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रविवार, 6 अक्टूबर 2013

आतंक पैदा करने वाली व्यवस्था . . .

प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है? 
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है- 
“मैं डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।

मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।

अंत में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं, वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।

ही पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”

कानून का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं। जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति का जनाजा निकल चुका होता है।

स हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।

शुक्रवार, 28 जून 2013

मुसीबत गलत पार्किंग की

कुछ दिनों से एक समस्या सामने आने लगी।  मेरे मकान के गेट के ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर कोई अक्सर एक गाड़ी पार्क कर जाता है।  उस के बाद इतना स्थान शेष नहीं रहता कि मैं अपनी कार को अपने घर से बाहर निकाल सकूँ या बाहर रहे तो घर के पोर्च में ला कर खड़ी कर सकूँ।  घर के बाहर सड़क पर अपना वाहन पार्क करना बहुत बेहूदा लगता है।  सप्ताह भर पहले यह पहचान हुई की वह वाहन किस व्यक्ति के अधिकार में है। फिर एक दिन उस ने अपना वाहन वहाँ खड़ा किया ही था कि मेरी निगाह पड़ गई। मैं ने उसे समझाया कि मेरे गेट के सामने वाहन खड़ा करने में मुझे अपनी कार निकालने में समस्या आती है। कुछ आगे सरका कर खड़ी कर दी जाए तो सामने की सड़़क से इधर उधर मुड़ते समय सामने आने वाले से टक्कर की संभावना बनी रहती है। मैं ने उसे कहा कि वह मेरे मकान के गेट के सामने का स्थान छोड़ कर कुछ दूर उस की गाड़ी खड़ी कर दे तो किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। अगले दिन से गाड़ी मेरे बताए स्थान पर या अन्यत्र कहीं खड़ी होने लगी। मुझे लगा कि मेरी परेशानी मिट गई।

ल सुबह जब मैं अदालत जाने के लिए कार निकालने लगा तो गेट के सामने गा़ड़ी फिर खड़ी थी। मैं परेशान कैसे अपनी कार निकालूँ।  मैं उस गाड़ी के के घर गया तो वहाँ सिर्फ बुजुर्ग महिलाएँ थीं।  वे कहने लगीं कि "भैया ने गलती से खड़ी कर दी होगी, कहीं इधर उधर चला गया होगा, आएगा तब हटवा देंगे। पर मैं तो "भैया" के आने तक रुक नहीं सकता था। मैं ने जैसे तैसे अपने गेट के बाहर के रेम्प पर से कार को कुदा कर निकाला। नतीजा ये हुआ कि रेम्प की दो टाइल्स टूट कर निकल गईँ।


दोपहर बाद सवा तीन बजे लौटा तब भी वह गाड़ी वहीँ खड़ी थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं ने भी अपनी कार उस के बराबर ला कर खड़ी की ही थी कि अचानक बंद हो गई। उसे किनारे लगाने के लिए स्टार्ट करना चाहा तो उस ने स्टार्ट होने से मना कर दिया। अब सड़क से मोटर बाइक तो निकल सकती थी पर और कोई वाहन नहीं। एक कार वाले सज्जन आए तो उन से कहा कि मेरी कार तो सेल्फ स्टार्ट नहीं हो रही है,  धक्का लगाना पड़ेगा वे दूसरी वाली गाड़ी हटवा लें। वे बेचारे अपनी कार को दूसरी ओर से निकाल कर ले गए। गलत पार्किंग वाले सज्जन के घर तलाश किया तो किसी ने दरवाजा ही न खोला। बाद में पता लगा कि गाड़ी के प्रभारी बाहर गए हैं कब आएंगे पता नहीं। 


खिर मैं ने पुलिस थाने को फोन किया तो वहाँ से जवाब मिला रिपोर्ट करने थाने आना पड़ेगा। जब कि इस में थाने जाने वाली कोई बात नहीं थी। सूचना मिलने पर सड़क से यातायात बाधा हटाने का काम पुलिस का है। उसे तुरन्त आना चाहिए था। खैर!


मैं ने पुलिस थानाधिकारी और पुलिस अधीक्षक  को अपनी शिकायत ई-मेल से भेज दी।  एक घंटे तक उस का कोई असर न होने पर उसी शिकायत को यह लिखते हुए पुलिस कंट्रोल रूम को फॉरवर्ड किया कि घंटा भर हो गया है, वाहन अभी हटा नहीं है।  मैं अपना वाहन रात को सड़क पर नहीं छोड़ सकता। घंटे भर बाद एक पुलिस जीप आई जिस में एक अधिकारी और चार सिपाही थे। उन्हों ने गाड़ी वाले का घर पता किया और उस के घऱ जा कर पूछा तो वह फिर नदारद था। अब गाड़ी कैसे हटाई जाए। अब तो गा़ड़ी हटाने वाली क्रेन के बगैर यह सब नहीं हो सकता था। मैं ने क्रेन मंगाने का सुझाव दिया। लेकिन सुझाव जल्दी ही गाड़ी वाले के परिजनों तक पहुँच गया। सन्देश आया कि चाबी घऱ पर है। तब एक सिपाही उस के घर से चाबी ले कर आया और गाड़ी को वहाँ से हटाया। मैं ने राहत की साँस ली और अपनी कार को ला कर पोर्च में खड़ा किया। 


मोहल्ले में गलत पार्किंग वाली गाड़ी पुलिस द्वारा आ कर हटाने से यह संदेश गया कि इस तरह की छोटी मोटी परेशानियों के लिए भी पुलिस को शिकायत की जा सकती है, और पुलिस ऐसी शिकायत पर नागरिकों की मदद भी करती है। दूसरे पुलिस के प्रति विश्वास में वृद्धि हुई। तीसरे इस तरह केवल अपनी सुविधा देखने और पड़ौसियों को कष्ट पहुँचाने वालों के कान खड़े हुए कि पुलिस हस्तक्षेप कर सकती है। गाड़ी हटाना तो ठीक है पर गाड़ी जब्त कर पुलिस कंट्रोल रूम पर भी ले जाई जा सकती थी जहाँ से वह बिना जुर्माने के नहीं छूटती।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

टल्ला मारने का तंत्र

भारत आबादी का देश है। एक अरब इक्कीस करोड़ से ज्यादा का। लेकिन सरकार में कर्मचारी तब अधिक दिखाई देते हैं जब सरकार को उन्हें वेतन देना होता है। आँकड़ा आता है कि बजट का एक बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारी ही निपटा जाते हैं, विकास के लिए कुछ नहीं बचता। तब वाकई लगने लगता है कि कर्मचारियों पर फिजूल ही खर्च किया जा रहा है। 

लेकिन किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए। हर जगह कर्मचारी जरूरत से बहुत कम नजर आएंगे। अस्पताल में डाक्टरों की कमी है तो स्कूलों में अध्यापकों की। सरकारी विभागों में पद खाली पड़े रहते हैं। जब भी किसी अफसर से काम की कहें तो वह दफ्तर की रामायण छेड़ देता है। क्या करें साहब?  कैसे काम करें? दो साल से दफ्तर में स्टेनो नहीं है। केसे फाइलें निपटें। सरकार से कोई योजना आ जाती है उस में लगना पड़ता है। ज्यादातर योजनाएँ सरकार खुद नहीं बनाती सुप्रीमकोर्ट सरकारों को आदेश दे देता है और उन्हें करना पड़ता है। अब देखो श्रमविभाग में श्रमिक चक्कर पर चक्कर लगाए जा रहे हैं कि उन्हें उन का मालिक न्यूनतम वेतन नहीं देता। श्रम विभाग का अधिकारी कहता है अभी फुरसत नहीं है अभी तो बाल श्रमिक तलाशने जाना है। पिछले चार-पाँच साल से श्रम विभाग युद्ध स्तर बाल श्रमिक तलाशने में लगा है। मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं पर बाल श्रमिक हैं कि ठीक श्रम विभाग के पीछे लगी चाय की गुमटी तक से कम नहीं होते। 

