एंडरसन साहब आए। उन्हों ने चंद आँसू टपकाए और उन्हें जाने दिया गया। अब देश के लोगों को दिखाने के लिए उन्हें गिरफ्तार भी दिखाया गया और जमानत पर छोड़ भी दिया गया। यह सब प्रहसन हुआ, सब  ने देखा और इतिहास में दर्ज हो गया। पर इतने से ही बस होती तो बहुत था। आखिर हजारों लोग मरे थे, हजारों घायल हो तड़प रहे थे। सरकार की जिम्मेदारी थी उन्हें राहत पहुँचाने की। सरकार ठहरी गरीब देश की गरीब सरकार। कैसे करती यह सब? 
स ने हाथ फैलाए अमरीका के सामने, एंडरसन के सामने। उन्हों ने सरकार की झोली में डाल दिए पत्रम्-पुष्पम्। जैसा याची वैसा दान। पर वह भी बिना शर्त नहीं। शर्त थी कि कंपनी के तमाम लोगों के खिलाफ मुकदमे खत्म कर दिए जाएँ। शर्त मान ली गई। सब अपराधी मुक्त हो गए, जैसे हरिद्वार में गंगा स्नान हो गया हो। फिर लोग सु्प्रीमकोर्ट पहुँचे, समझौता हो सकता है दीवानी दायित्व पर, अपराधिक दायित्व पर नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने मुकदमा सुना और कहा कि मुकदमे चलेंगे। बस यहीं से असली मुसीबत शुरू हुई। गंगा नहाए अपराधी फिर से अदालत में मुलजिम बने खड़े हो गए। फिर कानून लचर निकला। अदालतें तो जितनी हैं उतनी हैं ही। आप लोगों ने आज टीवी पर देख ही लिया होगा कि जहाँ भारत की जरूरत 10 लाख पर 50 अदालतों की है वहाँ हैं केवल ग्यारह। इतनी ही आबादी पर अमरीका में 111 और कनाडा में 86 हैं। हमें न्याय मिलता है अमरीका के मुकाबले दस परसेंट। अब आप हिसाब लगाएंगे तो पाएंगे कि इस मामले में दस परसेंट से कुछ ज्यादा ही मिल गया है। 
दोष किसी एक व्यक्ति का नहीं है, न सरकारों का है और न ही किसी पार्टी का है। सरकार में कांग्रेस न होती भाजपा होती तो भी यही होता। आखिर वाजपेयी जी भी महिंद्रा को ईनाम से नवाज ही चुके थे। राजनेताओं,  अफसरों और राजनैतिक दलों को दोष देना सरासर गलत है। वे वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए, वे आगे भी वही करते रहेंगे। कोई गारंटी नहीं अगला भोपाल देश के किसी इलाके में हो सकता है और भारत में ही नहीं दुनिया के किसी कोने में हो सकता है। असल में दोष तो उस व्यवस्था का है जो मुनाफे पर चलती है। ये सब तो कारकून हैं उस के। जब तक इन कारकूनों की माँ, यह मुनाफे की भूखी डायन व्यवस्था जीवित है तब तक लोगों को लीलती रहेगी इसी तरह। इस से बचना है तो इसे लीलना पड़ेगा।

