@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अदालत
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

जज, या ............... ?

कोलिसिस्टेक्टोमी (पित्ताशय उच्छेदन) का ऑपरेशन 8 अक्तूबर 2022 को हुआ, 10 अक्तूबर को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। पाँच दिन बाद दिखाने को कहा गया। मैं 15 अक्तूबर को खुद कार ड्राइव करके डाक्टर को दिखाने गया तो टाँके हटा दिए गए। अदालत जाने की इजाजत मिल गयी। लेकिन न झुकने का प्रतिबंध था। फिर भी मैं 17 अक्तूबर को अदालत चला गया। चैम्बर में बैठा, कैन्टीन चाय पीने के लिए भी गया। लेकिन किसी अदालत में पैरवी के लिए नहीं गया। शाम को घर लौटा तो थकान से लगा कि अभी मुझे कम से कम एक सप्ताह और अदालत जाने से बचना चाहिए। मैंने तय किया कि अब दीवाली के बाद ही अदालत जाउंगा। अपने घर वाले ऑफिस में बैठ कर ही केस स्टडी करता रहा। लेकिन बुधवार 19 अक्तूबर को ही अदालत जाने की नौबत आ गयी।

हुआ ये कि उस दिन मेरे दो केस लगे हुए थे, मुझे इसबात की पूरी आशंका थी कि मौजूदा जज साहब ये मुकदमे हमें सुने बिना ही खारिज कर देंगे। जब कि यह कानून के मुताबिक गलत था। मैंने उस दिन अदालत जाने का निश्चय किया और अपने सहायक यादव को कहा कि वह 12 बजे तक मेरे मुकदमों की स्थिति बताए। तो यादव ने मुझे बताया कि रीडर से पूछने पर उसने कहा है कि उन केसेज को तो खारिज करने का आदेश कर दिया गया है। जब यादव ने उससे कहा कि हमें बिना सुने ऐसा कैसे हो सकता है। तो उसने कहा कि सब मुकदमों में यही तो हो रहा है। उसने जज साहब से बात करने को कहा। जब यादव ने जज साहब से बात की तो उन्होंने रीडर को निर्देश दिया कि इनके इस तरह के सारे मुकदमे दिसंबर के अंत में एक साथ लगा दो। इस पर रीडर ने हमारे मुकदमों में दिसम्बर अन्त की तारीख दे दी। यादव ने कहा भी कि वे इस बिन्दु पर बहस के लिए अदालत आने को तैयार हैं तो जज साहब ने कहा कि उनका आपरेशन हुआ है यहाँ आना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। उन्हें यहाँ क्यों बुला रहे हैं।

मुकदमों में अगली तारीख मिल जाने पर मेरा अदालत जाना जरूरी नहीं रह गया था। लेकिन मुझे एक बात कचोट रही थी कि मेरे मुकदमे खारिज होने से बच जाएंगे लेकिन बहुत सारे मजदूरों के केस खारिज कर दिए जाएंगे। उन्हें उच्च न्यायालय से निर्णय बदलवाकर लाना होगा। एक मजदूर के लिए श्रम न्यायालय में मुकदमा लड़ना बेहद खर्चीला और श्रम साध्य होने के कारण दूभर होता है। उसके लिए उच्च न्यायालय जाने की सोचना ही प्राणलेवा होता है। मैंने अदालत जाना और जज से उसी दिन बहस करना उचित समझा। मैं सूचना मिल जाने के बावजूद अदालत पहुँच गया। मैंने यादव को फाइल लेकर अदालत में तैयार रहने को कहा था। जैसे ही मैं अदालत में जा कर बैठा, जज की मुझ पर निगाह पड़ी। तत्काल वह हड़बड़ाया हुआ दिखाई दिया।

असल में मामला यह था कि केन्द्र सरकार ने 2016 में पाँच कानून पास करके हजार से भी अधिक कानूनों, संशोधन कानूनों को निरस्त (निरसन) और संशोधित कर दिया था। उसमें एक कानून औद्योगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम (2010) भी था। इस संशोधन के माध्यम से एक मजदूर को उसकी सेवा समाप्ति के विरुद्ध समझौता अधिकारी के यहाँ शिकायत प्रस्तुत करने और 45 दिनों की अवधि में श्रम विभाग के समझौता कराने में असफल रहने पर सीधे श्रम न्यायालय को अपना दावा प्रस्तुत करने का अधिकार मिला था। इस अधिकार के 2016 में समाप्त हो जाने पर 2016 से अब तक पिछले 6 सालों में अदालत में इस कानून के तहत पेश किए गए सभी मुकदमे खारिज हो जाने थे। इन मुकदमों की संख्या सैंकड़ों में है। जज का कहना था कि त्रिपुरा और बंगाल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संशोधन कानून का निरसन हो जाने से मूल कानून औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 जिस में संशोधन करके प्रावधान जोड़े गए उसमें से वे संशोधन भी खारिज हो गए हैं और इसी कारण से उक्त निरसन अधिनियम प्रभावी होने के बाद अदालत में सीधे पेश किए गए मजदूरों के विवाद पूरी तरह से अवैध अकृत हो गए हैं इस कारण उन्हें निरस्त कर दिया जाए।

संशोधन कानूनों के निरसन पर जिस कानून में उस संशोधन कानून के द्वारा संशोधन किया गया था उससे वह संशोधन खारिज हो जाने के बिन्दु पर “जेठानन्द बेताब बनाम दिल्ली राज्य {1960 AIR 89, 1960 SCR (1) 755}” में सुप्रीम कोर्ट ने 15.09.1959 को ही निर्णय दे दिया गया था। इस निर्णय में कहा गया था कि किसी संशोधन कानून का काम पहले से मौजूद किसी पुराने कानून में संशोधन करना होता है। इस संशोधन कानून के प्रभावी होने के बाद वह संशोधन पुराने कानून का हिस्सा बन जाता है। यहीं संशोधन कानून का काम पूरा हो जाता है। वह कानूनों की सूची में अवशेष के रूप में बचा रहता है, उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। उस संशोधन कानून का निरसन कर दिए जाने पर उसका कोई प्रभाव उस पुराने कानून पर नहीं पड़ता जिसे संशोधित किया गया था। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने जनरल क्लॉजेज एक्ट की धारा 6-ए का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें ऐसा ही प्रावधान किया गया है। इसी पूर्व निर्णय का उल्लेख करते हुए दिनांक 29.08.2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया एवं अन्य के मामले में पारित निर्णय में फिर से इसी बात को दोहराया है।

जज को पहली फुरसत मिलते देख मैं सामने जा कर खड़ा हुआ तो जज साहब बोले -आप क्यों आए? आपको अभी आराम करना चाहिए। हमने तो आपके मुकदमों में तारीख दे दी है।

-सर¡ उससे क्या होगा? आपने दिसम्बर में तारीख दी है। तब तक तो आप इसी बिन्दु पर दूसरे सैंकड़ों मुकदमे खारिज कर चुके होंगे। जो कानून के हिसाब से गलत फैसला होगा। मेरी ड्यूटी है कि मैं अदालत को गलत निर्णय पारित करने से रोकूँ।

-दूसरे मुकदमों से आपका क्या लेना देना? हम खारिज कर देंगे और उच्च न्यायालय ने इसे गलत बताया तो हम वापस रेस्टोर कर देंगे।

-सर¡ रेस्टोर तो तब कर पाएंगे जब आपको ऐसा करने का क्षेत्राधिकार होगा। इस अदालत को अपने निर्णय रिव्यू करने की पावर नहीं है।

-नहीं है तो क्या? हम फिर भी कर देंगे। आप ही तो कहते रहे हैं कि इस अदालत को इन्हेरेंट पावर है।

-सर¡ रिव्यू की पावर कभी भी इन्हेरेंट नहीं हो सकती।

-तो क्या हुआ, हम फिर भी कर देंगे। जज साहब ने कहा तो मैं दंग रह गया कि कैसे जज अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर भी जा कर आदेश पारित करने को तैयार है।

-ठीक है मेरा तो आपसे आग्रह है कि इस बिन्दु पर आप बहस सुन लें। जहाँ तक मेरा मुकदमा आज नहीं होने की बात है तो मैं ऐसे तमाम मुकदमों में मजदूरों से पावर हासिल कर लूंगा और कल आपके सामने दुबारा इसी बहस के लिए हाजिर होउंगा। तब आप इससे बच नहीं सकते। इससे बेहतर है आप इस बहस को आज ही सुन लें।

-ठीक है सुन लेता हूँ। आखिर जज साहब बहस सुनने को तैयार हो गए।

बहस वही थी, जो मैं ऊपर लिख चुका हूँ। मैंने बहस शुरु की। मैंने उन्हें निरसन कानून की धारा-4 पढ़ाई जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा था। “The repeal by this Act of any enactment shall not effect any other enactment in which the enactment has been applied, incorporated or referred to;”

इस धारा के पढ़ते ही जज साहब बीच में ही बोल पड़े। कि इस कानून को पढ़ कर तो कलकत्ता और त्रिपुरा उच्च न्यायालयों ने निर्णय पारित किए हैं। जिसमें बहुत सारे वकीलों ने बहस की है तो वे गलत कैसे हो सकते हैं?

मैंने उन्हें कहा कि उन दो फैसलों को कुछ देर के लिए भूल जाइए और मेरी बहस सुन लीजिए। मैंने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के 1959 में पारित “जेठानन्द बेताब के केस और 29.08.2022 को पारित इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन के मुकदमों का हवाला दिया।

जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर बिलकुल ध्यान न देते हुए तर्क दिया जेठानन्द बेताब किसी और कानून के मामले में था और इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन का मुकदमा ग्रेच्युटी एक्ट के मामले में है इन दोनों में औद्योगिक विवाद अधिनियम के बारे में कुछ नहीं कहा है।

मैं ने उन्हें कहा कि ग्रेच्युटी संशोधन अधिनियम को निरस्त किया गया है उसी कानून की उसी सूची में औद्योगिक विवाद संशोधन अधिनियम भी शामिल है और यहाँ प्रश्न किसी खास कानून के निरसन का नहीं है बल्कि संशोधन अधिनियम के निरसन का है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संशोधन अधिनियम निरसित कर दिए जाने पर जिस एक्ट में उसके द्वारा संशोधन किया गया है उस एक्ट के उस संशोधन पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह जीवित रहता है।

जज साहब फिर से कहने लगे त्रिपुरा और कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज और वहाँ बहस करने वाले वकील कैसे गलती कर सकते हैं?

मैं ने उन्हें कहा कि गलती तो कोई भी कर सकता है। “अरब के घोड़े प्रसिद्ध होने का मतलब ये नहीं होता कि वहाँ गधे नहीं होते।“

जज साहब ने मुझे घूर कर देखा। फिर रीडर को आदेश दिया कि मैं इस मामले को देखूंगा अभी कुछ दिन इस तरह के मुकदमों में कोई आदेश पारित न किया जाए।

बहस पूरी हुई। मैं अदालत से घर आ गया। उस दिन बहुत थकान हो गयी। अगले दो दिन मैं अदालत नहीं जा सका। अब दीवाली के बाद अदालत जाना हो सकेगा।

पर कल मैंने फिर सुना है कि जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को नकार दिया है और कुछ मुकदमे खारिज कर दिए गए हैं।

सवाल यह है कि जज साहब इस तरह की जिन्दा मक्खी क्यों निगल रहे हैं? बात सिर्फ इतनी सी है कि रोज दो मुकदमे खारिज होने से उनका निर्णय का कोटा आसानी से पूरा हो रहा है। वे आसानी से कह भी रहे हैं कि उच्च न्यायालय का निर्णय आने पर मैं उन्हें फिर से रेस्टोर कर दूंगा। पर सैंकड़ों मजदूरों को उच्च न्यायालय जा कर हजारों रुपए खर्च करने होंगे। बहुत से तो अर्थाभाव में जा भी नहीं सकेंगे। लेकिन जज साहब को अपने कोटे की पड़ी है। उन्हें न्याय करने से और मजदूर वर्ग की दुर्दशा से क्या लेना देना?