बाल श्रमिकों से फुरसत मिलती है तो उन्हें ठेकेदारों का पंजीयन करना है, उस के बाद सीधे मोटर वाहन मालिकों का पंजीयन का काम आ जाता है। उस के खत्म होते-होते अचानक राज्य सरकार की योजना आ गई है कि निर्माण श्रमिकों का पंजीयन करना है, उन के परिचय पत्र बनाने हैं। ऐसा करते करते साल पूरा हो जाता है तो दुकानों के पंजीयन के लिए केम्प चल रहे हैं। बेचारे न्यूनतम वेतन वाले चक्कर पर चक्कर लगाते रह जाते हैं। उन के साथ-साथ वे भी चक्कर लगा रहे हैं जिन्हें वेतन नहीं मिला है या उस में कटौती कर ली गई है। नौकरी पूरी होने के चार साल बाद तक भी एक मजदूर चक्कर काट रहा है कि उसे ग्रेच्युटी नहीं मिली है। बहुत सारे वे लोग हैं जो दुर्घटनाओं के शिकार हुए हैं  या फिर उन के आश्रित हैं जिन्हें अभी तक उन्हें मुआवजा नहीं मिला है। अधिकारी कहता है कि काम चार गुना बढ़ गया है और पाँच सालों से एक चौथाई पद खाली पड़े हैं। सरकार इन पदों को खत्म कर देगी कि जब इन के बिना काम चल रहा है तो इन पदों को बनाए रखने का फायदा क्या है? चक्कर लगाने वालों से कोई नहीं पूछता कि पद होने चाहिए या नहीं।

ब काम अधिक होता है और काम करने वाले कम तो एक नया तंत्र विकसित होने लगता है। अब दिन भर में काम तो दस ही होने हैं, अधिक हो नहीं सकते। फिर चालीस व्यक्ति चक्कर लगा रहे हों तो तीस को टहलाना होगा। उन्हें टहलाने का तंत्र विकसित कर लिया जाता है या अपने आप हो जाता है। आप को दर्ख्वास्त के साथ शपथ-पत्र लाना चाहिए था। आप शपथ पत्र बनवा कर लाइए। शपथ पत्र बन कर आ जाता है तो उस में स्टाम्प पूरा नहीं है, आप दोबारा बनवा कर लाइए। इस में चोकोर मोहर लगी है, गोल लगनी चाहिए थी। अच्छा ठीक है आप गोल मोहर भी लगवा लाए। अच्छा आप अपनी दर्ख्वास्त आमद में दे दीजिए, वहाँ से दर्ख्वास्त की नकल पर पावती ले लेना, सबूत रहेगा कि दर्ख्वास्त दी है। और नकल को संभाल कर रखना कहीं दफ्तर में खो गई तो दुबारा देनी पड़ सकती है। ये बहाने तो एक प्रतिशत से भी कम हैं। कोई शोध नहीं करता वरना इस के सौ गुना से भी अधिक की सूची बनाई जा सकती है। 

थाने में चले जाइए। अरे! कागज खत्म हो गए हैं, एक दस्ता कागज ले आइए, साथ में कार्बन और कोपिंग पेंसिल लाना न भूलिएगा। बस उलटे पैर चले आइए अभी रपट लिखी जाती है। इन सब को ले कर वापस पहुँचे तो पता लगा वहाँ सिर्फ मुंशी जी बैठे हैं। दरोगा जी तफ्तीश पर पधार गए हैं। अभी आते हैं घंटे भर में आप बैठिए। बैठिए कहाँ भला? टूटी हुई बैंच पर पहले ही दो लोग बैठे हैं। आप बाहर आ कर नीम की छाँह में जगह तलाशते हैं। डेढ़ घंटा गुजर गया है। दरोगा जी आए नहीं। मुंशी से पूछने पर बताता है उन का कोई भरोसा नहीं है। उधर छावनी ऐरिया में कहीं आग लग गई है सीधे वहीं चले गए हैं। ऐसा क्यों नहीं करते शाम को सात बजे आइए। उस समय वे यहीं रहते हैं। शाम को सात बजे दरोगा जी मिल जाते हैं। दो-तीन बदमाशों को पकड़ कर लाए हैं। एक की पट्टे से पिटाई हो रही है। दरोगा जी रौद्र रूप में हैं। अब इस रौद्र रूप में उन से रपट के लिए कहने की जुर्रत कौन करे। बस लौट आए की सुबह देखेंगे। 

दालतों की छटा और भी निराली है। वहाँ भी चौगुना काम है। अदालत के आज के मुकद्दमों की फेहरिस्त में सौ से ऊपर मुकदमे लगे हैं। जज को सिर्फ बीस निपटाने हैं। अस्सी को टल्ला मारना है। चालीस को रीडर निपटा चुका है। चालीस और हैं। एक दर्ख्वास्त पर बहस सुननी है। जज कहता है आज तो सीट पर से उठा तक नहीं हूँ। सुबह बैठा था। लंच में बैंक जा कर आया हूँ, चाय तक नहीं पी है। आप अगली पेशी पर बहस सुनाइएगा। वह तारीख दे देता है। तीन चार फाइलें उधर दफ्तर से ही नहीं निकली हैं, मुवक्किल दफ्तर के बाबू से भिड़े हैं कि उन की फाइल निकल जाए तो कुछ काम हो। पर चार बजे फाइल निकलती है तब तक साहब चैंबर में बैठ कर फैसला लिखाने लगे हैं। अब तो वहाँ घुसने में चपरासी भी कतरा रहा है। मुवक्किल रीडर से तारीख ले कर खिसक लेते हैं। एक मुकदमा दो साल पहले से चल रहा है उस में अभी तक विपक्षी ने जवाब नहीं दिया है। रीडर तारीख लगा देता है। कहता है अगली पेशी पर जरूर ले लेंगे। उसी अदालत में ताजा मुकदमा आया है, एक जज साहब फरियादी हैं। उस में जवाब के लिए पहली तारीख है। रीडर को सभी कायदे कानून  स्मरण हो गए हैं। वकील को कहता है आज जवाब ले आइये वरना जवाब बंद कर दिया जाएगा। देखते नहीं जज साहब का मुकदमा है। कुछ और भी मुकदमे हैं जो सीधे राजधानी में सफर कर रहे हैं। रीडर को उस का भरपूर ईनाम मिल रहा है। 
मारे पास कम पुलिस है, कम अदालतें हैं, कम स्कूल और कम शिक्षक हैं, कम डाक्टर और कम अस्पताल हैं। नगर पालिका के पास कम सफाई कर्मचारी हैं। जो हैं उन्हों ने टल्ला मारने का तंत्र विकसित कर लिया है। यदि न करते तो सरकारें कैसे चलतीं?