बुधवार, 9 जून 2010

भोपाल के इंसाफ ने राज्य के चरित्र को फिर से उघाड़ दिया है

भोपाल गैस कांड से उद्भूत अपराधिक मामले में आठ आरोपियों को मात्र दो वर्ष की कैद और मात्र एक-एक लाख रुपया जुर्माने के दंड ने एक बार फिर उसी तरह भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर दिया है जिस तरह भोपाल त्रासदी के बाद के कुछ दिनों में किया  था। इस घटना ने लोगों के मन में एक प्रश्न खडा़ किया है कि इस देश में कोई राज्य है भी? और है तो कैसा है और किन का है?
हले राज्य की बात की जाए, और उस के अपने नागरिकों के प्रति दायित्वों की। इस संदर्भ में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसरवानी की खुद बयानी को देखें -
वर्ष 1981 के दिसंबर महीने में कार्बाइड प्लांट में कार्यरत मोहम्मद अशरफ़ की फ़ास्जीन गैस की वजह से मौत हो गई. मैं चौंक गया। वहां पहले भी दुर्घटनाएं हुई थीं और वहां के मज़दूर और आसपास के लोग प्रभावित हुए थे। मैने एक पत्रकार के नाते इसे पूरी तरह जान लेना ज़रूरी समझा कि आख़िर ऐसा क्या होता है इस प्लांट में।
नौ महीने की जी-तोड़ कोशिशों के नतीजे में साफ़ साफ़ दिखाई दे गया कि यह कारखाना एक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह चल रहा है। सुरक्षा के सारे नियमों की धज्जियां उड़ाता हुआ। किसी दिन यह इस पूरे शहर की मौत का सबब बन सकता है. आख़िर को एमआईसी और फ़ास्जीन दोनों ही हवा से भारी गैस हैं.
19 सितंबर, 1982 को अपने छोटे से साप्ताहिक अख़बार ‘रपट’ में लिखा ‘बचाइए हुज़ूर, इस शहर को बचाइए’। एक अक्तूबर को फिर लिखा ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’।  आठ अक्तूबर तो चेतावनी दी ‘न समझोगे तो आख़िर मिट ही जाओगे’
जब देखा कोई इस संभावना को गंभीरता से नहीं ले रहा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखा और सर्वोच्च न्यायालय से भी दख़ल देकर लोगों की जान बचाने का आग्रह किया. अफ़सोस, कुछ न हुआ। हुआ तो बस इतना कि विधानसभा में सरकार ने इस ख़तरे को ही झुठला दिया और कार्बाइड को बेहतरीन सुरक्षा व्यवस्था वाला कारखाना क़रार दिया। फिर हिम्मत जुटाई और 16 जून, 1984 को देश के प्रमुख हिन्दी अख़बार ‘जनसत्ता’ में फिर यही मुद्दा उठाया। फिर अनदेखी हुई। और फिर एक आधी रात को जब सोते हुए दम घुटने लगा तो जाना मेरी मनहूस आशंका बदनसीबी से सच हो गई है।
राजकुमार केसरवानी की यह खुद बयानी साबित करती है, कि राज्य की मशीनरी, जिस में सरकार, सरकार के वे विभाग जो कारखानों पर निगाह रखते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, न्यायपालिका और कानूनों को लागू कराने वाले अंग, सभी नागरिकों की बहुमूल्य जानों और स्वास्थ्य के प्रति कितने संवेदनशील हैं/थे। किसी को भी लेश मात्र भी नागरिकों की कोई चिंता न थी। एक पत्रकार राजकुमार केसरवानी चिंता में घुला जा रहे था। उस ने अखबारों में रपटें प्रकाशित की थीं। उन रपटों को सरकार के अधिकारियों ने अवश्य पढ़ा होगा, पढ़ा तो यूनियन कार्बाइड के कर्ताधर्ताओं ने भी होगा। लेकिन शायद इस मामले में भी वही हुआ होगा जो आम तौर पर रोजाना होता है। जब भी किसी कारखाने या उद्योग के संबंध में कोई शिकायत सामने आती है। संबंधित अधिकारी उद्योगों के प्रबंधकों को फोन पर संपर्क करते हैं, उन्हें कार्यवाही करने को सचेत करते हैं और कार्यवाही न करने की अपनी कीमत बताते हैं। यह भी हो सकता है कि बात मंत्री स्तर तक भी पहुँची हो। लेकिन नकली जनतंत्र में जहाँ एक विधायक को टिकट प्राप्त करने से ले कर विधान सभा में पहुँचने तक करोड़ों खर्च करने पड़ते हों वहाँ वे भी ऐसे मौके मिल जाने पर अपनी कीमत वसूलने का अवसर नहीं  चूकते। मंत्रियों की तो बात ही कुछ और है। उन की कीमत शायद कुछ अधिक होती है। देश की व्यवस्था इसी तरह चल रही है, और जनतंत्र के मौजूदा ढाँचे में इसी तरह चलती रहेगी।