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

आन्दोलन के पहले चरण के उपरान्त पहला दिन

न्ना अस्पताल में हैं। खबर है कि पहले उन का भार लगभग 500 ग्राम प्रतिदिन की दर से कम हो रहा था। अब जो कुछ तरल खाद्य वे ले रहे हैं उस से यह गिरावट 200 ग्राम प्रतिदिन रह गई है। दो दिन में वह स्थिति आ जाएगी कि उन का भार गिरना बंद हो जाएगा और उस के बाद उन्हें फिर से अपना वजन बढ़ाना होगा। आखिर अभी तो संघर्ष का आरंभ है। परिवर्तन की इस बयार को बहुत दूर तक जाना पड़ेगा। 

आंदोलन के बाद आज अदालत का पहला दिन था। अन्ना के अनशन के दौरान अदालतों में जरुरी काम ही हो पा रहे थे। लोगों को जिन में न्यायार्थियों से ले कर वकील, वकीलों के लिपिक, टंकणकर्ता, न्यायाधीश और न्यायालयों के कर्मचारी सभी सम्मिलित हैं, इस आंदोलन ने कमोबेश प्रभावित किया था। आज जब मैं अदालत पहुँचा तो कार को पार्क करने के लिए मुश्किल से स्थान मिला। वहीं मैं समझ चुका था कि आज अदालत में लोगों की संख्या बहुत होगी। होनी भी चाहिए थी। पिछले 12 दिनों से काम की गति मन्थर जो हो चली थी। इस सप्ताह में फिर ईद और गणेश चतुर्थी के अवकाश हैं। कुल तीन दिन काम के हैं। इस कारण से जिन लोगों के काम अटके हैं वे सभी आज अदालत अवश्य पहुँचे होंगे। मैं ने अपना काम निपटाना आरंभ किया तो 1.30 बजे भोजनावकाश तक केवल दो-तीन काम शेष रह गए थे। 

दालत में चर्चा का विषय था कि क्या भ्रष्टाचार कम या समाप्त हो सकता है? मेरा जवाब था कि कम तो हो ही सकता है, समाप्त भी हो सकता है। पिछले पाँच-छह वर्ष से वकालत कर रहे एक वकील का कहना था कि यह संभव ही नहीं है। यदि धन का लेन-देन बन्द हो जाएगा तो बहुत से काम रुक ही जाएंगे। मैं ने उस से पूछा कि तुम कौन से काम के लिए कह रहे हो? उस का उत्तर था, 'पेशी पर गैरहाजिर होने वाले मुलजिम की जमानत जब्त होने और उस का गिरफ्तारी वारंट निकल जाने पर वह जिस दिन जमानत कराने के लिए अदालत आता है तो हमें उस के मुकदमे की तुरंत पत्रावली देखने की आवश्यकता होती है। जिसे देखने का कोई नियम नहीं है। पत्रावली देखने के लिए निरीक्षण का आवेदन करना होता है और अगले दिन निरीक्षण कराया जाता है। जब कि कुछ रुपए देने पर बाबू तुरंत पत्रावली दिखा देता है। यह काम बाबू को पैसे दिए बिना क्यों करेगा? मैं ने कहा आवेदन प्रस्तुत करने पर पत्रावली निरीक्षण का नियम है। समस्या केवल इतनी है कि यह तुरंत नहीं हो सकता। यह प्रबंध करने का दायित्व न्यायाधीश का है। हम अदालत के न्यायाधीश से निवेदन कर सकते हैं। यदि वहाँ संभव न हो तो जिला न्यायाधीश से अधिवक्ता परिषद का प्रतिनिधि मंडल मिल कर अपनी यह परेशानी बता सकता है। यह निर्धारित किया जा सकता है कि किन कामों के लिए तुरंत पत्रावली देखा जाना आवश्यक है और उन कामों को सूचीबद्ध किया जा सकता है। सूचीबद्ध कामों के लिए पत्रावली निरीक्षण हेतु तुरंत उपलब्ध कराए जाने का सामान्य निर्देश जिला न्यायाधीश सभी न्यायालयों को भेज सकते हैं। वैसी स्थिति में फिर किसी पत्रावली को देखने के लिए बाबू को घूस देने की आवश्यकता नहीं होगी। 

स उदाहरण से समझा जा सकता है कि यदि हमें व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्त बनाना है तो हमें हर क्षेत्र में बहुत से ऐसे नियम बनाने होंगे और स्थाई आदेश जारी करने होंगे जिस से आवश्यक और उचित कामों के लिए घूस नहीं देनी पड़े। लेकिन इस काम के लिए हर क्षेत्र के लोगों को समस्याएँ प्रशासकों के सामने रखनी होंगी जिस से उन के लिए नियम बनाए जा सकें या स्थाई आदेश जारी किए जा सकें।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

टल्ला मारने का तंत्र

भारत आबादी का देश है। एक अरब इक्कीस करोड़ से ज्यादा का। लेकिन सरकार में कर्मचारी तब अधिक दिखाई देते हैं जब सरकार को उन्हें वेतन देना होता है। आँकड़ा आता है कि बजट का एक बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारी ही निपटा जाते हैं, विकास के लिए कुछ नहीं बचता। तब वाकई लगने लगता है कि कर्मचारियों पर फिजूल ही खर्च किया जा रहा है। 

लेकिन किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए। हर जगह कर्मचारी जरूरत से बहुत कम नजर आएंगे। अस्पताल में डाक्टरों की कमी है तो स्कूलों में अध्यापकों की। सरकारी विभागों में पद खाली पड़े रहते हैं। जब भी किसी अफसर से काम की कहें तो वह दफ्तर की रामायण छेड़ देता है। क्या करें साहब?  कैसे काम करें? दो साल से दफ्तर में स्टेनो नहीं है। केसे फाइलें निपटें। सरकार से कोई योजना आ जाती है उस में लगना पड़ता है। ज्यादातर योजनाएँ सरकार खुद नहीं बनाती सुप्रीमकोर्ट सरकारों को आदेश दे देता है और उन्हें करना पड़ता है। अब देखो श्रमविभाग में श्रमिक चक्कर पर चक्कर लगाए जा रहे हैं कि उन्हें उन का मालिक न्यूनतम वेतन नहीं देता। श्रम विभाग का अधिकारी कहता है अभी फुरसत नहीं है अभी तो बाल श्रमिक तलाशने जाना है। पिछले चार-पाँच साल से श्रम विभाग युद्ध स्तर बाल श्रमिक तलाशने में लगा है। मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं पर बाल श्रमिक हैं कि ठीक श्रम विभाग के पीछे लगी चाय की गुमटी तक से कम नहीं होते। 

बाल श्रमिकों से फुरसत मिलती है तो उन्हें ठेकेदारों का पंजीयन करना है, उस के बाद सीधे मोटर वाहन मालिकों का पंजीयन का काम आ जाता है। उस के खत्म होते-होते अचानक राज्य सरकार की योजना आ गई है कि निर्माण श्रमिकों का पंजीयन करना है, उन के परिचय पत्र बनाने हैं। ऐसा करते करते साल पूरा हो जाता है तो दुकानों के पंजीयन के लिए केम्प चल रहे हैं। बेचारे न्यूनतम वेतन वाले चक्कर पर चक्कर लगाते रह जाते हैं। उन के साथ-साथ वे भी चक्कर लगा रहे हैं जिन्हें वेतन नहीं मिला है या उस में कटौती कर ली गई है। नौकरी पूरी होने के चार साल बाद तक भी एक मजदूर चक्कर काट रहा है कि उसे ग्रेच्युटी नहीं मिली है। बहुत सारे वे लोग हैं जो दुर्घटनाओं के शिकार हुए हैं  या फिर उन के आश्रित हैं जिन्हें अभी तक उन्हें मुआवजा नहीं मिला है। अधिकारी कहता है कि काम चार गुना बढ़ गया है और पाँच सालों से एक चौथाई पद खाली पड़े हैं। सरकार इन पदों को खत्म कर देगी कि जब इन के बिना काम चल रहा है तो इन पदों को बनाए रखने का फायदा क्या है? चक्कर लगाने वालों से कोई नहीं पूछता कि पद होने चाहिए या नहीं।

ब काम अधिक होता है और काम करने वाले कम तो एक नया तंत्र विकसित होने लगता है। अब दिन भर में काम तो दस ही होने हैं, अधिक हो नहीं सकते। फिर चालीस व्यक्ति चक्कर लगा रहे हों तो तीस को टहलाना होगा। उन्हें टहलाने का तंत्र विकसित कर लिया जाता है या अपने आप हो जाता है। आप को दर्ख्वास्त के साथ शपथ-पत्र लाना चाहिए था। आप शपथ पत्र बनवा कर लाइए। शपथ पत्र बन कर आ जाता है तो उस में स्टाम्प पूरा नहीं है, आप दोबारा बनवा कर लाइए। इस में चोकोर मोहर लगी है, गोल लगनी चाहिए थी। अच्छा ठीक है आप गोल मोहर भी लगवा लाए। अच्छा आप अपनी दर्ख्वास्त आमद में दे दीजिए, वहाँ से दर्ख्वास्त की नकल पर पावती ले लेना, सबूत रहेगा कि दर्ख्वास्त दी है। और नकल को संभाल कर रखना कहीं दफ्तर में खो गई तो दुबारा देनी पड़ सकती है। ये बहाने तो एक प्रतिशत से भी कम हैं। कोई शोध नहीं करता वरना इस के सौ गुना से भी अधिक की सूची बनाई जा सकती है। 

थाने में चले जाइए। अरे! कागज खत्म हो गए हैं, एक दस्ता कागज ले आइए, साथ में कार्बन और कोपिंग पेंसिल लाना न भूलिएगा। बस उलटे पैर चले आइए अभी रपट लिखी जाती है। इन सब को ले कर वापस पहुँचे तो पता लगा वहाँ सिर्फ मुंशी जी बैठे हैं। दरोगा जी तफ्तीश पर पधार गए हैं। अभी आते हैं घंटे भर में आप बैठिए। बैठिए कहाँ भला? टूटी हुई बैंच पर पहले ही दो लोग बैठे हैं। आप बाहर आ कर नीम की छाँह में जगह तलाशते हैं। डेढ़ घंटा गुजर गया है। दरोगा जी आए नहीं। मुंशी से पूछने पर बताता है उन का कोई भरोसा नहीं है। उधर छावनी ऐरिया में कहीं आग लग गई है सीधे वहीं चले गए हैं। ऐसा क्यों नहीं करते शाम को सात बजे आइए। उस समय वे यहीं रहते हैं। शाम को सात बजे दरोगा जी मिल जाते हैं। दो-तीन बदमाशों को पकड़ कर लाए हैं। एक की पट्टे से पिटाई हो रही है। दरोगा जी रौद्र रूप में हैं। अब इस रौद्र रूप में उन से रपट के लिए कहने की जुर्रत कौन करे। बस लौट आए की सुबह देखेंगे। 