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

बलात्कार की रपट थाने में नहीं उच्च न्यायालय में दर्ज कराएँ

क महिला के साथ छेड़छाड़ हो जाए, यह केवल सारे समाज के लिए शर्म की बात ही नहीं है, अपितु भारतीय दंड संहिता में अपराध है, जिस के लिए अपराधी को दंडित कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार ने यह जिम्मेदारी अपनी पुलिस को सौंपी हुई है। पुलिस इस तरह के मामलों में किस तरह का बर्ताव करती है, यह सर्वविदित है। पुलिस को इस तरह के छोटे-मोटे मामलों पर शर्म नहीं आती। आए भी क्यों जब पुलिस महानिदेशक ऐसा करे तो साधारण पुलिस वाले तो उस का अनुकरण कर ही सकते हैं।
लो छेड़छाड़ की बात छोड़ दी जाए। किसी महिला के साथ बलात्कार हो, वह भी एक के साथ नहीं, एकाधिक महिलाओं के साथ और एक बार नहीं, पूरे सप्ताह भर तक; फिर यह सब करें पुलिस वाले, वह भी पुलिस थाने में और पुलिस थाने से महिला की आँखों पर पट्टी बांध कर कहीं और ले जा कर।   पुलिस को इस पर भी शर्म आने से रही। शायद वे ऐसा न करें तो उन की मर्दानगी पर लोग सन्देह जो करने लगेंगे। फिर जब वे महिलाएँ पुलिस के उच्चाधिकारियों के पास जा कर अपनी रिपोर्ट दर्ज करने की कहें और उच्चाधिकारी सुन लें यह कदापि नहीं हो सकता। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? पुलिस महकमे की इज्जत जो दाँव पर लगी होती है। आखिर पुलिस महकमे की इज्जत किसी महिला की इज्जत थोड़े ही है जिस से जब चाहे खेल लिया जाए। 
ब महिलाएँ क्या करें? कहाँ जाएँ? महिलाओं ने हिम्मत की और उच्चन्यायालय को शिकायत लिखी। उच्च न्यायालय ने पुलिस से जब जवाब तलबी की तब  जा कर पुलिस ने महिलाओं के बयान दर्ज किए। पुलिस को अब भी विश्वास नहीं है कि उन के सिपाही ऐसा कर सकते हैं, यह करतब कर दिखाने वाली अंबाला पुलिस  का कहना है कि यह राजस्थान के बावरिया गिरोह की सदस्य महिलाएँ हैं और खुद पर लगे आरोपों से बचने के लिए उलटे पुलिस पर ऐसे आरोप लगा रही हैं। महिलाओं के आरोप हैं कि पुलिस वालों ने न केवल बलात्कार किया, उन्हें बिजली का करंट भी लगाया जिस से एक महिला का गर्भ गिर गया और यह भी कि एक महिला इस बलात्कार के परिणाम स्वरूप गर्भवती हो गयी। 
खैर, पुलिस आखिर अपने सिपाहियों और अफसरों का बचाव न करेगी तो जनता उस के चरित्र पर संदेह करने लगेगी। लेकिन अब जनता क्या समझे? ये कि अब किसी महिला के साथ बलात्कार हो तो उसे पुलिस में रिपोर्ट करने नहीं जाना चाहिए, बल्कि सीधे उच्च न्यायालय में रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए। यानी अब पुलिस थाने का काम उच्च न्यायालय किया करेंगे?  
पुलिस द्वारा रिपोर्ट दर्ज न करने का किस्सा आम है। एक आम आदमी, जब भी उसे पुलिस में किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज करानी हो तो किसी रसूख वाले को क्यों ढूंढता है? यह किसी एक राज्य का किस्सा नहीं है, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पूरे भारत में पुलिस का यह चरित्र आम है। तो फिर क्यों नहीं पुलिस के चरित्र को बदलने के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा जाता। लगता है सरकारों, राजनेताओं और उन के आका थैलीशाहों को ऐसी ही पुलिस की जरूरत है।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

अवसाद के बीच एक दीपावली

सभी पाठकों और ब्लॉगर मित्रों 
को 
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ !

गभग सब के बाद, बहुत देरी से शुभकामनाएँ व्यक्त करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। अनवरत और तीसरा खंबा पर पिछली पोस्टें  3 नवम्बर को गई थीं, उसी में शुभकामना संदेश भी होना चाहिए था। लेकिन तब इरादा यह था कि 4 और 5 नवम्बर को नियमित पोस्टें जाएंगी और तभी शुभकामना संदेश भी उचित रहेगा। लेकिन अपना  सोचा कहाँ होता है? परिस्थितियाँ निश्चित करती हैं कि क्या होना है, और हम कहते हैं "होहिही वही जो राम रचि राखा"। ये राम भी अनेक हैं। एक तो अपने राम हैं जो चाहते हैं कि दोनों ब्लाग पर कम से कम एक पोस्ट तो प्रतिदिन नियमित होना चाहिए, शायद पाठकों के राम भी यही चाहते हों। लेकिन परिस्थितियों के राम इन पर भारी पड़ते हैं।  पर ऐसा भी नहीं कि मेरे राम की उस में कोई भूमिका न हो। परिस्थितियाँ इतनी भी हावी नहीं थीं कि कोई पोस्ट हो ही नहीं सकती थी। मेरे राम ने तीन दिनों में चाहा होता तो यह हो सकता था। कुल मिला कर लब्बोलुआब यह रहा कि परिस्थितियाँ निर्णायक अवश्य होती हैं, लेकिन परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर व्यक्तिगत प्रयास न हो तो इच्छित परिणाम  प्राप्त नहीं किया जा सकता। हम यूँ कह सकते हैं कि किसी इष्ट के लिए पहले परिस्थितियाँ अनुकूल होनी चाहिए और फिर इष्ट को प्राप्त करने का वैयक्तिक प्रयास भी होना चाहिए।  
पिछले दो माह बहुत अजीब निकले हैं। एक तो मकान का बदलना रहा, जिस ने दिनचर्या को मथनी की तरह मथ डाला। दूसरे दो माह पहले एक निकटतम मित्र परिवार में ऐसा हादसा हुआ जिस के होने की संभावना थी हम रोकना चाहते थे, लेकिन चीजें प्रयास के बावजूद भी काबू में नहीं आ सकीं और घटना घट गई। कहानी लंबी है, लेकिन विस्तार के लिए अनुकूल समय नहीं। मित्र के पुत्र और पु्त्रवधु के बीच विवाद था, पुत्रवधु मित्र को लपेटने की कोशिश में थी। मित्र बचना चाहते थे। इस के लिए वे पुलिस के परिवार परामर्श केन्द्र भी गए। लेकिन एक रात पु्त्र के कमरे से आवाजें आई, मित्र वहाँ पहुँचे तो वह मृत्यु से जूझ रहा था। पुत्रवधु ने बताया कि उन के पुत्र ने फाँसी लगा कर आत्महत्या का प्रयास किया है, उस ने फाँसी काट दी इस लिए बच गया।  अनेक प्रश्न थे, कि पुत्र-वधु ने अपने पति को फाँसी लगाने से क्यों न रोका? वह चिल्लाई क्यों नहीं? एक ही दीवार बीच में होने के बावजूद भी वह सहायता के लिए अपने सास ससुर के पास क्यों नहीं गई? फाँसी काट देने के बाद भी अपने अचेत पति को ले कर कमरे के दरवाजे की कुंड़ी खोल अकेले स्यापा क्यों करती रही? प्रश्नों का उत्तर तलाशने का समय नहीं था। मित्र अपने पुत्र को ले कर अस्पताल पहुँचे, दो दिनों में उस की चेतना टूटी। पुत्र बता रहा था कि उसे पहले कुछ खाने में दे कर अचेत किया गया और फिर पत्नी ने ही उसे गला घोंट कर मारने की कोशिश की। जब सब अस्पताल में थे तो अगली सुबह पुत्रवधु का पिता आया और पुत्रवधु को उस के सारे सामान सहित अपने साथ ले गया। घर पर पुत्रवधु अकेली थी तो मकान के ताला और लगा गया।
मेरे और मित्र के कुछ समझ नहीं आ रहा था। हमने अपने स्तर पर अन्वेषण किया तो जाना कि मित्र के पुत्र का बयान सही है। पुलिस को रिपोर्ट दी गई, लेकिन पूरे माह कोई कार्यवाही नहीं हुई। अदालत को शिकायत की गई, अदालत ने शिकायत पर मुकदमा दर्ज कर अन्वेषण आरंभ कर दिया। इस बीच पता लगा कि पुत्र-वधु ने भी उत्पीडन और अमानत में खयानत के लिए धारा 498-ए और 406 भा.दं.सं. का मुकदमा पुलिस में दर्ज करा दिया है। मित्र अपने सारे परिवार के साथ तीन बार अन्वेषण में सहयोग के लिए थाने उपस्थित हो गये। लेकिन पुलिस अन्वेषण अधिकारी टालता रहा। अचानक उस ने पिछले रविवार को उन्हें थाने बुलाया। दोनों पक्षों में समझौते का नाटक किया। दबाव यह था कि दोनों अपनी-अपनी रिपोर्टें वापस ले लें और साथ रहें। लेकिन पति इस के लिए तैयार नहीं था। उस का कहना था कि जिस पत्नी ने उस की जान लेने की कोशिश की उस के साथ वह किस भरोसे से रह सकता है? थाने में किसी सिपाही ने कान में कहा कि अन्वेषण अधिकारी ने पैसा लिया है वह आज गिरफ्तारी करेगा। पुलिस ने पति को गिरफ्तार कर लिया, बावजूद इस के कि स्वयं अन्वेषण अधिकारी यह मान रहा था कि उस पर आरोप मिथ्या हैं। लेकिन 498-ए का आरोप है तो गिरफ्तार तो करना ही पड़ेगा। मेरा उस से कहना था कि सब पिछले पन्द्रह दिनों से थाने आ रहे थे तो यह कार्यवाही एक सप्ताह पहले और दिवाली के एक सप्ताह बाद भी की जा सकती थी। लेकिन अभी ही क्यों की जा रही है? स्पष्ट था कि सिपाही द्वारा दी गई सूचना सही थी।
मित्र हमेशा मेरी मुसीबत में साथ खड़े रहे। मुझे साथ खड़े रहना ही था। मैं ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। लेकिन दीपावली का अवकाश आरंभ होने के पहले मित्र के पुत्र को जमानत पर बाहर नहीं ला सका। उस के अलावा परिवार के छह और सदस्यों का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में था। अन्वेषण अधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया था और कह रहा था कि उन के विरुद्ध मामला नहीं बन रहा है। लेकिन फिर किसी सिपाही ने सलाह दी की उन्हें घर छोड़ देना चाहिए। गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है। नतीजे में मित्र को घर छोड़ कर बाहर जाना उचित लगा और वे चले गए। घर दीवाली पर सूना हो गया। मेरा मन भी अवसाद से घिर गया। पिछले पूरे सप्ताह जिस भाग-दौड़ से पाला पड़ा उस ने थका भी दिया था। 
धर अवकाश आरंभ होते ही दोनों बच्चे घर आए। मेरा मन अवसाद से इतना भरा था कि कुछ करने का मन ही नहीं कर रहा था। दीवाली की रीत निभाने को श्रीमती शोभा रसोई में पिली पड़ी थीं। बच्चों ने घर को सजाया, और दीपावली मन गई। अभी भी अवसाद दूर नहीं हो पा रहा है, शायद इस से तब निजात मिले जब मित्र का पुत्र जमानत पर छूट जाए और शेष परिवार को अग्रिम जमानत का लाभ मिल जाए।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता?