भोपाल में जिस दिन गैस रिसी उस दिन का हाल जानने के लिए आप हादसे की उस रात भोपाल के पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी की जुबानी जानिए, जिन की उस दिन शहर में अपनी ड्यूटी करने के नतीजे में ज़हरीली गैस से आँखें खराब हो गईं और फेफड़ों की क्षमता 25 प्रतिशत कम हो गई। ......
मुझे याद है कि दो दिसंबर की रात 11 बजे मैं अपने घर पहुँचा और सोने की तैयारी कर रहा था।  करीब 12 बजे बाहर एक गाड़ी आई। सब- इंस्पेक्टर चाहतराम ने बाहर से चिल्लाकर कहा, "सर, यूनियन कार्बाइड की टंकी फूट गई है। शहर में भगदड़ मच गई है"। मैंने टेलीफोन उठाया लेकिन टेलीफोन काम नहीं कर रहा था। इतने में टीआई सुरेन्द्र सिंह भी आ गए और उन्होंने बताया कि शहर में गदर मच रहा है।
मैंने एक जैकेट पहनी और यूनियन कार्बाइड की ओर गाड़ी दौड़ा दी।  मुझे याद आता है, सामने से रजाई-कंबल ओढ़े लोग, खाँसते हुए भाग रहे थे। मैंने महसूस किया कि मैं भी खाँस रहा हूँ। यूनियन कार्बाइड के गेट पर एक काला-सा आदमी था और ऊपर आकाश में गैस जैसा कुछ दिखने लगा था।  उस काले आदमी ने कहा, "सर, सभी लोग टंकी के पास गए हैं"। मैं कारख़ाने के सुरक्षा कार्यालय में गया पर वहाँ कोई नहीं था और तब तक गैस का असर भी बढ़ गया था। मैं कारख़ाने से निकलकर सामने की बस्ती, जेपी नगर गया, बाईं तरफ के भी टोला था. सब ओर भगदड़ मच गई थी। मेरी आँखों में जलन हो रही थी और गला बंद हो गया। हम लोगों ने कलेक्टर को ढूंढ़ना शुरु किया।  कंट्रोल रूम पहुँचा, वहाँ चौहान थे।  कंट्रोल रूम शहर के बीच में था।
भोपाल में वेपर लैंप लग गए थे। मैं कंट्रोल रूम के बाहर भागती भीड़ को रोकने लगा। तभी मेरी निगाह एक युवती पर पड़ी जो रात के कपड़ों में थी।  उसके हाथ में बच्चा था। मैं भीड़ के धक्के में दौड़ा ताकि बच्चे को बचा सकूँ पर भीड़ का रेला ऐसा था कि युवती के हाथ से बच्चा फिसल गया. सुबह छह बजे मैंने उस बच्चे की लाश सड़क पर पड़ी देखी। इस दुर्घटना को मैं कभी नहीं भूल सकता।
सुबह साढ़े छह बजे कमिश्नर रंजीत सिंह का फोन आया कि रेलवे स्टेशन पर हालात ख़राब हैं।  रेलवे स्टेशन के सामने एक गोल चक्कर बना था।  पुलिस ऑफसर एसएस बिल्ला को देख मैं चिल्लाया कि ये लोग क्यों सो रहे हैं, इन्हें उठाओं। यह कहते हुए उन सारे लोगों के हाथों को मैं खींचने लगा।  बिल्ला ने कहा, "सर ये लाशें हैं।  36 हैं।"
सुबह मुख्यमंत्री के यहाँ एक मिटिंग हुई। अफ़वाह उड़ी थी कि एक टंकी और फूट गई है। फिर क्या था, लोग फिर भागने लगे। नीचे पोलिटेक्निक आया तो भीड़ पुराने भोपाल से नए भोपाल की ओर जा रही थी। मैं ट्रैफिक आईलेंड पर चढ़ गया और माइक पर मैंने लोगों से कहा कि वे घर लौट जाएँ और भीड़ को पुराने भोपाल जाने के लिए मैं ख़ुद उनके साथ चलने लगा।  ऐसी अनेकों घटनाएँ है जो उस रात बीतीं जब मन में असहायता का बोझ महसूस किया।  उस रात और अगले कुछ दिन ऐसे-ऐसे मंजर देखे-महसूस किए जो अब याद नहीं करूँ तो अच्छा है।
स. पी. साहब ने अपना कर्तव्य किया और उस की सजा भी पाई। लेकिन हजारों मनुष्यों का प्राण हर लेने वाला कारखाना उन्हीं के क्षेत्र में चल रहा था। यह जानते हुए भी कि वह कभी भी हजारों की मौत कारण बन सकता है। शायद उसे रोक पाना उन के कर्तव्य में शामिल नहीं था। यह राज्य कैसे अपने ही मालिकों के किसी कृत्य  को नियंत्रित करने का अधिकार कैसे प्रदान कर सकता था? पुलिस का अस्तित्व सिर्फ उन की रक्षा करने भर का जो है।
राज्य की सारी मशीनरी की यही हालत है। पिछले दिनों जब एक गरीब महिला ने उस की संपत्ति छीन लेने की शिकायत अदालत को की तो उस ने कहा कि उस के मामले को पुलिस को न भेजा जाए, क्यों कि वह तो इस में लीपापोती कर इसे बंद कर मुझे ही अपराधी घोषित कर देगी, तो जज की प्रतिक्रिया यह थी कि बात सही है पुलिस तो इस में पैसा ले लेगी और केस बंद कर देगी। उसी राज्य की मशीनरी की एक अंग, सरकार की प्रतिष्ठित जाँच ऐजेंसी सीबीआई कैसे एंडरसन नाम के आका को कैसे जेल में बंद और देश में रोके रख सकती थी।
क न्यायपालिका है जिस के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर दिया गया है। देश में जरूरत के सिर्फ एक चौताई न्यायालय हैं जिन में से 12-13 प्रतिशत में कोई जज नहीं है। वह कैसे देश की जनता को न्याय प्रदान कर सकता है। वह भी साम्राज्यवादियों द्वारा 1860 में निर्मित दंड संहिता के बल पर। उसे सिर्फ उपनिवेश की जनता को शासित करने के लिए निर्मित किया गया था। उस समय ऐसा कृत्य इस उपनिवेश का कोई निवासी कर ही नहीं सकता था। ऐसे कृत्य केवल ईस्ट इंडिया कंपनी कर सकती थी। जिस ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव डाली हो उस के किसी कृत्य को यह संहिता अपराध कैसे घोषित कर सकती थी। हालांकि आजादी के उपरांत इस संहिता में बदलाव हुए हैं।  लेकिन उस की आत्मा साम्राज्यवादी है। जो उन के साथ चले उन के लिए वह सुविधा जनक है।
ह हमारे राज्य का चरित्र है। राज्य का यह चरित्र उन चुनावों के जरिए नहीं बदल सकता जिस में सरपंच का उम्मीदवार एक करोड़ से अधिक खर्च कर रहा हो और उस के इस खर्चे को वसूल करने के लिए देश की सरकार नरेगा जैसी आकर्षक योजना चलाती हो। जनता को सोचना होगा कि इस राज्य के चरित्र को कैसे बदला जा सकता है। इस तरह के हादसे और बढ़ने वाले हैं। ये सदमे उसे इस दिशा में सोचने को हर बार विवश करते रहेंगे।