दालतों की छटा और भी निराली है। वहाँ भी चौगुना काम है। अदालत के आज के मुकद्दमों की फेहरिस्त में सौ से ऊपर मुकदमे लगे हैं। जज को सिर्फ बीस निपटाने हैं। अस्सी को टल्ला मारना है। चालीस को रीडर निपटा चुका है। चालीस और हैं। एक दर्ख्वास्त पर बहस सुननी है। जज कहता है आज तो सीट पर से उठा तक नहीं हूँ। सुबह बैठा था। लंच में बैंक जा कर आया हूँ, चाय तक नहीं पी है। आप अगली पेशी पर बहस सुनाइएगा। वह तारीख दे देता है। तीन चार फाइलें उधर दफ्तर से ही नहीं निकली हैं, मुवक्किल दफ्तर के बाबू से भिड़े हैं कि उन की फाइल निकल जाए तो कुछ काम हो। पर चार बजे फाइल निकलती है तब तक साहब चैंबर में बैठ कर फैसला लिखाने लगे हैं। अब तो वहाँ घुसने में चपरासी भी कतरा रहा है। मुवक्किल रीडर से तारीख ले कर खिसक लेते हैं। एक मुकदमा दो साल पहले से चल रहा है उस में अभी तक विपक्षी ने जवाब नहीं दिया है। रीडर तारीख लगा देता है। कहता है अगली पेशी पर जरूर ले लेंगे। उसी अदालत में ताजा मुकदमा आया है, एक जज साहब फरियादी हैं। उस में जवाब के लिए पहली तारीख है। रीडर को सभी कायदे कानून  स्मरण हो गए हैं। वकील को कहता है आज जवाब ले आइये वरना जवाब बंद कर दिया जाएगा। देखते नहीं जज साहब का मुकदमा है। कुछ और भी मुकदमे हैं जो सीधे राजधानी में सफर कर रहे हैं। रीडर को उस का भरपूर ईनाम मिल रहा है। 
मारे पास कम पुलिस है, कम अदालतें हैं, कम स्कूल और कम शिक्षक हैं, कम डाक्टर और कम अस्पताल हैं। नगर पालिका के पास कम सफाई कर्मचारी हैं। जो हैं उन्हों ने टल्ला मारने का तंत्र विकसित कर लिया है। यदि न करते तो सरकारें कैसे चलतीं?

बुधवार, 14 जुलाई 2010

फुटबॉल हैंगोवर और खुश कर देने वाली खबरें।

ल फुटबॉल का नशा करने को नहीं मिला। आज तो हेंगोवर का दिन था। रात को जल्दी सो जाना चाहिए था, लेकिन देर तक नींद नहीं आई। मैं आज के अदालत के काम को ले कर परेशान था। कुल छह मुकदमे बहस में लगे थे। मैं सोच रहा था कैसे यह सब होगा। मैं किसी भी मुकदमे में तारीख नहीं चाहता था। जल्दी अदालत पहुँचना चाहता था कि घर से निकलते निकलते कुछ मुवक्किल आ गए। उन की समस्या का तुरंत कुछ हल निकालना था। उन से बात करते करते देरी हो गई और साढ़े ग्यारह पर अदालत पहुँचा। एक में बहस नहीं हो सकी क्यों कि नियोजक संगठन में कोई फेरबदल हुआ है। वकील का उस के मुवक्किल से संपर्क नहीं हो पा रहा है। वास्तव में अदालत के पास भी समय नहीं था। अदालत जिन मुकदमों में बहस सुन चुकी थी, उन में उसे निर्णय लिखाने थे। अब यह तो हो नहीं सकता कि आप दस मुकदमों में बहस सुन कर डाल दें और फिर समय की कमी से फैसला न कर पाएँ। दूसरे मुकदमे में अदालत के आदेश के बाद भी यह प्रकट किया कि आदेशित दस्तावेज उन के कब्जे में नहीं है। आखिर मुकदमे को गवाही के लिए बदल दिया गया। एक अन्य मुकदमे में तीन में से एक वकील का स्वास्थ्य खराब हो गया और बहस टल गई। 
क अदालत में एक साथ बहुत मुकदमे स्थानांतरित हो कर आने के कारण समय के अभाव में पेशी बदल गई। एक में प्रार्थी के वकील ने खुद की हार को देखते हुए बहस के दौरान यह आवेदन प्रस्तुत किया कि वे एक एक्सपर्ट डाक्टर की गवाही कराना चाहते हैं। हमने विरोध किया तो अदालत ने हमें विरोध जवाब के रूप में लिख कर देने के लिए तारीख बदल दी। कुछ मुकदमें अदालत में पिछले छह माह से जज के प्रसूती अवकाश पर होने के कारण ताऱीख बदल गई। यह अदालत पिछले छह माह से सभी मुकदमों में यही कर रही है। एक और मुकदमे पेशी अदालत में जज नियुक्त नहीं होने से बदल गई। कुल मिला कर कागजी प्रभाव का काम तो हुआ, लेकिन वास्तविक प्रभाव का नहीं। वास्तविक प्रभाव का काम ये हुआ कि तीन बार भिन्न भिन्न मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी पी गई। 
मैं दोपहर का वाकया बताना तो भूल ही रहा हूँ। अचानक लोकल चैनल वाले कैमरा लिए घूम रहे थे, मुझे पकड़ लियाष पूछने लगे कि भिक्षावृत्ति को समाप्त करने के लिए कोई कानून है क्या। मैं ने कहा कि कानून हो भी तो क्या। भिक्षावृत्ति तो बढ़ रही है और स्वाईन फ्लू की तरह नए नए रूप भी ग्रहण कर रही है। अदालत में जज नियुक्त नहीं है। रीडर को तारीख बदलनी है। लोग सुबह से अदालत में आए बैठे हैं, लेकिन रीडर साहब किसी सरकारी काम से जिला अदालत गए हैं और कैंटीन में बैठ कर किसी वकील के साथ चाय पी रहे हैं। चपरासी न्यायार्थी से कहता है कि रीडर साहब मुकदमों में तारीख बदली कर गए हैं। लिस्ट अंदर रख गए हैं, लेकिन वह बता सकता है। यह कहते हुए उस की आँखें चमक रही थीं। उस ने न्यायार्थी तो तारीख बता दी लेकिन ईनाम की फरमाईश कर दी। न्यायार्थी के सौ रुपए के नोट से कम के जितने नोट थे सब बख्शीश हो गए। शाम तक आई बख्शीश को रीडर व चपरासी ने पूरी ईमानदारी के साथ बांट लिया। बख्शीश न दो तो मांगने वाला इतनी गालियाँ और बद्दुआएँ देता है कि कोष छोटे पड़ने लगते हैं। इस भिक्षावृत्ति को रोकने का कोई कानून नहीं है ......... इतना कहते कहते तो कैमरामैन ने कैमरा बंद कर दिया। मुझे पक्का यकीन है कि वह इस क्लिप को शायद ही कभी दिखाए। 
र पर पत्नी जी से वायदा किया था कि आम ले कर आउंगा। पर भूल गया। घऱ में घुस जाने पर याद आया। एक जूनियर को फोन कर के कहा कि वह आम लेता आए। पत्नी ने चावल बनाए और आम का अमरस। यह डिश आज के दिन बनना जरूरी था। आज रथयात्रा और मेरे दिवंगत पिता जी का जन्मदिन जो था। हमने इस अमरस और बासमती चावलों के साथ आलू के पराठों का आनंद लिया। इस के साथ टीवी देखा। खबर सुन कर तबीयत खुश हो गई कि फ्रांस अब अपने देश में बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने के करीब है। वहाँ की संसद के निचले सदन में एक के मुकाबले 336 मतों से यह बिल पारित हो गया। दुनिया में ऐसे देश बहुत हैं जहाँ न चाहते हुए भी और उन की संस्कृति का हिस्सा न होते हुए भी औरतों को बुरका पहनना होता है। अब कम से कम एक देश तो इस पृथ्वी के नक्शे पर होगा जहाँ स्त्रियों के बुरका पहनने पर पाबंदी होगी। शायद ही कोई आजाद औरत हो जो किन्हीं भी हालात में बुरका पहनना चाहे। वास्तव में इसी तरह महिलाओं को इस की कैद से आजादी मिल सकती है। वरना वे संस्कृति की कैद में घुटती रहती हैं। इस कैद से निकलने का अर्थ है परिवार और समाज में बहुत कुछ भुगतना।
दूसरी खबर ने तो तबीयत पूरी तरह खुश कर दी। विश्वकप फुटबॉल के हीरो कप्तान गोलकीपर आईकर कैसीलस ने उन का इंटरव्यू लेने आई उन की महिला मित्र सारा कार्बोनेरो को यह सवाल पूछने पर कि पहले मैच में तुम इतना बुरा कैसे खेले? लाइव दिखाए जा रहे इंटरव्यू के बीच चूम लिया। निश्चित ही ताने दे कर भी उन में जीतने का उत्साह पैदा करने वाली अपनी मित्र के लिए इस से बड़ा तोहफा इस जीत पर नहीं हो सकता था। एक चैनल ने पूरा गाना ही सुना ही सुना कर खुश कर दिया ........... मंहगाई डायन काहे खाए जात है.........
स कल फिर इतने ही मुकदमे हैं, कुछ तैयारी कर ली गई है कुछ सुबह की जाएगी। पर कल आज जैसा नहीं हो सकता। कल कुछ न कुछ हासिल करना ही होगा।

शनिवार, 19 जून 2010

पुरानी छोटी पुलिया बनाम हमारी अदालतें

कोटा राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम में चंबल नदी के पूर्वी किनारे बसा महत्वपूर्ण नगर है, और जिला व संभाग मुख्यालय यहाँ स्थित हैं। चंबल के पूर्व दिशा में इस से बाराँ और झालावाड़ जिले तथा चित्तौड़ जिले का रावतभाटा कस्बा जुड़ा हुआ है। शेष राजस्थान से संपर्क के लिए चंबल नदी को पार करना आवश्यक है। कोटा से ही हो कर राष्ट्रीय राजमार्ग सं. 12 गुजरता है जो जयपुर से भोपाल होता हुआ जबलपुर तक जाता है। कोई तीस वर्ष पहले इस नदी पर एक ही रियासत कालीन पुल था जिस से यह नगर राजस्थान से जुड़ता था। इस के अलावा एक पुल और है जो चंबल बैराज पर बना हुआ है। लेकिन इस पुल से केवल हल्का यातायात ही गुजर सकता है वह भी सीमित मात्रा में। कोई तीस बरस पहले एक ऊँचा पुल इस रियासत कालीन पुल के समांनांतर बनाई गई और यातायात उस पर से गुजरने लगा। 
कोटा में चंबल पर पुराने रियासत कालीन पुल से गुजरता यातायात
स बीच कोटा नगर का विस्तार होना आरंभ हुआ तो यह चंबल के पश्चिमी किनारे पर भी फैल गया। अब नगर के का स्थानीय यातायात भी इसी पुल से गुजरने लगा। हालत यह हो गई कि पुल पर दिन में कई कई बार जाम लगने लगा। चंबल पुल के दोहरीकरण की जरूरत महसूस होने लगी। जो ऊँचा पुल बनाया गया था वह जिस तकनीक से बनाया गया उस में हर खंबे पर बेयरिंग्स लगे हैं जिन्हें समय-समय पर मरम्मत की जरूरत होती है और उस के लिए पुल पर यातायात रोका जाना आवश्यक है। इस कारण पुल का दोहरीकरण करने के लिए एक समानान्तर पुल बनाया जा रहा है और यह निर्माणाधीन है। इस बीच ऊँचे पुल की मरम्मत जरूरी हो गई और उसे बंद कर दिया गया है। अब समूचा यातायात निकालने के लिए वही पुरानी रियासत कालीन पुलिया ही एक मात्र मार्ग शेष रह गई थी। उसे अस्थाई तौर पर भारी यातायात गुजरने लायक बनाया गया। उसी पर से आजकल यातायात निकाला जा रहा है। 
जितना यातायात है उस के मुकाबले रियासत कालीन पुल बहुत छोटा है। इस कारण से यातायात बहुत ही सावधानी से निकाला जा रहा है। यातायात नियंत्रित रखने के लिए यातायात पुलिस और अन्य विभागों के अनेक कर्मचारियों को वहाँ लगाया हुआ है। उस के बावजूद स्थिति यह है कि पुल पर से गुजरने में जहाँ दो मिनट लगते थे अब आधे घंटे से ले कर दो घंटे तक लग सकते हैं। वर्तमान में इसी ट्रेफिक को निकालने के लिए दो पुल निर्माणाधीन हैं और तीसरा वह है जिस की मरम्मत चल रही है। अब आप यातायात की हालत का अनुमान स्वयं कर सकते हैं।
तीन बड़े पुलों का काम एक पुरानी रियासत कालीन पुलिया से लिया जा रहा है। इधर अदालत में चर्चा यह है कि कोटा में ट्रेफिक की हालत अदालत में लंबित मुकदमों की तरह हो गई है जो पग-पग मुश्किल से सरकते हैं। इन दिनों उस बेचारी रियासत कालीन पुलिया की हालत हमारी अदालतों की तरह है। एक-एक अदालत पाँच-पाँच अदालतों का काम ढो रही है। वैसे ही जैसे वह पुरानी जर्जर छोटी पुलिया अस्थाई मरम्मत के साथ तीन बड़े पुलों का यातायात ढो रही है। ट्रेफिक का आलम ये है कि इस पर से गुजरने वाली साइकिल, बाइक या पैदल व्यक्ति की तो खैर ही नहीं है।