आंधी थाने के के एक गाँव के रहने वाले राम अवतार जयपुर सेशन कोर्ट में वकील हैं। चार अगस्त को उन के साठ वर्षीय पिता जगदीश प्रसाद शर्मा को गांव के ही कुछ लोगों ने पीटा। उसी शाम जगदीश रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे तो थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और कुछ घंटे थाने पर बिठा कर जगदीश को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। बाद में उन का बेटा रामअवतार थाने गया और इस्तगासा करने की बात कही तो थाने पर बैठा एएसआई गोपाल सिंह गुस्सा हो गया। उसने दोनों को बाहर निकाल दिया। 
गले दिन पांच अगस्त को शाम करीब छह बजे थाने से जीप रामअवतार के घर आकर रूकी।  पुलिस ने बुजुर्ग जगदीश को घर से उठा लिया और थाने ला कर  बंद कर दिया। वकील बेटा रामावतार जब उनका हाल-चाल लेने थाने पहुंचा और अकारण वृद्ध को गिरफ्तार करने की बाबत जानकारी मांगी, तो थाने के सात पुलिस वालों ने मिल कर बाप-बेटे दोनों का हुलिया बिगाड़ दिया। थाना स्टाफ ने बेटे के कपड़े उतार कर उससे बुरी तरह मारपीट की।एएसआई गोपाल सिंह ने वकील रामअवतार को थाने के बाहर ले जाकर नंगा कर बुरी तरह पीटा और एक एक कर चार पुलिस वालों ने रामअवतार पर पेशाब किया। इतना करने पर भी जब पुलिस का जी नहीं भरा तो उन्होंने जलती सिगरेट से उसके हाथ पर वी का निशान बना दिया। बाद में उसे थाने से बाहर फेंक दिया।इस घिनौनी हरकत में एएसआई गोपाल सिंह, हेड कांस्टेबल लक्ष्मण सिंह, सिपाही देवी सिंह, राजकुमार, छीतर, रोशन और धर्मसिंह शामिल थे। राम अवतार ने आई जी को शिकायत की। उस के साथ जयपुर जिला बार के सभी वकीलों की ताकत थी। चारों पुलिसियों को तुरंत निलंबित कर दिया गया और वृत्ताधिकारी को मामले की जाँच सौंपी गई है।
राम अवतार वकील था इसलिए जल्दी सुनवाई हो गई। वर्ना यह मामला किसी न किसी तरह दब जाता। इस तरह के हादसे केवल राजस्थान में ही नहीं होते, देश के हर राज्य में हर जिले में कमोबेश होते रहते हैं। ये  मामले न केवल देश में पुलिस के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। अपितु हमारे देश की राजसत्ता के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। मैं जानता हूँ, जब किसी साधारण व्यक्ति को पुलिस में रपट लिखानी होती है तो उसे कई कई दिन तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ताकि यदि एक बार उस की रपट थाने में दर्ज हो भी जाए तब भी कम से कम जीवन में वह दुबारा रपट लिखाने का विचार तक अपने दिमाग में न लाए। यही रपट इलाके के जमींदार, साहूकार, किसी मिल मालिक को लिखानी हो तो खुद थाने का अधिकारी उस के लिए तैयार रहता है और रपट लिखाने वाले को गाइड करता है। बड़े अफसर और नेताजी फोन करते हैं कि ये एफआईआर तुरंत लिखनी है, और कि मुलजिमों के साथ क्या सलूक करना है? ऐसा सलूक कि सजा की एक किस्त तो अदालत में मामला पहुँचने के पहले ही पूरी कर ली जाए।
प्रश्न यह है कि पुलिस के इस चरित्र को आजादी के बाद लोकतंत्र स्थापित हो जाने के साठ बरस बाद भी बदला क्यो नहीं जा सका है? इसी माह हम आजादी की तिरेसठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस प्रश्न पर सोच सकते हैं कि पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता है? हो सकता है आप इस प्रश्न का उत्तर तलाश कर पाएँ। लेकिन मुझे जो उत्तर पता है उसे मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ। वास्तव में इस देश की राजसत्ता जो कि देश के पूंजीपतियों और जमींदारों की है, जो न के चाटुकारों की सहायता से कायम है, उसे पुलिस के इस चरित्र को बदलने की बिलकुल जरूरत नहीं है। वे इसी के जरीए तो अपनी हुकूमत चला रहे हैं। लेकिन;

लेकिन जनता को तो पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है, लेकिन क्या ये सभी पूंजीपति और जमींदार, राजनेता, पुलिस, फौज, गुंडे और खाकी-सफेद कपड़ो में ढके उन के चाटुकार इस चरित्र को बदलने देंगे? कदापि नहीं। जनता को राजसत्ता ही बदलनी होगी। कब और कैसे? यह तो जनता ही जानती है। 

रविवार, 18 जुलाई 2010

पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?