रविवार, 3 जनवरी 2010

ख्वाब में आके वो सताने लगा

पिछले वर्ष के अंतिम सप्ताह में कोटा से गुजरने वाले अलाहाबाद को अहमदाबाद से जोड़ने के लिए बन रहे राष्ट्रीय उच्चमार्ग पर निर्माणाधीन हैंगिग ब्रिज पर हादसा हुआ और एक तरफ बना पुल का हिस्सा नदी में गिर पड़ा। काम कर रहे श्रमिक/इंजिनियर मलबे में जा दबे। अब तक 42 मृतकों के शव मिल चुके हैं। कुछ और शव अभी मलबे में हैं। तियालिसवीं मृत्यु अस्पताल में एक घायल की हुई। कुछ लापता लोगों के परिजन अब भी अपने प्रिय की तलाश में यहाँ चंबल किनारे बैठे हैं। भास्कर की यह खबर देखें ....

चंबल के तट पर पति का इंतजार


छह दिन से एक नवविवाहिता चंबल के तट पर बैठकर अपने पति का इंतजार कर रही है। उसका पति चंबल ब्रिज हादसे के बाद से लापता है। उसकी शादी चार माह पहले ही हुई है। रो—रोकर उसका बुरा हाल है और स्वास्थ्य भी गिरता जा रहा है। पश्चिम बंगाल के किशोर बिश्वास का विवाह चार माह पहले लिपि बिश्वास से हुआ था। शादी के कुछ दिन बाद ही किशोर कोटा आ गया। जनवरी में वो छुट्टी पर घर जाता। अभी लिपि की मेहंदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा था और उसकी कई रस्में भी पूरी नहीं हुई थी कि चंबल ब्रिज हादसा हो गया। हादसे की सूचना मिलते ही लिपि अपने ससुर, ननद, ननदोई , मामा ससुर के साथ 26 दिसंबर को यहां आ गई। उसके बाद से वह चंबल के दूसरे तट पर हुंडई कंपनी के शिविर में रह रही है। उसकी हालत से परिजन भी चिंतित हैं। मामा अमोल बिश्वास ने बताया कि कोई भी शव मिलने की सूचना पर लिपि घबरा जाती है। पूरा परिवार ईश्वर से किशोर के सही सलामत मिलने की प्रार्थना कर रहा है।
 


अपनों को हादसों में खोने वालों को समर्पित है पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की यह ग़ज़ल ....






ख्वाब में आके वो सताने लगा
  •  पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

 जिस को चाहा वही सताने लगा
हाथ थामा तो छोड़ जाने लगा


उस की आँखों में कुछ चमक आई
उस का बेटा भी अब कमाने लगा


वो न आया तो फिर ख़याल उस का 
ज़हन में बार-बार आने लगा

धड़कनें उस का नाम रटने लगीं
दिल कभी जब उसे भुलाने लगा

वो नहीं था तो उस का चहरा हसीं
सामने आ के मुस्कुराने लगा

मुंतज़िर दीद की थकी आँखें 
नींद का भी ख़ुमार छाने लगा

उस से रुख़्सत का वक़्त आया तो 
दिल मेरा बैठ-बैठ जाने लगा

नींद आने लगी ज़रा तो 'यक़ीन' 
ख्वाब में आके वो सताने लगा

################ 

(समाचार दैनिक भास्कर से साभार)

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

बहत्तर घंटे पूरे होने का इंतजार

जुकाम का आज तीसरा दिन है।  परसों शुरू हुआ था तो समझा गया था कि होमियो बक्से की दवा से स्टे मिल जाएगा। पर नहीं मिला। रात बारह बजे बाद तक नाक की जलन के मारे नींद नहीं आ सकी थी और सुबह चार बजे ही खुल गई। तब से नाक  एक तरफ से उस बरसाती छत की तरह टपकती रही जिस के टपके से डर कर शेर गधा हो गया था और कुम्हार ने उसे बांध लिया था। दुबारा नींद आई ही नहीं। मजबूरी यह कि अदालत जाना जरूरी है, सो गए। वरना कोई न कोई मुकदमा लहूलुहान हो सकता था। रात तक टपका जारी रहा। घर लौटे तो पत्नी जी की सलाह से कुछ नयी दवाओं को आजमाया गया। पर नाक ने अपना स्वभाव दिन भर की तरह जारी रखा।
शाम को ब्लाग पढ़ने बैठे तो अलग सा पर एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता पढ़ कर तसल्ली मिली कि एक आदमी, नहीं ब्लागर, तो है जिस  को हमारे जुकाम का पता लगा। पढ़ कर बहुत तसल्ली मिली कि दवा करो तो तीन दिन में और न करो तो बहत्तर घंटों में आराम आ जाता है। हम दवा कर चुके थे। बड़ा अफसोस हुआ कि नहीं करते तो दिनों के बजाए घंटों में ठीक हो जाते। फिर कुछ गणित लगाई तो पता लगा। बात एकै ही है।

रात को वही बारह बजे बाद जैसे तैसे नींद आई। सुबह उठे तो सवा छह बजे थे। यानी बहत्तर में छह और कम हुए। नाक दोनों सूखी थी। लेकिन लग रहा था कि सांस के साथ अंदर तक कुछ असर हुआ है। सफाई वफाई करने पर पता लगा कि बहना बंद है। हम खुश हो गए। पर कुछ देर बाद ही दूसरी वाली साइड चालू हो गई। यानी नाक की साइडें शिफ्टों में काम कर रही थी।