सोमवार, 14 जून 2010

न जात पाँत, न कोर्ट कचहरी, न तलाक, एक बस नेह का नाता

'कहानी'

एक बस नेह का नाता
  • दिनेशराय द्विवेदी
धोबी का छोरा, धोबी का काम पसंद नहीं आया। चला कमाने शहर में। बड़े शहर में काम ना मिला तो चला गया छोटे शहर में। वहाँ एक ईंट भट्टे पर काम करने लगा। तनखा नहीं थी, काम के हिसाब से पैसे मिलते थे। खूब काम करता खूब कमाता। बैंक में बैलेंस भी कुछ जोड़ लिया कि ब्याह के बखत काम आवेंगे। पर इतना भी न था कि खुद के बूते पर अपना ब्याह कर लेता। मां-बाप के पास होता तो वह गांव छोड़ कमाने शहर क्यों आता? पर शौक में मोबाइल ले लिया था। गांव में रहने वाले दोस्तों से बतियाता ही सही। यहाँ तो कोई दोस्ती बन नहीं रही थी।
क दिन मोबाइल पर किसी दोस्त का  नंबर लगा रहा था। नंबर शायद गलत लगा दिया, उधर से  किसी छोरी की मीठी आवाज आई - थाँ कुण बौलो हो जी! मीठी आवाज सुन कर इसे भी अच्छा लगा। इस उमर में किसी छोरी से बात करने मात्र से वैसे ही मन में लड़्डू फूटने लगते हैं। छोरी ने बहुत प्रेम से बात की, छोरे का नाम पूछा, ये भी पूछा वह क्या करता है? कहाँ करता है, कहाँ से बोल रहा है? छोरी ने सिर्फ अपना नाम बताया, उस ने सोचा, जरूर फर्जी बताया होगा। छोरे ने नम्बर अपने मोबाइल में सेव कर लिया। फिर क्या था। हिम्मत कर के दो-चार दिन बाद छोरे ने ही उसे फोन किया।
कुछ दिन छोरा ही फोन करता, छोरी से बातें होतीं। एक दो सप्ताह बाद छोरी के भी फोन आने लगे, रोज बात होने लगी। नेह बंधने लगा। छोरी ने बताया कि उस की तो शादी हो चुकी है। पीहर वहीं है जहाँ छोरा काम करता है। उस ने अपने माँ-बाप का नाम भी बताया और घऱ का पता भी। छोरा जा कर छोरी के बाप का घर भी देख आया। छोरी कुम्हारिन थी, और एक छोटे कस्बे में ब्याह दी गई थी। उस का आदमी पक्का नशेड़ी था। पहले भांग पीता था, फिर गाँजे की चिलम लगाने लगा। किसी ने उसे स्मेक का स्वाद चखा दिया। तब से बिना स्मेक के रह नहीं सकता। काम धंधा बरबाद हो गया है। घर वालों ने उसे और उस के आदमी को एक कोठरी दे रखी है। कमाओ और खाओ। अब स्मेकची कमाने की सोचे या सुबह होश आते ही स्मेक की जुगाड़ लगाए? जब तक न लगे उसी की जुगाड़ में रहे। लग जाए तो पिन्नक में, कमाए कब? सो छोरी एक-एक दो-दो दिन भूखी रह जाती। घर वालों को पता लगता तो वे खाने को देते। क्या करती खुद घऱ वालों के बनाए बरतन बस्ती बस्ती बेच काम चलाने लगी। जो कमा कर लाती उस में से जो वह खाने पीने का खरीद लाती, खरीद लाती। जो बचता वह स्मेकची चुरा लेता। वह फटे हाल की फटे हाल। वह दुखी थी। छोरे से फोन  पर बात करते करते रोने लगती।  छोरे को बहुत दया आती। उन की बातें फोन पर चलती रही। 
खिर एक दिन छोरे ने कह दिया, वह किसी तरह बाप के यहाँ आ जाए। वह फिर उसे अपने गाँव ले जाकर शादी कर लेगा। छोरी ने पहले तो जात का डर दिखाया,  कहा मैं कुम्हारिन तुम धोबी, मेरे पीछे घर वालों से बिगाड़ करोगे, जात वाले जात बाहर कर देंगे। छोरे ने जवाब दिया। वह भी भट्टे पर गार से ईंटें  गढ़-गढ़ कर कुम्हार ही हो गया है। वैसे भी क्या फर्क है? दोनों का काम गधों से पड़ता है। छोरे ने पता कर के बताया कि घरवाले कुछ नहीं कहेंगे। जात की न उसे परवाह है और न उस के घर वालों की। पहले ही जात में बहुत दो-चार छोरियाँ बहुएं बन कर आ चुकी हैं। ना-नुकुर करते करते लड़की तैयार हो गई। होती भी क्यों न? यहाँ पहले मर्द के पास तो उस का कोई ठौर न था। स्मेकची इतना हो गया था कि निश्चित हो गया था कि कुछ बरस बाद वह जरूर ही मर जाएगा। मर्द के घरवाले उसे रक्खेंगे नहीं। मां-बाप के पास कब तक रह पाएगी। आखिर उसे दूसरा घर तो बसाना ही पड़ेगा। अब इत्ता परेम करने वाला छोरा शायद फिर मिले न मिले। उस ने फैसला कर लिया।
छोरी एक दिन बाप के घर आ गई। उस से भट्टे पर ही मिलने आई। भट्टा उस के बाप के दूर के रिश्तेदार का था। वहाँ आने में कोई परेशानी नहीं थी। दोनों ने योजना मुकम्मल की और एक दिन रेल में बैठ कर छोरे के गाँव आ गए। छोरे के साथ छोरी देख मां-बाप सन्न रह गए। बाद में जब पता लगा वह दूसरी बिरादरी की है तो शंका में पड़ गए। जरूर इस छोरी का बाप पुलिस को खबर कर देगा, वो नहीं करेगा तो उस का आदमी या उसे भाई बंध कर देंगे। किसी भी दिन पुलिस आ गई तो सारे घर वाले फंसेंगे। तुरन्त छोरे-छोरी को वहाँ से दूसरे गाँव मिलने वाले के घऱ भेज दिया। 
मिलने वाले ने कहा। दूसरे की लुगाई अपने पास रखोगे तो फँस जाओगे, छोड़ो इसे। छोरे ने मना कर दिया। बोला अब तो ये मेरी लुगाई है। मेरे संग ही रहेगी। तो, उपाय सोचने लगे, किसी तरह ब्याह करा दिया जाए। अब ब्याही छोरी का दुबारा कैसे ब्याह हो। उसे याद था कि अदालत में वकील लोग लुगाई को उस के मरद से आजाद करवा कर ब्याह करा देते हैं। वह छोरे-छोरी को शहर ले गया। वकील ने सारी बात सुनी। बताया कि ब्याह तो नहीं हो सकता है। हाँ, यदि दोनों बिरादरी में बदकमाऊ या बेकार आदमी को छोड़ने और दूसरे से नाता करने की प्रथा हो तो नाता हो सकता है। तीनों ने सलाह की, बोले नाता ही करवा दो। वकील ने दोनों  को फोटोवाले के यहाँ ले गए। बाजार से माला मंगवा ली। दोनों के वरमाला के फोटो निकलवाए। दोनों के अलग-अलग हलफनामे बनाए। उन पर फोटो चिपकाए। उन्हें नोटेरी से तस्दीक कराया। दोनों हलफनामे ले कर वापस चले गए। नाता हो गया था। दोनों कुछ दिन गाँव रहे। फिर पास के शहर में काम करने आ गए। दोनों  दिन भर काम करते और कमाते, किराए की क्वार्टर में रहते, रोज शाम शहर घूमने जाते। कहीं छोटा सा कोई जमीन का टुक़ड़ा ऐसा नजर आ जाए जिस पर वे अपनी खुद की झोंपड़ी ही बना सकें।  

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कुछ दिनों के शहंशाह से मुलाकात