दो दिनों की व्यस्तता के बाद कल शाम भोजन करते हुए टीवी पर समाचार देखने का सुअवसर मिला। वहाँ भारतीय पुलिस का गुणगान हो रहा था। बड़ा अजीब दृश्य था। उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर के एक घर में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर अपनी पूरी यूनीफॉर्म में एक फोटो हाथों में लिए फफक-फफक कर रो रही थी। उस की बेटी अचानक गायब हो गई थी। पुलिस को रिपोर्ट कराई गई थी। लेकिन बावजूद इस के कि वह खुद एक पुलिस अफसर थी उसे यह पता नहीं लग पा रहा था कि पुलिस ने इस मामले में क्या किया है और क्या कर रही है?
फिर दिल्ली के ही किसी एक स्थान पर एक चैनल के परोपकारी पत्रकारों ने एक नाबालिग लड़की को किसी देहव्यापार अड़्डे से छुड़ाया था। पुलिस को सूचना थी लेकिन वह समय पर नहीं पहुँच सकी। इस काम में पत्रकारों को बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी। पुलिस पहुँची भी तो तब जब कि काम पूरा हो चुका था, बिलकुल फिल्मी स्टाइल में। पुलिस की देरी से पहुँचने की वजह अवश्य पता नहीं लगी। लेकिन जब उस की कहीं आवश्यकता थी तब वह क्या कर रही थी? इसी खबर के साथ चैनल पर पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी भी टिप्पणी करने के लिए मौजूद थीं। वे कह रही थीं कि यह काम पुलिस की प्राथमिकता में नहीं था। यदि होता तो पत्रकारों के पहले पुलिस वहाँ होती और निश्चित रूप से वह अड्डा सील कर दिया गया होता।
ब हम ये देखने की कोशिश करें कि पुलिस आखिर कहाँ थी। निश्चित रुप से उत्तरप्रदेश की पुलिस तो मायावती जी के किसी फरमान को बजा ला रही होगी। फरमानों से फुरसत मिली होगी तो किसी न किसी वीआईपी की सुरक्षा में रही होगी। यह भी हो सकता है कि इन दोनों कामों के स्थान पर किसी तीसरे काम में उलझी हो और अपनी ही पुलिस इंस्पेक्टर की खोई हुई बेटी की तलाश के लिए समय ही नहीं मिला हो। वैसे भी पुलिस के लिए यह काम सब से अंतिम प्राथमिकता का रहा होगा। इंसपेक्टर के पद तक के लोग ही तो हैं जो कुछ काम करते हैं। उस के बाद के तो सभी अफसर हैं। पहले अफसरों के हुक्म बजा लिए जाएँ तभी तो उन्हें कोई काम करने की फुरसत हो। अब एक सब इंस्पेक्टर की बेटी के मामले में काहे की प्राथमिकता?
दिल्ली पुलिस को तो इन दिनों वैसे भी फुरसत कहाँ है। बरसात के मारे जाम लग रहे हैं उन्हें हटाना है। कॉमनवेल्थ खेलों के लिए दिल्ली वालों को बहुत कुछ सिखाना है। वीआईपी सुरक्षा का काम दिल्ली के लिए छोटा-मोटा नहीं है। फिर वैसे ही थानों में अपराध कम दर्ज नहीं होते, आखिर उन से भी निपटना पड़ता है। अब ऐसे में कोई बुद्धू पुलिस अफसर ही होगा जो देहव्यापार के अड्डे पर किसी नाबालिग को छुड़ाने जैसे अपकारी काम में पड़ेगा। फिर इस के अलावा और भी तो काम हैं, पुलिस के पास।
क व्यक्ति ने अपने छोटे भाई के नाम से प्लाट खरीद लिया। भाई बड़ा हुआ तो प्लाट पर अपना अधिकार जताने लगा। भाई को  रुपया दे कर प्लाट अपनी पत्नी के नाम करवाया। अब छोटे भाई को फिर पैसों की जरूरत है। वह पैसा मांगता है। नहीं देने पर उस ने अदालत में शिकायत कर दी कि उस के भाई ने फर्जी कागज बनवा कर प्लाट हड़प लिया है। अदालत ने भाई के बयान ले कर मामला पुलिस जाँच के लिए भिजवा दिया। पुलिस को सिर्फ जाँच कर के रिपोर्ट अदालत को देनी है। पर पुलिस का जाँच अधिकारी एक दिन तो बड़े भाई को दिन भर थाने में बिठा चुका है। सुझाव दिया है कि वह आधा प्लाट भाई के नाम कर दे और बीस हजार पुलिस अफसर को दे दे तो वह उसे छोड़ देगा। वह रुपयों का इंतजाम करने के बहाने थाने से छूटा और गिरफ्तारी के भय से शहर छोड़ गया। पुलिस थाने से उस की पत्नी को फोन आ रहा है कि उसे थाने भेज दो वर्ना तुम्हें घसीटता हुआ थाने ले आऊंगा। अब बोलिए इस महत्वपूर्ण काम को छोड़ कर कौन पुलिस अफसर देहव्यापार अड्डे पर जाएगा।  
फिर इलाके में आठ-दस नौजवान ऐसे भी हैं जो गलती से तैश में आ कर किसी के साथ मारपीट करने की गलती कर चुके हैं। एक बार पुलिस और अदालत के चंगुल में फँसे तो पनाह मांग गए। उन में से कई तो इलाका छोड़ गए और चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमाने में लगे हैं। अब पुलिस को यह कैसे बरदाश्त हो कि एक बार उन के चंगुल में जो व्यक्ति फँस जाए और फिर भी चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमा ले। यदा कदा उन्हें तलाश कर के उन्हें तड़ी मारनी पड़ती है, बिना नाम की एफआईआर दर्ज हुई है। हुलिया तेरे मिलता है। तीन हजार पहुँचा देना वर्ना अंदर कर दूंगा।
ई गाड़ी खरीदी, पूजा-शूजा करा के गाड़ी चलाना आरंभ किया। रजिस्ट्रेशन विभाग से नंबर मिले तो अस्थाई प्लेट उतरवा कर उसे नंबर लिखवाने डाला। तीन घंटे में प्लेट लग जाती। गाड़ी वाले ने सोचा तब तक एक दो काम निपटा लूँ। गाड़ी थाने के सामने से निकली तो रोक ली गई। हिदायत मिली, -नई गाड़ी ली और बिना पूजा के  चलाने भी लगे, नंबर प्लेट भी नहीं लगाई। गाड़ी वाले ने कहा पूजा तो करवा ली, तो सुनने को मिला -मंदिर में करवाई होगी। इधर थाने का क्या? पाँच लाख की गाड़ी है, पाँच हजार पूजा के ले कर आ तब गाड़ी मिलेगी। वरना यहीं खड़ी है थाने पर। 
ब आप ही बताइये पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि देहव्यापार के अड्डे से नाबालिग लड़की छुड़वाए और सब इंस्पेक्टर की लड़की को तलाश करे।

बुधवार, 16 जून 2010

हिन्दी ब्लागीर पर हिंसक हमला, पुलिस और विधायक गुंडो के साथ

क इंजिनियर पाँच वर्ष पूर्व कंप्यूटर ले कर अपने गाँव जा बसा। इस लक्ष्य को ले कर कि वह अपने गाँव को बदलने से अपने अभियान को आरंभ करेगा। कंप्यूटर के उपयोग से पहली समस्या आरंभ हुई। गाँव में वैध बिजली कनेक्शन नाम के थे। नतीजा ये कि वोल्टता 230 के स्थान पर 50 से 100  ही रहती थी। इस वोल्टता पर तो कंप्यूटर काम नहीं कर सकता था। उन्हों ने बिजली विभाग से अपना काम आरंभ किया। बिजली विभाग चेता तो उस ने गाँव में बहुत लोगों के अवैध कनेक्शनों को हटाया, उन के विरुद्ध कार्यवाही की। नतीजा यह कि गाँव में बिजली की वोल्टता का संकट सुलझा। लेकिन जिन लोगों को वैध कनेक्शन हटाने पड़े वे शत्रु हो गए। गाँव में वोल्टता में सुधार के कारण बहुत से लोग इस इंजिनियर के समर्थक भी बने। इन इंजिनियर साहब ने गाँव में अन्य सुधार के काम भी किए। 
गाँव में गुंडों की एक गेंग भी है, जिसे ये सुधार के काम परेशान करते हैं। ये ही वे लोग हैं जो गाँव की पंचायत चुनाव में हावी रहते हैं और किसी भी तरह से पंचायत पर कब्जा कर लेते हैं। इंजिनियर के कामों से गाँव के लोगों में यह चर्चा हुई कि इस बार प्रधान उन्हें बनाया जाए। इंजिनियर साहब तैयार भी हो गए और गाँव वालों ने कानों-कान उन का प्रचार भी आरंभ कर दिया। खुद इंजिनियर साहब के मुताबिक गाँव के सत्तर प्रतिशत लोग उन्हें प्रधान बनाना चाहते हैं। इस आलम को देख कर गुंडा गेंग परेशान हो उठी। उस ने इंजिनियर साहब को परेशान करना आरंभ कर दिया, जिस से वे गाँव छोड़ दें। जब साधारण कार्यवाहियों से काम न चला तो गुंडों ने इन पर हमला कर दिया। ये पुलिस के पास पहुँचे, गाँव के लोगों का प्रतिनिधि मंडल ले कर भी मिले।  लेकिन पुलिस ने कार्यवाही नहीं की। कारण कि गुंडों की गेंग के पुलिस से गहरे रिश्ते हैं और क्षेत्र के विधायक से भी। खुद विधायक ने इन के मामले में कार्यवाही न करने का निर्देश पुलिस को दे दिया है।
इस तरह एक बहुत छोटे स्तर पर व्यवस्था में परिवर्तन की कोशिश पर भी व्यवस्था ने (गुंडे, पुलिस और राजनेता) सीधे हिंसा का प्रयोग किया है। इस का प्रतिरोध आवश्यक है। इस के लिए इंजिनियर साहब को गाँव के सुधार और विकास के समर्थकों को संगठित करना पड़ेगा, हिंसा का मुकाबला करने के लिए भी तैयार करना पड़ेगा।
ये इंजिनियर साहब और कोई नहीं, हिन्दी ब्लाग मेरा गाँव मेरा देश के ब्लागीर राम बंसल हैं, आप उन की आप बीती जानने के लिए उन के ब्लाग की ताजा पोस्ट  गुंडागर्दी और पुलिस की लापरवाही पर जा कर पढ़ सकते हैं। मेरा मानना है कि समाज में राम बंसल जी के सकारात्मक प्रयासों के कारण उन पर हुए इन हिंसक हमलों के विरुद्ध तमाम हिन्दी ब्लागीरों को समुचित कार्यवाही करनी चाहिए। कम से कम इलाके के पुलिस अधीक्षक को इस घटना के अपराधियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए ई-मेल करना चाहिए साथ ही राम बंसल जी को सुरक्षा प्रदान करने की मांग भी करनी चाहिए।

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...