आज भी काम कम नहीं है। एक मुकदमे में बाहर भी जाना था। मुवक्किल को कल ही बता दिया था कि नाक ने साथ दिया तो जा पाऊँगा वरना नहीं। अब लगता है कि नहीं जा सकता। उस का फोन आया तो ठीक, वरना मुवक्किल इतना होशियार है कि अपना इंतजाम खुद कर लेगा। हाँ कोटा की अदालत तो जाना ही पड़ेगा। तैयारी सब कर ली है। बहत्तर घंटे शाम को छह-सात बजे पूरे हो रहे हैं। उस के बाद भी बरसात जारी रही तो फिर अपनी नाक को नुक्कड़ वाले डाक्टर धनराज आहूजा हवाले ही करना पड़ेगा।

अब अदालत के लिए तैयार होते हैं। शाम को फिर मिलेंगे।

पुनश्च- डाक्टर प्रभात टंडन ने फरमाया है...ख़ुश रहिए और सर्दी से बचिए
कहा है जुकाम का कारण तनाव है। अब तलाशता हूँ कि कोई तनाव था क्या? और था तो क्यों, किस कारण से?

सोमवार, 24 नवंबर 2008

तुलना प्रत्याशियों का, कचरे से

कोटा नगर में दो विधानसभा क्षेत्र उत्तर और दक्षिण हैं, इस के अतिरिक्त एक लाड़पुरा विधानसभा क्षेत्र भी है जिस में कोटा नगर की आबादी का एक हिस्सा तथा शेष ग्रामीण इलाका आता है। इस तरह कोटा नसभी अखबारों के कोटा संस्करणों में कोटा नगर की तीन विधान सभा क्षेत्रों के प्रत्याशियों के नित्य के कार्यकलाप नित्य पढने को मिल जाते हैं। आज के लगभग सभी समाचार पत्रों में खबर है कि प्रत्याशी जहाँ जहाँ भी प्रचार के लिए गए उन्हें विभिन्न वस्तुओं से तोला गया।

इन वस्तुओं में लड्डू और फल तो थे ही फलों की विभिन्न किस्में भी थी। कहीं केलों से तुलाई हो रही थी तो कहीं अमरूदों से। कहीं कहीं सब्जियों से भी उन्हें तोला जा रहा था। कहीं मिठाइयों से भी तोला गया था। तुलाई होने के पश्चात यह सब सामग्री प्रत्याशी के साथ आए लोगों और क्षेत्र के नागरिकों में वितरित की जा रही है। बाकी शेष सामग्री तो ठीक है उसे तुरंत ही खा-पी कर निपटा दिया जाता है। लेकिन सब्जियों का क्या होता है? पता लगा यह महिलाओं को रिझाने का तरीका है। जनसंपर्क के दौरान घरों पर जो भी महिलाएँ मिलती हैं उन में यह सब्जी वितरित कर दी जाती है।

कोटा की कचौड़ियाँ मशहूर हैं, कोई कोटा आए और कोटा की कचौड़ियाँ न खाए तो समझा जाता है उस का कोटा आना बेकार हो गया। ये दूसरे शहरों और विदेश तक में निर्यात होती हैं। तो कोटा में प्रत्याशी विभिन्न खाद्य सामग्री से तुल रहे हों तो कचौड़ियाँ कैसे पीछे रह सकती थीं। यहाँ इन्हें कचौरी कहा जाता है। वैसे भी प्रत्याशी जी के साथ चलने वाली फौज को नाश्ते के नाम पर कचौरियाँ और चाय ही तो मिलती है। तो एक प्रत्याशी जी कचौरियों से भी तुल गए।

अदालत में जब इन का चर्चा हो रहा था। तब किसी ने कहा प्रत्याशी को तौलने के लिए तो कम से कम 60 से 90 किलो तक कचौरियाँ चाहिए होंगी इतनी कचौरियाँ एक मुश्त मिलना ही कठिन है। एक सज्जन ने राज बताया कि प्रत्याशी को ऐसे थोड़े ही तौला जाता है। टौकरों में कचौरियाँ भरी जाती हैं तो उन के नीचे वजनी पत्थर भी होते हैं ताकि कम से ही काम चल जाए। पत्थर फोटो में थोड़े ही आते हैं।

एक सज्जन कचौरियों और कचरे के नाम साम्य से प्रभावित थे। उन्हों ने सुझाव दे डाला कि कोटा में पिछले पन्द्रह सालों से भाजपा का नगर निगम पर कब्जा चला आ रहा है लेकिन कचरा है कि कभी साफ होने का नाम ही नहीं लेता है। अनेक मोहल्लों में तो यह शाश्वत समस्या हो चुकी है। उन का कहना था कि भाजपा के प्रत्याशियों को तो कचरे से तौला जाना चाहिए।

इस पर दूसरे ने सुझाव दिया कि यह इतना आसान नहीं है। तीसरा बोला यह कोई ऐसे ही थोड़े ही हो जाएगा। उस के लिए तो एक गुप्त योजना बनाई जाएगी। खूबसूरत बोरों और कार्टनों में बन्द कर के कचरा रखा जाएगा प्रत्याशी जी को उन बोरों और कार्टनों से तोला जाएगा। असल मजा तो तब आएगा, जब उन कार्टनों और बोरों को सामग्री वितरण के लिए खोला जाएगा।

बहुत देर तक यह चर्चा चलती रही। लोग आनंद लेते रहे। मैं सोच रहा था कि क्या आज के प्रत्याशी कचरे से तोलो जाने लायक ही रह गए हैं?  जितना वजन, उतना कचरा!