प नौकरी करते हैं, हर माह वेतन मिल जाता है। भविष्य की सुरक्षा के लिए भी कुछ न कुछ पीएफ आदि में जमा होता है। चिकित्सा और दुर्घटना के वक्त की भी कुछ न कुछ सुरक्षा रहती है है। आप कोई ठीक ठीक व्यवसाय करते हैं तो भी कुछ न कुछ जमा कर के रखते हैं या फिर जमा को कहीं नियोजित कर अपनी सुरक्षा कर लेते हैं। मगर दुनिया में बहुत लोग ऐसे होते हैं जो सुबह कमाने निकलते हैं और शाम कुछ लेकर आते हैं तो जिन्दगी चलती है। इन में से कुछ तो बचत कर रखते हैं। इस श्रेणी के कुछ लोग कुछ ऐसे धंधों में उलझे रहते हैं जिस में कभी मालामाल तो कभी कंगाल वाली स्थिति रहती है। ये सटोरिए, जुआरी या लाटरीबाज कुछ भी हो सकते हैं। इन्हीं में से एक से इन दिनों मुझे मिलने का अवसर मिला।
 मैं एक मुकदमा लड़ रहा हूँ। जिस में एक विधवा स्त्री ने एक मकान के बंटवारे का मुकदमा किया हुआ है। मकान की कीमत कोई 24-25 लाख है। उस विधवा स्त्री का हिस्सा भी 1/24 ही है। इतना ही उस की दो बेटियों और उस के पुत्र का है,  बाकी हिस्से उस के देवरों के हैं। मुकदमा करने के बाद जब प्रतिवादियों को समन मिले तो उन में से एक देवर सीधे मेरे पास चला आया कहने कि आप ही मेरा मुकदमा लड़ लें। मैं ने मना कर दिया कि मैं तो आप की भाभी का वकील हूँ और आप प्रतिवादी हैं। दूसरा वकील करना पड़ेगा। उस ने मेरे नजदीक बैठने वाले एक वकील को तय कर लिया, उन्हों ने उस की ओर से वकालतनामा दाखिल कर जवाब पेश करने के लिए समय ले लिया। अगली पेशी पर वह नहीं आया, न ही वकील से संपर्क किया और न ही उन्हें फीस दी। वकील साहब ने एक पेशी ले ली, वह फिर भी नहीं आया। मुकदमे में उस का जवाब पेश करने का अवसर समाप्त कर दिया गया। विवाद्यक बन गए और मुकदमा साक्ष्य में आ गया। मैं ने अपनी मुवक्किल की ओर से गवाह सबूत पेश कर दिए। मुकदमा प्रतिवादियों की गवाही के लिए निश्चित हो गया। 
चार दिन पहले इस मुकदमे में पेशी थी। सुबह अदालत के लिए रास्ते में ही फोन आया कि आप अभी तक कोर्ट नहीं आए और हम यहाँ आप का इंतजार कर रहे हैं, मैं ने फोन करने वाले को नहीं पहचाना। अदालत पहुँचने पर मेरे कनिष्ठ ने बताया कि एक आदमी आप को तीन बार पूछ गया है, पागल सा लगता है और उस महिला के मुकदमे से संबंधित है। मैं उसी मुकदमे में अदालत जाने वाला था कि वह व्यक्ति आ गया। आते ही बोला -आप मुझे मुकदमे की फाइल दे दें। मैं ने पूछा -भाई तुम कौन हो? उस ने बताया कि वह उस विधवा स्त्री का देवर है। मैं ने उस से कहा -तुम तो हमारे प्रतिवादी हो तुम्हें फाइल कैसे दे दूँ? तुम मेरी मुवक्किल को भेज दो उसे दे दूंगा। इस पर वह बिफर उठा -आप ने कुछ नहीं किया, साल भर हो गया। आप फाइल कैसे नहीं देंगे? मैं ने उसे कहा कि तुम हमारे मुवक्किल नहीं हो, मैं तुम्हारे खिलाफ वकील हूँ। तुम्हें मुझ से बात नहीं करनी चाहिए। तुंम यहाँ से जाओ। इस पर वह लड़ने को उतारू हो गया। मुझे भी कुछ गुस्सा आया। मैं ने उसे डांटा भी। एक बारगी तो मन में आया कि उसे एक-दो हाथ जड़ दूँ। पर उस से क्या होगा? यह सोच रुक गया। इतने में मेरे कनिष्ठ उसे पकड़ कर ले गए और दूर छोड़ आए। इस बीच हो-हल्ला सुन कर भीड़ इकट्ठी हो गई। 
कुछ देर बाद मैं अदालत में पहुँचा वहाँ एक और प्रतिवादी के वकील मिले। उन्हों ने बताया कि वह कल शाम दारू पी कर उन के दफ्तर पहुँचr था और उन्होंने उसे भगा दिया था। मुझे कहने लगे उस की तो पिटाई कर देनी चाहिए थी। मैं ने उन्हें कहा कि इस का हमें क्या हक है? हर किसी को सिर्फ न्यूसेंस को हटाने का हक है वह हम ने हटा दिया। कुछ देर बाद वह व्यक्ति भी एक वकील के साथ न्यायालय में आ गया। जिस वकील को साथ ले कर आया था वह कहने लगा कि उन्हें तो केवल हमारी केस फाइल की प्रतिलिपि चाहिए ताकि वे आगे कार्यवाही कर सकें। मैं ने उन्हें बताया कि पहले एक और वकील इन के वकील रह चुके हैं, उन के पास इस की फाइल होगी और उन की अनुमति य़ा अनापत्ति के बिना दूसरा वकील इस में आ नहीं सकता। आप के मुवक्किल को उन से संपर्क करना चाहिए। मुकदमे में उस दिन की कार्यवाही के बाद अगली पेशी हो गई। 
ज सुबह मैं एक नए मुकदमे में अपने मुवक्किल की ओर से वकालतनामा दाखिल करने के लिए उस अदालत में जा रहा था कि सीढ़ियों के नीचे वही व्यक्ति मुझे दिखाई दे गया। उस ने मुझे नमस्ते किया और मेरी ओर आने लगा तो पास में खड़े सिपाही ने उस का हाथ पकड़ लिया। सिपाही के साथ ही वह मेरे नजदीक आया, तो मैं ने देखा कि उस के हाथ, पैऱ चेहरा सब सूजे हुए हैं, जैसे उसे खूब मारा गया हो। मैं ने पूछा -ये क्या हुआ?  सिपाही ने जवाब दिया कि इस के खिलाफ 4/25 शस्त्र अधिनियम का मुकदमा बना है। वह कहने लगा -साहब मुझे तो घर से उठा कर ले गए, थाने और वहाँ खूब पिटाई की है, मुझे पूरा सुजा दिया है और मेडीकल भी नहीं करवा रहे हैं। मैंने उसे कहा -तुम्हें मजिस्ट्रेट को ये सब बताना चाहिए। उस ने कहा -मजिस्ट्रेट के सामने तो मुझे पेश ही नहीं किया। सिपाही ने मुझे बताया कि -इस की जमानत देने वाला कोई नहीं आया इसलिए इसे जेल ले जाना पड़ेगा। फिर कहने लगे -इस का मामला ऐसा ही है, यह साल में कम से कम एक बार तो अंदर हो ही जाता है।  यूँ तो अपनी जरूरत के मुताबिक कमाने में ही इस का इतना समय निकल जाता है कि यह केवल शरीफ ही बना रह सकता है।  लेकिन यह थोड़ा बहुत सट्टा वगैरा लगाता रहता है। कभी लग गया, तो इकट्ठा पैसा मिलते ही यह बादशाह और थोड़ी शराब गले से नीचे उतरते ही शहंशाह हो जाता है। फिर किसी को कुछ नहीं समझता। किसी से लड़ पड़ता है, मारपीट कर देता है। जिस से लड़ेगा वह पुलिस के पास ही आएगा। फिर हम इसे पकड़ लाते हैं। नशे की हालत में यह पुलिस को भी कुछ नहीं समझता। ऐसे बात करता है  जैसे पुलिस कमिश्नर लगा हो। तब इस की यह हालत होती है और कुछ दिन बड़े घऱ का मेहमान बन कर लौटता है।
मैं कहानी समझ गया था कि हर बार पुलिस इसे पुलिस एक्ट में या शांति भंग के आरोप में पकड़ती होगी और यह एक-दो दिन में छूट जाता होगा और मुकदमा भी वहीं समाप्त हो जाता होगा। इस बार पुलिस ने इस से  कोई धारदार हथियार या तो वाकई बरामद कर लिया है और नहीं तो बरामद करना दिखा कर लंबा तान दिया है ताकि कम से कम तारीखें तो करेगा। शायद इसी से इस की ये आवारगी काबू में आ जाए।

हो सकता है राजस्थान सरकार को अब शर्म आए

 ज अखबारों में खबर थी .....

कोटा न्यायालय होगा ऑनलाइन

कोटा. राजस्थान के अन्य न्यायालयों के साथ ही अगले वर्ष मार्च तक कोटा न्यायालय भी ऑनलाइन हो जाएगा। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट मुकेश भार्गव ने बताया कि अभी वर्तमान में मुख्य जोधपुर राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर सेशन न्यायालय एवं जयपुर खंडपीठ हाईकोर्ट ऑनलाइन किया हुआ है।
आगामी मार्च 2011 तक पूरे राजस्थान के न्यायालय के साथ-साथ कोटा जिले की सभी न्यायालयों में कम्प्यूटर लगा दिए जाएंगे। प्रकरणों के फैसले, नकलें, कॉज लिस्ट सहित अन्य न्यायिक कामकाज कम्प्यूटर के जरिए पूरे होंगे।
उन्होंने बताया कि कोटा न्यायालय में बिजली फिटिंग का कार्य तेजी से चल रहा है। प्रत्येक कोर्ट में चार-चार कम्प्यूटर व प्रिंटर लगाए जाएंगे। एक-एक कम्प्यूटर स्टेनो, रीडर एवं क्लर्क को दिए जाएंगे। न्यायिक कर्मचारियों को कम्प्यूटर की ट्रेनिंग भी दी जाएगी।
 अब इस खबर को पढ़ कर मुझे प्रसन्नता होनी चाहिए थी। हुई भी, कि चलो अब कुछ तो काम तेजी से होने लगेगा। अभी तो आलम ये है कि मुकदमे में फैसला हो जाता है, अक्सर दो-तीन दिन  बाद, जब वह टाइप हो जाता है और जज द्वारा उस की एक एक हिज्जे जाँच कर दस्तखत कर दिए जाते हैं तब पढ़ने को मिलता है। अब तुरंत पढ़ने को मिलने लगेगा। किसी मुकदमे की तारीख और नंबर तलाश करने में पसीना आ जाता है। निर्णयों और अन्य दस्तावेजों की नकलें लेने में सप्ताह भर लग जाता है। शायद अब इस समय में कटौती हो जाए और काम तुरंत होने लगे। निश्चित रूप से कंप्यूटर अदालत के कामकाज को बेहतर और तेज करेगा।
कंप्यूटर लगाने के लिए अदालत में और जजों के चैम्बरों में लाइन की फिटिंग हो रही है।  यह सब हो रहा है केंद्र द्वारा कंप्यूटरों की स्थापना के लिए दिए गए अनुदान से। लेकिन तभी मेरा ध्यान यहाँ के श्रम न्यायालय की ओर गया। इस न्यायालय में करीब 4000 हजार मुकदमे में हैं और एक वरिष्ठ उच्च न्यायिक सेवा अधिकारी यहाँ पद स्थापित किया जाता है। लेकिन इस अदालत को इस की स्थापना 1978 के समय दो मैनुअल टाइपराइटर प्रदान किए गए थे, अब तक उन्हीं से काम चलाया जा रहा है। एक टाइपराइटर की उम्र 15 से 20 वर्ष से अधिक की नहीं होती। यदि उस से लगातार काम लिया जाए तो वह इतने वर्ष भी नहीं चल सकता। लेकिन इस अदालत का स्टॉफ उसी से काम चला रहा है। 
दिन में अदालत के निजि सहायक मुझे मिल गए। मैं ने पूछा अपनी अदालत में कंप्यूटर कब आ रहे हैं? तो वे बड़ी मायूसी से कहने लगे कि छह साल हम को कंप्यूटरों के लिए राज्य सरकार को लिखते हो गए हैं। श्रम विभाग वित्तीय स्वीकृति के लिए वित्त विभाग को लिख देता है वहाँ से स्वीकृति नहीं मिलती। मैं ने राज्य की दूसरे श्रम न्यायालयों के लिए पूछा तो वे बता रहे थे कि जयपुर के श्रम न्यायालय के सभी टाइपराइटर टूट गए तो राज्य सरकार ने वहाँ एक कंप्यूटर दिया है। वाकई स्थिति बहुत निराशा जनक है। हो सकता है अब जब सब से निचले न्यायालय में भी चार-चार कंप्यूटर स्थापित हो जाएँ तब शायद राजस्थान सरकार को भी शर्म आने लगे और और वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों में भी कंप्यूटर स्थापित करे और इन में भी काम की गति और गुणवत्ता में कुछ सुधार हो सके।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