दीपावली की शुभकामनाओं से मेल-बॉक्स भरा पड़ा है, मोबाइल में आने वाले संदेशों का  कक्ष कब का भर चुका है, बहुत से संदेश बाहर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। कल हर ब्लाग पर दीपावली की शुभकामनाएँ थीं। ब्लाग ही क्यों? शायद कहीं कोई माध्यम ऐसा न था जो इन शुभकामनाओं से भरा न पड़ा हो। दीवाली हो, होली हो, जन्मदिन हो, त्योहार हो या कोई और अवसर शुभकामनाएँ बरसती हैं, और इस कदर बरसती हैं कि शायद लेने वाले में उन्हें झेलने का माद्दा ही न बचा हो।  कभी लगता है हम कितने औपचारिक हो गए हैं? एक शुभकामना संदेश उछाल कर खुश हो लेते हैं और शायद अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।

हम अगले साल के लिए शुभकामनाएँ दे-ले रहे हैं। हम पिछले सालों को देख चुके हैं। जरा आने वाले साल का अनुमान भी कर लें। यह वर्ष सूखे का वर्ष है। बाजार ने इसे भांप लिया है। आम जरूरत की तमाम चीजें महंगी हैं।  पहले सब्जी वाला आता था और हम बिना भाव तय किए उस से सब्जियाँ तुलवा लेते थे। भाव कभी पूछा नहीं। ली हुई सब्जियों की कीमत अनुमान से अधिक निकलने पर ही सब्जियों का भाव पूछते थे। अब पहले सब्जियों का भाव पूछते हैं। किराने की दुकान पर हर बार भाव पूछ कर सामान तुलवाना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो सामान की कीमत बजट से बाहर हो जाए। गृहणियों की मुसीबत हो गई है, कैसे रसोई चलाएँ? कहाँ कतरब्योंत करें?

जिन्दगी जीने का खर्च बढ़ गया, दूसरी ओर बहुतों की नौकरियाँ छिन गई हैं। दीवाली के ठीक एक दिन पहले एक दवा कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर मेरे यहाँ आए और उसी दिन मिला सेवा समाप्त होने का आदेश दिखाया। आदेश में कोई कारण नहीं था बल्कि नियुक्ति पत्र की उस शर्त का उल्लेख था जिस में कहा गया था कि एक माह का नोटिस दे कर या एक माह का वेतन दे कर उन्हें सेवा से पृथक किया जा सकता है। उन की सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी गई थीं और एक माह का वेतन भी नहीं दिया गया था। उन की दीवाली?

जो कर रहे थे, उन की नौकरियाँ जा चुकी हैं, जो कर रहे हैं उन पर दबाव है कि वे आठ घंटे की नियत अवधि से कम से कम दो-चार घंटे और काम करें। अनेक कंपनियों ने नौकरी जाने की संभावना के प्रदर्शन तले  अपने कर्मचारियों की पगारें कम कर दी हैं। जो नौजवान नौकरियों की तलाश में हैं वे कहाँ कहाँ नहीं भटक रहे हैं। उन्हें धोखा देने को अनेक प्लेसमेंट ऐजेंसियाँ खरपतवार की तरह उग आई हैं। उद्योगों में लोगों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम दर से भी कम पर काम लिए जा रहे हैं।  कामगारों की कोई पहचान नहीं है, उद्योग के किसी रजिस्टर में उन का नाम नहीं है।  उन की हालत पालतू जानवरों से भी बदतर है। पहले बैल हुआ करते थे जो खेती में हल पर और तेली के कोल्हू में जोते जाते थे। उन के चारे-पानी और आराम का ख्याल मालिक किया करता था। आज इन्सानों से काम लेने वाले उन के मालिक उस जिम्मेदारी से भी बरी हैं। कहने को श्रम कानून बनाए गए हैं और श्रम विभाग भी। लेकिन वे किस के लिए काम करते हैं, यह दुनिया जानती है। उन का काम कानूनों को लागू कराना न हो कर केवल अपने आकाओं की जेबें भरना और सरकार में बैठे राजनीतिज्ञों के अगले चुनाव का खर्च निकालना भर रह गया है।  सरकार बदलने के बाद पूरे विभाग के कर्मचारियों के स्थानांतरण हो गए और छह माह बीतते बीतते सब वापस अपने मुकाम पर आ गए। इस बीच किस की जेब में क्या पहुँचा? यह सब जानते हैं।  जितने विधायक और सांसद जनता ने चुन कर भेजे हैं वे सब उन की चाकरी बजा रहे हैं जिन ने उन के लिए चुनाव का खर्च जुटाया था और अगले चुनाव का जुटा रहे हैं। जब चुनाव नजदीक आएंगे तो वे फिर जनता-राग गाने लगेंगे।

सरकार से जनता स्कूल मांगती है तो पैसा नहीं है, अस्पताल मांगती है तो पैसा नहीं है, वह अदालतें मांगती है तो पैसा नहीं है। सुरक्षा के लिए पुलिस-गश्त मांगती है तो पैसा नहीं है।  चलने को सड़क मांगती है तो पैसा नहीं है।  सरकार का पैसा कहाँ गया? और जो सरकारें पुलिस, अदालत और रक्षा जैसे संप्रभु कार्यों के लिए पैसा नहीं जुटा सकती उसे सरकारें बने रहने का अधिकार रह गया है क्या?  मजदूर न्यूनतम वेतन, हाजरी कार्ड और स्वास्थ्य बीमा मांगते हैं तो वे विद्रोही हैं, नक्सल हैं, माओवादी हैं।  यह खेल आज से नहीं बरसों से चल रहा है।  शांति भंग की धाराओं में बंद करने के बाद उस की जमानत लेने से इंन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट जो सरकार की मशीनरी का अभिन्न अंग है जमानती की हैसियत पर उंगली उठा सकता है। उस का प्रमाणपत्र मांगता है जिसे उसी का एक अधीनस्थ अफसर जारी करेगा।  जब तक चाहो इन्हें जेल में रख लो। अब एक बहाना और नक्सलवादियों/माओवादियों ने नौकरशाहों को दे दिया है। किसी भी जनतांत्रिक, कानूनी  और अपने मूल अधिकार के लिए लड़ने वाले को नक्सल और माओवादी बताओ और जब तक चाहो बंद करो।  झंझट खत्म, और साथ में नक्सलवाद/माओवाद पर सफलता के आंकड़े भी तैयार। सत्ता खुद तो इन नक्सल और माओवादियों से नहीं लड़ पाई। अब जिसे अपने अधिकार पाने हों वही इन से भी लड़े।  नक्सलवाद /माओवाद जनविरोधी सरकारों के लिए बचाव और दमन के हथियार हो गए हैं।  विश्वव्यापी आर्थिक मंदी अभी तलवार हाथ में लिए मैदान में नंगा नाच रही है। उस की चपेट में सब से अधिक आया है तो वह आदमी जो मेहनत कर के अपनी रोजी कमा रहा है। चाहे उस ने सफेद कॉलर की कमीज पहनी हो, सूट पहन टाई बांधी हो या केवल एक पंजा लपेटे परिवार के शाम के भोजन के लिए मजदूरी कर रहा हो।