सोमवार, 6 अक्टूबर 2008

बलबहादुर सिंह की ऐंजिओप्लास्टी

इन्दौर के होल्कर राज्य की सेना में बहादुरी के बदले उन्हें राजपूताना की सीमा पर 12 गाँवों की जागीर बख्शी गई। पाँच पीढ़ियाँ गुजर जाने और जागीरें समाप्त हो जाने पर उन के वंशज अब किसान हो कर रह गए हैं। गाँव में रहते और किसानी करते करते वही ग्रामीण किसान का सीधापन उन के अंदर घर कर गया। जागीरदारी का केवल सम्मान शेष रहा। सीधेपन और सरल व्यवहार ने उस परिवार के सम्मान को नई ऊंचाइयाँ दीं। इसी परिवार के एक 68 वर्षीय बुजुर्ग बलबहादुर सिंह इसी साल 19 अगस्त को अपने गांव रावली के पास के निकटतम कस्बे सोयत जिला शाजापुर मध्य प्रदेश से अपने कुछ रिश्तेदारों से मिलने कोटा आने के लिए बस में बैठे पुत्र चैनसिंह साथ था।

बस कोटा से कोई तीस किलोमीटर दूर मंड़ाना के पास पहुँची थी कि बलबहादुर को पेट में दर्द होने लगा उन्हों ने इस का उल्लेख अपने पुत्र और सहयात्रियों से किया।कोटा के नजदीक आते आते पेट दर्द बहुत बढ़ गया तो सहयात्रियों ने सलाह दी कि वे कोटा में कामर्स कॉलेज चौराहे पर उतर कर वहाँ के किसी अच्छे अस्पताल में दिखा कर इलाज ले लें। बस कॉमर्स कॉलेज चौराहा पहुँची तो बलबहादुर सिंह अपने पुत्र सहित वहीं उतर गए और सब से नजदीकी अस्पताल पहुँचे। वे अस्पताल के गेट से अंदर प्रवेश कर ही रहे थे कि विजयसिंह नाम का एक नौजवान उन्हें मिला। उस ने उन से बातचीत की। खुद को उन की जाति का और सोयत में अपनी रिश्तेदारी बताई और उन्हें विश्वास में ले कर सलाह दी कि यह अस्पताल तो अब बेकार हो गया है। अच्छा इलाज तो पास के दूसरे अस्पताल में होता है, अस्पताल भी बड़ा है और वहाँ सारी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं। मैं वहीं नौकरी करता हूँ। आप को डाक्टर को दिखा कर अच्छा इलाज करवा दूंगा। मेरे कारण आप को खर्च भी कम पड़ेगा। एक तो जात का, दूसरे गांव के पास ही उस की रिश्तेदारी, बलबहादुर ने उस का विश्वास किया और उस के साथ उस बड़े अस्पताल आ गए।

अस्पताल पहुँचते ही विजयसिंह ने वहाँ के प्रधान डॉक्टर मिलवाया। डॉक्टर ने खुद जाँच की फिर दो अन्य डॉक्टरों को बुला कर दिखाया। सभी डॉक्टरों ने आपस में सलाह कर बताया कि अभी और जांचें करनी पड़ेंगी जिस का खर्च पाँच-छह हजार आएगा, यह राशि तुरंत जमा करानी पड़ेगी। विजय सिंह बलबहादुर के पुत्र चैन सिंह को अलग ले गया और कहा कि तुम्हारे पिता को तो हार्ट अटैक आने वाला है, इन का तुरंत इलाज जरूरी है, अन्यथा या तो इन से हाथ धो बैठोगे या फिर इन को लकवा हो जाएगा तो जीवन भर के लिए पलंग पकड़ लेंगे। लेट्रिन-बाथरूम के लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाएंगे। चैन सिंह कुछ समझता और निर्णय लेता उस से पूर्व ही डॉक्टरों ने उसे कहा कि 50-60 हजार रुपयों का इन्तजाम करो इन का तुरंत आपरेशन करना पड़ेगा। चैन सिंह भौंचक्का रह गया उस इतने पैसे का तुंरत तो इन्तजाम नहीं हो पाएगा कल तक कोशिश कर सकता हूँ। उसे जवाब मिला -इतना समय नहीं है, जितने पैसे अभी हों उतने अभी जमा करा दो तो हम इलाज चालू करें। इस बीच तुम जितना हो सके इंतजाम करो। पिता की तत्काल मृत्यु की आशंका से भयभीत हुए चैनसिंह ने अपने और पिता के पास के सवा तीन हजार रुपए जमा करवा दिए। वह रुपयों के इन्तजाम जुटा और बलबहादुर को अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में पहुँचा दिया गया।