काम का प्रतिफल मिलने की खुशी

निवार को मैं एक थकान भरी व्यवसायिक यात्रा से लौटा था। उस दिन अदालत में कोई काम न था। सिवाय एक मुकदमे में अगली पेशी नोट करने के। जिस अदालत में यह मुकदमा चल रहा है वहाँ की महिला जज प्रसूती अवकाश पर हैं जो छह माह का हो सकता है। इस कारण उस अदालत का कामकाज बंद है, जो मुकदमे रोज कार्यसूची में हैं उन में केवल पेशी बदल दी जाती है। यदि कोई आवश्यक काम हो तो संबंधित मुकदमे की पत्रावली लिंक जज के पास जाती है और वह उस में आदेश पारित कर देता है। जब तक जज साहिबा अवकाश से वापस लौट कर नहीं आ जाती हैं काम ऐसे ही चलता रहेगा और उन का आना तो  जुलाई तक ही हो पाएगा। 
वैसे सैंकड़ों कारखाने हैं जिन के संयंत्र अनवरत चौबीसों घंटे, बारहों माह चलते हैं, भारतीय रेलवे के तमाम स्टेशन चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, पुलिस थाने और अस्पताल भी चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, चौबीसों घंटे लोग बीमार होते हैं, मरते हैं और जन्म लेते हैं। अपराधी चौबीसों घंटे अपराध करते हैं और पकड़े जाते है। बहुत से काम हैं चौबीसों घंटे होते हैं। उन के लिए व्यवस्थाएँ हम करते हैं। इन कामों में संलग्न लोग भी अवकाशों पर जाते हैं लेकिन फिर भी काम चलते रहते हैं। लेकिन न्याय प्रणाली की स्थिति कुछ और है। यहाँ जितनी अदालतें हैं उतने जज नहीं हैं। बहुत सी अदालतें हमेशा खाली पड़ी रहती हैं। इन के आंकड़े भी बताए जा सकते हैं। लेकिन उस का कोई लाभ नहीं आज कल ये आंकड़े खुद हमारे जज विभिन्न समारोहों के दौरान बताते हैं। तो जब अदालतें जजों के अभाव से खाली पड़ी रहती हैं तो फिर यह तो हो ही नहीं सकता कि जब कोई जज अवकाश पर चला जाए तो उस का एवजी काम करने के लिए कोई जज उपलब्ध हो सके। होना तो यह चाहिए कि जितनी अदालतें हैं। उन के हिसाब से हमारे पास कुछ अधिक जज हों जिन्हें किसी नियमित जज के दो दिन से अधिक के अवकाश पर जाने पर उस से रिक्त हुए न्यायालय में लगाया जा सके। पर पहले जज उतने तो हों जितनी अदालतें हैं। खैर!
मैं शनिवार को अदालत नहीं गया। पेशी नोट करने के लिए मेरे कनिष्ठ नंदलाल शर्मा वहाँ थे। मैं ने अपना दफ्तर संभाला तो वहाँ बहुत काम पड़ा था। दिन भर काम करता रहा। शाम को पता लगा कि एक मुकदमे में जिस में पिछले दिनों बहस हो चुकी थी और सोमवार को निर्णय होना था वादी और प्रतिवादी संख्या 1 व 2 ने अपनी बहस को लिखित में भी पेश किया है। हमारी मुवक्किल का भी कहना था कि हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिए और अपनी बहस जो की गई है वह लिखित में प्रस्तुत कर देनी चाहिए। मैं भी उन से सहमत था। मैं उस काम में जुट गया। पूरे मुकदमे की फाइल दुबारा से देखनी पड़ी। 
विवार को सुबह स्नानादि से निवृत्त हो कर जल्दी काम करने बैठा और सोमवार की कार्य सूची देखी तो पता लगा कि अट्ठाईस मुकदमे सुनवाई में लगे हैं। मैं उन्हें देखने बैठ गया जिस से मुझे किसी अदालत को यह न कहना पड़े कि मैं उस में काम नहीं कर सकूंगा। हालांकि मैं जानता था कि इतने मुकदमों में से भी शायद तीन-चार में ही काम हो सके। मैं आधी पत्रावलियाँ भी न देख सका था कि एक नए मुवक्किल ने दफ्तर में प्रवेश किया। पारिवारिक संपत्ति का मामला था। भाइयों में पिता की छोड़ी हुई संपत्ति पर कब्जे का शीत युद्ध चल रहा था। इस बीच हर कोई अपने लिए अपना शेयर बचाने और बढ़ाने में जुटा था। मैं ने उन्हें उचित सलाह दी। लेकिन उस में बहुत परिश्रम और भाग-दौड़ थी। उन की राय थी कि कुछ दस्तावेज आज ही तैयार कर लिये जाएँ। मैं ने भी मामले की गंभीरता को देख सब काम छोड़ कर वह काम करना उचित समझा। चार घंटे वह मुवक्किल ले गया। उस का काम निबट जाने पर मैं बहस लिखने बैठा।
दालत में मौखिक बहस करना आसान है, बनिस्पत इस के कि उसे लिख कर दिया जाए।  एक ईमानदार और प्रोफेशनल बहस को प्रस्तावित निर्णय की तरह होना चाहिए। केवल इतना अंतर होना चाहिए कि यदि जज केवल  आप की प्रार्थना को निर्णय के अंत में दिए जाने वाले आदेश में बदल सके।  बहस लिखने में इतनी रात हो गई कि तारीख बदल गई। इस बीच अंतर्जाल की तरफ नजर तक उठाने का समय न मिला। दफ्तर से उठने के पहले मेल देखा, वहाँ कुछ जरूरी संदेश थे। कुछ का उत्तर दिया। ब्लाग पर कुछ पोस्टें पढ़ीं, कुछ पर टिपियाया और फिर सोने चल दिया। रात दो बजे सोने के बाद सुबह सात बजे तक तो सो कर उठना संभव नहीं था।
सोमवार सुबह उठते ही फिर से दफ्तर संभाला वहीं सुबह की कॉफी पी गई। रात को लिखी गई बहस को एक बार देखा और अंतिम रूप दे कर उस का प्रिंट निकाला। अदालत की पत्रावलियों पर एक निगाह डाली। तैयार हो कर अदालत पहुँचा तो बारह बज रहे थे। सब से पहले तो अदालत जा कर लिखित बहस जज साहब को पेश करनी थी। हालांकि यह दिन निर्णय के लिए मुकर्रर था। मैं ने जज साहब से पूरी विनम्रता से कहा कि पहले प्रतिवादी सं. 1 व 2 बहस लिखित में प्रस्तुत कर चुके हैं और वादी ने भी शनिवार को ऐसा ही किया। मैं प्रतिवादी सं. 3 का वकील हूँ। मेरी मुवक्किला का भविष्य इस मुकदमे से तय होना है इस लिए मैं भी संक्षेप में अदालत के सामने की गई अपनी बहस को लिख लाया हूँ। इसे भी देख लिया जाए। जज साहब झुंझला उठे, जो स्वाभाविक था, उन्हें उसी दिन निर्णय देना था और अभी लिखित बहस दी जा रही थी। उन्हों ने कहा कि भाई दो पक्षकार लिखित बहस दे चुके हैं आप भी रख जाइए।
मैं वहाँ से निकल कर अपने काम में लगा। एक अदालत में जज साहब स्वास्थ्य के कारणों से अवकाश पर चले गए थे। मुझे सुविधा हुई कि मेरा काम एकदम कम हो गया। काम करते हुए चार बज गए। जिस अदालत में लिखित बहस दी गई थी वहाँ का हाल पता किया तो जानकारी मिली कि जज साहब सुबह से उसी मुकदमे में फैसला लिखाने बैठे हैं। मैं अपने सब काम निपटा चुका तो शाम के पाँच बजने में सिर्फ पाँच मिनट शेष थे। लगता था कि अब निर्णय अगले दिन होगा। कुछ मित्र मिल गए तो शाम की कॉफी पीने बैठ गए। इसी बीच हमारी मुवक्किल का फोन आ गया कि मुकदमे में क्या निर्णय हुआ। वे दिन में पहले भी तीन बार फोन कर चुकी थीं। मैं ने उन्हें बताया कि आज निर्णय सुनाने की कम ही संभावना है। शायद कल सुबह ही सुनने को मिले। काफी पी कर मैं एक बार फिर अदालत की ओर गया तो वहाँ उसी मुकदमे में पुकार लग रही थी जिस में निर्णय देना था। मैं वहाँ पहुँचा तो पक्षकारों की ओर से मेरे सिवा कोई नहीं था। शायद लोग यह सोच कर जा चुके थे कि निर्णय अब कल ही होगा। जज की कुर्सी खाली थी। कुछ ही देर में जज साहब अपने कक्ष से निकले और इजलास में आ कर बैठे। मुझे देख कर पूछा आप उसी मुकदमे में हैं न? मैं ने कहा -मैं प्रतिवादी सं.3 का वकील हूँ। जज साहब ने फैसला सुनाया कि दावा निरस्त कर दिया गया है। हमारे साथ न्याय हुआ था। फैसले ने लगातार काम से उत्पन्न थकान को एक दम काफूर कर दिया।
म मुकदमा जीत चुके थे। मैं ने राहत महसूस की, अदालत का आभार व्यक्त किया और बाहर आ कर सब से पहले अपनी मुवक्किल को फोन कर के बताया कि  वे मिठाई तैयार रखें। मुवक्किल प्रतिक्रिया को सुन कर मैं अनुमान कर रहा था कि उसे कितनी खुशी हुई होगी। इस मुकदमे में उस के जीवन की सारी बचत दाँव पर लगी थी और वह उसे खोने से बच गयी थी। इस मुकदमे को निपटने में छह वर्ष लगे। वे भी इस कारण कि वादी को निर्णय की जल्दी थी और हम भी निर्णय शीघ्र चाहते थे। खुश किस्मती यह थी कि केंद्र सरकार द्वारा फौजदारी मुकदमों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रेक अदालतें स्थापित कर दिए जाने से जिला जज और अतिरिक्त जिला जजों को दीवानी काम निपटाने की फुरसत मिलने लगी थी। मैं सोच रहा था कि काश यह निर्णय छह वर्ष के स्थान पर दो ही वर्ष में होने लगें तो लोगों को बहुत राहत मिले। साथ ही देश में न्याय के प्रति फिर से नागरिकों में एक आश्वस्ति भाव उत्पन्न हो सके।

शनिवार, 20 मार्च 2010

पलाश और सेमल के बीच एक और यात्रा .....

ल सुबह साढ़े चार की बस पकड़नी थी, तो रात साढ़े दस बिस्तर पर चला गया और तुरंत नींद भी आ गई। बीच में आँख खुली तो सिर्फ डेढ़ बजे थे। मैं घड़ी देख फिर सो लिया। तीन बजे अलार्म की मधुर आवाज ने जगाया। अलार्म ने शोभा को भी जगा दिया था। मैं ने इंटरनेट चालू किया मेल देखे। इस बीच कॉफी तैयार थी। मैं निपटने चला गया। ठीक साढ़े चार बजे बस स्टॉप पर था। पौने पाँच बस चली। रास्ते में झालावाड़ से मेरे मुवक्किल माथुर साहब चढ़े। बातें करते-करते हम आगर पहुँचे, तो सवा दस हो चुके थे। तुरंत शाजापुर की बस मिल गई। हम उस में बैठ लिए। कोटा से झालावाड़ के बीच दरा का जंगल पड़ता है। लेकिन  बस वहाँ से निकली तब सुबह हुई ही थी। झालावाड़ निकलने के बीच बीच में वन-क्षेत्र आते रहे। इन दिनों वन में पलाश खूब फूल रहा है। पलाश के तमाम पत्ते सूख कर झड़ चुके हैं और वह फूलों से लदा पूरी तरह केसरिया नजर आ रहा है। सड़क से दूर मैदान के पार आठ-दस पेड़ दिखाई दे जाते हैं, धूप इन दिनों तेज पड़ रही है धरती गर्म हो रही है, धरती को छू कर हवा गर्म होती है और ऊपर को उठती है तो लगता है इन पलाशों आग लगी है और लौ आकाश की और उठ रही है। कहीं कहीं सेमल भी दिखाई दिए, बिना पत्तों के अपने सुर्ख फूलों के साथ जैसे दुलहन विवाह के लिए सजी खड़ी हो। कुछ दिनों में ही ये खूबसूरत फूल अपना काम कर फलों में बदल जाएंगे और फिर उन फलों से बीजों के साथ रेशमी रुई झड़ने लगेगी। मुझे कहीं कहीं अमलतास भी दिखाई दिए, वे बिलकुल हरे थे। कुछ दिनों में उन की भी यही हालत होनी है। पत्ते झड़ते ही अमलतास पूरी तरह पीला हो जाने वाला था।  मैं सोच रहा था प्रकृति किस तरह प्रतिदिन नया श्रंगार करती है।
 