आने वाला साल मेहनत कर रोजी कमाने वालों और उन पर निर्भर प्रोफेशनलों के लिए सब से अधिक गंभीर होगा।  जीवन और जीवन के स्तर को कैसे बचाया जाए? इस के लिए उन्हें निरंतर जद्दोजहद करनी होगी।  न जाने कितने लोग अपने जीवन और जीवन स्तर को खो बैठेंगे? इसी सोच के साथ इस दीवाली पर तीन दिन से घर हूँ, कहीं जाने का मन न हुआ। यहाँ तक कि ब्लागिरी के इस चबूतरे पर भी गिनी चुनी टिप्पणियों के सिवा कुछ भी अंकित नहीं किया। मुझे लगा कि शुभकामनाएँ, जो इतने इफरात से उछाली-लपकी जा रही हैं, उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है।  हिन्दी ब्लागिरी में मौजूद सभी लोगों को इस की जरूरत है।  आनेवाले वक्त  में संबल बनाए रखने के लिए बहुतों को इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी, उन्हें सहेज कर क्यों न  रखा जाए। 

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आत्म केंद्रीयता और स्वार्थ

शनिवार को  अत्यावश्यक कार्य करते हुए रविवार के दो बज गए, सोए थे कि बेटे को स्टेशन छोड़ने जाने के लिए पाँच बजे ही उठना पडा़। अब ढाई घंटे की नींद भी कोई नींद है। सात बजे वापस लौटे तो नींद नहीं आई। नेट पर कुछ पढ़ते रहे। आठ बजे सुबह सोने गए तो दस बजे टेलीफोन ने जगा लिया। महेन्द्र नेह का फोन था। पाण्डे जी का एक्सीडेंट हो गया है हम पुलिस स्टेशन में हैं रिपोर्ट लिखा दी है, पुलिस वाले धाराएँ सही नहीं लगा रहे हैं, आप आ जाओ। जाना पड़ा। पुलिस स्टेशन पर उपस्थित अधिकारी परिचित था। मैं ने कहा 336 कैसे लगा रहे हैं भाई 338 लगाओ। रस्सा गले में फाँसी बन गया होता तो पाण्डे जी का कल्याण ही हो गया था। अधिकारी ने कहा 337 लगा दिया है। अब अन्वेषण में प्रकट हुआ तो 338 भी लगा देंगे। मैं बाहर आया तो वहाँ एक परिचित कहने लगा -राजीनामा करवा दो। मैं ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया पुलिस अधिकारी ने रपट पर पाण्डे जी के हस्ताक्षर करवा कर उन्हें चोट परीक्षण के लिए अस्पताल भिजवा दिया। थाने के बाहर ही मोटर का वहाँ परिचित फिर मिला और कहने लगा ड्राइवर मेरा भाई है राजीनामा करवा दो, भाई और मालिक दोनों को ले आया हूँ। इन लोगों में से एक ने भी अब तक यह नहीं पूछा था कि दुर्घटना में घायल को कितनी चोट लगी है। मालिक के पास कार थी। लेकिन पाण्डे जी को पुलिसमेन उन की मोटर सायकिल पर ही बिठा कर अस्पताल ले गया। बस मालिक ने यह भी नहीं कहा कि मेरी कार में ले चलता हूँ। 

मुझे गुस्सा आ गया। मैं ने तीनों को आड़े हाथों लिया। "तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम राजीनामे की बातें करते हो, तुमने पाण्डे जी से पूछा कि उन को कितनी लगी है? तुमने तो उन्हें अस्पताल तक ले जाने की भी न पूछी, किस मुहँ से राजीनामे की बात करते हो?

घटना वास्तव में अजीब थी। पाण्डे जी मोटर सायकिल से जा रहे थे। पास से बस ने ओवर टेक किया और उस में से एक रस्सा जिस का सिरा बस की छत पर बंधा था गिरा और उस ने पांडे जी की गर्दन और मोटर सायकिल को लपेट लिया। पांडे जी घिसटते हुए दूर तक चले गए। कुछ संयोग से और कुछ पांडे जी के प्रयत्नों से रस्सा गर्दन से खुल गया। वरना फाँसी लगने में कोई कसर न थी। पांडे जी के छूटने के बाद भी रस्सा करीब सौ मीटर तक मोटर सायकिल को घसीटते ले गया। पांडे जी का शरीर सर से पैर तक घायल हो गया। 

मैं जानता हूँ। उन्हें कोई गंभीर चोट नहीं है। पैर में फ्रेक्चर हो सकता है लेकिन उस की रिपोर्ट तो डाक्टर के  एक्स-रे पढ़ने पर आएगी। आईपीसी की धारा 279 और 337 का मामला बनेगा, जो पुलिस बना ही चुकी है। एक में अधिकतम छह माह की सजा और एक हजार रुपए का जुर्माना और दूसरी धारा में छह माह की सजा और पाँच सौ रुपया जुर्माना है। दोनों अपराध राज्य के विरुद्ध अपराध हैं।  राजीनामा संभव नहीं है। यह ड्राइवर जानता था  और इसीलिए ड्राइवर मुकदमा दर्ज होने के पहले ही राजीनामा करने पर अड़ा था। उसे अपने मुकदमे की तो चिंता थी, लेकिन यह फिक्र न थी कि घायल को कितनी चोट लगी है। 

दूसरी ओर बस का मालिक निश्चिंत खड़ा था उस पर कोई असर नहीं था। वह जानता था कि उसे सिर्फ पुलिस द्वारा जब्त बस को छुड़वाना है जिसे उस का स्थाई वकील किसी तरह छुड़वा ही लेगा। ड्राइवर पेशी करे या उसे सजा हो जाए तो इस से उसे क्या? वह तब तक ही उसे मुकदमा लड़ने का खर्च देगा जब तक ड्राइवर उस की नौकरी में है। बाद में उस की वह जाने। आज के युग ने व्यक्ति को कितना आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना दिया है।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

भौतिक परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं।

कल मैं ने आप को बताया था कि कैसे तीन दिन चौड़ी पट्टी बंद रही और वह समय आकस्मिक रूप से घटी दुर्घटनाओं ने लील लिया।  हम कुछ विशेष करने का कितना ही विचार करें लेकिन उन का सफल हो पाना सदैव भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कल जिस मित्र के साथ दुर्घटना हुई थी। मैं रात्रि को उन से मिलने के लिए अस्पताल पहुँचा तो वे एक्स-रे के लिए गई हुई थीं। लगभग पूरे शरीर का एक्स-रे किया गया। शुक्र है कि  सभी अस्थियाँ बिलकुल सही पाई गईं। सिर पर कुछ टाँके आए। लेकिन शरीर पर अनेक स्थानों पर सूजन थी।  मित्र ने बताया कि दुर्घटना की सूचना पुलिस को देना है। पत्नी को पहले चिकित्सा के लिए लाना आवश्यक था इस कारण से नहीं कराई जा सकी।  लेकिन रात्रि को दस बजे घायल पत्नी को छोड़ रिपोर्ट दर्ज कराने जाना संभव नहीं था। मैं ने बताया कि संबंधित पुलिस थाना को मैं सूचना कर दूंगा। 

मित्र परिवार सहित कार से बाराँ जा रहा था। कोटा से सात-आठ किलोमीटर दूर ही गए होंगे कि सामने से एक ऑटोरिक्षा आया और वह बाएँ जाने के स्थान पर दाहिनी ओर जाने लगा।  मित्र को वाहन और बाएँ लेने के लिए स्थान नहीं था। दुर्घटना बचाने के लिए उन्हें कार को दाएँ लाना पड़ा तब तक शायद ऑटो रिक्षा को स्मरण हुआ होगा कि उसे तो बाएँ जाना था। उस ने उसे बाएँ किया और कार को सीधे टक्कर मार दी। ऑटोरिक्षा तीन बार उलट गया। चालक को भी चोट लगी। लेकिन वह शराब के नशे में था उस ने अपना ऑटो-रिक्षा सीधा किया और स्टार्ट कर चल दिया।  मित्र की कार बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी थी। उन्हों ने किसी दूसरी कार से लिफ्ट लेकर पत्नी को अस्पताल पहुँचाया।  बीमा कंपनी ने कार को मौके से उठवा कर अपने रिपेयर के यहाँ पहुँचा दिया।  मैं ने अस्पताल से घर पहुँच कर पुलिस थाना का मेल पता तलाश किया लेकिन नहीं मिला। लेकिन पुलिस कंट्रोल रूम और पुलिस अधीक्षक का ई-मेल पता मिल गया। तुरंत उन्हें दुर्घटना की सूचना भेजी, जिस में मित्र का मोबाइल नंबर दे दिया। सुबह मित्र के पास पुलिस थाने से फोन आया कि वे दुर्घटना की प्राथमिकी पर थाने आ कर हस्ताक्षर कर जाएँ।