उसी दिन बल बहादुर का ऑपरेशन कर के दो घंटे बाद जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया। दूसरे दिन चैनसिंह किसी तरह बीस हजार रुपये जुटा कर लाया लाया जिसे अस्पताल वालों ने जमा कर रसीद दे दी। लिया। उसे कहा गया कि अभी उस के पिता का इलाज शेष है, चालीस हजार रुपयों का इंतजाम और कर के जमा कराओ। हम कल तक इन की अस्पताल से छुट्टी कर देंगे। चैनसिंह ने अपने मौसा को खबर भेजी। तीसरे दिन वे चालीस हजार रुपया और ले कर आए वह भी अस्पताल में जमा करा दिया गया। यह रुपया जमा हो जाने पर बलबहादुर को बताया गया कि उस की एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी 19 अगस्त को ही कर दी गई है।

इस बीच बलबहादुर को सीने और पेट में दर्द होता, जिस की वह शिकायत करता तो उस से कहा जाता कि चुपचाप लेटे रहो, अभी बाहर से डाक्टर आएंगे और वही तुम्हें देखेंगे। बलबहादुर को अब तक लगने लगा कि वह कहीं इस अस्पताल में आ कर फंस तो नहीं गया है वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। उस ने प्रतिपक्षीगण से अस्पताल से छुट्टी देने की प्रार्थना की तो उसे अस्पताल बयालीस हजार का बिल और बताया गया और कहा गया कि जमा करा दोगे तो शेष रहा जीवन भर लगातार चलने वाला इलाज बता कर छुट्टी कर देंगे। जब तक रुपया जमा नहीं होगा छुट्टी नहीं मिलेगी। इस बीच पुत्र ने उसे हिंगोली की गोली बाजार से ला कर दी तो पेट दर्द कम हो गया। इस तरह के व्यवहार से बलबहादुर अपने अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गया। अस्पताल वाले लगातार रुपया जमा कराने को कहते रहे। बलबहादुर को लगने लगा कि अब इस अस्पताल में उस की खैर नहीं है, यहाँ दो दिन भी रहा तो वह शायद ही जीवित घर वापस लौट सके। इस तरह के डाक्टर तो पैसे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहाँ से उसे निकलना पड़ेगा।

खुद को ठगा हुआ, फंसा हुआ और बंदी समझ कर बलबहादुर अपने पुत्र के साथ 22 अगस्त को चुपचाप अस्पताल छोड़ भागा। उसी दिन उस ने खुद को हृदयरोग विशेषज्ञ और मेडीकल कॉलेज कोटा के एक सहायक प्रोफेसर डाक्टर को दिखाया तो उन्हों ने कहा कि आप को मात्र गेस्ट्रिक प्रोब्लम थी। आप का गलत इलाज कर दिया गया। आप की ऐंजिओप्लास्टी करने की जरूरत ही नहीं थी। उस ने गेस्ट्रिक प्रोब्लम के लिए सामान्य दवाइयाँ लिखीं जिन को लेने के बाद तुरंत ही बलबहादुर खुद को सहज और स्वस्थ महसूस करने लगा। लेकिन उस की शंकाएं नहीं गईं। दूसरे दिन उस ने खुद को मेडीकल कॉलेज एक पूर्व अधीक्षक,पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष मेडिसिन विभाग और हृदयरोग विशेषज्ञ, को दिखाया तो उन्हों ने भी यही कहा कि उसे हार्ट की कोई बीमारी ही नहीं थी जिस के इलाज की जरूरत होती। लेकिन अब एंजिओप्लास्टी कर दी गई है तो जीवन भर निरंतर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। जिन का महिने भर का खर्च आठ सौ-हजार रुपए आएगा। यह खर्चा तो जीवन भर करना ही पड़ेगा।

इस बीच विजयसिंह बलबहादुर के गांव रावली जा पहुँचा, और घर में घुसते ही बलबहादुर और उस के परिवार वालों को चिल्ला कर अपशब्द कहते हुए कहा कि लोग अस्पताल में भरती हो कर इलाज करवा लेते हैं, और फिर बिना पैसा जमा कराए अस्पताल से भाग जाते हैं। पूछने पर बलबहादुर के परिवार वालों को उस ने बताया कि उन के परिवार के मुखिया ने उन के अस्पाताल मे इलाज करवाया और बिना रुपया दिए भाग आया है और धमकी दे गया कि बाकी का रुपया जमा करवा दो वरना इस का अंजाम बहुत बुरा होगा। परिवार वाले यह सब सुन कर घबरा गए, उन्हें बलबहादुर की बीमारी का कुछ पता ही नहीं था। वे बलबहादुर की खोज खबर करने को फोन पर फोन करने लगे। जब तक उन की बात उन से नहीं से हो गई उन्हें तसल्ली नहीं आई।