र्मेंन्द्र टूर एण्ड ट्रेवल्स की यह बस छोटी थी, लेकिन बहुत सजी धजी। उस में एक टीवी लगा था जिस पर वीसीडी से फिल्मी गाने दिखाए  जा रहे थे। सब गाने साठ से अस्सी के दशक के थे और वे ही  मालवा के इस ग्रामीण क्षेत्र के पसंदीदा बने हुए थे। एक बार फिर धूपेड़ा में जा कर रुकी। इस बार दोपहर का समय था। परकोटे के अंदर बसा लोहे के कारीगरों का गांव। इस बार मैं ने ग्राम द्वार के चित्र लिए। गांव अब परकोटे के अंदर नहीं रह गया है। बाहर भी बहुत घर बन गए हैं। विशेष रूप से पंचायत घर और लड़कों और लड़कियों के अलग  अलग उच्च माध्यमिक विद्यालय और भी बहुत सी सरकारी इमारतें वहाँ बनी हैं। इस से लगता है कि गांव प्रगति पर है। एक कॉफी वहाँ पी कुछ ही देर में बस फिर चल दी। साढ़े बारह बजे हम शाजापुर की जिला अदालत में थे। जज ने मुकदमे में पिछली पेशी पर राजीनामे का सुझाव दिया था। हमने विपक्षी वकील से बात की थी, लेकिन विपक्षी यह जानते हुए भी कि उस का दावा पूरी तरह फर्जी है। जमीन जो कभी उस की थी ही नहीं उस के दाम बाजार मूल्य से मांग रहा था। माथुर साहब को यह सब स्वीकार नहीं था। आखिर जज साहब को कहा कि समझौता संभव नहीं है। जज साहब ने बहस सुन ली और निर्णय के लिए एक अप्रेल की तारीख दे दी। हम तुरंत ही बस स्टेंड आ गए। 

गर के लिए सीधी बस नहीं थी। हम सारंगपुर गए और वहाँ से आगर पहुंचे तो रात के सवा आठ बज चुके थे। कोटा के लिए बस नौ बजे आनी थी। दिन भर की थकान से भूख जोरों से लग आई थी।  हमारी  आँखें भोजनालय  की तलाश में थी कि माथुर साहब को ठंडाई की दुकान दिख गई। फिर क्या था? विजया मिश्रित ठंडाई पी गई। फिर भोजनालय पर गए। भोजनालय वाले ने बहुत सारी सब्जियों के नाम गिना दिए। मैं ने पूछा -बिना लहसुन मिलेंगी? तो उस का जवाब  था -बिना लहसुन केवल दाल होगी। हमने दाल-रोटी धनिए की चटनी से खाई पेट पर हाथ फेरते हुए वहाँ से निकले। बस की प्रतीक्षा में पान भी खा लिया गया। बस आई तो एक सीट पर हमने बैग रख दिए, वह हमारी हो गई। तभी माथुर साहब उतरे और गायब हो गए। तब तक विजया असर दिखाने लगी थी। मुझे शंका हुई कि कहीं माथुर साहब रास्ता न भूल जाएँ। मैं ने उन्हें तलाशा लेकिन वे नहीं मिले। मैं उन्हें तलाश करते हुए लघुशंका से निवृत्त हो आया।
 वापस लौटा तो माथुर साहब वापस आ चुके थे। मुझे तसल्ली हुई कि वे विजया के असर के बावजूद लौट आए हैं। बस चली तो हमें नींद आ गई। रात साढ़े बारह पर माथुर साहब झालावाड़ में उतर लिए। अब बस में सीटों से चौथाई भी सवारी नहीं रह गई थी। मैं तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर लंबा हो गया। मेरी आँख तब खुली  जब बस कोटा नगर में प्रवेश कर चुकी थी। मैं ठीक तीन बजे घऱ था। अब तक विजया का असर खत्म हो चुका था। नींद भी नहीं आ रही थी। हालांकि साढे पाँच सौ किलोमीटर की इस यात्रा ने बुरी तरह थका दिया था। मैं ने फिर मेल चैक की, कुछ आवश्यक जवाब भी दिए। कुछ ब्लाग भी पढ़े। एक ब्लाग पढ़ते हुए कंप्यूटर हैंग हो गया। मैं उसे उसी हालत में पॉवर ऑफ कर के सोने चला गया। और सुबह साढ़े नौ तक सोता रहा। विजया के असर से नींद भरपूर आई थी। सुबह उठा तो कल की थकान का नामो निशान न था। नींद ने सारे शरीर की मरम्मत कर उसे तरोताजा कर दिया था।

शनिवार, 6 मार्च 2010

दुर्घटना के मुकदमों में दावेदारों की वकालत का विकास

पनी वकालत का यह बत्तीसवाँ साल चल रहा है। वकालत के पहले दस-बारह वर्षों में यदा-कदा मोटर दुर्घटना में घायल होने या मृत्यु हो जाने के मुकदमे सहज रूप से आया करते थे। इसी तरह कामगार क्षतिपूर्ति के मुकदमे सहज रूप से आते ही थे। हम अपने सेवार्थी से मुकदमे का खर्च लेते थे और जो भी फीस तय होती थी उस का आधा पहले लेते थे और शेष आधी फीस मुकदमे में बहस होने के पहले तक सेवार्थी अपनी सुविधा से जमा कर देता था। फीस की राशि निश्चित होती थी और उस का संबंध सेवार्थी को मिलने वाली राशि पर निर्भर नहीं होता था। 
1980 आते-आते स्थिति यह हो गई कि सेवार्थी जिद करने लगे कि वे मुकदमे का खर्च तो देंगे, लेकिन फीस नहीं देंगे। मुकदमे से मिलने वाली क्षतिपूर्ति का निर्धारित प्रतिशत वे क्षतिपूर्ति राशि मिलने पर देंगे। आरंभ में सेवार्थी से हम अपनी शर्त मनवाने के लिए जिद करते थे। लेकिन वकीलों में ही कुछ लोग इन शर्तों को मानने को तैयार हो गए तो हम ने भी इस शर्त को स्वीकार कर लिया। तब फीस का प्रतिशत मिलने वाली क्षतिपूर्ति की राशि का पाँच से आठ प्रतिशत तक हुआ करता था। इस से वकीलों को मिलने वाली फीस की राशि में पर्याप्त वृद्धि होती थी। क्षतिपूर्ति का भुगतान बीमा कंपनी करती थी और यह राशि मिलने पर सेवार्थी फीस वकील को दे दिया करते थे। कोई कोई सेवार्थी ऐसा होता था जो फीस देने में बेईमानी भी कर लेता था। हम लोग उसे भुगत लेते थे या फिर किसी तरह से उस से फीस वसूल कर लेते थे। 
फीस बढ़ने से इस ओर सभी वकीलों का आकर्षण बढ़ा। अब वकीलों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो गई। वकीलों ने यह कर दिया कि वे खर्चा भी नहीं लेने लगे लेकिन फीस बढ़ कर दस प्रतिशत तक पहुँच गयी। यह 1990 के आसपास की बात है। इस बीच 1984 में भोपाल में गैस दुर्घटना हुई। क्षतिपूर्ति के मुकदमे करने के लिए अमरीका के वकीलों ने मुवक्किलों से संपर्क किया और मुकदमा करने के लिए दावेदारों को क्षतिपूर्ति की राशि अग्रिम देने का प्रस्ताव किया। इस से देश के उन वकीलों ने सीखा  जो इस व्यवसाय में पूंजी का नियोजन  कर सकते थे उन्हों ने दुर्घटना के मुकदमे हासिल करने के लिए दावेदारों को अपने पास से अग्रिम राशि देने की पेशकश करना आरंभ कर दिया।
काम हासिल करने का यह तरीका उन वकीलों को रास आया जो वकालत के लिए पूंजी का नियोजन कर सकते थे। धीरे-धीरे काफी वकील इस क्षेत्र में आ गए उन्हों ने पूंजी नियोजित न कर सकने वाले और करने की इच्छा न रखने वाले वकीलों को इस क्षेत्र से विस्थापित कर दिया। अब इस क्षेत्र में केवल वे ही अकेले रह गए। लेकिन पूंजी नियोजित करने वालों की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ती रही। अब उन के बीच भी प्रतिस्पर्धा होने लगी। लोग समाचारों पर निगाह रखने लगे कि कहाँ दुर्घटनाएँ हो रही हैं। वकील दुर्घटना में मृत्यु होने वाले परिवारों से घर जा कर संपर्क करने लगे। इस प्रतिस्पर्धा की स्थिति यह हो गई कि वकील दुर्घटना में मृतक की अंत्येष्टि पर पंहुचने लगे। घायलों से अस्पतालों में ही संपर्क करने लगे। अब तो स्थिति यह है कि मृतक का पोस्टमार्टम जहाँ हो रहा हो वहाँ भी पहुंचने लगे हैं। 
दुर्घटना स्थल पर सब से पहले पुलिस पहुँचती है। पुलिस ने भी जब वकीलों का यह रवैया देखा तो अन्वेषण करने वाले पुलिस अफसरों ने इसे अपनी आय का जरिया बना लिया। अब अन्वेषण अधिकारी पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल आते ही सब से पहले उस वकील को सूचना देता है जिस से उसे कुछ कमीशन मिलने वाला होता है और यह बताता है कि यहाँ मृतक के रिश्तेदार मौजूद हैं, वह आ कर मुकदमा हासिल कर ले। वकीलों की सेवाएँ अब यहाँ तक पहुँच गई हैं कि वे दावे के लिए न केवल तमाम दस्तावेजात जुटाते हैं बल्कि दावेदारों को पच्चीस-तीस हजार तक धन राशि स्वयं अपने पास से अग्रिम दे देते हैं जिसे वे मुकदमे में अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि मिलने के समय वापस वसूल कर लेते हैं। 
ज हमारे सामने ऐसा ही एक वाकया आया। एक वकील साहब हमारे साथ चाय पी रहे थे कि उन के पास पुलिस अफसर का फोन आया कि वे दुर्घटना में मृतक का पोस्टमार्टम करवा रहे हैं, मृतक के रिश्तेदार आ गए हैं आप बात कर लें। यह कह कर पुलिस अफसर ने फोन मृतक के रिश्तेदार को पकड़ा दिया। मृतक के रिश्तेदार ने फोन पर केवल यह कहा कि वकील साहब आप अग्रिम क्या दे रहे हैं? यहाँ एक वकील साहब पहले से आए हुए हैं और बीस हजार देने को तैयार हैं। वकील साहब का नाम पूछा तो पता लगा कि वह दूसरे जिले का वकील है और मुकदमा हासिल करने के लिए यहाँ तक आ गया है।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