इस तरह की बहुत शिकायत आती है कि पुलिस अपराध की रिपोर्ट दर्ज नहीं करती है। इस का आसान तरीका यह है कि संबंधित पुलिस थाने को या पुलिस कंट्रोल रूम या पुलिस एसपी को वह ई-मेल के माध्यम  से भेज दी जाए। उस पर कार्यवाही जरूर होती है। आप के पास ई-मेल की साक्ष्य रहती है कि आप ने रिपोर्ट पुलिस को यथाशीघ्र दे दी थी।  भारतीय कानून में अब इलेक्ट्रोनिक दस्तावेज साक्ष्य में ग्राह्य हैं। ई-मेल के पते सर्च कर के पता किए जा सकते हैं। भारत में सब राज्यों की पुलिस की वेबसाइट्स हैं जिन पर कम से कम एसपी और कंट्रोलरुम के ई-पते सर्च करने पर मिल जाते हैं।

आज दोपहर बाद मित्र की पत्नी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई। वे घर आ गईं।  शाम को मैं और मित्र पुलिस थाने पहुँचे। थानाधिकारी ने अत्यन्त सज्जनता का व्यवहार किया। रिपोर्ट दर्ज की लेकिन अस्पताल की आलोचना की कि उन्हों ने दुर्घटना के घायल के अस्पताल में दाखिल करने की सूचना पुलिस थाने को नहीं दी। यदि यह सूचना उन्हें मिल जाती तो रात्रि को ही थाने का एक हेड कांस्टेबल जा कर रिपोर्ट दर्ज कर लेता। रिपोर्ट करवा कर मित्र को उन के घर छोड़ा।  रात्रि दस बजे मैं पत्नी के साथ घर पहुँचा तो दूध लाने का स्मरण हो आया। मै ने अपनी कार वहीं से मोड़ ली और दूध की दुकान का रुख किया। मैं दूध की दुकान से कोई दस मीटर दूर था, कार की गति कोई दस किलोमीटर प्रतिघंटा थी,  उसे दस मीटर बाद रोकना था।  बायीं और से अचानक एक मोटर साइकिल तेज गति से आयी और मेरी कार के आगे के बाएं दरवाजे पर जोर से टकराई। इसी दरवाजे के पीछे कार में पत्नी शोभा थी। शुक्र है उसे किसी तरह की चोट नहीं आई।  लेकिन बायाँ दरवाजे का निचला हिस्सा बुरी तरह अंदर बैठ गया उस में कुछ छेद हो गए।  टक्कर मारने वाली मोटर साइकिल पर तीन सवार थे।  वे गिर गए। उन्हें चोटें भी लगीं।  एक को अधिक चोट लगी होगी।  सब से पहले दूध वाला दौड़ कर  आया, आस पास के सारे दुकानदार और अन्य लोग भी एकत्र हो गए।  मैं नीचे उतरा, लेकिन इस से पहले कि कोई मोटर साइकिल का नंबर नोट कर पाता।  उस के सवार तुरंत मोटर साइकिल पर बैठ भाग छूटे।


मैंने दुकान से दूध लिया और कार से अपने घर पहुँचा। कार को कल वर्कशॉप भेजना पड़ेगा।  लेकिन घर आ कर विचार आया कि पुलिस को सूचित करना चाहिए।  अन्यथा मोटर साइकिल सवार यदि पुलिस थाना पहुँच कर रिपोर्ट लिखाएंगे तो दोष उन का होते हुए भी मुझे दोषी ठहराया जा सकता है।  मैं ने तुरंत टेलीफोन से पुलिस थाने को दुर्घटना की सूचना दी और उन्हें बताया कि मोटर सायकिल चालक को तलाश कर पाना असंभव है, यदि वह खुद ही पुलिस थाने न आ जाए।  उन्हों ने बताया कि यदि वे थाने आए तो वे उन की रिपोर्ट दर्ज करने के पहले मुझे बुलवा भेजेंगे।  मैं ने राहत की साँस ली।  आज बहुत काम करना था, कल के मुकदमों की तैयारी करनी थी।   लेकिन सब छूट गया, केवल वही तैयारी कल काम आएगी जो पहले से उन मुकदमों में की हुई है।  सही है, भौतिक परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं।


शनिवार, 14 मार्च 2009

बालिकाओं से बलात्कार की शर्मनाक घटनाएँ और नागरिकों की सकारात्मक भूमिका।

मेरे नगर कोटा में धुलेंडी की रात को घटी दो बहुत शर्मनाक घटनाएँ सामने आईं।  दोनों बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ।  नगर के कैथूनीपोल थाना क्षेत्र के कोलीपाडा इलाके में बुधवार को एक अधेड ने सात वर्षीय बालिका के साथ बलात्कार किया।  लेकिन पुलिस ने अभियुक्त को शांतिभंग के आरोप में गिरफ्तार किया जिस से  गुरूवार को उसकी जमानत हो गई।   अभियुक्त ने गुरूवार को पीडिता के परिजनों को धमकाया।   इससे लोगों का आक्रोश फूट पडा और उन्होंने महिला संरक्षण समिति की अध्यक्ष संगीता माहेश्वरी के नेतृत्व में थाने में प्रदर्शन किया।  बाद में पुलिस द्वारा बलात्कार मामला दर्ज करने पर ही लोग शांत हुए।
दूसरी घटना रेलवे कॉलोनी थाना क्षेत्र में हुई जिस में एक ठेकेदार ने उस के यहाँ नियोजित श्रमिक की नाबालिग पुत्री का अपहरण कर बलात्कार किया।  अर्जुनपुरा के पास बारां रोड पर एक ठेकेदार ने सडक का पेटी ठेका ले रखा है।  एक श्रमिक दम्पती अपनी नाबालिग पुत्री के साथ ठेकेदार के पास रहकर मजदूरी करते हैं।  बुधवार रात ठेकेदार श्रमिक की नाबालिग पुत्री को बहला-फुसलाकर भगा ले गया।  पुलिस को जब घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने उसकी खोज शुरू की।  इस बीच श्रमिक व उसके साथी ठेकेदार को तलाशते हुए बून्दी जिले के इन्द्रगढ के केशवपुरा गांव पहुंच गए।  गांव में ठेकेदार के छिपे होने की जानकारी पर लोगों ने गांव को घेर लिया।  ठेकेदार एक घर में किशोरी के साथ छिपा मिला जिसे लोगों ने पुलिस को सौंप दिया।  किशोरी की शिकायत पर पुलिस ने धारा 303, 366 व 376 में मामला दर्ज कर लिया।

ये दोनों घटनाएँ बहुत शर्मनाक हैं और दोनों ही घटनाओं में बालिकाएँ कमजोर वर्गों से आती हैं।  लेकिन इन दोनों घटनाओं में नागरिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  पुलिस की भूमिका पहली घटना में अपराधी को बचाने और मामले को रफा-दफा करने की रही लेकिन नागरिकों की सजगता और तीव्र प्रतिक्रिया ने पुलिस को कार्यवाही करने को बाध्य. कर दिया।  दूसरी घटना में भी नागरिकों ने खुद कार्यवाही कर अभियुक्त को पकड़ लिया और बालिका को उस के पंजों से छुटकारा दिलाया।  नागरिक इस तरह जिम्मेदारी उठाने लगें तो समाज में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल सकता है।   वे सभी नागरिक अभिनन्दनीय हैं जिन्हों ने इन दोनों घटनाओं में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा की है।   इन दोनों घटनाओं की आगे की कड़ियों पर भी नागरिक नजर रखेंगे तो अपराधी बच नहीं पाएँगे।