बाद में पता लगा कि यह अस्पताल अनेक लोगों के इसी तरह के आपरेशन कर चुका है। ऐसा करना उस की मजबूरी है। कुछ डॉक्टरों ने यह अस्पताल खोला था। बैंकों आदि से भारी कर्जे ले कर उसे तुरंत विस्तार दे दिया गया। अब जब तक रोज मरीज न मिलें तो कर्जे चुकाने ही भारी पड़ जाएँ। अस्पताल इसी तरह मरीज जुटाता है। अब बलबहादुर ने अपने भतीजे के वकील पुत्र की सलाह पर अस्पताल, उस के डाक्टरों और विजयसिंह के खिलाफ एक फौजदारी मुकदमा धोखाधड़ी के लिए किया है और उपभोक्ता अदालत में अलग से हर्जाना दिलाने की अर्जी पेश की है।

सोमवार, 11 अगस्त 2008

कोटा के निकट गेपरनाथ महादेव झरने की सीढ़ियाँ गिरने से हादसा तीन की मृत्यु

कोटा से 22 किलोमीटर दूर चम्बल नदी की कराई में स्थित गेपरनाथ महादेव झरने की राह में सीढ़ियाँ गिर जाने से एक व्यक्ति की मौके पर ही मत्यु हो गई, एक को बचा लिया गया और दो के अभी मलबे में दबे होने की आशंका है। सीढ़ियाँ वहाँ आने जाने का एक मात्र रास्ता होने से नीचे झरने, कुंड और मन्दिर की ओर फंसे रह गए 135 लोगों में लगभग 35 बच्चे और 30 महिलाएँ शामिल हैं। रात हो जाने के कारण उन्हें नहीं निकाला जा सका है। रात्रि को निकाला जाना संभव नहीं है। सुबह ही उन्हें निकालने का काम हो पाना संभव होगा।
यह एक मनोरम स्थान है। चम्बल के किनारे नदी से कोई आधा से एक किलोमीटर दूर एक सड़क कोटा से रावतभाटा जाती है। रतकाँकरा गांव के पास इसी सड़क से कोई आधाकिलोमीटर चम्बल की ओर चलने पर यकायक गहराई में एक घाटी नजर आती है। जिस में तीन सौ फीट नीचे एक झरना, झरने के गिरने से बना प्राकृतिक कुंड है। वहीं एक प्राचीन शिव मंदिर है। बरसात में यह स्थान मनोरम हो उठता है और हर अवकाश के दिन वहाँ दिन भर कम से कम दो से तीन हजार लोग पिकनिक मनाने पहुँचते हैं। पानी कुंड से निकल कर चम्बल की और बहता है और बीच में तीन-चार झरने और बनाता है मगर वहाँ तक पहुँचना दुर्गम है। दुस्साहस कर के ही वहाँ जाया जा सकता है।
ऊपर भूमि से नीचे कुंड, झरने और मंदिर तक पहुँचने के लिए सीधे उतार पर तंग सीढ़ियाँ हैं। चार-सौ के लगभग इन सीढ़ियों में से करीब सौ फुट के लगभग सीढियाँ कल दोपहर बाद उन के नीचे के भराव के पानी के साथ बह जाने से ढह गईं। ये चार लोग वहाँ सीढ़ियों पर होने से मलबे में दब गए। शेष जो नीचे थे नीचे ही रह गए। हालांकि वहाँ नीचे रात रहने में खास परेशानी नहीं है यदि बरसात न हो वैसे बरसात नहीं के बराबर है। मगर हो गई तो सब को भीगना ही पड़ेगा। मंदिर में स्थान नहीं है। क्यों कि मंदिर पर भी लगातार पानी गिरता रहता है। सब के सब खुली चट्टानों पर हैं। उन का रात वहाँ काटना जीवन की सब से भयानक रात होगी। हालांकि वहाँ पुलिस के लगभग 20 जवान पहुँचे हैं, जो रात उन के साथ काटेंगे उन के साथ एक इंस्पेक्टर भी है। भोजन, दूध और कंबल आदि सामग्री पहुँचा दी गई है। रोशनी का प्रबन्ध हो गया है। लेकिन ऐसे स्थानों पर रात को जो कीट, पतंगे, सांप आदि जीव विचरते हैं उन सभी को आज बहुत से भयभीत मानवों का साथ मिलेगा। मानवों की रात वहाँ गुजारेगी यह तो वापस लौटने पर वे ही बता सकेंगे।
यह समाचार सभी हिन्दी समाचार चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज बना हुआ है। अभी तक सबसे तेज चैनल को यह पता नहीं है कि लोग नीचे फंसे हैं या ऊपर। वहाँ दूरभाष साक्षात्कार आ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि ऊपर फंसे लोगों को बचाने के लिए क्या व्यवस्था की है। जवाब आ रहा है कि नीचे फंसे लोगों को बचाने की व्यवस्था की जा रही है। एंकर कह रहा है कितनी लापरवाही है ऊपर फंसे लोगों की कोई सुध नहीं ली जा रही है। जब कि ऊपर तो शहर है। सड़क है, बचाने वाले हैं, सहायता सामग्री है। लोग तो नीचे खड्ड में झरने, कुंड और मन्दिर पर फंसे हैं।
हमें कामना करनी चाहिए कि जो बच गए हैं वे सभी सुबह सकुशल लौटेंगे। 
यहाँ दिया गया चित्र झरने का है। झरने के बायें मन्दिर है और उस के साथ ही सीढ़ियाँ बनी हैं जो नीचे झरने की और जाने आने का एक मात्र साधन हैं।