खिन्नता यहाँ से उपजती है

दो दिन कुछ काम की अधिकता और कुछ देश की न्याय व्यवस्था से उत्पन्न मन की खिन्नता ने  न केवल अनवरत पर अनुपस्थिति दर्ज कराई, पठन कर्म भी नाम मात्र का हुआ।  मैं भी इस न्याय व्यवस्था का ही एक अंग हूँ। अधिक खिन्नता का कारण भी यही है कि देश की ध्वस्त होती न्याय व्यवस्था का प्रत्यक्षदर्शी गवाह भी हूँ। 
32 वर्ष पहले जिस माह में मुझे वकालत की सनद मिली थी। उसी माह आप के सुपरिचित कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' को अपने एक साथी के साथ बिना किसी कारण नौकरी से हटा दिया गया था। उन्हों ने मुकदमा दायर किया। जो श्रम विभाग में पाँच वर्ष घूमते रहने के उपरांत श्रम न्यायालय को प्रेषित किया गया। इस बीच उन के एक और साथी को नौकरी से हटाया गया। उन का मुकदमा भी उसी वर्ष श्रम न्यायालय में पहुँच गया। 1995 में तीनों व्यक्तियों के मुकदमे अंतिम बहस में लग गए। पाँच जज उस में अंतिम बहस सुन भी चुके। लेकिन हर बार उन के फैसला लिखाने के पहले ही उन का स्थानान्तरण हो जाता है। एक ही मुकदमें में पाँच बार बहस करना वकील के लिए बेगार से कम नहीं। आखिर उसे एक ही काम को पाँच बार करना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति का अदालत में 26 वर्ष से मुकदमा चल रहा है और पाँच बार बहस करने के उपरांत भी उस का निर्णय देने में अदालत सक्षम नहीं हो सकी। खिन्नता यहाँ से उपजती है।
क मुकदमा आज न्यायालय में एक प्रारंभिक प्रश्न पर बहस के लिए था। जब कि उस मुकदमे को चलते बीस साल हो चुके हैं। आज फिर उस प्रारंभिक प्रश्न को दर किनार कर कुछ नए मुद्दे उठाए गए। कर्मचारी से अदालत ने पूछा कि उस की उम्र कितनी हो गई है? उस का उत्तर था साढ़े अट्ठावन वर्ष। अब नौकरी के डेढ़ वर्ष शेष रह गए हैं। मैं जानता था कि इतने समय में उस मुकदमे का निर्णय नहीं हो सकता। दो-तीन साल में उस के पक्ष में निर्णय हो भी गया तो नौकरी पर तो वह जाने से रहा। कुछ आर्थिक लाभ उसे मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें रोकने के लिए हाईकोर्ट है। मैं ने कल पता किया था कि हाईकोर्ट का क्या हाल है? पता लगा कि वहाँ अभी 1995-96 में दर्ज मुकदमों की सुनवाई चल रही है, अर्थात पंद्रह वर्ष पूर्व के मुकदमे। अब यदि इस कर्मचारी का मुकदमा हाईकोर्ट गया जिस की 99 प्रतिशत संभावना है को उस के जीवन में हो चुका फैसला!
हस के दौरान ही मैं ने कर्मचारी से कहा -बेहतर यह है कि तुम अदालत को हाथ जोड़ लो और कहो कि अदालत उस का मुकदमा उस के जीवन में निर्णीत करने में सक्षम नहीं है। वह इसे चलाएगा तब भी उसे उस का लाभ नहीं मिलेगा। इस लिए वह इसे चलाना नहीं चाहता। अदालत ने कहा कि इस का जल्दी फैसला कर देंगे। चाहे दिन प्रतिदिन सुनवाई क्यों न करनी पड़े। लेकिन ऐसे मुकदमों की संख्या अदालत में लंबित चार हजार में से पचास प्रतिशत से अधिक लगभघ दो हजार है। उन सब की दिन प्रतिदिन सुनवाई हो ही नहीं सकती। 

मैं तीसरा खंबा के लिए लिखी जा रही भारत मे विधि का इतिहास श्रंखला के लिए पढ़ रहा था तो मुझे उल्लेख मिला कि 1813 में लॉर्ड हेस्टिंग्स के बंगाल का गवर्नर जनरल बनने के समय लगभग ऐसे ही हालात थे। वर्षों तक निर्णय नहीं होने से लोगों की आस्था न्याय पर से उठ गई थी। लोग संपत्ति और अन्य विवादों का हल स्वयं ही शक्ति के आधार पर कर लेते थे। तब राजतंत्र था। आज जनतंत्र है लेकिन शायद हालात उस से भी बदतर हैं। उस समय भी यह समझा जाता था कि आर्थिक कारणों से अधिक अदालतें स्थापित नहीं की जा सकती हैं। लेकिन लॉर्ड हेस्टिंग्स ने उस समय की आवश्यकता को देखते हुए न केवल न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की अपितु शीघ्र न्याय के लिए आवश्यक कदम उठाए। आज देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदतर है, देश के मुख्य न्यायाधीश कह चुके हैं कि देश में 60000 के स्थान पर केवल 16000 न्यायालय हैं। इन की संख्या तुरंत बढ़ा कर 35 हजार करना जरूरी है अन्यथा देश में विद्रोह हो सकता है।
लेकिन देश के शासनकर्ताओं पक्ष-विपक्ष के किसी राजनेता के कान पर जूँ  तक नहीं रेंगती। उन्हें न्याय से क्या लेना-देना। शायद इसलिए कि न्याय उन की गतिविधियों में बाधक बनता है? केन्द्र सरकार ने जो ताजा बजट पेश किया है उस में सु्प्रीम कोर्ट के लिए जिस धन का प्रावधान किया गया है वह पिछले वर्ष से कम धन का है। जब कि इसी अवधि में महंगाई के कारण रुपए का अवमूल्यन हुआ है।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं

मेरे यहाँ कोटा में वकीलों की चार माह तक चली हड़ताल समाप्त हुए डेढ़ माह से ऊपर हो चला है। अदालतें अब पूरी शक्ति से काम करने लगी हैं। अपने निर्धारित कोटे से दुगना और कोई कोई तो उस से भी अधिक काम कर रही हैं। बहुत दिनों के बाद मुझे लग कर काम करना पड़ा है। दो मुकदमों में सोमवार को और दो में मंगलवार को बहस हो गई और उन में अन्तिम निर्णय के लिए तारीखें निश्चित हो गईँ। फिर भी सब वकीलों के पास काम इतना नहीं है और जो काम कर रहे हैं वे भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मैं उस के कारणों में जाना चाहता हूँ।
कोटा में पंजीकृत वकीलों की संख्या 1700 के लगभग है जिन में से कोई 900 वकील नियमित रूप से वकालत के पेशे में हैं यहाँ अदालतों की संख्या 45 से अधिक है। एक मुकदमे में समस्त सुनवाई करने के उपरांत निर्णय करने के लिए अदालत के पीठासीन अधिकारी को दो दिन का समय मिलता है। यदि अदालतें एक दिन में दो निर्णय करती हैं तो वे निर्धारित कोटे से चार गुना काम कर रही हैं। इस से अधिक काम कर पाना  तमाम तकनीकी मदद के भी असंभव है।  इस गति से भी इस नगर की अदालतों में सौ से कम मुकदमों में ही निर्णय हो सकते हैं। इस तरह लगभग वकीलों की संख्या के अनुपात में केवल दस से बारह प्रतिशत मुकदमे ही निर्णीत हो सकते हैं। 
धर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है जो कि कम होने का नाम नहीं ले रहा है।  निश्चित रूप से बहुत से वकील फुरसत में हैं। वे काम करना चाहते हैं लेकिन काम करने के लिए अदालतें तो हों। अब वे इस फुरसत से भी खीजने लगे हैं। रोज बिना उपलब्धि के घर लौटना किसे सुहाता है। जब किसी वकील के खाते में माह में दो मुकदमों का निर्णय भी न लिखा जाए तो उस के पास किसी न्यायार्थी को खींच लाने के लिए क्या बचेगा? केवल डींग हाँकने से तो न्यायार्थी उस के पास टिकने से रहा। मैं ने तय किया था कि मैं अपने किसी कारण के कारण किसी मुकदमे में बिना कोई काम किए अदालत से तारीख बदलने के लिए नहीं कहूँगा। पर काम की अधिकता के कारण खुद अदालतें ही मुकदमों में तारीखें बदलें तो क्या किया जा सकता है। श्रम न्यायालय में जहाँ मेरे पास के लगभग एक चौथाई मुकदमे लंबित हैं। आठ-दस साल पुराने मुकदमे में अगली तारीख पांच-छह माह की होती है। न्यायार्थी माह में एक सुनवाई तो अवश्य ही चाहता है। कहता है -वकील साहब! तारीख जल्दी की लेना। मैं उसे क्या कहूँ? मैं उसे कहता हूँ जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं है। 

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बढ़ सकती है उत्सवों की संख्या

ठ फरवरी को रुचिका छेड़छाड़ मामले के अभियुक्त एसपीएस राठौर पर उत्सव नाम के युवक ने चाकू से हमला किया और उसे घायल कर दिया। बताया गया है कि उत्सव दिमागी तौर पर बीमार है और उस की चिकित्सा चल रही है। रुचिका प्रकरण में बहादुरी और संयम के साथ लड़ रही रुचिका की सहेली आराधना ने कहा है साढ़े उन्नीस साल से हम भी हमेशा कानूनी दायरे में ही काम करते रहे हैं। इसलिए मैं आग्रह करूंगी कि लोग यदि आक्रोशित हैं तो भी कृपया कानून के दायरे में रहें। हमें न्यायपालिका की कार्रवाई का इंतजार करना चाहिए और किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।
राधना इस के सिवा और क्या कह सकती थी? क्या वह शिवसेना प्रमुख के बयानों की तरह यह कहती कि लोगों को राठौर से सड़क पर निपट लेना चाहिए? निश्चित रूप से आज भी जब एक मामूली छेड़छाड़ के प्रकरण में अठारह वर्ष के बाद निर्णय होता है तो कोई विक्षिप्त तो है जो कि संयम तोड़ देता है।
देश की बहुमत जनता अब भी यही चाहती है कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो लोगों को दो ढ़ाई वर्ष में परिणाम मिलने लगें। लेकिन इस दिशा की और बयानों के सिवा और क्या किया जाता है? देश की न्यायपालिका के प्रमुख कहते हैं कि उन्हें अविलंब पैंतीस हजार अधीनस्थ न्यायालय चाहिए। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो जनता विद्रोह कर देगी।
ज यह काम एक विक्षिप्त ने किया है। न्याय व्यवस्था की यही हालत रही तो इस तरह के विक्षिप्तों की संख्या भविष्य में तेजी से बढ़ती नजर आएगी। स्वयं संसद द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार देश में इस समय साठ हजार अधीनस्थ न्यायालय होने चाहिए। देश के मुख्य न्यायाधीश तुरंत उन की संख्या 35 हजार करने की बात करते हैं। वास्तव में इस समय केवल 16 हजार न्यायालय स्थापित हैं जिन में से 2000 जजों के अभाव में काम नहीं कर रहे हैं। केवल 14 हजार न्यायालयों से देश की 120 करोड़ जनता समय पर न्याय प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकती।अमरीका के न्यायालय सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओँ से युक्त हैं और उन की न्यायदान की गति तेज है। फिर भी वहाँ 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं। यदि अमरीका की जनसंख्या भारत जितनी होती तो वहाँ न्यायालयों की संख्या 133 हजार होती।
धीनस्थ न्यायलयों की स्थापना की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, जिन की अधिक न्यायालय स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है।  मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री द्वारा लगातार अनुरोध करने के उपरांत भी राज्यों का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। क्या ऐसी अवस्था में यह सोच नहीं बननी चाहिए कि दीवानी और फौजदारी मामलों में न्यायदान की जिम्मेदारी राज्यों से छीन कर केंद्र सरकार को अपने हाथों में ले लेनी चाहिए?